नींद का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है

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यह लेख Syeda Salma Fathima द्वारा लिखा गया है। जो प्रौद्योगिकी कानून, फिनटेक विनियम और प्रौद्योगिकी अनुबंध में डिप्लोमा कर रही है,और  संपादित Shashwat Kaushik के द्वारा किया गया है । इस लेख का प्रमुख उद्देश्य मौलिक अधिकार के रूप में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के महत्व और व्यक्तिगत भलाई और सामाजिक प्रगति के लिए इसके निहितार्थ(इम्प्लीकेशन) पर कुछ प्रकाश डालना है। इसका अनुवाद Pradyumn singh ने किया है । 

परिचय 

नींद सृष्टिकर्ता (क्रीऐटर) द्वारा मानव जाति को दिए गए सबसे महान उपहारों में से एक है। सामान्य तौर पर मानव शरीर को आराम की आवश्यकता होती है, और नींद वह शांति और ताकत प्रदान करती है क्योंकि यह तनाव और कमजोरी को दूर करती है और शरीर की स्व-मरम्मत तंत्र में मदद करती है। नींद हमेशा शांति लाती है; रात में पर्याप्त नींद शारीरिक स्वास्थ्य और भावनात्मक कल्याण को बढ़ावा देती है,और कुल मिलाकर, जीवन की गुणवत्ता प्रदान करती है। नींद, मानव अस्तित्व के लिए एक बुनियादी आवश्यकता होने के नाते, जीवन का अभिन्न अंग है। नींद की कमी से एकाग्रता की कमी हो जाती है और इससे व्यक्ति की कार्यक्षमता कम हो जाती है। नींद, एक मूलभूत आवश्यकता होने के नाते, समाज की भलाई के लिए संरक्षित की जाएगी, क्योंकि नींद में व्यवधान वास्तव में देश की अर्थव्यवस्था में व्यवधान है। यदि नागरिकों के अधिकारों पर ध्यान नहीं दिया गया तो कोई प्रगति और विकास नहीं होगा। स्वस्थ जीवन से ही महान उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 21 ‘जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार’ का दायरा बढ़ाते हुए गहरी नींद के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किया। 

नींद की कमी पर शोध

अमेरिकन केमिकल सोसायटी के जर्नल ऑफ प्रोटेम रिसर्च में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार नींद की कमी से मस्तिष्क के सुरक्षात्मक प्रोटीन में गिरावट आती है जिससे न्यूरॉन्स की मृत्यु हो जाती है। नींद की कमी न केवल व्यक्ति के मूड को प्रभावित करती है बल्कि मस्तिष्क के स्वास्थ्य पर भी गंभीर प्रभाव डालती है और पाचन संबंधी विकारों और न्यूरोसाइकाइट्रिक गड़बड़ी का खतरा भी बढ़ जाता है।

भारत में, हाल के वर्षों में, सोने के अधिकार ने महत्वपूर्ण ध्यान आकर्षित किया है, विशेष रूप से एक ऐतिहासिक मामले में पुनःरामलीला मैदान हादसा दिनांक. … बनाम गृह सचिव और अन्य। (2012), जब सरकार ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 का धारा 144 लागू करते हुए आधी रात के दौरान रामलीला मैदान में सो रहे प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर कर दिया, जिससे भगदड़ फैल गई। इस प्रकरण को  सर्वोच्च न्यायालय ने सुओ मोटो स्वयं खुद के हाथ में ले लिया, क्योंकि सोती हुई भीड़ को परेशान करना मौलिक अधिकार का उल्लंघन था। इस मामले ने सर्वोच्च न्यायालय ने नींद के महत्व पर प्रकाश डालते हुए एक रास्ता तैयार किया क्योंकि भारतीय संविधान में नींद के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दिया गया है। 

