यह लेख पुणे के सिम्बायोसिस लॉ स्कूल की Bheeni Goyal द्वारा लिखा गया है और यह उन कानूनों पर चर्चा करती है जो देश में महिलाओं की सुरक्षा के लिए उपलब्ध हैं और क्या ऐसे कानूनों का कार्यान्वयन (इम्प्लीमेंटेशन) प्रभावी है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
वर्षों से, हमारे देश ने समाज में महिलाओं पर होने वाले विभिन्न अत्याचारों के खिलाफ, उनकी सुरक्षा के लिए कई कानून विकसित किए हैं। मुख्य कानून जो विकसित किए गए हैं वे हैं- घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम (प्रोटेक्शन ऑफ़ वूमेन फ्रॉम डोमेस्टिक वॉयलेंस), कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम (द सेक्शुअल हैरेसमेंट ऑफ़ वूमेन एट वर्कप्लेस (प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन एंड रिड्रेसल) एक्ट), 2013, भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड), 1860 में संशोधन (अमेंडमेंट), आदि। महिलाओं की सुरक्षा के लिए कई अधिनियमों के लागू होने के बाद भी, उनके खिलाफ अत्याचार अभी भी मौजूद हैं। जब हम ऐसे कानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन की बात करते हैं तो हम केवल सरकार को ही जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। विभिन्न ऐसे लोग हैं जो कानूनों के कार्यान्वयन और महिलाओं को उचित न्याय प्रदान करने के बीच में आते हैं। महिलाओं के सामने आने वाली विभिन्न कठिनाइयों के लिए समाज को भी दोषी ठहराया जाना चाहिए। इसलिए, यह पता लगाने की जरूरत है कि क्या समस्या महिलाओं की सुरक्षा के लिए ऐसे कानूनों को लागू करने में है या समाज की सोच में है, जिसे बदलने की जरूरत है, ताकि महिलाओं के रहने के लिए एक बेहतर और सुरक्षित जगह बनाई जा सके।
महिलाओं की सुरक्षा के लिए मौजूदा कानून
महिलाओं के खिलाफ अपराध की समस्या कोई नई बात नहीं है और यह हमारे समाज में सदियों से चलती आ रही है। हर दूसरी महिला अपने जीवन में दुर्व्यवहार, उत्पीड़न (टॉर्चर), अपमान का शिकार रहती है। सरकार ने कार्यस्थल पर घरेलू हिंसा या यौन हमले (सेक्शुअल असॉल्ट) के खिलाफ महिलाओं की सुरक्षा के लिए विभिन्न कानून, दहेज निषेध अधिनियम (डाउरी प्रोहिबिशन एक्ट), 1961, आदि विकसित किए हैं। विभिन्न कानून इस प्रकार हैं:
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005
1970 के दशक के दौरान, पश्चिम में कई देशों ने घरेलू हिंसा के खिलाफ कानून पास किए थे, लेकिन हमारे देश में महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए दहेज निषेध अधिनियम, 1961 या सती प्रथा की समाप्ति जैसे कुछ ही कानून थे। 1990 के दशक के आसपास सरकार द्वारा महिलाओं को हिंसा से सुरक्षित करने के लिए अधिनियम पास करने का प्रयास किया गया था। लेकिन देश में महिलाओं के खिलाफ अपराध के बढ़ते परिदृश्यों (सिनेरियो) पर विचार करने के बाद, सरकार ने आखिरकार वर्ष 2005 में घरेलू हिंसा अधिनियम पास किया।
इस अधिनियम के तहत, घरेलू हिंसा में, दुर्व्यवहार की धमकी या वास्तविक दुर्व्यवहार शामिल है, जो शारीरिक शोषण या यौन शोषण हो सकता है। इस अधिनियम में, आई.पी.सी. की धारा 498A के तहत परिभाषित क्रूरता शब्द भी शामिल है। यदि प्रतिवादी (रेस्पोंडेंट) न्यायालय द्वारा पास संरक्षण आदेश (प्रोटेक्शन ऑर्डर) का उल्लंघन करता है, तो उसे 1 वर्ष के कारावास की सजा हो सकती है या उस पर 20,000 रुपये का जुर्माना लगाया जा सकता है।
कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013
