वेतन के सिद्धांत और उद्योगों पर उनका प्रभाव

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Theories of wages and their impact on industries

यह लेख सिम्बायोसिस लॉ स्कूल, हैदराबाद से बी.ए. एल.एल.बी. कर रही छात्रा Vishruti Chauhan के द्वारा लिखा गया है। यह लेख वेतन और उत्पादकता (प्रोडक्टिविटी) की अवधारणा पर केंद्रित है और वेतन के विभिन्न सिद्धांतों और उद्योगों (इंडस्ट्रीज) पर उनके प्रभाव का विश्लेषण करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय

हमारी आर्थिक स्थिति जो आज के समय में है, उसे ऐसा बनने के लिए विभिन्न सिद्धांतों के माध्यम से गुजरना पड़ा है। सिद्धांत एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं क्योंकि वे बार-बार महसूस करते हैं कि अब तक किस किस पर विश्लेषण किया गया है और क्या कारण थे कि वर्तमान में एक विशेष सिद्धांत का पालन नहीं किया जाता है। वेतन और उत्पादकता, अर्थशास्त्र (इकोनॉमिक्स) का एक बहुत ही बुनियादी और महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। वे आर्थिक नीतियों की मूल संरचना (स्ट्रक्चर) और आर्थिक स्थिरता स्थापित करने के लिए एक रूपरेखा प्रदान करते हैं। वेतन और उत्पादकता के बीच संबंध और उद्योगों पर उनके प्रभाव के संबंध में विभिन्न सिद्धांत हैं। समय मे बदलाव के साथ, सिद्धांत विकसित हुए हैं और दूसरों की तुलना में अधिक स्थिर प्रकृति का रूप लिया है।         

वेतन

वेतन को किसी भी सेवा या श्रम के लिए मौद्रिक (मॉनेटरी) भुगतान के रूप में समझा जाता है। भारतीय कानून के तहत, वेतन को न्यूनतम वेतन अधिनियम (मिनिमम वेजेस एक्ट), 1948 में परिभाषित किया गया है। इस अधिनियम की धारा 2 (4) वेतन को ‘सभी पारिश्रमिक (रिम्यूनरेशन) के रूप में परिभाषित करती है जो एक रोजगार के तहत किए गए कार्य के लिए मौद्रिक रूप में दिया जाता है’। यह धारा कुछ अपवाद भी प्रदान करती है जैसे वेतन में घरेलू आपूर्ति (सप्लाई), यात्रा भत्ते, पी.पी.एफ. में किए गए योगदान आदि शामिल नहीं होंगे। वेतन अन्य कीमतों की तरह श्रम के लिए बाजार में मांग और आपूर्ति द्वारा निर्धारित किया जाता है।

उत्पादकता

उत्पादकता को उन उत्पादों की दक्षता (एफिशिएंसी) को मापने के लिए एक विधा (मोड) के रूप में परिभाषित किया गया है जिनका उपयोग किया गया है और वे आउटपुट जो अर्थव्यवस्था में दे रहे हैं। यह एक यूनिट के आउटपुट वॉल्यूम के संबंध में उसके इनपुट वॉल्यूम का अनुपात है। इसे देश की अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास और प्रतिस्पर्धात्मकता (कंपेटिटिवनेस) स्थापित करने में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। इनपुट प्रक्रियाओं का उपयोग और यह सुनिश्चित करना कि प्राप्त आउटपुट अधिकतम है, यह एक इकाई (यूनिट) की उत्पादकता को निर्धारित करता है।     

