ई-कॉमर्स इंडस्ट्री द्वारा सामना की जाने वाली कॉपीराइट समस्याएं क्या हैं

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Indian Copyright Act
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 यह लेख Ashwene Vij द्वारा लिखा गया है जो लॉसीखो से इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी, मीडिया और एंटरटेनमेंट लॉ  में डिप्लोमा कर रहे हैं। इस लेख में वह, ई-कॉमर्स इंडस्ट्री द्वारा सामना की जाने वाली कॉपीराइट समस्याओं के बारे में चर्चा करते है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है। 

परिचय (इंट्रोडक्शन)

भारत में तकनीकों ने, इंटरनेट के रूप में एक क्रांतिकारी रूप लिया है। हमारे जीवन के सभी क्षेत्रों में इसका इस्तेमाल होता है। यह, वाणिज्यिक लेनदेन (कमर्शियल ट्रांसेक्शंस) करने के लिए एक बुनियादी तत्व (बेसिक एलिमेंट) बन गया है और यह सभी स्तरों (लेवल्स) पर अपने उपभोक्ताओं (कंस्यूमर्स) और व्यवसायों को सशक्त (एम्पॉवर) कर रहा है और उन्हें आपस में जोड़ रहा है। ई-कॉमर्स में, इसका केंद्र होने के कारण, वृद्धि और विकास पथ देखा गया है क्योंकि एफ.डी.आई. दिशानिर्देशों (गाइडलाइन्स) ने बाज़ार-आधारित व्यवसाय (मार्केट बेस्ड बिज़नेस) मॉडल में 100% स्वचालित मार्ग (ऑटोमेटिक रूट) का समर्थन (सपोर्ट) किया है।

ई-कॉमर्स अभूतपूर्व (अनप्रेसेडेंट) है और ऐसे नेटवर्क का उपयोग कर रहा है जो गैर-स्वामित्व (नॉन प्रोपराइटरी) प्रोटोकॉल का उपयोग करता है, इसकी रचनात्मक सामग्री (क्रिएटिव कॉन्टेंट) की सुरक्षा करता है और बड़े पैमाने पर जनता को उपलब्ध कराई गई जानकारी, व्यापार मालिकों की सर्वोच्च प्राथमिकता (टॉप प्रायोरिटी) बन जाती है क्योंकि इसमें न केवल चोरी और डुप्लीकेट करने का जोखिम है बल्कि महत्वपूर्ण रूप से यह अनुचित प्रतिस्पर्धा (कॉम्पिटिशन) के खिलाफ सुरक्षा का भी प्रतीक है।

कॉपीराइट न केवल डेटाबेस बल्कि सॉफ्टवेयर, वेबसाइट डिजाइन, रचनात्मक सामग्री जैसे टेक्स्ट, चित्र, ऑडियो, वीडियो और ग्राफिक्स की भी सुरक्षा करता है। ई-कॉमर्स इंडस्ट्री में कॉपीराइट सुरक्षा होने के कारण बिना अनुमति के काम का उपयोग करने वाले उल्लंघनकर्ताओं (इनफ्रिंजर्स) के खिलाफ मौद्रिक दंड (मॉनेटरी पेनालिटीज़) का प्रावधान (प्रोविजन) है। अंतरराष्ट्रीय संधियों (ट्रीटीज) की मदद से कानूनों का कुल कवरेज, ज्यादातर देशों में कॉपीराइट सुरक्षा प्रदान करता है। यह विशेष रूप से ई-कॉमर्स इंडस्ट्री में विभिन्न स्थितियों में कॉपीराइट स्वामित्व (ओनरशिप) पर कुछ मात्रा में स्पष्टता देता है। यह कॉपीराइट सुरक्षा के मामले में दीर्घायु (लोंगेविटी) प्रदान करता है।

