यह लेख Vipasha Verma, जो वर्तमान में नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, ओडिशा में बी.बी.ए. एल.एल.बी. (ऑनर्स) कर रही है और Vishwas Chitwar जो वर्तमान में इंस्टीट्यूट ऑफ लॉ, निरमा यूनिवर्सिटी से बी.कॉम एल.एल.बी. (ऑनर्स) कर रहे हैं, के द्वारा लिखा गया है। यह एक विस्तृत (एग्जॉस्टीव) लेख है जो पक्षद्रोही गवाहों (हॉस्टाइल विटनेस) से संबंधित कानूनों के बारे में चर्चा करता है और इससे संबंधित सुधारों का सुझाव भी देता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
Table of Contents
परिचय
जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू, बेस्ट बेकरी, फूलन देवी सभी गंभीर अपराधों के शिकार हैं, जिन्हें गवाहों के मुकर जाने के कारण त्वरित और निष्पक्ष सुनवाई से वंचित कर दिया गया था। ये मामले, भारत और दुनिया भर में न्यायपालिका को, अमीरों की हाथ की कठपुतली बनाने के प्रथम दृष्टया (प्राइमा फेसी) उदाहरण हैं।
जबकि ज्यादातर समय, सावधानी से बनाए गए मामले, साक्ष्य संग्रह (कलेक्शन) के अस्पष्ट कानूनों के हाथों पीड़ित होते हैं, और अन्य मामलों में, गवाहों के लिए सुरक्षा की कमी के कारण आरोपी इसका लाभ उठाते है और इसका दुरुपयोग करते है। विश्व स्तर पर, पक्षद्रोही गवाहों से संबंधित कानून प्रगतिशील (प्रोग्रेसिव) हो सकते हैं लेकिन उनके कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) पर बहुत से सवाल उठते है।
हिमांशु सिंह सभरवाल बनाम स्टेट ऑफ़ मध्य प्रदेश और अन्य (2008) के प्रसिद्ध मामले में, माननीय न्यायालय ने कहा कि “स्वतंत्र और निष्पक्ष सुनवाई भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 की एक अनिवार्य शर्त है।
भले ही यह बेस्ट बेकरी का मामला हो या जेसिका लाल मामला, यह ज्यादातर हाई प्रोफाइल मामलों में और यहां तक कि सामान्य मामलों में भी पाया गया है कि मुकदमे के दौरान मामले का चश्मदीद गवाह मुकर जाता है जो न केवल अभियोजन के मामले को प्रभावित करता है लेकिन पीड़ित के न्याय को भी प्रभावित करता है।
यह लेख देश और विश्व स्तर पर वर्तमान वास्तविक और प्रक्रियात्मक कानूनों के बारे में बात करता है, साथ ही इस तरह के कानून में खामियों पर भी चर्चा करता है और यह कैसे गवाहों को पक्षद्रोही बना देता है। यह गवाहों के अधिकारों की अनुपस्थिति पर प्रकाश डालता है और घोर अन्याय से बचने के लिए सुधारों का सुझाव देता है।
पक्षद्रोही गवाह
पक्षद्रोही गवाह सावधानीपूर्वक निर्मित मामलों को नष्ट कर सकते हैं और दोषियों को अन्यायपूर्ण बरी कर सकते हैं, और वे एक जांच प्रक्रिया की अवहेलना भी कर सकते हैं। इन गवाहों को एक पक्ष द्वारा, अपने पक्ष में एक बयान प्रदान करने और अभियोजन पक्ष को अपना मामला बनाने में मदद करने के लिए लाया जाता है, लेकिन इसके बजाय, यह गवाह अदालत में जाते है और एक ऐसा बयान देते है जो उसके पहले के बयानों से अलग और विरोधाभासी होता है।
यह शब्द कॉमन लॉ से लिया गया है, जहां इसे गवाहों के खिलाफ पर्याप्त सुरक्षा उपाय प्रदान करने के लिए पेश किया गया था, जो कि पक्षद्रोही साक्ष्य प्रदान करके, पक्षों को बुलाए जाने के कारण को बर्बाद कर देता है। इसे न केवल पक्षों के लिए बल्कि उन अदालतों के लिए भी हानिकारक माना जाता था जिनका कार्य न्याय के उद्देश्यों को पूरा करना है।
कॉमन लॉ में परिकल्पित (एनवीसेज) सुरक्षा उपायों में पक्ष शामिल थे, जिन्होंने अपने मामले के लिए ऐसे गवाहों को बुलाया था, जो पिछले साक्ष्यों से गवाह द्वारा बनाए गए विरोधाभास को उजागर करते थे या उनके विश्वसनीयता पर महाभियोग (इंपीच) लगाते थे। हालांकि, इस सुरक्षा को शुरू करने के लिए, अदालत के लिए गवाह को पक्षद्रोही घोषित करना महत्वपूर्ण था। नतीजतन, इस तरह की घोषणा के लिए, कॉमन लॉ ने एक ‘पक्षद्रोही’ गवाह की कुछ विशिष्टताओं (क्विर्क्स) पर जोर दिया, एक सच बोलने की इच्छा का अभाव या गवाह को बुलाने वाले पक्ष के प्रति ‘पक्षद्रोही दुश्मनी’ का अस्तित्व है।
पक्षद्रोही गवाह की अवधारणा (कॉन्सेप्ट) को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समझाया गया है
-
सत पॉल बनाम दिल्ली प्रशासन
इस मामले में एक अधिकारी पर घूसखोरी का आरोप लगाया गया था, क्योंकि भ्रष्टाचार निरोधक विभाग (एंटी करप्शन डिपार्टमेंट) के निरीक्षक (इंस्पेक्टर) ने उसके लिए जाल बिछाया था। आरोपी को पैसे ट्रांसफर करने के बाद विभाग ने तुरंत आरोपी के कार्यालय पर छापेमारी की। अभियोजन पक्ष के दो अन्य स्वतंत्र गवाहों ने विरोधाभासी बयान दिए। गवाहों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा हो गया था।
