सुंदरभाई अंबालाल देसाई और अन्य बनाम गुजरात राज्य (2002)

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यह लेख Avneet Kaur द्वारा लिखा गया है। इसमें सुंदरभाई अंबालाल बनाम गुजरात राज्य के मामले के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है जो सर्वोच्च न्यायालय का एक महत्वपूर्ण आदेश था जिसमें कानूनी कार्यवाही के दौरान पुलिस हिरासत में मूल्यवान संपत्ति के प्रबंधन के संबंध में सिद्धांतों की गणना की गई थी। लेख का उद्देश्य ऐतिहासिक आदेश पर विस्तृत गहराई से चर्चा करना है। यह हाल के निर्णयों के आलोक में आदेश के महत्व पर भी चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

जब हम पुलिस हिरासत से संपत्ति के निपटान के बारे में बात करते हैं, तो इसका तात्पर्य पुलिस द्वारा हिरासत में  ली गई संपत्ति को संभालने और प्रबंधित करने की प्रक्रिया से है। इसके अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं, जैसे संपत्ति को मालिक को लौटाना, उसे बेचना, नष्ट करना या राज्य की हिरासत में लेना। मान लीजिए कि किसी व्यक्ति की कार को पुलिस ने जब्त कर लिया है और मुकदमा लंबित होने तक अपनी हिरासत में रखा है, और जब कानूनी कार्यवाही पूरी हो जाती है, तो जो बचता है वह कबाड़ का एक टुकड़ा है जिसे उसके मालिक को वापस कर दिया जाता है। इससे मालिक को नुकसान होता है, और ऐसी स्थितियों को रोकने के लिए, कई प्रक्रियात्मक कानून शामिल किए गए हैं।

सुंदरभाई अंबालाल देसाई बनाम गुजरात राज्य (2002) का मामला पुलिस हिरासत में विभिन्न प्रकार की संपत्ति जिसके संबंध में कोई अपराध किया गया है या जो जांच या परीक्षण के दौरान उपयोगी होने की संभावना है, को बनाए रखने के सवाल से भी निपटता है। पुलिस थानों पर संपत्ति के ऐसे प्रतिधारण (रिटेंशन) से असली मालिक को नुकसान होता है, इसके मूल्य में गिरावट आती है, और अदालत और पुलिस पर भी बोझ पड़ता है। हिरासत में रहने के दौरान संपत्ति के दुरुपयोग या पुलिस द्वारा छेड़छाड़ का भी जोखिम होता है, जैसा कि इस मामले में तर्क दिया गया है। हालाँकि ऐसे संबंधित मुद्दों से निपटने के लिए कई प्रावधान मौजूद हैं, फिर भी उनका कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) स्पष्ट नहीं है। लेख का मुख्य विचार संपत्ति निपटान से संबंधित विभिन्न प्रावधानों और इसे सुविधाजनक बनाने में अदालतों की भूमिका का विस्तृत कानूनी विश्लेषण देना है।

सुंदरभाई अंबालाल देसाई और अन्य बनाम गुजरात राज्य (2002) का विवरण

  • मामले का नाम: सुंदरभाई अंबालाल देसाई और अन्य बनाम गुजरात राज्य
  • आदेश की तिथि: 01.10.2002
  • मामले के पक्ष

याचिकाकर्ता: सुंदरभाई अंबालाल देसाई और अन्य।

प्रतिवादी: गुजरात राज्य

  • समतुल्य उद्धरण: एआईआर 2003 एससी 638, 2002 (9) स्केल 153, (2002) 10 एससीसी 283, [2002] एसयूपीपी 3 एससीआर 39, 2003 (1) यूजे 590।
  • मामले का प्रकार: विशेष अनुमति याचिका
  • न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
  • शामिल क़ानून: भारतीय दंड संहिता 1860, आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973
  • पीठ: न्यायमूर्ति एम.बी. शाह और न्यायमूर्ति डी.एम. धर्माधिकारी

