यह लेख गवर्नमेंट लॉ कॉलेज तिरुवनंतपुरम के Sourabh C.Valson द्वारा लिखा गया है, और इस लेख में वह लोकस स्टैंडी की अवधारणा (कांसेप्ट) और भारत में जनहित याचिका (पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन) के विकास पर चर्चा करते है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
जनहित याचिका (पी.आई.एल.), एक समुदाय (कम्युनिटी) के अधिकारों के निवारण (रिड्रेसल) और प्रवर्तन (इंफोर्समेंट) के लिए कोर्ट्स के समक्ष उपलब्ध एक उपाय (रेमेडी) है। मानव अधिकारों (ह्यूमन राइट्स) की यूनाइटेड नेशंस डिक्लेरेशन के बाद, मानव अधिकारों को विश्व स्तर पर मान्यता मिली है। मानव अधिकारों का प्रवर्तन, दुनिया भर में चर्चा और बहस का सबसे महत्वपूर्ण विषय बन गया है क्योंकि बहुत से लोग बुनियादी (बेसिक) जरूरतों की कमी के कारण पीड़ित हैं। यह मुद्दा अकेले किसी एक देश का नहीं है बल्कि विश्व स्तर पर एक मुद्दा बना हुआ है और इसे हल करने के लिए सहकारी प्रयासों (को-ऑपरेटिव एफर्ट्स) की आवश्यकता है।
इतिहास (हिस्ट्री)
पहले के समय में, भारत में मुकदमेबाजी (लिटिगेशन) करना, एक महंगा मामला था। केवल निजी व्यक्ति (प्राइवेट इंडिविजुअल) अपने अधिकारों के प्रवर्तन या अपने हितों (इंटरेस्ट) की रक्षा के लिए मुकदमेबाजी करते थे। इस प्रक्रिया (प्रोसेस) में, पीड़ित पक्ष मुकदमा दायर करते थे या गलत करने वाले के खिलाफ उनके मुद्दों और शिकायतों के निवारण के लिए कार्रवाई शुरू करते थे। इसलिए, व्यक्ति अपने सीमित संसाधनों (लिमिटेड रिसोर्सेज) के साथ मुकदमेबाजी का विकल्प चुनते थे।
नागरिकों के कुछ वर्गों द्वारा या यहां तक कि बड़े पैमाने पर जनता द्वारा, सामना की जाने वाली शिकायतों और मुद्दों को कम करने या उन पर चर्चा करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया था। न्यायपालिका (ज्यूडिशियरी), नागरिकों के मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) की रक्षक होने के कारण इन मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मौलिक अधिकारों के उल्लंघन (वॉयलेशन) को सुनिश्चित करने और उन्हें रोकने के लिए कानून और प्रशासनिक निर्णयों (एडमिनिस्ट्रेटिव डिसीजंस) या कार्यों की समीक्षा (रिव्यू) करने की शक्ति न्यायपालिका को प्रदान की गई है।
यदि कोई कार्य किसी नागरिक के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है, तो उसे उपाय के लिए, सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के समक्ष एक रिट याचिका (पिटीशन) दायर करने का विकल्प दिया जाता है। यह सुनने में जितना आसान लग सकता है, लेकिन मुकदमेबाजी से जुड़ी कठीन और जटिल (कॉम्प्लेक्स) प्रक्रिया, हाशिए (मार्जिन) पर पड़े लोगों और अनप्रीविलेज्ड लोगों के लिए न्याय तक पहुंचना असंभव नहीं लेकिन मुश्किल बना देती है।
सभी नागरिकों के लिए न्याय को अधिक सुलभ (एक्सेसिबल) बनाने के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिका की अवधारणा को स्वीकार किया था। जनहित याचिका ने सभी क्षेत्रों के लोगों को अपने मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए कोर्ट्स का दरवाजा खटखटाने की अनुमति दी। सामाजिक कल्याण समूह (सोशल वेलफेयर ग्रुप), सामाजिक कार्यकर्ता (सोशल एक्टिविस्ट), और कोई भी सार्वजनिक-उत्साही (पब्लिक स्पिरिटेड) व्यक्ति भी जनता के व्यापक (ब्रॉडर) हितों का प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंट) करके कोर्ट्स का दरवाजा खटखटा सकते हैं।
लोकस स्टैंडी
लोकस स्टैंडी का अर्थ है कोर्ट्स पर मुकदमा चलाने या उनसे संपर्क करने की कानूनी क्षमता (कैपेसिटी) होना। जिज्ञासु (इनक्विसिटोरियल) और प्रतिकूल (एडवरसेरियल) प्रणाली (सिस्टम) दोनों के तहत, कोर्ट्स का दरवाजा खटखटाने वाले पक्ष, अपने अधिकारों से पीड़ित या वंचित (डिप्राइव) रहे होंगे। इस प्रकार, किसी भी कानूनी प्रक्रिया में, लोकस स्टैंडी का अस्तित्व (एक्सिस्टेंस) आवश्यक है।
