क्रिमिनल प्रोसीजर कोड के तहत सेशन कोर्ट के समक्ष ट्रायल 

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Criminal Procedure Code
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यह लेख हिदायतुल्ला नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, रायपुर के बीए. एलएलबी (ऑनर्स) की छात्रा, Sachi Ashok Bhiwgade ने लिखा है। इस लेख में, उन्होंने सेशन कोर्ट के समक्ष ट्रायल के लिए आने वाले मामलों में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया पर चर्चा की है। इस लेख का अनुवाद Dnyaneshwari Anarse द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

भारत में, हम वाद-प्रतिवाद प्रणाली (एडवर्सरियल सिस्टम) का पालन करते हैं। इसका तात्पर्य है कि न्यायाधीश एक अपक्षपाती (न्यूट्रल) के रूप में कार्य करता है और वास्तव में कार्यवाही में भाग लिए बिना कानून के मुद्दे पर अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) और बचाव (डिफेंस) की ट्रायल करता है। क्रिमिनल प्रोसीजर कोड, 1973 के तहत प्रत्येक व्यक्ति को एक स्वतंत्र और निष्पक्ष (अनबाएस्ड) ट्रिब्यूनल द्वारा निष्पक्ष ट्रायल और सुनावनी का अधिकार है।  धारा 303 आरोपी को उसके चुने हुए वकील द्वारा बचाव का अधिकार प्रदान करती है। धारा 304 के तहत जहां एक आरोपी व्यक्ति एक वकील द्वारा अपने मामले का प्रतिनिधित्व (रिप्रजेंटेशन) करने में असमर्थ है, कोर्ट राज्य के खर्च पर उसके लिए एक वकील नियुक्त (अपॉइंट) करेगी। आरोपी को तब तक निर्दोष माना जाएगा जब तक उसके खिलाफ लगाए आरोपों के लिए वो दोषी साबित नहीं हो जाता। इसके अलावा, आरोपी को अभियोजन पक्ष के गवाहों को क्रॉस-एग्जामिन करने का अधिकार है। इंडियन पीनल कोड, 1860 के तहत सभी अपराधों की जांच की जाती है, तहक़ीक़ात की जाती है और क्रिमिनल प्रोसीजर कोड, 1973 के प्रावधानों के अनुसार ट्रायल चलाया जाता है, सिवाय अन्यथा प्रदान किए (एक्सेप्ट अदरवाईस प्रोवाइडेड)। क्रिमिनल प्रोसीजर कोड एक आपराधिक मामले की ट्रायल की प्रक्रिया और उसके स्टेजेस  का वर्णन करती है। भारत में, सुप्रीम कोर्ट होने के नाते सर्वोच्च स्थान पर एक समान न्यायिक प्रणाली है। हाई कोर्ट को राज्य के भीतर सभी अदालतों और ट्रिब्यूनल्स पर अधीक्षण (सुप्रीटेंडेंस) की शक्ति है। सीआरपीसी आपराधिक ट्रायल को सेशन्स ट्रायल और मजिस्ट्रेट ट्रायल में विभाजित करता है। कोड की पहली अनुसूची (शेड्यूल) के तहत, कौनसा अपराध सेशन कोर्ट में और कौनसा मजिस्ट्रेट कोर्ट द्वारा ट्रायबल है, यह स्पष्ट किया गया है। जब कोई डिस्ट्रिक्ट कोर्ट, अपने अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) का प्रयोग आपराधिक मामलों पर करता है तो उसे सेशन कोर्ट कहा जाता है। जिला स्तर (डिस्ट्रिक्ट लेवल) पर गंभीर प्रकृति के अपराधों से संबंधित मामलों में सेशन कोर्ट को प्रथम दृष्टया (फर्स्ट इंस्टेन्स) कोर्ट माना जाता है जो है। यह किसी भी डिस्ट्रिक्ट का सर्वोच्च आपराधिक कोर्ट माना जाता है। सीआरपीसी की धारा 9 के अनुसार, राज्य सरकार को प्रत्येक सेशन्स डिवीज़न के लिए एक कोर्ट स्थापित करने का अधिकार है और प्रत्येक सेशन कोर्ट की अध्यक्षता हाई कोर्ट के न्यायाधीश द्वारा नियुक्त की जाती है।

विषय का दायरा (स्कोप ऑफ द टॉपिक)

इस विषय में मुख्य रूप से प्रक्रिया और ट्रायल में पालन किए जाने वाली स्टेप्स शामिल हैं, जहां मामला सेशन कोर्ट के समक्ष आया है।

ट्रायल में प्रारंभिक स्टेप्स (इनिशियल स्टेप्स इन द ट्रायल)

