यह लेख Subhangee Biswas द्वारा लिखा गया है। यह लेख में हिंदू अविभाजित परिवार प्रणाली में पूर्ववर्ती ऋण की अवधारणा की पृष्ठभूमि में देव किशन एवं अन्य, किशन लाल के कानूनी प्रतिनिधि बनाम राम किशन एवं अन्य (2002) के फैसले पर चर्चा की गई है। यह लेख मामले के तथ्यों पर चर्चा करता है, दोनों पक्षों की दलीलें बताता है और इसमें शामिल कानूनों और पूर्ववर्ती मामलो का विस्तार से वर्णन करता है। लेख का समापन निर्णय और मामले के समग्र विश्लेषण के साथ होता है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।
Table of Contents
परिचय
हिंदू कानून में एक पारिवारिक प्रणाली के रूप में हिंदू अविभाजित परिवार में एक सामान्य पूर्वज और उसके पुरुष वंशज, उनकी पत्नियां, बच्चे और अविवाहित बेटियां शामिल होती हैं। परिवार के मुखिया को कर्ता कहा जाता है, जो परिवार के सभी निर्णय लेता है। परिवार के सदस्य भी सहदायिक होते हैं (अर्थात् वे हिंदू अविभाजित परिवार के सदस्य होते हैं, जिनका जन्म से ही पैतृक संपत्ति में हिस्सा होता है)। हिंदू कानून के तहत संयुक्त परिवार की संपत्ति में हिस्सा रखने वाले सहदायिक (कोपार्सनर)और संदायादता (कोपार्सनरी) के बारे में अधिक जानने के लिए यहां क्लिक करें)
हिंदू कानून में, अपना कर्ज चुकाना एक धार्मिक, नैतिक और कानूनी कर्तव्य माना जाता है। यदि कोई अपना कर्ज नहीं चुकाता है तो इसे पाप माना जाता है और कहा जाता है कि इसका परिणाम अगले जन्म में भुगतना पड़ता है। एक परिवार का कर्ता विभिन्न कारणों से ऋण ले सकता है; उदाहरण के लिए, कर्ता द्वारा परिवार के लाभ के लिए या घर की बेटियों की शादी के लिए ऋण लिया जा सकता है। यदि कर्ता ऐसे ऋणों का भुगतान करने में विफल रहता है, तो उन्हें चुकाने का दायित्व वैध कानूनी उत्तराधिकारियों पर होता है।
एक ‘कर्ता’ को संयुक्त परिवार की संपत्ति की बिक्री या बंधक (मॉर्टगेज) रखने से प्रतिबंधित किया जाता है, जब तक कि ऐसा बंधक या बिक्री किसी कानूनी आवश्यकता, संयुक्त परिवार की संपत्ति के लाभ या किसी धार्मिक दायित्व द्वारा समर्थित न हो। “कानूनी आवश्यकता” की श्रेणी में एक अपवाद है, जो कि पूर्ववर्ती ऋण (एंटीसेडेंट डेब्ट) है। यदि कर्ता संयुक्त परिवार की संपत्ति को सुरक्षित करने के लिए धन उधार लेता है और फिर बाद में उसे बंधक रख देता है, तो पहला ऋण पूर्ववर्ती ऋण बन जाता है। इससे सम्पूर्ण सम्पत्ति के साथ-साथ पुत्रों का हित भी जुड़ जाता है।
देव किशन एवं अन्य, किशन लाल के कानूनी प्रतिनिधि बनाम राम किशन एवं अन्य (2002) के मामले में पूर्ववर्ती ऋण की अवधारणा और परिवार के पूर्ववर्ती सदस्यों द्वारा लिए गए ऋणों का भुगतान करने के लिए सहदायिकों के दायित्व पर प्रकाश डाला गया था। यह मामला इस बात पर चर्चा करने के लिए आगे बढ़ता है कि ऋण की प्रकृति का महत्व क्या है, ताकि यह तय किया जा सके कि क्या उत्तरदायित्व उत्तराधिकारियों पर लागू होता है। ऋण की वैधता या नैतिकता भी इसे तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। वर्तमान मामले में, कर्ता ने अपने तीन नाबालिग बच्चों की शादी का खर्च वहन करने के कथित उद्देश्य से अपने संयुक्त परिवार की संपत्तियों को गिरवी रखा था और बेचा था। बाद में, बेटे द्वारा इस बिक्री को सिविल न्यायाधीश, बीकानेर की अदालत के समक्ष इस आधार पर चुनौती दी गई कि बिक्री विलेख के लिए कर्ता की सहमति खरीदार द्वारा अनुचित प्रभाव से प्राप्त की गई थी और इसमें कानूनी आवश्यकता का अभाव था, जिसके कारण बिक्री विलेख शून्य हो गया और उन पर बाध्यकारी नहीं रहा। इसके परिणामस्वरूप मुकदमा दायर किया गया। आइये मामले से संबंधित सभी धाराओं पर विस्तार से चर्चा करें।
विवरण
- मामले का नाम: देव किशन एवं अन्य, किशन लाल के कानूनी प्रतिनिधि बनाम राम किशन एवं अन्य (2002)
- समतुल्य उद्धरण: आरएलडब्ल्यू 2003 (2) आरएजे 1250; 2002 (4) डब्ल्यूएलसी 130; 2002 (4) डब्ल्यूएलएन 481।
- इसमें शामिल कानून: पूर्ववर्ती ऋण का नियम।
- अपीलकर्ता: किशन लाल, उनके निधन के बाद उनके कानूनी उत्तराधिकारियों द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया।
- प्रतिवादी: राम किशन, कैलाश, मदन लाल, लक्ष्मी चंद, मेघ राज और बद्री दास।
- न्यायालय: राजस्थान उच्च न्यायालय।
- पीठ: न्यायमूर्ति सुनील कुमार गर्ग।
- निर्णय की तारीख: 06 मई 2002।
- अंतिम निर्णय: राजस्थान उच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता की दूसरी अपील को खारिज कर दिया और निचली अदालतों के फैसले को बरकरार रखा।
मामले के तथ्य
पृष्ठभूमि
18 मार्च, 1969 को राम किशन और कैलाश (मूल मुकदमे में वादी और वर्तमान अपील में प्रतिवादी, आगे प्रतिवादी के रूप में संदर्भित) ने किशन लाल (मूल मुकदमे में प्रतिवादी और वर्तमान अपील में अपीलकर्ता, आगे अपीलकर्ता के रूप में संदर्भित) के खिलाफ और मदन लाल, लक्ष्मी चंद, मेघ राज और बद्री दास (आगे प्रतिवादी संख्या 2 से 5 के रूप में संदर्भित) के खिलाफ सिविल न्यायाधीश, बीकानेर की अदालत में मुकदमा दायर किया। शिकायत में उन्होंने प्रार्थना की कि प्रतिवादियों और प्रतिवादी संख्या 2 से 5 के विरुद्ध 12 मई, 1967 की बिक्री को शून्य घोषित किया जाए।
विद्वान मुंसिफ, बीकानेर के समक्ष कार्यवाही
दिनांक 18 मार्च 1969 के मुकदमे में प्रतिवादियों द्वारा मूल शिकायत में उल्लिखित विवरण
प्रतिवादीगण, तथा प्रतिवादी संख्या 2 से 5, संयुक्त हिन्दू परिवार के सदस्य थे। परिवार का कर्ता मदन लाल (प्रतिवादी संख्या 2) था। यह आरोप लगाया गया है कि मदन लाल अपीलकर्ता किशन लाल के प्रभाव में था। वहां दो मकान थे, जो दोनों ही उनके परिवार की संयुक्त संपत्ति थी।
