यह लेख Adhila Muhammed Arif द्वारा लिखा गया है और Shreya Patel द्वारा अद्यतन (अपडेट) किया गया है। इस लेख का उद्देश्य मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन) और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11, वर्षों के दौरान हुए संशोधनों, मध्यस्थों की नियुक्ति तथा मध्यस्थों की नियुक्ति के मामले में न्यायिक हस्तक्षेप के दायरे पर प्रकाश डालना है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।
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परिचय
वे विधियां जिनके माध्यम से किसी विवाद को न्यायालय में जाए बिना पक्षों के बीच सुलझाया जा सकता है, वैकल्पिक विवाद समाधान विधियां हैं। वैकल्पिक विवाद समाधान हैं वार्ता (नेगोशिएशन), बिचवई (मिडिएशन), लोक अदालत और सुलह (कॉन्सिलिएशन)। वैकल्पिक विवाद समाधान के इन विविध तरीकों का उपयोग करने के पीछे मुख्य उद्देश्य भारत में न्यायपालिका के कार्यभार को कम करना और पक्षों को विवादों को तेजी से सुलझाने में मदद करना है। भारत में मध्यस्थता की अवधारणा नई नहीं है। पक्षों के बीच विवादों को सुलझाने के लिए मध्यस्थता की प्रथा का इतिहास बृहदारण्यक उपनिषद से मिलता है। हिंदू कानून के अनुसार, मध्यस्थता का सबसे पुराना और पहला उल्लेख बृहदारण्यक उपनिषद में मिलता है।
मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (जिसे आगे ‘अधिनियम’ कहा जाएगा) की धारा 11, मध्यस्थता निपटान में मध्यस्थों की नियुक्ति के प्रावधान से संबंधित है। अधिनियम में विभिन्न प्रक्रियाओं का प्रावधान है जिसके माध्यम से मध्यस्थों की नियुक्ति की जा सकती है। धारा 11 पक्षों को नियुक्ति की प्रक्रिया पर सहमत होकर मध्यस्थों को चुनने की अनुमति देती है। यदि पक्षकार स्वयं मध्यस्थ नियुक्त नहीं कर सकते तो वे धारा 11 में निर्धारित प्रक्रियाओं के माध्यम से मध्यस्थ नियुक्त करवा सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों में, इस धारा में मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2015 और मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2019 में संशोधनों के माध्यम से कई परिवर्तन हुए हैं, जिससे मध्यस्थता में न्यायपालिका का प्रभाव काफी हद तक कम हो गया है।
इस लेख में हम अधिनियम की धारा 11 के प्रावधानों के साथ-साथ इसके संबंध में पारित ऐतिहासिक निर्णयों पर चर्चा करेंगे। लेख में यह भी बताया गया है कि कितने मध्यस्थों की नियुक्ति की जानी आवश्यक है, नियुक्त मध्यस्थों की शुल्क क्या है, मध्यस्थता की नियुक्ति न होने की स्थिति में क्या कदम उठाए जाने चाहिए, मध्यस्थता और उसके निर्णय के मामले में न्यायालय कितना हस्तक्षेप कर सकता है, तथा अन्य महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गई है।
मध्यस्थता का अर्थ
मध्यस्थता अनिवार्यतः वैकल्पिक विवाद समाधान (एडीआर) के तरीकों में से एक है, जिसके तहत दो पक्षों के बीच विवाद की सुनवाई और निर्णय, न्यायालय को शामिल किए बिना, तीसरे पक्ष द्वारा किया जाता है। यह पक्षकारों को मुकदमेबाजी जैसे विवादों का शीघ्र निपटारा करने की अनुमति देता है। हालाँकि, मुकदमेबाजी के विपरीत, यह अदालत के बाहर होता है और निर्णय अंतिम होता है तथा इसे चुनौती नहीं दी जा सकती है। इसके परिणामस्वरूप न्यायालय द्वारा दिए गए आदेश के समान ही निर्णय की घोषणा होती है। मध्यस्थता से संबंधित मामले अधिनियम द्वारा शासित होते हैं।
विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (डब्ल्यूआईपीओ) मध्यस्थता को इस प्रकार परिभाषित करता है –
“मध्यस्थता एक प्रक्रिया है जिसमें पक्षकार एक समझौते के द्वारा विवाद को एक या एक से अधिक मध्यस्थों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं, जो विवाद पर पक्षों के लिए बाध्यकारी निर्णय देते हैं। मध्यस्थता विवादों को अदालत में जाने के बजाय निजी विवाद समाधान के माध्यम से सुलझाने की एक विधि है।
धारा 2(1)(a) में कहा गया है कि मध्यस्थता का अर्थ किसी स्थायी मध्यस्थता संस्था द्वारा प्रशासित या न प्रशासित कोई भी मध्यस्थता है।
पक्षकार अपने विवादों को सुलझाने के लिए मध्यस्थता पद्धति का चयन करते हैं, क्योंकि यह मुकदमेबाजी पद्धति की तुलना में अधिक लचीलापन और दक्षता प्रदान करती है। मध्यस्थता की प्रक्रिया पक्षों के बीच मध्यस्थता समझौते का मसौदा तैयार करने से शुरू होती है। इस मध्यस्थता समझौते का संदर्भ तब लिया जाता है जब पक्षों के बीच कोई विवाद उत्पन्न होता है। इस समझौते में सभी महत्वपूर्ण नियम व शर्तें उल्लिखित हैं। ऐसे मामले भी हो सकते हैं जिनमें कोई समझौता नहीं होता और विवाद उत्पन्न होने के बाद पक्षकार मध्यस्थता का तरीका चुनकर विवाद को सुलझाने का निर्णय लेते हैं। ऐसे मामलों में अधिनियम की धारा 11 में मध्यस्थ नियुक्त करने के लिए पालन किये जाने वाले प्रावधानों का उल्लेख किया गया है।
आइये धारा 11 के अंतर्गत उल्लिखित विभिन्न प्रावधानों पर नजर डालें।
मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 11 के तहत प्रावधान
उप-धारा 1
मध्यस्थ किसी भी राष्ट्रीयता का हो सकता है, जब तक कि पक्षों द्वारा किसी विशिष्ट बात पर सहमति न हो। यदि विवाद के दोनों पक्ष इस पर सहमत हों तो मध्यस्थ की राष्ट्रीयता पर कोई प्रतिबंध नहीं है। यहां ध्यान रखने योग्य मुख्य बात यह है कि मध्यस्थ की नियुक्ति विवाद के पक्षों के बीच आपसी सहमति के बाद ही की जाती है। इस उप-धारा में यह भी उल्लेख किया गया है कि मध्यस्थ की राष्ट्रीयता का भी समझौते में पहले से उल्लेख किया जा सकता है, उदाहरण के लिए, विभिन्न देशों में काम करने वाली दो कंपनियों के बीच विवाद की स्थिति में, उनके समझौते में एक खंड हो सकता है जिसमें कहा गया हो कि विवाद की स्थिति में वे एक विशिष्ट राष्ट्रीयता से मध्यस्थ की नियुक्ति करेंगे। यदि मध्यस्थता भारत में हो रही है तो ऐसा कोई सख्त नियम नहीं है कि मध्यस्थ भारत का नागरिक होना चाहिए।
उप-धारा 2
धारा की उपधारा (6) के अधीन, पक्षकार मध्यस्थ या मध्यस्थ की नियुक्ति की प्रक्रिया को स्वतंत्र रूप से तय कर सकते हैं। पक्षकार स्वयं मध्यस्थता की प्रक्रिया और मध्यस्थता की नियुक्ति का निर्णय लेते हैं। दोनों पक्ष अपनी इच्छानुसार कोई भी तरीका अपनाने के लिए स्वतंत्र हैं, जो दोनों पक्षों के लिए सुविधाजनक हो तथा विवाद का समाधान भी सुनिश्चित करे।
पक्षकार मध्यस्थता का स्थान, मध्यस्थता की भाषा, मध्यस्थ की नियुक्ति कैसे करना चाहते हैं, मध्यस्थता कार्यवाही के दौरान वे कौन सी प्रक्रिया अपनाना चाहते हैं, आदि का निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं। ये विवरण अक्सर समझौते में भी जोड़ दिए जाते हैं। यदि समझौते में किसी विशिष्ट स्थान या प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है तो उसका पालन किया जाना चाहिए। बीजीएस एसजीएस सोमा जेवी बनाम एनएचपीसी लिमिटेड (2019) के मामले में यह माना गया कि जब समझौते में मध्यस्थता के लिए एक विशिष्ट स्थान निर्दिष्ट किया जाता है और कोई अन्य खंड नहीं होते हैं जो इसके विपरीत कार्य करते हैं, तो मध्यस्थता के लिए स्थान वह होना चाहिए जो विशिष्ट हो।
उपधारा 3
नियुक्ति की प्रक्रिया पर सहमति न बन पाने की स्थिति में, उपधारा (3) तीन मध्यस्थों की नियुक्ति के लिए निम्नलिखित प्रक्रिया निर्धारित करती है:
- प्रत्येक पक्ष एक मध्यस्थ नियुक्त करता है।
- इसके बाद दोनों मध्यस्थ संयुक्त रूप से तीसरे मध्यस्थ की नियुक्ति करते हैं, जो पीठासीन मध्यस्थ के रूप में कार्य करता है।
इस उप-धारा का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि मध्यस्थों की नियुक्ति के मामले में संतुलित दृष्टिकोण अपनाया जाए। जब पक्षों के बीच समझौते में यह कहा गया हो कि तीन मध्यस्थ नियुक्त किए जाएंगे, तो उस स्थिति में प्रत्येक पक्ष अपनी ओर से एक मध्यस्थ नियुक्त करेगा, तथा तीसरे मध्यस्थ को अन्य दो नियुक्त मध्यस्थों द्वारा पीठासीन मध्यस्थ के रूप में नियुक्त किया जाएगा।
