कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया

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Constitution of India

यह लेख इंस्टीट्यूट ऑफ लॉ, निरमा यूनिवर्सिटी, अहमदाबाद की छात्रा Shraddha Jain ने लिखा है। यह लेख कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया की अवधारणा और हर मामले में इसकी व्याख्या कैसे बदलती गई इस विषय पर चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Shubhya Paliwal द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया” वाक्यांश का उपयोग किया गया है। यह दर्शाता है कि यदि संसद (पार्लियामेंट) द्वारा उचित प्रक्रिया का पालन करके कोई कानून पारित किया गया है, तो वह एक वैध कानून होगा। इस अवधारणा को लागू करने से संकेत मिलता है कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार किसी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जा सकता है। मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) के फैसले के बाद, भारतीय न्यायपालिका ने एक व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए कानून की उचित प्रक्रिया को अमेरिकी अवधारणा के बराबर बनाने के लिए कानून द्वारा स्थापित वाक्यांश प्रक्रिया का एक उदार (लिबरल) अर्थ अपनाया। 

कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया की विभिन्न परिभाषाएं

कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया वाक्यांश का शाब्दिक अर्थ यह दर्शाता है कि संसद या संबंधित प्राधिकारी (ऑथोरिटी) द्वारा अधिनियमित किया गया कानून तभी वैध है यदि उचित प्रक्रिया का पालन किया गया है।

राजा सम्राट बनाम बेनोरी लाल शर्मा (1944) के मामले में, प्रिवी काउंसिल ने कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया को “पारंपरिक और अच्छी तरह से स्थापित आपराधिक प्रक्रिया” के रूप में वर्णित किया।

ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार, ‘स्थापित’ शब्द का अर्थ है “कानून या अनुबंध द्वारा तय करना, निपटाना, आरंभ करना या विनियमित करना।” ‘स्थापित’ शब्द का तात्पर्य एक ऐसे अधिकार से है जो सीमाएँ निर्धारित करता है। यह अधिकार, शब्द के अनुसार, या तो संसद हो सकता है या पार्टियों के बीच एक लिखित समझौता हो सकता है। परिणामस्वरूप, अनुच्छेद 21 में ‘कानून’ को ‘जस’ की परिभाषा निर्दिष्ट करने का कोई कारण नहीं हैl 

ए.के. गोपालन बनाम भारत सरकार (1965), के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के तहत कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया को केवल क़ानून में वर्णित प्रक्रिया का पालन करने के रूप में परिभाषित किया और इससे अधिक कुछ नहीं। परिणामस्वरूप, यदि प्रक्रिया के अनुसार कानून पारित किया गया है, तो किसी व्यक्ति की ‘जीवन’ या ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ छीनी जा सकती है। ‘उचित’ (ड्यू) शब्द का अपवर्जन (एक्सक्लूजन), ‘प्रक्रिया’ शब्द द्वारा प्रदान किया गया प्रतिबंध और ‘स्थापित’ शब्द का जोड़ अनुच्छेद 21 में प्रयुक्त भाषा में संसदीय नुस्खे (प्रिस्क्रिप्शन) की अवधारणा को उजागर करता है। भारत का संविधान ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ शब्द का उपयोग करके संसद को कानून का निर्धारण करने की अंतिम शक्ति प्रदान करता है।

मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) में, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि अनुच्छेद 21 के दायरे में कानून द्वारा स्थापित एक प्रक्रिया “निष्पक्ष, न्यायसंगत और उचित होनी चाहिए, काल्पनिक, दमनकारी (ऑप्रेसिव) या मनमानी नहीं होनी चाहिए,” अन्यथा यह एक प्रक्रिया के रूप में नहीं माना जाएगा, और अनुच्छेद 21 की शर्त को भी पूरा नहीं करेगा। इसलिए, हमारे देश में, ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ व्याक्यांश ने अमेरिकी संविधान में ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ के वाक्यांश के समान महत्व प्राप्त किया है।

कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया और कानून की उचित प्रक्रिया

कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया दर्शाती है कि एक उचित प्रक्रिया का पालन करके पारित किया गया कानून वैध है, भले ही वह निष्पक्षता और समानता के सिद्धांतों का उल्लंघन करता हो। प्रक्रिया पर कठोर ध्यान किसी व्यक्ति के जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को खतरे में डालने की संभावना को बढ़ा सकता है। ऐसी परिस्थितियों को कम करने के लिए, सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न निर्णयों के माध्यम से कानून की उचित प्रक्रिया के महत्व पर जोर दिया।