वेतन के सिद्धांत

वेतन का निर्वाह (सब्सिस्टेंस) सिद्धांत

इस सिद्धांत को वेतन के नियंत्रित कानून या वेतन के ब्राजेन कानून के रूप में भी जाना जाता है। सबसे पहले, फिजियोक्रेट्स द्वारा इसे तैयार किया गया, इसे बाद में एक जर्मन अर्थशास्त्री (इकोनॉमिस्ट) लासल द्वारा विकसित किया गया था। अर्थशास्त्र के जनक एडम स्मिथ ने भी अपनी पुस्तक ‘द वेल्थ ऑफ नेशंस’ में इस तरह के सिद्धांत का उल्लेख किया था, जहां उन्होंने कहा था कि श्रमिकों को जो वेतन दिया जाना चाहिए, वह पर्याप्त होना चाहिए ताकि वे अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकें। डेविड रिकार्डो को इस सिद्धांत के सबसे अच्छे प्रतिपादकों (एक्सपोनेंट) में से एक माना जाता है और उनके योगदान ने इस सिद्धांत को विकसित करने में मदद की है। शोषण (एक्सप्लॉयटेशन) के सिद्धांत के तहत, कार्ल मार्क्स ने भी इसे एक आधार बनाया था। यह सिद्धांत कहता है कि एक मजदूर को दिया जाने वाला वेतन एक ऐसा भुगतान होना चाहिए जो जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त हो। यह निर्धारित करता है कि भुगतान का एक निर्वाह स्तर है, जिसका पालन किया जाना चाहिए और वेतन उसी के अनुसार दिया जाना चाहिए, ऐसे स्तर को पार किए बिना। इसके समर्थकों द्वारा यह माना गया था कि ऐसे मामले में जहां वेतन दिए गए निर्वाह स्तर से कम है, जनसंख्या में गिरावट के कारण श्रम आपूर्ति में गिरावट होगी और इससे वेतन में वृद्धि होगी जिससे आपूर्ति में भी गिरावट आएगी। इसके अलावा, यदि वेतन निर्वाह, दिए गए स्तर से अधिक है, तो श्रम आपूर्ति में वृद्धि होगी जो अंततः कम वेतन की ओर ले जाएगी। इस प्रकार, इस सिद्धांत ने एक निर्वाह स्तर को बनाए रखने पर जोर दिया है ताकि वेतन ऐसे स्तर पर स्थिर रहे और उच्च या निम्न वेतन की कोई स्थिति न हो। डेविड रिकार्डो दो मान्यताओं की व्याख्या करते हैं जो इस सिद्धांत में ली गई हैं- पहला यह है कि खाद्य उत्पादन ह्रासमान प्रतिफल (डिमिनिशिंग रिटर्न) के नियम के अधीन है और दूसरा कि जनसंख्या तेजी से बढ़ती है। 

हालांकि, यह सिद्धांत व्यावहारिक अर्थों में खरा नहीं उतर सका। इस सिद्धांत में कई खामियां थीं जिससे लंबे समय तक स्वीकार करना लगभग असंभव हो गया था। किसी देश के औद्योगिक (इंडस्ट्रियल) क्षेत्र में केवल एक नहीं बल्कि कई प्रकार के रोजगार होते हैं और इस प्रकार ऐसे विभिन्न रोजगारों के लिए वेतन भी भिन्न माने जाते है। यह सिद्धांत उसी पर विचार नहीं करता है और पूरे उद्योग में वेतन की एकरूपता (यूनिफॉर्मिटी) पर आधारित है जो व्यावहारिक नहीं है। आलोचना यह भी निर्धारित की गई है कि यह सिद्धांत केवल बाजार की आपूर्ति को ध्यान में रखता है और मांग को अनदेखा करता है जो महत्वपूर्ण है क्योंकि आपूर्ति बाजार में मांग पर निर्भर करती है और यहां तक ​​कि वेतन के मामले में भी मांग, आपूर्ति में भारी अंतर ला सकती है। इस सिद्धांत की भी आलोचना की जाती है क्योंकि यह विशुद्ध रूप से जनसंख्या के मेल्थुसियन सिद्धांत पर आधारित है जो वास्तव में हर बार लागू नहीं होता है। एक अनुमान यह लगाया गया है कि वेतन में वृद्धि से देश की जनसंख्या में वृद्धि होगी, जो कि कई विकसित देशों के लिए सच नहीं हो सकता है। विकसित देशों में वेतन में इस तरह की वृद्धि से जीवन स्तर में वृद्धि होती है और इस प्रकार यह सिद्धांत हर स्थिति में लागू नहीं होता है। इसके अलावा, यह भी आलोचना की जाती है कि यह सिद्धांत केवल लंबी अवधि के लिए सही है, लेकिन कम समय या एक वर्ष में कोई परिणाम नहीं देता है। इससे, इस सिद्धांत का विशेष रूप से औद्योगिक स्तर पर विश्लेषण करना मुश्किल हो जाता है, जहां इस तरह की गणना बहुत महत्वपूर्ण होती है।   