तालेड़ा स्क्वायर प्राइवेट लिमिटेड बनाम रेल भूमि विकास प्राधिकरण (2023) के मामले में अदालत द्वारा निष्पक्षता और स्वतंत्रता के सिद्धांत पर जोर दिया गया था। इस मामले में समाधान खंड में कहा गया है कि पक्षों को प्रतिवादी द्वारा प्रदान की गई सूची में से मध्यस्थ का चयन और नामांकन करना होगा। और पीठासीन अधिकारी की नियुक्ति के लिए, प्रतिवादी ही उसे नियुक्त करेगा। प्रतिवादी द्वारा अपनाया गया दृष्टिकोण प्रतिबंधात्मक था तथा दावेदार के अधिकारों का भी उल्लंघन करता था। अदालत ने कहा कि इस तरह का खंड स्वतंत्र चुनाव के अधिकार का उल्लंघन करता है तथा पक्षों के बीच पक्षपात पैदा करता है। मध्यस्थों की नियुक्ति की ऐसी प्रक्रिया वैध नहीं है।
उप-धारा 3A
समय-समय पर मध्यस्थ न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) नामित करने की शक्ति सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय में निहित है। इन मध्यस्थ न्यायाधिकरणों को धारा 43-I के अंतर्गत परिषद द्वारा वर्गीकृत किया जाएगा। बशर्ते कि यदि किसी उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में कोई श्रेणीबद्ध मध्यस्थ न्यायाधिकरण मौजूद नहीं है, तो संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एक मध्यस्थ पैनल बनाए रख सकते हैं जो मध्यस्थ संस्था के सभी कर्तव्यों और कार्यों का निर्वहन करता है।
जब कोई संदर्भ मध्यस्थों को भेजा जाता है, तो यह माना जाएगा कि यह मध्यस्थ न्यायाधिकरण को भेजा गया है। इस धारा के अंतर्गत नियुक्त मध्यस्थ चौथी अनुसूची में निर्धारित शुल्क पाने के हकदार होंगे। संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा मध्यस्थता न्यायाधिकरण की आवधिक आधार पर समीक्षा भी की जाती है।
उप-धारा 4
यदि उपधारा (3) में नियुक्ति की प्रक्रिया लागू होती है –
- प्रत्येक पक्ष को दूसरे पक्ष से अनुरोध प्राप्त होने के तीस दिनों के भीतर एक मध्यस्थ नियुक्त करना होगा।
- दोनों मध्यस्थों को नियुक्ति की तिथि से तीस दिनों के भीतर तीसरे मध्यस्थ की नियुक्ति पर सहमति बनानी होगी। मध्यस्थ की नियुक्ति तब की जाएगी जब पक्षकार इसके लिए आवेदन करेगा। अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक (कमर्शियल) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय मध्यस्थों की नियुक्ति करेगा, जबकि अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मामले के अलावा अन्य मामलों में, उच्च न्यायालय मध्यस्थों की नियुक्ति करेगा।
जब पक्षकार मध्यस्थ नियुक्त करने में असफल होते हैं तो सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय मध्यस्थ नियुक्त करके पक्षों की सहायता करते हैं। पारंपरिक अदालतों की तुलना में विवाद को तेजी से निपटाने के लिए प्रक्रिया को त्वरित बनाने हेतु समयसीमा प्रदान की जाती है। पक्षपात बनाए रखने के लिए दोनों पक्षों को मध्यस्थ चुनने का अधिकार दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय मध्यस्थता का विकल्प चुनने वाले पक्षकारों की तब मदद करेंगे जब उन्हें मध्यस्थ की नियुक्ति में समस्या हो।
उप-धारा 5
यह उपधारा बताती है कि जब किसी मध्यस्थता में एकमात्र मध्यस्थ होता है और विवाद के पक्षकार नियुक्ति की प्रक्रिया पर सहमति नहीं बना पाते हैं, तो उस स्थिति में यदि मध्यस्थ की नियुक्ति उस दिन से तीस दिन के भीतर नहीं की जाती है, जिस दिन एक पक्षकार ने दूसरे पक्षकार से सहमति जताने का अनुरोध किया था, तो ऐसी नियुक्ति उच्च न्यायालय द्वारा की जाएगी, यदि मध्यस्थता एक गैर-अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता है, जबकि अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के मामले में मध्यस्थ की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नामित संस्था द्वारा की जाएगी।
उप-धारा 6
इस उपधारा में कहा गया है कि जहां पक्षों द्वारा नियुक्ति प्रक्रिया पर समझौता किया गया है, यदि
- कोई पक्ष प्रक्रिया द्वारा निर्धारित अनुसार कार्य करने में विफल रहता है, या
- पक्षकार या नियुक्त मध्यस्थ प्रक्रिया द्वारा निर्धारित समझौते पर पहुंचने में विफल रहते हैं, या
- प्रक्रिया द्वारा सौंपे गए किसी कार्य को करने में असफल रहने पर मध्यस्थ की नियुक्ति तब की जाएगी जब पक्षकार इसके लिए आवेदन करेगा। अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मामले में, सर्वोच्च न्यायालय मध्यस्थों की नियुक्ति करेगा, जबकि अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मामलों के अलावा अन्य मामलों में, उच्च न्यायालय आवश्यक उपाय करने के लिए नियुक्ति करेगा, जब तक कि समझौते के अनुसार नियुक्ति सुनिश्चित करने के लिए कोई अन्य साधन न हो।
ब्राह्मणी रिवर पेलेट्स लिमिटेड बनाम कमाची इंडस्ट्रीज लिमिटेड (2019) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि केवल वे न्यायालय जो अनुबंध के अनुसार अधिकार क्षेत्र को पूरा करते हैं, उनके पास उस मामले के संबंध में अधिकार क्षेत्र होगा। विवाद से संबंधित पक्षों ने पहले ही मध्यस्थता के लिए स्थान तय कर लिया था, जो कि भुवनेश्वर था। इससे यह साबित होता है कि पक्षकारों का इरादा अन्य न्यायालयों को अधिकार क्षेत्र से बाहर रखने का था। मध्यस्थ के लिए आवेदन की नियुक्ति के संबंध में मद्रास उच्च न्यायालय को अधिनियम की धारा 11(6) के तहत कोई अधिकार क्षेत्र नहीं था।
उप-धारा 6A
इस उप-धारा को 2019 के संशोधन में हटा दिया गया था।
उप-धारा 6B
जब सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय इस धारा के अंतर्गत किसी व्यक्ति या संस्था को नामित करता है, तो इससे ऐसे उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक शक्तियों का प्रत्यायोजन नहीं होगा।
उप-धारा 7
इस उप-धारा को 2019 के संशोधन में हटा दिया गया था।
उपधारा 8
मध्यस्थ नियुक्त करने से पहले सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय या न्यायालय द्वारा नामित संस्था या व्यक्ति को धारा 12(1) के अनुसार भावी मध्यस्थ से लिखित में प्रकटीकरण करवाना होगा और निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेना होगा
- पक्षों के समझौते के अनुसार मध्यस्थ के लिए आवश्यक योग्यताएं,
- स्वतंत्र और निष्पक्ष मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए प्रकटीकरण की विषय-वस्तु और अन्य विचार
उपधारा 9
यदि अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मामलों में मध्यस्थ की नियुक्ति की जानी हो तथा एकमात्र मध्यस्थ या तीसरे मध्यस्थ की नियुक्ति की आवश्यकता हो, तो सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा नामित मध्यस्थ संस्था पक्षकारों की राष्ट्रीयता के अलावा किसी अन्य राष्ट्रीयता के मध्यस्थ की नियुक्ति कर सकती है।
यह उप-धारा यह नियंत्रित करती है कि अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के मामले में, पक्ष मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के मामले में, न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नामित व्यक्ति या संस्था किसी तीसरे मध्यस्थ या एकमात्र मध्यस्थ की नियुक्ति कर सकती है। नियुक्त किया जाने वाला मध्यस्थ पक्षकारों की राष्ट्रीयता के अलावा किसी अन्य राष्ट्रीयता का होना चाहिए।