यह अधिनियम वर्ष 2013 में अधिनियमित (इनैक्ट) किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने विशाखा बनाम स्टेट ऑफ़ राजस्थान के मामले के बाद यह महसूस किया कि हमें इस तरह के कानून की आवश्यकता है। यह अधिनियम कार्यस्थल पर महिलाओं को किसी भी प्रकार के यौन उत्पीड़न से सुरक्षा प्रदान करने के लिए बनाया गया था। यह अधिनियम, उन महिला कर्मचारियों की समस्याओं के निवारण (रिड्रेसल) के लिए, प्रत्येक संगठन (ऑर्गेनाइजेशन) में आंतरिक शिकायत समिति (इंटर्नल कंप्लेंट कमिटी) बनाने का भी प्रावधान करता है, जो अपने कर्मचारियों या मालिकों द्वारा अपने कार्यस्थल पर परेशान होती हैं। यह अधिनियम, यौन उत्पीड़न को, किसी भी शारीरिक प्रस्तुति मांगने, संपर्क बनाने, किसी भी प्रकार के यौन फेवर मांगने, अश्लील साहित्य दिखाने (पोर्नोग्राफी), यौन रंगीन टिप्पणी (सेक्शुअली कलर्ड रिमार्क्स) करने, आदि के रूप में परिभाषित करता है।
भारतीय दंड संहिता, 1860
भारतीय दंड संहिता की धारा 376 में विभिन्न प्रकार के कार्यों का वर्णन किया गया है जो बलात्कार का गठन (कांस्टीट्यूट) करते है जिसके लिए, 7 साल की कैद और जुर्माने की सजा है। संशोधन से पहले, भारतीय दंड संहिता के तहत बलात्कार को विशेष रूप से परिभाषित नहीं किया गया था। संशोधन से पहले, यौन अपराध के लिए धारा 375 का इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन यौन उत्पीड़न के लिए नए कानून की आवश्यकता थी, वर्तमान कानून महिलाओं के साथ, आम तौर पर होने वाले विभिन्न प्रकार के अपराधों को परिभाषित नहीं करता है। बलात्कार से संबंधित कानून में अपर्याप्तता (इनेडिक्वेसी) थी और यह सुझाव दिया गया था कि कानून में कुछ बदलाव किए जाने चाहिए।
मौजूदा महिला सुरक्षा कानूनों के प्रभावशील रूप का विश्लेषण (एनालिसिस)
हमारे समाज में महिलाओं पर अत्याचार का सबसे प्रमुख कारण हिंसा और यौन उत्पीड़न है। महिलाओं को इन अत्याचारों से बचाने की आवश्यकता है और इसे प्राप्त करने के लिए हमारी सरकार ने कानून बनाने और आरोपियों पर भारी दंड लगाने का प्रयास किया है। इस समस्या का सामना, न केवल भारतीय समाज में महिलाओं द्वारा किया जाता है बल्कि, पूरी दुनिया में महिलाओं को इसका सामना करना पड़ता है। यह हर जाति, राष्ट्रीयता (नेशनलिटी), पंथ (क्रिड) की महिलाओं को प्रभावित करता है। यह हर महिला के लिए एक जानलेवा समस्या हो सकती है और समाज को भी गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती है। हर व्यक्ति, अपने आस पास के सामाजिक माहोल से सीखता है, जिसमें वह रह रहा है और वह महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानून के प्रभावी स्तर से भी अवगत हो जाता है।
हमारे देशों में, महिलाओं की सुरक्षा के लिए प्रमुख कानूनों को पिछले वर्षों में, उनके खिलाफ अपराध में वृद्धि होने के बाद ही पेश किया गया है। जबकि पश्चिमी देशों ने 1970 के दशक में ही कानून बना लिए थे, हमारे देश में पहले के चरणों (स्टेज) में कानूनों को लागू करने की कमी थी। कानून बनाने की पहल तभी की गई थी, जब अदालत ने महसूस किया कि इस संबंध में कानूनों की कमी है।
भारत में, न्याय तक उचित पहुंच के मामले में ज्यादातर महिलाओं के पास कम साधन है। महिलाओं में बड़ी संख्या में निरक्षरता दर (इल्लिट्रेसी रेट) है और विभिन्न सांस्कृतिक बाधाएं मौजूद हैं, जो उन्हें वर्षों से उनके साथ हो रहे अत्याचारों के खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई करने से रोकती हैं। कभी-कभी कानून और अदालतों की प्रतिकूल (अनफ्रेंडली) प्रक्रिया उन्हें न्याय तक पहुंचने से दूर रखती है। महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानून बनाना न केवल सरकार की जिम्मेदारी है, बल्कि उन्हें अदालतों के पास जाने की प्रक्रिया को काफी अनुकूल (फ्रेंडली) बनाने की जरूरत है, ताकि उन्हें कार्रवाई करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। जब हम महिलाओं के खिलाफ हिंसा का मुकाबला करने के बारे में बात करते हैं, तो अक्सर कानूनों में कुछ अस्पष्टताएं और अंतराल (गैप) मौजूद होते हैं जो हिंसा को अपराध बनाते हैं।
