यह लेख Akanksha Singh द्वारा लिखा गया है। यह लेख सुरजीत लाल छाबडा बनाम आयकर आयुक्त, बॉम्बे (1976) के ऐतिहासिक मामले पर एक विस्तृत लेख है। इस लेख में हिंदुओं के व्यक्तिगत कानूनों के अंतर्गत निर्धारित प्रावधान भी शामिल हैं। लेख में आयकर अधिनियम के तहत किसी व्यक्ति की संपत्ति पर हिंदू व्यक्तिगत कानून के निहितार्थों पर भी चर्चा की गई है, जो मामले से संबंधित है, साथ ही इसमें भारतीय न्यायशास्त्र में आयकर और संपत्ति से प्राप्त आय की अवधारणा से संबंधित हिंदू व्यक्तिगत कानून के तहत अन्य प्रासंगिक कानूनी मामलो पर भी चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।
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परिचय
सुरजीत लाल छाबडा बनाम आयकर आयुक्त, बॉम्बे (1976) (कभी-कभी, इसे ‘सुरजीत बनाम डब्ल्यू.टी. कमिश्नर (1976)’ भी कहा जाता है) का मामला एक ऐतिहासिक निर्णय है जो हिंदू व्यक्तिगत कानूनों और भारत के कराधान कानूनों के साथ उनके अंतरसंबंध के क्षेत्र में बहुत महत्व रखता है, विशेष रूप से हिंदू व्यक्तिगत कानून के तहत संपत्ति से प्राप्त आय के विषय मे विस्तृत रुप से व्याख्या करता है। यह ऐतिहासिक मामला हिंदू व्यक्तिगत कानून द्वारा आयकर अधिनियम, 1961 के तहत आवश्यकताओं को पूरा करने में शामिल कानूनी पेचीदगियों का एक महत्वपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत करता है। हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति की कुछ विशेषताओं पर महत्वपूर्ण स्पष्टीकरण प्रदान करने के अलावा, इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का ऐसी संपत्ति से आय के मूल्यांकन और कराधान पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। हिंदू व्यक्तिगत कानूनों की जड़ें प्राचीन परंपराओं और ग्रंथों में हैं और वे हिंदुओं के व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन के कई पहलुओं को विनियमित करते हैं। इन कानूनों में संपत्ति अधिकार, संयुक्त परिवार, विवाह और उत्तराधिकार जैसे विषय शामिल हैं। इन विनियमों का मुख्य आधार हिंदू अविभाजित परिवार का विचार है, जो संयुक्त परिवार का एक विशिष्ट प्रकार है जो संयुक्त रूप से संपत्ति साझा करता है।
हिंदू व्यक्तिगत कानून के तहत हिंदू अविभाजित परिवार की अवधारणा
हिंदू व्यक्तिगत कानून के अनुसार, हिंदू अविभाजित परिवार एक अलग कानूनी इकाई है जिसके अलग-अलग कानूनी अधिकार और दायित्व हैं। एक हिन्दू अविभाजित परिवार संपत्ति का मालिक हो सकता है। ऐसी संपत्ति जो हिंदू अविभाजित परिवार के स्वामित्व में होती है, उसके सभी सदस्यों द्वारा सामूहिक रूप से धारण की जाती है। ऐसी संपत्ति से प्राप्त आय को हिंदू अविभाजित परिवार की आय माना जाएगा, न कि किसी व्यक्तिगत सदस्य की आय माना जाएगा। यह अंतर बहुत आवश्यक है ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि आय पर किस मद में कर लगाया जाएगा। वर्तमान मामला मुख्यतः इस प्रश्न के इर्द-गिर्द घूमता है क्या अपीलकर्ता की संपत्ति से अर्जित आय को व्यक्तिगत आय माना जाएगा या हिंदू अविभाजित परिवार से प्राप्त आय माना जाएगा।
सुरजीत लाल छाबडा बनाम आयकर आयुक्त, बॉम्बे (1976) के मामले से संबंधित कराधान कानून की अवधारणाएँ