कानून की उचित प्रक्रिया = कानूनी पद्धति (मैथड) + प्रक्रिया निष्पक्ष और न्यायसंगत होनी चाहिए, मनमानी नहीं।

कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया और कानून की उचित प्रक्रिया के बीच अंतर 

अंतर का बिंदु कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया  कानून की उचित प्रक्रिया
अर्थ इसका अर्थ है कि संसद द्वारा पारित कानून तभी मान्य होगा जब वह उचित प्रक्रिया से गुजरा हो। कानून सिद्धांत की उचित प्रक्रिया न केवल इस बात की जांच करती है कि क्या कोई मौजूदा कानून किसी व्यक्ति के जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को छीन लेता है, बल्कि यह भी जांचता है कि क्या कानून निष्पक्ष है, न्यायसंगत है, और कहीं यह मनमाना तो नहीं है।
उद्भव ब्रिटिश संविधान से उत्पन्न। संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से उत्पन्न।
प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में कानून द्वारा स्थापित वाक्यांश प्रक्रिया का उल्लेख है। भारतीय संविधान कानून की उचित प्रक्रिया वाक्यांश का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं करता है।
दायरा कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया का दायरा संकुचित (नेरोवर) है। कानून की उचित प्रक्रिया का दायरा व्यापक है।
भूमिका किसी क़ानून की वैधता का निर्धारण करने के लिए यह जाँच करना कि इसे स्थापित करने की प्रक्रिया का ठीक से पालन किया गया है या नहीं। यह निर्धारित करता है कि विचाराधीन कानून मनमाना और अनुचित नहीं है।
न्यायपालिका की शक्ति यह न्यायपालिका के हाथों में सीमित शक्ति प्रदान करता है।  यह न्यायपालिका के हाथों में अधिक शक्ति प्रदान करता है।
संरक्षण कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया व्यक्तियों को केवल कार्यपालिका के मनमाने कार्यों से बचाती है। कानून की उचित प्रक्रिया व्यक्तियों को मनमानी कार्यकारी और विधायी कार्रवाई दोनों से बचाती है।
सिद्धांत का प्रभाव कानूनी प्रक्रिया का सख्त पालन जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करने का जोखिम उठाता है। सभी कानूनी अधिकारों पर ध्यान देता है और सभी व्यक्तियों को व्यक्तिगत गोपनीयता देता है।
सिद्धांत पर जोर यह सिद्धांत विधायिका के ज्ञान और राष्ट्र में जनता के विश्वास की शक्ति पर अधिक जोर देता है। कानून की उचित प्रक्रिया न्यायपालिका के नियंत्रण में व्यापक शक्ति प्रदान करती है।

कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया और कानून की उचित प्रक्रिया के बीच समानताएं 

हालांकि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के सिद्धांत और कानून की उचित प्रक्रिया अलग-अलग हैं, लेकिन उनके बीच कुछ समानताएं हैं जिनका उल्लेख नीचे किया गया है:

  1. भारतीय राजनीति में, कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया और कानून की उचित प्रक्रिया दोनों ही आवश्यक सिद्धांत हैं।
  2. दोनों ही स्थितियों  में श्रेष्ठ सर्वोच्च न्यायालय ही होता है। भारत का सर्वोच्च न्यायालय कानून की वैधता पर निर्णय लेता है।
  3. कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया भारतीय संविधान में निर्दिष्ट (स्पेसिफाइड) है और इसलिए देश में वैध है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के कई हालिया फैसलों में, उचित प्रक्रिया के मुद्दे को फिर से ध्यान में लाया गया है।

भारतीय संविधान के कानून और अनुच्छेद 21 द्वारा स्थापित प्रक्रिया 

संविधान के भाग III के तहत अनुच्छेद 21 एक मौलिक अधिकार है। इसे हमारे संविधान के सबसे महत्वपूर्ण और प्रगतिशील (प्रोग्रेसिव) अनुच्छेदों में से एक माना जाता है। अनुच्छेद 21 का उपयोग केवल तभी किया जा सकता है जब अनुच्छेद 12 में परिभाषित ‘राज्य’ किसी व्यक्ति के जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित करता है। नतीजतन, एक निजी व्यक्ति द्वारा अधिकार का उल्लंघन अनुच्छेद 21 के दायरे से बाहर हो जाता है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 प्रदान करता है, “किसी को भी उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से तब तक वंचित नहीं किया जाएगा जब तक कि वह कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार न हो।” अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ वाक्यांश का उपयोग 1946 के जापानी संविधान के अनुच्छेद 31 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के संबंध में भी किया गया है, जो निर्दिष्ट करता है, कि “किसी को भी उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा, और कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा कोई आपराधिक दंड नहीं लगाया जाना चाहिए।”

कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया पर न्यायिक घोषणाएं 

ए.के. गोपालन बनाम भारत सरकार (1965), मामले में एक राजनीतिक नेता, ए.के.गोपालन, को मद्रास में निवारक निरोध (प्रिवेंटिव डिटेंशन) अधिनियम, 1950 के तहत गिरफ्तार किया गया था। उन्होंने दावा किया कि रोकथाम निरोध अधिनियम के तहत की गई कार्रवाई ने अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है। उन्होंने यह भी दावा किया कि अनुच्छेद 21 में कानून द्वारा स्थापित वाक्यांश प्रक्रिया कानून की उचित प्रक्रिया को संदर्भित करती है। उनके मामले में, अपनाई गई प्रक्रिया उचित नहीं थी, जिसके परिणामस्वरूप भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन हुआ।

सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि यदि सरकार कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को छीन लेती है, अर्थात यदि कारावास उचित प्रक्रिया का पालन करके किया गया है, तो इसे अनुच्छेद 14, 19 का उल्लंघन नहीं माना जाएगा, और कोर्ट ने इस मामले में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 की एक संकीर्ण व्याख्या की। कोर्ट ने इस मामले में अनुच्छेद 21 को बहुत ही शाब्दिक रूप से लिया और फैसला सुनाया कि कानून द्वारा स्थापित अभिव्यक्त (एक्सप्रेशन) प्रक्रिया यह दर्शित करती है कि क़ानून में स्थापित एक प्रक्रिया जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को छीन सकती है।

हालांकि इस मामले में जस्टिस फजल अली ने असहमति जताई थी, उन्होंने कहा कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया शब्द का अर्थ कानून की उचित प्रक्रिया भी है, जो यह दर्शाता है कि किसी को भी सुनवाई के अवसर के बिना नहीं छोड़ा जाना चाहिए यानी ऑडी अल्टरम पार्टम (कोई भी व्यक्ति अनसुना नहीं छोड़ा जाएगा) क्योंकि यह नैसर्गिक (नेचुरल) न्याय के महत्वपूर्ण सिद्धांतों में से एक है।

सतवंत सिंह साहनी बनाम डी. रामारत्नम (1967) में न्यायालय ने निर्धारित किया कि किसी व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता से वंचित करने के लिए अनुच्छेद 21 के तहत स्थापित प्रक्रिया की वैधता और निष्पक्षता की जांच के लिए अनुच्छेद 14 के तहत जांच की जानी चाहिए। इस निर्णय ने कानूनी व्यवस्था में एक नया चलन शुरू किया, जिसकी पुष्टि आर.सी. कूपर बनाम भारत संघ (1970), जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि अनुच्छेद 21 के तहत अपनाई जाने वाली प्रक्रिया उचित होनी चाहिए।

1975 में, जब एक राष्ट्रीय आपातकाल लगाया गया, तो न्यायालय अपने ही निर्णय के विरुद्ध चला गया। एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला (1976) के मामले में कोर्ट ने आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (मीसा), 1971 के तहत नजरबंदी को बरकरार रखा, जबकि अनुच्छेद 21 को पूरी तरह से खारिज कर दिया। कोर्ट ने फैसला सुनाया कि आपातकाल के दौरान, अनुच्छेद 21 को निलंबित माना जाता है (पुट्टास्वामी मामले के निर्णय से विपरीत)। तो, इस मामले में, न्यायालय केवल कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के शाब्दिक अर्थ को देखेगा। न्यायालय ने यह स्वीकार नहीं किया कि सरकार का कार्य (मीसा, 1971) न्यायसंगत, निष्पक्ष या उचित था।

मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) के मामले में, मेनका गांधी का पासपोर्ट, पासपोर्ट अधिनियम, 1967 के प्रावधानों के तहत अधिकारियों द्वारा हिरासत में लिया गया था। याचिकाकर्ता अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में गई और तर्क दिया कि सरकार के अधिनियम उसका पासपोर्ट जब्त करना अनुच्छेद 21 के तहत उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का स्पष्ट उल्लंघन था। इस निर्णय ने अनुच्छेद 21 के दायरे का विस्तार किया और हमारे देश को एक कल्याणकारी (वेलफेयर) राज्य बनाने के उद्देश्य को पूरा किया, जैसा कि प्रस्तावना (प्रिएंबल) में उल्लेख किया गया है। न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया निष्पक्ष, न्यायसंगत और उचित होनी चाहिए। न्यायालय ने कहा कि किसी व्यक्ति को उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित करने के लिए कानून द्वारा निर्दिष्ट प्रक्रिया विवेकाधीन, सनकी और दमनकारी के बजाय उचित और निष्पक्ष होनी चाहिए।

मेनका गांधी के फैसले के बाद 

मैथ्यूज बनाम एल्ड्रिज (1976) के मामले में, यूनाइटेड स्टेट्स सुप्रीम कोर्ट ने यह आकलन करने के लिए ट्रिपल टेस्ट की स्थापना की, कि क्या कानून व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है या नहीं। एक कानून को वैध कानून बनने के लिए तीन परीक्षणों को पूरा करना पड़ता है। मेनका गांधी के फैसले के बाद, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस परीक्षण को अपनाया। तीन परीक्षण इस प्रकार हैं:

  1. क्या कोई मौजूदा प्रावधान है जो राज्य को किसी व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता से वंचित करने की अनुमति देता है;
  2. क्या संसद जिसने संबंधित कानून पारित किया है, उसे ऐसा करने का अधिकार है;
  3. क्या विधानसभा ने कानून पारित करते समय उचित प्रक्रिया को पूरा किया।

यदि कोई कानून उपरोक्त किसी भी शर्त को पूरा करने में विफल रहता है, तो इसे राज्य का एक मनमाना कार्य माना जाएगा।

निष्कर्ष

मेनका गांधी मामले से पहले, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 की सीमा बहुत सीमित थी। हालांकि, मेनका गांधी मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने यह घोषित करके भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के दायरे को विस्तृत किया कि कानून की उचित प्रक्रिया कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया का एक अंतर्निहित तत्व है। इसके अलावा, किसी व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता को तभी छीना जा सकता है जब निम्नलिखित आवश्यकताएं पूरी हों:

  • कानून वैध होना चाहिए।
  • एक उचित प्रक्रिया होनी चाहिए।
  • वह प्रक्रिया न्यायसंगत, निष्पक्ष और मनमानी नहीं होनी चाहिए।

यदि कानून द्वारा प्रदान की गई प्रक्रिया तुच्छ, दमनकारी या अनुचित है, तो इसे बिल्कुल भी प्रक्रिया नहीं माना जाना चाहिए। प्राकृतिक न्याय के विचार का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक प्रणाली को उचित या न्यायसंगत होना चाहिए। प्राकृतिक न्याय कानून में न्याय स्थापित करना चाहता है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

भारत में वास्तव में कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया या कानून की उचित प्रक्रिया के रूप में क्या अभ्यास किया जाता है? 

1978 से, भारतीय न्यायपालिका में जब भी किसी व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा की बात आती है, तो कानून द्वारा स्थापित शब्द प्रक्रिया को कानून की उचित प्रक्रिया के समान बनाने का प्रयास किया है। मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) के फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि अनुच्छेद 21 के तहत कानून द्वारा स्थापित एक प्रक्रिया “न्यायपूर्ण, निष्पक्ष और उचित” और “अनुचित, काल्पनिक या मनमानी नहीं” होनी चाहिए। इस प्रकार, भारत में, कानून द्वारा स्थापित वाक्यांश प्रक्रिया ने संयुक्त राज्य अमेरिका में कानून की नियत प्रक्रिया के समान महत्व प्राप्त किया है।

प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत क्या है?

प्राकृतिक न्याय एक मौलिक विचार है जिसमें कहा गया है कि सभी लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार किया जाना चाहिए। यह अवधारणा अनिवार्य करती है कि निर्णय बिना किसी पूर्वाग्रह के तय किए जाएं और सभी संबंधित पक्षों को सुनवाई का समान अवसर दिया जाना चाहिए।

किस देश में कानून द्वारा स्थापित एक प्रक्रिया है?

कानून द्वारा स्थापित वाक्यांश प्रक्रिया जापानी संविधान के अनुच्छेद 31 से उधार ली गई प्रतीत होती है।

कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया किसने शुरू की?

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत कानून की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) ने कानून की उचित प्रक्रिया और कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बीच अंतर को सामने लाया और स्थापित किया।

संदर्भ

 

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