जनवरी 1969 में प्रतिवादियों को पता चला कि मदन लाल (प्रतिवादी संख्या 2) ने 12 मई 1967 को पंजीकृत विक्रय विलेख के माध्यम से दोनों मकान अपीलकर्ता किशन लाल को बेच दिए थे। प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा आरोपित मूल्य 2,000 रुपये था, जबकि प्रतिवादियों ने आरोप लगाया कि दोनों मकानों का मूल्य 16,000 रुपये था। उन्होंने आगे बताया कि 12 मई 1967 के विक्रय विलेख पर प्रतिवादी संख्या 3 से 5 के हस्ताक्षर प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा अनुचित प्रभाव डालकर प्राप्त किए गए थे। इसके अलावा, यह आरोप लगाया गया कि प्राप्त राशि को प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा अन्य सदस्यों के बीच वितरित नहीं किया गया।
इसके बाद प्रतिवादीगण अपीलकर्ता के पास पहुंचे और दस्तावेज दिखाने की मांग की। शुरुआत में अपीलकर्ता ने नजरअंदाज किया लेकिन फिर प्रतिवादियों को निम्नलिखित दो दस्तावेज दिखाए:
- विक्रय विलेख, दिनांक 12 मई 1967,
- बंधक विलेख दिनांक 19 मई 1964 का था, जिसमें 6 दिसम्बर 1962 का एक अन्य बंधक विलेख भी उल्लेखित था।
प्रतिवादियों ने आरोप लगाया कि प्रतिवादी संख्या 2, अर्थात् ‘कर्ता’ मदन लाल ने अपीलकर्ता, अर्थात् किशन लाल के प्रभाव में आकर निम्नलिखित कृत्य किए:
- 6 दिसंबर, 1962 को उपर्युक्त बंधक विलेख के माध्यम से 500 रुपये के प्रतिफल पर दोनों मकानों को अपीलकर्ता के पक्ष में बंधक रखा गया।
- इसके अलावा, अपीलकर्ता के पक्ष में उक्त सम्पत्तियों को 19 मई, 1964 को उपर्युक्त बंधक विलेख के माध्यम से 900 रुपये के प्रतिफल पर बंधक रख दिया गया।
- अपीलार्थी के पक्ष में दिनांक 12 मई 1967 को उपर्युक्त विक्रय विलेख निष्पादित किया गया।
इसके अलावा, चूंकि संपत्तियां अपीलकर्ता (किशन लाल) को बेची गई थीं, इसलिए संयुक्त हिंदू परिवार के परिवार के सदस्य, यानी, प्रतिवादी और प्रतिवादी संख्या 2 से 5, जो संपत्तियों में रह रहे थे, अपीलकर्ता के किरायेदार बन गए और इस प्रकार, प्रतिवादी संख्या 2 (मदन लाल) और अपीलकर्ता के बीच उस उद्देश्य के लिए एक किराया विलेख भी निष्पादित किया गया।
प्रतिवादियों ने दावा किया कि चूंकि प्रतिवादी संख्या 2 ने अपीलकर्ता के प्रभाव में रहते हुए विक्रय विलेख निष्पादित किया था, इसलिए इसे प्रतिवादियों और प्रतिवादी संख्या 2 से 5 के हितों के विरुद्ध शून्य घोषित किया जाना चाहिए।
इसके अलावा, उन्होंने यह भी दावा किया कि किरायानामा भी निरस्त घोषित किया जाना चाहिए। प्रतिवादियों ने विभिन्न कारण बताए और एक कारण यह था कि प्रतिवादी संख्या 2 की ओर से अपीलकर्ता के पक्ष में संपत्ति गिरवी रखने या बेचने की कोई कानूनी आवश्यकता नहीं थी। प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि किसी कानूनी आवश्यकता के अभाव के बावजूद, यदि संपत्ति किसी अवैध या अनैतिक उद्देश्य के लिए बेची गई, तो विलेखों का उन पर कोई बाध्यकारी प्रभाव नहीं होगा।
दिनांक 18 मार्च 1969 को अपीलकर्ता द्वारा दायर लिखित बयान में उल्लिखित आरोप
अपीलकर्ता किशन लाल ने 4 अगस्त 1969 को एक लिखित बयान दायर किया। अपने लिखित बयान में उन्होंने तर्क दिया कि परिवार के कर्ता, प्रतिवादी संख्या 2 ने परिवार से संबंधित कुछ कानूनी आवश्यकता के लिए उनसे ऋण लिया था। इसलिए, ऋण को “पैतृक ऋण” माना जाना चाहिए, जो प्रतिवादियों और प्रतिवादी संख्या 2 से 5 को अपीलकर्ता को वापस भुगतान करने के लिए उत्तरदायी बनाता है।
अपीलकर्ता ने प्रतिवादी संख्या 2 पर इस पक्ष द्वारा किसी भी अनुचित प्रभाव के अस्तित्व से भी इनकार किया था। उन्होंने किसी भी अवैध या अनैतिक लेनदेन की घटना से भी इनकार किया।
उन्होंने यह भी दावा किया कि 6 दिसंबर, 1962 की बंधक विलेख के अनुसार, यह स्पष्ट था कि संयुक्त परिवार की संपत्तियों को प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा अपीलकर्ता के पक्ष में गिरवी रखा गया था, जिसका उद्देश्य प्राप्त राशि से अपनी बेटी विमला का विवाह करना था। इसके अलावा, वही संपत्तियां प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा 19 मई, 1964 को बंधक विलेख द्वारा पुनः अपीलकर्ता के पक्ष में उसकी दो बेटियों विमला और पुष्पा की शादी के लिए बंधक रख ली गईं।
अपीलकर्ता ने निष्कर्ष निकाला कि चूंकि सभी लेन-देन के पीछे कानूनी आवश्यकता मौजूद थी, इसलिए मुकदमा खारिज कर दिया जाना चाहिए।
सिविल वाद संख्या 17/69 (हस्तांतरण के बाद 116/70) में मुंसिफ, बीकानेर का निर्णय
मुंसिफ ने दोनों पक्षों को सुना, अभिलेख पर उपलब्ध सामग्री और साक्ष्य पर विचार किया और 30 सितम्बर, 1977 को अपना फैसला सुनाया। अपने फैसले के माध्यम से, उन्होंने दो मकानों के संबंध में अपीलकर्ता के खिलाफ मुकदमा खारिज कर दिया और प्रतिवादियों और प्रतिवादी संख्या 2 से 5 के खिलाफ किराया विलेख को भी अमान्य घोषित कर दिया।
विद्वान मुंसिफ ने कहा कि तीनों लेन-देन के दौरान प्रतिवादी संख्या 2 ने अपने बच्चों की शादी के लिए पैसा लिया था। 6 दिसंबर, 1962 की पहली बंधक विलेख के लिए प्रतिवादी संख्या 2 ने अपीलकर्ता से उसकी बेटी विमला की शादी के लिए 500 रुपये लिए थे। 19 मार्च, 1964 की तारीख वाले दूसरे बंधक विलेख के लिए प्रतिवादी संख्या 2 ने अपीलकर्ता से उसकी बेटियों विमला और पुष्पा की शादी के लिए 900 रुपये लिए थे। 12 मई, 1967 की तारीख वाले पंजीकृत विक्रय विलेख के लिए प्रतिवादी संख्या 2 ने अपीलकर्ता से उसके पुत्र राम किशन, जो मुंसिफ के समक्ष मुकदमे में वादी में से एक है, के विवाह के लिए विक्रय राशि ली थी।
विद्वान मुंसिफ ने आगे कहा कि तीनों बच्चे अर्थात विमला, पुष्पा और राम किशन, सभी नाबालिग थे जब बंधक विलेख और बिक्री विलेख निष्पादित किए गए थे।
