टी.एन. गोदावर्मन बनाम थिरुमूलपाडी

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1980
Forest Conservation Act
Image Source- https://rb.gy/9lfa8f

यह लेख स्कूल ऑफ लॉ, क्राइस्ट (डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी) के Jeffy Johnson द्वारा लिखा गया है। यह एक विस्तृत (एग्जाॅस्टिव) लेख है जो टी.एन.गोदावर्मन के मामला विश्लेषण (एनालिसिस) से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Sonia Balhara द्वारा किया गया है।

परिचय (इंट्रोडक्शन)

टी.एन. गोदावर्मन ने पर्यावरण के संरक्षण (कंजर्वेशन) और सुरक्षा के संबंध में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्हें लोकप्रिय (पॉपुलर) रूप से ‘द ग्रीन मैन’ के रूप में जाना जाता है। उनकी खूबियों के लिए उनके पास कई पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन हैं जो संरक्षण के विचारों से संबंधित हैं और प्रकृति के साथ सद्भाव (हार्मोनी) पैदा करती हैं। पर्यावरण कानून राष्ट्रीय महत्व का एक क्षेत्र है जिसे कई एन.जी.ओ और निजी संगठनों (प्राइवेट आर्गेनाइजेशन) की मदद से देखा गया है। एपेक्स कोर्ट ने विभिन्न ऐतिहासिक निर्णय सुनाकर पर्यावरण संबंधी चिंताओं की रक्षा करने में कैटालिस्ट की भूमिका निभाई है। इससे न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) के एक नए दर्जा का निर्माण हुआ है जो पूर्ण दायित्व (एब्सोल्यूट लायबिलिटी) के साथ शुरू हुआ है। अब इसमें पॉल्यूटर पे सिद्धांत (प्रिंसिपल), सतत विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट) और एहतियाती (प्रिकॉशनरी) सिद्धांत जैसी अवधारणाएं (कंसेप्ट्स) शामिल हैं।

मामले के तथ्य (फैक्ट्स ऑफ द केस)

टी.एन. गोदावर्मन थिरुमुलपाद बनाम यूनियन ऑफ इंडिया [डब्ल्यूपी (सिविल) संख्या 202 ऑफ 1995] के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कानून के दुभाषिया (इंटरप्रेटर) की पारंपरिक (कन्वेंशनल) भूमिका को पीछे छोड़ दिया और प्रशासक (एडमिनिस्ट्रेटर), कानून निर्माता (लॉ-मेकर) और नीति निर्माता (पॉलिसी-मेकर) जैसी विभिन्न भूमिकाएँ निभाईं है। इस ऐतिहासिक मामले को ‘भारत में जंगल के मामले’ के रूप में भी जाना जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जब सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले के मामलों (मैटर्स) को अपने हाथ में लिया तो संवैधानिक जनादेश (मेंडेट) का न्यायिक अतिरेक (ज्यूडिशियल ओवरस्टेपिंग) था। यह भारत के जंगल के नियंत्रण (कंट्रोल) और पर्यवेक्षण (सुपरविजन) के संबंध में था। टी.एन. गोदावर्मन ने वर्ष 1995 में भारत के सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका (पिटीशन) दायर की। रिट याचिका का मुख्य उद्देश्य नीलगिरी जंगल की भूमि की सुरक्षा करनी थी क्योंकि इसका अवैध (अनलॉफुल) लकड़ी की गतिविधियों द्वारा जंगल की कटाई के माध्यम से शोषण (एक्सप्लोइट) किया गया था। इस मामले का मुख्य आकर्षण यह था कि यह जंगल का संरक्षण (कंसर्व) करना था। इसके बाद नेशनल फॉरेस्ट पॉलिसी के संबंध में पूरी सुनवाई हुई। इन्हें अंतरिम (इंटरिम) निर्देश माना गया था जो प्रासंगिक (रिलेवेंट) मामलों में आवश्यक था। यह भारत के उपमहाद्वीप (सबकॉन्टिनेंट) के भीतर जंगल के कानूनों और विनियमों (रेगुलेशन) के प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) और कार्यान्वयन (इम्प्लीमेंटेशन) की जांच करना था। सुप्रीम कोर्ट ने जंगल और उसके संसाधनों (रिसोर्सेज) का सतत (सस्टेनेबली) उपयोग करने के निर्देश (डायरेक्टिव) जारी किए। साथ ही यह भी बताया कि इसमें सेल्फ-मॉनिटरिंग मैकेनिज्म भी शामिल होना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि रीजनल और स्टेट स्तर (लेवल) पर एक कार्यान्वयन प्रणाली (सिस्टम) बनाई जानी चाहिए। यह लकड़ी के परिवहन (ट्रांसपोर्टेशन) को नियंत्रित करने के लिए था।

