यह लेख बनस्थली विद्यापीठ से बीबीए एलएलबी करने वाले चौथे वर्ष की छात्रा ऋचा गोयल द्वारा लिखा गया है। लेख में कैदियों के विभिन्न अधिकारों और संबंधित केस कानूनों पर चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar ने किया है।
मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा का अनुच्छेद 1–
“सभी मनुष्य स्वतंत्र, सम्मान और अधिकारों में समान पैदा हुए हैं और तर्क और विवेक से संपन्न हैं और उन्हें समान भाईचारे, विवेक की भावना से एक दूसरे के प्रति कार्य करना चाहिए”।
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परिचय
सभी मनुष्य जीवन के अधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार आदि के साथ पैदा हुए हैं। मानव अधिकार भारत के संविधान (कंस्टीट्यूशन) और मानव अधिकारों (ह्यूमन राइट्स) की सार्वभौम घोषणा के तहत दी गई हैं। किसी व्यक्ति को उसके अधिकारों से इस आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता है कि उसे हिरासत में लिया गया है। एक गिरफ्तार व्यक्ति के विभिन्न अधिकारों का अनुमान दंड प्रक्रिया संहिता (इंडियन पीनल कोड), भारत के संविधान और विभिन्न ऐतिहासिक निर्णयों से लगाया जा सकता है।
आवश्यकता
भारतीय कानूनी प्रणाली “दोषी साबित होने तक निर्दोष” इस विचार पर आधारित है। किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी संविधान के अनुच्छेद (आर्टिकल) 21 का उल्लंघन हो सकती है जिसमें कहा गया है, “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा”। इसका मतलब है कि प्रक्रिया निष्पक्ष और स्पष्ट होनी चाहिए और मनमानी या अत्याचारी नहीं होनी चाहिए।
गिरफ्तार व्यक्ति के अधिकार
गिरफ्तारी का आधार जानने का अधिकार
- आपराधिक प्रक्रिया कोड 1973 [सीआरपीसी ] की धारा (सेक्शन) 50 में कहा गया है कि प्रत्येक पुलिस अधिकारी या कोई अन्य व्यक्ति जो बिना वारंट के किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए अधिकृत है, उसे गिरफ्तार व्यक्ति को उस अपराध के बारे में, उस गिरफ्तारी के अन्य आधार बताने चाहिए जिसके लिए उसे गिरफ्तार किया गया है। यह पुलिस अधिकारी का कर्तव्य है और वह इसे मना नहीं कर सकता।
- सीआरपीसी, 1973 की धारा 50 ए कहती है कि, पुलिस अधिकारी को गिरफ्तार व्यक्ति को सूचित करना चाहिए कि उसे हिरासत में रखे जाने के साथ ही उस व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के बारे में सूचना देने का अधिकार है और गिरफ्तार होने वाले व्यक्ति को उसके किसी मित्र, रिश्तेदार या उनके हित में किसी दूसरे व्यक्ति को गिरफ्तारी की सूचना देने के लिए पुलिस ऑफिसर को बाध्य करती है।
- सीआरपीसी की धारा 55 में कहा गया है कि, जब भी कोई पुलिस अधिकारी अपने अधीनस्थ अधिकारी (सबोर्डिनेट ऑफिसर) को आज्ञापत्र (वारंट) के बिना किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए अधिकृत करता है, तो अधीनस्थ अधिकारी को गिरफ्तार व्यक्ति को लिखित आदेश की सामग्री (कंटेंट ऑफ ऑर्डर) के बारे में सूचित करने की आवश्यकता होती है, जिसमें अपराध और गिरफ्तारी के अन्य आधार दिए गए होते हैं।
- सीआरपीसी की धारा 75 में कहा गया है कि आज्ञापत्र (वारंट) निष्पादित यानी कि कारवाई में लेने वाले पुलिस अधिकारी (या कोई अन्य अधिकारी) को गिरफ्तार व्यक्ति को वारंट की सूचना देनी चाहिए और यदि आवश्यक हो तो उसे वारंट दिखाना चाहिए।