जनहित याचिका, मुकदमेबाजी के सामान्य तरीके से अलग है। पारंपरिक (ट्रेडिशनल) मुकदमेबाजी में लोकस स्टैंडी अनिवार्य है, लेकिन जनता के मुद्दों के बारे में एक वास्तविक हित या वैध (लेजिटिमेट) चिंता, एक जनहित याचिका में स्थानीय (लोकल) स्टैंड के विकल्प के रूप में कार्य करती है।
इसलिए, लोकस स्टैंडी उस व्यक्ति की स्थिति है जिसमें कानूनी कार्रवाई का अधिकार निहित (वेस्टेड) है। इस प्रकार, लोकस स्टैंडी के सिद्धांत (प्रिंसिपल) के अनुसार, कोई भी पीड़ित व्यक्ति उपचार के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है। हाशिए पर और अनप्रीविलेज्ड लोगों के अधिकारों और मुद्दों पर विचार करके मुकदमेबाजी के दायरे का विस्तार करने के लिए, एक जनहित याचिका में लोकस स्टैंडी को शिथिल (रिलैक्स) और लचीला (फ्लेक्सिबल) बनाया गया है।
संवैधानिक प्रावधान (कांस्टीट्यूशनल प्रोविजंस)
एक नागरिक को संविधान के भाग (पार्ट) III के तहत प्रदान किए गए अपने मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए आर्टिकल 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने का अधिकार दिया गया है। आर्टिकल 32 को संविधान के दिल और आत्मा के रूप में जाना जाता है। भाग III के तहत अधिकार बिना किसी अर्थ के होंगे यदि उन्हें लागू नहीं किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट एक कानून को अल्ट्रा वायर्स घोषित कर सकता है, यदि वह भाग III के तहत दिए गए अधिकारों के साथ असंगत (इनकंसिस्टेंट) है। सुप्रीम कोर्ट नागरिकों के अधिकारों को लागू करने के लिए आदेश या निर्देश या रिट जारी कर सकता है जैसे हेबियस कॉरपस, सर्शियोरारी, मैंडेमस, प्रोहिबिशन, और क्यो वारंटो है।
मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए रिट या निर्देश या आदेश जारी करने के लिए आर्टिकल 226 के तहत हाई कोर्ट को भी इसी तरह का अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिकशन) प्रदान किया गया है। मौलिक अधिकार का उल्लंघन होने पर ही नागरिक, आर्टिकल 32 का लाभ उठा सकता है। हालांकि, आर्टिकल 226 न केवल मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए बल्कि अन्य उद्देश्यों के लिए भी उपलब्ध है। इसलिए, आर्टिकल 32 के तहत शक्ति आर्टिकल 226 के तहत शक्तियों की तुलना में अधिक प्रतिबंधित (रिस्ट्रिक्टेड) है।
इसलिए, कोई भी नागरिक आर्टिकल 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट के समक्ष या आर्टिकल 226 के तहत हाई कोर्ट के समक्ष एक जनहित याचिका दायर कर सकता हैं। पीड़ित पक्ष को आर्टिकल 32 के तहत, अधिकार को लागू करने के लिए कोर्ट के समक्ष पेश होने की आवश्यकता नहीं है। कोर्ट के पास अपने आप ही किसी भी मामले में कॉग्निजेंस लेने और उसके साथ आगे बढ़ेने की शक्ति है। इसके अलावा, कोर्ट्स के पास, किसी भी मामले को निजी हित (प्राइवेट इंटरेस्ट) के साथ सार्वजनिक रूप से मामले में निर्णय देने की शक्ति भी है।
साथ ही, आर्टिकल 39A के तहत राज्यों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कानूनी व्यवस्था का संचालन (ऑपरेशन) सभी नागरिकों के लिए समान रूप से न्याय और निष्पक्षता (फेयरनेस) को बनाए रखता है और आर्थिक (इकोनॉमिक) और सामाजिक रूप से पिछड़े नागरिकों को मुफ्त कानूनी सहायता (फ्री लीगल एड) प्रदान करने वाली सेवाओं की स्थापना (एस्टेब्लिशमेंट) और कार्य करता है। राज्य इसे सुनिश्चित करने के लिए कानून भी पास कर सकता है। इस प्रकार, आर्टिकल 39A की जड़ भी जनहित याचिका को अनिवार्य करती है, जो सभी के लिए समान रूप से न्याय की मांग करती है।
भारत में जनहित याचिका से संबंधित महत्वपूर्ण मामले
