यह लेख S A Rishikesh द्वारा लिखा गया है और आगे Gargi Lad द्वारा अद्यतन (अपडेट) किया गया है। यह लेख वोडाफोन इंटरनेशनल बीवी बनाम भारत सरकार के कुख्यात मामले जिसे ‘पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) कराधान मामले’ के रूप में भी जाना जाता है, पर एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। यह स्थायी मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन) न्यायालय से उच्च न्यायालय तक के निर्णयो के साथ मामले की पृष्ठभूमि का अवलोकन प्रस्तुत करता है। लेख पूर्वव्यापी कराधान के विचार के विश्लेषण पर जोर देता है और इस बात पर प्रकाश डालता है कि इस मामले ने शेयरों के अप्रत्यक्ष हस्तांतरण (ट्रांसफर) के संबंध में भारत में कराधान कानूनों के विकास को कैसे प्रभावित किया है। इस लेख का अनुवाद Shubham Choube द्वारा किया गया है।
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परिचय
यह मुद्दा 2007 में आया, जब वोडाफोन और हचिसन टेलीकम्युनिकेशंस इंटरनेशनल लिमिटेड (एचटीआईएल) के बीच सौदे पर भारत में सवाल उठे, इस धारणा के आधार पर कि हचिसन एस्सार की अनिवासी मूल कंपनी भारत में स्थित दूरसंचार व्यवसायों की पूंजीगत संपत्तियों के “हस्तांतरण” के कारण पूंजीगत लाभ कर के लिए उत्तरदायी थी। आयकर कानून और पूंजीगत लाभ कर लगाने की यह व्याख्या किसी भी कंपनी के लिए असामान्य थी।
पूरा मामला भारत के वित्त मंत्रालय के निर्णय के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसमें वोडाफोन से पूंजीगत लाभ और रोक कर रखा गया (विदहोल्डिंग) कर के रूप में 22,500 करोड़ रुपये की मांग करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को रोकने के लिए पूर्वव्यापी रूप से कर कानून लागू किया गया है। इसके तुरंत बाद वोडाफोन इस मामले को हेग स्थित स्थायी मध्यस्थता न्यायालय में ले गया। न्यायालय ने सर्वसम्मति से वोडाफोन के पक्ष में निर्णय सुनाया और भारत सरकार की कर मांग को अनुचित और ‘निष्पक्ष और न्यायसंगत उपचार की गारंटी का उल्लंघन’ माना। न्यायालय ने सरकार से वोडाफोन को मुआवजा देने के लिए भी कहा।
वोडाफोन आइडिया मध्यस्थता मामले की पृष्ठभूमि
वोडाफोन इंटरनेशनल होल्डिंग्स बी.वी. बनाम भारत संघ एवं अन्य (2012) मामले के तथ्य इस प्रकार हैं:
वोडाफोन ग्रुप पीएलसी यूनाइटेड किंगडम में स्थित एक कंपनी है, वोडाफोन भारत में जो कारोबार करती है उसकी देखभाल उसकी सहायक कंपनी वोडाफोन इंटरनेशनल होल्डिंग बीवी द्वारा की जाती है। सहायक कंपनी नीदरलैंड में स्थित है। इसी तरह, हचिसन टेलीकॉम इंटरनेशनल लिमिटेड (एचटीआईएल) कंपनी हांगकांग में स्थित है। यह इंडोनेशिया, श्रीलंका और भारत जैसे देशों को दूरसंचार सेवाएं प्रदान करता है लेकिन सीधे संचालित नहीं होता है। यह केमैन द्वीप स्थित सीजीपी इन्वेस्टमेंट्स होल्डिंग्स लिमिटेड जैसी अपनी सहायक कंपनियों के माध्यम से भी संचालित होता है। सीजीपी निवेश पूरी तरह से एचटीआईएल के स्वामित्व में है।
विवाद तब शुरू हुआ जब हचिसन टेलीकम्युनिकेशन इंटरनेशनल लिमिटेड (एचटीआईएल) ने भारतीय बाजारों से बाहर निकलने का निर्णय किया। भारत में स्थित हचिसन एस्सार लिमिटेड में उनकी 67% हिस्सेदारी थी। वोडाफोन ने एचटीआईएल में 11.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर में 67% हिस्सेदारी खरीदने की पेशकश की। संक्षेप में कहें तो, यह सौदा नीदरलैंड और केमैन द्वीप स्थित कंपनियों के बीच हुआ। यह सौदा केमैन द्वीप पर हुआ और जो संपत्ति हस्तांतरित की गई वह एक भारतीय कंपनी की थी। हचिसन एस्सार लिमिटेड (एक भारतीय कंपनी) वोडाफोन एस्सार लिमिटेड बन गई।
यह सौदा मई 2007 में पूरा हुआ, भारत का आयकर विभाग इस सौदे से बहुत खुश नहीं था और उसने सितंबर 2007 में वोडाफोन के खिलाफ जांच शुरू की।
30 अक्टूबर 2009 को, आयकर विभाग ने वोडाफोन इंटरनेशनल होल्डिंग्स बीवी को नोटिस भेजकर आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 201 और 201(1A) के तहत पूंजीगत लाभ और रोक कर रखा गए कर के रूप में 7,900 करोड़ रुपये की मांग की।
वोडाफोन आइडिया मध्यस्थता मामले में शामिल कानून
आयकर अधिनियम, 1961
धारा 9
आयकर अधिनियम भारतीय संपत्ति से होने वाले या अर्जित होने वाले किसी भी लेनदेन पर पूंजीगत लाभ कर को नियंत्रित और एकत्र करता है। शेयरों के ऐसे हस्तांतरण से होने वाली किसी भी आय पर आयकर अधिनियम के तहत पूंजीगत लाभ कर के तहत कर लगाया जा सकता है। आईटी अधिनियम की धारा 9 ऐसी किसी भी आय के बारे में बात करती है जो भारतीय क्षेत्राधिकार के तहत लाभ है, उस पर अधिनियम के अनुसार शुल्क लगाया जाना चाहिए क्योंकि यह देश में कर उद्देश्यों के लिए कर योग्य आय है। आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 9 मुख्य रूप से किसी विदेशी संस्था या भारत में अनिवासी द्वारा अर्जित की गई किसी भी आय के मामले में कर के निहितार्थ से संबंधित है।
