भारत की भाषा नीति को समझे

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Official Languages Act
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इस ब्लॉग पोस्ट में, एन.ए.एल.एस.ए.आर. यूनिवर्सिटी ऑफ़ लॉ के छात्र Abhiraj Thakur, ऑफिशियल लैंग्वेजेस एक्ट, 1963 में शामिल भारत की भाषा नीति (लैंग्वेज पॉलिसी) का विश्लेषण (एनालिसिस) किया है। इस लेख में उन्होंने नीति की कुछ कमियों पर भी प्रकाश डाला है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

परिचय (इंट्रोडक्शन) 

भारत, एक अरब से अधिक की आबादी वाला देश है, जिसमे हजार से अधिक अलग-अलग भाषाएं बोली जाती हैं, और यह निश्चित (सर्टेन) रूप से दुनिया के सबसे बड़े बहुभाषी (मल्टीलिंगुअल) राष्ट्रों में से एक है। इंडो-आर्यन, द्रविड़ियन, ऑस्ट्रो-एशियाई और तिब्बती-बर्मन परिवारों की उत्पत्ति (ओरिजिन) के साथ, यहां बोली जाने वाली भाषाओं की अधिकता पूरी तरह से भारत के विशाल और विविध (डाइवर्स) इतिहास का प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंटेशन) करती है। भारतीय नेताओं ने संविधान बनाते समय यह योजना बनाई थी कि देवनागरी लिपि के साथ हिंदी सबसे प्रमुख भाषा होगी और क्षेत्रीय संचार (रीजनल कम्युनिकेशन) को बढ़ावा देगी और भारत की कई संस्कृतियों को एकजुट (यूनिफाई) करेगी। आज, हालांकि, अंग्रेजी और हिंदी दोनों को आधिकारिक (ऑफिशियल) भाषाओं के रुप में माना जाता है।

यह लेख 1963 के ऑफिशियल लैंग्वेजेस एक्ट का एक संक्षिप्त (ब्रीफ) विश्लेषण है। इसका उद्देश्य, भारत की भाषा नीति के बारे में कुछ प्रश्नों का समाधान करना है; पहला, विभिन्न भाषाओं का ‘आधिकारिक भाषाओं’ के रूप में चयन (सिलेक्शन) और दूसरा, भारतीय शिक्षा नीति में उक्त भाषाओं का प्रचलन (प्रीवेलेंस)। अंत में, ऑफिशियल लैंग्वेजेस एक्ट, 1963 के महत्व और भारतीय भाषा नीति के बारे में तीन-भाषा सूत्र (फॉर्मूला) पर प्रकाश डाला गया है।

अवलोकन (ओवरव्यू)

1950 में अपनाए गए संविधान में यह आवश्यक था कि यूनियन के आधिकारिक कामकाज के संचालन (कंडक्ट) के लिए अंग्रेजी और हिंदी का उपयोग 15 साल के समय के लिए किया जाएगा [343(2) और 343(3)]। उस समय के बाद, हिंदी, यूनियन की एकमात्र आधिकारिक बोली बन जाएगी। दक्षिणी राज्यों में, जहां द्रविड़ बोलियां बोली जाती थी, उनसे पर्याप्त प्रतिबंध (रिस्ट्रिक्शन) के आलोक में, अंग्रेजी को हिंदी के साथ प्रतिस्थापित (सप्लांट) करना मुश्किल था। उन्होंने महसूस किया कि केंद्र सरकार दक्षिण सहित पूरे देश को हिंदी का उपयोग करने के लिए मजबूर करने का प्रयास कर रही थी, और उन्होंने अंग्रेजी का उपयोग करना जारी रखा, जिसे उन्होंने इस आधार पर अधिक “पर्याप्त” माना कि, हिंदी की तुलना में, यह कोई विशिष्ट जातीय संस्कृति (स्पेसिफिक एथिनिक कल्चर) के साथ नहीं जुड़ी हुई थी।