इस मामले में, अदालत ने माना कि एक पक्षद्रोही गवाह वह है जो उस पक्ष के कहने पर सच बोलने की इच्छा नहीं रखता है जिसने उसे बुलाया है, जबकि एक प्रतिकूल (अनफेवरेबल) गवाह वह है जो एक विशेष तथ्य को साबित करने के बजाय, इस तरह के तथ्य को साबित करने में विफल रहता है या एक विपरीत तथ्य को साबित करता है।
-
आर.के.डे बनाम स्टेट ऑफ़ उड़ीसा
इस मामले में अदालत ने कहा कि, अगर गवाह सच बोल रहा है और उसकी गवाही उस पक्ष के हित के खिलाफ जाती है जिसने उसे बुलाया है तो जरूरी नहीं कि उसे पक्षद्रोही कहा जा सकता है। एक गवाह का मुख्य उद्देश्य सच बोलना है, न कि जिसने उसे बुलाया है उसके प्रति निष्ठा प्रकट करना। इसलिए, एक प्रतिकूल गवाह को पक्षद्रोही गवाह घोषित नहीं किया जा सकता है।
-
जी.एस.बख्शी बनाम स्टेट
इस मामले में अदालत ने माना कि गवाह के जवाब और रवैया ऐसे प्रमुख कारक हैं जिनसे गवाह की दुश्मनी का अंदाजा लगाया जा सकता है। इसलिए, एक गवाह को अक्सर पक्षद्रोही के रूप में समझा जाता है जब वह उस पक्ष के प्रति अपने रवैये में शत्रुता दिखाता है जिसने उसे बुलाया है या जब वह जानबूझकर बयान देकर सच्चाई को छिपाने की कोशिश करता है जो उसने पहले कहा था या जिसकी साबित होने की उम्मीद थी। जब अभियोजन पक्ष का गवाह कुछ ऐसा कहकर मुकर जाता है जो अभियोजन मामले के लिए विनाशकारी होता है, तो अभियोजन पक्ष ऐसे गवाह के साथ पक्षद्रोही व्यवहार करने के लिए अदालत से अनुरोध करने का हकदार होता है।
गवाहों के प्रकार
संपत कुमार बनाम पुलिस निरीक्षक, कृष्णागिरी (2012) के मामले में, यह माना गया कि गवाहों को तीन श्रेणियों के तहत वर्गीकृत (क्लासिफाई) किया जा सकता है:
- जो पूरी तरह से भरोसेमंद होते हैं।
- जो पूरी तरह से अविश्वसनीय होते हैं।
- जो न तो पूरी तरह से भरोसेमंद होते हैं और न ही पूरी तरह से अविश्वसनीय होते हैं।
जब गवाह पूरी तरह से विश्वसनीय होता है, तो अदालत को फैसला सुनाने में कोई कठिनाई नहीं होती है। यह गवाह के बयान पर आरोपी को या तो दोषी ठहरा सकता है या बरी कर सकता है। साथ ही, दूसरी श्रेणी में, एक उपयुक्त निष्कर्ष पर पहुंचने में कोई कठिनाई नहीं है क्योंकि पूरी तरह से अविश्वसनीय गवाह के बयान पर भरोसा करने का कोई सवाल ही नहीं होता है। यह तीसरा मामला है जहां अदालतों को फैसला सुनाने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।
आगे विस्तार करने के लिए, गवाहों को निम्नलिखित श्रेणियों के तहत वर्गीकृत किया जा सकता है:
- बाल गवाह
- इच्छुक गवाह
- चश्मदीद गवाह
- पक्षद्रोही गवाह
- संबंधित गवाह
- स्वतंत्र गवाह
- एकान्त (सॉलिटरी) गवाह
- मुख्य गवाह
- फंसा हुआ गवाह
- विशेषज्ञ (एक्सपर्ट) गवाह
- आधिकारिक गवाह
भारत में पक्षद्रोही गवाह से संबंधित प्रावधान
घरेलू कानून में कॉमन लॉ के संबंध में विपरीत प्रावधान हैं।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम
आई.ई.ए. की धारा 154
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 154 केवल ऐसे प्रश्न पूछने की अनुमति देती है जो प्रति परीक्षण (क्रॉस एग्जामिनेशन) में पूछे जा सकते हैं। ऐसे प्रश्नों में शामिल होंगे:
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 145 एक गवाह की विश्वसनीयता पर महाभियोग चलाने के सबसे प्रभावी तरीकों में से एक है। जब तक न्यायालय का ध्यान इस ओर लाया जाता है, तब तक यह धारा पहले से लिखित साक्ष्यों पर भरोसा करके विरोधाभासों को उजागर करने के लिए प्रति परीक्षण की अनुमति देती है।
- ऐसे प्रश्न जो गवाह के विश्वसनीयता को झकझोर देते हैं (धारा 146)
हालांकि, बारीकी से जाँच करने पर, निम्नलिखित अवलोकन (ओवरव्यू) किए जाते हैं:
- धारा को लागू करने से पहले एक गवाह को ‘पक्षद्रोही’ घोषित करने की आवश्यकता का उल्लेख करने में कानून विफल रहता है।
- धारा को तभी लागू किया जा सकता है जब न्यायालय को लगता है कि गवाह द्वारा प्रदर्शित व्यवहार उसे सच बोलने से दूर ले जा रहा है।
उपरोक्त बिंदुओं से, यह स्पष्ट है कि कॉमन लॉ का उद्देश्य प्रति परीक्षण के लिए पक्षद्रोही और प्रतिकूल गवाहों के बीच कुछ अंतर करना है, लेकिन भारत ऐसे किसी भी दिशा-निर्देश का पालन नहीं करता है। अदालत को सच्चाई की ओर ले जाने के एकमात्र उद्देश्य के लिए छिपे हुए तथ्यों का पता लगाने के लिए कानून मौजूद है।
आई.ई.ए. की धारा 132
धारा 132 में कहा गया है कि एक गवाह को ऐसे किसी भी प्रश्न से छूट नहीं दी जाएगी, जिसका उत्तर उसे अपराधी बना सकता है या मामले से संबंधित किसी भी प्रश्न पर जुर्माना या जब्ती लगा सकता है। गवाह द्वारा ऐसा कोई जवाब किसी आपराधिक मुकदमे में गिरफ्तारी या उसके खिलाफ साबित नहीं होगा। हालांकि, गवाह पर उसके बयानों के हिस्से के रूप में झूठे सबूत देकर मुकदमा चलाया जा सकता है। इसलिए, यह धारा सभी सवालों के जवाब देने के लिए पक्षद्रोही गवाहों की अनिवार्यता (कम्पेलेबिलिटी) से संबंधित है।
आई.ई.ए. की धारा 65B