नींद का अधिकार भारतीय संविधान के भाग III में शामिल है, जो इस मौलिक अधिकार की पुष्टि और सुरक्षा करता है। मौलिक अधिकार, संविधान की मूल संरचना होने के कारण, इसमें संशोधन नहीं किया जा सकता है; मौलिक अधिकारों में किसी भी तरह की परिवर्तन संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन होगी। भारत में मौलिक अधिकार भारतीय नागरिकों और यहां तक ​​कि विदेशियों दोनों के लिए उपलब्ध हैं।

मौलिक अधिकार के रूप में नींद के अधिकार की पृष्ठभूमि

नींद के अधिकार का सार अनुच्छेद 21 से समझा जा सकता है। इसका दायरा बहुत व्यापक है; कानून द्वारा स्थापित प्रक्रियाओं के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा। अनुच्छेद 21 संविधान का एकमात्र ऐसा अनुच्छेद है जो संविधान बनने के बाद से कई बार व्याख्या की गया है। अनुच्छेद 21 में तीन तत्व हैं- जीवन, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और कानून द्वारा स्थापित प्रक्रियाएं।

कानून द्वारा स्थापित यह अवधारणा अमेरिकी संविधान से उधार लिया गया है। किसी भी व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता बिना कानून के उचित प्रक्रिया को अपनाएं। परन्तु भारत में, हम अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर की सिफारिश पर कानून द्वारा स्थापित वाक्यांश प्रक्रिया का उपयोग करते हैं, जो केवल प्रक्रियात्मक कानून और मनमानी कार्यकारी कार्रवाई पर केंद्रित है।

महत्वपूर्ण कानूनी मामले 

वर्ष 1978 तक हमें केवल मनमानी कार्यकारी कार्रवाई से ही सुरक्षा मिलती थी; फिर मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) मामले में अनुच्छेद 21 के दायरे को विस्तार से बताया गया और फिर व्यक्तिगत स्वतंत्रता की व्यापक परिभाषा पर विचार किया गया। इस प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाले किसी भी प्रक्रियात्मक कानून को तर्कसंगतता (रीजनेबिलिटी) की परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी और प्रक्रिया निष्पक्ष, उचित और तर्कसंगत होनी चाहिए। कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के व्यापक परिप्रेक्ष्य में आज तक अनुच्छेद 21 के तहत कई नए तत्वों को शामिल किया गया है, जैसे निजता, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि का अधिकार और अब सोने का अधिकार। आपातकाल के दौरान भी अनुच्छेद 21 को निलंबित नहीं किया जा सकता है। 1978 का 44वाँ संशोधन अधिनियम में यह घोषित किया गया कि किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा।

नींद  के अधिकार का दायरा

भारतीय संविधान में सोने का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के तहत मौलिक अधिकार के रूप में शामिल है; यह प्रदान करता है कि प्रत्येक नागरिक को एक सभ्य वातावरण, शांति से रहने का अधिकार, रात में सोने का अधिकार और अवकाश का अधिकार है। रात में शांतिपूर्ण माहौल में सोने के दूसरे के अधिकार का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता है क्योंकि सोने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में सीमित कर दिया गया है, यह पूर्ण अधिकार नहीं है; इसमें कुछ प्रतिबंध हैं। जैसे, अनुच्छेद 19, जिसमें भारत के नागरिकों के लिए विभिन्न स्वतंत्रताएं जैसे भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि शामिल हैं, पूर्ण अधिकार नहीं हैं; वे कुछ कानूनी उचित प्रतिबंधों से बंधे हैं।

सोने का अधिकार एक निहित अधिकार है; इसमें सोने की जगह, सोने का समय और सोने के तरीके जैसे कुछ प्रतिबंध हैं। कोई भी नागरिक अनुचित कार्य नहीं कर सकता, जैसे दिन में सोना, नग्न होकर सोना, सार्वजनिक स्थानों पर सोना आदि। जबकि दुनिया की अधिकांश कानूनी प्रणालियों में, सोने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता नहीं दी गई है; इसके बजाय, इसे अक्सर जीवन, स्वास्थ्य और कल्याण के अधिकार जैसे मानव अधिकारों और श्रम कानून के कानूनी ढांचे के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से संरक्षित किया जाता है। इसे स्वास्थ्य और सम्मान के अधिकार के रूप में सुरक्षित रखा गया है। भारत इस संवेदनशील विषय पर नज़र डालने वाला पहला देश है क्योंकि नींद जीवन की समग्र गुणवत्ता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

