मीडिया परीक्षण और समाज और न्यायपालिका पर इसका प्रभाव

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यह लेख Kruti Brahmbhatt द्वारा लिखा गया है और Shashwat Kaushik द्वारा संपादित किया गया है, जो लॉसिखो से इंटरनेशनल कॉन्ट्रैक्ट नेगोशिएशन, ड्राफ्टिंग एंड एनफोर्समेंट में डिप्लोमा कर रहे है। यह लेख मीडिया परीक्षणों और समाज, कानून और व्यक्तियों के विभिन्न पहलुओं पर उनके प्रभाव से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है।

परिचय

कई बार, मीडिया को किसी देश का चेहरा कहा जाता है, इसका कारण यह है कि यह एक लोकतांत्रिक देश में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिसका अर्थ है कि मीडिया किसी देश की वर्तमान और वास्तविक स्थिति का प्रतिनिधित्व करने और प्रतिबिंबित करने के लिए कितना स्वतंत्र है। इसका मतलब यह है कि इसे एक बड़ी जिम्मेदारी निभानी है। मीडिया का महत्वपूर्ण कर्तव्य बेरोक (अनफ़िल्टर्ड) सत्य को सूचित करना, प्रतिबिंबित करना और वितरित करना है।

हालाँकि, दुर्भाग्यवश, कई बार प्रथम आने की होड़ में तथ्यों को कमोबेश नजरअंदाज कर दिया जाता है। इसलिए मौजूदा हालात में मीडिया कितनी समझदारी से अपनी भूमिका निभाता है, इस पर विचार करना जरूरी है। कई मामलों में, हमने देखा है कि मीडिया किसी व्यक्ति या मामले का समानांतर (पैरलल) परीक्षण चलाता है, खासकर अगर यह किसी अभिनेता, राजनेता या सार्वजनिक व्यक्ति का मामला हो। इस तरह के समानांतर चलने वाले मीडिया परीक्षण समाज और कानूनों के कई अन्य पहलुओं को प्रभावित करते हैं।

सनसनीखेज (सेंसेशनलाइज्ड) कवरेज और सार्वजनिक जांच की विशेषता वाला मीडिया परीक्षण, आज के समाचार परिदृश्य का एक अभिन्न अंग बन गया है। जबकि मीडिया जनता को सूचित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, समाज और न्यायपालिका दोनों पर मीडिया परीक्षणों का प्रभाव नैतिकता, निष्पक्षता और कानून के शासन के बारे में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाता है।

मीडिया परीक्षण क्या होते हैं

हम समय-समय पर सामाजिक या अन्य प्रकार के मीडिया में कुछ न कुछ चर्चाएँ, बहसें और जाँच-पड़ताल होते देखते हैं।

आम तौर पर, किसी विशेष मामले का फैसला करने के लिए न्यायिक निकायों द्वारा मुकदमे चलाए जाते हैं। इसी तरह जब मीडिया न्यायालय के फैसले से पहले किसी भी तरह से ऐसे समानांतर परीक्षण चलाता है तो ऐसे परीक्षण को मीडिया परीक्षण कहा जाता है। यहां, मीडिया किसी जांच एजेंसी की तरह काम करता है और मामले को पूरी तरह से कवर करता है।

ऐसे मुकदमों में मीडिया कवरेज में अभियुक्त को सीधे तौर पर अपराधी के रूप में चित्रित किया जाता है, जो पूरी तरह से कानून का उल्लंघन है। किसी भी विचाराधीन कैदी को तब तक अपराधी नहीं माना जा सकता जब तक कि वह दोषी साबित न हो जाए। मीडिया परीक्षण खासकर तब होता है, जब कोई सेलिब्रिटी या अन्य प्रसिद्ध सार्वजनिक हस्ती शामिल होती है। इसके अलावा अक्सर हत्या या बलात्कार के मामलों में भी ऐसा होता रहता है।

ऐसे कुछ प्रसिद्ध मामले हैं आरुषि तलवार हत्याकांड, जिसमें उसके अपने माता-पिता को ही हत्यारा बना दिया गया और चित्रित किया गया। बाद में, उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बरी कर दिया। निर्भया बलात्कार मामले में मीडिया ने इसे जनआंदोलन तो बनाया लेकिन कई चैनलों पर पीड़िता के चरित्र पर सवाल उठाए गए। जब ऐसा जघन्य (हिनियस) अपराध होता है तो मीडिया को जिम्मेदारी से काम करना चाहिए। हालाँकि, मीडिया के ऐसे कार्य की आलोचना की जानी चाहिए। पीड़ित के चरित्र पर सवाल उठाने से अन्य पीड़ित ऐसे अपराध के खिलाफ आवाज उठाने से हतोत्साहित हो जाते हैं।