धारा 9(1)(i) में भी यही कहा गया है कि यदि किसी व्यवसाय का संचालन भारत में मौजूद नहीं है या उनके व्यवसाय का केवल एक हिस्सा भारत में किया जा रहा है तो अर्जित आय के केवल एक छोटा से हिस्सा पर ही आयकर अधिनियम के तहत कर लगाया जाएगा। धारा 9 “स्थायी स्थापना नियम” के बारे में भी बात करती है जिसमें यदि किसी विदेशी इकाई या निवासी के पास कार्यालय या फैक्ट्री जैसा कोई निश्चित प्रतिष्ठान (इस्टैब्लिश्मेन्ट) है जिसका उपयोग भारत में व्यापार करने के लिए किया जाता है, तो ऐसे व्यापारिक लेनदेन से होने वाली कोई भी आय भारतीय क्षेत्राधिकार में कर योग्य होगी।
हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के बाद सरकार ने आईटी अधिनियम की धारा 9 में संशोधन करके इसे ऐसे सभी करों पर पूर्वव्यापी रूप से लागू किया।
धारा 9 का दायरा व्यापक है और सभी प्रकार की आय को सम्मिलित करता है, जैसे, भारत में स्थित किसी व्यवसाय या संपत्ति से आय, भारतीय कंपनियों द्वारा भुगतान किए गए लाभांश से आय या भारत में स्थित किसी संपत्ति के हस्तांतरण से उत्पन्न पूंजीगत लाभ।
तीन प्रमुख नियम धारा 9 को अनिवासी भारतीयों या विदेशी संस्थाओं के लिए एक महत्वपूर्ण प्रावधान बनाते हैं
प्रादेशिक गठजोड़ (टेरीटोरियल नेक्सस) या औपचारिक स्रोत नियम
नियम स्पष्ट और सरल है कि भारत में होने वाली कोई भी आय भारत में कर योग्य है, ऐसी आय की परिभाषा में व्यवसाय से आय, कोई अर्जित ब्याज या पूंजीगत लाभ शामिल है जो भारत में स्थित किसी संपत्ति के हस्तांतरण पर प्राप्त होता है।
निवास नियम
कोई भी आय जिसे भारत के बाहर अर्जित माना जाता है, वह भारत में कर योग्य नहीं होगी यदि उस मानी गई आय का प्राप्तकर्ता भारत का अनिवासी है। नियम व्यक्ति के निवास पर आधारित है और कराधान कानून और नियम उसके निवास के आधार पर लागू होंगे।
समावेशन नियम
कुछ प्रकार की आय हैं जो उपरोक्त श्रेणियों में नहीं आती हैं और इसलिए उन प्रकारों के लिए एक विशेष समावेशन किया गया है। अधिशुल्क (रॉयल्टी) उनमें से एक है, यदि किसी व्यक्ति को भारत में स्थित किसी संपत्ति या व्यवसाय से अधिशुल्क मिलती है, तो वह आईटी अधिनियम की धारा 9 के तहत उन अधिशुल्क पर कर का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी है।
धारा 201
आयकर अधिनियम की धारा 201 टीडीएस (स्रोत पर कर कटौती) का भुगतान करने में विफलता के बारे में बात करती है। टीडीएस किसी भी आय पर की गई कटौती है जो उस अर्जित आय पर कर के रूप में सरकार के पास जाती है। नियोक्ता द्वारा स्वयं वेतन से टीडीएस काटा जाता है और आपकी ओर से सरकार को सौंप दिया जाता है, जब नियोक्ता ऐसा करने में विफल रहता है तो उसे उल्लघंन करने वाला निर्धारिती माना जाता है। टीडीएस का भुगतान करने के लिए सरकार द्वारा एक विशिष्ट समय सीमा प्रदान की जाती है, जिसके बाद यदि भुगतानकर्ता चूक करता है तो वह दंड के लिए उत्तरदायी होगा। उल्लघंन करने वाला निर्धारिती अब जुर्माने के साथ टीडीएस का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होगा।
धारा 201(1A)
जब कंपनी का प्रधान अधिकारी टीडीएस के भुगतान में चूक करता है, तो वह कर कटौती की तारीख से उस तारीख तक, जिस दिन ऐसा कर काटा जाता है, ऐसे कर पर हर महीने 1% की दर से साधारण ब्याज का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होगा। और, कर का भुगतान लंबित होने की तारीख से लेकर संपूर्ण कर राशि का भुगतान होने तक हर महीने 1.5%।
यहां ब्याज शेष टीडीएस पर है जो चूक के लिए दंड के रूप में लिया जाता है। वोडाफोन मामले में, कंपनी को पूंजीगत लाभ कर और रोक कर रखा गए कर के रूप में 7900 करोड़ रुपये की भारी राशि का भुगतान करने का नोटिस दिया गया था, जो कि पूंजीगत लाभ कर के भुगतान में चूक के कारण अर्जित ब्याज था।
द्विपक्षीय निवेश संधि
अनुच्छेद 4(1)
यह अनुच्छेद देश में कंपनियों में निवेश करने वाले सभी विदेशी निवेशकों के साथ उचित और न्यायसंगत व्यवहार का प्रावधान करता है। प्रावधान के अनुसार, देश द्वारा बनाए गए कोई भी अनुचित नियम उनके अधिकारों का उल्लंघन है और यह प्रावधान निवेशकों के रूप में उनके अधिकारों की सुरक्षा है। इस मामले में, सरकार द्वारा कराधान के प्रावधान को पूर्वव्यापी रूप से लागू करने का कार्य निवेशकों के रूप में उनके अधिकारों का उल्लंघन साबित हुआ और इसलिए वोडाफोन ने हेग में स्थायी मध्यस्थता न्यायालय में मध्यस्थता के लिए संपर्क किया।
वोडाफोन आइडिया मध्यस्थता मामले में उठे मुद्दे
- क्या दो विदेशी कंपनियों के बीच शेयरों के हस्तांतरण से भारतीय कंपनी में विदेशी कंपनी की बहुमत हिस्सेदारी ख़त्म हो जाती है?