2018 में, शफी मोहम्मद बनाम स्टेट ऑफ़ हिमाचल प्रदेश के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने प्रमाण पत्र की आवश्यकता को छोड़ने का फैसला किया, अगर पक्ष के पास वह उपकरण नहीं है जिसने धारा 65 B के तहत इस तरह के सबूत पेश किए थे। डिजिटल साक्ष्य, दस्तावेजों की तुलना में अधिक निर्णायक (कंक्लूसिव) और सुरक्षित साबित हुए हैं और अगर गवाहों की गवाही दर्ज की जाती है तो गवाहों के मुकरने की बहुत कम गुंजाइश रह सकती है। यह निर्णय जांच अधिकारी के लिए महत्वपूर्ण सबूतों को विश्वसनीयता प्रदान करना में आसान बनाता है, जिसे पहले प्रक्रियात्मक रूप से अप्रमाणित होने के कारण ध्यान में नहीं रखा गया था।
आपराधिक प्रक्रिया संहिता
सी.आर.पी.सी. की धारा 161-162
धारा 161 पुलिस अधिकारी को मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित किसी भी व्यक्ति की जांच करने का अधिकार देती है।
- धारा 161(2) के तहत, व्यक्ति जांच अधिकारी द्वारा पूछे गए किसी भी प्रश्न का उत्तर देने के लिए बाध्य है, सिवाय उन प्रश्नों के जो उसे दोषी ठहरा सकते हैं।
- धारा 161(3) के तहत, पुलिस अधिकारी गवाहों द्वारा दी गई गवाही को लिखित रूप में बदल सकता है, और यदि वह ऐसा करता है, तो उसे प्रत्येक ऐसे व्यक्ति के बयान का अलग और सही रिकॉर्ड बनाना होगा, जिसका बयान वह दर्ज करता है।
एक बार बयान दर्ज हो जाने के बाद, धारा 162 लागू हो जाती है, जिसमें कहा गया है कि किसी गवाह द्वारा किसी जांच अधिकारी को दिए गए बयान और रिकॉर्ड के उद्देश्य के लिए अधिकारी द्वारा लिखित बयान को ऐसे गवाह द्वारा हस्ताक्षरित नहीं किया जाएगा और न ही इस तरह के रिकॉर्ड के कोई हिस्सा का उपयोग किसी भी उद्देश्य के लिए किया जा सकता है।
जैसा कि बलिराम टीकाराम मराठे बनाम एंपरर (1944) में कहा गया है, इस तरह के प्रावधान का उद्देश्य आरोपी को अति उत्साही और झूठे गवाहों से बचाना है। इस प्रकार, धारा 162 आरोपी के अधिकारों के लिए एक क़ानून के रूप में कार्य करती है।
सी.आर.पी.सी. की धारा 164
यह धारा न्यायिक मजिस्ट्रेट और मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट को गवाहों या आरोपी व्यक्तियों द्वारा दिए गए बयानों को रिकॉर्ड करने की शक्ति प्रदान करती है। यह धारा जांच दल के हितों और आरोपी के बीच संतुलन बनाती है। स्टेट ऑफ़ मद्रास बनाम जी कृष्णन (1960) में मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि इस तरह के प्रावधान का उद्देश्य गवाहों को बाद में प्रलोभनों (टेंपटेशन), भय और प्रभावों के तहत बयानों को बदलने से रोकना है।
धारा 164 के तहत दर्ज किए गए बयानों का प्रमाणिक मूल्य
न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किए गए बयान आई.ई.ए. की धारा 74 के तहत सार्वजनिक दस्तावेज माने जाते हैं। आई.ई.ए. की धारा 80 के तहत, लिखित दस्तावेजों को भी वास्तविक और रिकॉर्ड किया गया माना जाता है। हालांकि, आई.ई.ए. की धारा 91, धारा 164 के तहत मौखिक साक्ष्य को शामिल नहीं करती है और यह आवश्यक है कि बयानों को एक लिखित रूप में किया जाए। इस धारा के तहत, केवल लिखित गवाही का उपयोग आपराधिक परीक्षणों में साक्ष्य के रूप में किया जा सकता है न कि मौखिक बयानों के लिए किया जा सकता है।
सी.आर.पी.सी. की धारा 311
इस धारा के तहत, महत्वपूर्ण गवाहों को बुलाने की शक्ति और ऐसे गवाहों की परीक्षा को पक्षों द्वारा विशेष रूप से नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। न्यायालय को यह सुनिश्चित करने के लिए एक सक्रिय कदम उठाना चाहिए कि भौतिक प्रश्नों के उत्तर अनुत्तरित न रहें।
बेस्ट बेकरी मामले (2006) में यह माना गया था कि यह प्रावधान अदालतों को गवाहों को बुलाने के लिए व्यापक अधिकार देता है। हालांकि यह विवेकाधीन है, इसे न्यायिक रूप से प्रयोग किया जाएगा। यह भी माना गया कि एक निष्पक्ष और न्यायपूर्ण सुनवाई न्यायाधीश के केवल एक दर्शक से अधिक होने के बिना मौजूद नहीं हो सकती है। सत्य तक पहुँचने की प्रक्रिया में उसे सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।
भारतीय दंड संहिता
आई.पी.सी. की धारा 191-195
आई.पी.सी. की धारा 191 में शपथ के तहत झूठे सबूत/बयान देने वाले गवाह के रूप में झूठी गवाही दी गई है। एक गवाह को सभी जानकारी सही ढंग से प्रदान करनी चाहिए अन्यथा उन पर आई.पी.सी. की धारा 193-195 के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है और उन पर आरोप लगाया जा सकता है। हालांकि, यह धारा केवल तभी लागू होती है जब गवाह शपथ या कानून द्वारा सच बोलने के लिए बाध्य हो।