मुंसिफ ने कहा कि प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा लिए गए ऋण को “पूर्ववर्ती ऋण के पुनर्भुगतान के लिए ऋण” नहीं माना जा सकता क्योंकि ऋण का उद्देश्य नाबालिग बेटियों की शादी थी। इसलिए, मुंसिफ ने निष्कर्ष निकाला कि उक्त लेनदेन को पूर्ववर्ती ऋण के भुगतान के लिए लेनदेन नहीं कहा जा सकता।
विद्वान मुंसिफ ने किसी भी कानूनी आवश्यकता के अस्तित्व से इनकार किया क्योंकि प्रतिवादी संख्या 2 ने तीनों बच्चों के विवाह का खर्च नहीं उठाया था। इसके अलावा, बच्चों की शादी का खर्च उठाने के लिए ऋण लेना कोई अनिवार्यता नहीं मानी जा सकती।
मुंसिफ ने विमला और पुष्पा की शादी के समय की उम्र पर भी गौर किया। विमला 12 साल की थी और पुष्पा 8 साल की थी। यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि ऋण उनकी शादी के लिए लिया गया था, क्योंकि उनकी उम्र इतनी कम थी कि उनकी शादी की उम्मीद नहीं की जा सकती थी।
आगे कहा गया कि यदि यह स्वीकार भी कर लिया जाए कि ऋण नाबालिग बच्चों की शादी के उद्देश्य से लिया गया था, तो भी ये लेन-देन, अर्थात् बंधक विलेख और बिक्री विलेख का निष्पादन, शून्य हो जाते हैं, क्योंकि वे सार्वजनिक नीति के विपरीत हैं। बाल विवाह निषेध अधिनियम, 1929 के तहत नाबालिग बच्चों का विवाह निषिद्ध है, इसलिए बाल विवाह पर खर्च की गई कोई भी राशि “कानूनी आवश्यकता” के रूप में स्वीकार नहीं की जा सकती।
विद्वान मुंसिफ ने विक्रय पत्र के निष्पादन की तारीख बताई, जो उसी दिन थी जिस दिन राम किशन का विवाह हुआ था। इसलिए, यह तर्क कि विक्रय विलेख से प्राप्त राशि का उपयोग राम किशन के विवाह के खर्चों को पूरा करने के लिए किया जाना था, तर्कहीन था। इस संबंध में यह माना गया कि प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा दिनांक 12 मई, 1967 के विक्रय विलेख से प्राप्त राशि का उपयोग राम किशन के विवाह के लिए नहीं किया गया था।
यह कहा गया कि नाबालिग बेटियों की शादी की आड़ में 7,000-8,000 रुपये की संपत्ति को मात्र 400-500 रुपये में गिरवी रखना या बेचना विश्वसनीय नहीं है। इसके अलावा, अन्य भाई और नाबालिग बेटियों की मां भी कमाते थे, इसलिए यह दावा स्वीकार नहीं किया जा सकता कि नाबालिग बेटियों की शादी के खर्च के लिए संपत्ति गिरवी रखी गई थी। उपर्युक्त टिप्पणियों पर विचार करते हुए, मुंसिफ ने निम्नलिखित निष्कर्ष निकाला:
- संपत्तियां किसी कानूनी आवश्यकता के लिए गिरवी नहीं रखी गई थीं या बेची नहीं गई थीं।
- कोई पूर्व ऋण नहीं था,
- प्रतिवादी और प्रतिवादी संख्या 2 से 5, 12 मई 1967 की बिक्री विलेख की शर्तों के अंतर्गत उत्तरदायी नहीं थे।
- दिनांक 12 मई, 1967 के विक्रय विलेख को प्रतिवादियों और प्रतिवादी संख्या 2 से 5 के विरुद्ध शून्य और अमान्य घोषित किया जाना था।
विद्वान जिला न्यायाधीश, बीकानेर के समक्ष प्रथम अपील
अपीलकर्ता किशन लाल ने बीकानेर के विद्वान मुंसिफ द्वारा 30 सितम्बर, 1977 को दिए गए निर्णय एवं डिक्री से व्यथित होकर बीकानेर के विद्वान जिला न्यायाधीश के समक्ष प्रथम अपील की थी। अपील को विद्वान सिविल न्यायाधीश के पास हस्तांतरित कर दिया गया।
अपील संख्या 30/77 में सिविल न्यायाधीश, बीकानेर का निर्णय
अपीलकर्ता की अपील को सिविल जज ने 15 सितम्बर, 1980 के अपने निर्णय और डिक्री के माध्यम से खारिज कर दिया, जिसमें विद्वान मुंसिफ के निर्णय और डिक्री को बरकरार रखा गया।
सिविल न्यायाधीश ने माना कि प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा दोनों बंधकों के माध्यम से लिया गया ऋण उसकी दो नाबालिग बेटियों की शादी के उद्देश्य से लिया गया था। ऐसा ऋण सार्वजनिक नीति के विरुद्ध था, क्योंकि बाल विवाह निषेध अधिनियम, 1929 के तहत बाल विवाह प्रतिबंधित था। इस संबंध में विद्वान मुंसिफ के निर्णय को बरकरार रखा गया।
विद्वान मुंसिफ द्वारा पहले ही यह बताया जा चुका है कि प्रतिवादियों के भाई और उनकी मां कमाने वाले सदस्य थे। विद्वान सिविल न्यायाधीश ने माना कि दो नाबालिग बेटियों और राम किशन, जो प्रतिवादियों में से एक है, के विवाह का खर्च प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा नहीं उठाया गया था, बल्कि भाइयों और मां द्वारा उठाया गया था, जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा अपने बच्चों के विवाह के उद्देश्य से बंधक के माध्यम से ऋण के रूप में प्राप्त राशि का उपयोग उक्त उद्देश्य के लिए नहीं किया गया था।
सिविल न्यायाधीश ने यह निष्कर्ष निकाला कि प्रतिवादियों पर पूर्ववर्ती ऋण के संबंध में कोई दायित्व नहीं था।
राजस्थान उच्च न्यायालय के समक्ष दूसरी अपील
बीकानेर के विद्वान सिविल न्यायाधीश के दिनांक 15 सितम्बर, 1980 के निर्णय एवं डिक्री से व्यथित होकर अपीलार्थी ने राजस्थान उच्च न्यायालय के समक्ष द्वितीय अपील दायर की।
राजस्थान उच्च न्यायालय के समक्ष उठाए गए मुद्दे
राजस्थान उच्च न्यायालय ने उपर्युक्त तथ्यों से संबंधित तीन महत्वपूर्ण विधि प्रश्न तैयार किये। मुद्दे इस प्रकार थे:
- क्या परिवार के वयस्क सदस्यों द्वारा परिवार के नाबालिग सदस्यों के विवाह के उद्देश्य से लिया गया ऋण कानूनी आवश्यकता के लिए लिया गया ऋण है या वह उद्देश्य अवैध उद्देश्य के रूप में योग्य है।
- क्या पिता द्वारा पहले के बंधकों को चुकाने के लिए लिए गए ऋणों को कानूनी आवश्यकता के लिए लिया गया ऋण माना जाना चाहिए?
- क्या संयुक्त हिंदू परिवार के पिछले बंधक ऋण का भुगतान करने और परिवार के नाबालिग सदस्य के विवाह का खर्च उठाने के लिए की गई बिक्री को प्रथम अपीलीय न्यायालय द्वारा सही रूप से शून्य माना गया था?
- क्या ऋण अवैध उद्देश्यों के लिए लिया गया था, क्योंकि बाल विवाह सार्वजनिक नीति के विरुद्ध है?