- क्या दो विदेशी कंपनियों के बीच शेयरों के हस्तांतरण को पूंजीगत संपत्ति का हस्तांतरण माना जा सकता है?
- क्या ऐसा लेनदेन भारतीय क्षेत्राधिकार के तहत कर योग्य है?
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता
याचिकाकर्ता दृढ़ था और उसने तर्क दिया कि हचिंसन लाभ भारतीय क्षेत्राधिकार के तहत बिल्कुल भी कर योग्य नहीं था, और इसलिए वोडाफोन बीवी अधिनियम के तहत कटौती के लिए उत्तरदायी नहीं है। कंपनी भारत में नहीं बल्कि केमैन द्वीप में स्थित थी। याचिकाकर्ताओं ने औपचारिक स्रोत नियम पर भरोसा किया और तर्क दिया कि हचिंसन लाभ को भारतीय क्षेत्राधिकार के तहत वैध लाभ के रूप में गिना जाना और उस पर कर लगाया जाना गलत था।
आयकर अधिनियम की धारा 9 एक औपचारिक स्रोत नियम निर्धारित करती है जिसका अर्थ है कि भारत में किसी भी स्रोत से प्राप्त आय भारतीय क्षेत्राधिकार के तहत कर योग्य है, इसमें कोई भी आय शामिल है जो भारतीय संपत्तियों से अर्जित या उत्पन्न हो रही है। यहां याचिकाकर्ता स्पष्ट रूप से इस ओर इशारा कर रहे थे कि कंपनी भारत में नहीं बल्कि केमैन द्वीप में स्थित है और इसलिए लाभ अर्जित हो रहा था या उन्हें जो आय प्राप्त हुई वह भारतीय क्षेत्राधिकार के अंतर्गत नहीं थी। उन्होंने इस नियम का उपयोग कर कटौती या उत्पन्न होने वाली कर देनदारी से बचने के लिए किया।
प्रतिवादी
भारत सरकार इस रुख पर दृढ़ थी कि संपत्ति भारतीय थी, इसलिए लाभ भारत में कर योग्य है और आयकर अधिनियम के क्षेत्राधिकार या प्रयोज्यता (ऍप्लिकेबिलिटी) के संबंध में कोई प्रश्न नहीं है।
वोडाफोन आइडिया मध्यस्थता मामले में भारतीय न्यायालयों का निर्णय
बॉम्बे उच्च न्यायालय
आयकर विभाग ने वोडाफोन समूह को लगातार वसूली नोटिस भेजे और फिर वोडाफोन समूह ने बॉम्बे उच्च न्यायालय की शरण लेने का निर्णय किया। वोडाफोन ने आयकर विभाग के क्षेत्राधिकार पर सवाल उठाने के साथ-साथ वोडाफोन को भेजे गए सभी पूर्व नोटिसों की वैधता पर सवाल उठाते हुए एक रिट के साथ बॉम्बे उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
8 सितंबर, 2010 को बॉम्बे उच्च न्यायालय ने भारत के आयकर विभाग के पक्ष में निर्णय सुनाया और कहा,“दो विदेशियों के बीच समझौतों में प्रवेश करने का उद्देश्य एक विदेशी कंपनी द्वारा भारतीय कंपनी में रखे गए नियंत्रित हित को दूसरी विदेशी कंपनी द्वारा प्राप्त करना है। यह लेन-देन का प्रमुख उद्देश्य होने के कारण, लेन-देन निश्चित रूप से भारतीय आयकर अधिनियम सहित भारत के नगरपालिका कानून के अधीन होगा।” बॉम्बे उच्च न्यायालय ने तो इस मामले को कर चोरी का मामला नहीं बल्कि कर परिहार (अवॉयडेंस) का मामला करार दिया।
भारत का सर्वोच्च न्यायालय
वोडाफोन, उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण से खुश नहीं था, उसने भारत के सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। कंपनी एक विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय चली गई। सामने मुद्दा यह था कि क्या भारतीय राजस्व प्राधिकरण दो विदेशी कंपनियों के बीच शेयरों की बिक्री पर कर लगा सकता है, जहां उस लेनदेन में भारतीय कंपनी की नियंत्रित या बहुमत हिस्सेदारी खरीदी जाती है।
दूसरी ओर, सर्वोच्च न्यायालय ने बॉम्बे उच्च न्यायालय से बिल्कुल अलग दृष्टिकोण अपनाया और वोडाफोन के पक्ष में निर्णय सुनाया। सर्वोच्च न्यायालय ने 20 जनवरी 2012 के अपने निर्णय में कहा कि लेनदेन दो अनिवासी संस्थाओं के बीच हुआ था और अनुबंध भारत के बाहर निष्पादित किया गया था। यह ध्यान में रखा गया कि विचार भारत के बाहर भी पारित किया गया था। यह लेन-देन किसी भी तरह से भारतीय कर अधिकारियों के क्षेत्राधिकार में नहीं था और इसलिए कर मांगने का आदेश रद्द कर दिया गया।
न्यायालय ने “कॉर्पोरेट पर्दे” के सिद्धांत और कॉर्पोरेट पर्दे को छेदने या उठाने के विचार पर गौर किया। यह माना गया कि कंपनी अपने शेयरधारकों और प्रबंधन से स्वतंत्र है, और होल्डिंग कंपनी को सहायक कंपनी के कार्यों के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया गया है। इसमें इस विचार पर गौर किया गया कि क्या यह लेन-देन केवल कॉर्पोरेट पर्दे को भेदकर कराधान से बचने के लिए किया गया था। न्यायालय ने पूरे लेन-देन की प्रकृति पर भी ध्यान दिया, न कि उसके छोटे-छोटे हिस्सों पर, उन्हें इस बात की भी जानकारी थी कि विभिन्न कंपनियां मॉरीशस या केमैन द्वीप में स्थित कंपनियों के माध्यम से उन पर लगाए गए पंजीकरण शुल्क और ख़र्च से कैसे बचेंगी। इस मामले को तब रणनीतिक कर योजना के तहत वर्गीकृत किया गया था न कि कर चोरी के तहत।