भारत में कराधान के नियमों के अनुसार, संपत्ति से प्राप्त आय एक तकनीकी विषय है, जिसके लिए प्रायः सूक्ष्म कानूनी व्याख्या की आवश्यकता होती है। आयकर अधिनियम, 1961, जिसमें संपत्ति से आय के लिए विशिष्ट नियम हैं, भारत में आय के कराधान को नियंत्रित करता है। क्या आय का मूल्यांकन हिंदू अविभाजित परिवार या अकेले व्यक्ति के हाथों में सबसे अच्छा है, यह उन मुख्य कारकों में से एक है जिस पर कर अधिकारी गौर करते हैं। कर दायित्वों और छूटों के संबंध में, आय को वर्गीकृत करने का तरीका अत्यंत महत्वपूर्ण है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय को सुरजीत लाल छाबडा के मामले में इस मुद्दे पर निर्णय करना था कि, क्या कुछ परिसंपत्तियों से प्राप्त धन को सुरजीत लाल छाबडा की व्यक्तिगत आय माना जाना चाहिए या हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति से आय माना जाना चाहिए। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू पर्सनल लॉ और देश में कराधान कानून के तहत प्रदान की गई विधियों के अनुसार मामले का फैसला किया।
सुरजीत लाल छाबडा बनाम आयकर आयुक्त, बॉम्बे (1976)
- मामले का नाम: सुरजीत लाल छाबडा बनाम आयकर आयुक्त, बॉम्बे (1976)
- मामला संख्या: 1819-1821 वर्ष 1970
- समतुल्य उद्धरण: 1976 एआईआर 109
- शामिल अधिनियम: आयकर अधिनियम, 1922; आयकर नियम, 1962
- महत्वपूर्ण प्रावधान: आयकर अधिनियम, 1922 की धारा 2
- न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
- पीठ: न्यायमूर्ति वाई.वी. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति सरकारिया, न्यायमूर्ति रंजीत सिंह और न्यायमूर्ति ए.सी. गुप्ता.
- याचिकाकर्ता/अपीलकर्ता: सुरजीत लाल छाबडा
- प्रतिवादी: आयकर आयुक्त, बॉम्बे
- निर्णय की तिथि: 06 अक्टूबर, 1975
सुरजीत लाल छाबडा बनाम आयकर आयुक्त, बॉम्बे (1976) के तथ्य
अपीलकर्ता सुरजीत लाल छाबडा के पास ‘कैथोक लॉज’ नाम की एक अचल संपत्ति थी। अपीलकर्ता को उक्त संपत्ति से किराये के रूप में आय प्राप्त होती थी। इसके अतिरिक्त, वह अन्य तरीको से भी आय प्राप्त करते थे। अपीलकर्ता सुरजीत लाल छाबडा ने तीन अलग-अलग स्रोतों से धन अर्जित किया। बैंक खातों से ब्याज प्राप्त करने और कैथोक लॉज नामक अचल संपत्ति से किराया प्राप्त करने के अलावा, वह दो साझेदारी व्यवसायों के राजस्व में भी हिस्सा लेते थे। ये वे परिसंपत्तियां थीं जिन्हें उन्होंने व्यक्तिगत रूप से खरीदा था, और कर निर्धारण वर्ष 1956-1957 तक, वे इनके लिए व्यक्तिगत आय मूल्यांकन के अधीन थे। 26 जनवरी 1956 को बम्बई में एक प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट के सामने उन्होंने शपथ ली कि उन्होंने कैथोक लॉज की संपत्ति को “पारिवारिक विवाद” में रखा है ताकि इसे साझा पारिवारिक संपत्ति का रूप दिया जा सके और वे इसे अपने परिवार के कर्ता के रूप में रखेंगे जिसमें वे स्वयं, उनकी बेटी और उनकी पत्नी शामिल हैं। अपीलकर्ता की पुत्री अविवाहित थी।