ई-कॉमर्स इंडस्ट्री द्वारा सामना की जाने वाली कॉपीराइट समस्याएं

ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म बनाने वाले उद्योग (एंटरप्राइज) को एक लाइसेंस प्राप्त तकनीक का उपयोग करना चाहिए, जिसकी लंबे समय तक वैधता हो या उसे मालिकाना तकनीक का उपयोग करना चाहिए। इस इंडस्ट्री के संबंध में एक बहुत ही बुनियादी समस्या, एक व्यक्ति के काम की नकल करना है, जिसे इलेक्ट्रॉनिक फॉर्मेट में रखा गया है, क्योंकि इंटरनेट एक स्वतंत्र स्थान है, और इसका इस्तेमाल कोई भी व्यक्ति किसी भी समय कर सकता है।

इंटरनेट बहुत कम समय में और एक किफायती लागत (कॉस्ट) के साथ, सूचना का बहुत अधिक वितरण (डिस्ट्रीब्यूशन) और फैलाव के लिए एक मंच प्रदान करता है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, असली और डुप्लीकेट किए गए कार्य को आसानी से पहचाना नहीं जा सकता है। “जहां तक ​​आई.एस.पी. और बिचौलियों (इंटरमीडियरी) का संबंध है, इस फॉर्मूलेशन के साथ मुख्य समस्या यह है कि यह इंटरनेट में अंतर्निहित (अंडरलाइंग) टी.सी.पी./आई.पी. प्रोटोकॉल और इसे ओवरले करने वाली तकनीके, यदि पूरी तरह से नहीं, तो इसकी जानकारी की कॉपीज बनाने की क्षमता पर व्यापक (एक्सटेंसिव) रूप से निर्भर करती हैं।” ई-कॉमर्स इंडस्ट्री द्वारा सामना की जाने वाली कुछ बुनियादी समस्याएं इस प्रकार हैं:

  • ई-कॉन्ट्रैक्ट

एक वैध कॉन्ट्रैक्ट में प्रस्ताव और स्वीकृति, प्रतिफल (कंसीडरेशन) और कॉन्ट्रैक्ट में प्रवेश करने की क्षमता शामिल होती है। ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म से जुड़े नियम और शर्तें, ई-कॉमर्स लेनदेन के अनुपालन (कॉम्प्लायंस) और आश्वासन में एक वैध कॉन्ट्रैक्ट की सभी आवश्यकताओं को पूरा करती है। हालांकि, ई-कॉन्ट्रैक्ट्स, मूल रूप से क्लिक-रैप, ब्राउज-रैप और श्रिंक-रैप कॉन्ट्रैक्ट्स के रूप में होते हैं।

  1. क्लिक रैप कॉन्ट्रैक्ट्स: कॉन्ट्रैक्टिंग पार्टी आमतौर पर स्क्रॉल बॉक्स के साथ ‘आई एक्सेप्ट (मैं स्वीकार करता हूं)’ टैब पर क्लिक करके अपनी स्वीकृति की पुष्टि करती है, जो कॉन्ट्रैक्टिंग पार्टी को नियम और शर्तों को देखने की अनुमति देता है।
  2. ब्राउज़ रैप कॉन्ट्रैक्ट्स: आमतौर पर, ऐसे ब्राउजर्स का उपयोग करना या साइट का मात्र उपयोग, कॉन्ट्रैक्टिंग पार्टी पर बाध्यकारी शर्तों को सक्षम बनाता है।
  3. श्रिंक रैप कॉन्ट्रैक्ट: कॉन्ट्रैक्ट की पार्टी द्वारा उस बॉक्स को खोलने के बाद नियम और शर्तों को पढ़ा जा सकता है, जिसके अंदर उत्पाद या आमतौर पर लाइसेंस पैक किया जाता है। इस प्रकार के कॉन्ट्रैक्ट का उपयोग ज्यादातर ई-कॉमर्स इंडस्ट्री में किया जाता है और प्रासंगिक (रिलेवेंट) होता है।