मेसर्स कॉमेड केमिकल्स लिमिटेड बनाम सीएन रामचंद (2008) के मामले में याचिकाकर्ता द्वारा धारा 11 के तहत याचिका दायर की गई थी। याचिकाकर्ता ने भारत के मुख्य न्यायाधीश से एक पीठासीन मध्यस्थ या एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त करने की प्रार्थना की है। पसंदीदा मध्यस्थ का उल्लेख किया गया था और याचिकाकर्ता द्वारा 2005 में नोटिस भेजकर इसकी जानकारी दी गई थी। प्रतिवादी द्वारा मध्यस्थ की नियुक्ति को अस्वीकार कर दिया गया। प्रतिवादी ने कहा कि चूंकि यह एक अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मामला है, इसलिए इसे उच्च न्यायालय के पास न भेजकर मुख्य न्यायाधीश के पास भेजा जाना चाहिए। चूंकि यह अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता का मामला था, इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त किया।
उपधारा 10
इस उप-धारा को 2019 के संशोधन के साथ हटा दिया गया था।
उपधारा 11
यदि उपधारा (4), (5), (6) के अधीन किए गए आवेदन के दौरान विभिन्न उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों या पदाभिहित व्यक्तियों को एक से अधिक अनुरोध या आवेदन किए गए हैं, तो प्रथम अनुरोध प्राप्त करने वाला उच्च न्यायालय सक्षम होगा।
उपधारा 12
जब अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता या अन्य मध्यस्थता के संबंध में उप-धारा (4), (5), (6) और (8) के तहत संदर्भित मामले, मध्यस्थ संस्था को संदर्भित किया जाता है, वह मध्यस्थ संस्था है जिसे उप-धारा 3A के तहत नामित किया गया था।
उपधारा 13
मध्यस्थों की नियुक्ति के लिए आवेदन या अनुरोध का निपटारा मध्यस्थ संस्था द्वारा शीघ्रता से किया जाएगा। इसका निपटारा विपक्षी पक्ष को नोटिस की तामील की तारीख से तीस दिन के भीतर किया जाएगा।
मुकदमेबाजी के बजाय मध्यस्थता का विकल्प चुनने का मुख्य उद्देश्य यह है कि मध्यस्थता विवाद का अधिक शीघ्र समाधान प्रदान करती है, इसलिए मध्यस्थता एक बहुत ही समय-संवेदनशील अवधारणा है। मध्यस्थता की नियुक्ति में प्रायः पहले से ही समय लग जाता है। मध्यस्थता प्रक्रिया में अलग-अलग समयसीमा होने से विवाद को शीघ्रता से सुलझाने में मदद मिलती है। 2019 के संशोधन के साथ, जब पक्षकार ऐसा करने में विफल होते हैं तो मध्यस्थ की नियुक्ति का अधिकार यदि अब सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय को न देकर मध्यस्थ संस्था को दिया जाता है, तो यह कदम मध्यस्थता की नियुक्ति प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने में प्रमुख भूमिका निभाता है।
उपधारा 14
मध्यस्थ संस्था अधिनियम की चौथी अनुसूची में निर्धारित दरों पर विचार करने के पश्चात मध्यस्थ न्यायाधिकरण को शुल्क और उसके भुगतान के तरीके का निर्धारण करेगी। तथापि, इस उपधारा की व्याख्या में यह प्रावधान है कि गैर-वाणिज्यिक मामलों में अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता के मामले में, पक्षकार मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार शुल्क निर्धारित करने पर सहमत हो सकते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम एफकॉन्स गुनानुसा जेवी (2022) के मामले में मध्यस्थों के लिए भुगतान के कानून को स्पष्ट किया है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि देय शुल्क पर लगाई गई 30,00,000 रुपये की सीमा अधिनियम की चौथी अनुसूची के अंतर्गत व्यक्तिगत मध्यस्थों के लिए है, न कि पूरे न्यायाधिकरण के लिए है। अदालत ने यह भी कहा कि मध्यस्थों की शुल्क का निर्णय एकतरफा नहीं किया जा सकता, इसमें पक्षों की सहमति पर भी विचार किया जाना चाहिए। अदालत ने यह भी सलाह दी कि मध्यस्थ की शुल्क पहले ही निर्धारित कर ली जानी चाहिए ताकि उससे संबंधित किसी भी विवाद से बचा जा सके।
मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 11 में प्रावधानों का विकास
2015 संशोधन अधिनियम से पहले
ऐसी स्थिति में जहां पक्षकारों ने नियुक्ति नहीं की थी, वहां यह नियुक्ति उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों या उनके द्वारा नामित (डेजिग्नेट) व्यक्तियों द्वारा की गई थी। अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के मामलों में नियुक्तियां भारत के मुख्य न्यायाधीश ही करते थे।
2015 संशोधन अधिनियम द्वारा लाए गए महत्वपूर्ण परिवर्तन
- संशोधन द्वारा “मुख्य न्यायाधीश” शब्दों के स्थान पर “सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय” शब्द प्रतिस्थापित किया गया।
- उप-धारा 6A और 6B को सम्मिलित करके, मध्यस्थता-पूर्व चरण में न्यायिक भागीदारी की भूमिका कम कर दी गई। नई उप-धारा 6A के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश को अपनी भूमिका को मध्यस्थता समझौते के अस्तित्व की जांच तक सीमित करना होगा। उप-धारा 6B स्पष्ट करती है कि पदनाम न्यायिक क्षमता के प्रत्यायोजन (डेलिगेशन) के बराबर नहीं है।
- उप-धारा 7 में संशोधन के माध्यम से यह जोड़ा गया कि न्यायालय या उसके नामित व्यक्ति के निर्णय के विरुद्ध किसी भी रूप में अपील करना संभव नहीं होगा। इस संशोधन से पहले धारा में केवल यही कहा गया था कि निर्णय “अंतिम” है। संशोधन से आदेशों की अंतिमता को संशोधन से पहले की धारा की तुलना में अधिक कठोर बना दिया गया।
- संशोधन में मध्यस्थ की नियुक्ति करते समय प्रकटीकरण की विषय-वस्तु को एक आवश्यकता के रूप में स्पष्ट किया गया।
- दो नई उपधाराएँ भी जोड़ी गईं। उपधारा 13 में साठ दिनों के भीतर आवेदन का शीघ्र निपटारा करने का प्रावधान है, तथा उपधारा 14 में यह प्रावधान है कि संबंधित उच्च न्यायालय को शुल्क निर्धारित करने का अधिकार है।
2019 संशोधन अधिनियम द्वारा लाए गए परिवर्तन
इस संशोधन ने एक महत्वपूर्ण परिवर्तन किया जब इसने नियुक्ति की शक्ति को न्यायालयों से हटाकर न्यायालयों द्वारा नामित मध्यस्थ संस्थाओं को सौंप दिया, इस प्रकार भारत में मध्यस्थता को संस्थागत बना दिया है।
इस संशोधन के साथ उप-धारा 3A जोड़ी गई है। उप-धारा में कहा गया है कि मध्यस्थता संस्था को नामित करने की शक्ति समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के पास होगी, जिन्हें धारा 43-i के तहत परिषद द्वारा वर्गीकृत किया जाता है।
बशर्ते कि यदि उच्च न्यायालयों के क्षेत्राधिकार में कोई मध्यस्थ संस्था (श्रेणीबद्ध) उपलब्ध नहीं है, तो उस स्थिति में ऐसे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा मध्यस्थों का एक पैनल बनाए रखा जा सकता है, जो मध्यस्थ संस्था के कर्तव्यों और कार्यों का निर्वहन करेगा। बशर्ते कि मध्यस्थ के पैनल की समीक्षा संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा समय-समय पर की जा सकेगी।
मध्यस्थ को किया गया कोई भी संदर्भ मध्यस्थ संस्था माना जाएगा तथा पक्षों द्वारा नियुक्त मध्यस्थ चौथी अनुसूची में उल्लिखित शुल्क के अधीन होगा।
उप-धारा 6A और 7 को हटा दिया गया। उप-धारा 6A मध्यस्थ समझौते के अस्तित्व की न्यायिक जांच से संबंधित थी। उपधारा 7 में प्रावधान था कि न्यायालय का आदेश अंतिम होगा तथा उसके विरुद्ध कोई अपील नहीं होगी।
उप-धारा 6A को हटाने से यह स्पष्ट हो गया है कि मध्यस्थ संस्थाओं को मध्यस्थों की नियुक्ति करते समय अपनी जांच को मध्यस्थ समझौते के अस्तित्व तक ही सीमित नहीं रखना होगा। उप-धारा 7 को हटाने से यह व्याख्या की जा सकती है कि मध्यस्थ संस्थाओं द्वारा दिए गए नियुक्ति आदेश को चुनौती दी जा सकती है।
इस संशोधन के तहत उप-धारा 10 को भी हटा दिया गया था।
मध्यस्थ की नियुक्ति
मध्यस्थता का उपयोग अधिक लचीले और शीघ्र विवाद समाधान के लिए किया जाता है। वाणिज्यिक मामलों से संबंधित विवादों का समाधान अक्सर मुकदमेबाजी के बजाय मध्यस्थता से किया जाता है, क्योंकि इससे समय की बचत होती है तथा यह त्वरित और कुशल होता है। मध्यस्थता प्रक्रिया में मध्यस्थ की नियुक्ति महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं में से एक है। अधिनियम, 1996 की धारा 11 मध्यस्थता की प्रक्रिया के लिए मध्यस्थों की नियुक्ति से संबंधित है। यह धारा उन सभी संभावित कार्यवाही के बारे में बताती है, जिन्हें पक्षकार अपनी मध्यस्थता कार्यवाही के लिए मध्यस्थ चुनने के लिए अपना सकते हैं। यदि पक्षकार स्वयं मध्यस्थों का चयन करने में सक्षम नहीं हैं, तो प्रावधान में अन्य तरीके भी बताए गए हैं जिनके माध्यम से मध्यस्थ नियुक्त किया जा सकता है।