यह मामला आयकर विभाग के अंतर्गत कई प्राधिकरणों और माननीय बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष विचाराधीन रहने के बाद, इस मामले में कानून के प्रश्न पर आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) द्वारा इसे माननीय सर्वोच्च न्यायालय को भेजा गया। अपीलकर्ता ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह तर्क रखा कि अपीलकर्ता को कानून के अनुसार, अपनी स्वयं की कब्जे वाली अलग संपत्ति को आम परिवार की संपत्ति में देकर उसे संयुक्त परिवार की संपत्ति में परिवर्तित करने की अनुमति दी गई थी। इसके अलावा, अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि संयुक्त परिवार में पैतृक नाभिक या एक से अधिक पुरुष सदस्य के अस्तित्व की कोई आवश्यकता नहीं है। हालाँकि, आयकर विभाग ने अपीलकर्ता की इस दलील का विरोध किया। आयकर विभाग ने कहा कि अपीलकर्ता द्वारा प्रस्तुत तर्क हिंदू अविभाजित परिवार की मूल अवधारणा के विरुद्ध है। यह अवधारणा कि परिवार का एक पुरुष और उसकी महिलाएं मिलकर संयुक्त हिंदू परिवार बना सकते हैं, हिंदू कानून के विपरीत है। संयुक्त परिवार के गठन के लिए परिवार में एक से अधिक पुरुष सदस्य होना आवश्यक है, जो संयुक्त परिवार की संपत्ति के विभाजन का दावा करने के हकदार होंगे। इस बीच, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह मानकर प्रश्न के दायरे को सीमित कर दिया कि केवल एक पुरुष सदस्य वाला परिवार संयुक्त हिंदू परिवार एक कर योग्य इकाई हो सकता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि कोई भी अविभाजित परिवार नहीं है, क्योंकि करदाता का कोई पुत्र नहीं है। इसके अलावा, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने उल्लेख किया कि अपीलकर्ता का मामला माननीय प्रिवी काउंसिल द्वारा कल्याणजी विट्ठलदास बनाम आय आयुक्त (1936) के मामले में दिए गए निर्णय के अंतर्गत आता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि इस मामले के अंतर्गत संबंधित संपत्ति, जिसका नाम ‘कैथोक लॉज’ है, से होने वाली आय को अपीलकर्ता की एक अलग व्यक्तिगत संपत्ति के रूप में मूल्यांकित किया जाना चाहिए और किराए के रूप में ऐसी संपत्ति से प्राप्त आय को संपत्ति से व्यक्तिगत आय के रूप में माना जाएगा।
उठाए गए मुद्दे
इस मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष कई मुद्दे उठाए गए। तथापि, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यद्यपि ऐसे कई प्राधिकार थे, जिन्हें दोनों पक्षों द्वारा अपने-अपने तर्कों के समर्थन में संदर्भित किया गया था, सर्वोच्च न्यायालय ने इस संदर्भ पर निर्णय करने का प्रस्ताव नहीं किया, ताकि इस बड़े प्रश्न पर विचार किया जा सके कि क्या करदाता की संपत्ति, जो मूल रूप से स्वयं अर्जित संपत्ति थी, ने हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति का चरित्र ग्रहण कर लिया, हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति की घटनाएं क्या हैं और किन परिस्थितियों में पृथक संपत्ति हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति बन सकती है? माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने समक्ष उठाए गए निम्नलिखित मुद्दे पर आदेश देने का निर्णय लिया:
“क्या मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर, ‘कैथोक लॉज’ के नाम से जानी जाने वाली संपत्ति से आय को हिंदू अविभाजित परिवार की आय के रूप में अलग से मूल्यांकित किया जाना था, जिसका करदाता कर्ता था?”