इंडियन कॉन्ट्रैक्ट एक्ट, 1872, इस बात की कोई आवश्यकता प्रदान नहीं करता है कि कॉन्ट्रैक्ट पर भौतिक (फिजिकल) रूप से हस्ताक्षर किए जाने चाहिए और कुछ कॉन्ट्रैक्ट्स को लिखित के अलावा अन्य रूपों में किए जाने की अनुमति है। हालांकि, ई-कॉमर्स इंडस्ट्री की प्रकृति में मुख्य समस्या यह है कि ऑनलाइन लेन-देन करने वाले व्यक्ति की उम्र का पता लगाना मुश्किल है, जो तब ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म के लिए एक समस्या बन जाती है क्योंकि नाबालिगों के साथ कॉन्ट्रैक्ट में आना प्रकृति में शून्य (वाइड) है और यह आगे देनदारियों (लायबिलिटी) को बनाता है।

इसके अलावा, “इंडियन एविडेंस एक्ट, 1872 में प्राथमिक (प्राइमरी) साक्ष्य द्वारा दस्तावेजों को साबित करने की आवश्यकता होती है, और प्राथमिक साक्ष्य के रूप में डेटा संदेशों की वैधता अनिश्चित है।” अचेतन (अनकॉन्सिनेबल) कॉन्ट्रैक्ट ज्यादातर सभी ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर मौजूद हैं और वे कभी-कभी प्रकृति में ही मान्य नहीं हो सकते हैं क्योंकि कॉन्ट्रैक्ट में प्रतिफल या कॉन्ट्रैक्ट का उद्देश्य सार्वजनिक नीति (पब्लिक पॉलिसी) के विरोध में हो सकता है और कॉन्ट्रैक्ट करने वाला पक्ष, असमान सौदेबाजी (बार्गेनिंग) की स्थिति में होता है, इसलिए उनके पास, केवल नियम और शर्तों को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है।

  • भारतीय कानून निर्धारण (फिक्सेशन) के तहत क्या जरूरी है?

भारत की तुलना में, संयुक्त राज्य अमेरिका में, कॉपीराइट की सुरक्षा के लिए, रचनाकारिता (ऑथरशिप) के असली कार्य को अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) के एक ठोस माध्यम में तय किया जाता है। उदाहरण के लिए, बोले गए शब्द या लाइव प्रसारण (ब्रॉडकास्ट) केवल तभी कॉपीराइट सुरक्षा के हकदार होंगे, जब उन्हें किसी मूर्त (टैंजिबल) रूप में बदला जाएगा। हालांकि, इंडियन कॉपीराइट एक्ट, 1957 के तहत, उसी की स्थिति बिलकुल विपरीत है। ध्वनि (साउंड) रिकॉर्डिंग, नाटकीय (ड्रामेटिक) कार्यों और सिनेमैटोग्राफ फिल्म के कुछ उल्लेखों के अलावा भारतीय कॉपीराइट कानूनों के तहत भारत में निर्धारण (फिक्सेशन) की आवश्यकता को लेकर कोई कानून नहीं बनाए गए है। ऑनलाइन संचार (कम्युनिकेशन) के क्षेत्र में, कई कार्य डिस्प्ले मॉनिटर के वीडियो रैम पर संग्रहीत (स्टोर) किए जाते हैं, जो अस्थायी भंडारण (टेंपरेरी स्टोरेज) होता है और यह स्पष्ट नहीं है कि यह कॉपीराइट सुरक्षा के अधिकार के लिए भारतीय कॉपीराइट कानूनों के तहत पर्याप्त भंडारण होगा या यह निर्धारण के बराबर होगा या नहीं।

  • सुरक्षित हार्बर प्रावधानों का अभाव (लैक ऑफ़ सेफ हार्बर प्रोविजन)