न्यायालय ने कहा कि यह एक “शेयर बिक्री” थी, न कि “संपत्ति बिक्री” तथा “शेयर बिक्री” और “संपत्ति बिक्री” के लिए कराधान सिद्धांतों में कुछ भिन्नता हो सकती है। न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि कंपनी का “नियंत्रण” शब्द पूरी तरह से तथ्य और कानून का प्रश्न है। इसके अलावा, न्यायालय ने यह व्याख्या करने में शीघ्रता की कि नियंत्रण हमेशा किसी के पास मौजूद शेयरों की संख्या से नहीं, बल्कि मतदान के अधिकार या शेयरधारकों की मतदान शक्ति से भी समझा जाता है। इसलिए, शक्ति पर नियंत्रण और प्रबंधन पर नियंत्रण किसी विशेष मात्रा के शेयर रखने के कई पहलुओं या लाभों में से एक है। न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि यह एक “शेयर बिक्री” थी और लगाए जाने वाले किसी भी कर देनदारी के लिए इसकी व्याख्या इस तरीके से की जानी चाहिए।
समीक्षा याचिका
भारत सरकार ने 17 फरवरी 2012 को निर्णय के खिलाफ समीक्षा याचिका दायर की, लेकिन 20 मार्च 2012 को सर्वोच्च न्यायालय ने समीक्षा याचिका खारिज कर दी। यह भारत सरकार के लिए एक बड़ा झटका था और कई लोगों का मानना था कि चीजें यहीं खत्म हो जाएंगी।
हालाँकि, इस उभरते विवाद में और भी बहुत कुछ था। यह विवाद भारतीय न्यायालयो और प्राधिकारियों की सीमा तक ही सीमित नहीं था, बल्कि स्थायी मध्यस्थता न्यायालय में मामले के माध्यम से न्याय की मांग की गई थी।
एक अभूतपूर्व कदम
यह निर्णय भारत सरकार के साथ अच्छा नहीं रहा, उसी वर्ष तत्कालीन वित्त मंत्री श्री प्रणब मुखर्जी, भारत के दिवंगत पूर्व राष्ट्रपति ने कुछ अप्रत्याशित किया। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को दरकिनार करने के लिए, उन्होंने आयकर अधिनियम, 1961 में पूर्वव्यापी संशोधन पेश किया। इस कदम की घोषणा पहली बार 2012-13 के बजट भाषण में की गई थी।
पूर्वव्यापी परिवर्तन वर्ष 1962 से ही प्रभावी हो गया। इस वित्त विधेयक 2012 ने आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 9(1)(i) में संशोधन किया और वोडाफोन पर लगाए गए कर को मान्य किया। सरकार ने कहा कि संशोधन केवल पहले से मौजूद अस्पष्टता को दूर करने और निश्चितता प्रदान करने के लिए एक स्पष्टीकरण था, दूसरी ओर इस कदम ने एक निवेश गंतव्य (डेस्टिनेशन) के रूप में भारत की छवि को नुकसान पहुंचाया।
आईटी अधिनियम की धारा 9 (1)(i) में संशोधन किया गया था, अब प्रावधान में नए परिवर्धन (एडिशन्स) के रूप में स्पष्टीकरण 4 और 5 थे। स्पष्टीकरण 5 वोडाफोन मामले के लिए अत्यधिक मूल्य और महत्व रखता है; इसमें लिखा है:“भारत के बाहर पंजीकृत या निगमित किसी कंपनी या इकाई में कोई शेयर या हित वाली संपत्ति या पूंजीगत संपत्ति को हमेशा भारत में स्थित माना जाएगा, यदि शेयर या ब्याज प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त होता है, और यह भारत में स्थित संपत्तियों से अपने मूल्य को प्राप्त करता है।”
इसने वोडाफोन के निर्णय के बाद उत्पन्न होने वाले किसी भी आगामी विवाद के लिए रास्ता साफ कर दिया, क्योंकि वोडाफोन उस हिस्से पर अड़ा हुआ था जिसमें उसने तर्क दिया था कि कंपनी एक भारतीय कंपनी नहीं थी और इसलिए भारतीय न्यायालयो के अधिकार क्षेत्र में नहीं आती थी। वोडाफोन की दलीलों का सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में समर्थन किया, जिसमें उन्होंने सरकार से वोडाफोन से किसी भी पूंजीगत लाभ कर की मांग नहीं करने को कहा। सरकार को पता था कि यह निर्णय आने वाले विभिन्न विवादों में उनके खिलाफ एक मिसाल बन जाएगा और इससे बचने के लिए, वे धारा 9 में यह संशोधन लेकर आए।
यह संशोधन “और हमेशा समझा जाएगा” वाक्यांश जोड़कर वर्ष 1961 तक पूर्वव्यापी रूप से कार्य करने के लिए किया गया था। कराधान पर पूर्वव्यापी रूप से कार्य करने वाले कानून को लाने के पीछे विधायी मंशा स्पष्टता लाना था क्योंकि इस प्रावधान के पिछले संस्करण में यह अस्पष्टता थी कि भारतीय क्षेत्राधिकार के तहत कर योग्य पूंजीगत संपत्ति की श्रेणी में क्या आता है।
पूर्वव्यापी कराधान क्या है?