मध्यस्थ की नियुक्ति में पक्षकार स्वायत्तता (ऑटोनामी) का सिद्धांत
पक्षकार स्वायत्तता का सिद्धांत मध्यस्थता में मौलिक अवधारणाओं में से एक है। यह सिद्धांत पक्षों को मध्यस्थता की प्रक्रिया में नियंत्रण और स्वतंत्रता प्रदान करता है। यह सिद्धांत पक्षों को अपनी आवश्यकताओं, प्राथमिकताओं और आपसी समझौतों के अनुसार मध्यस्थता की कार्यवाही के विभिन्न पहलुओं पर निर्णय लेने की अनुमति देता है। भारत में पक्षों की स्वायत्तता का सिद्धांत विधायिका में ही सन्निहित है। पक्षों की स्वायत्तता मध्यस्थता समझौते में प्रतिबिंबित होती है जो मध्यस्थता कार्यवाही में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
मध्यस्थता समझौते के कारण पक्षकार अपने विवाद को सुलझाने के लिए न्यायालय की ओर नहीं बल्कि मध्यस्थता की ओर जाते हैं। समझौते में यह तय किया जाता है कि मध्यस्थता प्रक्रिया किस प्रकार आगे बढ़ेगी। पक्षकार की स्वायत्तता का प्रयोग मध्यस्थ न्यायाधिकरण के संगठन और नियुक्ति के समय देखा जा सकता है। पक्षकार अपनी विशेषज्ञता, निष्पक्षता, अनुभव और अन्य प्रासंगिक कारकों के अनुसार अपने मध्यस्थों का चयन कर सकते हैं और निर्णय लेने में सहायता कर सकते हैं जो इस सिद्धांत के साथ पक्षों के बीच विवाद को हल करने में सहायता करता है। पक्षों द्वारा मध्यस्थों को चुनने की स्वतंत्रता, पक्षकार स्वायत्तता सिद्धांत के मुख्य पहलुओं में से एक है।
स्वायत्तता का सिद्धांत तब भी देखा जाता है जब पक्ष गोपनीयता, निजता, व्यावसायिक रहस्य और संवेदनशील जानकारी को बनाए रखने और इसे जनता के सामने प्रकट होने से बचाने के लिए सहमत होते हैं। पक्षकार विवाद समाधान पद्धति के रूप में मध्यस्थता का चयन करते हैं, क्योंकि पारंपरिक मुकदमेबाजी प्रक्रिया की तुलना में इसमें गोपनीयता बनाए रखी जाती है। मध्यस्थता कार्यवाही में पक्षकार मध्यस्थता का स्थान भी चुनते हैं। दोनों पक्ष एक ऐसा स्थान चुनते हैं जहां हस्तक्षेप कम हो। यदि मध्यस्थता का स्थान भारत से बाहर है तो भारत की अदालतें अंतरिम राहत नहीं दे सकतीं है। पक्षकार स्वायत्तता की अवधारणा पर भी कुछ प्रतिबंध हैं। अधिनियम में पक्षकार स्वायत्तता की परिकल्पना की गई है, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने एसवीजी मोलासेस कंपनी बी.वी. बनाम मैसूर मर्केंटाइल कंपनी लिमिटेड एवं अन्य (2006) के मामले में स्वीकार किया है।
हाल के वर्षों में पक्षकार स्वायत्तता के महत्व को महत्व दिया गया है, तथा भारतीय न्यायालयों ने मध्यस्थता के पक्ष में रुख अपनाया है। स्टेट ट्रेडिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड बनाम जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड (2020) के मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि यदि पक्षकारों ने अपने विवादों को हल करने के लिए एक विशिष्ट तंत्र पर सहमति व्यक्त की है, जिसमें मध्यस्थ की नियुक्ति की प्रक्रिया भी शामिल है, तो अदालतों के लिए इसकी अवहेलना करना और स्वप्रेरणा से मध्यस्थ नियुक्त करना गलत होगा।
अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता में पक्षकार स्वायत्तता का सिद्धांत भी एक मान्यता प्राप्त अवधारणा है, जो एक प्रमुख कारण है कि पक्षकार, विशेष रूप से वाणिज्यिक मामलों में, पारंपरिक मुकदमेबाजी के स्थान पर विवादों को सुलझाने के लिए मध्यस्थता का चयन करते हैं। पक्षकार अपनी आवश्यकताओं और मध्यस्थता में वादों की आवश्यकताओं के अनुसार तंत्र को परिभाषित और संशोधित कर सकते हैं। जो तंत्र अपनाया जाता है, उसे सार्वजनिक नीति और कानून के नियमों के अनुरूप होना चाहिए। अदालतें पक्षकारों को इस प्रणाली के तहत आगे बढ़ने की अनुमति देंगी और उसका सम्मान करेंगी, बशर्ते कि इससे कानून के नियमों का उल्लंघन न हो तथा मामले में यथासंभव न्यूनतम हस्तक्षेप होना चाहिए।
मध्यस्थों की संख्या
अधिनियम की धारा 10 के अनुसार, पक्षकारों को मध्यस्थता प्रक्रिया में नियुक्त किए जाने वाले मध्यस्थों की संख्या तय करने की स्वतंत्रता है, बशर्ते कि मध्यस्थता प्रक्रिया में मध्यस्थों की संख्या सम संख्या नहीं होनी चाहिए। प्रक्रिया एक सम (इवन) संख्या नहीं होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, तीन मध्यस्थ नियुक्त किए जा सकते हैं, जहां एक पक्ष एक मध्यस्थ नियुक्त करता है और फिर दोनों मध्यस्थ तीसरे मध्यस्थ को नियुक्त करते हैं जिसे पीठासीन मध्यस्थ के रूप में जाना जाता है। मध्यस्थों की संख्या दो या चार नहीं हो सकती है। जब पक्षकार विषम संख्या में मध्यस्थों की नियुक्ति करने में सक्षम नहीं होते हैं तो उस स्थिति में मध्यस्थ न्यायाधिकरण का गठन एकमात्र मध्यस्थ के साथ किया जाएगा। यदि पक्षकार मध्यस्थ नियुक्त करने में असफल रहते हैं या तीन मध्यस्थों के बीच सहमति होने पर दोनों मध्यस्थ तीसरे मध्यस्थ की नियुक्ति नहीं कर सकते हैं तो न्यायालय मध्यस्थ नियुक्त करेगा।
आईबीआई कंसल्टेंसी इंडिया बनाम डीएससी लिमिटेड (2018) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अधिनियम का मूल सिद्धांत यह है कि पक्ष इस शर्त पर मध्यस्थों की संख्या निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र हैं कि यह विषम संख्या होनी चाहिए और अधिनियम के अनुसार नियुक्ति की प्रक्रिया होनी चाहिए। जब पक्षकार आपसी सहमति से मध्यस्थ न्यायाधिकरण का गठन करने में सक्षम नहीं होते हैं, तो कोई भी पक्षकार उपाय के लिए अधिनियम की धारा 11 का सहारा ले सकता है, जहां न्यायिक हस्तक्षेप के साथ मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए विवरण प्रदान किया गया है।
एकमात्र मध्यस्थ
मध्यस्थता में एकमात्र मध्यस्थ की नियुक्ति हमेशा एक तर्कपूर्ण मुद्दा होता है। मध्यस्थता में दोनों पक्ष आपसी समझ और आपसी सहमति से एकमात्र मध्यस्थ का चयन करते हैं। एकमात्र मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए कोई भी पक्ष दूसरे पक्ष से अनुरोध कर सकता है। जब दूसरा पक्ष भी इससे सहमत हो जाता है तो एकमात्र मध्यस्थ की नियुक्ति की जाती है।
यदि पक्षकार इसके लिए सहमत नहीं होता है और पक्षकार दूसरे पक्षकार द्वारा अनुरोध किए जाने के दिन से तीस दिन के भीतर एकमात्र मध्यस्थ के लिए सहमत नहीं होते हैं, तो पक्षकार के अनुरोध पर मध्यस्थ की नियुक्ति उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय या ऐसे न्यायालय द्वारा नामित किसी संस्था या व्यक्ति द्वारा की जाएगी। मध्यस्थता के दायरे में कानून के सिद्धांत यह हैं कि एक पक्ष द्वारा मध्यस्थ की एकतरफा नियुक्ति का निषेध किया जाता है।
न्यायालयों ने इस सिद्धांत को बहुत दृढ़ता से बरकरार रखा और यह सुनिश्चित किया कि मध्यस्थता प्रक्रिया में निष्पक्षता और अखंडता बनी रहे। मध्यस्थता का मुख्य सार यह है कि यह विवादों को सुलझाने का एक निष्पक्ष और तटस्थ तरीका होना चाहिए। पर्किन्स ईस्टमैन आर्किटेक्ट्स डीपीसी और अन्य बनाम एचएससीसी इंडिया लिमिटेड (2022) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि “यदि एक पक्ष को एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त करने का अधिकार है, तो विवाद को हल करने के लिए रणनीति बनाते समय या निर्धारण करते समय पक्षकार द्वारा किए गए विकल्प में हमेशा विशिष्टता का कारक होगा।” विवाद में रुचि रखने वाले पक्ष को एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त नहीं करना चाहिए। विवाद के परिणाम में किसी भी प्रकार का हित रखने वाले पक्ष को निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त करने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने सिवांश इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट बनाम आर्मी वेलफेयर हाउसिंग ऑर्गनाइजेशन (2021) के मामले में यह दोहराया कि किसी भी पक्ष को जो मध्यस्थता प्रक्रिया का हिस्सा है, उसे एकतरफा मध्यस्थ नियुक्त करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है, क्योंकि यह विवाद के पक्षों के बीच निष्पक्ष निर्णय के मुख्य उद्देश्य को प्रभावित करेगा।