ई-कॉमर्स, इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट, 2000, (आई.टी. एक्ट) और संशोधन एक्ट (अमेंडमेंट एक्ट) (2009) की धारा 2 (w) के संबंध में मध्यस्थ (इंटरमीडियरी) के दायरे (स्कोप) में आता है, और विशेष रूप से ई-कॉमर्स शब्द नहीं बल्कि ‘यह उस रिकॉर्ड के संबंध में कोई भी सेवा प्रदान करता है” वाक्य शामिल करता है, जिससे आई.टी. एक्ट की धारा 79 के तहत प्रदान की गई छूट के साथ मध्यस्थ शब्द का दायरा बढ़ जाता है। इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी (मध्यस्थ दिशा निर्देश (इंटरमीडियरी गाइडलाइन)) नियम, 2011 के अनुसार छूट का लाभ उठाने के लिए मध्यस्थ को उचित परिश्रम (ड्यू डिलिजेंस) प्रक्रियाओं का पालन करना चाहिए, हालांकि, वे उस मामले में तीसरे पक्ष के कार्यों के लिए उत्तरदायी होंगे, जहां मध्यस्थ को ज्ञान है या सरकार या उसके किसी एजेंसी द्वारा अधिसूचित (नोटिफाई) किया गया है कि डेटा, संचार लिंक, आदि का उपयोग किसी गैरकानूनी गतिविधि के लिए किया जा रहा है और उस पर कार्रवाई नहीं की जा रही है।

मध्यस्थ के पास यह विकल्प होता है कि वह या तो अपने निर्णय का उपयोग कर सकते है और समझ सकते है कि सामग्री (कॉन्टेंट), डेटा, लिंक, आदि अवैध हैं और इसे ब्लॉक कर सकते है या इस जानकारी की प्राप्ति के 36 घंटे के अंदर अंदर कार्रवाई कर सकते हैं। इसने बहुत सारी अटकलें लगाईं है क्योंकि अवैध कार्रवाई या उचित कार्रवाई को बताने या परिभाषित करने के लिए कोई स्पष्ट नियम नहीं हैं।

कॉपीराइट एक्ट, 1957 के संबंध में भी, ई-कॉमर्स कंपनियों ने धारा 52 (1) (b) और धारा 52 (1) (c) के संशोधित प्रावधानों के तहत राहत की सांस नहीं ली है, जिसमें यह कहा गया है कि “अस्थायी या आकस्मिक (इंसीडेंटल) भंडारण जनता के लिए इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसमिशन या संचार की तकनीकी प्रक्रिया में किए गए कार्यों को कॉपीराइट का उल्लंघन नहीं माना जाएगा” और “धारा 52 (1) (c) आगे यह प्रदान करता है कि इलेक्ट्रॉनिक लिंक, एक्सेस या एकीकरण (इंटीग्रेशन) प्रदान करने के उद्देश्य से क्षणिक (ट्रांसिएंट) और आकस्मिक भंडारण, जहां इस तरह के लिंक, एक्सेस या एकीकरण को अधिकार धारक (राइट होल्डर) द्वारा स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित (प्रोहिबिट) नहीं किया गया है, जब तक इसके लिए जिम्मेदार होने वाला व्यक्ति जागरूक नहीं होता है या यह मानने के लिए उचित आधार नही होते है कि ऐसा भंडारण एक उल्लंघनकारी कॉपी का है और वह भी कॉपीराइट का उल्लंघन नहीं माना जाएगा।

ये धाराएं, सुरक्षित हार्बर प्रावधानों के रूप में कार्य कर रही हैं, लेकिन इसमें “मध्यस्थ की देयता (लायबिलिटीज) और ऑनलाइन बाजारों के संबंध में सटीकता का अभाव है क्योंकि सुरक्षित हार्बर, आगे मध्यस्थों पर निर्भर होते है, जिनके पास यह विश्वास करने के लिए उचित आधार हैं कि ऐसा भंडारण एक उल्लंघनकारी कॉपी का नहीं है” क्योंकि शब्द जैसे की- कार्यों का क्षणिक या आकस्मिक भंडारण अस्पष्ट रहते है। दूसरे शब्दों में, यह खुद को सर्च इंजन तक सीमित रखता है।

  • प्रकाशन (पब्लिकेशन)