प्रारंभ में, एक मजिस्ट्रेट किसी अपराध का कॉग्निजेंस लेते है और उसके बाद धारा 209 के अनुसार, उस मामले को सेशन कोर्ट में प्रस्तुत किया जाता है। एक मजिस्ट्रेट को धारा 190 के तहत पुलिस रिपोर्ट पर; पुलिस अधिकारी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति से प्राप्त सूचना पर; या उसके ज्ञान पर, कंप्लेंट मिलने पर, किसी अपराध का कॉग्निजेंस लेने का अधिकार है। धारा 193 के अनुसार, सेशन कोर्ट सीधे किसी अपराध का कॉग्निजेंस नहीं ले सकता है, लेकिन सेशन कोर्ट को बिना किसी मामले के अपराध का कॉग्निजेंस लेने की अनुमति है, यदि मजिस्ट्रेट उस पर मामला सुपुर्द (हैंड ओवर) करता है या यदि वह विशेष कोर्ट के रूप में कार्य करता है। 

धारा 207 और धारा 208 के तहत मजिस्ट्रेट को आरोपी को दस्तावेजों की प्रतियां (कॉपीज) जैसे प्राथमिकी (एफआईआर), पुलिस या मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज बयान आदि उपलब्ध कराना आवश्यक है। धारा 209 के तहत, यदि मजिस्ट्रेट को यह लगता है कि यह अपराध केवल सेशन कोर्ट द्वारा ट्रायबल है, तो वह मामले को सेशन कोर्ट में सभी दस्तावेज, रिकॉर्ड के साथ भेज सकते है और या तो जमानत दे सकते है या लोक आरोपी (पब्लिक प्रॉसिक्यूटर) को सूचित करके आरोपी को रिमांड हिरासत me भी ले सकते है। सेशन कोर्ट के समक्ष ट्रायल की प्रक्रिया धारा 225 से धारा 237 तक वर्णित है। धारा 225 के अनुसार, सेशन कोर्ट के समक्ष प्रत्येक ट्रायल का संचालन (कंडक्ट) लोक आरोपी द्वारा किया जाता है।

अभियोजन के द्वारा मामले की शुरुआत (ओपनिंग केस फ़ॉर प्रॉसिक्यूशन)

जब मजिस्ट्रेट धारा 209 के तहत सेशन कोर्ट में मामला हस्तांतरित (हैंड ओवर) करते है और आरोपी पेश होता है या कोर्ट के सामने लाया जाता है, तो आरोपी को अपना मामला शुरू करने के लिए धारा 226 के तहत आरोपी के खिलाफ आरोप समझाना होगा और सबूत बताना अनिवार्य है जिसके द्वारा वह आरोपी का गुनाह साबित करेंगे। इस स्टेज पर, सबूत के पूर्ण विवरण (डिटेल्स) को बताने की आवश्यकता नहीं है। अभियोजन मामले की शुरुआत  केवल उन मामलों के लिए होनी चाहिए जो साक्ष्य (एविडेंस) का पालन करने के लिए आवश्यक हैं। एक लोक आरोपी के लिए यह आवश्यक नहीं है कि अभियोजन पक्ष के लिए मामला शुरू करने के समय उस साक्ष्य का पूरा विवरण दिया जाए, जिसके साथ वह अपना मामला साबित करना चाहता है।

मुक्ति (डिस्चार्ज)

कोर्ट, मामले के दस्तावेजों और रिकॉर्ड्स पर विचार करने और मामले पर अभियोजन और आरोपी को सुनने पर, यदि न्यायाधीश को लगता है कि आरोपी के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है, तो वह आरोपी को डिस्चार्ज दिया जायेगा। न्यायाधीश को धारा 227 के तहत आरोपी को बरी करने के अपने कारणों को दर्ज करने की आवश्यकता है। कर्नाटक राज्य बनाम एल मुनिस्वामी में यह कहा गया था कि इस धारा का उद्देश्य न्यायाधीश को आरोपी को डिस्चार्ज देने के लिए यथार्थ कारण बताने की आवश्यकता है ताकि हाई कोर्ट उन कारणों की सत्यता की जांच कर सके जिनके लिए सेशन न्यायाधीश ने माना है कि आरोपी के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है।

चार्ज का निर्धारण (फ्रेमिंग ऑफ चार्ज)

धारा 228 के तहत, न्यायाधीश मामले के रिकॉर्ड और उसके साथ जमा किए गए दस्तावेजों पर साक्ष्य के रूप में सेशन कोर्ट द्वारा विचार करने और अभियोजन और बचाव पक्ष की ट्रायल के बाद, वह सोचता है कि यह मानने का एक आधार है कि आरोपी ने अपराध किया है और विशेष रूप से ट्रायबल है, तो वह आरोपी के खिलाफ आरोप तय करेगा।

यदि मामला विशेष रूप से सेशन कोर्ट द्वारा ट्रायबल नहीं है तो न्यायाधीश आरोपी के खिलाफ आरोप तय कर सकता है और आदेश द्वारा मामले को चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट या फर्स्ट क्लास के किसी अन्य ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट को स्थानांतरित (ट्रांसफर) कर सकता है। वह आरोपी को ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट को निर्देशित (डायरेक्ट) करेगा जिसके पास मामला स्थानांतरित किया गया है। मजिस्ट्रेट तब पुलिस रिपोर्ट पर स्थापित वॉरंट-मामलों के ट्रायल के लिए निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार मामले की ट्रायल करेगा।