संसद ने, 1963 में, ऑफिशियल लैंग्वेजेस एक्ट पास किया, जिसने कानूनी रूप से हिंदी और अंग्रेजी को कांग्रेस के एक हिस्से के रूप में उपयोग की जाने वाली बोलियों के रूप में स्थापित किया, जबकि राज्यों और डोमेन को अपनी औपचारिक (फॉर्मल) भाषा चुनने के लिए छोड़ दिया। 1976 में, ऑफिशियल लैंग्वेज नियम बनाने के लिए एक्ट में बदलाव किया गया, जिसे 1987 में संशोधित (रिवाइज) किया गया।

एक्ट की समरी

ऑफिशियल लैंग्वेजेस एक्ट की धारा 3, अंग्रेजी के उपयोग के लिए 15 साल पुरानी अवधि को नकारती (नीगेट) है। उप-धारा 3 (सब – सेक्शन 3), केंद्र सरकार द्वारा या किसी सेवा, प्रभाग (डिवीजन), कार्यालय या कंपनी द्वारा जारी या किए गए प्रस्तावों, सामान्य अनुरोधों (रिक्वेस्ट्स), नियमों, चेतावनियों, केंद्र सरकार द्वारा जारी की गई या बनाई गई आधिकारिक (अथॉरिटेटिव) या अलग-अलग रिपोर्ट्स या प्रेस डिस्चार्जेस में दोनों बोलियों, हिंदी और अंग्रेजी के उपयोग (यूटिलाइजेशन) की अनुमति देता है। धारा 3 की उपधारा 5 में यह कहा गया है कि जब तक उन राज्यों की विधायिका (लेजिस्लेचर्स), जिन्होंने आधिकारिक रूप से अंग्रेजी भाषा को नहीं अपनाया है, एक्ट द्वारा निर्धारित (लेड डाउन) उद्देश्यों के लिए अंग्रेजी के उपयोग को रोकने के लिए एक प्रस्ताव पास नहीं करते हैं, तब तक यह प्रावधान लागू रहेंगे।

इस एक्ट की धारा 5 में यह कहा गया है कि सरकारी एक्ट्स के हिंदी अनुवाद को अंग्रेजी वर्जन का अंतिम रूप माना जाएगा। इस प्रकार ऑफिशियल लैंग्वेजेस एक्ट, अंग्रेजी की तुलना में हिन्दी के प्रयोग को बल प्रदान करता हुआ प्रतीत होता है। एक्ट की धारा 6 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जब किसी राज्य की विधानसभा (असेंबली) द्वारा पास एक्ट्स के लिए हिंदी के अलावा कोई अन्य भाषा निर्धारित (प्रेस्क्राइब) की जाती है, तो अंग्रेजी व्याख्या (इंटरप्रेटेशन) के साथ हिंदी में एक समान व्याख्या पब्लिश की जाएगी, और हिंदी वर्जन को अंतिम माना जाएगा।

ऑफिशियल लैंग्वेजेस एक्ट की धारा 7 के तहत, किसी राज्य के राज्यपाल (गवर्नर) (जम्मू और कश्मीर को छोड़कर), राष्ट्रपति की पूर्व सहमति के साथ, किसी भी कारण से अंग्रेजी के बावजूद, हिंदी या राज्य की आधिकारिक बोली को, उस राज्य के लिए हाई कोर्ट द्वारा पास किए गए निर्णय, घोषणा या अनुरोध और उस बोली (अंग्रेजी के अलावा) में पास किए गए किसी भी निर्णय, घोषणा या अनुरोध के लिए, उपयोग को मंजूरी दे सकते हैं। 

विषय (थीम्स)

तीन भाषा सूत्र (थ्री लैंग्वेज फॉर्मूला)

तीन भाषा सूत्र एक नीति है, जिसे 1968 के नेशनल पॉलिसी रेजोल्यूशन में भारत सरकार के एज्यूकेशन मिनिस्ट्री द्वारा तैयार किया गया था। यह प्रावधान करता है कि भारत भर के सभी सरकारी स्कूलों में तीन भाषाओं को पढ़ाया जाना चाहिए: 