पक्षों के तर्क
अपीलकर्त्ता
अपीलकर्ता किशन लाल के वकील ने निम्नलिखित दलीलें दीं:
- यह ऋण प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा अपनी नाबालिग पुत्रियों के विवाह के लिए लिया गया था और यह उद्देश्य एक कानूनी आवश्यकता थी।
- किसी परिवार के वयस्क सदस्यों द्वारा परिवार के किसी नाबालिग सदस्य के विवाह के लिए लिया गया ऋण वास्तव में कानूनी आवश्यकता के लिए लिया गया ऋण है, यद्यपि बाल विवाह निषेध अधिनियम, 1929 के तहत ऐसा विवाह निषिद्ध है। इसलिए, यह तर्क दिया गया कि प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा अपनी नाबालिग बेटियों की शादी के लिए अपीलकर्ता से लिया गया ऋण कानूनी आवश्यकता के कारण था।
- निचली अदालतों ने यह मान कर गलती की कि प्रतिवादी संख्या 2 के लिए संपत्ति गिरवी रखने की कोई कानूनी आवश्यकता नहीं थी और इस प्रकार यह निर्णय बरकरार नहीं रखा जा सकता।
- विक्रय विलेख के संबंध में, यह प्रस्तुत किया गया कि विक्रय विलेख अन्य प्रतिवादियों, अर्थात् प्रतिवादी संख्या 3 से 5 तथा प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा निष्पादित किया गया था और इस प्रकार, यह कानूनी था तथा प्रतिवादी संख्या 3 से 5 के विरुद्ध इसे रद्द नहीं किया जा सकता था।
अपीलकर्ता के वकील ने भी अपनी दलीलों के समर्थन में कुछ निर्णयों का हवाला दिया। इस पर लेख के उत्तरार्द्ध में एक अलग शीर्षक के अंतर्गत विस्तार से चर्चा की गई है।
प्रतिवादी
प्रतिवादियों के वकील ने निम्नलिखित प्रस्तुतियाँ दीं:
- यह ऋण प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा अपीलकर्ता से उसकी नाबालिग पुत्रियों के विवाह के लिए लिया गया था और यह उद्देश्य कानूनी आवश्यकता नहीं थी।
- बाल विवाह निषेध अधिनियम, 1929 के तहत बाल विवाह निषिद्ध होने के कारण, ऋण का उद्देश्य अवैध हो जाता है, इसलिए ऋण भी गैरकानूनी ऋण बन जाता है, और इसलिए, संपत्ति के हस्तांतरण को वैध हस्तांतरण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है, जिसका परिवार के नाबालिग सदस्यों पर बाध्यकारी प्रभाव पड़ता है।
- इस तथ्य पर विचार करते हुए कि 1929 का अधिनियम बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाता है, नाबालिग बच्चे के विवाह के संबंध में किए गए व्यय को कानूनी आवश्यकता नहीं माना जा सकता है।
देव किशन एवं अन्य, किशन लाल के कानूनी प्रतिनिधि बनाम राम किशन एवं अन्य (2002) मामले में शामिल कानून एवं अवधारणाएं
पूर्ववर्ती ऋण (एंटीसीडेंट डेब्ट) का सिद्धांत
सरल शब्दों में, “पूर्ववर्ती ऋण” का अर्थ है किसी दावे पर पहले से मौजूद ऋण या देयता। इसका अस्तित्व संबंधित लेनदेन से स्वतंत्र होना चाहिए।
लॉर्ड डुनेडिन की परिभाषा के अनुसार, “पूर्ववर्ती ऋण” वह ऋण है जो “वास्तव में और समय में भी पूर्ववर्ती है।” इसमें दो अनिवार्य बातें हैं:
- ऋण समय से पहले लिया जाना चाहिए, और
- ऋण वास्तव में पहले का होना चाहिए।
पूर्ववर्ती ऋण के नियम का उपयोग उन ऋणों पर निर्णय लेने के लिए किया जाता है जो कुछ कानूनों और नियमों को अपनाने से पहले बनाए गए थे। यह सिद्धांत ऋणदाताओं को पूर्व ऋणों को आगे बढ़ाने की अनुमति देकर उन्हें संरक्षण प्रदान करता है; फिर भी, नए कानून और नियम ऋणों को परिवर्तित, रद्द या प्रतिस्थापित करते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार, जब नए कानून लागू होते हैं, तो वे अनिवार्यतः अधिनियमन के बाद किए गए ऋणों और प्रतिबद्धताओं पर लागू होते हैं। अधिनियमन से पहले लिए गए ऋण अब भी उस समय लागू ढांचे द्वारा शासित होंगे।
हिंदू विधि में पवित्र दायित्व का सिद्धांत है, जिसकी उत्पत्ति रीति-रिवाजों और प्राचीन ग्रंथों से हुई है। इस सिद्धांत के अनुसार, अगली पुरुष पीढ़ी को पिता का कोई भी मौजूदा ऋण चुकाना होगा। पुत्र को यह दायित्व सौंपते समय दो बातें ध्यान में रखनी चाहिए:
- ये ऋण केवल वे ही हैं जो कानूनी उद्देश्यों के लिए हैं, इसमें अनैतिक और दुराचारी (इम्मोरल) उद्देश्यों के लिए लिए गए ऋण शामिल नहीं हैं।
- पुत्र का दायित्व व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि पैतृक संपत्ति से प्राप्त हिस्से की राशि तक सीमित है।
पवित्र दायित्व के सिद्धांत के बारे में अधिक जानने के लिए यहां क्लिक करें।
इन दोनों सिद्धांतों को मिलाकर, यह निहित है कि पिता द्वारा लिए गए ऋण के मामले में, यदि ऐसा ऋण वैध उद्देश्यों के लिए है, तो पुत्र को इसे चुकाने के लिए उत्तरदायी माना जाएगा। इन दोनों सिद्धांतों का निष्कर्ष यह है कि बेटे का अपने पिता के ऋणों का भुगतान करने और निपटाने का धार्मिक और कानूनी दायित्व है। हालाँकि, ऐसी देयता केवल संयुक्त परिवार की संपत्ति में उनके हित की सीमा तक ही है। पुत्र अपने पिता का ऋण चुकाने के लिए व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं हैं।
संयुक्त हिंदू परिवार का कर्ता किसी कानूनी उद्देश्य या यहां तक कि अपने निजी लाभ के लिए अर्जित ऋण का भुगतान करने के लिए संपूर्ण संयुक्त परिवार की संपत्ति को बेच या गिरवी रख सकता है। संपत्ति का ऐसा हस्तांतरण उत्तराधिकारियों पर बाध्यकारी होगा यदि निम्नलिखित शर्तें पूरी होती हैं:
- ऋण पूर्ववर्ती था और अलगाव से स्वतंत्र था, अर्थात ऋण और अलगाव दो अलग-अलग और स्वतंत्र लेन-देन होने चाहिए, जिसमें ऋण अलगाव की घटना से पहले हुआ हो,
- यह ऋण कानूनी उद्देश्य के लिए था, किसी अनैतिक उद्देश्य के लिए नहीं।
पिता के ऋण को चुकाने का दायित्व केवल पुत्रों पर होता है तथा पुत्रियों या महिला सहदायिकों को इस दायित्व से बाहर रखा जाता है। पुत्र का दायित्व इस बात से प्रभावित नहीं होता कि पिता जीवित है या मृत। इसके अलावा, पिता अपने जीवनकाल में किसी भी पूर्ववर्ती ऋण का भुगतान करने के लिए पुरुष उत्तराधिकारियों के हितों सहित संयुक्त परिवार की संपत्ति को गिरवी रख सकता है या बेच सकता है। हालाँकि, ऋण अनैतिक उद्देश्यों के लिए नहीं होना चाहिए।
बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929
जैसा कि नाम से पता चलता है और प्रस्तावना के अनुसार, अधिनियम का उद्देश्य भारत में बाल विवाह पर रोक लगाना था। यह अधिनियम 1929 में ही पारित कर दिया गया था, जब हमारे देश में बाल विवाह बहुत आम बात थी। लड़कियों की शादी अक्सर 8 या 9 साल की छोटी उम्र में ही कर दी जाती थी। बाल विवाह की बढ़ती प्रथा को रोकने के लिए भारत सरकार ने यह अधिनियम पारित किया, जिससे लड़के और लड़कियों दोनों के लिए विवाह की उम्र तय हो गई। शुरुआत में लड़के और लड़कियों के लिए विवाह की न्यूनतम आयु क्रमशः 18 और 14 वर्ष निर्धारित की गई थी। प्रत्येक संशोधन के साथ विवाह की आयु बढ़ा दी गई। वर्ष 2006 में बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 ने बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929 का स्थान ले लिया, जिसके तहत लड़के और लड़की के लिए विवाह की न्यूनतम आयु क्रमशः 21 और 18 वर्ष निर्धारित की गई है।