यदि आरोपी के दोष के संबंधित दो दृष्टिकोण (व्यूज ) संभव हैं, तो जो आरोपी के लिए अधिक अनुकूल (फेवरेबल) है उसे स्वीकार किया जाएगा।

नाटी भद्र शाह और अन्य बनाम पश्चिम बंगाल राज्य में कहा गया था, कि सीआरपीसी की धारा 228 के तहत शक्ति का प्रयोग करते हुए न्यायाधीश को आरोपी के खिलाफ आरोप तय करने के लिए अपने कारणों को दर्ज करने की आवश्यकता नहीं है।

आरोप निर्धारित करते समय केवल प्रथम दृष्टया (प्राइमा फेसी) मामला देखा जाना चाहिए। इस स्टेज पर, न्यायाधीश को यह देखने के लिए कि क्या मामला उचित संदेह (रिज़नेबल डाउट) से परे है, आवश्यक विस्तृत आदेश दर्ज करना जरूरी नहीं है जैसा कि भावना बाई बनाम घनश्याम और अन्य में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित किया गया था।

रुक्मिणी नार्वेकर बनाम विजया सतर्डेकर में कोर्ट ने फैसला सुनाया कि आरोपी आरोप फ्रेम करने की स्टेज में कोई सबूत पेश नहीं कर सकता है और केवल उन मुद्दों को ध्यान में रख सकता है जो आरोप तय करते समय धारा 227 में निर्दिष्ट (स्पेसिफाइड) हैं।

आरोपी  को चार्ज समझाना

धारा 228(2) कहती है कि जब कोई मामला सेशन कोर्ट द्वारा विशेष रूप से ट्रायबल होता है और न्यायाधीश आरोपी के खिलाफ आरोप लगाता है तो उसे आरोप को पढ़ना और समझाना होगा और आरोपी से पूछना होगा कि क्या वह इस आरोप को कबूल करता है या मुकदमा चलाने का दावा करता है। न्यायाधीश को आरोपी को दोषी ठहराने से पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि आरोपी को पढ़ाया और समझाया गया आरोप पूरी तरह से समझ में आ गया है। बनवारी बनाम यूपी राज्य में, कोर्ट ने कहा कि धारा 228 का पालन न करने से आरोपी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है तो आरोपी को आरोप पढ़ने या समझने में चूक की वजह से ट्रायल में कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

दोषियों की दलील पर दोषसिद्धि (कन्विक्शन ऑन प्ली ऑफ गिल्टी)

आरोपी धारा 229 के तहत अपना दोष स्वीकार कर सकता है या वह स्वीकार करने से इंकार कर सकता है। धारा 229 के तहत कोर्ट को दोषी की दलील (प्ली) को स्वीकार करने की कार्य-स्वतंत्रता (डिस्क्रीशन) है। इस कार्य-स्वतंत्रता को सावधानी से लागू किया जाना चाहिए न कि मनमाने ढंग से। साथ ही, न्यायाधीश को यह सुनिश्चित करना होगा कि दलील अपनी इच्छा से की गई है न कि किसी प्रलोभन (इंड्यूसमेंट) के तहत अन्यथा यह भारत के संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन (वायलेटिव) होगा। क्वीन एम्प्रेस बनाम भादु में कहा गया था कि दोषी की दलील स्पष्ट शब्दों में होनी चाहिए अन्यथा ऐसी दलील को दोषी नहीं होने की दलील के बराबर माना जाता है। धारा 229 में कहा गया है कि यदि कोई आरोपी अपना दोष स्वीकार करता है, तो न्यायाधीश उसे अपने कार्य-स्वतंत्रता के अनुसार दोषी ठहराएगा और उसका रिकॉर्ड रखेंगे। जहां अपराध का दंड मौत या आजीवन कारावास की सजा है, वहां कोर्ट किसी आरोपी को दोषी की दलील के आधार पर दोषी नहीं ठहरा सकती है। हसरुद्दीन मोहम्मद बनाम एम्परर में, कोर्ट ने माना कि यह कोर्ट के लिए अनिच्छुक (रिलक्टेंट) होगा कि किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति को दोषी की दलील के आधार पर मौत या आजीवन कारावास की सजा दी जाए। धारा 375 द्वारा आरोपी के अपील के अधिकार में कटौती की जाती है यदि आरोपी को उसके दोषी होने की दलील के आधार पर दोषी ठहराया जाता है।

अभियोजन साक्ष्य के लिए तिथि (डेट फ़ॉर प्रॉसिक्यूशन एविडेंस) 