गोदावर्मन थिरुमूलपाद के कई आलोचक (क्रिटिक्स) थे। यह सभी के पर्यावरण अधिकारों और कोर्ट के हस्तक्षेप (इंटरवेंशन) से संबंधित है। कोर्ट के हस्तक्षेप या अतिक्रमणों (एनक्रोचमेंट) का प्रयोग तभी किया जा सकता है जब उनकी आवश्यकता होती है। न्यायिक हस्तक्षेप तब होता है जब स्टेट कार्य करने के अपने कर्तव्य (ड्यूटी) में विफल रहता है। कोर्ट द्वारा किए गए सबसे प्रसिद्ध हस्तक्षेपों में पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध (बैन), लकड़ी के उद्योगों (इंडस्ट्री) को विनियमित (रेगुलेट) करना, कुद्रेमुख और अरावली में खनन (माइनिंग) पर प्रतिबंध, चीरघरों (सौमिल्स) का विनियमन शामिल है। जंगल शासन की अवधारणा (कंसेप्ट) पर सबसे उल्लेखनीय (नोटेबल) निर्णय गैर-वानिकी (नॉन-फॉरेस्ट्री) उद्देश्यों के लिए जंगल की भूमि के उपयोग के लिए वर्तमान मूल्य के रूप में जाना जाने वाला लेवी लगाया जाना, कम्पेन्सेटरी अफोरेस्टेशन फंड, या सी.ए.एम.पी.ए की स्थापना, और इसलिए किसी भी व्यावसायिक (बिज़नेस) गतिविधि के लिए सुप्रीम कोर्ट से पूर्व अनुमोदन (अप्रूवल) प्राप्त करने की प्रणाली है। इसलिए, गुडलुर में जंगल विनाश को रोकने के लिए एक व्यक्ति के प्रयासों से कानूनी हस्तक्षेप किया गया, जिसने जंगल के संरक्षण में बहुत योगदान दिया है। गोदावर्मन थिरुमूलपाद कानूनी इतिहास में हमेशा रहेगे। संरक्षणवादियों (कंजर्वेशनिस्ट्स) के दिलों में उनका उच्च स्थान है।

उठाए गए मुद्दे (इश्यू रेज्ड)

  1. क्या फॉरेस्ट कंजर्वेशन एक्ट की धारा 2 और जंगल की भूमि की नई व्याख्या उल्लंघन है?
  2. क्या व्यावसायिक (कमर्शियल) उद्देश्यों के लिए लकड़ी का उपयोग उचित है?

शामिल कानून (लॉज़ इन्वॉल्व्ड)

  1. भारत का संविधान,1950
  2. द स्केड्यूल ट्राइब्स एंड अदर ट्रेडिशनल फॉरेस्ट ड्वेलर्स (रिकॉग्निशन) ऑफ राइट्स) एक्ट, 2006
  3. नेशनल फॉरेस्ट पॉलिसी
  4. द फॉरेस्ट कंज़र्वेशन एक्ट, 1980
  5. द एनवायरनमेंट प्रोटेक्शन एक्ट, 1986
  6. द वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट, 1972
  7. द जम्मू एंड कश्मीर वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट, 1978

महत्वपूर्ण विश्लेषण (क्रिटिकल एनालिसिस)