जैसा कि नाम से पता चलता है, पूर्वव्यापी का अर्थ है पिछली घटनाओं से निपटना। सरल शब्दों में, एक पूर्वव्यापी कानून किसी ऐसे कार्य को अपराधी बना सकता है जो प्रतिबद्ध होने पर कानूनी था। कोई भी कानून अपने आप में संपूर्ण नहीं होता और उसमें अपनी खामियां होती हैं, पूर्वव्यापी कराधान उसी को ठीक करने का एक तरीका है। यह देशों को कराधान पर कानून पारित करने की तारीख से पीछे के समय तक कानून पारित करने की अनुमति देता है। इसका उपयोग ज्यादातर उन नीतियों में विसंगतियों को ठीक करने के लिए किया जाता है जिन्होंने अतीत में कंपनियों को उस कानून में मौजूद खामियों का फायदा उठाने की अनुमति दी थी।
भारत ऐसा करने वाला पहला देश नहीं था; अमेरिका, ब्रिटेन, नीदरलैंड, कनाडा, बेल्जियम, ऑस्ट्रेलिया और इटली ने भी उन कंपनियों पर पूर्वव्यापी कर लगाया है जिन्होंने उनके पिछले कानून में मौजूद खामियों का फायदा उठाया था।
पूर्वव्यापी कराधान पारित करने के कारण
आमतौर पर, पूर्वव्यापी प्रकृति में कार्य करने वाले संशोधन करने के लिए इस शक्ति का उपयोग विधायिका को प्रदान किया जाता है। इस शक्ति का उपयोग और प्रभाव दो परिस्थितियों में किया जाता है; या तो उस न्यायिक निर्णय को पूर्ववत करने या रद्द करने के लिए जो उनके पक्ष में नहीं था, या कभी-कभी नागरिकों को इस खामी का फायदा उठाने से रोकने के लिए। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने करदाता के पक्ष में और भारत सरकार के खिलाफ निर्णय दिया था। जब आयकर अधिनियम में संशोधन किया गया जिसे पूर्वव्यापी प्रकृति में भी लागू किया गया, तो इसका स्पष्ट अर्थ था कि वोडाफोन को प्रावधान के दायरे में लाने और कंपनी को कर का भुगतान करने के लिए मजबूर करने के लिए ऐसा किया गया था। यह कदम सबसे असामान्य कदमों में से एक था क्योंकि यह आयकर प्रकृति का था। यह संशोधन विधायिका और न्यायपालिका के बीच असहमति और एक नरम शक्ति या सर्वोच्चता अधिनियम था जो विधायिका द्वारा स्वतंत्र न्यायपालिका पर दिखाया गया था।
पूर्वव्यापी कराधान कानून के पारित होने के बाद
नए अधिनियम के पारित होने के बाद, करों का निपटान करने का दायित्व फिर से वोडाफोन पर था। भारत को विदेशों और स्वयं भारत में निवेशकों से बहुत भारी विरोध का सामना करना पड़ा।बीएमएल मुंजाल विश्वविद्यालय के कानून विद्यालय के संकायाध्यक्ष (डीन) निगम नुग्गेहल्ली ने कहा, “देश की सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को पलटने वाला पूर्वव्यापी संशोधन अपनी व्यापक सामान्यताओं में बुरी तरह से तैयार किया गया था और इसमें प्रतिशोध की विकृत भावना थी।”
जनवरी 2013 में, आयकर विभाग ने वोडाफोन समूह को 11,280 करोड़ रुपये की नई मांग जारी की। विश्व स्तर पर पूर्वव्यापी करों का समर्थन नहीं किया जाता है और अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण भारत सरकार को वोडाफोन के साथ मामला सुलझाने के लिए मजबूर होना पड़ा। मामले को नए सिरे से देखने के लिए डॉ. पार्थसारथी शोम की अध्यक्षता में कर प्रशासन सुधार आयोग (टीएआरसी) का गठन किया गया था। आयोग की रिपोर्ट में यह भी सुझाव दिया गया कि पूर्वव्यापी कानून से बचा जाना चाहिए। लेकिन 2014 तक, अगले आम चुनावों की घोषणा के साथ, दूरसंचार और वित्त मंत्रालय के बीच सभी प्रयास विफल हो गए।
विवाद सुलझ न पाने के कारण वोडाफोन ने अन्य कानूनी तरीकों की तलाश की और इसी क्रम में, यह हेग में स्थायी मध्यस्थता न्यायालय में पहुंच गया, जहां इसने वर्ष 1995 में भारत और नीदरलैंड के बीच हस्ताक्षरित द्विपक्षीय निवेश संधि (बीआईटी) के अनुच्छेद 9 को लागू किया।
अनुच्छेद 9 “निवेश विवादों” के बारे में बात करता है जो दो निवेशकों के बीच उत्पन्न हो सकते हैं। अनुच्छेद के अनुसार, उन्हें पहले सौहार्दपूर्ण ढंग से बातचीत का विकल्प चुनना चाहिए, फिर यदि 3 महीने की अवधि के बाद, विवाद को बातचीत के माध्यम से नहीं सुलझाया जा सकता है, तो वे संयुक्त राष्ट्र आयोग के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कानून नियम 1980 के अनुसार सुलह कर सकते हैं। सुलह की कार्यवाही शुरू होने और उसके विफल होने के बाद, पक्ष इस अनुच्छेद के अनुसार मध्यस्थता कार्यवाही के साथ आगे बढ़ सकते हैं। प्रावधान में मध्यस्थों की नियुक्ति और कार्यवाही की लागत का भी उल्लेख है।
वोडाफोन आइडिया मध्यस्थता मामले में स्थायी मध्यस्थता न्यायालय (पीसीए) का निर्णय