धारा 230 के तहत, यदि आरोपी ने दोषी होने से इनकार कर दिया है या दोषी नहीं है, या यदि वह मुकदमा चलाने का दावा करता है या धारा 229 के तहत उसे दोषी नहीं ठहराया जाता है, तो न्यायाधीश द्वारा गवाहों की परीक्षा के लिए एक तारीख तय की जाएगी। अभियोजन पक्ष के आवेदन (रिक्वेस्ट) पर, न्यायाधीश गवाहों की उपस्थिति या किसी दस्तावेज या किसी अन्य चीज को पेश करने के लिए एक सम्मोहक (कंपेलिंग) प्रक्रिया जारी करेंगे।

अभियोजन के लिए साक्ष्य (एविडेंस फ़ॉर प्रॉसिक्यूशन)

जैसा कि धारा 273 द्वारा प्रदान किया गया है, ट्रायल या कार्यवाही के दौरान आरोपी की उपस्थिति या अनुपस्थिति में उसके वकील की मौजूदगी में सभी साक्ष्य लिए जाने चाहिए।

गवाहों की परीक्षा

जब तारीख तय हो जाती है (जैसा कि धारा 230 के तहत उल्लेख किया गया है), न्यायाधीश धारा 231 के अनुसार अभियोजन पक्ष द्वारा अपने समर्थन में पेश किए जाने वाले सभी सबूतों को लेने के लिए आगे बढ़ेगे। न्यायाधीश के पास किसी भी गवाह के क्रॉस-एग्जामिनेशन को तब तक के लिए स्थगित (डीफर्ड) करने की अनुमति देने की कार्य-स्वतंत्रता है जब तक कि अन्य गवाह या गवाहों का एग्जामिनेशन नहीं हो जाता है या क्रॉस-एग्जामिनेशन के लिए किसी गवाह को वापस नही बुलाया जाता है। इंडियन एविडेंस एक्ट, 1872 (‘आईईए’) की धारा 137 में कहा गया है कि एक गवाह की परीक्षा उस पक्ष द्वारा की जाएगी जो उसे (अभियोजन) बुलाती है और इसे एग्जामिनेशन-इन-चीफ कहा जाएगा। गवाह का क्रॉस-एग्जामिनेशन प्रतिकूल पक्ष (बचाव) द्वारा किया जाता है। अभियोजन पक्ष द्वारा क्रॉस-एग्जामिनेशन के बाद पुन: परीक्षा की जाती है। 

आईईए, 1872 की धारा 138 गवाहों की परीक्षा का आदेश देती है। इसमें कहा गया है कि गवाह से पहले एग्जामिनेशन इन चीफ किया जाना चाहिए और फिर क्रॉस-एग्जामिनेशन की जानी चाहिए। एग्जामिनेशन इन चीफ उस पक्ष द्वारा की जाती है जो गवाह को बुलाता है और क्रॉस-एग्जामिनेशन प्रतिकूल पक्ष द्वारा की जाती है। यदि गवाह को बुलाने वाला पक्ष चाहे तो कोर्ट की अनुमति से गवाह की पुन: परीक्षा कर सकता है। 

एग्जामिनेशन-इन-चीफ और क्रॉस-एग्जामिनेशन को मामले के प्रासंगिक (रिलेवेंट) तथ्यों से जोड़ा जाना चाहिए। हालांकि, क्रॉस-एग्जामिनेशन को उन तथ्यों तक सीमित रखने की आवश्यकता नहीं है, जिनके लिए गवाह ने एग्जामिनेशन इन चीफ में गवाही दी है। पुन: परीक्षा क्रॉस-एग्जामिनेशन में निर्दिष्ट मामलों के स्पष्टीकरण  (एक्सप्लनेशन) से संबंधित होगी। यदि पुन: परीक्षा में कोई नया मामला सामने आया है, तो बचाव पक्ष इस मामले पर आगे गवाह से क्रॉस-एग्जामिनेशन कर सकता है। पुनः परीक्षा के पीछे का उद्देश्य गवाह को क्रॉस-एग्जामिनेशन के दौरान उठाए गए किसी भी मुद्दे को स्पष्ट करने का अवसर प्रदान करना है और इसलिए केवल उन मुद्दों तक सीमित है जो क्रॉस-एग्जामिनेशन के दौरान उठाए गए थे। राम प्रसाद बनाम यूपी राज्य में यह माना गया था कि, अगर कोर्ट को पता चलता है कि अभियोजन पक्ष ने गवाहों की जांच नहीं की थी, जिसके कारण लायक (टिनेबल) या उचित (प्रॉपर) नहीं थे, तो कोर्ट का अभियोजन पक्ष के प्रतिकूल अनुमान निकालना उचित माना जायेगा।

कोर्ट ने केरल राज्य बनाम रशीद में धारा 231(2) के तहत एक आवेदन पर फैसला करते समय कहा कि आरोपी के अधिकारों और सबूतों का नेतृत्व करने के लिए अभियोजन पक्ष के विशेषाधिकार (प्रेरोगेटिव) के बीच एक संतुलन बनाया जाना चाहिए। निम्नलिखित कारकों (फॅक्टर्स) पर विचार किया जाना चाहिए:

  • अनुचित प्रभाव (अनड्यू इन्फ्लुएंस) की संभावना, 
  • धमकी (थ्रेट्स),
  • गैर-आस्थगन (नॉन-डेफेरल) बाद के गवाहों को इसी तरह के तथ्य पर साक्ष्य देने में सक्षम बनाता है ताकि उसकी गवाही को रक्षा रणनीति को दरकिनार (सरकम्वेंट) करने के लिए तैयार किया जा सके,
  • गवहा की स्मृति (मेमरी) को हानि जिसका एग्जामिनेशन इन चीफ पूरा हो चुका है।

सबूत का रिकॉर्ड

धारा 276 के अनुसार, सेशन कोर्ट के समक्ष सभी ट्रायल्स में प्रत्येक गवाह के साक्ष्य को प्रेसिडिंग न्यायाधीश द्वारा स्वयं या उसके निर्देश (डिक्टेशन) के तहत या उसके मार्गदर्शन और अधीक्षण (सुपरिटेंडेंट) के तहत न्यायाधीश द्वारा इस संबंध में नियुक्त कोर्ट के अधिकारी द्वारा लिखा जाएगा। इस तरह के साक्ष्य को आमतौर पर विवरण (स्टोरी) रूप में लिया जाता है। प्रेसिडिंग न्यायाधीश इसे अपने कार्य-स्वतंत्रता के अनुसार प्रश्न-उत्तर के रूप में भी लिख सकते है। इस प्रकार निकाले गए साक्ष्य को न्यायाधीश द्वारा हस्ताक्षरित किया जाना चाहिए और रिकॉर्ड का एक हिस्सा बनाना चाहिए।

धारा 278(1) के तहत यह प्रावधान दिया गया है कि जब प्रत्येक गवाह का साक्ष्य पूरा हो जाता है, तो उसे आरोपी की उपस्थिति में या उसकी अनुपस्थिति में उसके वकील की उपस्थिति में पढ़ा जाएगा और यदि आवश्यक हो तो उसमें बदलाव करके सही किया जाएगा। साथ ही, धारा 279 के अनुसार यदि कोई साक्ष्य किसी ऐसी भाषा में दिया जाता है जिसे आरोपी या उसका वकील नहीं समझता है, तो उसे आरोपी या उसके वकील के द्वारा समझी जाने वाली भाषा में व्याख्यायित (इंटरप्रेट) किया जाएगा।

अभियोजन साक्ष्य का पालन करने के लिए स्टेप्स 

अभियोजन पक्ष के साक्ष्य प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित स्टेप्स का पालन करना होगा जैसा कि नीचे बताया गया है:

अभियोजन पक्ष की ओर से मौखिक दलीलें और दलीलों का ज्ञापन (ओरल आर्ग्यूमेंट्स एंड मेमोरेंडम ऑफ आर्ग्यूमेंट्स ऑन बीहाफ ऑफ द प्रॉसिक्यूशन)

धारा 314 के तहत आरोपी को अभियोजन साक्ष्य के निष्कर्ष के बाद और कार्यवाही में कोई अन्य स्टेप्स से पहले अपनी मौखिक दलीलें (ओरल आर्ग्यूमेंट्स) प्रस्तुत करनी होती हैं। अपने पक्ष में दलीलों को संक्षेप (ब्रीफ) में बताते हुए एक ज्ञापन (मेमोरेंडम) प्रस्तुत करना भी आवश्यक है और उस ज्ञापन की एक प्रति विरोधी पक्ष को दी जानी चाहिए। लिखित तर्क (रिटन आर्ग्यूमेंट्स) दाखिल करने के लिए स्थगन (एडजर्नमेंट) केवल तभी दिया जाएगा जब कोर्ट इसे उचित समझे और इसके कारणों को दर्ज करें। कोर्ट मौखिक तर्क को नियमित (रेगुलेट) करेगा यदि उसे लगता है कि यह अप्रासंगिक (इर्रेलेवेंट) है या संक्षिप्त (कंसाइस) नहीं है। इस स्टेज पर अभियोजन पक्ष की दलील कोर्ट को विरोधी पक्ष की परीक्षा आयोजित करने और अभियोजन द्वारा उठाए गए मुद्दे पर स्पष्टीकरण मांगने में मदद करती है।

आरोपी का स्पष्टीकरण 

अभियोजन पक्ष के साक्ष्य लिए जाने के बाद धारा 313 के तहत कोर्ट आरोपी से पूछताछ कर सकती है। इस धारा का उद्देश्य आरोपी को उसके विरुद्ध प्रतीत होने वाली किसी भी परिस्थिति को स्पष्ट करने का अवसर देना है। अभियोजन पक्ष के गवाह की जांच के बाद और आरोपी को अपने बचाव के लिए बुलाए जाने से पहले, धारा 313(1)(B) में कोर्ट आरोपी व्यक्ति से कानूनी मामले पर आम तौर पर पूछताछ करने की आवश्यकता होती है ताकि आरोपी को उसके खिलाफ सबूत में सामने आने वाली कोई भी परिस्थिति व्यक्तिगत रूप से समझाने के लिए सक्षम किया जा सके।