नर्मदा शंकर बनाम दान पाल सिंह (1964) के मामले में, जहां प्रतिवादी पर आई.पी.सी. की धारा 193 के तहत याचिकाकर्ता (पिटीशनर) को गिरफ्तार करने और फिर ऐसे आदेशों की उपस्थिति के बारे में शपथ के तहत झूठ बोलने का आरोप लगाया गया था, जिसे उसने प्रति परीक्षण के तहत स्वीकार किया था। यह माना गया कि जब एक गवाह झूठे बयान देने के लिए एक प्रस्ताव के साथ अदालत में आता है, लेकिन प्रति परीक्षण में फंसने के कारण, ऐसे बयानों के झूठ को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जाता है, तो उसके द्वारा की गई झूठी गवाही का बहाना नहीं है।
आई.पी.सी. की धारा 202-203
धारा 202 के तहत, किसी भी गवाह को यह जानने पर या विश्वास करने का कारण होने पर कि अपराध किया गया है, वह जानबूझकर अपराध से संबंधित किसी भी घटना की गवाही देने से चूक जाता है, जिसे वह कानूनी रूप से प्रदान करने के लिए बाध्य होता है, तो ऐसे में उसे प्रासंगिक प्रावधानों के तहत दोषी ठहराया जा सकता है और दंडित किया जा सकता है।
धारा 203 के तहत, कोई भी गवाह जो जानबूझकर गलत बयान देता है, उसे संबंधित प्रावधानों के तहत झूठी गवाही देने के इस तरह के एक सचेत निर्णय के लिए दोषी ठहराया जाएगा।
दुनिया भर में प्रावधान
संयुक्त राज्य अमरीका
फेडरल रूल्स ऑफ एविडेंस की धारा 611 (C) एक पक्ष को अपने स्वयं के मामले में बहस करने वाले पक्ष के दौरान एक प्रतिकूल या पक्षद्रोही गवाह को बुलाने और ऐसे गवाह से सवाल करने की अनुमति देती है जैसे कि प्रति परीक्षण पर। इस नियम के तहत प्रतिकूल पक्ष के साथ पहचाने जाने वाले सभी व्यक्तियों को शामिल किया गया है। जबकि, नियम कहता है कि गवाह की सीधी परीक्षा के दौरान प्रमुख प्रश्नों की अनुमति नहीं है, प्रति परीक्षण के दौरान इसकी अनुमति है। यह समझा जाता है कि जब कोई पक्ष पक्षद्रोही गवाह को बुलाता है, तो प्रश्न प्रमुख प्रश्न हो सकते हैं।
नियम 611 (C) के प्रयोग के लिए मानदंड (क्राइटेरिया)
- इस नियम के तहत परिभाषित गवाह प्रतिवादी के मामले में योगदान देने के लिए प्रतिबद्ध है। इस मामले में, ट्रायल अटॉर्नी इस नियम के तहत प्रमुख प्रश्नों के तरीके का उपयोग कमजोर क्षेत्रों की पहचान करने और गवाह को पिन करने के लिए करता है।
- इस नियम के तहत एक गवाह के प्रवेश को सुरक्षित करने के लिए जल्दी बुलाया जा सकता है। यह तब होता है जब गवाह मामले की परिस्थितियों के लिए अपनी गवाही में किसी विशेष तथ्य के महत्व से अनजान होता है, और यह अन्य गवाहों और सबूतों के पेश होने से पहले होता है।
- इस नियम के तहत एक गवाह एक आवश्यक तत्व हो सकता है यदि उसके पास जो ज्ञान है वह प्रतिवादी के ज्ञान के दायरे में है, या वह सबूत के टुकड़ों की पहचान करने के लिए आवश्यक हो सकता है जिसे केवल प्रतिवादी द्वारा पहचाना जा सकता है।
संयुक्त राज्य में न्यायालयों ने डिजिटल साक्ष्यों पर संघीय नियमों को लागू किया है क्योंकि उनके पास पारंपरिक साक्ष्य होंगे। नतीजतन, अदालतों ने स्पष्ट मतभेदों को देखा है। डिजिटल साक्ष्य लगातार अधिक विशाल, छेड़छाड़ करने में कठिन, अधिक अभिव्यंजक (एक्सप्रेसिव) और आसानी से उपलब्ध है। इसलिए, अदालतों ने तेजी से डिजिटल साक्ष्य स्वीकार करना शुरू कर दिया है क्योंकि इससे गवाह अधिक सुरक्षित महसूस करते हैं और उनकी पिछली गवाही से मुड़ने का मकसद नहीं होता है।
यूनाइटेड किंगडम
ऐसी परिस्थिति में जहां गवाह जवाब देने से इनकार करता है या अपनी पिछली गवाही के साथ असंगत उत्तर प्रदान करता है, उन्हें एक पक्षद्रोही गवाह के रूप में माना जाता है। पूछताछ के तहत, यदि वे पिछले बयान की सच्चाई को स्वीकार नहीं करते हैं, तो यह आपराधिक न्याय अधिनियम, 2003 की धारा 119 के तहत देखा जाता है। पक्ष को यह साबित करना होगा कि आपराधिक प्रक्रिया अधिनियम, 1865 की धारा 4 के तहत एक असंगत बयान दिया जा रहा है।
ऑस्ट्रेलिया
पक्ष के पास एक गवाह है जिसे ‘पक्षद्रोही’ या ‘शत्रुतापूर्ण’ के बजाय समान साक्ष्य कानून की धारा 38 के तहत ‘प्रतिकूल’ घोषित किया गया है क्योंकि इसकी बहुत कठोर होने के लिए आलोचना की गई थी और प्रस्तावित किया गया था कि चूंकि पक्षद्रोही गवाह का पता लगाने के लिए परीक्षण के पीछे कोई संतोषजनक तर्क नहीं है। एक पक्ष को अपने स्वयं के गवाह से प्रति परीक्षण करने की अनुमति दी जानी चाहिए, यह समझने पर कि गवाह द्वारा दिया जा रहा साक्ष्य प्रतिकूल है।
हालांकि, धारा 38 सीमित है और पक्षों को प्रति परीक्षण करने के लिए व्यापक और सामान्य शक्ति प्रदान नहीं करती है। बयान के कुछ हिस्सों के प्रतिकूल होने पर ही प्रति परीक्षण करने के लिए आज्ञा दी जाती है, भले ही यह बाकी पक्ष के अनुकूल हो। यह धारा विवेकाधीन है और आज्ञा देने से पहले धारा 192 में दिए गए कारकों पर विचार किया जाना है।
जापान