  1. अंग्रेजी, एक जरुरी भाषा के रूप में; 
  2. हिंदी, हिंदी भाषी राज्यों और गैर-हिंदी भाषी राज्यों में यह भाषा जरूरी है; और 
  3. तीसरी भाषा उस क्षेत्र की स्थानीय भाषा होगी, जहां वह स्कूल स्थित होगा।

राज्यों और उनकी अपनी आधिकारिक और स्थानीय भाषाओं के आधार पर भारत में तीन भाषा सूत्र ने कई रूप लिए हैं। जबकि हिंदी और अंग्रेजी सभी के लिए समान हैं, वह उस विशेष राज्य की सरकार के अनुसार पहली भाषा से दूसरी और तीसरी भाषा में बदल जाती हैं। उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल की स्थानीय बोली बंगाली, मलयाली या तमिल की तुलना में हिंदी के सबसे करीब है, इसलिए वहां की सरकार ने हिंदी बिल्कुल न पढ़ाने का फैसला किया है, क्योंकि वे बंगाली को सांस्कृतिक (कल्चरल) रूप से अधिक समृद्ध (रिच) भाषा मानते थे। हालांकि, केरल में, हिन्दी और स्थानीय भाषा के बीच भारी अंतर के बावजूद, हिंदी को एक भाषा के रूप में सीखना अनिवार्य कर दिया गया था।

तीन भाषा सूत्र का मूल (बेसिक) उद्देश्य, हिंदी और अंग्रेजी को राष्ट्रीय भाषाओं के रूप में व्यापक रूप से जागरूक करने के अलावा, देश भर में बच्चों में बहुभाषावाद (मल्टीलिंगुअलिज्म) को बढ़ाने का अस्पष्ट (ऑब्सक्योर) उद्देश्य भी यही था। बहुभाषावाद, जैसा कि वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुका है, न केवल एक बच्चे के क्षितिज (होराइजन) को विस्तृत (ब्रोडेन) करता है, बल्कि उन्हें अधिक रचनात्मक (क्रिएटिव) और अधिक सामाजिक रूप से सहिष्णु (टॉलरेंट) बनने के लिए भी तयार करता है।

भारत में भाषा नीति (लैंग्वेज पॉलिसी इन इंडिया)

जब हम भारत की भाषा नीति के बारे में बात करते हैं, तो सबसे पहले जिस बात का उल्लेख (मेंशन) किया जाता है वह है किसी देश की राष्ट्रीय भाषा और आधिकारिक भाषा के बीच का अंतर। जहां एक तरफ राष्ट्रीय भाषा का मतलब उस भाषा से है जो सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में सबसे व्यापक रूप से उपयोग की जाती है, वहीं दूसरी तरफ आधिकारिक भाषा का मतलब यह है की जिसका उपयोग सरकार के सभी कार्यों के लिए किया जाता है। आधिकारिक भाषा व्यावहारिक (प्रैगमैटिक) है और राष्ट्रभाषा केवल प्रतीकात्मक (सिंबॉलिक) है।

हिंदी, जिसका प्रयोग आज तक किया जाता है, उसे राष्ट्रीय भाषा के रूप में माना जाता है क्योंकि यह एकमात्र ऐसी भाषा है जो राज्य या क्षेत्र-विशिष्ट (रीजन-स्पेसिफिक) नहीं है। हालाँकि, भारत के संविधान के अनुसार, केवल हिंदी ही भारत की आधिकारिक भाषा है।