मीडिया परीक्षण और समाज

समाज का दृष्टिकोण किसी न किसी रूप में इस पर आधारित होता है कि वे क्या देखते या सुनते हैं; अंततः, उनका दृष्टिकोण इस पर आधारित होता है कि मीडिया उन्हें क्या दिखाता है या ऐसे प्लेटफार्मों पर अन्य लोगों द्वारा क्या बनाया गया है। भारत जैसे देश में, जहां हर किसी के अपने-अपने निर्णय होते हैं, मीडिया परीक्षण इसमें और इजाफा करते हैं।

किसी भी उचित जांच से पहले ही, प्रथम दृष्टया आधार पर, मीडिया परीक्षण से अभियुक्त की अपराधी के रूप में छवि बन जाती है। यह सीधे तौर पर उसकी निजता के अधिकार और न्याय पाने के उचित अवसर का उल्लंघन करता है।

इस स्थिति में, समाज व्यक्ति और उसके परिवार दोनों की आलोचना करना और उनसे दूरी बनाना शुरू कर देता है। बिना किसी प्रकार की जांच या सजा के वे अपराधी का जीवन जीते हैं। इस तरह का सामाजिक व्यवहार अभियुक्त के साथ-साथ उसके परिवार को भी परेशान करता है। इससे मानसिक परेशानी और उत्पीड़न का माहौल बनता है। इतना ही नहीं बल्कि इसका अभियुक्त और उसके परिवार पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ेगा, खासकर अगर अभियुक्त दोषी नहीं है।

मीडिया परीक्षण के प्रभाव

भारतीय संविधान में स्वतंत्रता और प्रतिबंधों के बीच उचित विभाजन किया गया है। हालाँकि, कई बार मीडिया इसे भूल जाता है। जिससे प्रावधानों का उल्लंघन होता है और इसके कई दुष्परिणाम होते हैं।

  • अधिकारातीत (अल्ट्रा-वायर्स) अधिकार: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत उचित प्रतिबंधों के साथ स्वतंत्र रूप से राय व्यक्त करने की स्वतंत्रता है। उचित प्रतिबंध भारत की संप्रभुता (सोवेरिग्निटी) और अखंडता (इंटीग्रिटी), राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता के हित में या अदालत की अवमानना, मानहानि या किसी अपराध के लिए उकसाने के संबंध में लगाए जाते हैं। इसलिए, प्रेस की बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निरंकुश नहीं है। किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि अधिकार राय के लिए दिया जाता है, परीक्षणों के लिए नहीं। यह उसके और दूसरों के अधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन है।
  • दंगों का खतरा: समाज पर मीडिया का प्रभाव बहुत बड़ा है और इसलिए मीडिया को जिम्मेदारी से काम करना होगा अन्यथा यह एक अराजक, बेकाबू स्थिति पैदा कर देगा। ऐसी कई संवेदनशील स्थितियाँ हैं जिनमें मीडिया परीक्षण से सांप्रदायिक (कम्यूनल) हिंसा या क्षेत्रीय समूह हिंसा हो सकती है या हिंसा में तेजी भी आ सकती है। मीडिया परीक्षण अक्सर प्राथमिक जानकारी पर आधारित होते हैं, जो समाज को गुमराह भी कर सकते हैं, खासकर ऐसे संवेदनशील समय में।

किसी व्यक्ति पर मीडिया परीक्षण का प्रभाव

मीडिया परीक्षण किसी की निजता पर हमला कर सकता है और उनकी शांति को बाधित कर सकता है। एक अभियुक्त के लिए समाज में रहना और अपनी सामान्य दिनचर्या जारी रखना एक चुनौती बन जाता है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति की बेरोजगारी भी हो सकती है, भले ही वह दोषी न हो।