ये अदालत के मुकदमे से पहले गवाह को पेश करते हैं, और इसका एक कारण यह है कि अगर गवाह मुकर जाता है तो उनकी गवाही का खंडन करने के लिए इसका इस्तेमाल करने का विकल्प है। जापान की दंड प्रक्रिया संहिता के अनुच्छेद 321(1)(2) के तहत, कुछ आवश्यकताओं को निर्धारित किया गया है जो अदालत में गवाही के बजाय बयान प्रस्तुत करने की अनुमति के लिए मौजूद होनी चाहिए। अभियोजकों पर यह साबित करने का बोझ है कि “विशेष परिस्थिति” मौजूद है और इसलिए, अदालत में गवाही की तुलना में बयान अधिक विश्वसनीय हैं।
कनाडा
द क्रिमिनल एविडेंस एक्ट की धारा 9(1) के तहत, यदि कोई गवाह मुकर जाता है, तो एक आवेदन करना होता है और निर्णायक के रूप में जूरी की उपस्थिति नहीं होनी चाहिए। यह धारा वकील को बयान देने के समय की स्थितियों को स्पष्ट करने के लिए भी बाध्य करती है, जिसमें उस अवसर का विवरण भी शामिल है, और उन्हे गवाह के साथ यह भी सत्यापित (वेरिफाई) करना होता है कि क्या बयान उसके द्वारा रिपोर्ट किया गया था।
ये प्रगतिशील न्यायशास्त्र (प्रोग्रेसिव ज्यूरिस्प्रूडेंस) वाले देशों के कुछ उदाहरण हैं और उन्होंने अदालत में पक्षद्रोही गवाहों के खतरे से कैसे निपटा है।
ऐतिहासिक मामले
जेसिका लाल मामला
पाठ्यपुस्तक के पक्षद्रोही गवाहों को बड़ी संख्या में शामिल करने का सबसे अच्छा मामला जेसिका लाल की हत्या का मामला है। सिद्धार्थ वशिष्ठ उर्फ मनु शर्मा बनाम राज्य (दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) (2010) में 80 गवाहों ने अपनी गवाही को पलट दिया था और पक्षद्रोही हो गए थे।
तथ्य
एक महत्वाकांक्षी मॉडल, जेसिका लाल के पास दिल्ली में एक बिना लाइसेंस वाले बार में काम करने वाली एक नौकरी थी। लगभग आधी रात का समय था जब बार में शराब का स्टॉक खत्म हो गया था और जेसिका लाल ने पूर्व केंद्रीय मंत्री विनोद शर्मा के बेटे मनु शर्मा और उसके तीन दोस्तों को शराब परोसने से इनकार कर दिया था। शर्मा, स्थिति से परेशान होकर, अपनी पिस्तौल से दो बार फायर करने के लिए आगे बढ़े: पहली गोली छत से लगी, दूसरी जेसिका के सिर में लगी और उसकी मौके पर ही मौत हो गई।
कुछ दिनों तक पुलिस के साथ चूहे-बिल्ली का खेल खेलने के बाद, शर्मा को 6 मई को गिरफ्तार कर लिया गया, जबकि उसके दोस्तों, खन्ना और गिल को 4 मई को गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि, हत्या का हथियार नहीं पाया गया था और माना जाता है कि उसे एक यू.एस. के मित्र द्वारा वापस ले जाया गया था।
बार में मौजूद मुंशी मुख्य गवाह थे। एफ.आई.आर. पढ़ने के बाद उन्होंने कहा कि जब उन्होंने अंग्रेजी में बयान दिया, तो पुलिस ने गवाही हिंदी में दर्ज की। उसने पहली बार गवाही दी थी कि उसने हत्या की रात को कुल दो बंदूकें देखी थीं, हालांकि, बाद में उसने अपनी गवाही को बदल दिया और कहा की उसने केवल दो लोगों को बार में देखा और उनके पास कोई बंदूक नहीं देखी।
निर्णय
पक्षद्रोही गवाह की गवाही के कारण, निचली अदालत ने शर्मा को वर्ष 2006 में बरी कर दिया था। निर्णय के खिलाफ भारी जन आक्रोश था और निर्णय के संबंध में अपील स्वीकार कर ली गई थी, हालांकि, सबूत वही था जैसा कि निचली अदालत में प्रस्तुत किया गया था।
शर्मा को आजीवन कारावास और जुर्माने की सजा सुनाई गई थी। अन्य आरोपियों पर जुर्माना लगाया गया और चार साल कैद की सजा काटने का आदेश दिया गया था। 16 साल जेल में रहने के बाद, उन्होंने सजा समीक्षा (रिव्यू) बोर्ड के साथ जल्द रिहाई की मांग करते हुए एक याचिका दायर की और उसने पहले भी कई बार खारिज होने के बाद याचिका को स्वीकार कर लिया था। वह अब फिलहाल उपराज्यपाल (लेफ्टिनेंट गवर्नर) की मंजूरी का इंतजार कर रहे हैं।
बेस्ट बेकरी मामला
यह मामला घोर अन्याय का सबसे बड़ा उदाहरण है। ज़हीरा हबीबुल्ला एच शेख और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ गुजरात और अन्य (2006) के मामले में शक्तिशाली और अमीर आरोपियों ने अपने फायदे का इस्तेमाल किया और गवाहों को मुकरने के लिए मजबूर किया था। अपने जीवन के डर से, गवाहों ने आरोपी को पहचानने से इनकार कर दिया, इसलिए अभियोजन पक्ष मामले में विफल रहा। बाद में, गवाहों ने स्वीकार किया कि वे डराने-धमकाने और प्रभाव के कारण मुकर गए थे।
बी.एम.डब्ल्यू. हिट एंड रन मामला
इस ममाले मे, संजीव नंदा, पूर्व नौसेनाध्यक्ष (चीफ ऑफ नवल स्टाफ) और हथियार डीलर एस.एल. नंदा पर दिल्ली में फुटपाथ पर रहने वालों के ऊपर कार चलाने का आरोप लगा था। इससे तीन लोगों की मौत हो गई और अन्य गंभीर रूप से घायल हो गए थे। इस मामले में आरोपितों ने गवाहों की खरीद-फरोख्त की थी। एकमात्र उत्तरजीवी ने अदालत में झूठी गवाही दी और कहा कि उसे एक ट्रक ने टक्कर मार दी थी। गवाह, हरि शंकर, मुकर गया और जानबूझकर बी.एम.डब्ल्यू. को नहीं पहचाना, जबकि एक अन्य गवाह लापता हो गया। चूंकि किसी गवाह ने अभियोजन का समर्थन नहीं किया, इसलिए आरोपी को बरी कर दिया गया।
गवाह मुकर क्यों जाते हैं?