पर्यावरण के बिगड़ने और प्राकृतिक संसाधनों (नेचुरल रिसोर्स) से भरपूर जंगलों को होने वाले नुकसान की समस्या लोगों की बढ़ती जरूरतों के साथ शुरू हुई,  औद्योगीकरण (इंडस्ट्रियलाइजेशन) का तेजी से बढ़ना, ग्रामीण (रूरल) से शहरी क्षेत्रों में व्यक्तियों के प्रवास (माइग्रेशन), खेती के लिए अधिक भूमि की आवश्यकता, आवास (हाउसिंग) और जनसंख्या के कारण अन्य उद्देश्य आदि। जंगल की भूमि के बड़े हिस्से को साफ किया जा रहा था और गैर-जंगल या वाणिज्यिक (कमर्शियल) उद्देश्यों जैसे खनन, लकड़ी की अवैध कटाई के परिणामस्वरूप जंगलों की कटाई आदि के लिए उपयोग किया जा रहा था।

जंगल जिन्हें एक राष्ट्र और उसके लोगों की स्थिरता (सस्टेनेबिलिटी) के रूप में सबसे महत्वपूर्ण मूल्यवान (वैल्युएबल) संपत्ति (एसेस्ट्स) माना जाता है, क्योंकि वे हमें प्रख्यात (एमिनेंट) प्राकृतिक संसाधनों की आपूर्ति (सप्लाई) करते हैं, उनका एक उत्कृष्ट (एक्सीलेंट) सीमा तक शोषण किया जा रहा था, वह भी बिना‌ कम्पेन्सेटरी उपायों को अपनाए हुए। इस प्रकार, ऐसे संसाधनों की पुनःपूर्ति (रेप्लेनिशमेंट) के लिए बहुत कम या कोई गुंजाइश नहीं छोड़ना, जो बड़े जोखिम का कार्य है क्योंकि ऐसे संसाधनों के बिना देश की लंबी अवधि असुरक्षा और आवश्यक संसाधनों की कमी के काले बादलों में डूबी रहेगी।

कोर्ट ने नेशनल फॉरेस्ट पॉलिसी और फॉरेस्ट कंजर्वेशन एक्ट, 1980 का मूल्यांकन (एवाक्यूलेटेड) और जांच की। यह वनों की कटाई के पहलुओं को कवर करने के लिए की गई था। इसने नई परिभाषा के अनुसार जंगल शब्द की भी जांच की और फॉरेस्ट कंजर्वेशन एक्ट 1980 की धारा 2 के अधीन है। इस धारा में कहा गया है कि कोई भी स्टेट गवर्नमेंट या कोई अन्य प्राधिकरण (अथॉरिटी), केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति से किसी भी गैर-वानिकी गतिविधियों के लिए जंगल की भूमि का उपयोग नहीं कर सकता है। फॉरेस्ट कंजर्वेशन एक्ट की धारा 2 और जंगल की भूमि की नई व्याख्या के संबंध में, यह बिना सहमति के वाणिज्यिक गतिविधियों के लिए संरक्षित जंगल को आरक्षित (रिजर्व) नहीं कर सकता है। इसका मतलब है कि सभी वन उद्यमों (वेंचर्स) को केंद्र सरकार की अनुमति की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, एक चीरघर, खनन और प्लाईवुड कारखाने जैसी गतिविधियाँ केंद्र सरकार के अनुमोदन से कार्य कर सकती हैं।

भारत के 7 नॉर्थ ईस्टर्न स्टेट्स के किसी भी हिस्से से कटे हुए पेड़ों और लकड़ी के परिवहन पर पूर्ण प्रतिबंध है। इन भागों से रेल, सड़क या जलमार्ग (वाटरवेस) से लकड़ी की आवाजाही नहीं होती है। भारतीय रेलवे और स्टेट के अधिकारियों ने सुरक्षा और यह सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबंधात्मक (रेस्ट्रिक्टिव) उपाय प्रयोग किए हैं ताकि कोई उल्लंघन न हो। प्रतिवादियों को लकड़ी के विकल्प खोजने के लिए भी कहा गया था। फैसले के कार्यान्वयन और कोर्ट द्वारा दिए गए आदेशों को देखने के लिए एक उच्च शक्ति समिति का गठन किया गया था। समिति लकड़ी और उसकी वस्तुओं की एक सूची तैयार करती है जिसका उपयोग जंगल उस क्षेत्र में डिपो और मिलों के परिवहन के लिए करता है। उच्च शक्ति समिति ने स्टेट फॉरेस्ट कॉर्पोरेशन द्वारा मान्यता प्राप्त होने पर लकड़ी के सामान के उपयोग और बिक्री की अनुमति देने की ताकत दी।