अधिनियम के बारे में अधिक विस्तार से जानने के लिए यहां क्लिक करें।
देव किशन एवं अन्य, किशन लाल के कानूनी प्रतिनिधि बनाम राम किशन एवं अन्य (2002) में शामिल पूर्ववर्ती मामले
परसराम एवं अन्य बनाम श्रीमती नारायणी देवी एवं अन्य (1972)
इस मामले में, बंधककर्ता के नाबालिग भाई की शादी के उद्देश्य से ऋण प्राप्त करने के लिए बंधक निष्पादित किया गया था। यह तर्क दिया गया कि बंधककर्ता जुआरी थे; उन्होंने ऋण अनैतिक उद्देश्यों के लिए लिया था, न कि किसी कानूनी आवश्यकता के कारण। अंत में, यह तर्क दिया गया कि ऋण उनकी व्यक्तिगत हैसियत से लिया गया था, न कि संयुक्त हिंदू परिवार के सदस्य के रूप में लिया गया था। यह प्रार्थना की गई कि बंधक ऋण न तो परिवार के सदस्यों पर और न ही पारिवारिक संपत्तियों पर बाध्यकारी है।
न्यायालय द्वारा विचारित प्रश्न यह था कि क्या विवाह के समय बंधककर्ता के भाई की अल्पवयस्कता के कारण बंधक लेनदेन अवैध हो जाएगा तथा परिवार पर बाध्यकारी नहीं होगा।
इस मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना था कि दो हिंदुओं, जिनमें से एक पुरुष की आयु 18 वर्ष से कम और दूसरी की आयु 15 वर्ष से कम है, का विवाह बाल विवाह निषेध अधिनियम, 1929 के प्रभाव से रद्द या अवैध नहीं माना जाता है। इसके बाद न्यायालय ने अधिनियम के उद्देश्य पर चर्चा की, जिसके संबंध में न्यायालय ने कहा कि इसका उद्देश्य नाबालिगों के विवाह पर रोक लगाना है, लेकिन विवाह को अवैध या अमान्य नहीं ठहराया जा सकता। न्यायालय ने आगे कहा कि हिंदू अविभाजित परिवार के वयस्क सदस्यों द्वारा किसी नाबालिग सदस्य के विवाह के लिए लिया गया ऋण किसी भी अवैध उद्देश्य के लिए नहीं है, क्योंकि विवाह वैध है। इसके परिणामस्वरूप ऋण संयुक्त परिवार की संपत्ति पर बाध्यकारी हो जाता है।
रुलिया एवं अन्य बनाम जगदीश एवं अन्य (1973)
इस मामले में, पैतृक भूमि के संबंध में कई बंधक विलेख और बिक्री विलेख निष्पादित किए गए थे। पाया गया कि दो विक्रय विलेख कर्ता के नाबालिग पुत्र के विवाह के लिए निष्पादित किए गए थे। निचली अपीलीय अदालत ने दोनों विक्रय विलेखों को यह तर्क देते हुए बरकरार रखा था कि दोनों ही विलेख प्रतिफल के लिए बनाए गए थे तथा एक आवश्यकता, अर्थात नाबालिग बच्चे के विवाह के खर्च, से समर्थित थे। यद्यपि बेटे की शादी बिक्री के एक वर्ष बाद हुई, लेकिन बिक्री के समय बच्चे की आयु 15-16 वर्ष थी। इस प्रकार, अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि बिक्री के समय कर्ता का पुत्र नाबालिग था और नाबालिग का विवाह कराना बाल विवाह निषेध अधिनियम, 1929 के अंतर्गत अपराध है।
पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामले में जहां परिवार का कर्ता अपने बेटे, जो विवाह के लिए वैध आयु अर्थात् वयस्कता की आयु का हो चुका था, के विवाह के खर्चों के लिए पैतृक भूमि के संबंध में विक्रय विलेख निष्पादित करता है, तो यह विक्रय आवश्यकता के लिए वैध विक्रय माना जाएगा। इसके अलावा, यह निर्णय दिया गया कि जहां यह साबित हो गया है कि पैतृक भूमि के विक्रय मूल्य के दो-तिहाई की आवश्यकता थी और शेष विक्रय मूल्य का भुगतान विदेशी को कर दिया गया था, ऐसे हस्तांतरण को आवश्यकता के कारण किया गया हस्तांतरण कहा जा सकता है।
पनमुल्ल लोधा एवं अन्य बनाम आर.बी. गढ़मुल्ल लोधा एवं अन्य (1937)
इस मामले में, नाबालिग वादी की ओर से वादी की नाबालिग बहन की शादी के खर्च को वहन करने के लिए एक निश्चित राशि अधिकृत करने के लिए आवेदन किया गया था। यह राशि संयुक्त संपत्ति में वादी के हिस्से से काटी जानी थी।
इस मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने माना कि बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929 भारत में नाबालिग का विवाह करना दंडनीय अपराध बनाता है। आगे यह भी कहा गया कि न्यायपालिका को ऐसे कृत्यों को बढ़ावा नहीं देना चाहिए जिन्हें समाज के लिए हानिकारक होने के कारण विधायिका द्वारा दंडित किया गया है, तथा ऐसे कारणों का हवाला देते हुए कि पक्षकार ऐसे स्थान पर ऐसे विवाह करने के लिए सहमत हुए हैं जहां नाबालिग विवाह उस स्थान के कानून द्वारा दंडनीय नहीं है। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यह भी कहा था कि जब न्यायालय द्वारा नियुक्त रिसीवर को नाबालिग की संपत्ति की देखभाल का जिम्मा सौंपा गया हो और ऐसे नाबालिग के स्थान पर किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अपनी नाबालिग बहन की नाबालिग लड़के से शादी के खर्च के रूप में कुछ राशि अधिकृत करने के लिए आवेदन किया गया हो, तो न्यायालय को ऐसे आवेदन को अनुमति नहीं देनी चाहिए जो भारत में या किसी अन्य स्थान पर 1929 के अधिनियम के तहत परिभाषित बाल विवाह को प्रोत्साहित करता हो।
हंसराज भूटेरिया और अन्य बनाम आसकरण भूटेरिया और अन्य (1941)
इस मामले में, वादीगण ने न्यायालय द्वारा प्रशासित संपत्ति में से एक वादीगण, जो कि नाबालिग था, के विवाह में हुए व्यय को पूरा करने के लिए एक निश्चित राशि खर्च करने की अनुमति प्राप्त करने के लिए आवेदन प्रस्तुत किया था। आवेदन को निष्पादकों द्वारा इस आधार पर चुनौती दी गई कि बाल विवाह निषेध अधिनियम, 1929 के प्रावधानों को देखते हुए नाबालिग का विवाह अवैध होगा।
इस संबंध में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने माना कि इस तरह के आवेदन को अनुमति नहीं दी जा सकती, क्योंकि न्यायालय को ऐसे किसी आचरण को बढ़ावा नहीं देना चाहिए जिसे विधायिका ने दंडनीय माना हो, भले ही ऐसे विवाह को बीकानेर हिंदू विवाह अधिनियम, 1928 के तहत अनुमति दी गई हो।
रामभाऊ गंजाराम बनाम राजाराम लक्ष्मण और अन्य (1956)
इस मामले में, माता-पिता दोनों की मृत्यु हो गई थी तथा उनके तीन नाबालिग बेटे रह गए थे। मामा ने नाबालिग बेटों की संपत्ति के प्रबंधन की जिम्मेदारी ली और वास्तविक संरक्षक बन गए। उन्होंने वादी संख्या 1 के विवाह के लिए लिए गए ऋणों को चुकाने के लिए नाबालिग वादियों की कुछ संपत्तियां प्रतिवादी को बेच दीं। वयस्क होने के बाद, वादी संख्या 1 ने प्रतिवादी के खिलाफ मुकदमा दायर किया, जिसमें कहा गया कि प्रतिवादी के पक्ष में मामा द्वारा किया गया विक्रय विलेख शून्य है और उन पर बाध्यकारी नहीं है। इसके अलावा, उन्होंने संपत्ति पर कब्जा, भविष्य के मध्यवर्ती लाभ और मुकदमे की लागत की भी मांग की। प्रतिवादी ने इसका विरोध करते हुए कहा कि संपत्ति कानूनी आवश्यकता के कारण बेची गई थी। परीक्षण न्यायाधीश ने यह कहते हुए मुकदमा खारिज कर दिया कि मामा ही वास्तविक अभिभावक है और बिक्री विलेख कानूनी आवश्यकता के रूप में निष्पादित किया गया था।