कॉपीराइट की तारीख, प्रकाशन की तारीख से शुरू होती है। इसलिए एक बार जब एक निश्चित तारीख को साइट पर जानकारी डाल दी जाती है, तो इसे प्रकाशन माना जाएगा और ऐसी तारीख पर कॉपीराइट संरक्षण शुरू हो जाएगा। लेकिन महत्वपूर्ण विचार यहां पर प्रकाशन का स्थान है। यदि काम भारत और कुछ अन्य देशों में एक साथ प्रकाशित होता है, और यदि ऐसे अन्य देश में सुरक्षा की अवधि है जो भारतीय कॉपीराइट कानून के तहत संरक्षण की अवधि से कम और बहुत कम है, तो ऐसे काम को उस देश के तहत प्रकाशित माना जा सकता है और ऐसा काम भारतीय कानून के तहत कॉपीराइट सुरक्षा खो सकता है, यदि वह देश भारतीय कॉपीराइट को सुरक्षा प्रदान करने में विफल रहता है, जिससे भारत इसे मान्यता नहीं देता है।

मेटा टैग्स एक ऐसे कीवर्ड होते हैं जिनका उपयोग किसी विशिष्ट (स्पेसिफिक) साइट को खोजने के लिए किया जाता है, जब व्यक्ति को जानकारी प्राप्त होती है लेकिन वह उसके यू.आर.एल. से अनजान होता है। इस परिदृश्य (सिनेरियो) में, इंटरनेट खोज इंजन, उदाहरण के लिए जानकारी या यू.आर.एल. खोजने में एक प्रमुख भूमिका निभाते हैं। एक ई-कॉमर्स साइट के रूप में इन टैगों का उपयोग कुछ वेब इंडेक्स पृष्ठों (पेजेस) को खोजने के लिए भी किया जाता है, जिससे वास्तविक साइट से पहले अन्य साइटों की खोज होती है, जिससे उस शब्द या साइट और उसके उत्पादों (प्रोडक्ट्स) का कॉपीराइट उल्लंघन होता है और प्रतिष्ठा (रेप्यूटेशन) को स्पष्ट रूप से हानि पहुंचती है और मूल्यवान बौद्धिक संपत्ति (इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी) का भी इस्तेमाल किया जाता है।

  • डेटा स्क्रैपिंग

डेटा स्क्रैपिंग को आमतौर पर वेब स्क्रैपिंग के रूप में भी जाना जाता है, इस तरीके का उपयोग, किसी वेबसाइट से डेटा या जानकारी को आउटपुट फॉर्मेट में निकालने और आयात (इंपोर्ट) करने के लिए किया जाता है, जिस को कंप्यूटर प्रोग्राम या सॉफ्टवेयर का उपयोग करके पढ़ा जा सकता है। कुछ ही सेकंड के अंदर, डेटा/सूचना को किसी भी साइज या पृष्ठों की संख्या के बावजूद बाहर निकाला जाता है, जिससे कॉपीराइट के मालिक को कॉपीराइट एक्ट की धारा 13 (1) (A) के तहत साहित्यिक (लिटरेरी) कार्यों में निहित घोषित करने में अस्पष्टता पैदा होती है, जिसे कॉपीराइट एक्ट, 1957 की धारा 2(o) के साथ पढ़ा जाता है, जो यह प्रदान करता है कि जटिलताएं (कॉम्प्लिकेशंस) साहित्यिक कार्य के दायरे में आती हैं, जिसमें अप्रत्यक्ष (इंडायरेक्ट) रूप से डेटा स्क्रैपिंग शामिल है जो सूचना के संकलन (कंपाइलेशन) के अलावा और कुछ नहीं है। यह स्पष्ट नहीं है कि एक सूचना आयातक (कंटेंट इंपोर्टर), कॉपीराइट धारक बन जाता है क्योंकि इससे बिना अनुमति के वेबसाइट पर कॉपीराइट योग्य या कॉपीराइट हुई सूचना का उल्लंघन होता है।

काबू पाने योग्य समस्याएं (ओवरकमिंग इश्यूज)