जीवन स्तर वेतन का सिद्धांत

यह सिद्धांत 19वीं शताब्दी के अंत में आया था और वेतन के निर्वाह सिद्धांत में इसने कई सुधार किए थे। इसने श्रमिकों के वेतन को जीवन स्तर से संबंधित किया और कहा कि वेतन श्रमिकों के जीवन स्तर के आधार पर निर्धारित किया जाना चाहिए न कि निर्वाह की सीमा से। ऐसा लगता है कि इस सिद्धांत ने पिछले सिद्धांत में बदलाव किए है, लेकिन यह अच्छा नहीं है, क्योंकि जीवन स्तर पर निर्भरता एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भिन्न हो सकती है और इसे वेतन को मापने के लिए एक मजबूत आधार के रूप में नहीं माना जा सकता है। इसने केवल आपूर्ति वाले हिस्से पर ध्यान केंद्रित किया और बाजार में मांग पर विचार नहीं किया। एक श्रमिक का जीवन स्तर समय-समय पर बदल सकता था और इसके अलावा, यह सिद्धांत अव्यावहारिक और बहुत अप्रत्यक्ष (इनडायरेक्ट) था क्योंकि श्रमिकों को उच्च वेतन केवल इसलिए नहीं मिल सकता था क्योंकि उनका जीवन स्तर उच्च था। ऐसा वेतन बढ़ाने के लिए उत्पादकता में आउटपुट भी होना चाहिए।    

वेतन का वेतन कोष (फंड) सिद्धांत

इस सिद्धांत की सबसे बड़ी आलोचना उद्योगों में ट्रेड यूनियन के द्वारा की गई थी। एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो के सिद्धांतों के साथ, जे.एस. मिल ने इस सिद्धांत को प्रतिपादित (प्रोपाउंड) किया था। इस सिद्धांत में कहा गया है कि वेतन जनसंख्या और पूंजी (कैपिटल) के बीच के अनुपात पर निर्भर करती है। पूंजी का एक हिस्सा वेतन के एकमात्र उद्देश्य के लिए अलग रखा जाता है और  वेतन की गणना करने के लिए मुख्य निर्धारक (डिटरमिनेंट) जनसंख्या है। इस सिद्धांत के तहत जनसंख्या का अर्थ है मजदूर या मजदूर वर्ग और सिद्धांतकारों ने जोर देकर कहा कि बाजार में प्रतिस्पर्धा इन दो कारकों यानी की पूंजी और जनसंख्या से प्रभावित होती है। इस सिद्धांत के तहत, जिस पूंजी को वेतन-कोष कहा जाता था, उसे स्थिर रखा गया था क्योंकि यह कहा गया था कि यदि वेतन कोष का उपयोग श्रमिकों को दिए जाने वाले वेतन के लिए किया जाता है तो यह उत्पादन, उपकरण या माल की पूंजी में कमी और अंततः वेतन में कमी को भी प्रभावित करेगा। इस प्रकार, वेतन-कोष को स्थिर रखा जाता है, और इसलिए, यदि वेतन में वृद्धि की जाती है तो इसका परिणाम जनसंख्या में गिरावट होगा और यदि जनसंख्या में वृद्धि होती है, तो वेतन कम हो जाएगा। दोनों के बीच एक उलटा संबंध है। इस सिद्धांत को एक गणितीय आयाम (डाइमेंशन) दिया गया है- “वेतन = वेतन कोष / जनसंख्या”। 