सभी सामाजिक संगठनों, सरकार के अधिकारियों और गैर सरकारी संगठनों (नॉन गवर्नमेंट ऑर्गेनाइजेशन) को आगे आना चाहिए और बलात्कार, यौन उत्पीड़न, आदि के पीड़ितों की सेवा में अपना हाथ बढ़ाना चाहिए। महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए गए विभिन्न कानून तभी सफल होंगे, जब उन्हें उचित सहायता और कार्यवाही के सभी चरणों में उन्हे मार्गदर्शन (गाइडेंस) प्रदान किया जाए। यदि पीड़ित आरोपी के खिलाफ शिकायत दर्ज करने का प्रयास करती है, तो कानून प्रवर्तन (इंफोर्समेंट) एजेंसियों को, जांच, विरोधी पक्ष के खिलाफ मुकदमे और सुनवाई के हर चरण में पीड़ित की सहायता करनी चाहिए। लेकिन हमारी कानून-प्रवर्तन एजेंसियां कभी-कभी पूरी प्रक्रिया में पीड़ितों की सहायता करने में विफल हो जाती हैं, जिसके कारण पीड़ितों को अंत में अन्य पक्षों के साथ गुप्त (सीक्रेट) समझौता करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। बलात्कार की शिकार ज्यादातर पीड़ित कमजोर समाज से होती हैं और इसलिए उनके पास इस तरह के समझौते में हामी भरने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता है।
महिला और बाल विकास मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ़ वूमेन एंड चाइल्ड डेवलपमेंट) के मार्गदर्शन में, भारतीय स्त्री शक्ति द्वारा पेश किए गए एक सर्वेक्षण (सर्वे) में, यह देखा गया कि ऐसे कई मामले हैं जिनमें एक महिला, घरेलू हिंसा के किसी भी मामले को दर्ज करने के लिए अकेली जाती है, पुलिस अधिकारी उचित उपचार प्रदान नहीं कर सकते, क्योंकि यह, अधिनियम के तहत अधिकारियों का कर्तव्य (ड्यूटी) है। पीड़ितों को आवश्यक वित्तीय सहायता (फाइनेंशियल सपोर्ट) और अन्य सहायता प्रदान करना अधिकारियों की जिम्मेदारी है, लेकिन कई अधिकारी ऐसा करने में विफल रहते हैं। कई अधिकारी भ्रष्टाचार (करप्शन) की आड़ में आते हैं और इसलिए उनमें से कई तो शिकायत भी दर्ज नहीं करते हैं। यदि हम महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानूनों का प्रभावी कार्यान्वयन चाहते हैं, तो यह वास्तव में आवश्यक है कि अधिकारियों को महिलाओं की मदद करने और किसी भी भ्रष्ट कार्य में खुद को शामिल न करने के लिए समर्थन (सपोर्ट) देना चाहिए।
हालांकि पी.ओ.एस.एच. अधिनियम के तहत, कार्यस्थल पर महिलाओं द्वारा किसी भी शिकायत के निवारण के लिए प्रत्येक संगठन में आंतरिक शिकायत समिति (आई.सी.सी.) की स्थापना की जाती है।
हालांकि, कभी-कभी आई.सी.सी. ठीक से काम नहीं करती है और कानून के प्रभावी कार्यान्वयन में बाधा उत्पन्न करती है। यह वास्तव में महत्वपूर्ण है कि पी.ओ.एस.एच. अधिनियम के तहत, आई.सी.सी. का एक वैध गठन होना चाहिए अन्यथा कार्यवाही को चुनौती दी जा सकती है, जिससे कार्यवाही को फिर से शुरू करने की आवश्यकता होती है। जब किसी शिकायत को आई.सी.सी. के समक्ष लाया जाता है, तो यह उनका कर्तव्य होता है कि वे शिकायतों को जल्दी और प्रभावी ढंग से देखें और उन्हें अधिनियम के तहत प्रदान की गई उचित प्रक्रिया का पालन करना आवश्यक है। कभी-कभी, आई.सी.सी. के सदस्यों के पास आवश्यक योग्यताएं नहीं होती हैं, जबकि अन्य बार समिति का गठन अधिनियम के अनुसार नहीं किया जाता है, जिससे कार्यवाही के साथ आगे बढ़ना असंभव हो जाता है, और इसलिए यह, महिलाओं की सुरक्षा के लिए गठित कानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए एक बाधा के रूप में कार्य करती है।