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विशाखा बनाम स्टेट ऑफ़ राजस्थान
इस मामले ने, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न अधिनियम (सेक्शुअल हैरेसमेंट एट वर्कप्लेस एक्ट), 2013 को अधिनियमित (इनैक्ट) करने के लिए संसद को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस मामले में, प्रतिशोध (वेंजनेंस) के लिए एक सामाजिक कार्यकर्ता के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था। ट्रायल कोर्ट ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया था। राज्य ने विशाखा नाम के तहत सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका के लिए आवेदन किया और फिर कोर्ट ने यौन उत्पीड़न (सेक्शुअल हैरेसमेंट) को रोकने के लिए कार्यस्थलों पर पालन करने के लिए दिशा निर्देश (गाइडलाइंस) निर्धारित (ले डाउन) किए थे।
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फर्टिलाइजर कार्पोरेशन कामनगर यूनियन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया
इस मामले में, कोर्ट ने कहा कि; जब अधिकारी तंत्र (ब्यूरोक्रेसी) की शक्ति बढ़ती है, तो कानूनी स्थिति का दुरुपयोग होना बहुत संभव है। न्याय के दायरे (स्कोप) का विस्तार करने के लिए, लोकस स्टैंडी का विस्तार और लचीलापन ही एकमात्र समाधान है।
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मुंबई कामगार सभा बनाम अब्दुल थाई
इस मामले में, मुद्दा एक उद्योग (इंडस्ट्री) में कामगारों (वर्कर्स) को बोनस के भुगतान का था। न्यायमूर्ति वी.आर कृष्ण अय्यर ने कहा; जब कई लोगों के समान व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो कोर्ट्स का दरवाजा खटखटाने का अधिकार हमारे सामाजिक-आर्थिक संदर्भ (कंटेक्स्ट) में उपयुक्त उपाय है।
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हुसैनारा खातून बनाम स्टेट ऑफ़ बिहार
यह मामला, जेल और विचाराधीन (अंडर ट्रायल) कैदियों की कठोर परिस्थितियों से संबंधित था। एक वकील ने आर्टिकल 32 के तहत विचाराधीन कैदियों की खराब स्थिति और उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करने में असमर्थता (इनेबिलिटी) का वर्णन करते हुए एक याचिका दायर की। कोर्ट ने माना कि त्वरित सुनवाई (स्पीडी ट्रायल) का अधिकार आर्टिकल 21 के तहत जीवन के अधिकार का एक हिस्सा है।
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एस.पी. गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया
इस मामले में, न्यायाधीशों की नियुक्ति (अपॉइंटमेंट) के संबंध में वकीलों के एक समूह ने संविधान के आर्टिकल 226 के तहत एक रिट याचिका दायर की। याचिका को अनुमति दी गई क्योंकि वकीलों की, मामलों के निपटान और न्यायाधीशों की नियुक्ति में वास्तविक रुचि थी। इस मामले ने भारत में जनहित याचिका के लिए एक नए युग की शुरुआत की थी। जनहित याचिका, सार्वजनिक कर्तव्य (पब्लिक ड्यूटी) को लागू करने के सबसे प्रभावी साधनों में से एक बन गई, जिसे पहले अवैध रूप से निष्पादित (एक्जीक्यूट) किया गया था, जिससे समाज को हानि पहुंची थी।
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बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया
इस मामले में, बंधुआ मजदूरों (बॉन्डेड लेबर) की एक संस्था (आर्गेनाइजेशन) ने बंधुआ मजदूरों को रिहा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। कोर्ट ने जनहित याचिका को प्रतिकूल मुकदमेबाजी (एडवर्सरी लिटिगेशन) से अलग किया और कहा कि जनहित याचिका का उद्देश्य सरकार को, संविधान के अनुसार मौलिक अधिकारों को सार्थक (मीनिंगफुल) बनाने की अनुमति देना है।
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पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया
इस मामले में, अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए समर्पित (डेडीकेटेड) एक संगठन ने आर्टिकल 32 के तहत एक रिट याचिका दायर कर, एशियाड परियोजना (प्रोजेक्ट) के लिए स्टेडियमों के निर्माण के दौरान श्रम कानूनों (लेबर लॉज) के उल्लंघन की शिकायत की थी। न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती ने कहा कि सामान्य मुकदमेबाजी की तुलना में जहां केवल एक व्यक्ति के अधिकारों पर विचार किया जाता है, एक जनहित याचिका उन व्यक्तियों के वर्ग (क्लास) के अधिकारों को लागू करने के लिए दायर की जाती है, जिनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है।
हाल के दिनों में, जनहित याचिका के दायरे का विस्तार हुआ है और अभी भी उसका विस्तार हो रहा है। जनहित याचिका अब न केवल गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों के मुद्दों को संबोधित (एड्रेस) करने के लिए है बल्कि सामाजिक मुद्दों के समाधान के लिए भी एक उपकरण (टूल) है। हालांकि, लोकस स्टैंडी की पारंपरिक परिभाषा के तहत, सार्वजनिक महत्व की समस्याएं और मुद्दे कानून की कोर्ट में लागू करने योग्य नहीं थे।
वर्तमान में, जनहित याचिका समाज को प्रभावित करने वाली प्रशासनिक समस्याओं, सामाजिक-आर्थिक समस्याओं, अधिकारियों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग, श्रम अधिकारों और पर्यावरण से संबंधित समस्याओं जैसे विभिन्न मुद्दों से संबंधित है।
हालांकि, एक जनहित याचिका का उद्देश्य जनता के बारे में चिंताओं को दूर करना है, लेकिन व्यक्ति अपने स्वार्थी लक्ष्यों को पूरा करने के लिए जनहित याचिका को एक कवर के रूप में उपयोग करते हैं। याचिकाकर्ता (पेटिशनर) को जनता के हित को ध्यान में रखते हुए, अच्छी नियत रख कर कार्य करना चाहिए न कि अपने राजनीतिक, आर्थिक या व्यक्तिगत उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए कार्य करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार चेतावनी दी है कि जनहित याचिका का इस्तेमाल ध्यान और सावधानी से किया जाना चाहिए। कोर्ट, एक जनहित याचिका को दाखिल करने में अनुचित देरी होने पर उसे स्वीकार करने से इनकार कर सकती हैं। सरकार द्वारा गैर-जिम्मेदारी और जवाबदेही की कमी के कारण भारत में जनहित याचिका लगातार फल-फूल रही है।
भारत में जनहित याचिका का दायरा (स्कोप)
प्रारंभ में, केवल हेबियस कॉरपस से संबंधित याचिकाओं को जनहित याचिका की विषय वस्तु (सब्जेक्ट मैटर) के रूप में मान्यता दी गई थी। अब जनहित याचिका का दायरा सार्वजनिक महत्व के कई मुद्दों तक फैला हुआ है, जैसे की:
- बाल शोषण (चाइल्ड अब्यूज) और बाल श्रम
- उपेक्षित (नेगलेक्टेड) बच्चों के मामले
- बंधुआ मजदूरी के मामले
- महिला पर अत्याचार (एट्रोसिटीज), बलात्कार के मामले, अपहरण और हत्या के मामले
- कामगारों को न्यूनतम (मिनिमम) मजदूरी देने से इंकार करना
- समाज के सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों- विशेषकर बच्चों और महिलाओं का उत्पीड़न
- पुलिस के खिलाफ शिकायत
- पर्यावरण संरक्षण (प्रोटेक्शन) से संबंधित मामले
जनहित याचिका की कमियां
- व्यक्तियों के स्वार्थी और व्यक्तिगत उद्देश्यों को पूरा करने के लिए जनहित याचिका का दुरुपयोग और तुच्छ (ट्राइवल) याचिका दायर करना। कोर्ट्स ने यह स्पष्ट रूप से बोल दिया है कि यह व्यक्तिगत हित याचिका नहीं है बल्कि जनता के लाभ के लिए याचिका है।
- गरीबों, जरूरतमंदों और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के मामलों के निपटान में अनुचित देरी, जनहित याचिका के उद्देश्य को विफल करती है।