इन दो आंशिक (पार्शियल) रूप से “आधिकारिक” भाषाओं के अलावा, भारत के जनगणना (सेंसस) रिकॉर्ड के अनुसार देश भर में 112 भाषाएँ हैं जो पूरे देश में प्रचलित (प्रीवेलेंट्र) हैं। फिर भी, उनमें से केवल 22 ही 8वें शेड्यूल का हिस्सा हैं, जिसका अर्थ है कि कुल 114 बोलियों में से केवल 24 को ही राष्ट्रीय भाषाओं के रूप में मान्यता (रिकॉग्निशन) प्राप्त है। हालाँकि ये 22 भाषाएँ सभी अलग-अलग भाषा परिवारों से आतीं हैं, फिर भी हिंदी को छोड़कर, ‘भीली’ जैसी कई भाषाएँ हैं जो भारत में सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली जाती हैं, जिन्हें लिस्ट में शामिल किया जाना चाहिए। ऐसी अन्य बोलियों के बीच ‘भीली’ के बाहर होने का एकमात्र संभावित (लाइकली) कारण राजनीतिक हस्तक्षेप (इंटरफेरेंस) है।

शिक्षा नीति और भाषा नीति (एज्यूकेशन पॉलिसी एंड लैंग्वेज पॉलिसी )

भारतीय शिक्षा प्रणाली (सिस्टम) शब्द के हर भाव (सेंस) में अपने हाव-भाव से बहुभाषी है। मुंबई में प्राइमरी स्कूल्स में नौ अलग-अलग भाषाओं का इस्तेमाल किया जाता है, और कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में 8 और 14 भाषाओं का इस्तेमाल किया जाता है। अधिकांश राज्यों, जैसा कि स्वतंत्रता के समय शिक्षा नीति निर्माताओं (मेकर्स) का लक्ष्य था, उनका उद्देश्य प्रणाली में बहुभाषा के इस्तेमाल को विकसित और मजबूत करना है।

हालाँकि, तीन भाषा प्रणाली को काम में लाने में कई समस्याएं हैं। यह सूत्र किसी छात्र की मातृभाषा या घरेलू बोली को संदर्भित (रेफर) नहीं करता है, जो दोनों बच्चे के संज्ञानात्मक (कॉग्निटिव) विकास के लिए अनिवार्य हैं। साथ ही, कई राज्यों ने सूत्र को केवल आंशिक रूप से लागू किया है, तीन के बजाय केवल दो भाषाओं को चुनने का विकल्प चुना है, जिनमें ज्यादातर अंग्रेजी और हिंदी शामिल हैं। ज्यादातर हिंदी भाषी राज्यों में संस्कृत जैसी शास्त्रीय (क्लासिकल) भाषाओं का अस्तित्व (एक्सिस्टेंस) दुर्लभ (स्कार्स) है। हालाँकि 8वें शेड्यूल का विस्तार अधिक भाषाओं को शामिल करने के लिए किया गया था, लेकिन भाषाओं के संबंध में शिक्षा प्रणाली लगभग समान ही रही है।

निष्कर्ष (कंक्लूजन) 

भारत में भाषा नीति मुख्य रूप से ऑफिशियल लैंग्वेजेस एक्ट, 1963 पर निर्भर है। कोठारी कमिशन ने एक आम ‘आधिकारिक’ भाषा, जो उस समय हिंदी थी, के माध्यम से देश की विविध संस्कृतियों और बोलियों को एक करने के उद्देश्य से भाषा नीतियां तैयार कीं थीं। हालाँकि, तीन भाषा सूत्र और भाषाओं के संबंध में भारत की शिक्षा नीति की विफलताओं (फेलिंग्स,) के कारण, मूल उद्देश्य, अब अंग्रेजी और हिंदी दोनों को अर्ध-आधिकारिक (क्वासी-ऑफिशियल) भाषाओं के रूप में बदलने का है। वास्तविक नीति में कमियों के लिए उक्त नीतियों को लागू करने में कई राज्यों द्वारा प्रतिरोध (रेसिस्टेंस) से, लैंग्वेज कमिशन द्वारा पाया गया समाधान एक प्रकार का अस्थायी (टेंपरेरी) और उपचारात्मक (रेमेडियल) उपाय था (जो 10 वर्षों के लिए अंग्रेजी के उपयोग की अनुमति देता है) जिसे, आज की जरूरतों और उद्देश्यों के अनुरूप अधिक अचूक (इनफॉलिबल) और निरंतर नीति खोजने के बजाय, लगातार बढ़ाया और इस्तेमाल किया गया है।

फुटनोट

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