स्थायी मध्यस्थता न्यायालय एक अंतरसरकारी संगठन है जिसकी स्थापना वर्ष 1899 में हुई थी, यह हेग, नीदरलैंड में स्थित है। यह अंतरराज्यीय विवादों को निपटाने का सबसे पुराना सार्वभौमिक तंत्र है। इसके नाम से भ्रमित नहीं होना चाहिए, यह कम से कम अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के समान अर्थ में न्यायालय नहीं है। यह एक स्थायी एवं प्रशासनिक ढाँचा है। कोई स्थायी न्यायाधीश नहीं हैं और स्थायी मध्यस्थता न्यायालय में आने वाले प्रत्येक विवाद के लिए तदर्थ प्रशासनिक न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) स्थापित किए जाते हैं।
वोडाफोन इंटरनेशनल होल्डिंग्स बी.वी. (नीदरलैंड्स) बनाम भारत सरकार, (2016)
यह एक निवेशक-राज्य विवाद था जहां न्यायालय ने निवेशक के पक्ष में निर्णय सुनाया। मध्यस्थता नामिका (पैनल) में तीन सदस्य शामिल थे जिनमें से एक तटस्थ (न्यूट्रल) था और एक को मामले के पक्ष द्वारा नामित किया गया था। यह निर्णय सर्वसम्मति से भारत के खिलाफ था यानी तीनों सदस्यों ने वोडाफोन के पक्ष में वोट किया। यहां तक कि भारत द्वारा नामांकित नामिका के सदस्य रोड्रिगो ओरेमुनो ने भी भारत के खिलाफ मतदान किया और भारत के मामले में कोई योग्यता नहीं पाई।
श्री रोड्रिगो ने, नामिका के अन्य दो मध्यस्थों के साथ, इसे बीआईटी में उल्लिखित निष्पक्ष और न्यायसंगत उपचार के खंड का उल्लंघन पाया। चूंकि बीआईटी के तहत उचित उपचार की गारंटी दी गई थी, इसलिए इस मामले में प्रतिवादी का कर्तव्य था कि वह उस कर्तव्य को बनाए रखे और न्यायसंगत उपचार प्रदान करे।
वोडाफोन के पक्ष में निर्णय जाने का कारण द्विपक्षीय निवेश संधि और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कानून पर संयुक्त राष्ट्र आयोग (यूएनसिट्रल) का उल्लंघन था। बीआईटी का अनुच्छेद 9(1) कहता है कि,“एक अनुबंध पक्ष के निवेशक और दूसरे अनुबंध पक्ष के क्षेत्र में निवेश के संबंध में दूसरे अनुबंध पक्ष के बीच कोई भी विवाद, जहां तक संभव हो, विवाद के पक्षों के बीच बातचीत के माध्यम से सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाया जाएगा”। यूएनसिट्रल के मध्यस्थता नियमों के अनुच्छेद 3(5) में कहा गया है कि “मध्यस्थता न्यायाधिकरण का गठन मध्यस्थता के नोटिस की पर्याप्तता के संबंध में किसी भी विवाद से बाधित नहीं होगा, जिसे अंततः मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा हल किया जाएगा।”
पंचाट (अवॉर्ड)
पंचाट इस प्रकार था:
- दावेदार का दावा है कि 6 नवंबर, 1995 को हेग में किए गए निवेश को बढ़ावा देने और सुरक्षा के लिए नीदरलैंड साम्राज्य और भारत गणराज्य के बीच द्विपक्षीय निवेश संधि का उल्लंघन माना जाता है और न्यायाधिकरण का इस पर क्षेत्राधिकार है।
- भारत सरकार द्वारा द्विपक्षीय निवेश संधि के अनुच्छेद 4(1) का उल्लंघन है, “निष्पक्ष और न्यायसंगत उपचार की गारंटी की सुरक्षा” का भी उल्लंघन है।
- भारत सरकार वोडाफोन से किसी भी कर का दावा करने की हकदार नहीं है और उसे इसकी वसूली के किसी भी प्रयास को रोक देना चाहिए।
- मध्यस्थता की 60% लागत का भुगतान भारत सरकार द्वारा याचिकाकर्ताओं को किया जाना है।
पंचाट के लिए तर्क
न्यायालय ने संधि के अनुच्छेद 4(1) पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया था कि “निष्पक्ष और न्यायसंगत उपचार की गारंटी की सुरक्षा”। इसका मतलब यह था कि न्यायालय का मानना था कि संधि विदेशी निवेशकों के लिए एक गारंटी या एक छत्र सुरक्षा थी, जिसमें उचित और न्यायसंगत उपचार होगा, जिसमें एक उचित विश्वसनीय कानूनी ढांचा शामिल होगा और कोई अनावश्यक विवाद नहीं होगा। इसने यह भी गारंटी दी कि दोनों पक्षों के बीच कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किया जाएगा और दोनों के बीच कोई छुपाने वाली या धोखाधड़ी वाली गतिविधियां नहीं होंगी।
न्यायालय ने भारत सरकार की मंशा देखी। जहां वोडाफोन को पूर्वव्यापी रूप से उत्तरदायी बनाने के लिए संशोधन लाए गए थे। आयकर अधिनियम में ऐसे प्रावधान लागू करने का भारत सरकार का निर्णय जल्दबाजी में लिया गया और पूरी तरह से वोडाफोन को लक्षित प्रतीत होता है। इसे वोडाफोन के प्रति अनुचित व्यवहार माना गया और बिल्कुल भी न्यायसंगत प्रकृति का नहीं माना गया और इसलिए जो मध्यस्थ पंचाट पारित किया गया वह भारत सरकार के खिलाफ था।
पंचाट का प्रभाव
यह पंचाट उस विश्वास को मजबूत करता है जो निवेशकों ने निष्पक्ष और न्यायसंगत उपचार के उल्लंघन के कारण खो दिया है। चूंकि पूर्वव्यापी कराधान लागू किया गया था, इसने निवेशकों के बीच हलचल पैदा कर दी और काफी मात्रा में निकासी हुई। यह पंचाट यह दर्शाने में एक ऐतिहासिक पंचाट था कि न्याय के लिए अभी भी गुंजाइश है। भारत द्वारा नियुक्त मध्यस्थ को इस मामले में कोई योग्यता नहीं मिली क्योंकि उन्हें यह भी पता था कि यह बीआईटी के तहत गारंटीकृत प्रावधान और सुरक्षा का उल्लंघन था।