  • प्रतिष्ठा: मीडिया परीक्षण में बिना किसी निश्चित फैसले के अभियुक्त की प्रतिष्ठा नष्ट हो जाती है। कभी-कभी, पीड़ित की व्यक्तिगत जानकारी भी टेलीविजन और समाचार पत्रों में सार्वजनिक रूप से उजागर की जाती है। उदाहरण के तौर पर कठुआ बलात्कार मामले में नाबालिग पीड़िता की पहचान उजागर कर दी गई थी, जिसके लिए न्यायालय ने यौन अपराधों से बच्चों की रोकथाम अधिनियम, 2012 के अनुसार मीडिया पर प्रतिबंध लगा दिया। इससे पीड़ित के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
  • मानसिक परेशानी: चल रहे कानूनी मुकदमे और मीडिया में एक ही मुद्दे के लगातार उजागर होने से पीड़ितों और उनके परिवार के सदस्यों की मानसिक परेशानी बढ़ सकती है। ऐसे वातावरण का निर्माण आगे चलकर दर्दनाक स्थितियों को जन्म दे सकता है। अधिक व्यूज़ पाने या अधिक टीआरपी पाने की चाह में मीडिया लालची हो जाता है और उसे किसी व्यक्ति की परवाह नहीं होती।
  • निजता का उल्लंघन: भारतीय संविधान के अनुसार, अनुच्छेद 21 के तहत, निजता का अधिकार एक नागरिक का मौलिक अधिकार है, जिसे मीडिया समझ नहीं पा रहा है। सुशांत सिंह राजपूत के मामले में मीडिया ने जमकर कवरेज की और उनकी पर्सनल डायरी भी दुनिया को दिखाई। यहां एक बार फिर मीडिया की भूमिका की व्यापक आलोचना की गई।

मीडिया परीक्षण और न्यायपालिका

न्यायपालिका भारतीय लोकतंत्र के स्तंभों में से एक है। न्यायपालिका की स्थापना देश में कानून के निष्पक्ष और सुचारू संचालन के लिए है। न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से नागरिकों के अधिकारों की निश्चित रूप से रक्षा की जाती है। चाहे वह अभियुक्त हो या पीड़ित, दोनों को न्याय की अदालतों के समक्ष अपना प्रतिनिधित्व करने का उचित मौका मिलना चाहिए, जो संविधान में निहित है। न्यायपालिका एक पूरी तरह से स्वतंत्र संस्था है और ऐसी संस्था होने का मुख्य उद्देश्य निष्पक्ष सुनवाई करना और किसी भी प्रकार के राजनीतिक या सामाजिक दबाव के बिना न्याय प्रदान करना है।

जबकि मीडिया परीक्षण के कारण एक जनमत बनता है, जो किसी न किसी आधार पर न्यायाधीशों पर दबाव बनाता है और अंततः कुछ हद तक न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता है। न्यायालय की अवमानना ​​अधिनियम, 1971 की धारा 2 (c) के अनुसार, मीडिया परीक्षण सीधे तौर पर अदालतों की अवमानना ​​है, क्योंकि ऐसे मीडिया को किसी भी माध्यम से किसी भी मामले पर ऐसी राय या विचार प्रकाशित या प्रसारित करने की अनुमति नहीं है जो अभी भी न्यायालय की कार्यवाही के अधीन है।

इसका सीधा मतलब यह है कि मीडिया परीक्षण और न्यायिक परीक्षण साथ-साथ नहीं चल सकते।

न्यायपालिका पर मीडिया परीक्षण का प्रभाव

  • सामाजिक दबाव: मीडिया परीक्षण के कारण न्यायाधीशों पर भारी सामाजिक दबाव बनता है, जिससे न्यायाधीश के लिए अभियुक्त के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष सुनवाई करना मुश्किल हो जाता है। इससे न्यायाधीशों के लिए निष्पक्ष रहना और अभियुक्त की छवि नहीं बनाना मुश्किल हो सकता है। कई बार, इसका असर अदालत के फैसलों पर पड़ सकता है क्योंकि एक छवि पहले से ही चित्रित होती है।
  • न्यायालय के अधिकार को कम करता है: 26/11 के मामले में अदालत द्वारा अपना फैसला सुनाने से पहले ही मीडिया ने घोषणा कर दी कि आरोपियों को मौत की सज़ा दी जाएगी। परोक्ष रूप से, यह मामले को भावनाओं और सामाजिक दबाव से जोड़कर अदालतों के महत्व को कम करता है और उनके अधिकार को कम करता है। अदालत के फैसले कानून और उसकी प्रक्रिया के अनुरूप होने चाहिए। वहीं मीडिया परीक्षण सीधे तौर पर इसमें बाधा डालता है। किसी भी अभियुक्त के लिए किसी भी प्रकार की सजा तय करने या घोषित करने की शक्ति केवल न्यायपालिका के पास है।
  • न्याय प्रशासन में व्यवधान: संविधान के तहत जघन्य अपराधों के लिए भी कानून की निष्पक्ष प्रक्रिया का पालन करना होगा और उसी के अनुसार सजा देनी होगी। मीडिया के प्रभाव और कुछ मामलों की कवरेज के कारण, न्याय प्रशासन में पूर्ण व्यवधान आ रहा है। मीडिया को केवल जनता को तथ्यात्मक तरीके से प्रासंगिक अपडेट देने की अनुमति है, लेकिन मीडिया इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप करता है और परेशान करता है।