न्यू यूरेका ट्रैवल्स क्लब बनाम साउथ बंगाल स्टेट ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन (2022) मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने माना कि कोई भी हितबद्ध पक्ष न तो किसी विवाद का मध्यस्थ हो सकता है और न ही धारा 11 के तहत किसी विवाद के लिए मध्यस्थ नियुक्त कर सकता है।
मध्यस्थ नियुक्त करते समय सहमति का विफल होना
मध्यस्थता प्रक्रिया के लिए मध्यस्थ की नियुक्ति के समय दोनों पक्षों को आपसी सहमति पर पहुंचना होगा। जब मध्यस्थ की नियुक्ति के समय पक्षकार एक आम सहमति पर नहीं पहुंच पाते हैं तो वे इसके लिए सहायता लेने हेतु न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकते हैं। यदि दूसरा पक्ष अनुरोध किए जाने के तीस दिनों के भीतर मध्यस्थ नियुक्त करने में विफल रहता है, तो सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय या ऐसे न्यायालय द्वारा नामित कोई संस्था या व्यक्ति धारा 11 (4) (a) के तहत मध्यस्थ नियुक्त कर सकता है। इसी प्रकार, जब दो मध्यस्थ, अपनी नियुक्ति की तिथि से तीस दिनों के भीतर पारस्परिक रूप से किसी तीसरे मध्यस्थ की नियुक्ति नहीं कर सकते, तो ऊपर वर्णित नियम का पालन किया जाता है।
आवेदन की अस्वीकृति
यदि सीमा अवधि समाप्त हो गई है तो न्यायालयों में मध्यस्थ नियुक्त करने के लिए पक्षों द्वारा किया गया आवेदन अस्वीकार किया जा सकता है। मेसर्स उत्तराखंड पूर्व सैनिक कल्याण निगम लिमिटेड बनाम नॉर्दर्न कोल फील्ड लिमिटेड (2019) के मामले में मुख्य मुद्दा यह था कि क्या उच्च न्यायालय मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए किए गए आवेदन को यह कहते हुए खारिज कर सकता है कि यह सीमा अवधि पर रोक लगाता है। 2015 के संशोधन के बाद, धारा 11 के आवेदनों के अंतर्गत न्यायालय की एकमात्र भूमिका यह देखना है कि कोई मध्यस्थता समझौता मौजूद है या नहीं। विवाद से संबंधित अन्य सभी मामलों का निर्णय मध्यस्थ द्वारा स्वयं किया जाना है। इसमें कॉम्पटंज -कॉमपेतेन के सिद्धांत पर जोर दिया गया है। भारत में मध्यस्थता कानूनों के तहत यह सिद्धांत मध्यस्थ न्यायाधिकरणों को अपना अधिकार क्षेत्र तय करने की शक्ति देता है। हालाँकि, 2019 में अधिनियम में किए गए संशोधन के साथ, इस प्रतिबंधात्मक दायरे को हटा दिया गया है।
न्यायालय पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत आवेदन को केवल तभी अस्वीकार कर सकता है, जब आवेदन पूरी तरह से समय-बाधित हो या पूर्व-दृष्टया अमान्य हो। मेसर्स आरिफ अजीम कंपनी लिमिटेड बनाम मेसर्स एप्टेक लिमिटेड (2024) के मामले में भी यही माना गया है। अदालत ने यह भी सुझाव दिया कि सीमा अवधि को छोटा करने के लिए विधायी कार्रवाई की जाए, क्योंकि इससे विवादों को शीघ्रता से निपटाने में मदद मिलेगी।
मध्यस्थ की नियुक्ति में न्यायालय का हस्तक्षेप
भारत में पक्षकारों द्वारा प्रायः तदर्थ मध्यस्थता का विकल्प चुना जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि मध्यस्थता और इसकी प्रक्रिया से संबंधित सभी महत्वपूर्ण निर्णय पक्षों द्वारा स्वयं निर्धारित किए जाएंगे। कोई विशिष्ट न्यायालय, बोर्ड या संस्था नहीं है जो मध्यस्थों की नियुक्ति करती हो। मध्यस्थ नियुक्त करने का अधिकार विवाद के पक्षों में निहित प्राथमिक अधिकार है। जब पक्षों को मध्यस्थों की नियुक्ति में किसी समस्या का सामना करना पड़ता है तो वे अधिनियम की धारा 11 के तहत उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में जा सकते हैं।
न्यायालयों की एकमात्र भूमिका मध्यस्थों की नियुक्ति करके या इसके लिए किसी मध्यस्थ संस्था या व्यक्ति को नामित करके पक्षों को समय पर सहायता प्रदान करना है। मध्यस्थता के संबंध में भारत में न्यायिक हस्तक्षेप का दायरा अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता पर अनसिट्रल मॉडल कानून के अनुरूप है।
मध्यस्थों को देय शुल्क
जब कोई मध्यस्थ मध्यस्थता प्रक्रिया संचालित करता है और कोई निर्णय पारित किया जाता है, तो उस स्थिति में मध्यस्थ शुल्क के लिए उत्तरदायी होता है। मध्यस्थों की शुल्क विवाद समाधान में शामिल दोनों पक्षों द्वारा अदा की जानी है। शुल्क, उसकी राशि और भुगतान के तरीके पर निर्णय विवाद के सभी पक्षों के बीच किया जाता है। इन सभी विवरणों का उल्लेख मध्यस्थता समझौते में किया जा सकता है या मध्यस्थ की नियुक्ति के समय पक्षों द्वारा आपसी सहमति से तय किया जा सकता है। विवाद में शामिल राशि के योग के अनुसार मध्यस्थों को देय शुल्क से संबंधित सभी जानकारी चौथी अनुसूची में संदर्भित की गई है।
मध्यस्थ द्वारा प्रकटीकरण
मध्यस्थ द्वारा प्रकटीकरण का नियम बहुत सामान्य नियम है। मध्यस्थों को नियुक्त होने से पहले कुछ जानकारी का खुलासा करना होता है। मध्यस्थ द्वारा प्रकटीकरण अनिवार्य माना जाता है तथा यह विवेकाधीन नहीं है। मध्यस्थ को लिखित रूप में यह बताना होगा कि क्या मामले में या विवाद में शामिल पक्षों में उसका कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हित है, क्या उसका दोनों पक्षों में से किसी के साथ या विवाद के पक्षों से संबंधित किसी व्यक्ति के साथ कोई पुराना संबंध है, क्या उसका विषय-वस्तु में कोई व्यापारिक, व्यक्तिगत या पेशेवर हित है या नहीं।
यदि मध्यस्थ के विरुद्ध कोई न्यायोचित संदेह हो तो ऐसे मध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती दी जा सकती है। इसलिए यह सलाह दी जाती है कि नियुक्ति से पहले सब कुछ लिखित रूप में बता दिया जाए। इस प्रकटीकरण के पीछे मुख्य कारण यह सुनिश्चित करना है कि हितों में कोई विवाद न हो, मध्यस्थ द्वारा लिए गए निर्णय पूर्वाग्रह से मुक्त हों, लिए गए निर्णय पर कोई बाहरी या आंतरिक प्रभाव न हो, और मध्यस्थ निष्पक्ष होना चाहिए ताकि वह न्यायसंगत और निष्पक्ष निर्णय ले सके।
मध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती देने के आधार
कुछ ऐसे आधार हैं जिनके आधार पर विवाद के पक्षकारों द्वारा मध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती दी जा सकती है। विवादों को सुलझाने के लिए मध्यस्थता की विधि को चुना जाता है, क्योंकि मुकदमेबाजी की तुलना में यह विवाद समाधान की तीव्र, निष्पक्ष और कुशल विधियों में से एक है। मध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती देने के कुछ आधार इस प्रकार हैं:
- यदि दोनों पक्षों में से किसी एक का मानना है कि मध्यस्थ के पास अपेक्षित योग्यताएं नहीं हैं।
- यदि कुछ परिस्थितियां ऐसी हों जिनसे मध्यस्थ की निष्पक्षता पर संदेह उत्पन्न होता हो तो नियुक्ति को चुनौती भी दी जा सकती है।
- यदि मध्यस्थ का विवाद के किसी एक पक्ष के साथ किसी प्रकार का संबंध है, और नियुक्ति के बाद दूसरे पक्ष को इसकी जानकारी होती है, तो ऐसी नियुक्ति को भी चुनौती दी जा सकती है।
- यदि मध्यस्थ का विवाद के परिणाम में किसी प्रकार का हित है, जिसे उसने अपनी नियुक्ति के समय छुपाया है, तो ऐसी नियुक्ति को किसी भी पक्ष द्वारा चुनौती दी जा सकती है।
मध्यस्थ की नियुक्ति की सीमा अवधि
मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए आवेदन करने के संबंध में 2015 और 2019 के संशोधनों के बाद भी अधिनियम में कोई सीमा अवधि निर्धारित नहीं की गई है। इस अंतर को संबोधित करते हुए, भारत संचार निगम लिमिटेड बनाम मेसर्स नॉर्टेल नेटवर्क इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (2021) में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अधिनियम की धारा 11 के तहत मध्यस्थों की नियुक्ति के लिए आवेदन भरने की सीमा अवधि, परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 137 के तहत शासित होगी। जब किसी अधिनियम में कोई परिसीमा अवधि का उल्लेख नहीं होता है, तो ऐसे मामलों में सामान्य नियम के रूप में अनुच्छेद 137 का पालन किया जाता है। यदि मध्यस्थों की नियुक्ति के संबंध में आवेदन दाखिल करने के लिए कोई सीमा अवधि निर्धारित नहीं की गई है, तो आवेदन दाखिल करने के लिए ऐसे अनुरोध प्राप्त होने की तारीख से तीन वर्ष की समयावधि मानी जाएगी।
अदालत ने यह भी कहा कि जब पक्षकार निर्धारित समय अर्थात तीस दिन के भीतर मध्यस्थ नियुक्त करने में विफल रहते हैं, तभी इसके लिए आवेदन भरने की समय सीमा उत्पन्न होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि धारा 11 के तहत आवेदन की तीन वर्ष की समयावधि बहुत लंबी है। अदालत ने कहा कि मध्यस्थता प्रक्रिया का चयन करने का मुख्य कारण विवाद का शीघ्र समाधान करना है और यह सीमा अवधि प्राथमिक उद्देश्य को विफल कर देती है। संसद को धारा 11 में संशोधन करने की आवश्यकता है, जिसमें मध्यस्थता नियुक्ति के लिए आवेदन करने हेतु पक्षों के लिए अदालत में जाने की एक विशिष्ट सीमा अवधि निर्धारित की गई है।
न्यायिक हस्तक्षेप का दायरा
2015 से पूर्व संशोधन
नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम बोघारा पॉलीफैब (2008) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने मध्यस्थता से संबंधित मुद्दों को इस आधार पर वर्गीकृत किया कि अदालत किसमें हस्तक्षेप कर सकती है और किसमें हस्तक्षेप कर सकती है। निर्णय में मुद्दों की तीसरी श्रेणी को भी निर्दिष्ट किया गया है, जिसका निर्णय केवल मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा किया जा सकता है, जो अनिवार्यतः धारा 11 के अनुसार नियुक्त एकमात्र मध्यस्थ या मध्यस्थों का पैनल होता है। मुद्दों की श्रेणियां नीचे सूचीबद्ध हैं:
प्रथम श्रेणी
मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा मनोनीत व्यक्ति द्वारा तय किये जाने वाले मुद्दे:
- क्या पक्ष द्वारा उच्च न्यायालय में दायर किया गया निर्णय उचित है या नहीं।
- क्या कोई मध्यस्थता समझौता मौजूद है और क्या आवेदन करने वाला पक्ष समझौते का पक्ष है।
दूसरी श्रेणी
वे मुद्दे जिन पर मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा मनोनीत व्यक्ति निर्णय कर सकते हैं या मध्यस्थ न्यायाधिकरण के निर्णय पर छोड़ सकते हैं:
- क्या दावा जीवित दावा है या मृत दावा है।
- क्या पक्षों ने अपनी संतुष्टि दर्ज करके या बिना किसी आपत्ति के भुगतान प्राप्त करके लेनदेन पूरा कर लिया है।
तीसरी श्रेणी
मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा पूरी तरह से तय किये जाने वाले मुद्दे:
- क्या दावा मध्यस्थता खंड के दायरे में आता है।
- मध्यस्थता में किसी गुण-दोष या किसी दावे का शामिल होना।
दीपक गैल्वनाइजिंग एंड इंजीनियरिंग बनाम भारत सरकार एवं अन्य (1997) और कॉन्टिनेंटल कंस्ट्रक्शन लिमिटेड बनाम नेशनल हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (1998) के मामलों में यह माना गया कि यदि पक्षकार स्वयं मध्यस्थ नियुक्त करने में असफल हो जाते हैं, तो इससे उनकी नियुक्ति का अधिकार समाप्त हो जाता है। इससे मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा मनोनीत व्यक्ति को नियुक्ति का अधिकार मिल जाता है।
2015 के बाद संशोधन
धारा 6A के सम्मिलन से न्यायिक हस्तक्षेप कम हो गया, जिसके तहत न्यायालयों को अपनी भूमिका मध्यस्थता समझौते के अस्तित्व की जांच तक सीमित करनी पड़ी है। नया खंड अदालत को इसकी वैधता की जांच करने की अनुमति नहीं देता है। यह प्रावधान कार्यवाही में देरी से बचने में मदद करता है।
मेसर्स डूरो फेलगुएरा एस.ए. बनाम मेसर्स गंगावरम पोर्ट लिमिटेड (2017) के मामले में, उप-धारा 6A की शाब्दिक व्याख्या को अपनाया गया था, जिससे न्यायिक जांच को समझौते के अस्तित्व तक सीमित कर दिया गया था। इसके अतिरिक्त, निर्णय में अस्तित्व का निर्धारण करने के लिए महत्वपूर्ण बिंदु निर्धारित किया गया है, जिसके तहत यह जांच की जाएगी कि क्या समझौते में विवाद की स्थिति में मध्यस्थता के लिए कोई खंड मौजूद है। उप-धारा 6A की प्रतिबंधात्मक प्रकृति के बावजूद, न्यायालयों ने कई निर्णयों में इसे नजरअंदाज किया है।
गरवारे वॉल रोपर्स लिमिटेड बनाम कोस्टल मरीन कंस्ट्रक्शन एंड इंजीनियरिंग लिमिटेड (2019) में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि समझौते पर पर्याप्त मुहर लगनी चाहिए। प्राइम मार्केट रीच प्राइवेट लिमिटेड बनाम सुप्रीम एडवरटाइजिंग प्राइवेट लिमिटेड (2019) के मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह पाते हुए कि समझौता अवैध था क्योंकि यह अधिनियम की धारा 7 में निर्धारित आवश्यकताओं का पालन नहीं करता था, पक्षों को मध्यस्थता के लिए संदर्भित करने से इनकार कर दिया था।
2019 के बाद का संशोधन
इस संशोधन से नियुक्ति की जिम्मेदारी मध्यस्थ संस्थाओं को सौंपकर महत्वपूर्ण परिवर्तन लाया गया था। इस संशोधन ने न्यायिक हस्तक्षेप को काफी हद तक कम कर दिया तथा मध्यस्थता प्रणाली को संस्थागत बना दिया। आवेदनों के निपटान के लिए दी गई समयावधि में कमी से न केवल शीघ्र निपटान संभव होगा, बल्कि ऐसे आवेदनों में न्यायिक हस्तक्षेप भी कम होगा।
हालाँकि, इस संशोधन अधिनियम के प्रारूपण में कुछ कमियाँ हैं। मध्यस्थों के पैनल की समीक्षा करने संबंधी न्यायालयों की शक्ति के बारे में स्पष्टता का अभाव है, तथा क्या यह शक्ति मध्यस्थ संस्थाओं द्वारा गठित मध्यस्थों तक भी विस्तारित है।
इससे पहले, धारा 11 के तहत नियुक्ति के आदेश को प्रशासनिक न मानकर न्यायिक माना जाता था। एस.बी.पी. एंड कंपनी बनाम पटेल इंजीनियरिंग लिमिटेड (2005) के मामले में भी इसे न्यायिक प्रकृति का माना गया था। 2019 संशोधन अधिनियम के साथ, मध्यस्थता के संस्थागतकरण के कारण मध्यस्थों की नियुक्ति का आदेश प्रशासनिक हो गया है।
अन्य प्रासंगिक निर्णय
विश्राम वरु एवं अन्य बनाम भारत संघ (2022)
मामले के तथ्य
इस मामले में जब अपीलकर्ता कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय से संतुष्ट नहीं हुआ तो उसने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। धारा 11(6) के तहत दायर आवेदन को अदालत ने खारिज कर दिया। अपीलार्थी को वर्ष 1982 में कार्य आदेश प्राप्त हुआ था, जो वर्ष 1986 में पूरा हुआ। अपीलकर्ता द्वारा दावा किया गया कि उसने निर्धारित मात्रा से अधिक कार्य किया है तथा इसके लिए उसे अतिरिक्त भुगतान दिया जाना है।
दक्षिण पूर्व रेलवे के महाप्रबंधक ने 2018 के बाद से अपीलकर्ता द्वारा किए गए किसी भी पत्राचार का जवाब नहीं दिया। अपीलकर्ता ने मध्यस्थता या भुगतान का अनुरोध किया था। जब दूसरे पक्ष की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं दी गई, तो अपीलकर्ता द्वारा 2019 में मध्यस्थता के लिए याचिका दायर की गई। याचिका को खारिज कर दिया गया क्योंकि इसकी समय सीमा समाप्त हो चुकी थी। अपीलकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि भारत संचार निगम लिमिटेड बनाम मेसर्स नॉर्टेल नेटवर्क्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (2021) के निर्णय के अनुसार आवेदन करने के अधिकार के लिए सीमा अवधि तीन वर्ष थी।
उठाए गए मुद्दे
क्या अपीलकर्ता द्वारा दायर मध्यस्थता याचिका समय सीमा पार कर चुकी थी या नहीं?