पूर्व अटॉर्नी जनरल, श्री सोली सोराबजी ने अक्सर कहा है कि आपराधिक न्याय प्रणाली में जनता का विश्वास केवल एक गवाह के मुकर जाने के कारण अभियोजन पक्ष के मामले को खराब करने के अलावा और कुछ नहीं है। वर्तमान समय और युग में, आपराधिक मामलों में अनुचित और अन्यायपूर्ण बरी होने का मुख्य कारण गवाह का मुकर जाना है। हालांकि, समस्या से निपटने के लिए, यह महत्वपूर्ण है कि इसे जन्म देने वाली जड़ों की पहचान की जाए।
ज्यादातर मामलों में, इसका कारण मौद्रिक प्रलोभन (मॉनेटरी इंड्यूसमेंट) और धमकी का शैतानी संयोजन है। इसके अलावा, मुकदमे के दौरान या बाद में पुलिस सुरक्षा की अनुपस्थिति ऐसे गवाहों में व्यामोह (पैरानोइ) और भय पैदा कर सकती है, जो डराने-धमकाने के लिए काम करने वाले खतरे के आगे झुक सकते हैं। डराने-धमकाने के कारण गवाहों की दुश्मनी का एक प्रसिद्ध उदाहरण जेसिका लाल मामला है, जिसमें अभियोजन पक्ष के 80 गवाहों ने आरोपी पक्ष से जुड़े लोगों की धमकियों के कारण विरोधाभासी बयान दिए थे, इस दुश्मनी के परिणामस्वरूप आरोपी बरी हो गया था। एक और 1996 का प्रियदर्शिनी मट्टू सामूहिक बलात्कार और हत्या का मामला है, जिसमें अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने कहा कि भले ही वह जानता था कि उस व्यक्ति ने अपराध किया है, उसने उसे संदेह का लाभ देकर बरी कर दिया क्योंकि आरोपी की शक्तिके तहत गवाहों के मुकर जाने के बाद उसने आत्महत्या कर ली। हालांकि, यह केवल डराना नहीं है जो गवाहों को पक्षद्रोही बना देता है।
अध्ययनों से पता चला है कि गवाह अदालती सुनवाई को उत्पीड़न के रूप में देखते हैं और इसने उन्हें प्रक्रिया से अलग कर दिया। मुकदमे की अवधि, भीषण प्रति परीक्षण, बार-बार स्थगन (एडजोर्नमेंट), और अदालत में उनके साथ व्यवहार का उनकी गवाही पर असर पड़ता है। स्वर्ण सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब (2006) में, मुकदमे की अदालतों में गवाहों की अत्यधिक दुर्दशा का चित्रण करते हुए, वकीलों की भूमिका के साथ मामलों को स्थगित करने की नीति को अपनाने के साथ, कहा कि गवाह के साथ अदालत में सम्मान के साथ व्यवहार नहीं किया जाता है, वह सारा दिन इंतजार करते है और फिर मामला स्थगित हो जाता है, और जब वह खड़ा होता है, तो उसे अनियंत्रित परीक्षा और प्रति परीक्षण से परेशान किया जाता है जिससे वह असहाय महसूस करता है।
पीड़ितों की विशेष श्रेणी
अपराध और शक्ति के दुरुपयोग के पीड़ितों के लिए बुनियादी सिद्धांत की संयुक्त राष्ट्र घोषणा, 1985, जब पारंपरिक रूप से व्याख्या की जाती है, तो ‘पीड़ित’ को आरोपी के हाथों पीड़ित व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जाता है। हालांकि, अदालतों द्वारा की गई टिप्पणियों पर एक नज़र डालें, जहां बड़ी संख्या में गवाह धमकी और अन्य कारणों से मुकर गए हैं, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, परिभाषा की फिर से जांच की जानी चाहिए। जब एक पीड़ित को संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के संदर्भ में देखा जाता है, तो ये उत्पीड़ित व्यक्ति मानदंडों को पूरा करते हैं। यूरोप और पूरी दुनिया में अनुभवजन्य अध्ययन (एंपीरिकल स्टडीज) प्रस्ताव को वैध आधार देते हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि परेशान गवाह खुद ही शिकार बन जाते हैं।
इस तरह के प्रस्ताव का प्रमुख कारण इस तथ्य में निहित है कि पक्षद्रोही गवाहों को धमकी देने और ‘पीड़ितों’ की एक विशेष श्रेणी को प्रभावित करने के कारण अपनी गवाही देने से देशों में स्पष्ट और उपयुक्त कानून का मार्ग प्रशस्त हो सकता है क्योंकि वे ऐसे व्यक्तियों के लिए सम्मेलनों (कंवेंशन) और संधियों (ट्रीटी) की पुष्टि करते हैं।
गवाहों के अधिकार
पीड़ितों और गवाहों के अधिकारों के अभाव पर बहुत चर्चा हुई है। जबकि आरोपियों के पास उन्हें दिए गए कई अधिकार हैं, गवाहों के पास बहुत सीमित अधिकार हैं, उनके पास केवल न्यायाधीश के विवेक के माध्यम से कुछ सुरक्षा प्रदान की जाती है। यह विषम वितरण (एसिमेट्रिक डिस्ट्रीब्यूशन) कई रूपों में परिलक्षित (रिफ्लेक्ट) हुआ है, जहां सबसे स्पष्ट, डराना और मौद्रिक प्रलोभन हैं, और सूक्ष्म (सब्टल) प्रति परीक्षण के माध्यम से डराना हैं।