इंटरनेट एक विशाल स्थान होने के कारण स्वयं आई.पी. कानूनों से जुड़ा हुआ है और ई-कॉमर्स इंडस्ट्री के लिए एक बहुत अहम विकल्प बन गया है। चूंकि इन इंडस्ट्रीज के माध्यम से उनकी वेबसाइटों पर उत्पन्न आउटपुट बहुत ज्यादा मात्रा मे है, इसलिए कॉपीराइट के माध्यम से उनकी सामग्री पर उनका नियंत्रण (कंट्रोल) होना चाहिए और उसी के लिए एक जगह बनाए रखना और स्थापित (एस्टेब्लिश) करना जो उनकी ऑनलाइन दृश्यता (विजिबिलिटी) को खराब नहीं कर सकता है। यह आई.पी. कानूनों के तहत उन संपत्तियों की पहचान करने और समझने के लिए आई.पी ऑडिट आयोजित (कंडक्ट) करके किया जा सकता है, जो उनके ई-कॉमर्स इंडस्ट्री के लिए प्रासंगिक हैं। इसके अलावा, एक उपयोगी संसाधन (यूजफुल रिसोर्स) के रूप में क्रिएटिव कॉमन्स का उपयोग करके मध्यस्थों के रूप में कार्य करने वाली इन वेबसाइटों को कॉपीराइट उल्लंघन से बचाया जा सकता है।

संशोधित आई.टी. एक्ट की धारा 79 और 81 के बीच के संबंध को इंडियन कॉपीराइट एक्ट, 1957 के साथ हस्तक्षेप (इंटरफेयर) किया जा सकता है, दूसरे शब्दों में, धारा 79 में एक गैर-बाधा खंड (नॉन ऑब्सटेंट क्लॉज) शामिल है- जिसके तहत कहा गया है कि “किसी भी कानून, जो उस समय लागू हैं, उनमें कुछ भी शामिल होने के बावजूद,”, जिससे इसके मध्यस्थों के संबंध में अन्य स्थिति में उत्पन्न होने वाली देनदारियों को सुरक्षा प्रदान की जाती है और साथ ही, धारा 81 एक अधिभावी (ओवर राइडिंग) प्रभाव प्रदान करती है, “इस एक्ट के प्रावधान उस समय के लिए किसी भी अन्य कानून, जो उस समय लागू है, में निहित किसी भी असंगत (इनकंसिस्टेंट) बात के बावजूद प्रभावी होंगे। यदि इस एक्ट में निहित कुछ भी किसी व्यक्ति को कॉपीराइट एक्ट, 1957 या पेटेंट एक्ट, 1970 के तहत प्रदान किए गए किसी भी अधिकार का प्रयोग करने से प्रतिबंधित नहीं करता है।

दूसरे शब्दों में, कॉपीराइट एक्ट, 1957 के तहत मालिक के अधिकार, आई.टी. एक्ट के किसी भी प्रावधान द्वारा अप्रतिबंधित (अनरिस्ट्रिक्टेड) नहीं हैं। इसके अनुसार, धारा 79, एक्ट की धारा 81 के परन्तुक (प्रोविसो) के संचालन (ऑपरेशन) द्वारा एक्ट की धारा 51 (a) (ii) के प्रावधानों के तहत उल्लंघनकारी कार्यों के प्रतिवादियों (डिफेंडेंट्स) की देयता को बचाकर कॉपीराइट स्वामी के अधिकारों को प्रतिबंधित नहीं कर सकती है और यह सुपर कैसेट्स इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम माइस्पेस इंक और अन्य में भी कहा गया है।

ई-कॉमर्स वेबसाइट के कॉन्ट्रैक्ट सभी कॉपीराइट, संबंधित अधिकारों को निर्धारित करते है और तीसरे पक्ष के अधिकारों के उल्लंघन और उनकी वेबसाइट के उपयोग के संबंध में वारंटी प्रदान करते हैं। वेबसाइट का मालिक किसी भी समय प्रतिबंध के बिना उपयोग, संशोधन, अपडेट जानकारी का उपयोग करने में सक्षम होगा। ई-कॉमर्स वेबसाइटों के लिए एक और काबू पाने में डिजिटल टाइम स्टैम्प शामिल होंगे जो कानूनी सबूत प्रदान करेंगे कि ऐसी सामग्री किसी विशेष समय पर मौजूद थी और उल्लंघनकर्ताओं पर इसकी गोपनीयता (प्राइवेसी) का उल्लंघन करने की नजर बनाए रखती है।