नवीनतम विकास
वित्त मंत्रालय ने 5 अगस्त, 2021 को लोकसभा में कराधान कानून संशोधन विधेयक, 2021 पेश किया। यह विधेयक विवादास्पद पूर्वव्यापी कर मांगों को हटाता है। इस नए विधेयक के अनुसार मई 2012 से पहले भारतीय संपत्तियों के अप्रत्यक्ष हस्तांतरण के लिए मांगा गया कोई भी कर विशिष्ट शर्तों को पूरा करने पर रद्द कर दिया जाएगा। शर्तों में ऐसे करदाताओं द्वारा लंबित मुकदमे को वापस लेना और यह वादा भी शामिल है कि भविष्य में नुकसान की कोई मांग नहीं की जाएगी। संशोधन में संबंधित करदाता द्वारा पहले ही भुगतान किए गए करों को बिना किसी ब्याज के वापस करने का भी प्रस्ताव है। केंद्र सरकार के इस कदम से वोडाफोन और केयर्न एनर्जी दोनों को फायदा होगा जिनका भारत सरकार के साथ कानूनी लड़ाई चल रही थी।
भारत सरकार ने सिंगापुर में अपील की मांग की है और मामले को सिंगापुर की एक वरिष्ठ न्यायालय में भेज दिया गया है। क्षेत्राधिकार के मुद्दे के आधार पर पंचाट को रद्द करने के लिए अपील दायर की गई थी। भारत का मानना है कि कर लगाने का अधिकार देश का प्रमुख और अंतिम अधिकार है, और इसलिए इसे किसी भी बीआईटी के तहत चुनौती नहीं दी जा सकती है। बीआईटी मुख्य रूप से निवेशकों की सुरक्षा के लिए लाए गए हैं और किसी भी तरह से कराधान से संबंधित नहीं हैं। इन मामलों में भारत सरकार द्वारा लगाया जाने वाला कर उन रिटर्न पर है जो कंपनियों को इन निवेशों या शेयरों के हस्तांतरण के आधार पर प्राप्त होते हैं। ये लेन-देन अधिनियम के तहत संरक्षित हैं, लेकिन उसके बाद आने वाले कराधान के तहत नहीं।
केयर्न मामला
केयर्न मामला वोडाफोन मामले से काफी मिलता-जुलता है। भारत में केयर्न इंडिया होल्डिंग कंपनी एक तेल अन्वेषण कंपनी है, उन्होंने ही राजस्थान में तेल खोजा है, जो भारत की सबसे बड़ी तटवर्ती (ऑनशोर) खोज है। यह केयर्न यूके होल्डिंग की पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी है जो बदले में केयर्न एनर्जी की सहायक कंपनी है।
केयर्न मामले में, भारतीय संपत्तियों को मूल कंपनी केयर्न एनर्जी द्वारा केयर्न इंडिया होल्डिंग को हस्तांतरित कर दिया गया था। 2006 में, इसने केयर्न यूके होल्डिंग्स से केयर्न इंडिया की पूरी शेयर पूंजी का अधिग्रहण कर लिया। यूके होल्डिंग्स के पास केयर्न इंडिया होल्डिंग का 69% हिस्सा था। सभी एक ही समूह का हिस्सा हैं। यह हस्तांतरण इसलिए हुआ क्योंकि केयर्न इंडिया होल्डिंग्स को भारत में आईपीओ लाना था।
2011 में केयर्न एनर्जी ने अपने शेयर वेदांता ग्रुप को बेच दिए। फिर से आयकर विभाग ने हस्तक्षेप किया और पूर्वव्यापी कराधान के आधार पर केयर्न एनर्जी पर कर लगाया।
निम्नलिखित मामले में केयर्न के तर्क पूर्वव्यापी कराधान को अस्वीकार करने के विचार पर आधारित थे। उन्होंने तर्क दिया कि इस कराधान प्रावधान के पूर्वव्यापी आवेदन से पहले, शेयरों के आकस्मिक हस्तांतरण पर कोई कर नहीं लगाया गया था। कहा गया कि करों की यह असाधारण वसूली यूके और भारत के बीच द्विपक्षीय निवेश संधि का उल्लंघन है।
यह मामला स्थायी मध्यस्थता न्यायालय में भी गया और निर्णय भारत के खिलाफ आया। न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि भारत ने यूके-भारत द्विपक्षीय निवेश संधि का उल्लंघन किया है और उसने भारत को केयर्न को मध्यस्थता लागत के साथ-साथ ब्याज सहित मुआवजा देने का भी निर्देश दिया।
निष्कर्ष
भारत के खिलाफ दो मध्यस्थता मामलों के निर्णय के साथ सरकार को सच्चाई स्वीकार करने और अपनी गलतियों को सुधारने की जरूरत है। जब आप पहले से ही गड्ढे में हैं तो इसे और खोदने का कोई मतलब नहीं है। 2012 के संशोधन में तब से अब तक तीन वित्त मंत्री आ चुके हैं लेकिन उनमें से किसी ने भी इसे बदलने की कोशिश नहीं की।
एक बुरा विचार समय के साथ और भी बदतर होता जाता है। वोडाफोन के लिए लाए गए संशोधन का इस्तेमाल केयर्न के खिलाफ किया गया। भारत स्थायी मध्यस्थता न्यायालय में दोनों मामले हार गया और शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा। वर्तमान सरकार ने सार्वजनिक बयान दिया है कि भारत इस पूर्वव्यापी कानून का उपयोग नहीं करेगा लेकिन जब तक यह कानून है, तब तक इसका उपयोग करने का प्रलोभन रहेगा। निर्मला सीतारमन द्वारा पूर्वव्यापी कराधान कानून में नया संशोधन विधेयक पेश करने से उम्मीद है कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार समुदाय में भारत की छवि बेहतर होगी।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
पूर्वव्यापी कराधान क्या है?