सुंदरभाई अंबालाल देसाई और अन्य बनाम गुजरात राज्य (2002) के तथ्य

सहायक पुलिस आयुक्त, “डी” डिवीजन, सूरत द्वारा गुजरात पुलिस के कुछ कर्मियों के खिलाफ एफआईआर (प्राथमिकी) दर्ज की गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि अभियुक्त भारतीय दंड संहिता,1860 (इसके बाद “आईपीसी” के रूप में उल्लिखित) की धारा 420, 429, 465, 468, 477-A, और 144 के तहत अपराध करने में शामिल थे। एफआईआर में कहा गया है कि अभियुक्त पुलिस हिरासत में सौंपी गई संपत्ति के दुरुपयोग, वस्तुओं के अवैध प्रतिस्थापन, पुलिस रिकॉर्ड के साथ हस्तक्षेप करने और ऐसी संपत्ति के गैरकानूनी निपटान या लेनदेन में शामिल थे। उन पर पैसे, सोना और वाहनों जैसी मूल्यवान वस्तुओं को गलत तरीके से संभालने और उन्हें अन्य नकली वस्तुओं से बदलने का आरोप लगाया गया था। विचारणीय न्यायालय ने अभियुक्त को रिमांड दे दी। गुजरात उच्च न्यायालय ने बाद में विचारणीय न्यायालय के आदेश के जवाब में आवेदनों को खारिज कर दिया।

इसके बाद, अभियुक्त पुलिस कर्मियों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष दो विशेष अनुमति याचिकाएं दायर की गईं।

सुंदरभाई अंबालाल देसाई और अन्य बनाम गुजरात राज्य (2002) में उठाए गए मुद्दे 

  • क्या आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (इसके बाद “सीआरपीसी” के रूप में उल्लिखित) की धारा 451 और 457 के तहत दिए गए पुलिस हिरासत में संपत्ति के प्रबंधन के संबंध में नियमों का उचित कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) है।
  • क्या मूल्यवान संपत्ति और वस्तुओं को आवश्यकता से अधिक पुलिस हिरासत में रखा जाना चाहिए।
  • क्या जब्त की गई वस्तुओं की हिरासत पुलिस के पास होनी चाहिए या उनके कब्जे के हकदार व्यक्ति के पास होनी चाहिए।

सुंदरभाई अंबालाल देसाई बनाम गुजरात राज्य (2002) में पक्षों के तर्क 

याचिकाकर्ता

  • याचिकाकर्ताओं की ओर से वकील ने तर्क दिया कि एफआईआर में पुलिस अधिकारियों के नामों का उल्लेख नहीं किया गया था, और वर्तमान मामले को छोड़कर उनके खिलाफ दर्ज किसी भी पूर्ववर्ती पृष्ठभूमि का कोई सबूत नहीं था।
  • यह तर्क दिया गया कि जब याचिकाकर्ताओं को अग्रिम जमानत दी गई थी तो उनकी रिमांड के लिए आवेदन अनुचित था क्योंकि इससे अग्रिम जमानत देने का उद्देश्य विफल हो जाएगा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी पर भी रोक लग जाएगी।
  • याचिकाकर्ताओं ने कहा कि संपत्ति के दुरुपयोग और एफआईआर में उल्लिखित अन्य अपराधों के संबंध में कोई निर्णायक सबूत नहीं था और पुलिस हिरासत में रहते हुए संपत्ति को हुई कोई भी क्षति ऐसी संपत्ति से निपटने के लिए संबंधित मजिस्ट्रेट द्वारा दिए जाने वाले आदेशों और निर्देशों की कमी के कारण हुई थी।
  • वकील ने यह भी तर्क दिया कि पुलिस हिरासत में संपत्ति और वाहनों को मालिकों को छोड़ने से अदालत के समक्ष व्यापक मुकदमेबाजी का खतरा पैदा हो जाएगा, जिससे उस पर बोझ बढ़ जाएगा।

प्रतिवादी

प्रतिवादी की ओर से वकील ने कहा कि पुलिस थानों में रखी गई संपत्ति और वस्तुएं सीआरपीसी के तहत इस संबंध में उल्लिखित प्रावधानों के अनुपालन में नहीं हैं। इससे राज्य के खजाने और उन नागरिकों को, जिनकी वस्तुएं हिरासत में रखी गई हैं, संभावित जोखिम या हानि का खतरा होता है।