- कोर्ट, प्रतिस्पर्धी अधिकारों (कंपेटिंग राइट्स) की समस्या को अनदेखा कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई कोर्ट प्रदूषणकारी रासायनिक कारखाने (पॉल्यूटिंग केमिकल फैक्ट्री) को बंद करने का आदेश देती है, तो यह आजीविका (लाइवलीहुड) के नुकसान के कारण कारखाने में श्रमिकों के अधिकारों का उल्लंघन करेगी।
- सामाजिक-आर्थिक महत्व या पर्यावरणीय समस्याओं के मुद्दों का निर्धारण (डिटरमाइन) करते समय, एक मौका है कि कोर्ट जनहित याचिकाओं के माध्यम से अनजाने में न्यायिक अतिक्रमण (जुडिशियल ओवररीच) कर सकती हैं।
- लोकस स्टैंडी के अर्थ में विस्तार के साथ, कई लोग विभिन्न उद्देश्यों के लिए जनहित याचिका दायर करते हैं, जिससे कोर्ट्स पर मामलों का बोझ बढ़ जाता है।
जटिल अन्वेषण (क्रिटिकल एनालिसिस)
जनहित याचिका, न्यायिक सक्रियता (ज्यूडिशियल एक्टिविज्म) का एक परिणाम है। जनहित याचिका के पीछे एकमात्र उद्देश्य, न्यायपालिका को समाज के उस वर्ग की जरूरतों के प्रति अधिक उत्तरदायी बनाना है जो आमतौर पर अपनी शिकायतों के निवारण के लिए कोर्ट्स का दरवाजा नहीं खटखटा सकते हैं। न्यायपालिका इस बदलाव के माध्यम से समाज के लिए एक रक्षक के रूप में कार्य करती है। विधायिका (लेजिस्लेचर), आमतौर पर उन समस्याओं से निपटती है जो जनता से अलग होती हैं और आम लोगों के कल्याण (वेलफेयर) से जुड़ी नहीं होती हैं।
जनहित याचिका ने उन अधिकारों के प्रवर्तन और संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, जिनको आमतौर पर अनदेखा किया जाता है और ऐसा करके न्याय के दुरुपयोग को रोका गया है। जनहित याचिका भारतीय संदर्भ के लिए जरूरी है, जो अन्याय से ग्रसित (रिडन) है। अपनी स्थापना के समय, जनहित याचिका को उत्पीड़न के खिलाफ एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया गया था। इसके बाद, तुच्छ मामलों की एक बड़ी आमद (इनफ्लो) थी, लेकिन इसे एक प्रगति के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि इसका उद्देश्य एक किफायती दर (अफोर्डेबल रेट) पर परिणाम देना है।
हालांकि, जनहित याचिका के कई लाभ हैं, लेकिन कोर्ट्स को जनहित याचिकाओं के माध्यम से निजी हितों को रोकने के लिए सतर्क रहना चाहिए। न्यायपालिका को कार्यपालिका (एग्जीक्यूटिव) और विधायिका के क्षेत्रों का अतिक्रमण करने के लिए जनहित याचिका का उपयोग नहीं करना चाहिए। कोर्ट्स के सामने चुनौती यह है कि एक वैध सार्वजनिक चिंता को स्वीकार करने और तुच्छ याचिकाओं को खारिज करने के बीच संतुलन (बैलेंस) तलाशा करे। इसे सुनिश्चित करने का एक तरीका, कुछ आर्थिक हतोत्साहन (डिसिंसेंटिव) स्थापित करना और केवल उन मामलों की सुनवाई करना है जो मुख्य रूप से असमर्थता के कारण से वर्जित (बारड) हैं।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
जनहित याचिका, जिसे दूसरे नामो से, क्लास लिटिगेशन या सोशल एक्शन लिटिगेशन के रूप में जाना जाता है, मुकदमेबाजी के सामान्य तरीके से अलग है। जनहित याचिका का मुख्य उद्देश्य उन लोगों को न्याय दिलाना है जो सामान्य रूप से इसका उपयोग नहीं कर सकते है। लोकस स्टैंडी के नियम में इसे और अधिक लचीला बनाने के लिए महत्वपूर्ण बदलाव किए गए हैं। अब, कोई भी सामाजिक रूप से उत्साही व्यक्ति, सामाजिक या आर्थिक रूप से पिछड़े समुदाय की शिकायतों या मुद्दों का प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंटेशन) करते हुए एक जनहित याचिका दायर कर सकता है। जनहित याचिका के विकास और वृद्धि के साथ, कमजोर वर्गों के अधिकारों के प्रति सरकार की जवाबदेही और रवैये में भी भारी सुधार देखा गया है। लोकस स्टैंडी के शिथिल नियम और कमजोर वर्गों के प्रति सरकार की जवाबदेही में सुधार ने जनहित याचिका को सामाजिक परिवर्तन के लिए और आर्टिकल 14 के तहत वर्णित कानून के शासन (रूल ऑफ़ लॉ) को मान्य करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी उपकरण बना दिया है।
संदर्भ (रेफरेंसेस)