यह शिवाजी सहाबराव बोबडे बनाम महाराष्ट्र राज्य में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया था, यह बुनियादी (बेसिक) है कि कैदी का ध्यान प्रत्येक बाध्यकारी इंकल्पेट्री सामग्री पर आकर्षित किया जाना चाहिए ताकि उसे स्पष्ट करने की अनुमति मिल सके।

अशरफ अली बनाम असम राज्य में कहा गया था कि, यदि आरोपी के खिलाफ कोई मामला महत्वपूर्ण है और उस पर दोष सिद्ध होने का प्रस्ताव सही और वैध है तो आरोपी से इस मुद्दे से संबंधित जांच की जानी चाहिए और उसे स्पष्ट करने का मौका दिया जाना चाहिए।

पक्षों की सुनवाई  (हियरिंग द पार्टीज)

धारा 232 आरोपी को अपने बचाव में प्रवेश करने और इसके समर्थन में सबूत पेश करने के लिए बुलाने से पहले अभियोजन और बचाव पक्ष दोनों को कोर्ट को संबोधित (एड्रेस) करने का अवसर देती है। पक्षकारों की टिप्पणियां (कमैंट्स) अभियोजन द्वारा दिए गए साक्ष्य और आरोपी की परीक्षा से संबंधित होनी चाहिए।

बरी करने का आदेश (ऑर्डर ऑफ द एक्विटल)

एक आरोपी को बरी किया जा सकता है यदि उसके खिलाफ कोई सबूत नहीं है कि उसने अपराध किया है। धारा 232 के तहत न्यायाधीश आरोपी के पक्ष में बरी करने का आदेश दर्ज करेगा यदि उसे लगता है कि आरोपी के खिलाफ कोई सबूत नहीं है कि उसने अपराध किया है।

बचाव में साक्ष्य का पालन करने के लिए स्टेप्स (स्टेप्स टू फॉलो द डिफेंस एविडेंस) 

धारा 233 के अनुसार जब आरोपी को धारा 232 के तहत दोषी नहीं ठहराया जाता है तो उसे अपने समर्थन में सबूत पेश करने के लिए कहा जाएगा। यदि आरोपी चाहे तो वह लिखित रूप में अपने बचाव में साक्ष्य दे सकता है और न्यायाधीश उसे रिकॉर्ड के साथ फाइल करेंगे। बचाव के साक्ष्य प्राप्त करने के लिए अपनाए जाने वाली स्टेप्स की चर्चा नीचे की गई है:

कोर्ट के गवाह, यदि कोई हों

धारा 311 के अनुसार, कोर्ट किसी भी तहकीक़ात, ट्रायल या अन्य कार्यवाही के किसी भी स्टेप्स में, किसी व्यक्ति को कोर्ट के गवाह के रूप में समन और जांच पड़ताल कर सकता है, यदि उसका सबूत कोर्ट को लगता है कि यह मामले के न्यायपूर्ण निर्णय के लिए आवश्यक है।

दलील (आर्ग्यूमेंट्स)

धारा 234 के तहत अभियोजन पक्ष अपने मामले का सार प्रस्तुत करेगा और आरोपी या उसका वकील जवाब देने का हकदार होगा, और यदि आरोपी या उसके वकील द्वारा कानून का कोई मुद्दा उठाया जाता है, तो अभियोजन न्यायाधीश की उचित अनुमति से कानून के बिंदु के संबंध में अपना आवेदन कर सकता है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि धारा 314 पक्षकारों के दलील के बारे में भी बात करती है। हालांकि, धारा 234 में प्रावधान है कि बचाव के लिए साक्ष्य समाप्त होने के बाद अभियोजन पक्ष को अपने कानूनी मामले को समेटना है, और फिर बचाव पक्ष जवाब देने का हकदार होगा। धारा 234 विशेष दलील के संबंध में एक प्रावधान है जबकि धारा 314 एक सामान्य प्रावधान है और इसलिए धारा 234 धारा 314 पर प्रबल (प्रीवैल) होगी। इसका कारण यह है कि यह एक अच्छी तरह से स्थापित कानून है कि ‘जब एक सामान्य और एक विशेष कानून के बीच कोई विसंगति (इंकॉनसिस्टेंसी) होती है, तो विशेष प्रबल होगा।’

निर्णय और जुड़े मामले (जजमेंट एंड कनेक्टेड मैटर्स)

अभियोजन और बचाव पक्ष की दलीलें सुनने के बाद कोर्ट किसी मामले में फैसला सुनाएगा। यह वह स्टेज है जहां आरोपी को या तो बरी कर दिया जाता है या दोषी ठहराया जाता है।