पक्षों के तर्क
अपीलकर्ता/याचिकाकर्ता द्वारा तर्क
- आयकर अधिकारी के समक्ष अपीलकर्ता द्वारा प्रस्तुत तर्क यह था कि उक्त संपत्ति से प्राप्त किराये का मूल्यांकन हिंदू अविभाजित परिवार की श्रेणी में किया जाना चाहिए।
- इस तर्क पर आयकर अधिकारी ने माना कि अपीलकर्ता की उपरोक्त संपत्ति उसकी पृथक संपत्ति है और चूंकि संयुक्त परिवार की कोई संपत्ति नहीं है, इसलिए अपीलकर्ता अपनी पृथक संपत्ति को इसमें शामिल नहीं कर सकता।
- इस प्रकार, उक्त संपत्ति को हिंदू अविभाजित परिवार के मद में मूल्यांकित नहीं माना जा सकता। इसके अलावा, आयकर अधिकारी ने यह भी कहा कि हिंदू अविभाजित परिवार के अस्तित्व के लिए परिवार में हिंदू अविभाजित संपत्ति का होना आवश्यक है।
- इस निर्णय के बाद अपीलकर्ता ने मामले को आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण में ले जाया। आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण का निर्णय अपीलीय सहायक आयुक्त के निर्णय से भिन्न था।
- आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण ने अपीलकर्ता द्वारा अपनी संपत्ति के संबंध में की गई घोषणा को सही और वास्तविक माना। हालांकि, आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण ने यह भी माना कि भले ही अपीलकर्ता ने संबंधित अलग संपत्ति को संयुक्त परिवार की संपत्ति माना हो, लेकिन तथ्य वही है कि अपीलकर्ता संपत्ति का एकमात्र जीवित सहदायिक है।
- इस प्रकार, उक्त संपत्ति में उनका पहले की तरह ही अप्रतिबंधित और पूर्ण हित बना हुआ है, और इसलिए, कानून के अनुसार, संपत्ति को अपीलकर्ता की अलग संपत्ति माना जाना चाहिए।
प्रतिवादी द्वारा तर्क
- अपीलकर्ता ने अपीलीय सहायक आयुक्त के इस निर्णय के विरुद्ध अपील दायर की। अपीलीय सहायक आयुक्त ने इस आधार पर अपील खारिज कर दी कि यद्यपि अपीलकर्ता ने संपत्ति को पारिवारिक संपत्ति में देने के संबंध में घोषणा की थी, फिर भी उसने उक्त संपत्ति के साथ उसी प्रकार व्यवहार किया, जिस प्रकार वह पहले करता था।
- इस प्रकार, यह मानने का कोई कारण नहीं था कि घोषणा पर कार्रवाई की गई थी। इसके अतिरिक्त, यदि यह मान भी लिया जाए कि घोषणा पर कार्रवाई की गई है और वास्तव में संपत्ति परिवार की साझा संपत्ति में दी गई है, और इस प्रकार यह संयुक्त परिवार की संपत्ति बन जाती है, तो भी ऐसी संपत्ति से प्राप्त आय पर अपीलकर्ता के हाथों में कर लगाया जा सकता है, क्योंकि अपीलकर्ता हिंदू अविभाजित परिवार का एकमात्र पुरुष सदस्य है।
सुरजीत लाल छाबडा बनाम आयकर आयुक्त, बॉम्बे (1976) में निर्णय
सभी पक्षों की दलीलों पर विचार करने के बाद, न्यायालय निम्नलिखित निर्णय पर पहुंची:
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अपीलकर्ता अपनी अविवाहित पुत्री और पत्नी के साथ संयुक्त हिंदू परिवार बना सकता है। हालाँकि, यह सहदायिक (कोपार्सनर), यानी उनकी पत्नी और अविवाहित बेटी के साथ एक संयुक्त हिंदू परिवार में नहीं बदल गया। साथ ही, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि हिंदू अविभाजित परिवार एक कर योग्य इकाई है, भले ही वह सहदायिक न हो। आयकर विभाग के समक्ष यह तर्क रखा गया कि संबंधित संपत्ति को संयुक्त परिवार की संपत्ति नहीं माना जा सकता, क्योंकि वर्तमान मामले में