ऐतिहासिक मामले जिनके कारण नींद के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में पेश किया गया

सईद मकसूद अली बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य (2001)

सईद मकसूद अलि बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य  मामले में, कुछ हद तक, सोने के अधिकार की अप्रत्यक्ष रूप से व्याख्या की गई।

मामले के तथ्य

सईद मकसूद अली, एक हृदय रोगी, जिसका घर डॉ. बटालिया आई हॉस्पिटल, घंटाघर, जबलपुर के पास सिंधी धर्मशाला के किनारे स्थित था। धर्मशाला में कई धार्मिक आयोजन होते थे और इसे शादी-ब्याह व अन्य समारोहों के लिए किराये पर भी दिया जाता था। जिसमे तेज आवाज में संगीत बजाने के लिए लाउडस्पीकर का इस्तेमाल किया जाता था जिससे याचिकाकर्ता को परेशानी थी। पुलिस प्राधिकरण को विभिन्न शिकायतें की गईं, क्योंकि पुलिस को ध्वनि प्रदूषण के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों के खिलाफ उचित कार्रवाई करने का अधिकार पुलिस अधिनियम, 1861 के धारा 30 के तहत प्राप्त है, लेकिन इसके तहत कोई कार्रवाई नहीं की गई है। अतः मामला माननीय उच्च न्यायालय मध्य प्रदेश में दायर किया गया।

मामले में शामिल मुद्दे

 

याचिकाकर्ता ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 और 227 के तहत प्रतिवादी संख्या 7 के खिलाफ ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) नियम, 2000 के प्रावधानों के तहत लाउडस्पीकर और अन्य पब्लिक एड्रेस सिस्टम के उपयोग के लिए शिकायत दर्ज की है, जिससे उसको परेशानी हुई और सार्वजनिक शांति प्रभावित हुई। यह शिकायत इसलिए दर्ज किया गया क्योंकि अत्यधिक शोर उत्पन्न करना कानूनन अनुचित है और नागरिकों को संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अत्यधिक ध्वनि से सुरक्षा का अधिकार है। 

निर्णय

वर्ष 2017 में, उच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी “प्रत्येक नागरिक को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक सभ्य वातावरण में रहने का अधिकार है और रात में शांति से सोने का अधिकार है”।

रामलीला मैदान हादसा दिनांक. … बनाम गृह सचिव और अन्य (2012)

मामले के तथ्य

इस मामले मे रामलील मैदान को 1 जून से 20 जून 2011 तक योग प्रशिक्षण शिविर के लिए किराये पर दिया गया था, लेकिन 4 जून से बाबा रामदेव ने “भ्रष्टाचार विरोधी विधेयक” के समर्थन के आदर्श वाक्य के साथ अपनी भूख हड़ताल शुरू कर दी। भारत के विभिन्न हिस्सों से बहुत सारे योग शिविर में भाग लेने आए और अप्रत्याशित रूप से हड़ताल में शामिल हो गए। हड़ताल पर हजारों लोग थे,पर जो चल रहा था उससे पूरी तरह अनजान थे।