सभी लकड़ी आधारित उद्योगों के लाइसेंस रद्द कर दिए गए थे। प्रिंसिपल चीफ कंजर्वेटर ऑफ फॉरेस्ट द्वारा एक नई कार्य योजना स्थापित की गई थी। यह गहन गश्त (इंटेंसिव पेट्रोलिंग) और सुरक्षा उपायों को और अधिक सख्त बनाने के लिए था और साथ ही केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तुत और अनुमोदित तिमाही (क्वार्टर) रिपोर्ट के अनुसार संवेदनशील (वल्नेरेबल) स्थानों की पहचान करने के लिए था। मामले का महत्वपूर्ण आकर्षण भारतीय संविधान की उपस्थिति है, जो अवैध गतिविधियों से प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा और सुरक्षा से संबंधित केंद्र और स्टेट गवर्नमेंट की शक्तियों से संबंधित है। आर्टिकल 48A में उल्लेख किया गया है कि स्टेट पर्यावरण को सुरक्षित और बढ़ाने के लिए उद्यम करेगा और हमारे देश के जंगल और वन्य जीवन (वाइल्डलाइफ) की रक्षा के लिए एक कर्तव्य भी प्रस्तुत करेगा। आर्टिकल 51A भारत के सभी नागरिकों को नदियों, झीलों, जंगलों, वन्यजीवों सहित प्राकृतिक पर्यावरण के संरक्षण और उत्थान (अपलिफ्ट) और सभी जीवित प्राणियों के प्रति परोपकार करने की आवश्यकता प्रदान करता है।

बनाया गए निहितार्थ (इम्प्लिकेशन्स मेड)

यह विशेष रूप से जंगलों के पर्यावरण के मामलों की एक महत्वपूर्ण स्थिति है, टी.एन. गोदावरमन, जंगल की दुर्दशा को समझते हुए और भारत के एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते, विरोध नहीं कर सके, लेकिन ऐसी अवैध प्रथाओं के खिलाफ विद्रोह का सहारा ले सकते है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से कुछ मदद की तलाश में भारतीय न्यायपालिका का दरवाजा खटखटाया था। यह ऐसी प्रथाओं पर अंकुश लगाने के लिए था जो जंगलों और पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रही थीं। उन्होंने कोर्ट के समर्थन और जंगल की भूमि पर अत्यधिक गैर-वन गतिविधियों द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम करने के लिए एक कानूनी उपाय की उम्मीद करते हुए एक जनहित याचिका (पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन) दायर करके एपेक्स कोर्ट से न्याय की मांग की थी।

इसने फॉरेस्ट कंजर्वेशन एक्ट के कार्यान्वयन में त्रुटियों (एरर) को कम करने में मदद की। इसने उचित और प्रभावी संचालन (ऑपरेशन) को सुनिश्चित किया है। जंगल की भूमि का उपयोग करने के लिए जंगलों की कटाई जैसी गैरकानूनी गतिविधियों पर पूर्ण प्रतिबंध और निषेध लगाया था जैसे की जंगल की भूमि का उपयोग औद्योगिक उद्देश्यों जैसे लकड़ी की कटाई और परिवहन और जंगल के अन्य मूल्यवान संसाधनों के लिए करना आदि। यह जंगल मानदंडों (नॉर्म्स) और नीतियों की निगरानी के लिए नए सरकारी निकायों (बॉडीज) को शामिल करने के लिए किया गया था। यह सुनिश्चित करने के लिए कि जंगल संरक्षित रहता है एक नियामक कार्य (फ्रेमवर्क) और तंत्र है। इस फैसले ने देश में पारदर्शिता (ट्रांसपेरेंसी) और पर्यावरण कानूनों के बेहतर क्रियान्वयन का मार्ग प्रशस्त (पेव्ड) किया है।