कोर्ट का निर्णय

धारा 235 के अनुसार, एक न्यायाधीश दोनों पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद, यानी अभियोजन और बचाव द्वारा किये गए कानून के मुद्दों (पॉइंट ऑफ लॉ) (यदि कोई हो) को सुनने के बाद दोषमुक्ति या दोषसिद्धि का निर्णय सुनाएगा। हालाँकि, अपराधी के चरित्र, कानूनी मामले की परिस्थितियों और अपराध की प्रकृति को देखते हुए, न्यायाधीश धारा 360 के अनुसार अच्छे बर्ताव (गुड कंडक्ट) की परिवीक्षा (प्रोबेशन) पर आरोपी को रिहा करने का निर्णय ले सकते है।  यदि आरोपी बरी कर दिया जाता है तो धारा 232 के तहत निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार बरी किया जाएगा और यदि वह दोषी पाया जाता है तो उस पर धारा 235 के अनुसार कार्रवाई की जाएगी।

नरपाल सिंह बनाम हरियाणा राज्य में यह माना गया था कि, इस प्रावधान का पालन न करने की स्थिति में, मामले को केवल सजा के सवाल पर सेशन न्यायाधीश के पास रि-ट्रायल के लिए भेजा जा सकता है। न्यायाधीश के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह पूरी तरह से एक नया ट्रायल करे, यह केवल सजा के प्रश्न तक ही सीमित होगा।

दोषसिद्धि के आदेश का पालन करने की प्रक्रिया

दोषसिद्धि के बाद, न्यायाधीश आरोपी की ट्रायल करेंगे और फिर धारा 235 के तहत सजा सुनाऐंगे। न्यायाधीश सजा सुनाते समय आरोपी की सजा को प्रभावित करने वाली या उससे संबंधित सभी जानकारी एकत्र करने का प्रयास करेगा। धारा 235(2) के प्रावधान अनिवार्य हैं और इसका कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए जैसा कि कोर्ट ने कहा है। धारा 235 का उद्देश्य आरोपी को अपने पक्ष में किसी भी कम करने वाली परिस्थितियों का सबूत पेश करने का मौका देना है। आरोपी से स्पष्ट रूप से पूछा जाना चाहिए कि उसे अपनी सजा के बारे में क्या कहना है और क्या वह अपनी सजा को कम करने के लिए अपनी तरफ से कोई सबूत देना चाहता है।

इस बिंदु पर, सांता सिंह बनाम पंजाब राज्य में अपेक्स कोर्ट ने कहा कि न्यायाधीश को पहले दोषसिद्धि या दोषमुक्ति की सजा देनी चाहिए। यदि आरोपी को दोषसिद्ध (कन्विक्ट) ठहराया जाता है तो उसे सजा के प्रश्न पर सुना जाएगा और उसके बाद ही कोर्ट उसके विरुद्ध सजा पारित करने के लिए आगे बढ़ेगा।

बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य में, कोर्ट द्वारा फैसला सुनाया गया था कि यह धारा एक द्विभाजित (बायफरकेट) ट्रायल का प्रावधान करती है और विशेष रूप से आरोपी व्यक्ति को पूर्व-सजा ट्रायल का अधिकार देती है जो कि विशेष रूप से विशेष अपराध से संबंधित या उससे संबंधित नहीं हो सकती है। जांच के तहत लेकिन सजा पर असर पड़ सकता है।

पूर्व दोषसिद्धि के मामले में प्रक्रिया

धारा 236 पूर्व दोषसिद्धि के बारे में बात करती है। इसमें कहा गया है कि यदि किसी आरोपी को  धारा 211(7) के तहत पहले से दोषी ठहराया गया है और वह यह स्वीकार नहीं करता है कि उसे पहले कथित आरोप के साथ दोषी ठहराया गया है। न्यायाधीश आरोपी को धारा 229 या धारा 235 के तहत दोषी ठहराने के बाद इस तरह की पूर्व दोषसिद्धि के आरोपी से सबूत मांग सकता है और अगर आरोपी को अलग तरह की सजा दी जा सकती है तो वह निष्कर्ष दर्ज करेगा। इस धारा के प्रावधान में उल्लेख है कि इस तरह के आरोप को न्यायाधीश द्वारा नहीं पढ़ा जाएगा, न ही आरोपी को याचना करने के लिए कहा जाएगा और न ही अभियोजन पक्ष ऐसी पूर्व दोषसिद्धि का उल्लेख करेगा।

धारा 236 पूर्व दोषसिद्धि के परिणामस्वरूप बढ़ी हुई सजा के लिए कानूनी दायित्व (लायबिलिटी) निर्धारित करने के लिए एक विशेष प्रक्रिया प्रदान करती है। साथ ही, जब तक आरोपी को दोषी नहीं ठहराया जाता है, तब तक पूर्व दोषसिद्धि के सबूत पर रोक लगाना, आरोपी को ट्रायल में से ग्रस्त (प्रेज्यूडिस) होने से रोकता है।