इसका मतलब अतीत में बेची गई वस्तुओं या सेवाओं पर कर लगाना है। ऐसा एक नए लागू किए गए कानून के कारण हो सकता है जो उस समय लागू नहीं था जब सामान वास्तव में बेचा गया था, हालांकि, यह अब लागू है और इसलिए आप उस कर का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी हैं। पूर्वव्यापी कराधान में किसी मौजूदा कानून में एक नए प्रावधान को शामिल करना या पेश करना शामिल है, यह प्रावधान पूर्वव्यापी प्रभाव लेता है और इस प्रावधान के लागू होने से पहले भी हुए लेनदेन पर लागू होगा।
पूर्वव्यापी कराधान की आवश्यकता क्यों है?
कराधान कानूनों में किसी भी असामान्यता को कम करना या करदाताओं को कराधान प्रणाली में मौजूद खामियों का फायदा उठाने से रोकना। यह कर चोरी को कम करने और सरकार के कर राजस्व को बढ़ाने के लिए किया जाता है।
द्विपक्षीय निवेश संधि क्या है?
द्विपक्षीय निवेश संधि दो या दो से अधिक राज्यों की सरकारों के बीच एक समझौता है जिसमें एक राज्य के नागरिकों और कंपनियों द्वारा दूसरे राज्य में निजी निवेश के लिए नियम और शर्तें शामिल हैं।
आमतौर पर, एक बीआईटी लगभग 10 से 15 वर्षों तक या दोनों देशों के बीच समझौते के अनुसार लागू रहता है। यदि किसी संधि को समाप्ति अवधि से पहले समाप्त किया जाना है, तो उसके लिए नियम और शर्तें संधि में ही प्रदान की जाती हैं।
बीआईटी और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के बीच क्या संबंध है?
द्विपक्षीय निवेश संधियाँ किसी भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए एक प्रेरक शक्ति के रूप में कार्य करती हैं। वे किसी भी विदेशी निवेशकों के लिए बाइबिल और सुरक्षा स्रोत हैं। दो देशों के बीच हस्ताक्षरित द्विपक्षीय संधियाँ उनके निवेशकों को किसी भी धोखाधड़ी या दुर्भावनापूर्ण गतिविधियों से बचाती हैं, जिससे निवेशक सुरक्षित रहते हैं, इससे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और अधिक निवेशकों को विदेशों में व्यवसायों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। एक बार जब किसी निवेशक को लगता है कि लेनदेन सुरक्षित है तो वह संभवतः ऐसे और अधिक लेनदेन करने में शामिल होगा, जिससे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की संख्या में सीधे वृद्धि होगी।
मध्यस्थता की कार्यवाही कहाँ आयोजित की गई थी?
कार्यवाही हेग में स्थायी मध्यस्थता न्यायालय में हुई।
कार्यवाही के लिए मध्यस्थता नामिका में कौन था?
कनाडाई ट्रायल वकील- यवेस फोर्टियर को वोडाफोन द्वारा नियुक्त किया गया। कोस्टा रिकन वकील- रोड्रिगो ओरेमुनो को भारत द्वारा नियुक्त किया गया। सर फ्रैंकलिन बर्मन उनके बीच पीठासीन मध्यस्थ के रूप में थे।
वोडाफोन पर कौन सा कर लगाया गया?
इस कर को “पूंजीगत लाभ कर” कहा जाता था। यह आमतौर पर तब लगाया जाता है जब किसी संपत्ति का हस्तांतरण होता है और यदि उस संपत्ति पर कोई लाभ होता है, तो उस लाभ पर कर लगाया जाता है।
पूंजीगत लाभ कर की गणना कैसे की जाती है?
कर की गणना पूंजीगत संपत्ति और लाभ के आधार पर होती है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि लाभ अल्पकालिक था या दीर्घकालिक।
औपचारिक स्रोत नियम क्या है?
नियम का अर्थ है कि भारत में किसी भी स्रोत से प्राप्त आय भारतीय क्षेत्राधिकार के तहत कर योग्य है, इसमें भारतीय संपत्तियों से अर्जित या उत्पन्न होने वाली कोई भी आय भी शामिल है। सरल शब्दों में, आय का स्रोत भारतीय न्यायालयों के क्षेत्राधिकार में होगा।
निवेशक-राज्य विवाद निपटान (आईएसडीएस) क्या हैं?
यह एक सार्वजनिक अंतरराष्ट्रीय कानून की तरह कार्य करता है जिसमें एक निजी व्यक्ति (विदेशी निवेशक) अपने अधिकारों को लागू करने के लिए किसी राज्य या देश पर मुकदमा कर सकता है। ज्यादातर परिस्थितियों में, जिन निवेशकों का राज्य में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश है, उन्हें मौजूदा कानूनों से समस्या है और वे उन्हें अपने अधिकारों का उल्लंघन मान सकते हैं। निवेशक को निवेश समझौतों के माध्यम से राज्य पर मुकदमा करने का यह अधिकार प्राप्त होता है, जिसे आमतौर पर द्विपक्षीय निवेश संधियों के रूप में जाना जाता है, क्योंकि उनके पास ऐसे खंड और प्रावधान हैं जो निवेशक को राज्य के किसी भी कार्य से बचाते हैं। इन विवादों को अक्सर विभिन्न अंतरराष्ट्रीय प्राधिकरणों के तहत मध्यस्थता के माध्यम से हल किया जाता है, जिनमें से एक स्थायी मध्यस्थता न्यायालय है।
संदर्भ