निर्णय
सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि धारा 11 की उपधारा 6 के अंतर्गत किया गया आवेदन समय-सीमा द्वारा वर्जित है। इस मामले में, विवाद के उभरने के लगभग बत्तीस वर्ष बाद मध्यस्थता खंड लागू किया गया है।
ओवरनाइट एक्सप्रेस लिमिटेड बनाम दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन (2022)
मामले के तथ्य
इस मामले में, विवाद समाधान के लिए याचिकाकर्ता और प्रतिवादी के बीच मध्यस्थ नियुक्त करने के लिए अधिनियम की धारा 11 के तहत याचिका दायर की गई थी। याचिकाकर्ता को नई दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन में एक स्थान (वाणिज्यिक) के लिए अनुबंध दिया गया था। याचिकाकर्ता को बोली-पूर्व की तुलना में कम क्षेत्रफल और क्षति से संबंधित संयुक्त माप के समय कई विसंगतियां मिलीं। इन मुद्दों को सुधारने के लिए कई अनुरोध किए गए, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई, जिसके कारण याचिकाकर्ता को दिल्ली उच्च न्यायालय में जाकर अंतरिम राहत मांगने के लिए बाध्य होना पड़ा था।
नई दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन ने केवल आंशिक सुधार कार्य किया तथा पूरा कार्य पूरा नहीं किया। मामले को मध्यस्थता के माध्यम से सुलझाने का निर्णय लिया गया। नई दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन ने याचिकाकर्ता के समक्ष पांच मध्यस्थों का एक पैनल प्रस्तुत किया, जिसमें से एक का चयन किया जाना था। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि इससे सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है तथा यह निष्पक्षता नहीं है। यह अधिनियम की धारा 11(6) के विरुद्ध था।
उठाए गए मुद्दे
- क्या नई दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन याचिकाकर्ता को पांच मध्यस्थों में से चयन करने का विकल्प दे सकता है?
- क्या इस मामले में अधिनियम की धारा 11(6) का उल्लंघन हुआ है?
निर्णय
इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि कोई भी पक्ष दूसरे पक्ष को मध्यस्थों का एक संकीर्ण पैनल नहीं दे सकता है, जो इस मामले में पांच मध्यस्थों का था। याचिकाकर्ता को मध्यस्थों का चयन करने के लिए बहुत सीमित विकल्प दिए गए हैं, जो प्रतिबंधात्मक है और धारा 11(6) का भी उल्लंघन करता है। अंततः विवाद को सुलझाने के लिए दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र ने एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त किया था।
ऑलवेज रिमेम्बर प्रॉपर्टीज़ प्राइवेट लिमिटेड बनाम रिलायंस होम फाइनेंस लिमिटेड और अन्य (2022)
मामले के तथ्य
इस मामले में आवेदक ने अधिनियम की धारा 11 के तहत आवेदन दायर किया था। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा एक अंतरिम आदेश पारित किया गया, जिसमें कहा गया कि प्रतिवादी के विरुद्ध सीआईआरपी (कॉर्पोरेट दिवाला समाधान प्रक्रिया) शुरू की गई। प्रतिवादी के विरुद्ध सभी कार्यवाही बंद हो जाएंगी तथा स्थगन अवधि शुरू हो जाएगी। आवेदक इस आदेश से संतुष्ट नहीं है तथा उसने इसकी समीक्षा की मांग की है।
उठाए गए मुद्दे
क्या अधिनियम की धारा 11 के अंतर्गत पारित आदेश की समीक्षा करने की शक्ति न्यायालय के पास है या नहीं?
निर्णय
दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय अधिनियम की धारा 11 के तहत न्यायिक कार्य करता है न कि प्रशासनिक कार्य करता है। इसलिए, धारा 11 के तहत पारित आदेश की उच्च न्यायालय द्वारा समीक्षा की जा सकती है यदि इसमें कोई तथ्यात्मक त्रुटि है जो स्पष्ट है और वह किसी ऐसे बयान पर आधारित है जो गलत है और वकील द्वारा दिया गया है।
ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम मेसर्स नरभेरम पावर एंड स्टील प्राइवेट लिमिटेड (2018)
मामले के तथ्य
इस मामले में मेसर्स नरभेरम पावर एंड स्टील प्राइवेट लिमिटेड (एनपीएसएल) का ओडिशा में एक कारखाना था। कंपनी ने बीमाकर्ता (ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड) के साथ एक नीति (फायर इंडस्ट्रियल ऑल रिस्क पॉलिसी) पर हस्ताक्षर किए थे। नीति के अनुसार, बीमाकर्ता ओडिशा कारखाने में होने वाले सभी नुकसान की क्षतिपूर्ति करेगा। अक्टूबर में आए भीषण चक्रवात के कारण ओडिशा स्थित कारखाना को भी भारी नुकसान हुआ था। कंपनी को लगभग 39,336,224 रुपये का नुकसान हुआ था। बीमा कंपनी को नुकसान के बारे में सूचित कर दिया गया तथा नुकसान का सर्वेक्षण करने के लिए एक सर्वेक्षक नियुक्त किया गया था।
बीमाकर्ता ने दावे का निपटान नहीं किया, इसलिए एनपीएसएल ने इस विवाद को सुलझाने के लिए मध्यस्थता का अनुरोध किया। बीमा कंपनी द्वारा मध्यस्थता का अनुरोध भी अस्वीकार कर दिया गया। एनपीएसएल द्वारा अधिनियम की धारा 11(6) के तहत एक आवेदन दायर किया गया था। उच्च न्यायालय द्वारा एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश को मध्यस्थ नियुक्त किया गया था।
मध्यस्थता खंड 13 में विवाद समाधान खंड को तीन भागों में वर्गीकृत किया गया है:
- दावे की मात्रा से संबंधित विवादों को निपटाने के लिए मध्यस्थता पद्धति का उपयोग किया जाएगा।
- यदि बीमा कंपनी द्वारा दावा की गई जिम्मेदारी से इनकार नहीं किया जाता है, तो कोई मध्यस्थता नहीं होगी।
- बीमाकर्ता के विरुद्ध कार्रवाई के अधिकार या वाद के अधिकार के अंतर्गत कानूनी कार्रवाई आरंभ करने के लिए, दावे की राशि पर मध्यस्थता निर्णय प्राप्त किया जाना चाहिए।
उठाए गए मुद्दे
क्या मध्यस्थ की नियुक्ति तब उचित थी जब बीमा कंपनी ने दावे को अस्वीकार कर दिया था और दायित्व को स्वीकार नहीं किया था?
