भारतीय अनुबंध कानून में प्रतिस्थापन का सिद्धांत

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यह लेख Anjani Singh द्वारा लिखा गया है। इस लेख मे भारतीय अनुबंध कानून में प्रतिस्थापन (सब्रोगेशन) के सिद्धांत के बारे में विस्तृत रूप से चर्चा की गई है। इस लेख मे  प्रतिस्थापन क्या है, प्रतिस्थापन के सिद्धांत की विशेषताएं, दायरा और कानूनी मामले के बारे मे चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 भारत में अनुबंध और करारों (एग्रीमेंट) को नियंत्रित करने वाला कानून है। यह अधिनियम मार्गदर्शन प्रदान करता है तथा अनुबंध की अवधि के दौरान या इसके अनुपालन को सुनिश्चित करने में उत्पन्न होने वाले किसी भी विवाद को सुलझाने में सहायता करता है। भारतीय अनुबंध कानून दो भागों में विभाजित है: पहला भाग सामान्य सिद्धांतों से संबंधित है जो सभी अनुबंधों पर लागू होते हैं (धारा 1 से धारा 75), और दूसरा भाग विशिष्ट अनुबंधों जैसे क्षतिपूर्ति, प्रत्याभूति (गारंटी), उपनिधान (बेलमेंट) और गिरवीरूपी (प्लेज) (धारा 124 से धारा 238) से संबंधित है। इस अधिनियम में विभिन्न प्रकार के कानूनी सिद्धांत शामिल हैं, जिनमें से एक “प्रतिस्थापन का सिद्धांत है।” सरल शब्दों में इस सिद्धांत का अर्थ है ‘दूसरों के स्थान पर खड़े होना’। भारतीय अनुबंध कानून की धारा 140 और धारा 141 प्रतिस्थापन के सिद्धांत से संबंधित हैं, जिसमें जमानतदार (स्योरिटी) मूल देनदार का ऋण चुकाने के बाद लेनदार के अधिकार को अपने हाथ में ले लेता है। 

प्रतिस्थापन को समझना 

प्रतिस्थापन क्या है?

प्रतिस्थापन, एक कानूनी अवधारणा है, जो एक पक्ष, जिसे उपरोगी (सब्रोगी) के रूप में जाना जाता है, को दूसरे पक्ष, जिसे उपरोगकर्ता (सब्रोगोर) कहा जाता है, उसके कानूनी अधिकारों का प्रयोग करने के लिए उसके स्थान पर कदम रखने की अनुमति देती है। इसका उपयोग मुख्य रूप से ऋण और क्षति से जुड़ी स्थितियों में किया जाता है। प्रतिस्थापन के माध्यम से, उपरोगी,  उपरोगकर्ता के कानूनी दावे को ग्रहण कर लेता है, जिससे उसे ऋण वसूली करने या क्षति के लिए क्षतिपूर्ति मांगने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।  

विभिन्न परिदृश्यों में प्रतिस्थापन का सिद्धांत महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, बीमा उद्योग में, यह बीमा कम्पनियों को हानि या क्षति के लिए जिम्मेदार पक्ष से क्षतिपूर्ति वसूलने में सक्षम बनाता है। बीमा कंपनी, नीतिधारक के दावे का भुगतान करने के बाद, नीतिधारक के अधिकारों को अपने हाथ में ले लेती है तथा वह व्यय की भरपाई के लिए दोषी पक्ष के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई कर सकती है। 

व्यक्तिगत चोट के मामलों में भी प्रतिस्थापन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यदि किसी घायल व्यक्ति को उसकी बीमा कंपनी से चिकित्सा व्यय और अन्य नुकसान के लिए मुआवजा मिलता है, तो बीमा कंपनी चोट पहुंचाने के लिए जिम्मेदार पक्ष से प्रतिपूर्ति प्राप्त करने के लिए प्रतिस्थापन अधिकारों का प्रयोग कर सकती है। इससे घायल व्यक्ति को शीघ्र मुआवजा मिल जाता है, जबकि बीमा कंपनी अपने खर्चे उत्तरदायी पक्ष से वसूल लेती है। 