  • प्रतिवादी ने कहा कि पुलिस थानों में सामान रखने का उद्देश्य उनकी सुरक्षित हिरासत सुनिश्चित करना है; हालाँकि, प्रावधानों का पालन न करने और मुकदमों की लंबी अवधि पुलिस अधिकारियों को संपत्ति का दुरुपयोग करने की अनुमति देती है। जब संपत्ति को पुलिस हिरासत में रखा जाता है, तो उस संपत्ति को सौंप दिया जाता है, जिसे सुरक्षित रखा जाना चाहिए और वस्तुओं की वापसी की सुविधा के लिए अपने स्वयं के उपयोग के लिए दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए।
  • यह भी तर्क दिया गया कि पुलिस हिरासत में संपत्ति के निपटान और सुरक्षित रखने और उसके लिए पुलिस रिकॉर्ड बनाए रखने के लिए गुजरात पुलिस अधिनियम, 1951 के प्रावधानों का अनुपालन नहीं किया गया है।
  • प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि पुलिस थानों पर संपत्ति और वस्तुओं की देखरेख का अत्यधिक बोझ है, जिससे पुलिस रिकॉर्ड के साथ छेड़छाड़ हो सकती है, और समय के साथ संपत्ति का मूल्य भी कम होने लगता है। ऐसी परिस्थितियों को रोकने के लिए, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इस संबंध में सीआरपीसी की धारा 451 जैसे प्रावधानों को विधिवत लागू किया जाए।
  • प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि मूल्यवान संपत्ति और वस्तुएं संबंधित जांच या मुकदमे में अदालत के समक्ष पेश किए जाने के बाद सही मालिक को जारी की जानी चाहिए।
  • वकील ने सीआरपीसी, 1973 की धारा 451 और 457 का भी हवाला दिया, जो संपत्ति की हिरासत और निपटान के सवाल और हिरासत की गई संपत्ति के संबंध में पुलिस द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया से संबंधित हैं। ये प्रावधान उचित आदेश पारित करने की व्यापक शक्तियाँ देते हैं। वकील ने तर्क दिया कि इन शक्तियों के बावजूद, अदालत द्वारा उचित आदेश पारित नहीं किए जाते हैं।

सुंदरभाई अंबालाल देसाई बनाम गुजरात राज्य (2002) में शामिल कानूनी प्रावधान

इस मामले में मुख्य कानूनी पहलू पुलिस हिरासत में संपत्ति के प्रबंधन के इर्द-गिर्द घूमते हैं, जिन्हें निम्नलिखित प्रावधानों के माध्यम से उजागर किया जा सकता है:

सीआरपीसी की धारा 451 

यह एक महत्वपूर्ण प्रावधान है जो संपत्ति को जब्त करने और बनाए रखने की पुलिस और अदालत की शक्ति से संबंधित है यदि यह विश्वास करने का कारण है कि संपत्ति को सबूत के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है या कानूनी कार्यवाही में अदालत के समक्ष पेश करने के लिए आवश्यक है। यह धारा आपराधिक अदालत के समक्ष कानूनी कार्यवाही के दौरान उत्पादित किसी भी संपत्ति की उचित हिरासत के लिए उचित समझे जाने वाले किसी भी आदेश को पारित करने के लिए संबंधित मजिस्ट्रेट की ओर से व्यापक विवेक रखती है। शासकीय सिद्धांत यह है कि जब्त की गई संपत्ति को कानूनी कार्यवाही के लिए आवश्यक समय से अधिक समय तक नहीं रखा जाना चाहिए। यह धारा न्यायालय को संपत्ति की अंतरिम हिरासत सही मालिक को देने का अधिकार देती है, जबकि धारा 452 के तहत, संपत्ति के निपटान का आदेश केवल जांच या मुकदमे के समापन पर ही दिया जा सकता है। धारा 452 के प्रयोजन के लिए यह आवश्यक है कि न्यायालय के समक्ष जांच या मुकदमा हो और उसे पूरा भी किया जाये। यदि कानूनी कार्यवाही शुरू होने से पहले अपराध का शमन (कंपाउंड) कर लिया गया है, तो धारा 452 लागू नहीं होगी।

धारा 451 मजिस्ट्रेट को यह अधिकार भी देती है कि यदि संपत्ति खराब होने की प्रकृति की है तो साक्ष्य दर्ज करने के बाद संपत्ति को बेचने या निपटाने का आदेश दे सके। इस पर धारा 459 के तहत भी चर्चा की गई है, जो 500 रुपये से कम मूल्य की खराब होने वाली संपत्ति को बेचने की मजिस्ट्रेट की शक्ति से संबंधित है।