बॉम्बे उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि यदि किसी नाबालिग के विवाह के लिए वास्तविक अभिभावक द्वारा ऋण लिया गया है, तो ऐसे ऋणों को चुकाने के लिए किया गया हस्तांतरण वैध हस्तांतरण नहीं माना जा सकता है और ऐसे नाबालिगों पर बाध्यकारी नहीं माना जा सकता है। यह निर्णय इस तथ्य पर विचार करते हुए दिया गया कि नाबालिग का विवाह 1929 के अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन है और इस प्रकार, ऋण के पीछे का उद्देश्य गैरकानूनी था।
महेश्वर दास और अन्य बनाम सखी देई (1978)
इस मामले में, एक विक्रय विलेख नाबालिग के विवाह के खर्च को वहन करने के लिए निष्पादित किया गया था। ऐसे विक्रय विलेख की वैधता के संबंध में, उड़ीसा उच्च न्यायालय ने माना कि यदि विक्रय विलेख के तहत विचार एक नाबालिग लड़की की शादी के खर्च के लिए प्रदान किया गया था, तो विक्रय एक शून्य लेनदेन बन जाता है क्योंकि यह सार्वजनिक नीति के विपरीत है।
फ़कीर चंद बनाम हरनाम कौर एवं अन्य (1967)
इस मामले में अपीलकर्ता के पिता एक संयुक्त परिवार के प्रबंधक थे। उन्होंने प्रतिवादी से कुछ पैसे उधार लिए थे और ऋण की अदायगी के लिए संयुक्त परिवार की संपत्ति गिरवी रख दी थी। ऋण का एक हिस्सा पूर्ववर्ती बंधक ऋण का भुगतान करने के लिए था। इसके बाद, प्रतिवादी ने संपत्ति की बिक्री के लिए प्रारंभिक डिक्री का दावा करते हुए मुकदमा शुरू किया। इसके परिणामस्वरूप अपीलकर्ता द्वारा मुकदमा शुरू किया गया, जिसमें उसने यह घोषणा की कि बंधक विलेख अनैतिक और अवैध उद्देश्यों के लिए है तथा इसकी कोई कानूनी आवश्यकता नहीं है, और इस प्रकार यह उसके लिए बाध्यकारी नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जब पिता प्रबंधक के रूप में संयुक्त परिवार की संपत्ति को न तो किसी कानूनी आवश्यकता के लिए और न ही किसी पूर्ववर्ती ऋण के भुगतान के लिए, बल्कि अपने ऋण का भुगतान करने के लिए बंधक रखता है, तो उसके पुत्र को बंधक को चुनौती देने का अधिकार है और ऐसा अधिकार पिता या बंधक के विरुद्ध बंधककर्ता द्वारा किसी प्रारंभिक या अंतिम डिक्री प्राप्त करने से प्रभावित नहीं होता है।
पिन्निंती वेंकटरमण और अन्य बनाम राज्य (1977)
इस मामले में, एक सामान्य प्रश्न का निर्णय किया गया कि यदि कोई हिंदू विवाह दो पक्षों के बीच संपन्न होता है, जहां उनमें से एक या दोनों हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 के खंड (iii) के तहत उल्लिखित आयु से कम हैं, तो ऐसा विवाह शुरू से ही शून्य होगा।
आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने माना था कि यदि कोई विवाह हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 के खंड (iii) के विपरीत किया जाता है, तो वह न तो अमान्य है और न ही अमान्यकरणीय है।
हालांकि, इस मिसाल के संबंध में राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि चूंकि मामले में शामिल बिंदु और तथ्य अलग-अलग प्रकृति के हैं, इसलिए उन पर भरोसा करने से कोई फायदा नहीं होगा।
देव किशन एवं अन्य, किशन लाल के कानूनी प्रतिनिधि बनाम राम किशन एवं अन्य (2002) मामले में निर्णय
मामले पर निर्णय लेने से पहले राजस्थान उच्च न्यायालय ने कुछ तथ्यों को स्वीकार किया और उन पर प्रकाश डाला। यह स्वीकार किया गया कि प्रतिवादी संख्या 2 ने दिनांक 06.12.1962 और 19.05.1964 के बंधक विलेखों के माध्यम से, क्रमशः 500 रुपये और 900 रुपये की राशि के लिए अपीलकर्ता के पक्ष में उपर्युक्त संपत्तियों को बंधक रखा था। संपत्ति गिरवी रखने के पीछे का कारण अपनी बेटियों विमला और पुष्पा की शादी का खर्च उठाना था। यह भी पाया गया कि जब बंधक विलेख निष्पादित किए गए थे तब दोनों बेटियां नाबालिग थीं। हालाँकि, प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा बंधक के माध्यम से प्राप्त राशि का उपयोग नाबालिग बेटियों की शादी के लिए नहीं किया गया था।
संयुक्त परिवार की संपत्ति के कर्ता की भूमिका के संबंध में, न्यायालय ने कहा कि हिंदू अविभाजित परिवार के कर्ता के पास लाभ के लिए संयुक्त परिवार की संपत्ति को हस्तांतरित करने की शक्ति होती है, और इससे संपत्ति में सभी सहदायिकों के हित जुड़ जाते हैं, जिनमें कोई भी वयस्क या नाबालिग सहदायिक शामिल है। एकमात्र शर्त यह है कि हस्तांतरण कानूनी आवश्यकता या संपत्ति के हित में किया जाना चाहिए। इसके अलावा, कर्ता द्वारा संयुक्त परिवार की संपत्ति के हस्तांतरण के पीछे कानूनी आवश्यकता का अभाव ऐसे हस्तांतरण को शून्य नहीं बनाता है, बल्कि अन्य सहदायिकों के विकल्प पर इसे शून्यकरणीय बनाता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि पुरुष सहदायिकों और सहदायिकों की पुत्रियों दोनों के विवाह में किए गए व्यय कानूनी आवश्यकता के दायरे में शामिल हैं।
क्या नाबालिग बच्चों के विवाह के लिए लिया गया ऋण वैध ऋण माना जा सकता है और क्या यह कानूनी आवश्यकता है।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने दोनों निचली अदालतों के निर्णयों पर विचार किया। दोनों अदालतों ने यह निष्कर्ष निकाला था कि यह ऋण प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा अपीलकर्ता से उसकी नाबालिग बेटियों की शादी के लिए लिया गया था। चूंकि नाबालिग का विवाह 1929 के अधिनियम के विरुद्ध था, इसलिए ऋण भी सार्वजनिक नीति के विरुद्ध हो गया। निचली अदालतों ने यह भी निष्कर्ष निकाला कि यद्यपि बंधक नाबालिग बेटियों की शादी के लिए निष्पादित किए गए थे, प्रतिवादी संख्या 2 ने प्राप्त राशि का उपयोग उनकी शादियों पर नहीं किया था। इसलिए, प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा अपीलकर्ता के पक्ष में किए गए बंधक किसी कानूनी आवश्यकता के कारण नहीं थे। परिणामस्वरूप, दोनों निचली अदालतों ने माना कि प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा अपीलकर्ता से लिया गया ऋण संयुक्त हिंदू परिवार की किसी कानूनी आवश्यकता के लिए लिया गया ऋण नहीं माना जा सकता है।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि चूंकि 1929 के अधिनियम के तहत नाबालिग का विवाह निषिद्ध है, इसलिए नाबालिग के विवाह के लिए लिया गया कोई भी ऋण वैध ऋण नहीं माना जा सकता है। इसमें आगे कहा गया कि पारिवारिक संपत्ति के हस्तांतरण को वैध हस्तांतरण नहीं माना जा सकता तथा ऐसा हस्तांतरण नाबालिगों पर