मीडिया पर सर्वोच्च न्यायालय

ऐसे कई मामले हैं जहां सर्वोच्च न्यायालय ने मीडिया परीक्षण की ओर इशारा किया है और मीडिया के जिम्मेदारी से काम करने के महत्व पर जोर दिया है।

एयर इंडिया पेशाब मामला (2023)

एक घटना में एक शख्स पर आरोप लगा था कि उसने एयर इंडिया की फ्लाइट में पेशाब कर दिया था। अदालत ने समाचार चैनल के “टीआरपी-प्रेरित” होने पर स्पष्ट रूप से अपनी चिंता व्यक्त की।

न्यायमूर्ति केएम जोसेफ और बीवी नागरत्ना की पीठ ने कहा, ”उन्हें नाम से पुकारा गया। उसे बदनाम किया गया। हर किसी को सम्मान का अधिकार है।” दरअसल, सबसे लोकप्रिय होने की होड़ में न्यूज चैनल व्यक्ति की जिंदगी और उसकी निजता को भूल जाते हैं।

प्रद्युम्न ठाकुर मामला (2017)

यह मामला इस बात का एक आदर्श उदाहरण था कि मीडिया परीक्षण का अभियुक्तों पर कितना हानिकारक प्रभाव पड़ता है।

मामले के तथ्य: हरियाणा में एक सात वर्षीय लड़का कई चोटों के साथ मृत पाया गया। शुरुआती कार्यवाही में उनके बस कंडक्टर पर हत्या का आरोप लगाया गया लेकिन बाद में उन्हें निर्दोष पाया गया। यह मामला आगे चलकर सीबीआई को स्थानांतरित कर दिया गया, जहां उसी स्कूल के एक अज्ञात सोलह वर्षीय छात्र पर उसकी हत्या का आरोप लगाया गया।

मीडिया परीक्षण का मामले पर प्रभाव: मीडिया ने बिना किसी न्यायिक सुनवाई के बस कंडक्टर को छात्र की हत्या के लिए अपराधी घोषित कर दिया था। जिसका परिणाम यह हुआ कि कोई भी वकील बस कंडक्टर का पक्ष रखने के लिए तैयार नहीं हुआ। मीडिया ने उन्हें इस तरह बदनाम किया कि उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया और इससे उनके करियर पर भी बुरा असर पड़ा।

महज मीडिया में चल रही अटकलों के आधार पर उस शख्स को काफी नुकसान झेलना पड़ा। निश्चित रूप से, अगर मीडिया जिम्मेदारी से काम करता तो चीजें बेहतर हो सकती थीं।

Lawshikho
सुशांत सिंह राजपूत मामला (2020)

इस चर्चित मामले में अभियुक्त रिया चक्रवर्ती को लगातार मीडिया फॉलो कर रहा था और उनका चरित्र हनन किया जा रहा था। वह अभिनेता के साथ रिश्ते में थीं लेकिन फिर भी उन पर काला जादू करने का आरोप लगाया गया। लगातार उनकी तस्वीरें और चैट मीडिया में छपती रहीं।

मीडिया परीक्षण इस हद तक चलाए गए कि बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना कि मीडिया परीक्षण न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप करता है और इससे जांच और न्याय प्रशासन में बाधा उत्पन्न हो सकती है।

विश्लेषण: यदि मीडिया को पूरी तरह से विनियमित किया गया, तो इसके परिणामस्वरूप देश में प्रेस की स्वतंत्रता गायब हो जाएगी। किसी देश में एक नियंत्रित मीडिया तंत्र होगा, जो हमारे लिए और भी खतरनाक हो सकता है। साथ ही, मीडिया परीक्षण को विनियमित करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। अब समय आ गया है कि मीडिया सख्ती से नैतिक पत्रकारिता का पालन करे और गोपनीयता का एक निश्चित स्तर बनाए रखे।