सीआरपीसी की धारा 457

यह धारा कानूनी कार्यवाही के दौरान जब्त की गई संपत्ति को मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं किए जाने पर अपनाई जाने वाली प्रक्रिया का वर्णन करती है। ऐसे मामले में, संपत्ति का निपटारा किया जा सकता है या उसके कब्जे के हकदार व्यक्ति को सौंपा जा सकता है। न्यायालय संपत्ति को उसके असली मालिक या उसके कब्जे का दावा करने वाले व्यक्ति को ऐसी शर्तों पर लौटाने का आदेश दे सकता है, जिन्हें वह उचित समझे। हालाँकि, यदि कब्जे का हकदार व्यक्ति अज्ञात है, तो मजिस्ट्रेट संपत्ति को निर्दिष्ट करते हुए एक उद्घोषणा (प्रोक्लेमेशन) जारी कर सकता है, जिससे हकदार व्यक्ति छह महीने के भीतर अदालत के समक्ष अपना दावा स्थापित करने में सक्षम हो जाएगा।

सीआरपीसी की धारा 458 

यह धारा दो स्थितियों से संबंधित है: पहला, जब कोई व्यक्ति छह महीने के भीतर जब्त की गई संपत्ति के लिए दावा दायर करने में विफल रहता है, और दूसरा, जब संपत्ति पर कब्जा करने वाला व्यक्ति यह दिखाने में विफल रहता है कि संपत्ति उसके द्वारा कानूनी रूप से अर्जित की गई थी। ऐसी स्थिति में, न्यायालय संपत्ति को संबंधित राज्य सरकार के निपटान में रखने का आदेश दे सकता है। अदालत संपत्ति को सरकार द्वारा बेचने का भी आदेश दे सकती है, और ऐसी बिक्री से प्राप्त आय सरकार द्वारा निर्धारित की जाएगी।

सुंदरभाई अंबालाल देसाई बनाम गुजरात राज्य (2002) में आदेश

न्यायालय ने माना कि पुलिस थानों में रखे गए सामानों के निपटान के लिए एक त्वरित प्रक्रिया विकसित करने की आवश्यकता है; इस संबंध में धारा 451 का प्रयोग एवं कार्यान्वयन शीघ्रता से किया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि इससे सीआरपीसी के तहत उल्लिखित प्रावधानों के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकेगा। न्यायालय ने कहा कि सीआरपीसी 1973 की धारा 451 के उचित कार्यान्वयन के माध्यम से पुलिस थानों और अदालतों पर बोझ को कम किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने, वर्तमान मामले में, विभिन्न प्रकार की संपत्ति, जैसे कि मूल्यवान वस्तुएँ, धन, वाहन, नशीले पदार्थ इत्यादि की अलग-अलग हिरासत के लिए पुलिस अधिकारियों द्वारा पालन की जाने वाली निम्नलिखित प्रक्रिया निर्धारित की है, जिस पर नीचे चर्चा की गई है।

मूल्यवान वस्तुएँ और करेंसी नोट

न्यायालय ने प्रतिवादियों की इस दलील को स्वीकार कर लिया कि मुकदमा खत्म होने तक मूल्यवान संपत्ति और सोने-चांदी के आभूषण और पैसे जैसी वस्तुएं वर्षों तक रखने से कोई फायदा नहीं है। मजिस्ट्रेट को साक्ष्य दर्ज करने के बाद ऐसी संपत्ति के संबंध में उचित आदेश पारित करना चाहिए। न्यायालय ने यह भी निर्धारित किया कि संपत्ति का कब्ज़ा सौंपने से पहले तैयार किया गया उचित पंचनामा सबूत के रूप में अदालत में संपत्ति के उत्पादन के विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।

न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि सामान उस व्यक्ति का है जिसके घर पर लूट, डकैती या चोरी हुई है, तो संपत्ति को उचित पंचनामा बनाने, तस्वीरें लेने और यह गारंटी देने के लिए बॉन्ड या प्रतिभूति (सिक्योरिटी) जमा करने के बाद कि मुकदमे के दौरान आवश्यकता होने पर संपत्ति को अदालत के समक्ष पेश किया जाना चाहिए, सौंप दिया जाना चाहिए। न्यायालय ने पंचनामा तैयार करने के लिए निम्नलिखित दिशानिर्देश निर्धारित किये:

  • संपत्ति की वापसी के लिए पंचनामा पुलिस अधिकारियों द्वारा संपत्ति की जब्ती के लिए पंचनामा के समान सावधानियों के साथ तैयार किया जाना चाहिए।
  • इसके अलावा, संबंधित वस्तुओं की तस्वीरें ली जानी चाहिए। दावेदार को यह सुनिश्चित करने के लिए एक बॉन्ड या प्रतिभूति जमा राशि का भी भुगतान करना होगा कि वस्तुओं में कोई बदलाव, क्षति या नष्ट नहीं किया गया है।
  • वस्तुओं की तस्वीरों पर अभियोजन पक्ष, अभियुक्त और संपत्ति के दावेदार द्वारा प्रतिहस्ताक्षर किए जाने चाहिए।
  • किसी वाहन के संबंध में, अदालत के समक्ष जब्ती रिपोर्ट प्रस्तुत करना पर्याप्त है, और वाहन को प्रस्तुत करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
  • न्यायालय न्याय के हित में उचित समझे जाने वाली कोई भी अन्य शर्त लगा सकता है।

न्यायालय ने माना कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है जब संपत्ति दावेदार के साथ-साथ शिकायतकर्ता को भी नहीं सौंपी जाती है। ऐसे मामले में, अदालत संपत्ति को बैंक लॉकर में रखने का निर्देश दे सकती है। इसी तरह, जब सामान पुलिस हिरासत में होता है, तो थाना प्रभारी पंचनामा तैयार करने के बाद सामान को बैंक लॉकर में रख सकता है।

अदालत ने कहा कि जब्त की गई सभी संपत्ति को एक सप्ताह के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना चाहिए। मजिस्ट्रेट जांच के प्रयोजन के लिए जांच अधिकारी को जब्त की गई संपत्ति भी सौंप सकता है। हालाँकि, संपत्ति को जांच के उद्देश्य से आवश्यकता से अधिक समय तक नहीं रखा जाएगा।

वाहन

कई जब्त वाहन लंबे समय तक पुलिस थानों पर मौजूद रहते हैं, जिससे वे खराब हो जाते हैं और कबाड़ में बदल जाते हैं। न्यायालय ने यह भी कहा कि जब्त किए गए वाहनों को लंबे समय तक पुलिस थानों में नहीं रखा जाना चाहिए। इसे बॉन्ड और प्रतिभूति जमा करने के बाद वापस कर दिया जाएगा। हालाँकि, यदि दावेदार अज्ञात है, तो अदालत द्वारा इसकी नीलामी की जा सकती है। यदि वाहन का बीमा है तो कब्ज़ा लेने के लिए बीमा कंपनी को सूचित किया जाएगा। यदि कंपनी भी कब्ज़ा लेने में विफल रहती है, तो न्यायालय न्यायालय के समक्ष वाहन प्रस्तुत करने के छह महीने के भीतर एक आदेश द्वारा इसका निपटान करने का आदेश दे सकता है। हालाँकि, वाहन का कब्ज़ा सौंपने से पहले, पुलिस को उचित तस्वीरों के साथ एक उचित पंचनामा तैयार करना चाहिए।

नशीले पदार्थ

शराब और नशीली दवाओं जैसी वस्तुओं के संबंध में, अदालत ने कहा कि ऐसी वस्तुओं को लंबे समय तक पुलिस थानों पर नहीं रखा जाना चाहिए, बल्कि उनके निपटान के लिए त्वरित कार्रवाई की जानी चाहिए। पहचान के लिए एक नमूना लिया जाना चाहिए और रासायनिक विश्लेषक के पास भेजा जाना चाहिए ताकि अदालत में सबूत के रूप में इस्तेमाल किया जा सके और इस विवाद की संभावना को रोका जा सके कि जो वस्तु जब्त की गई थी वह वही नहीं थी। पुलिस थानों पर बड़ी मात्रा में ऐसी वस्तुएं नहीं रखी जानी चाहिए। ऐसी वस्तुओं के निपटान से पहले एक उचित पंचनामा तैयार किया जाना चाहिए। 