संयुक्त राष्ट्र की घोषणा ने इस संबंध में स्पष्ट कदम उठाए हैं, जिसमें कहा गया है कि गवाहों को व्यक्त अधिकार दिए जाएं। इस सुधार के आवेदन के कुछ उदाहरण हैं:
- डोरसन बनाम नीदरलैंड: यूरोपीय न्यायालय ने मान्यता दी कि गवाहों को अधिकार दिए जाने चाहिए, जो पूर्व यूगोस्लाविया और रवांडा के लिए अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) के लिए क़ानून के अनुच्छेद 22 से प्रेरित हैं, जो गवाहों की सुरक्षा प्रदान करता है।
- वैन मेचेलन बनाम नीदरलैंड: इस मामले ने गवाहों को अधिकार प्रदान किए जाने पर, आरोपियों के अधिकारों के हनन के मुद्दे को उजागर किया। इसने कुछ सवाल खड़े किए कि दोनों के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए।
सुधार और सुझाव
मौजूदा कानूनों में संशोधन
निम्नलिखित संशोधन गवाहों की सुरक्षा की दिशा में एक कदम होंगे और यह सुनिश्चित करेंगे कि झूठी गवाही से मामला नष्ट न हो।
सी.आर.पी.सी. की धारा 161-162 में संशोधन
जांच अधिकारी द्वारा धारा 161 के तहत लिखित प्रारूप (फॉर्मेट) में दर्ज किए गए बयानों पर गवाह द्वारा हस्ताक्षर किए जाने चाहिए और गवाही की पुष्टि करने और विरोधाभासों को उजागर करने के लिए अदालत में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। वर्तमान में, धारा 162 स्पष्ट रूप से गवाह को बयान पर हस्ताक्षर नहीं करने की अनुमति देती है, हालांकि, उसी का एक संशोधन गवाह पर नैतिक दबाव लागू करेगा जिसमें वह गवाहों को बदलने से बच सकता है।
178वें विधि आयोग की रिपोर्ट में, यह सिफारिश की गई थी कि गवाह की भाषा का इस्तेमाल उसके बयान को दर्ज करने के लिए किया जाएगा, अधिकारी को गवाह के सामने उसका बयान पढ़कर सुनाना चाहिए, और हस्ताक्षर या अंगूठे का निशान अनिवार्य किया जाना चाहिए। चैनल रैखिक (लिनियर) होगा और किसी भी छेड़छाड़ से बचने के लिए तुरंत मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक को भेजा जाएगा।
आई.पी.सी. की धारा 164 में संशोधन
14वें विधि आयोग ने सिफारिश की कि धारा 164 में संशोधन किया जाए ताकि पुलिस अधिकारी के लिए पूछताछ के दौरान उसके द्वारा पूछताछ किए गए सभी गवाहों के बयान प्राप्त करना आवश्यक हो सके। दर्ज किया गया बयान साक्ष्य मूल्य का होगा और साक्ष्यों का खंडन करने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। यह गवाहों को मुकरने से रोकेगा।
आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार के लिए सिफारिशें तैयार करने के लिए 2001 में भारत के राज्यपाल द्वारा नियुक्त मलीमठ समिति ने विधि आयोग के इस दृष्टिकोण का समर्थन किया। इसने कई सिफारिशें भी दीं जैसे-
- बंद कमरे में कार्यवाही करना,
- गवाहों की पहचान गुप्त रखने के उपाय करना,
- गुमनामी सुनिश्चित करना,
- गवाह की सुरक्षा सुनिश्चित करना,
- अदालत में गवाह की मर्यादा और सम्मान सुनिश्चित हो,
- यात्रा और आवास पर खर्च किए गए धन के लिए पारिश्रमिक (रिम्युनरेशन) बनाया जाना चाहिए,
- राष्ट्र का निर्माण होना चाहिए।
निष्कर्ष
सी.आर.पी.सी. की धारा 311 का सख्ती से क्रियान्वयन (इंप्लीमेंटेशन)
यह धारा अदालत को किसी भी गवाह को बुलाने, उनकी जांच करने और ऐसे किसी गवाह को वापस बुलाने की शक्ति देती है। यदि नए साक्ष्य दिखाई देते हैं, तो न्यायालय के लिए उपरोक्त चरणों में से किसी एक को लागू करना अनिवार्य हो जाता है। धारा का उद्देश्य बचाव के मामले में रिक्तियों को भरने के बजाय सच्चाई का पता लगाना और न्याय को सामने लाना है।
हालांकि, सच्चाई का पता लगाने के लिए इन उपकरणों का उपयोग शायद ही कभी ट्रायल मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायाधीश द्वारा किया जाता है। धारा 311 अनिवार्य रूप से एक मृत पत्र बनी हुई है।
गवाह का विरोधाभास
अभियोजन पक्ष के मामले में एक पक्षद्रोही गवाह के कारण हुए नुकसान को कम करने के लिए, पक्ष सी.आर.पी.सी. की धारा 162 (1) के तहत अदालत से अनुरोध कर सकती है कि पुलिस के बयान के साथ पक्षद्रोही गवाह के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति दी जाए, जैसा कि आई.ई.ए. की धारा 145 में दिया गया है। अभियोजन पक्ष को उचित अनुरोध करना चाहिए और अदालत को ऐसी घोषणा का उचित रिकॉर्ड बनाना चाहिए।
बार-बार होने वाले स्थगन को समाप्त करना