- भारत के संविधान के अनुच्छेद 22(1) में यह भी कहा गया है कि किसी भी पुलिस अधिकारी को गिरफ्तारी का आधार बताए बिना किसी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं करना चाहिए।
अनावश्यक देरी के बिना मजिस्ट्रेट के सामने पेश होने का अधिकार
- सीआरपीसी, 1973 की धारा 55 में कहा गया है कि बिना वारंट के गिरफ्तारी करने वाले पुलिस अधिकारी को गिरफ्तार व्यक्ति को बिना किसी देरी के मजिस्ट्रेट या पुलिस स्टेशन के प्रभारी पुलिस अधिकारी (सबोर्डिनेट पुलिस ऑफिसर) के सामने गिरफ्तारी की आधारो के साथ पेश करना चाहिए।
- सीआरपीसी, 1973 की धारा 76 में कहा गया है कि गिरफ्तारी के वारंट को निष्पादित (एक्जीक्यूट) करने वाले पुलिस अधिकारी को गिरफ्तार व्यक्ति को अदालत के सामने पेश करना चाहिए, जहां उस व्यक्ति इन अधिकारियों के सामने पेश करने के लिए कानून की आवश्यकता होती है। इसमें यह भी कहा गया है कि गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर व्यक्ति को पेश किया जाना चाहिए। 24 घंटे की समय कि गिनती करते वक्त, उसे हिरासत के स्थान से मजिस्ट्रेट न्यायालय तक की यात्रा के लिए कितना वक्त लगा उसे बाहर रखना चाहिए।
- संविधान के अनुच्छेद 22(2) में कहा गया है कि गिरफ्तारी करने वाले पुलिस अधिकारी को, उस व्यक्ति के गिरफ्तारी के 24 घंटो के अंदर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना चाहिए, और यदि वह पुलिस अधिकारी 24 घंटे के अंदर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने में असफल होता है, तो वह उस व्यक्ति को गलत तरीके से हिरासत में लेने के लिए उत्तरदायी होगा।
जमानत का अधिकार
सीआरपीसी, 1973 की धारा 50 की उपधारा (2) में कहा गया है कि, जब कोई पुलिस अधिकारी असंज्ञेय (नॉन-कॉग्निजेबल) अपराध के अलावा किसी अन्य अपराध के लिए वारंट के बिना किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करता है; तो वह उस व्यक्ति को सूचित करेगा कि उसे जमानत (बेल) पर रिहा करने और उसकी ओर से जमानतदारों के लिए व्यवस्था करने का अधिकार है।
निष्पक्ष (अनबायसड)सुनवाई का अधिकार
सीआरपीसी, 1973 में निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार से संबंधित कोई प्रावधान नहीं दिया गया है, लेकिन ऐसे अधिकार संविधान और विभिन्न निर्णयों से प्राप्त किए जा सकते हैं।
- संविधान के अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि “कानून के सामने सभी व्यक्ति समान हैं”। इसका मतलब यह है कि विवाद में जो भी पक्ष है उनके साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। दोनों पक्षों के संबंध में नैसर्गिक न्याय (नेचुरल जस्टिस) के सिद्धांत के अनुसार विचार किया जाना चाहिए। त्वरित सुनवाई के अधिकार को हुइसैनारा खातून बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य के मामले में मान्यता दी गई है, अदालत ने कहा- “मुकदमे को जल्द से जल्द निपटाया जाना चाहिए”।
वकील से मशवरा लेने का अधिकार
- सीआरपीसी, 1973 की धारा 41 डी कैदियों को पूछताछ के दौरान अपने वकील से परामर्श (कंसल्टेशन) करने का अधिकार बताती है।
- संविधान के अनुच्छेद 22(1) में कहा गया है कि गिरफ्तार व्यक्ति को वकील नियुक्त करने और अपनी पसंद के वकील द्वारा खुदका बचाव करने का अधिकार है।