गोलमाल में पारिवारिक संपत्ति उस समय खाली थी, जब घोषणा की गई थी और उस समय आय का कोई सम्मिश्रण नहीं था और इस प्रकार, संबंधित संपत्ति को संयुक्त परिवार की संपत्ति में बदलने के लिए ऐसी घोषणा अप्रभावी थी, जिसे अपीलीय न्यायाधिकरण के समक्ष नहीं रखा गया और बाद में, इसे उच्च न्यायालय के समक्ष भी नहीं रखा गया। इस प्रकार, आयकर विभाग के लिए उक्त तर्क को उच्च न्यायालय के समक्ष ले जाना संभव नहीं था, क्योंकि ऐसा तर्क उच्च न्यायालय को दिए गए संदर्भ से उत्पन्न नहीं हुआ था। हालाँकि, आयकर विभाग के वकील ने यह तर्क उठाया, लेकिन इस पर जोर नहीं दिया था।
इस प्रकार, हिंदू व्यक्तिगत कानून अपीलकर्ता को कैथोक लॉज नामक संपत्ति का मालिक मानता है और इसलिए, ऐसी संपत्ति से प्राप्त आय पर व्यक्तिगत आय के रूप में कर लगाया जाएगा, न कि पारिवारिक आय के रूप में, भले ही संपत्ति अपीलकर्ता द्वारा पारिवारिक संपदा में दे दी गई हो।
निर्णय के पीछे तर्क
हिंदू संयुक्त परिवार की अवधारणा हिंदू सहदायिकता की अवधारणा से कहीं अधिक व्यापक है। सामान्य नियम के रूप में, पक्षकारों के कार्य द्वारा संयुक्त हिन्दू परिवार का निर्माण नहीं किया जा सकता, सिवाय इसके कि कोई अजनबी व्यक्ति हो जो दत्तक ग्रहण के माध्यम से परिवार से सम्बद्ध हुआ हो, भले ही संयुक्त परिवार, अपनी सभी घटनाओं सहित, कानून की रचना ही क्यों न हो। इसके अलावा, न्यायालय ने कहा कि, हालांकि, अपीलकर्ता कानूनी रूप से अपने परिवार में ऐसे बाहरी लोगों को लाने का प्रयास नहीं कर रहा था, जो उसके साथ सपिंड संबंध से संबंधित नहीं थे। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि परिवार का एक पुरुष सदस्य महिलाओं के साथ संयुक्त हिंदू परिवार बनाने के लिए पर्याप्त है।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के लिए स्पष्टीकरण देने हेतु सुरजीत लाल छाबडा बनाम आयकर आयुक्त, बम्बई (1976) और कल्याणजी विट्ठलदास बनाम आयकर आयुक्त (1936) कल्याणजी के मामले के बीच समानता दर्शाई। न्यायालय ने कहा कि, जैसा कि कल्याणजी विट्ठलदास बनाम आयकर आयुक्त (1936) के मामले में था, उपर्युक्त मामले में कांजी और सेवदास को प्राप्त आय को अलग संपत्ति माना गया था, क्योंकि पक्षकार का कोई पुत्र नहीं था, जो जन्म से पैतृक संपत्ति का उत्तराधिकारी हो सकता था। वर्तमान मामले में ‘कैथोक लॉज’ नामक संपत्ति पर भी यही सादृश्य लागू किया जाना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि यदि संबंधित संपत्ति को पैतृक संपत्ति माना भी जाता है, तो भी ऐसी संपत्ति से होने वाली आय को अपीलकर्ता की अलग संपत्ति माना जाएगा, क्योंकि उसका कोई पुत्र नहीं है, जिसका जन्म से ही संपत्ति में हिस्सा हो। इस प्रकार, न्यायालय ने कहा कि वर्तमान मामले में कल्याणजी मामला लागू करने के लिए उपयुक्त है।