गवाहों के उत्पीड़न को कम करने के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए त्वरित परीक्षण सुनिश्चित करने के लिए सी.आर.पी.सी. की धारा 309 पेश की गई थी। हालांकि, न्यायपालिका द्वारा इस धारा की पूरी तरह से अनदेखी की गई है, जैसा कि अदालतों द्वारा बार-बार किए जाने वाले स्थगन से स्पष्ट होता है। मुकदमा जितनी जल्दी हो सके पूरा किया जाना चाहिए ताकि गवाह के पास आने वाले या गवाह के तथ्यों को याद रखने में विफल होने का जोखिम काफी कम हो।
अभियोजक को गवाह की संभावित शत्रुता का अनुमान लगाना चाहिए और प्रभावी प्रति परीक्षण करने के लिए प्रश्न तैयार करने के लिए सामग्री होनी चाहिए।
धारा 164 के तहत साक्ष्य को प्रमाणिक मूल्य दिया जाना चाहिए
मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किए गए बयान इस धारा के तहत कोई वास्तविक मूल्य नहीं रखते हैं। गवाह पिछली गवाही पर जवाबदेह होने का कोई दबाव नहीं होने के कारण मुकर जाते हैं, हालांकि, एक मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किए गए बयानों को एक महत्वपूर्ण मूल्य देने से उन्हें अदालत में सबूत के रूप में इस्तेमाल करने की अनुमति मिल जाएगी यदि गवाह शपथ के तहत दिए गए अपने बयान से मुकर जाता है। नतीजतन, इस तरह की रिकॉर्डिंग को वास्तविक सबूत के रूप में उपयोग करने की अनुमति दी जानी चाहिए। हालांकि, बयानों के संभावित मूल्य को अदालत के विवेक पर छोड़ दिया जाएगा।
जांच प्रक्रिया में सुधार
14वें विधि आयोग की रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि जांच कर्मचारियों को कानून और व्यवस्था में पुलिस से अलग किया जाना चाहिए। इस तरह के संशोधन से जांच करने वाले मजिस्ट्रेट को अधिक नियंत्रण रखने की अनुमति मिलेगी और इसके परिणामस्वरूप तेजी से जांच हो सकेगी क्योंकि अधिकारियों को उनके दैनिक कर्तव्य से मुक्त कर दिया जाएगा।
इसके अलावा, पुलिस अधिकारियों को आपराधिक जांच के लिए प्रशिक्षित (ट्रेन) किया जाना चाहिए। अभियोजक को अपना मामला बनाने में मदद करने में उनका बहुमूल्य योगदान होना चाहिए। ऐसे मामले जिनमें भीषण तथ्य हैं और जो गंभीर प्रकृति के हैं, उनका बिना किसी देरी के मुकदमा चलाया जाना चाहिए।
व्यापक गवाह संरक्षण कानून
नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन बनाम स्टेट ऑफ़ गुजरात में, सर्वोच्च न्यायालय ने देखा कि गवाहों को सुरक्षा देने के लिए किसी भी कानून की अनुपस्थिति या यहां तक कि भारत संघ द्वारा एक योजना तैयार करना शर्मनाक है। इस तरह के किसी भी कानून के अधिनियमन (इनैक्टमेंट) में देरी से और भी गलतफहमियां पैदा होंगी।
गवाह पहचान संरक्षण और गवाह संरक्षण कार्यक्रमों पर भारतीय विधि आयोग के परामर्श पत्र ने गवाह संरक्षण कार्यक्रम की आवश्यकता को रेखांकित करने वाले तीन पहलुओं को निर्धारित किया है।
- यह सुनिश्चित करने के लिए कि परीक्षण से पहले एकत्र किए गए साक्ष्य गवाहों के अपने बयानों से मुकर जाने के कारण नष्ट नहीं होते हैं।
- गवाह की शारीरिक और मानसिक सुरक्षा सुनिश्चित करना और उसे होने वाले संभावित नुकसान को ध्यान में रखते हुए प्रावधान करना।
- गवाह की गरिमा और निष्पक्षता सुनिश्चित करना।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि सुरक्षा न केवल परीक्षण की अवधि के लिए होनी चाहिए, बल्कि उसके बाद भी जारी रहनी चाहिए।
यह भूलना आसान है कि आपराधिक न्याय प्रणाली त्रुटिपूर्ण (फ्लॉ) है और यह गलत व्यवहार हमारे देश के नागरिकों को ज्यादातर समय प्रभावित करता है। गवाह किसी भी आपराधिक मुकदमे का सबसे महत्वपूर्ण सबूत हैं, और यह उस प्रणाली की अखंडता (इंटीग्रिटी) है जिस पर गवाह अपना भरोसा रखता है, और जिसका सम्मान किया जाना चाहिए। कानून में कुछ बदलाव करके हम गवाहों को मुकरने से बचा सकते हैं। और नैसर्गिक न्याय (नेचरल जस्टिस) के लिए न्यायपालिका और कानून निर्माता के लिए भी गवाहों की रक्षा करना महत्वपूर्ण है।
पक्षद्रोही गवाहों का मुद्दा कोई नई घटना नहीं है। हालांकि, इसकी उपस्थिति से हमें अपने रक्षकों को छोड़ने और इसे नज़रअंदाज़ करने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। कानूनी दुनिया की गतिशीलता के लिए हमें इस खतरे से डटकर मुकाबला करने की आवश्यकता है। इसलिए, एक कानून, जिस पर चर्चा और विचार-विमर्श हो, हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।