बाध्यकारी नहीं होगा। उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि नाबालिगों की शादी के लिए संपत्ति गिरवी रखना और बेचना सार्वजनिक नीति के विरुद्ध होगा, क्योंकि 1929 के अधिनियम के तहत बाल विवाह प्रतिबंधित है।
क्या प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा पिछले बंधकों का भुगतान करने के लिए लिया गया ऋण कानूनी आवश्यकता के कारण लिया गया ऋण माना जा सकता है।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि एक हिंदू पुरुष अपने निजी उद्देश्य के लिए या परिवार की कानूनी आवश्यकता के लिए ऋण ले सकता है। इस संबंध में निचली अदालतों ने माना था कि प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा लिया गया ऋण परिवार के लिए किसी कानूनी आवश्यकता के कारण नहीं था। उन्होंने यह भी माना कि प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा अपीलकर्ता के पक्ष में किया गया संपत्ति का हस्तांतरण पूर्ववर्ती ऋण का भुगतान करने के लिए नहीं था।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने “पूर्ववर्ती ऋण” की अवधारणा का विश्लेषण किया। इसमें कहा गया है कि पूर्ववर्ती ऋण वास्तव में और समय के साथ पहले से विद्यमान होना चाहिए, अर्थात ऋण का स्वतंत्र अस्तित्व होना चाहिए और उसे आरोपित लेनदेन का हिस्सा नहीं होना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि संयुक्त हिन्दू परिवार के कर्ता को अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए लिए गए ऋण के भुगतान के लिए अपने किसी भी बच्चे के हित सहित संयुक्त परिवार की संपत्ति को बेचने या गिरवी रखने का अधिकार है। ऐसा अलगाव (एलीनेशन) ऐसे बच्चे को बांध देगा, बशर्ते कि-
- ऋण पूर्ववर्ती था, अर्थात, अलगाव होने से पहले से मौजूद था, और
- यह ऋण किसी अनैतिक उद्देश्य से नहीं लिया गया था।
निचली अदालतों ने माना था कि प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा अपीलकर्ता से लिया गया ऋण पूर्ववर्ती ऋण के भुगतान के लिए लिया गया ऋण नहीं कहा जा सकता है। मामले के तथ्यों और दोनों पक्षों के तर्कों पर विचार करते हुए निचली अदालतें इस निष्कर्ष पर पहुंचीं कि प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा संपत्ति का गिरवी रखना या बेचना किसी व्यक्तिगत ऋण को चुकाने के लिए नहीं, बल्कि अपने नाबालिग बच्चों की शादी के लिए किया गया था। इसलिए, इस लेन-देन को पूर्ववर्ती ऋण के भुगतान के लिए लेन-देन नहीं कहा जा सकता क्योंकि ऋण विवाह के उद्देश्य से लिया गया था।
उच्च न्यायालय ने माना कि चूंकि ऋण गैरकानूनी उद्देश्य से लिया गया था, अर्थात नाबालिग बच्चों की शादी के खर्च के लिए, इसलिए ऋण भी गैरकानूनी था। इसके अलावा, यह भी कहा गया कि नाबालिग बच्चों के विवाह का खर्च, जो स्वयं 1929 के अधिनियम का उल्लंघन है, कानूनी आवश्यकता नहीं माना जा सकता है।
इस संबंध में निचली अदालतों के निर्णय को राजस्थान उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा था कि प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा अपीलकर्ता से लिया गया ऋण पूर्ववर्ती ऋण के भुगतान के लिए ऋण नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह ऋण प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा अपने नाबालिग बच्चों की शादी के लिए लिया गया था।
अंत में, राजस्थान उच्च न्यायालय ने माना कि प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा पिछले बंधकों को चुकाने के लिए लिया गया ऋण कानूनी आवश्यकता के कारण लिया गया ऋण नहीं माना जाना चाहिए।
क्या बिक्री वैध थी?
राजस्थान उच्च न्यायालय ने प्रथम अपीलीय न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखते हुए कहा कि चूंकि ऋण अवैध था, इसे हिंदू अविभाजित परिवार के लाभ के लिए अर्जित नहीं किया गया था और इसे किसी पूर्ववर्ती ऋण को चुकाने के लिए भी नहीं लिया गया था, इसलिए प्रतिवादियों के हितों के विरुद्ध बिक्री विलेख शून्य हो जाता है।
इस प्रकार, यह माना गया कि हिंदू अविभाजित परिवार के पिछले बंधक ऋणों का भुगतान करने और परिवार के नाबालिग सदस्य की शादी के खर्च को वहन करने के लिए की गई बिक्री शून्य थी, जैसा कि प्रथम अपीलीय अदालत ने माना था।
इसके बाद उच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता के इस तर्क का विश्लेषण किया कि विक्रय विलेख वैध है, क्योंकि इसे प्रतिवादी संख्या 2 और अन्य प्रतिवादी संख्या 3 से 5 द्वारा निष्पादित किया गया था। इसमें कहा गया कि इस तरह के तर्क का समर्थन नहीं किया जा सकता क्योंकि प्रतिवादियों ने इस बिक्री विलेख को चुनौती दी थी। विक्रय विलेख के निष्पादन के समय प्रतिवादी नाबालिग थे; इसलिए विक्रय विलेख शून्य नहीं था, लेकिन यह नाबालिगों के अपने अभिभावकों के माध्यम से उनके विकल्प पर शून्यकरणीय था। राजस्थान उच्च न्यायालय ने फकीर चंद बनाम सरदारनी हरनाम कौर (1967) में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का हवाला दिया, जिसमें व्यक्तिगत ऋण चुकाने के लिए पिता द्वारा लिए गए बंधक को चुनौती देने के पुत्र के अधिकार पर चर्चा की गई थी। इसके बाद, राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि चूंकि दोनों निचली अदालतों ने माना था कि न तो लेन-देन कानूनी आवश्यकता द्वारा समर्थित थे और न ही उन्हें पूर्ववर्ती ऋण के भुगतान के लिए किया गया था, इसलिए प्रतिवादियों को संबंधित बिक्री विलेख को चुनौती देने का अधिकार है।
अंतिम निर्णय
राजस्थान उच्च न्यायालय ने निचली अदालतों के फैसले को बरकरार रखते हुए दूसरी अपील खारिज कर दी। राजस्थान उच्च न्यायालय के निर्णय में निम्नलिखित बातें कही गई हैं:
- चूंकि 1929 के अधिनियम के तहत बाल विवाह निषिद्ध है, इसलिए बाल विवाह के खर्च को वहन करने के उद्देश्य से लिया गया ऋण वैध ऋण नहीं कहा जा सकता है।
- इसी उद्देश्य के लिए किया गया पारिवारिक संपत्ति का हस्तांतरण वैध हस्तांतरण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
- लिया गया ऋण पूर्ववर्ती ऋण की अदायगी के लिए नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऋण लेने का उद्देश्य नाबालिग बच्चों के विवाह का खर्च वहन करना था।
- इसके अलावा, चूंकि बाल विवाह निषिद्ध है और सार्वजनिक नीति के विरुद्ध है, इसलिए उसी उद्देश्य के लिए लिया गया ऋण कानूनी आवश्यकता के कारण लिया गया ऋण नहीं कहा जा सकता।