इस सिद्धांत को उद्योगों में ट्रेड यूनियन के हमले और शिथिलता (डिसफंक्शन) के रूप में देखा गया। चूंकि ट्रेड यूनियन का उद्योग की आबादी पर कोई नियंत्रण नहीं है, इसलिए उनके लिए श्रमिकों की संख्या को कम किए बिना वेतन बढ़ाना असंभव है। इस प्रकार, यह उन्हें उद्योग के निर्णय के तहत बांधता है जो एक ट्रेड यूनियन के पूरे उद्देश्य के लिए एक बड़ा झटका था। इस सिद्धांत के साथ केवल यही एकमात्र मुद्दा नहीं है। वेतन-कोष, जिसे स्थिर माना जाता है, वह इस सिद्धांत के तहत परिभाषित नहीं किया गया है। और इस प्रकार, जो पूरी पूंजी का गठन करता है वह भी परिभाषित नहीं है। इसके अलावा, श्रमिकों की गुणवत्ता (क्वालिटी) से भी समझौता किया गया है, क्योंकि यह वेतन और जनसंख्या के बीच एक संबंध देखता है, यह महसूस किए बिना कि यदि वेतन बढ़ाया जाता है तो श्रमिकों की गुणवत्ता के साथ-साथ काम की गुणवत्ता भी प्रभावित हो सकती है। यह भी मान लिया गया कि वेतन तभी बढ़ सकता है जब मुनाफा हो, हालांकि, प्रतीफल वृद्धि की स्थिति में वेतन और मुनाफा दोनों में वृद्धि होती है। इस सिद्धांत ने आपूर्ति और मांग को अपने दायरे में ले लिया लेकिन यह वेतन दर निर्धारित करने और इस तरह ट्रेड यूनियन की स्वतंत्रता और सौदेबाजी की शक्ति से समझौता करने में विफल रहा है।   

      

अतिरिक्त मूल्य (सरप्लस वैल्यू) वेतन का सिद्धांत

कार्ल मार्क्स ने इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया था। उन्होंने वेतन के निर्वाह सिद्धांत से भिन्न मत रखा और कहा कि वेतन जनसंख्या के कारण नहीं बल्कि बेरोजगार मजदूरों के कारण निर्वाह स्तर तक पहुंचाया जाता है। उन्होंने कहा कि पूंजीपतियों के लिए, श्रमिक ही पूंजी हासिल करने का एक मात्र साधन हैं, और जहां एक मजदूर अतिरिक्त उत्पादकता के लिए काम कर रहा है, वहां एक अतिरिक्त-मूल्य उत्पन्न होता है और यह उद्योग की पूंजी में जुड़ जाता है जो मालिक को वापस चला जाता है। मार्क्स ने अपने सिद्धांत में पूंजीपतियों पर ध्यान दिया और वह उद्योगों के नकारात्मक पहलुओं को सामने लाए जहां श्रमिकों को उनके भुगतान से अधिक काम करने के लिए प्रेरित किया जाता है। यह एक ऐसी स्थिति बताता है जहां श्रमिकों को ओवरटाइम का भुगतान भी नहीं किया जाता है और अतिरिक्त उत्पादकता का उपयोग ऐसे उद्योग के मालिकों द्वारा अपनी पूंजी बढ़ाने के लिए किया जाता है।      

वेतन का सौदेबाजी का सिद्धांत

यह सिद्धांत बताता है कि वेतन श्रमिकों की सौदेबाजी की शक्ति पर निर्भर करता है। जॉन डेविडसन ने अपनी पुस्तक ‘द बार्गेन थ्योरी ऑफ वेज’ में इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया था और कहा था कि ऐसे कई कारक हैं जो श्रमिकों और उत्पादकों के सौदेबाजी में वेतन को प्रभावित करते हैं। इस सिद्धांत के तहत, श्रमिक जितना अधिक काम करने में सक्षम होता है, उसे उतना ही अधिक भुगतान किया जाता है। यह छोटे उद्योगों में काम करता है जैसे लॉरी या अन्य परिवहन के माध्यम से माल ले जाने के लिए श्रम या एक विशिष्ट अवधि के लिए नियोजित श्रमिक या दैनिक वेतन भोगी (डेली वेज) श्रमिक।   

वेतन का अवशिष्ट दावेदार (रेसिडुअल क्लेमेंट) सिद्धांत

प्रोफेसर वाकर द्वारा प्रतिपादित, यह सिद्धांत बताता है कि एक श्रमिक का वेतन, उत्पाद के मूल्य में से किराया, मुनाफा और ब्याज घटाकर निकाला जाता है। इस प्रकार, किराया, ब्याज और मुनाफे को वेतन का हिस्सा नहीं समझा जाता है और ऐसे निर्धारकों को उत्पादकता की पूंजी से घटाकर बची हुई राशि श्रमिकों को वेतन के रूप मे दी जानी चाहिए। यह सिद्धांत बहुत सारी खामियों के साथ आया है क्योंकि उत्पादन शुरू होने के बाद वेतन तय करने का कोई तरीका नहीं था क्योंकि वे किसी उद्योग में उत्पादन शुरू करने से पहले तय किए जाते हैं। इसलिए, ऐसे मामले में अवशिष्ट दावेदार उद्यमी (एंटरप्रेन्योर) होगा न कि मजदूर। इसके अलावा, मुनाफे और किराए को घटाने से यह तथ्य नहीं बदलेगा कि जमींदारों और उद्यमियों की पूंजी तय नहीं है और इसलिए ऐसा करना व्यर्थ है। आलोचना की गई है कि यह सिद्धांत श्रमिकों के साथ-साथ ट्रेड यूनियन की आपूर्ति के पहलू की अनदेखी करता है।  