प्रेस परिषद के दिशानिर्देशों और अन्य नियमों को लागू करने के लिए कानून बनाए जाने चाहिए। मीडिया लाइसेंसिंग कानूनों को अब सख्त करने की जरूरत है और उनके निलंबन और नवीनीकरण को लेकर भी सख्त कानून बनाए जाने चाहिए। कानूनों को प्रेस की स्वतंत्रता और निजता के अधिकार के बीच एक रेखा खींचनी चाहिए। न्यायपालिका और मीडिया दोनों अपने हिसाब से काम कर सकते हैं और कोई दूसरे के काम में दखल नहीं देता है। परीक्षण तभी कम हो सकते हैं जब मीडिया प्लेटफॉर्म अपने टीआरपी गेम से छुटकारा पा लें। भारत में जिम्मेदार मीडिया की सख्त जरूरत है, खासकर भारत के युवाओं को।

सैबल कुमार गुप्ता और अन्य बनाम बी.के. सेन और अन्य (1961) के मामले के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना था कि “इसमें कोई संदेह नहीं है कि किसी समाचार पत्र के लिए किसी अपराध की व्यवस्थित रूप से स्वतंत्र जांच करना और उस जांच के परिणामों को प्रकाशित करना शरारतपूर्ण होगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि जब देश के नियमित न्यायाधिकरणों (ट्रिब्यूनल) में से किसी एक द्वारा मुकदमा चल रहा हो तो समाचार पत्रों द्वारा मुकदमे को रोका जाना चाहिए। इस दृष्टिकोण का आधार यह है कि किसी समाचार पत्र की ओर से इस तरह की कार्रवाई न्याय की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करती है, चाहे जांच अभियुक्त या अभियोजन पक्ष पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हो। एक अखबार द्वारा चलाए गए मुकदमे और इस मामले में जो हुआ, उसके बीच कोई तुलना नहीं है।

न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टास्वामी (सेवानिवृत्त) बनाम भारत संघ (2018) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी माना है कि मीडिया परीक्षण किसी व्यक्ति की निजता के अधिकार का उल्लंघन कर सकता है और मीडिया को कानूनी कार्यवाही में शामिल व्यक्तियों की गोपनीयता का उल्लंघन करने के प्रति आगाह किया है।

हार्पर कॉलिन्स पब्लिशर्स इंडिया… बनाम संचिता गुप्ता @ शिल्पी और अन्य (2020) के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि चर्चा/ प्रकाशन पर कोई रोक नहीं हो सकती है, लेकिन जिस क्षण ये चर्चाएं महज अटकलें हैं या निराधार आरोप हैं, व्यक्ति को अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा करने का अधिकार है।

निष्कर्ष

मीडिया और न्यायपालिका के कार्यों को एक-दूसरे पर हावी नहीं होना चाहिए और इसके बजाय मिलकर एक पारदर्शी समाज का निर्माण करना चाहिए। फिर भी ऐसे कई लोग हैं जो मीडिया और मीडिया परीक्षण के डर से सच बोलने या न्याय पाने से कतराते हैं। गवाह भी न्यायिक परीक्षणों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और चल रही मीडिया कवरेज के कारण अक्सर दूर रहते हैं।

न्यायपालिका का कर्तव्य न्याय देना है और मीडिया का कर्तव्य सूचना पहुंचाना है। यदि इस अवधारणा को अच्छी तरह से समझ लिया जाए तो वर्तमान मीडिया परीक्षण दोबारा नहीं दोहराया जाएगा।

हालाँकि मीडिया परीक्षण उभरते मीडिया परिदृश्य का प्रतिबिंब है, समाज और न्यायपालिका पर उनके प्रभाव पर सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। निष्पक्ष सुनवाई की आवश्यकता के साथ सूचना के अधिकार को संतुलित करना न्याय के सिद्धांतों को बनाए रखने और मीडिया और कानूनी प्रणाली दोनों में जनता का विश्वास बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है। केवल जिम्मेदार रिपोर्टिंग और नैतिक मानकों के प्रति सामूहिक प्रतिबद्धता के माध्यम से ही हम मीडिया, समाज और न्यायपालिका के नाजुक अंतरसंबंध को पार कर सकते हैं।

संदर्भ

 

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