रुचिका सिंह छाबड़ा बनाम एयर फ्रांस इंडिया और अन्य के मामले में, उच्च न्यायालय (हाई कोर्ट) ने प्रदान किया कि समिति के बाहरी सदस्य (एक्सटर्नल मेंबर) के पास, बाहरी सदस्य के रूप में वर्गीकृत (क्लासीफाई) होने के लिए आवश्यक योग्यता नहीं थी और इसलिए उसने आई.सी.सी. द्वारा की गई कार्यवाही को रद्द कर दिया। यह अधिनियम के प्रावधानों का पालन करते हुए नही किया गया था। इसलिए आई.सी.सी. को अधिनियम के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए प्रासंगिक (रिलेवेंट) प्रावधानों का पालन करते हुए अपनी समितियां बनाने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए।
निष्कर्ष और सुझाव (कंक्लूज़न एंड सजेशन)
हालांकि, स्वतंत्रता के कई वर्षों के बाद सरकार ने, समाज के द्वारा महिलाओं पर होने वाले विभिन्न अत्याचारों से, महिलाओं की सुरक्षा के लिए विभिन्न कानूनों को विकसित करने के प्रयास किए हैं। लेकिन विभिन्न लोगों के कारण इसमें कुछ खामियां आती हैं, जो न्याय के कुशल (एफिशिएंट) कार्यान्वयन के बीच आते हैं। महिलाओं की सुरक्षा के लिए विकसित कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए यह वास्तव में आवश्यक है कि महिलाओं को उन विभिन्न अधिकारों के बारे में जागरूक किया जाए, जो उन्हें उपर्युक्त अधिनियमों के तहत प्रदान किए गए हैं। कुछ महिलाएं साक्षर (लिटरेट) हैं, लेकिन वे अभी भी अपने लिए उपलब्ध अधिकारों के बारे मे नहीं जानती हैं।
इसलिए, उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करना वास्तव में आवश्यक है। साथ ही, अधिकारियों को पीड़ित के प्रति कुछ संवेदनशीलता (सेंसटिविटी) दिखानी चाहिए और उनकी हर संभव मदद करनी चाहिए, भले ही वह मदद उनके कर्तव्यों के तहत न आती हो या उसके लिए उन्हें अतिरिक्त प्रयास करना पढ़ा हो। कानूनों के कार्यान्वयन को प्रभावी बनाने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि हम पीड़ितों और न्याय प्रणाली (सिस्टम) के बीच के अंतर को कम करे और उन्हें आवश्यक मार्गदर्शन और सहायता प्रदान करें। यौन शोषण, हिंसा, ऐसे कार्य हैं जिनका उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बहुत प्रभाव पड़ता है। उन्हें मार्गदर्शन प्रदान करने के साथ-साथ अन्य प्रकार की सहायता जैसे, चिकित्सा उपचार और मनोरोग (साइकेट्रिक) उपचार भी प्रदान करना आवश्यक है।
साथ ही, हर राज्य में सरकार को हर जिले में विभिन्न सामाजिक समूहों और गैर सरकारी संगठनों को प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि वे उन महिलाओं की सुरक्षा और देखभाल के लिए अपना समर्थन और सहयोग दें, जो हिंसा, या किसी भी तरह के शोषण का शिकार हुई हैं, खासकर अनपढ़ महिलाएं, जो अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हैं और उनके परिवार में कोई भी उनका समर्थन नहीं कर सकता है। हिंसा और यौन उत्पीड़न की सभी पीड़ितों की मदद करने के लिए पुलिस अधिकारियों को विशेष प्रशिक्षण (स्पेशल ट्रेनिंग) दिया जाना चाहिए। ऐसे मामलों के समय यह सुनिश्चित किया जाए कि थाने में अधिक से अधिक महिला पुलिस अधिकारी हों। यदि हम ऐसे सभी उपायों पर ध्यान दें तो उनकी सुरक्षा के लिए बनाए गए कानूनों का प्रभावी कार्यान्वयन हो सकता है।
संदर्भ (रेफरेंसेस)
अधिनियम
- भारतीय दंड संहिता, 1860।
- घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम।
- कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न।