मामले में शामिल मुद्दे

जब बाबा रामदेव ने सरकार से बातचीत करने से इनकार कर दिया तो देर रात करीब 12:30 बजे पुलिस ने कारवाई करते हुए सोते हुए प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस के गोले छोड़े और अंधाधुंध लाठियां बरसायी। पुलिस ने सीआरपीसी की धारा 144 के लागू करते हुए आधी रात के दौरान रामलीला मैदान में सो रहे प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर कर दिया। जो किसी भी राज्य या क्षेत्र के कार्यकारी मजिस्ट्रेट को एक क्षेत्र में चार या अधिक लोगों के जमावड़े पर रोक लगाने के आदेश का दुरुपयोग करने का अधिकार देता है। इससे कई लोग घायल हो गए और यहां तक ​​कि एक व्यक्ति की मौत भी हो गई। सोती हुई भीड़ पर दिल्ली पुलिस की कार्रवाई उनके अधिकारों का उल्लंघन है। सोती हुई भीड़ के खिलाफ पुलिस की क्रूर कार्रवाई पर न्यायमूर्ति चौहान और न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार की  पीठ ने सुओं मोटों लिया तथा मामले की सुनवाई करने का फैसला किया। 

 निर्णय

न्यायालय ने निर्णय में अनुच्छेद 19(a), भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अनुच्छेद 19(b), बिना हथियार के शांतिपूर्वक इकट्ठा होने के अधिकार उल्लंघन को पाया। जस्टिस चौहान ने कहा, “नींद जीवन की मूलभूत बुनियादी आवश्यकता है।” यदि विषम समय में नींद में खलल पड़ता है, तो मन विचलित हो जाता है, और यह ऊर्जा असंतुलन और अपच के माध्यम से स्वास्थ्य चक्र को बाधित करता है और हृदय स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है। जिसके परिणामस्वरूप प्रतिकूल चयापचय (मेटाबोलिक) प्रभाव पड़ता है। अनुच्छेद 19 और 21 के तहत बल का क्रूर प्रयोग पूरी तरह से अनुचित था।

जस्टिस चौहान ने कहा  “किसी व्यक्ति को अचानक उत्तेजित करने से सदमा और सुन्नता का एहसास होता है; जो व्यक्ति नींद में है वह आधा मरा हुआ है; अचानक जागृति के दबाव के परिणामस्वरूप संवेदना लगभग शून्य हो जाती है, इसलिए इस तरह की कार्रवाई व्यक्ति के बुनियादी जीवन को प्रभावित करती है”। अमेरिकी अदालत के एक फैसले का हवाला देते हुए जस्टिस चौहान ने कहा कि प्रत्येक नागरिक को आराम करने, सोने, न सुनने और चुप रहने का अधिकार है। कानून के अधिकार के बिना, चाहे दिन हो या रात, दरवाजे खटखटाना पुलिस द्वारा निजता में घुसपैठ और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। बहुत सारे देशों ने पूरी तरह से रात का कर्फ्यू लगा दिया है, देर रात विमानों के लैंडिंग और उड़ानों दोनों  पर प्रतिबंध लगा दिया है क्योंकि नागरिकों को अच्छी नींद मे कोई बाधा न हो, अच्छी नींद अच्छे स्वास्थ्य से जुड़ी है, जो अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) का एक अविभाज्य (अनडिवाइडेड) पहलू है, यह भारतीय संविधान का एक अपरिहार्य (इंसेपरेबल) अधिकार है।

जस्टिस चौहान ने “यह स्पष्ट है कि निजता का अधिकार और सोने का अधिकार हमेशा सांस लेने, खाने, पीने, पलक झपकने आदि के अधिकार की तरह मौलिक अधिकारों के रूप में माना गया है।”

निष्कर्ष

गतिशील भारत में कानूनी प्रणाली की सर्वोच्चता राष्ट्र और उसके लोगों की भलाई के लिए नए प्रावधानों को शामिल करके अपने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा और सुरक्षा के लिए बदलती जरूरतों के अनुसार लगातार विकसित हो रही है। अनुच्छेद 21 का आयाम निरंतर नई सीमाओं की ओर बढ़ रहा है। नींद को मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार करते हुए, भारतीय संविधान ने एक बार फिर संविधान निर्माताओं की दूरदर्शिता को प्रदर्शित किया और साबित किया कि मानव जाति की गरिमा सुनिश्चित करने के लिए संविधान आवश्यक है।

संदर्भ 

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