न्यायालय ने यह भी माना कि यदि पुलिस हिरासत में संपत्ति खो जाती है, क्षतिग्रस्त हो जाती है, या नष्ट हो जाती है और इस बात का कोई प्रथम दृष्टया सबूत मौजूद नहीं है कि क्या राज्य और उसके अधिकारियों ने इसकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उचित देखभाल और सावधानी बरती है, तो मजिस्ट्रेट संपत्ति के मूल्य के भुगतान का आदेश दे सकता है। अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालय की रजिस्ट्री की देखरेख से संबंधित मजिस्ट्रेट को सीआरपीसी 1973 की धारा 451 के कार्यान्वयन की निगरानी करनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जब्त की गई वस्तुओं को पुलिस थानों में पंद्रह दिनों से एक महीने से अधिक समय तक नहीं रखा जाए। मामले को अदालत ने तीन सप्ताह के लिए स्थगित कर दिया था।

सुंदरभाई अंबालाल देसाई बनाम गुजरात राज्य (2002) में फैसले के पीछे तर्क

सुंदरभाई अंबालाल देसाई बनाम गुजरात राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के पीछे तर्क श्रीमती बसाव कोम ज्ञानमंगौड़ा पाटिल बनाम मैसूर राज्य और अन्य (1977) के मामले में दिए गए निर्णय पर आधारित था। जिसमें कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा यह माना गया था कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 के विभिन्न प्रावधानों का उद्देश्य इस धारणा के इर्द-गिर्द घूमता प्रतीत होता है कि, जब किसी अपराध के संबंध में पुलिस द्वारा किसी संपत्ति को जब्त कर लिया जाता है, तोइसे कानूनी कार्यवाही के लिए आवश्यक समय से अधिक समय तक न्यायालय या पुलिस द्वारा अपने पास नहीं रखा जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक उच्च न्यायालय की टिप्पणी का हवाला दिया और कहा कि मुकदमा खत्म होने तक संपत्ति को राज्य के पास रखना न केवल ऐसी वस्तु के उपयोग को विफल करता है और इसके मालिक को नुकसान पहुंचाता है, बल्कि इसकी सुरक्षा और संरक्षण सुनिश्चित करने के लिए राज्य पर एक अतिरिक्त जिम्मेदारी भी डालता है। न्यायालय ने आगे कहा कि, चूंकि पुलिस द्वारा संपत्ति जब्त करने का कार्य राज्य या उसके अधिकारियों को सौंपने का तात्पर्य है, इसलिए अंतिम इरादा यह है कि संपत्ति को उसके मालिक या उसके कब्जे के हकदार व्यक्ति को वापस कर दिया जाए, जब उसे बनाए रखने की आवश्यकता होती है। मौजूद नहीं। इसे सुनिश्चित करने के लिए, हिरासत की गई सभी संपत्ति को अदालत के समक्ष पेश किया जाना आवश्यक है। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि, किसी भी आपराधिक मामले की कार्यवाही के दौरान, पुलिस को जांच और मुकदमे के हर चरण में मजिस्ट्रेट के निर्देशों और आदेशों के तहत कार्य करना होगा। इसलिए, यह स्पष्ट है कि न्यायालय पुलिस अधिकारियों के कार्यों पर व्यापक नियंत्रण रखता है। तदनुसार, यह न्यायालय का कर्तव्य बन जाता है कि वह ऐसी स्थितियों का संज्ञान ले और बिना किसी अनावश्यक देरी के कानून के अनुसार संपत्ति के निपटान या वितरण के लिए उचित आदेश पारित करे।