कॉपीराइट नियम, 2013 पहले से ही मध्यस्थों को कुछ सुरक्षा प्रदान करने के लिए एक नोटिस और टेकडाउन प्रक्रिया प्रदान करता है, हालांकि कॉपीराइट उल्लंघन से बचने के लिए एक अन्य तकनीक, कॉपीराइट अमेंडमेंट एक्ट, 2012 द्वारा धारा 65 A और 65 B के तहत प्रदान की गई डिजिटल अधिकार प्रबंधन (डिजिटल टाइम मैनेजमेंट) (डी.आर.एम.) प्रणाली का उपयोग है। डी.आर.एम., डिजिटल कॉपीराइट की सुरक्षा और ट्रैक या कॉपी करने के लिए डिज़ाइन की गई एक तकनीक है।

डी.आर.एम. तकनीकों की सहायता से कॉपीराइट का मालिक अपने कार्यों पर बेहतर नियंत्रण प्राप्त करते हैं और उपयोगकर्ताओं को केवल उसी का उपयोग करने की अनुमति देते हैं, जिसकी कॉपीराइट मालिकों द्वारा अनुमति है। डी.आर.एम. आम तौर पर एन्क्रिप्टेड होने से पहले प्रासंगिक उपयोग नियमों के साथ मेगा टैगिंग सामग्री द्वारा सामग्री के दुरुपयोग को नियंत्रित करता है। डी.आर.एम. अपने पूरे जीवन चक्र में सामग्री-नियंत्रित पहुंच, नियंत्रित उपयोग और वितरण (डिस्ट्रीब्यूशन) पर सुरक्षा का एक नया स्तर प्रदान करता है और इसे लगातार सूचना संरक्षण (पर्सिस्टेंट इंफॉर्मेशन प्रोटेक्शन) (पी.आई.पी.) कहा जाता है। डी.आर.एम. तकनीक एक डिजिटल आवरण (रैपर) बनाकर सूचना, जैसे एच.टी.एम.एल., पी.डी.एफ. और एम.पी. 3 फ़ाइलों को सुरक्षित करती है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

ई-कॉमर्स इंडस्ट्री शुरू से ही इंटरनेट के बाद से एक लंबा सफर तय कर चुकी है और हर घर में एक आवश्यकता बन गई है। भारत में कानूनी प्रणाली (लीगल सिस्टम) आई.टी. एक्ट के तहत नियमों को पकड़कर इंटरनेट से उत्पन्न होने वाले मुद्दों से निपटने के लिए लगातार प्रयास कर रही है। आई.पी. ​​मालिकों द्वारा अपने आई.पी. अधिकारों को उचित तरीके से सुरक्षित करके वास्तविक शेयर लाभ उठाया जा सकता है क्योंकि ई-कॉमर्स इंडस्ट्री की सफलता ज्यादातर इसके सुरक्षात्मक गार्ड के लागु होने पर निर्भर है।

ई-कॉमर्स इंडस्ट्री को फलने-फूलने के लिए, उन्हें इसकी कानूनी व्यवस्था और संभावित भविष्य के मुद्दों के बारे में पता होना चाहिए जो बाजार में उनकी स्थिति को दूर कर सकते हैं और प्रभावी जोखिम प्रबंधन रणनीतियों (इफेक्टिव रिस्क मैनेजमेंट स्ट्रेटजी) को निर्धारित करना चाहिए। कॉपीराइट एक्ट, 1957 को सख्त होने और कॉपीराइट उल्लंघन के मामले में मध्यस्थों के लिए वैधानिक (स्टेट्यूटरी) उपचार प्रदान करने और निर्धारण, प्रकाशन, और विरोधी परिधि (एंटी सरकम्वेंशन) उपकरणों के संरक्षण आदि के कानूनों के तहत व्यापक प्रावधान प्रदान करने की आवश्यकता है।

 

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