इसके अलावा, प्रतिस्थापन दोहरी वसूली को रोकने में सहायक है। प्रतिस्थापन के बिना, दावेदार को कई स्रोतों से मुआवजा प्राप्त हो सकता है, जिससे अनुचित संवर्द्धन (एन्हांसमेंट) हो सकता है। कानूनी दावे को उपरोगी को हस्तांतरित करने से मूल दावेदार को दोहरा मुआवजा प्राप्त करने से रोका जाता है, जिससे ऋण और क्षति दावों के समाधान में निष्पक्षता सुनिश्चित होती है। 

संक्षेप में, प्रतिस्थापन एक महत्वपूर्ण कानूनी सिद्धांत है जो एक पक्ष को दूसरे पक्ष की कानूनी स्थिति में कदम रखने की अनुमति देता है ताकि वे अपने अधिकारों का प्रयोग कर सकें, मुख्य रूप से ऋण और क्षति के संदर्भ में प्रयोग कर सकें। यह बीमा, व्यक्तिगत चोट के मामलों और अन्य परिदृश्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, तथा यह सुनिश्चित करता है कि जिस पक्ष को हानि या क्षति हुई है, उसे मुआवजा मिले, अक्सर उस पक्ष द्वारा जो इन कानूनी अधिकारों को ग्रहण करता है। 

प्रतिस्थापन के सिद्धांत की विशेषताएं

प्रतिस्थापन की विशेषताएं निम्नलिखित हैं:

  • अधिकारों का हस्तांतरण: इसमें एक व्यक्ति (लेनदार) का अधिकार किसी नए करार के बिना दूसरे व्यक्ति (जमानतदार) को हस्तांतरित कर दिया जाता है। 
  • क्षतिपूर्ति: मूल देनदार द्वारा जमानतदार को क्षतिपूर्ति देने का एक निहित वचन दिया जाता है, तथा जमानतदार मूल देनदार से वह राशि वसूलने का हकदार होता है, जो उसने न्यायसंगत रूप से चुकाई है। 
  • न्यायसंगत सिद्धांत: इस सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य यह है कि जो पक्ष नुकसान की भरपाई करता है, उसे जिम्मेदार पक्ष से वसूली का अधिकार है। इससे निष्पक्षता पैदा होती है और अनुबंध के किसी भी पक्ष के साथ अन्याय होने से रोका जाता है। 
  • दोहरी वसूली नहीं: लेनदार  एक ही राशि दो बार, एक बार मूल  देनदार से और एक बार जमानतदार से नहीं वसूल सकता है। 
  • भुगतान की गई राशि तक सीमित: ज़मानतदार की देयता मूल देनदार की देयता तक सीमित है। जमानतदार को केवल उतनी ही राशि का भुगतान करना होगा जितनी राशि पर वे सहमत हुए हैं, न अधिक और न ही कम। 

भारतीय कानून के तहत प्रतिस्थापन का दायरा

भारतीय कानून के तहत प्रतिस्थापन एक कानूनी सिद्धांत है जो बीमाकर्ता द्वारा दावे का भुगतान करने के बाद बीमित पक्ष से बीमाकर्ता को अधिकारों और उपायों के हस्तांतरण को नियंत्रित करता है। यह मुख्य रूप से सामान्य बीमा नीतियों में लागू होता है, जैसे संपत्ति और दुर्घटना बीमा, जहां बीमाकर्ता, क्षति के लिए जिम्मेदार तीसरे पक्ष से नुकसान की वसूली करने के लिए बीमित व्यक्ति की जगह लेता है। 

भारत में प्रतिस्थापन का कानूनी ढांचा मुख्यतः दो प्रमुख कानूनों पर आधारित है: 1872 का भारतीय अनुबंध अधिनियम और 1882 का संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम। ये अधिनियम दावे के भुगतान पर बीमाधारक से बीमाकर्ता को अधिकारों और उपचारों के हस्तांतरण के लिए कानूनी आधार प्रदान करते हैं। 

न्यायसंगत प्रतिस्थापन:

भारतीय कानून के तहत मान्यता प्राप्त प्रतिस्थापन का एक रूप न्यायसंगत प्रतिस्थापन है। न्यायसंगत प्रतिस्थापन कानून के संचालन से उत्पन्न होता है और इसके लिए बीमाधारक और बीमाकर्ता के बीच किसी स्पष्ट करार की आवश्यकता नहीं होती है। यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि यदि कोई व्यक्ति किसी ऋण या दायित्व का भुगतान करता है, जिसे चुकाने के लिए कोई अन्य व्यक्ति कानूनी रूप से बाध्य है, तो वह व्यक्ति उस राशि की प्रतिपूर्ति पाने का हकदार है। बीमा के संदर्भ में, यदि बीमाकर्ता बीमाधारक व्यक्ति को दावे का भुगतान करता है, तो यह नुकसान के लिए जिम्मेदार तीसरे पक्ष के विरुद्ध बीमाधारक व्यक्ति के अधिकारों के अंतर्गत आ जाता है। 

अनुबंधात्मक प्रतिस्थापन:

भारत में मान्यता प्राप्त प्रतिस्थापन का एक अन्य रूप अनुबंधात्मक प्रतिस्थापन है। अनुबंधात्मक प्रतिस्थापन, बीमाधारक और बीमाकर्ता के बीच एक स्पष्ट करार से उत्पन्न होता है। इस प्रकार का प्रतिस्थापन आमतौर पर बीमा नीतियों में शामिल किया जाता है और दावे के भुगतान पर बीमाधारक के अधिकारों और उपायों को स्पष्ट रूप से बीमाकर्ता को सौंप दिया जाता है। अनुबंधात्मक प्रतिस्थापन, बीमाधारक से बीमाकर्ता को अधिकारों और उपचारों के हस्तांतरण के लिए एक स्पष्ट और कानूनी रूप से बाध्यकारी ढांचा प्रदान करता है। 

प्रतिस्थापन अधिकार और सीमाएँ:

प्रतिस्थापन के अंतर्गत बीमाकर्ता के अधिकार, बीमाधारक को प्रदान की गई क्षतिपूर्ति की सीमा तक सीमित हैं। इसका अर्थ यह है कि बीमाकर्ता तीसरे पक्ष से उससे अधिक राशि नहीं वसूल सकता जो उसने बीमाधारक को भुगतान की है। इसके अतिरिक्त, बीमाधारक और तीसरे पक्ष के बीच अनुबंध में शामिल प्रतिस्थापन अधिकारों का कोई भी त्याग बीमाकर्ता की प्रतिस्थापन की मांग करने की क्षमता को सीमित कर सकता है। 

प्रतिस्थापन सिद्धांतों को कायम रखना:

भारतीय न्यायालयों ने लगातार प्रतिस्थापन के सिद्धांतों को बरकरार रखा है, तथा माना है कि यह निष्पक्षता को बढ़ावा देता है तथा बीमाधारक द्वारा दोहरी वसूली को रोकता है। हालाँकि, न्यायालयों ने इस बात पर भी जोर दिया है कि प्रतिस्थापन के तहत बीमाकर्ता के अधिकार, बीमाधारक को प्रदान की गई क्षतिपूर्ति तक ही सीमित हैं। 

प्रतिस्थापन का व्यावहारिक अनुप्रयोग:

व्यवहार में, प्रतिस्थापन बीमाकर्ताओं को बीमाधारक को भुगतान की गई राशि को उत्तरदायी तृतीय पक्षों से वसूलने में सक्षम बनाता है। इसमें तीसरे पक्ष के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई करना, समझौता वार्ता करना, या कानून के तहत उपलब्ध अन्य उपायों का प्रयोग करना शामिल हो सकता है। प्रतिस्थापन से बीमाकर्ताओं को अपने वित्तीय जोखिम का प्रबंधन करने और बीमा प्रणाली की अखंडता बनाए रखने में मदद मिलती है। 

कुल मिलाकर, भारतीय कानून के तहत प्रतिस्थापन यह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है कि बीमाकर्ताओं के पास क्षति के लिए जिम्मेदार तीसरे पक्षों से नुकसान की वसूली के लिए आवश्यक कानूनी साधन हों, जिससे निष्पक्षता को बढ़ावा मिले और बीमाधारक द्वारा दोहरी वसूली को रोका जा सके। 

भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 में प्रासंगिक प्रावधान 

धारा 140: भुगतान या प्रदर्शन पर जमानतदार का अधिकार 

यह धारा उस मूल देनदार के लिए समय-सीमा से संबंधित है जिस पर धन बकाया है या जिसे कोई कर्तव्य निभाने का दायित्व है। यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया है, या वे अपना वादा पूरा करने में असफल रहे हैं, तो ज़मानतदार आगे आता है और मूल देनदार  की ओर से दायित्व पूरा करता है, जिसे वह चुकाने में असफल रहा है। 

ज़मानतदार उस राशि या कर्तव्य के लिए उत्तरदायी होता है जिसे मूल देनदार को पूरा करना या चुकाना था। जब ज़मानतदार द्वारा वह राशि चुका दी जाती है या कर्तव्य पूरा कर दिया जाता है, तो ज़मानतदार को वे सभी अधिकार प्राप्त हो जाते हैं जो लेनदार  को मूल देनदार के विरुद्ध प्राप्त थे। और अब ज़मानतदार मूल देनदार से राशि वसूल करेगा, या हम कह सकते हैं कि मूल देनदार ज़मानतदार के प्रति उत्तरदायी होगा। 

धारा 141: लेनदार की प्रतिभूतियों के लाभ के लिए ज़मानतदार का अधिकार

इस धारा के अनुसार, ज़मानतदार को किसी भी प्रतिभूति क्या संपार्श्विक (कॉलेटरल) से लाभ प्राप्त करने का अधिकार है, जो लेनदार ने मूल देनदार के विरुद्ध रखा है। इसका अर्थ यह है कि यदि लेनदार के पास ऋण या दायित्व को सुरक्षित करने के लिए मूल देनदार से संपत्ति या गारंटी है, तो ज़मानतदार को उस पर जवाब देने का अधिकार है। 

यह उस समय से लागू होता है जब ज़मानत अनुबंध पर हस्ताक्षर किए जाते हैं, भले ही ज़मानतदार को प्रतिभूतियों के बारे में पता हो या नहीं। इन लाभों के लिए ज़मानतदार का अधिकार, गारंटर के रूप में उनकी भूमिका में निहित है। 

यदि लेनदार इन प्रतिभूतियों को खो देता है या जमानतदार की सहमति के बिना उन्हें छोड़ देता है, तो जमानतदार को उन प्रतिभूतियों के मूल्य की सीमा तक अपने दायित्व से मुक्त कर दिया जाता है। इसका मतलब यह है कि यदि प्रतिभूति की कीमत 10,000 रुपये थी और लेनदार ने इसे खो दिया, तो ज़मानतदार की देयता 10,000 रुपये कम हो जाती है। 

इसके पीछे तर्क यह है कि यदि ऋण को समर्थन देने वाली प्रतिभूतियां खो जाती हैं या उनका गलत तरीके से प्रबंधन किया जाता है तो जमानतदार का जोखिम बढ़ जाता है। 

न्यायिक व्याख्या/कानूनी मामले 

बाबू राव रामचन्द्र लालन बनाम बाबू माणकलाल नेहमल (1938)

इस मामले में, न्यायालय ने माना कि यदि ज़मानतदार का दायित्व मूल  देनदार के दायित्व के समतुल्य है, तो लेनदार का ऋण चुकाने के बाद उसका अधिकार लेनदार के अधिकार से कम समतुल्य नहीं है। 

अमृत लाल गोवर्धन लालन बनाम स्टेट बैंक ऑफ त्रावणकोर (1968)

इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि जमानतदार को मूल देनदार के विरुद्ध लेनदार के लिए उपलब्ध सभी उपचारों का अधिकार है। इसमें प्रतिभूतियों को लागू करना, भुगतान के सभी लिखत, तथा विशिष्ट शर्तों के बिना भी प्रतिभूतियों को हस्तांतरित करना शामिल है। ज़मानतदार लेनदार के स्थान पर खड़ा हो सकता है और देनदार के विरुद्ध सभी प्रतिभूतियों का उपयोग कर सकता है। यह अधिकार अनुबंध और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों दोनों पर आधारित है। 