उच्च गणमान्य व्यक्तियों और लोक सेवकों की मानहानि के मामलों में प्रक्रिया (प्रोसीजर इन केसेस ऑफ डिफेमेशन ऑफ हाई डिग्निटरीज एंड पब्लिक सर्वेंट्स)

धारा 199(2) के तहत सेशन कोर्ट किसी अपराध का कॉग्निजेंस ले सकता है, जब उस व्यक्ति के खिलाफ मानहानि का कोई अपराध किया जाता है, जो उस समय भारत के प्रेसिडेंट, भारत के वाइस-प्रेसिडेंट है। किसी राज्य के गवर्नर, या केंद्र शासित प्रदेश (यूनियन टेरिटरी) या राज्य में कोई लोक सेवक जब लोक आरोपी द्वारा लिखित में शिकायत की जाती है।

धारा 237 के लिए यह आवश्यक है कि सेशन कोर्ट द्वारा मामले की ट्रायल की प्रक्रिया के अनुसार वारंट-मामलों की ट्रायल की प्रक्रिया के अनुसार स्थापित किया जाए, न कि किसी मजिस्ट्रेट कोर्ट के समक्ष पुलिस रिपोर्ट के आधार पर जब वह धारा 199(2) के तहत किसी अपराध का कॉग्निजेंस लेता है।

धारा 237(1) के प्रावधान में कहा गया है कि एक व्यक्ति की अभियोजन गवाह के रूप में जांच की जाएगी, जिसके खिलाफ अपराध का आरोप लगाया गया है, जब तक कि सेशन कोर्ट अन्यथा निर्देश न दे। कोर्ट को इसके कारणों को दर्ज करना होगा।

धारा 237 के तहत प्रत्येक ट्रायल को कैमरे में आयोजित (कंडक्ट) किया जाता है यदि कोर्ट को लगता है या यदि कोई पक्ष ऐसा चाहता है। यदि कोर्ट सभी या किसी आरोपी को दोषमुक्त या बरी करता है और कोर्ट को लगता है कि आरोपी या उनमें से किसी के विरुद्ध आरोप लगाने का कोई उचित कारण नहीं है। कथित रूप से मानहानि करने वालों को मुआवजा (कंपनसेशन) देने के लिए शो कॉज नोटिस जारी किया जा सकता है।

कोर्ट शो कॉज और कारणों को दर्ज करने पर विचार करने के बाद आरोपी या उनमें से किसी को 1 हजार रुपये तक का मुआवजा देता है। दिया गया मुआवजा इस तरह वसूल किया जाएगा जैसे कि यह मजिस्ट्रेट द्वारा लगाया गया जुर्माना हो। एक व्यक्ति जिसे मुआवजे का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी बनाया गया है, उसे किसी भी नागरिक या आपराधिक दायित्व से छूट नहीं दी जाएगी। यदि आरोपी को पहले ही कोई राशि का भुगतान किया जा चुका है तो उसी मामले से संबंधित किसी भी बाद कि (सबसीक्वेंट) कार्यवाही में मुआवजे का भुगतान करते समय उस राशि को ध्यान में रखा जाएगा।

मुआवजे का पुरस्कार प्रेसिडेंट, वाइस-प्रेसिडेंट, राज्य के गवर्नर या केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासक (एडमिनिस्ट्रेटर) पर लागू नहीं होता है।

इस धारा के तहत कोई भी व्यक्ति कोर्ट के आदेश के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील कर सकता है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

उपरोक्त लेख सेशन ट्रायल से संबंधित सभी प्रक्रियाओं की रूपरेखा प्रस्तुत करता है। क्रिमिनल प्रोसीजर कोड आरोपी को निष्पक्ष ट्रायल का अवसर प्रदान करती है और जांच या ट्रायल में किसी भी देरी से बचने का प्रयास करती है।  न्यायाधीश हर मामले में यह सुनिश्चित करता है कि आरोपी को अपने मामले की ट्रायल और बचाव का उचित अवसर दिया जाए। कोड एक ऐसे निर्धन आरोपी को कानूनी सहायता का भी प्रावधान करती है जो संवैधानिक आवश्यकताओं के अनुपालन में और साथ ही धारा 304 की आवश्यकता के अनुसार एक वकील को नियुक्त करने में असमर्थ है ताकि किसी भी व्यक्ति को जिसपे गुन्हा दाखिल है वह गलत तरीके से दोषी न ठहराया जा सके और न्याय किया जा सके।

संदर्भ (रेफेरेंसेस)

  • आर.वी. केलकर, क्रिमिनल प्रोसीजर कोड पर व्याख्यान, ईस्टर्न बुक कंपनी, (6 वां संस्करण 2017)
  • रतनलाल एंड धीरजलाल, द कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर, वाधवा एंड कंपनी नागपुर, (17वां संस्करण। 2004)
  • क्रिमिनल प्रोसीजर कोड-सत्र ट्रायल के मूल तत्व
  • दंड प्रक्रिया कोड, 1973, 2018 का अधिनियम संख्या 22, संसद का अधिनियम, 1973 (भारत)

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