सुंदरभाई अंबालाल बनाम गुजरात राज्य (2002) का आलोचनात्मक विश्लेषण

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का आदेश भारतीय कानूनी प्रणाली की त्रुटिपूर्ण व्यवस्था को दोहराता है, जो अच्छी तरह से तैयार किए गए लेकिन शायद ही कभी लागू किए गए वैधानिक प्रावधानों के माध्यम से परिलक्षित होता है। इस आदेश से किसी नए सिद्धांत या नियम का निर्माण नहीं हुआ; बल्कि, इसने पुलिस द्वारा जब्त की गई संपत्ति के संबंध में पहले से मौजूद सिद्धांतों के कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित किया। सीआरपीसी की धारा 451 और 457 विशेष रूप से ऐसी स्थितियों से निपटती हैं। हालाँकि, न्यायाधीशों और न्यायालय को प्रदान की गई व्यापक शक्तियों और विवेक के अस्तित्व के बावजूद, ऐसी शक्तियों का विधिवत प्रयोग नहीं किया जाता है और पुलिस द्वारा जब्त की गई संपत्ति की वापसी, निपटान या वितरण के संबंध में उचित आदेश पारित नहीं किए जाते हैं। इसके अलावा, गुजरात पुलिस अधिनियम, 1951 मौजूद है, जो विशेष रूप से ऐसी स्थितियों से निपटता है और उचित रिकॉर्ड बनाए रखने की जिम्मेदारी पुलिस अधिकारियों पर डालता है। हालाँकि, इन सभी प्रावधानों में उचित कार्यान्वयन का अभाव है। इस मामले में अदालत ने उचित आदेश और निर्देश पारित करने पर ध्यान केंद्रित किया। हालाँकि, अत्यधिक न्यायिक बैकलॉग की वर्तमान स्थिति को देखते हुए, इससे अदालतों पर बोझ ही बढ़ेगा।

 

गुजरात उच्च न्यायालय का ताजा फैसला

हाल ही में, 2022 में, गुजरात उच्च न्यायालय ने रमेशभाई धुलाभाई कटारा बनाम गुजरात राज्य (2022) के प्रसिद्ध मामले में, सुंदरभाई अंबालाल देसाई बनाम गुजरात राज्य 2002 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का संदर्भ दिया। रमेशभाई कटारा मामले में, कुछ पुलिस कर्मियों को पता चला कि बड़ी मात्रा में शराब ले जाने वाला एक वाहन पास से गुजर रहा था। पूछताछ करने पर पुलिस अधिकारियों ने पाया कि ट्रक चालक बिना किसी परमिट या अनुमति के शराब ले जा रहा था। इसलिए, वाहन और शराब को पुलिस हिरासत में जब्त कर लिया गया। गुजरात उच्च न्यायालय ने जब्त किए गए वाहनों की हिरासत के संबंध में सुंदरभाई मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर भरोसा किया और कहा कि वाहन को अदालत के समक्ष पेश करने के छह महीने के भीतर, इसके मालिक को इसके निपटान या वापसी के लिए उचित आदेश दिए जाने चाहिए। इसलिए, उच्च न्यायालय ने वाहन को निम्नलिखित शर्तों पर रिहा करने का आदेश दिया:

  • याचिकाकर्ता को पंचनामे में सूचीबद्ध वाहन के बराबर राशि की प्रतिभूति राशि का भुगतान करना चाहिए।
  • विचारणीय न्यायालय के समक्ष एक उपक्रम (अंडरटेकिंग) दायर किया जाना चाहिए जिसमें कहा गया हो कि संबंधित वाहन के हस्तांतरण से पहले संबंधित अदालत से अनुमति प्राप्त की जाएगी।
  • एक अन्य उपक्रम दायर किया जाना चाहिए जिसमें कहा गया हो कि वाहन अदालत द्वारा निर्देश दिए जाने पर पेश किया जाएगा।
  • यदि बाद में याचिकाकर्ता द्वारा कोई अपराध किया जाता है, तो वाहन जब्त कर लिया जाएगा।

निष्कर्ष

मामले ने उन व्यक्तियों की दुर्दशा को उजागर किया जिनकी संपत्ति वर्षों की कानूनी कार्यवाही के कारण जब्त कर ली गई थी और ऐसे व्यक्तियों को उनकी संपत्ति पर कब्जा बहाल करने के लिए अदालतों और पुलिस अधिकारियों की ओर से निष्क्रियता थी। हालाँकि, कानून अदालतों को जब्त की गई संपत्ति के निपटान से निपटने के लिए आदेश पारित करने में सक्षम बनाता है।