- सीआरपीसी, 1973 की धारा 303 में कहा गया है कि जब किसी व्यक्ति पर आपराधिक अदालत (क्रिमिनल कोर्ट) के सामने अपराध करने का आरोप लगाया जाता है या जिनके खिलाफ कार्यवाही शुरू की गई है, तो उसे अपनी पसंद के वकील द्वारा बचाव का अधिकार है।
विधिक सहायता (लीगल असिस्टेंट) का अधिकार
- सीआरपीसी, 1973 की धारा 304 में कहा गया है कि जब सत्र न्यायालय (डिस्ट्रिक्ट कोर्ट) के सामने मुकदमा चलाया जाता है, और अभियुक्त (एक्यूज्ड) का प्रतिनिधित्व कानूनी व्यवसायी द्वारा नहीं किया जाता है, या जब ऐसा दिखाई देता है कि अभियुक्त के पास वकील नियुक्त करने के लिए लगने वाले साधन नहीं हैं, तो अदालत उसके बचाव के लिए एक वकील को नियुक्त कर सकती है जिसका खर्चा राज्य उठाएगा।
- अनुच्छेद 39A कहता है, न्याय प्राप्त करने के लिए राज्य मुफ्त कानूनी मदद देने के लिए बाध्य है। यह अधिकार खत्री (द्वितीय) बनाम बिहार राज्य के मामले में भी स्पष्ट रूप से दिया गया है। इस मामले में अदालत ने कहा कि “निर्धन आरोपी व्यक्ति को मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान की जानी चाहिए”। यह मदद उस समय भी दी जाती है जब आरोपी को पहली बार मजिस्ट्रेट के सामने पेश किये जाने का समय शुरू होता है। आरोपी व्यक्ति के अधिकार से तब भी इनकार नहीं किया जा सकता जब आरोपी इसके लिए आवेदन (एप्लिकेशन) करने में असफल रहता है। यदि राज्य निर्धन अभियुक्त व्यक्ति को कानूनी सहायता प्रदान करने में असफल रहता है, तो वह पूरे मुकदमे को शून्य मान लेगा। सुख दास बनाम केंद्र शासित प्रदेश अरुणाचल प्रदेश के मामले में, अदालत ने कहा: – “जब आरोपी इसके लिए आवेदन करने में विफल रहता है तब भी निर्धन अभियुक्त के अधिकार से इनकार नहीं किया जा सकता”। यदि राज्य निर्धन अभियुक्त व्यक्ति को कानूनी सहायता प्रदान करने में असफल रहता है तो यह पूरे मुकदमे को शून्य मान लेगा।
चुप रहने का अधिकार
चुप रहने का अधिकार किसी भी कानून में मान्यता प्राप्त नहीं है लेकिन यह सीआरपीसी, 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 से अपना अधिकार प्राप्त कर सकता है। यह अधिकार मुख्य रूप से अदालत में दिए गए बयान और स्वीकारोक्ति ( कन्फेशन) से संबंधित है। जब भी न्यायालय में कोई स्वीकारोक्ति याने कोई जुर्म कबूल किया जाता है या बयान दिया जाता है, तो यह पता लगाना मजिस्ट्रेट का कर्तव्य है कि ऐसा बयान या स्वीकारोक्ति अपनी इच्छा से किया गया था या नहीं। किसी भी गिरफ्तार व्यक्ति को न्यायालय में कुछ भी बोलने के लिए बंधनकारी नहीं किया जा सकता है।
अनुच्छेद 20 (2) में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को अपने खिलाफ गवाह बनने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। यह आत्म-अपराध (सेल्फ इनक्रिमिनेशन) का सिद्धांत है। नंदिनी सत्पथी बनाम पी एल दानी के मामले में इस सिद्धांत को दोहराया गया था। इसमें कहा गया है, “किसी भी व्यक्ति को कोई भी बयान देने या सवालों के जवाब देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है और आरोपी व्यक्ति को पूछताछ की प्रक्रिया के दौरान चुप रहने का अधिकार है।”
चिकित्सक द्वारा जांच का अधिकार