मध्य प्रदेश राज्य बनाम कालूराम (1967)

इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने ‘प्रतिभूति’ शब्द का वर्णन किया। इसका प्रयोग किसी तकनीकी अर्थ में नहीं किया जाता है, बल्कि इसमें लेनदार के पास मूल देनदार की संपत्ति के विरुद्ध सभी अधिकार शामिल होते हैं।  

न्यायालय ने यह भी कहा कि लेनदार को भुगतान करने पर, जमानतदार उसकी जगह पर आ जाता है और उसे उन प्रतिभूतियों (यदि कोई हो) को प्राप्त करने का अधिकार मिल जाता है, जो लेनदार के पास मूल देनदार के विरुद्ध हैं। 

एम. रामनारायण (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम स्टेट ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (1988)

निम्नलिखित मामले में, न्यायालय ने माना कि, जब कुछ विनिमय पत्र संपार्श्विक प्रतिभूति के रूप में प्रदान किए गए थे और बाद में उनका अनादर किया गया, तो लेनदार ने सीमा अवधि के भीतर कार्रवाई करने में विफल रहने के कारण उन्हें अप्रभावी बना दिया। परिणामस्वरूप, जमानतदार को पत्रों के मूल्य की सीमा तक दायित्व से मुक्त कर दिया गया। 

प्रतिस्थापन के अंतर्गत अधिकार

प्रतिभूति का अधिकार: धारा 141 में प्रावधान है कि ज़मानतदार को प्रत्येक सुरक्षा जो गारंटी अनुबंध किए जाने के समय लेनदार के पास मूल देनदार के विरुद्ध था, का लाभ पाने का अधिकार है। यदि लेनदार, ज़मानतदार की सहमति के बिना, इस प्रतिभूति को छोड़ देता है या खो देता है, तो ज़मानतदार का दायित्व उस सीमा तक कम हो जाता है। 

उपचार का अधिकार: धारा 140: जब ज़मानतदार ऋण का भुगतान कर देता है या दायित्व पूरा कर देता है, तो उसे वे सभी अधिकार और उपचार प्राप्त हो जाते हैं जो लेनदार को मूल देनदार के विरुद्ध प्राप्त थे। इसमें देनदार से भुगतान की गई राशि तथा देनदार के विरुद्ध लेनदार द्वारा रखी गई किसी भी प्रतिभूति को वसूलने का अधिकार शामिल है। 

मुकदमा करने का अधिकार: यदि मूल देनदार अनुबंध का अपना हिस्सा पूरा करने में असमर्थ है तो लेनदार को मूल देनदार पर मुकदमा करने का अधिकार है। जब जमानतदार लेनदार की जगह पर आ जाता है तो यही अधिकार उसे भी हस्तांतरित हो जाते है। 

निष्कर्ष

निष्कर्षतः, भारतीय अनुबंध अधिनियम में प्रतिस्थापन का सिद्धांत दो प्रावधानों अर्थात् धारा 140 और 141 से संबंधित है। ये धाराएं यह सुनिश्चित करती हैं कि मूल देनदार की ओर से जमानतदार द्वारा लेनदार को जो नुकसान का भुगतान किया गया है, उससे मूल देनदार को इस अनुबंध में किसी भी प्रकार की हानि की स्थिति में नहीं डाला जाएगा। इसके अंतर्गत, ज़मानतदार को मूल देनदार से जो कुछ भी उसने भुगतान किया है या निष्पादित किया है, उसके लिए दावा करने का पूर्ण अधिकार है। ज़मानतदार को कुछ अधिकार भी दिए जाते हैं जो पूरे अनुबंध के दौरान उसकी मदद करते हैं। साथ में, ये धाराएं यह सुनिश्चित करती हैं कि सही पक्षों को उचित मुआवजा दिया जाए और नुकसान पहुंचाने के लिए जिम्मेदार पक्षों को वित्तीय परिणाम भुगतने पड़ें, इस प्रकार अनुबंधात्मक संबंधों में निष्पक्षता और जवाबदेही बनी रहे। 

संदर्भ

  • Contract and Specific Relief by Avtar Singh

 

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