- विक्रय विलेख को शून्य माना गया क्योंकि यह पहले के बंधक ऋणों का भुगतान करने के लिए बनाया गया था, क्योंकि ऋण स्वयं गैरकानूनी थे, तथा नाबालिग बच्चों के विवाह के लिए प्रावधान करने के लिए बनाया गया था, जो कि कानून द्वारा निषिद्ध है।
- प्रतिवादियों को विक्रय विलेख को चुनौती देने का अधिकार था, क्योंकि यह विलेख तब बनाया गया था जब वे नाबालिग थे। इसके परिणामस्वरूप विक्रय विलेख शून्य नहीं होगा, बल्कि प्रतिवादियों के विकल्प पर शून्यकरणीय होगा। इसके अलावा, बिक्री विलेख का बिना किसी कानूनी आवश्यकता के निष्पादित किया जाना तथा इसका उद्देश्य किसी पूर्ववर्ती ऋण का भुगतान करना नहीं है, इस कथन का समर्थन करता है।
मामले का विश्लेषण
देव किशन एवं अन्य, किशन लाल के कानूनी प्रतिनिधि बनाम राम किशन एवं अन्य (2002) मामले में हिंदू कानून में ऋण के पुनर्भुगतान की व्यवस्था पर प्रकाश डाला गया है। प्रचलित प्रथा यह है कि पुरुष वंशज अपने पुरुष पूर्वजों के बकाया ऋण का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होते हैं। हालाँकि, ऐसा दायित्व पूर्ण नहीं है। वर्तमान मामला इसी का विश्लेषण करता है।
यह देखा गया है कि प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा अपने नाबालिग बच्चों के विवाह के कथित उद्देश्य से हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति के दो बंधक और एक बिक्री की गई थी। जैसे-जैसे मामला आगे बढ़ा, यह पाया गया कि कथित उद्देश्य के लिए लिए गए ऋणों का कभी भी उसी उद्देश्य के लिए उपयोग नहीं किया गया।
जब यह मामला बीकानेर के मुंसिफ के समक्ष आया तो न्यायाधीश ने किसी भी कानूनी आवश्यकता के अस्तित्व से इनकार कर दिया, क्योंकि विवाह व्यय को कानूनी आवश्यकता नहीं कहा जा सकता। 1929 के अधिनियम के प्रावधानों के तहत बाल विवाह की अवैधता ने इस कथन को मजबूत किया। तथ्य यह है कि ऋण किसी पूर्ववर्ती ऋण को चुकाने के लिए नहीं लिया गया था, इसकी कोई कानूनी आवश्यकता नहीं थी तथा बाल विवाह कानून के तहत निषिद्ध है, जिससे प्रतिवादी पुनर्भुगतान के किसी भी दायित्व से मुक्त हो गए।
बीकानेर के सिविल न्यायाधीश ने भी इस फैसले को बरकरार रखा। इसके बाद राजस्थान उच्च न्यायालय में अपील की गई।
उच्च न्यायालय ने विभिन्न पूर्ववर्ती मामलो के माध्यम से यह तथ्य स्थापित किया है कि किसी नाबालिग बच्चे के विवाह के लिए लिया गया कोई भी ऋण उस ऋण संबंधी लेन-देन को शून्य कर देता है। ऐसे ऋण को शून्य घोषित करने के पीछे कारण यह है कि बाल विवाह कानून के तहत निषिद्ध है और न्यायपालिका का यह कर्तव्य है कि वह ऐसे किसी भी आचरण को हतोत्साहित करे जो कानून द्वारा निषिद्ध कृत्यों का समर्थन करता हो।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने निचली अदालतों के निर्णय को सही ठहराया तथा कहा कि चूंकि बाल विवाह कानून के तहत निषिद्ध है तथा इसके अलावा प्रतिवादी संख्या 2 ने कथित उद्देश्य के लिए इसका उपयोग नहीं किया है, इसलिए किसी कानूनी आवश्यकता के अस्तित्व का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। इसके अतिरिक्त, बाल विवाह की अवैधता के कारण संयुक्त परिवार की संपत्ति का हस्तांतरण अवैध है तथा नाबालिगों पर बाध्यकारी नहीं है।
निष्कर्ष
वर्तमान मामला यह निर्धारित करने में ऋण प्राप्त करने के उद्देश्य की वैधानिकता के महत्व पर बल देता है कि क्या यह कानूनी आवश्यकता के दायरे में आता है।
ऋण लेने के उद्देश्य की वैधता के अलावा बाल विवाह के मुद्दे पर भी ध्यान केंद्रित किया गया तथा कानून के तहत इसके निषेध पर भी बल दिया गया। यह दोहराया गया कि चूंकि बाल विवाह कानून के तहत निषिद्ध है, इसलिए इसे प्रोत्साहित करने वाले किसी भी आचरण को भी न्यायालय द्वारा प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। इसलिए, नाबालिग बच्चों की शादी के लिए ऋण लेना वैध नहीं माना जाएगा और इस प्रकार, इसे कानूनी आवश्यकता नहीं माना जाएगा।
पूर्ववर्ती ऋण की अवधारणा की भी जांच की गई और यह पाया गया कि संयुक्त परिवार की संपत्ति का कोई भी हस्तांतरण उत्तराधिकारियों को तभी बाध्य करेगा जब ऐसा हस्तांतरण पूर्ववर्ती ऋण या किसी ऐसे ऋण का भुगतान करने के लिए किया गया हो जो अनैतिक न हो। मामले के तथ्यों से यह पता चलता है कि कर्ता ने अपने नाबालिग बच्चों की शादी का खर्च उठाने के लिए ऋण लिया था। इसलिए, ऋण के पूर्ववर्ती ऋण होने की संभावना समाप्त हो जाती है। नैतिक ऋण की एक अन्य संभावना के संबंध में न्यायालय ने कहा कि चूंकि बाल विवाह कानून के तहत निषिद्ध है, इसलिए इसे ऋण लेने के पीछे वैध उद्देश्य नहीं माना जा सकता है। परिणामस्वरूप, न्यायालय ने प्रतिवादियों को विक्रय विलेख से आबद्ध होने के दायित्व से मुक्त कर दिया, तथा विक्रय विलेख को भी शून्य घोषित कर दिया।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929 क्या है?
स्वतंत्रता-पूर्व भारत में बाल विवाह बहुत आम बात थी। बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929 नाबालिग लड़कियों की छोटी उम्र में शादी रोकने के लिए पारित किया गया था। इस अधिनियम का उद्देश्य बाल विवाह पर रोक लगाना है। इसमें पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए विवाह की न्यूनतम आयु निर्धारित की गई है।
भारत में बाल विवाह करने पर क्या दंड है?
बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929 के तहत, बाल विवाह करने वाले व्यक्ति को अपराध माना जाता है। यदि बाल विवाह करने वाला व्यक्ति 18 से 21 वर्ष की आयु का है तो इस अपराध के लिए अधिकतम 15 दिन का साधारण कारावास या 1,000 रुपये तक का जुर्माना या दोनों सजाएं दी जा सकती हैं। यदि बाल विवाह करने वाला व्यक्ति 21 वर्ष से अधिक आयु का है, तो उसे अधिकतम 3 महीने के साधारण कारावास तथा जुर्माने का प्रावधान है।
क्या 1929 का अधिनियम प्रत्येक बाल विवाह को प्रारम्भ से ही अवैध घोषित करता है?
1929 का अधिनियम बाल विवाह को अवैध घोषित नहीं करता। वयस्कता की आयु प्राप्त करने के बाद पक्षकारों की इच्छा पर विवाह शून्यकरणीय हो जाता है।
पूर्ववर्ती ऋण के दो प्रकार क्या हैं?
पूर्ववर्ती ऋण के दो प्रकार इस प्रकार हैं:
- व्यवहारिक पूर्व ऋण – ये ऋण वैध हैं। ये सार्वजनिक नीति या नैतिकता का उल्लंघन नहीं करते हैं। ऐसे ऋण आमतौर पर परिवार के लाभ, उसके विकास या विस्तार के लिए लिए जाते हैं। पुरुष वंशजों को ये ऋण चुकाने होंगे।
- अव्यवहरिका पूर्व ऋण- ये ऋण गैरकानूनी या अनैतिक हैं। इन्हें अनैतिक या अनुचित उद्देश्यों के लिए अर्जित किया जाता है, इसलिए वंशज इन्हें वापस करने के लिए उत्तरदायी नहीं होते हैं।
संदर्भ