इसके अलावा, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने वर्तमान मामले और श्री अशोक शर्मा बनाम श्री लक्ष्मी नारायण (2011) के मामले के बीच अंतर दिखाते हुए अपने निर्णय की व्याख्या की। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि श्री अशोक शर्मा बनाम श्री लक्ष्मी नारायण (2011) के मामले में, लक्ष्मी नारायण की संपत्ति उनके पिता के हाथों में एक पैतृक संपत्ति थी। इस प्रकार, बेटे ने अपने जन्म के समय ही पैतृक संपत्ति में हिस्सा प्राप्त कर लिया था। इस प्रकार, पिता के जीवनकाल में हिंदू अविभाजित परिवार अस्तित्व में था। इसके अलावा, पिता की मृत्यु के बाद भी हिंदू अविभाजित परिवार समाप्त नहीं हुआ और इस प्रकार, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सही निर्णय दिया कि हिंदू अविभाजित परिवार में ऐसी पैतृक संपत्ति से प्राप्त आय संयुक्त हिंदू परिवार की आय है। इस प्रकार, हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति से प्राप्त आय पर उसी प्रकार कर लगाया जाएगा। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस मामले में टिप्पणी की और कहा कि केवल इसलिए कि एक परिवार, जिसकी एक निश्चित संपत्ति है, का प्रतिनिधित्व एक एकल सहदायिक द्वारा किया जाता है, जिसके पास ऐसे अधिकार हैं जो संपत्ति के मालिक के पास हो सकते हैं, इसका अर्थ यह नहीं है कि ऐसी संपत्ति उस परिवार की नहीं रह जाती है।
इस प्रकार, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि समान परिस्थितियों वाले अधिकांश मामलों में दो प्रकार के दृष्टिकोण अपनाए जाने की आवश्यकता है। जब संपत्ति का स्वामित्व किसी मौजूदा हिंदू अविभाजित परिवार के पास होता है, तो उसकी पहचान बनी रहती है, भले ही परिवार में केवल मृतक सहदायिकों की विधवाएं ही क्यों न हों। यह बात उन परिस्थितियों में भी सत्य होनी चाहिए जहां परिवार का प्रतिनिधित्व एक जीवित सहदायिक द्वारा किया जाता है, जिसके पास वे अधिकार होते हैं जो किसी भी संपत्ति के मालिक को प्राप्त हो सकते हैं। परिवार की संरचना यह निर्धारित करती है कि क्या करदाता के कब्जे में किसी संपत्ति ने संयुक्त परिवार की संपत्ति की विशेषताएं ग्रहण कर ली हैं, उन स्थितियों में जहां संपत्ति किसी मौजूदा अविभाजित परिवार की नहीं है।
सुरजीत लाल छाबडा बनाम आयकर आयुक्त, बॉम्बे (1976) के मामले का विश्लेषण
मामले और उसके फैसले का विश्लेषण हमें इस तथ्य के बारे में बताता है कि एक व्यक्ति, उसका पति/पत्नी और उनकी बेटी एक संयुक्त हिंदू परिवार बना सकते हैं; फिर भी, केवल पत्नी या पुत्री की उपस्थिति ही संयुक्त परिवार के प्रबंधक के रूप में मुखिया की भूमिका में संयुक्त परिवार की संपत्ति से आय के आकलन की गारंटी नहीं देती है। दो प्रकार की स्थितियों को निर्धारित करने के लिए दिशा-निर्देश के रूप में सामने आए परीक्षणों के बीच स्पष्ट संघर्ष को समझना कठिन नहीं होगा, यदि यह महसूस किया जाए कि मामलों की दो अलग-अलग श्रेणियां हैं, जिनके लिए अलग-अलग दृष्टिकोणों की आवश्यकता होती है। कैथोक लॉज के नाम से जानी जाने वाली संपत्ति पहले किसी संयुक्त परिवार की नहीं थी। जब अपीलकर्ता ने अपनी अलग संपत्ति परिवार के सदस्य को दे दी, तो वह पहली बार संयुक्त परिवार की संपत्ति बन गई। अपीलकर्ता का कोई पुत्र नहीं था। यद्यपि कैथोक लॉज उनकी स्वतंत्र संपत्ति थी, फिर भी वे इसकी आय से अपनी पत्नी और अविवाहित पुत्री के लिए भरण-पोषण पाने के हकदार थे।