सीआरपीसी, 1973 की धारा 54 में कहा गया है कि जब गिरफ्तार व्यक्ति यह आरोप लगाता है कि उसके शरीर की जांच से एक तथ्य (फैक्ट) सामने आएगा, जो उसके द्वारा किए गए अपराध के तथ्य को स्वीकार कर देगा, या जिससे उसके शरीर के खिलाफ किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अपराध किया जाएगा, अदालत ने आरोपी व्यक्ति की उसके (आरोपी) अनुरोध पर मेडिकल जांच का आदेश दे सकती है, जब तक कि अदालत संतुष्ट नहीं होती कि ऐसा अनुरोध (रिक्वेस्ट) न्याय को हराने के उद्देश्य से किया गया है।
अन्य अधिकार
- सीआरपीसी, 1973 की धारा 55ए में कहा गया है कि, आरोपी या हिरासत में रखे गए व्यक्ति की स्वास्थ्य और सुरक्षा का उचित ख्याल रखना उस व्यक्ति का कर्तव्य होगा जिसकी हिरासत में गिरफ्तार व्यक्ति या आरोपी है।
- गिरफ्तार व्यक्ति को क्रूर और अमानवीय व्यवहार से बचाया जाना चाहिए।
- सीआरपीसी,1973 की धारा 358 गिरफ्तार व्यक्ति को मुआवजे (कंपनसेशन) का अधिकार देती है जिसे किसी भी आधार के बिना गिरफ्तार किया गया था।
- सीआरपीसी की धारा 41 ए में कहा गया है कि पुलिस अधिकारी संज्ञेय (कॉग्निजेबल) अपराध करने का जिस व्यक्ति पर संदेह है उसे दी गई तारीख और स्थान पर पेश होने के लिए नोटिस दे सकती है।
- सीआरपीसी, 1973 की धारा 46 गिरफ्तारी किस तरीके से की जानी चाहिए यह निर्धारित करती है। यानी हिरासत में जमा करना, शरीर को छूना। पुलिस अधिकारी गिरफ्तारी करते समय उस व्यक्ति को तब तक मौत का कारण नहीं बना सकता जब तक कि गिरफ्तार व्यक्ति पर मौत या आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध का आरोप नहीं लगाया जाता है।
- सीआरपीसी, 1973 की धारा 49 में कहा गया है कि पुलिस अधिकारी को भेजने के लिए जरूरत से ज्यादा संयम नहीं रखना चाहिए, गिरफ्तारी के बिना रोकना या हिरासत में रखना अवैध है।
डी के बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य, यह मामला एक ऐतिहासिक निर्णय है क्योंकि यह “गिरफ्तार व्यक्ति के अधिकारों पर केंद्रित है और यह पुलिस अधिकारी को कुछ कार्यों को करने के लिए बाध्य करता है”। अदालत यह भी कहती है कि यदि पुलिस अधिकारी अपने कर्तव्य का पालन करने में विफल रहता है तो वह अदालत की अवमानना (कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट) के साथ-साथ विभागीय कार्रवाई (डिपार्टमेंटल एक्शन) के लिए भी उत्तरदायी होगा। इस तरह के मामले इनपर क्षेत्राधिकार (जुरिसडिक्शन) रखने वाले किसी भी उच्च न्यायालय में दाखिल किया जा सकता है।
अभियुक्तों को यातना और अमानवीय व्यवहार से बचने के विभिन्न प्रयासों के बावजूद, हिरासत में मौत और पुलिस अत्याचार के मामले अभी भी हैं। तो सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी व्यक्ति की सुरक्षा और सीआरपीसी, 1973 की विभिन्न धाराओं में संशोधन के लिए 8 दिशा-निर्देश जारी किए:-
- धारा 41 बी- जांच करने वाले पुलिस अधिकारी को स्पष्ट और सटीक बैज धारण करना चाहिए जिसमें पुलिस अधिकारी का नाम उनके पद नाम के साथ स्पष्ट रूप से उल्लेखित है।
- गिरफ्तारी करने वाले पुलिस अधिकारी को गिरफ्तारी की तारीख और समय वाला एक कैश मेमो तैयार करना चाहिए, जिसे कम से कम एक सदस्य द्वारा स्थापित किया जाना चाहिए जो उसके परिवार का सदस्य या किसी इलाके का कोई सम्मानित व्यक्ति हो सकता है। कैश मेमो पर गिरफ्तार व्यक्ति का प्रतिहस्ताक्षर होना चाहिए।
- धारा 41d :- गिरफ्तार व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह अपनी गिरफ्तारी के बारे में अपने एक मित्र, रिश्तेदार या किसी अन्य व्यक्ति को, जो उसमें रुचि रखता हो, सूचित करने का अधिकार रखता है।