निर्णय
उच्च न्यायालय ने कहा कि मध्यस्थता से संबंधित धाराएं अत्यंत अस्पष्ट प्रकृति की हैं। अदालत ने खंड के भाग 1 और 2 को अलग कर दिया और निर्णय दिया कि मामले को मध्यस्थता के लिए भेजा जा सकता है तथा इसके लिए एक मध्यस्थ नियुक्त किया। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को पलट दिया और कहा कि अनुबंध की व्याख्या, विशेष रूप से बीमा अनुबंधों के मामले में, ठीक उसी प्रकार की जानी चाहिए, जैसा कि व्यक्त किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने वल्कन इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम महाराज सिंह एवं अन्य (1975) के मामले का उल्लेख करते हुए कहा कि इस मामले में भी यही बात स्पष्ट की गई है। सर्वोच्च न्यायालय ने मध्यस्थ की नियुक्ति पर आपत्ति का समर्थन किया। इस मामले में खंड 13 में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि मध्यस्थता के लिए कोई संदर्भ नहीं दिया जाएगा, बीमाकर्ता दायित्व से इनकार करता है। अदालत का मानना था कि एनपीएसएल को इसके लिए सिविल मुकदमा शुरू करना होगा।
इस मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने उन मामलों के बीच स्पष्ट रूप से अंतर किया है, जहां दावा की गई राशि पर बीमाकर्ता द्वारा विवाद किया जाता है, तथा उन मामलों के बीच जहां बीमाकर्ता द्वारा उत्तरदायित्व से पूर्णतः इनकार किया जाता है।
यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड और अन्य बनाम हुंडई इंजीनियरिंग एंड कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड और अन्य (2018)
मामले के तथ्य
इस मामले में, प्रतिवादी गैमन इंडिया और हुंडई इंजीनियरिंग द्वारा 2,13,58,76,000 रुपये की एक ठेकेदार समस्त जोखिम बीमा पॉलिसी निष्पादित की गई थी। नीति में एक खंड था जिसमें कहा गया था कि जब दावे की मात्रा के संबंध में कोई विवाद उत्पन्न होगा, तो उन विवादों को मध्यस्थता के लिए भेजा जाएगा। यदि कंपनी द्वारा दायित्व से इनकार किया जाता है तो उस स्थिति में मध्यस्थता का सहारा नहीं लिया जाएगा।
एक दुर्घटना घटी और दावेदार को 1,51,59,94,543 रुपये की क्षति हुई। उक्त राशि के लिए कंपनी द्वारा दावा किया गया था। दो पक्षों (अपीलकर्ता और सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय) ने सर्वेक्षण किया था और उस पर रिपोर्ट तैयार की थी। यह निष्कर्ष निकाला गया कि क्षति डिजाइन में त्रुटि और दोषपूर्ण कारीगरी के कारण हुई थी। रिपोर्ट को ध्यान में रखते हुए अपीलकर्ता द्वारा धारा 7 के तहत कंपनी के दावे को खारिज कर दिया गया।
उठाए गए मुद्दे
क्या समझौते में मौजूद खंड की सख्ती से व्याख्या की जानी चाहिए या नहीं?
निर्णय
मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा लिए गए निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय ने पलट दिया। उच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि ठेकेदार की समस्त जोखिम बीमा नीति का खंड केवल तभी समाप्त किया जाता है जब विवाद दावे की राशि से संबंधित हो, न कि देयता से संबंधित हो। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि उच्च न्यायालय को यह पता लगाने के लिए और अधिक जांच करनी चाहिए थी कि क्या अपीलकर्ता ने समग्र रूप से दायित्व से इनकार किया था या फिर उसने स्वीकृति का प्रभाव दिखाया था, लेकिन वह विवाद के समाधान तक ही सीमित था।
निष्कर्ष
धारा 11 के अंतर्गत मध्यस्थों की नियुक्ति न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भागीदारी से शुरू हुई। हालाँकि, अब यह मध्यस्थ संस्थाओं की जिम्मेदारी बन गई है। यह स्पष्ट है कि 2019 संशोधन अधिनियम धारा 11 के विकास में एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है, जिसने मध्यस्थता प्रणाली को संस्थागत बनाया और न्यायिक हस्तक्षेप को कम करने के उद्देश्य को वास्तव में प्राप्त करने में मदद की है। हालाँकि, अधिनियम के प्रारूप में कुछ खामियां हैं। 2015 और 2019 में किए गए संशोधनों की शब्दावली अधिक स्पष्ट हो सकती है, क्योंकि अस्पष्टता के कारण अधिक न्यायिक हस्तक्षेप की गुंजाइश है।
मध्यस्थों की नियुक्ति निष्पक्षता और स्वायत्तता का उपयोग करके की जानी चाहिए। मध्यस्थता के मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप की अनुमति केवल तभी दी जाती है जब विवाद के पक्षकारों को मध्यस्थता नियुक्ति या किसी अन्य कारण से संबंधित समस्याओं का सामना करना पड़ता है, अदालत यह सुनिश्चित करती है कि प्रक्रिया किसी एक पक्ष के प्रति पक्षपातपूर्ण न हो। संपूर्ण अधिनियम मध्यस्थता प्रक्रिया को समयबद्ध तरीके से पूरा करने पर जोर देता है। पक्षों की स्वायत्तता की कुछ सीमाएं होती हैं, जिनका उल्लंघन पक्षों द्वारा नहीं किया जाना चाहिए। मध्यस्थ नियुक्त करने की शक्ति होने के बावजूद, कुछ बुनियादी दिशानिर्देश हैं जिन्हें मध्यस्थ की नियुक्ति के समय पूरा किया जाना चाहिए।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
क्या धारा 11 के अंतर्गत नियुक्ति आदेश को चुनौती देना संभव है?
उप-धारा 7 को हटा दिए जाने के कारण धारा 11 के तहत की गई नियुक्ति को चुनौती देने में कोई बाधा नहीं रह गई है। इसलिए, कोई भी पक्ष ऐसी नियुक्ति को अदालत में चुनौती देने के लिए कार्यवाही शुरू कर सकता है। इसके अलावा, मध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती देने के आधार अधिनियम की धारा 12 में निर्धारित किए गए हैं।
क्या मध्यस्थता समझौते का कोई पक्ष स्वयं एक एकल मध्यस्थ नियुक्त कर सकता है तथा उसे दूसरे पक्ष पर थोप सकता है?
यद्यपि किसी विवाद से संबंधित पक्ष के लिए एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त करना संभव है, परंतु ऐसा करने के लिए पक्षों के बीच सहमति होनी चाहिए तथा इसके द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए। इस प्रकार, यदि सहमत प्रक्रिया का पालन नहीं किया जाता है तो कोई पक्ष एकल मध्यस्थ की नियुक्ति नहीं कर सकता है तथा नियुक्ति का दायित्व दूसरे पक्ष पर नहीं थोप सकता है।
मध्यस्थ की नियुक्ति की सीमा अवधि क्या है?
मध्यस्थों की नियुक्ति की एक सीमा अवधि होती है। मध्यस्थ नियुक्त करने के लिए पक्षों के पास 3 वर्ष का समय होता है। यदि वे मध्यस्थ नियुक्त करने में असफल रहते हैं, तो न्यायालय पक्षों की ओर से मध्यस्थ नियुक्त करता है।
क्या किसी मध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती दी जा सकती है?
किसी मध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती दी जा सकती है यदि मध्यस्थ पक्षपातपूर्ण प्रतीत होता है, उसके पास अपेक्षित योग्यता या अनुभव नहीं है, उसका किसी पक्ष के साथ कोई अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष संबंध है, आदि।
अधिनियम की धारा 11 के अंतर्गत आवेदन दायर करने के बाद क्या कोई पक्षकार मध्यस्थ नियुक्त कर सकता है?
जब अधिनियम की धारा 11(6) के तहत उच्च न्यायालय में मध्यस्थ नियुक्त करने के लिए आवेदन दायर किया जाता है, तो मध्यस्थ नियुक्त करने का पक्षकार का अधिकार समाप्त हो जाता है। उच्च न्यायालय को धारा 11(6) के तहत शक्ति का प्रयोग करके मध्यस्थ नियुक्त करने का एकमात्र अधिकार है। मध्यस्थता समझौते की शर्तों के अनुसार मध्यस्थ की नियुक्ति न करने का क्या प्रभाव होता है?
मेसर्स दक्षिण शेल्टर्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम गीता एस जौहरी (2012) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि मध्यस्थ समझौते की शर्तों के अनुसार मध्यस्थ की नियुक्ति करने से इनकार करना मध्यस्थ की नियुक्ति में विफलता के समान होगा। समझौते के तहत मध्यस्थ नियुक्त करने का अधिकार समाप्त हो गया है। इस मामले में, प्रतिवादी मध्यस्थता समझौते की शर्तों के अनुसार मध्यस्थ नियुक्त करने में विफल रहा था। इसका अर्थ यह है कि प्रतिवादी का अधिकार समाप्त हो गया है।
मध्यस्थ की नियुक्ति पूर्व दृष्टया वैध होनी चाहिए अथवा धारा 11(6) के तहत अधिकार क्षेत्र रखने वाले न्यायालय को संतुष्ट करना चाहिए। नियुक्ति को तथ्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जाएगा तथा यह अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत भी नहीं आएगा।
संदर्भ