अपीलकर्ता का संपत्ति पर अधिकार इस कारण से नहीं बढ़ा कि ऐसी संपत्ति अपीलकर्ता द्वारा पारिवारिक सम्पत्ति या पारिवारिक संपदा को दे दी गई थी। अपीलकर्ता का कोई सहदायिक नहीं था और इस कारण से अपीलकर्ता की पुत्री और पत्नी को जन्म से ही संपत्ति विरासत में पाने का अधिकार नहीं था। इसके अलावा, उन्हें विभाजन की मांग करने या अपीलकर्ता को किसी भी प्रकार के लाभ के लिए संपत्ति बेचने से रोकने का अधिकार नहीं था। मामले के विकास और इस मामले के समय हिंदू कानून की कानूनी स्थिति के अनुसार, यह भी देखा जा सकता है कि अपीलकर्ता की संपत्ति, जो उसने पारिवारिक संपत्ति में योगदान दिया था, के साथ अलग तरह से व्यवहार किया जा सकता था यदि अपीलकर्ता का कोई बेटा होता। हालाँकि, हिंदू कानून के अनुसार, अपीलकर्ता के पास उक्त संपत्ति का स्वामित्व होगा।
प्रासंगिक कानूनी मामले
कल्याणजी विट्ठलदास बनाम आयकर आयुक्त (1936)
कल्याणजी विट्ठलदास बनाम आयकर आयुक्त (1936) के मामले में, कानजी और सेवादास को मिलने वाली आय को अलग-अलग संपत्ति माना जाता था, क्योंकि पक्ष का कोई पुत्र नहीं था, जो जन्म से पैतृक संपत्ति का उत्तराधिकारी हो सकता था। इस मामले का उपयोग भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुरजीत लाल छाबडा बनाम डब्ल्यू.टी. कमिश्नर (1976) के मामले के लिए सादृश्य बनाने के लिए किया गया था।
गौली बुद्धन्ना बनाम आयकर आयुक्त, मैसूर (1966)
गौली बुद्धन्ना बनाम आयकर आयुक्त, मैसूर (1966) मामले में मुख्य मुद्दा यह था कि एक हिंदू अविभाजित परिवार की कितनी आय पर कर लगेगा। हिंदू अविभाजित परिवार के अंतिम जीवित सहदायिक के रूप में, गौली बुद्धन्ना को हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति से वित्तीय लाभ प्राप्त हुआ। प्राथमिक प्रश्न यह था कि क्या इस राजस्व पर हिंदू अविभाजित परिवार की आय के रूप में कर लगाया जाना चाहिए या व्यक्तिगत आय के रूप में कर लगाया जाना चाहिए। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि विवादित आय हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति के आयकर के अधीन होनी चाहिए। न्यायालय ने तर्क दिया कि केवल एक जीवित सहदायिक होने से संपत्ति की संयुक्त परिवार की संपत्ति के रूप में स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होता है। इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि एक संयुक्त हिंदू परिवार का वैध अस्तित्व हो सकता है जिसमें एकल सहदायिक और मृतक सहदायिक की विधवाएं शामिल हों।
निष्कर्ष
सुरजीत लाल छाबडा बनाम आयकर आयुक्त, बॉम्बे (1976) के मामले में दिए गए फैसले का हिंदू कर कानून के साथ-साथ व्यक्तिगत कानून पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। इसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि किसी व्यक्तिगत संपत्ति को हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति में परिवर्तित करने के लिए सटीक और स्पष्ट चरणों की आवश्यकता होती है, जिसका प्रभाव इस बात पर पड़ता है कि उस संपत्ति से प्राप्त राजस्व पर किस प्रकार कर लगाया जाता है। इसके अलावा, इस निर्णय ने इस बात पर भी जोर दिया कि यह समझना कितना महत्वपूर्ण है कि व्यक्तिगत कानून और कर कानून किस प्रकार परस्पर क्रिया करते हैं, क्योंकि संपत्ति और आय वर्गीकरण का कर दायित्वों पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। यह मामला हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति और आय मूल्यांकन से संबंधित मामलों