यह मामला लगातार परमादेश (मैनडेमस) का शिखर है। यह न्यायिक सक्रियता (एक्टिविज़्म) और न्यायिक सशक्तिकरण (एम्पावरिंग) का सबसे अच्छा उदाहरण है। यह अनुचित न्यायिक प्रभुत्व (डोमिनेंस) और इसकी कमियों के कुछ प्रतिकूल पहलुओं पर भी प्रकाश डालता है। इस मामले ने न्याय को दिलाने में एपेक्स कोर्ट और अन्य प्रमुख अधिकारियों की भूमिका को स्थापित किया है। निरंतर परमादेश का अर्थ है जब कोर्ट निर्णय लेने में देरी करती है और मामला 20 साल तक चलता रहता है और फिर भी खत्म नहीं होता है। हर सुनवाई में नए निर्देश जारी किए जाते हैं। कोर्ट ने सत्ता के पृथक्करण के सिद्धांत (डॉक्ट्रिन ऑफ सेपरेशन ऑफ पावर्स) को भी पीछे छोड़ दिया। इसने तर्कहीन (इर्रेशनली) और मनमाने ढंग से काम किया था। इसलिए यह मामला उन दोनों गुणों को प्रदर्शित करता है जो पर्यावरण की सुरक्षा हैं और इसमें अपने जनादेश (मैंडेट) से आगे निकलने और अन्य अधिकारियों के साथ हस्तक्षेप करने के दोष भी है।

फैसले के नकारात्मक पहलू (नेगेटिव एस्पेक्ट्स ऑफ द जजमेंट)

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से लकड़ी के एक बड़े काले बाजार का निर्माण हुआ। इसने जंगल की भूमि में गैर-वानिकी गतिविधियों के लिए भूमि का उपयोग करने के लिए जंगलों की कटाई जैसी अवैध गतिविधियों को सुविधाजनक बनाया। मिनिस्ट्री ऑफ एनवायरनमेंट एंड फॉरेस्ट के कामकाज में कोर्ट द्वारा अत्यधिक हस्तक्षेप किया गया था। इसके चलते मिनिस्ट्री ऑफ एनवायरनमेंट एंड फॉरेस्ट के पास अपनी कोई आवाज नहीं थी, वह हमेशा कोर्ट और उसके अधिकारियों द्वारा दिए गए निर्देशों से अभिभूत (ओवरपावर्ड) थे। इस मामले ने केंद्र सरकार के हाथों में सभी शक्तियों का एकाधिकार (मोनोपॉली) कर दिया। अब केवल केंद्र सरकार के पास भारत में पर्यावरण कानूनों से संबंधित निर्णय लेने का अधिकार था।

हालांकि ऊपर बताए गए फैसले के नकारात्मक पहलू हैं। लेकिन शातिर लकड़ी माफिया से जंगल की भूमि के संरक्षण को लेकर कई फायदे हैं। यह मामला कोर्ट में पर्यावरण न्याय की प्रासंगिकता को प्रदर्शित करता है। और पर्यावरण अधिकारियों की भूमिका भी। इसने पर्यावरणीय मामलों के पहलुओं पर अपने हस्तक्षेप का प्रयोग करने में न्यायिक अधिकारियों और कोर्ट द्वारा निभाई गई भूमिका पर प्रकाश डाला। इस मामले में पर्यावरण अधिकारियों, कोर्ट और अन्य संबंधित हितधारकों द्वारा निभाई गई भूमिका देखी गई है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

इस मामले ने जंगल उत्पादकता (प्रोडक्टिविटी) को बनाए रखने और बढ़ावा देने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है। यह जैविक विविधता (बायोलॉजिकल डायवर्सिटी) के संरक्षण की सुविधा प्रदान करता है। साथ ही इस मामले में पर्यावरण की स्थिति की रक्षा और सुरक्षा पर चर्चा की गई। टी.एन गोदावर्मन बनाम थिरुमुलपास के परिणाम कई लकड़ी उद्योगों के पतन (डिक्लाइन) और बंद होने का गवाह है। इसने भारत के नागरिकों के बीच पर्यावरण जागरूकता भी पैदा की है। इसने जंगलों की कटाई पर सख्ती से रोक लगा दी है। इस मामले ने बड़े पैमाने पर पर्यावरण संरक्षण और सुरक्षा में एक प्रोत्साहन के रूप में काम किया है। इस मामले का मुख्य योगदान पर्यावरणीय गतिविधियों को अंजाम देने में विभिन्न कानूनों का कुशल और सुचारू (स्मूथ) संचालन था।

संदर्भ (रेफरेन्सेस)

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