इस विशेष मामले में, न्यायालय ने इस धारणा की पुष्टि करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई कि किसी भी परिस्थिति में पुलिस द्वारा संपत्ति की जब्ती उन्हें इसका दुरुपयोग करने या इसे बिल्कुल आवश्यक होने से अधिक समय तक बनाए रखने का अधिकार नहीं देती है। इसलिए, आदेश मुख्य रूप से नागरिकों को होने वाले नुकसान की रोकथाम, संपत्ति की सुरक्षा को सुव्यवस्थित करके पुलिस थानों पर बोझ को कम करने और इस संबंध में वैधानिक प्रावधानों के उचित कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने पर केंद्रित था। व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करने और जब्त की गई संपत्ति को जिम्मेदारी से संभालने के महत्व पर जोर देकर, अदालत के फैसले का उद्देश्य निष्पक्ष और उचित समाधान लाना था। यह एक अनुस्मारक के रूप में कार्य करता है कि अंतिम लक्ष्य नागरिकों के हितों की रक्षा करना और कानूनी प्रणाली की अखंडता को बनाए रखना होना चाहिए।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

सीआरपीसी की धारा 451 के प्रयोजन के लिए संपत्ति का क्या अर्थ है?

यहां ‘संपत्ति’ शब्द नीचे उल्लिखित चार अलग-अलग प्रकार की संपत्तियों को दर्शाता है:

  • किसी अपराध को अंजाम देने में उपयोग की गई संपत्ति।
  • वह संपत्ति जिस पर अपराध किया गया हो।
  • वह संपत्ति जो न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की गई हो।
  • संपत्ति जो पुलिस या अदालत की हिरासत में है।

इसलिए, सीआरपीसी की धारा 451 के तहत “संपत्ति” शब्द उन चल और अचल वस्तुओं को संदर्भित करता है जिनके संबंध में कोई अपराध किया गया है या कानूनी कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में उपयोग किया जाना है।

पंचनामा क्या है?

पंचनामा एक कानूनी दस्तावेज है जिसमें किसी अपराध के संबंध में पाए गए अवलोकन, साक्ष्य, निष्कर्ष या संपत्ति का रिकॉर्ड शामिल होता है। यह कानूनी कार्यवाही में साक्ष्य का एक महत्वपूर्ण टुकड़ा है और मामले के तथ्यों को स्थापित करने में मदद करता है। इसका उद्देश्य जांच प्रक्रिया में पारदर्शिता और सटीकता सुनिश्चित करना है।

यदि पुलिस हिरासत में संपत्ति खो जाती है या क्षतिग्रस्त हो जाती है तो क्या उपाय है?

ऐसे मामले में, यदि यह पाया जाता है कि यह दिखाने के लिए कोई प्रथम दृष्टया सबूत मौजूद नहीं है कि पुलिस अधिकारियों द्वारा उचित देखभाल और सावधानी बरती गई थी, तो अदालत प्रभावित व्यक्ति को संपत्ति के मूल्य का भुगतान करने का आदेश दे सकती है।

पुलिस या अदालत की हिरासत से जब्त की गई संपत्ति वापस पाने की प्रक्रिया क्या है?

संपत्ति को आम तौर पर तब तक पुलिस हिरासत में रखा जाता है जब तक कि कानूनी कार्यवाही के दौरान अदालत में पेश करने की आवश्यकता न हो। साक्ष्य दर्ज होने के बाद और संपत्ति की आवश्यकता नहीं रह जाती है, पुलिस अधिकारी या अदालत इसे वापसी के लिए उपलब्ध घोषित करते हैं। मालिक संपत्ति के लिए दावा दायर कर सकता है, और अदालत उचित समझे जाने पर उचित आदेश पारित कर सकती है।

वह कौन सी समयावधि है जिसमें कोई व्यक्ति जब्त की गई संपत्ति की वसूली के लिए दावा कर सकता है?

सीआरपीसी की धारा 457 में उल्लेख है कि, जब संपत्ति का दावेदार अज्ञात है, तो संपत्ति के संबंध में एक उद्घोषणा जारी की जा सकती है, जिससे ऐसी संपत्ति का हकदार व्यक्ति उद्घोषणा के छह महीने के भीतर अदालत के समक्ष दावा करने में सक्षम हो जाता है।

सीआरपीसी में कौन सा प्रावधान संपत्ति के निपटान से संबंधित है?

सीआरपीसी की धारा 451-459 अदालत के आदेश द्वारा जब्त की गई संपत्ति के निपटान, प्रबंधन, वापसी या बिक्री के विभिन्न पहलुओं से संबंधित है।

संदर्भ

 

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