पर चर्चा करते समय कानूनी शिक्षाविदों (एकेडमिक्स) और पेशेवरों के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन है। इसमें इस बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारी दी गई है कि न्यायाधीश वैधानिक कर आवश्यकताओं और व्यक्तिगत कानूनों के बीच विसंगतियों को किस प्रकार संभालते हैं। करदाताओं और न्यायिक प्रणाली दोनों को विभिन्न स्तरों पर सभी अदालतों, जैसे कि बॉम्बे उच्च न्यायालय और भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णयों से काफी स्पष्टता प्राप्त हुई है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से समान अनुप्रयोगों वाले मामलों के प्रति बेहतर, अधिक समरूप और अधिक पूर्वानुमानित दृष्टिकोण सुनिश्चित हुआ है। सुरजीत लाल छाबडा बनाम आयकर आयुक्त, बॉम्बे (1976) मामला एक मौलिक निर्णय है जो हिंदू व्यक्तिगत कानून और कर कानून को एकीकृत करता है, तथा हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति के प्रबंधन और उससे प्राप्त राजस्व के मूल्यांकन पर स्पष्टता प्रदान करता है। इस निर्णय का महत्व सीधे तौर पर शामिल पक्षों से कहीं अधिक है, यह भविष्य में इसी प्रकार के मामलों के लिए दिशा प्रदान करेगा तथा इस जटिल क्षेत्र में कानूनी सिद्धांतों के निर्माण में सहायता करेगा।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
हिंदू अविभाजित परिवार कौन बना सकता है?
यदि कोई परिवार बौद्ध, सिख, हिंदू या जैन है तो वह हिंदू अविभाजित परिवार का गठन कर सकता है। हिंदुओं में विवाह के समय स्वाभाविक रूप से यह प्रथा बन जाती है और हिंदू कानून इसे मान्यता देता है।
हिंदू अविभाजित परिवार के लिए किस प्रकार की कमाई संभव है?
एक हिंदू अविभाजित परिवार को विभिन्न स्रोतों से आय प्राप्त हो सकती है, जैसे कि किराया, ब्याज और लाभांश, साथ ही अचल संपत्ति, व्यवसाय, निवेश और कृषि से आय भी प्राप्त हो सकती है।
हिंदू व्यक्तिगत कानून के अनुसार परिवार का कर्ता कौन है?
हिंदू अविभाजित परिवार का सबसे वरिष्ठ पुरुष सदस्य, कर्ता, इसके संचालन का प्रभारी होता है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में वर्ष 2005 के संशोधन के साथ, महिलाएं अब हिंदू अविभाजित परिवार में कर्ता का पद धारण करने के लिए पात्र हैं।
हिंदू अविभाजित परिवार से प्राप्त आय पर कौन से कर लागू होते हैं?
हिंदू अविभाजित परिवार से प्राप्त आय एक पृथक इकाई के रूप में “हिंदू अविभाजित परिवार” शीर्षक के अंतर्गत कराधान के अधीन है। राजस्व हिंदू अविभाजित परिवार के लिए उपयुक्त आयकर स्लैब के आधार पर कराधान के अधीन है, और हिंदू अविभाजित परिवार को अपना कर रिटर्न दाखिल करना आवश्यक है।
हिंदू अविभाजित परिवार के विभाजन की स्थिति में कर देयता का क्या होता है?
विभाजन की स्थिति में, परिसंपत्ति का वितरण तब तक नहीं हो सकता जब तक हिंदू अविभाजित परिवार के कर दायित्व पूरे नहीं हो जाते। विभाजन के कर प्रभाव के बारे में सोचना महत्वपूर्ण है, और प्रत्येक सदस्य को अपनी आय और पूंजीगत लाभ का हिस्सा दर्ज करना होगा।
क्या हिंदू अविभाजित परिवारों की कर दरें अलग हैं?
व्यक्तिगत करदाताओं पर लागू आयकर स्लैब हिंदू अविभाजित परिवार पर भी लागू होते हैं। कर आधार के आधार पर दरें प्रगतिशील हैं।
संदर्भ