वेतन का सीमांत उत्पादकता (मार्जिनल प्रोडक्टिविटी) सिद्धांत 

इस सिद्धांत को अन्य सभी के बीच सबसे संतोषजनक सिद्धांत माना जाता है। वॉन थुनन ने पहले इस सिद्धांत को बताया और फिर इसे जेबी क्लार्क, विकस्टीड और वालरस द्वारा विकसित किया गया था। यह सिद्धांत कहता है कि एक श्रमिक का वेतन उस श्रमिक की उत्पादकता पर निर्भर होता है। इसमें कहा गया है कि जैसे ही एक नियोक्ता श्रमिक को नियोजित करता है, तो सीमांत उत्पादकता के सिद्धांत के अनुसार को कम करने के कानून के अनुसार, सीमांत उत्पाद गिर जाएगा और इस प्रकार श्रम को उस स्तर तक नियोजित किया जाता है जहां वेतन सीमांत स्तर के बराबर होता है। प्रोफेसर एस.ई. थॉमस कहते है कि श्रमिकों के बीच प्रतिस्पर्धा के कारण, वेतन दर निर्धारित किया जाता है जो सीमांत उत्पाद के बराबर होता है ताकि प्रदान किया गया वेतन नियोजित श्रमिकों के अनुरूप हो सके। यह सिद्धांत सबसे व्यावहारिक है और यह प्रदान करता है कि एक नियोक्ता केवल उस सीमा तक श्रमिकों को नियुक्त कर सकता है जहां वह उत्पादकता के लिए वेतन का भुगतान करने में सक्षम है। इस प्रकार, उत्पादकता को महत्व दिया जाता है। इसके अलावा, यह आपूर्ति और मांग जैसे बाजार के अन्य कारकों के अनुपालन (कंप्लायंस) में होता है। 

इस सिद्धांत को इस धारणा के साथ लागू किया जाता है कि श्रमिकों की गतिशीलता, पूर्ण प्रतिस्पर्धा, प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) जैसे सभी कारक स्थिर हैं। यह उन कारकों में से एक है जो इस सिद्धांत में आलोचना प्राप्त करते हैं। यह प्रकृति में समरूप (होमोजीनस) नहीं है और परिस्थितियों में बदलाव के साथ यह बिल्कुल भी काम नहीं कर सकता है, जो इसे व्यावहारिक रूप से अपर्याप्त बनाता है। यह सीमांत उत्पादकता से संबंधित है जो कम वेतन दिए जाने के कारण प्रभावित हो सकती है।      

निष्कर्ष

अन्य विभिन्न सिद्धांत भी हैं जो वेतन के विभिन्न विश्लेषण और संरचना प्रदान करते हैं। सीमांत उत्पादकता सिद्धांत वेतन के संतोषजनक सिद्धांत के सबसे करीब रहा है। इसकी अपनी आलोचना है लेकिन इसकी यह विशेषता है कि यह सीधे श्रमिक की उत्पादकता से संबंधित है, जो इसे सबसे अलग बनाती है। उद्योग कई स्थानों पर एक ही तंत्र में काफी काम कर रहे हैं, हालांकि, ऊपर वर्णित चुनौतियों के कारण उद्देश्य को प्राप्त करना मुश्किल है। लेकिन फिर भी, बाजार में, यह सिद्धांत सरल है और दूसरों की तुलना में बेहतर तंत्र प्रदान करता है। आपूर्ति और मांग सिद्धांत जैसे अन्य सिद्धांत भी हैं जो विशुद्ध रूप से बाजार में आपूर्ति और मांग और उसके अनुसार श्रमिकों के रोजगार और वेतन पर आधारित हैं।  

संदर्भ

 

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