- गिरफ्तार व्यक्ति को उसके अधिकार के बारे में सूचित किया जाना चाहिए कि जब उसे हिरासत में रखा जाता है या हिरासत में लिया जाता है तो किसी को उनके अधिकार के बारे में तुरंत सूचित किया जाता है।
- रोजनामचा (डायरी) में प्रविष्ट की जाती है जिसमें गिरफ्तार व्यक्ति से संबंधित जानकारी का खुलासा होगा और इसमें अगले मित्र का नाम भी शामिल होगा जिसे गिरफ्तारी के संबंध में जानकारी दी गई है। इसमें उन पुलिस अधिकारियों का नाम और विवरण भी शामिल है जिसकी हिरासत में गिरफ्तार किया गया है। गिरफ्तार व्यक्ति के अनुरोध पर एक परीक्षा आयोजित की जानी है और यदि शरीर पर कोई बड़ी और छोटी चोटें पाई जाती हैं तो उसे दर्ज किया जाना चाहिए। निरीक्षण ज्ञापन (इंस्पेक्शन मेमो) पर पुलिस अधिकारियों और गिरफ्तार व्यक्ति के हस्ताक्षर होने चाहिए।
- गिरफ्तार व्यक्ति को पूछताछ के दौरान उसके अपने वकील से मिलने का अधिकार है।
- सभी दस्तावेजों की प्रतियां उनके अभिलेख (रिकॉर्ड) के लिए मजिस्ट्रेट को भेजी जानी है। इसमें गिरफ्तारी का एक ज्ञापन भी शामिल होना चाहिए।
- धारा 41 सी:- न्यायालय ने राज्य और जिला मुख्यालयों की स्थापना के लिए आदेश दिया कि, पुलिस नियंत्रण कक्ष (पुलिस कंट्रोल रूम) जहां गिरफ्तारी करने वाला पुलिस अधिकारी आरोपी को गिरफ्तार करेगा उसे गिरफ्तारी के 12 घंटे के भीतर विशिष्ट बोर्ड पर प्रदर्शित करना आवश्यक है।
योगिंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 21 और 22(1) को लागू करने के लिए यह आवश्यक है कि:
- गिरफ्तार व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह अपनी गिरफ्तारी के बारे में अपने किसी मित्र, रिश्तेदार या अपने हित में किसी अन्य व्यक्ति को सूचित करें।
- पुलिस अधिकारी को गिरफ्तार होने वाले को उसके अधिकार के बारे में तुरंत उसे हिरासत में लेने के बाद बता देना चाहिए।
- गिरफ्तारी के बारे में जिस व्यक्ति को सूचित किया गया है उस व्यक्ति का नाम एक डायरी में लिखा जाना चाहिए।
प्रेम शुक्ला बनाम दिल्ली प्रशासन , अदालत ने माना कि “जब तक असाधारण परिस्थिति उत्पन्न नहीं होती हैं, तब तक कैदियों को हथकड़ी या नियमित रूप से हथकड़ी नहीं लगाने का अधिकार है”।
निष्कर्ष
हिरासत में मौत और अवैध गिरफ्तारी भारत में एक बड़ी समस्या है। यह संविधान के अनुच्छेद 21 और बुनियादी मानव अधिकारों का भी उल्लंघन करता है जो मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा (यूनिवर्सल डिक्लेरेशन) के तहत उपलब्ध है। डी के बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी दिशा-निर्देशों को ठीक से लागू नहीं किया जा रहा है। प्रावधान और दिशा-निर्देशों के उचित कार्यवाही और कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) के परिणामस्वरूप अवैध गिरफ्तारी की संख्या में कमी हो सकती है।
संदर्भ
- http://www.lawyersclubindia.com/articles/Rights-Of-Arrested-Persons-8222.asp
- https://www.vakilno1.com/legal-news/rights-arrested-person.html
- 1979 AIR a1369
- 1981 2 SCR (408)
- 1986 SCR (1) 590
- 1978 SCR (3) 608
- AIR 1997 (1) SCC 416
- 28 April 2015
- 1980 SCR (3)855
- AIR 1997 1 SCC 416
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