यह लेख राजीव गांधी राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, पंजाब के Vedant Saxena द्वारा लिखा गया है। इसमें समलैंगिकों (होमोसेक्शुअल) को भारतीय सशस्त्र बलों (आर्म्ड फोर्सेज) में प्रवेश से वंचित (डिनाई) करने के कारणों पर चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
6 सितंबर, 2018 भारत के इतिहास में एक यादगार दिन था, क्योंकि इस दिन आई.पी.सी. की धारा 377 को असंवैधानिक (अनकंस्टीट्यूशन) घोषित किया गया था, जहां तक कि दो वयस्कों (एडल्ट्स) के बीच समलैंगिक कार्यों को अपराध घोषित किया गया था। फैसला सुनाते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि धारा 377 समलैंगिक व्यक्ति की समानता के अधिकार पर एक धब्बा है, जो संविधान के आर्टिकल 14 के तहत गारंटीकृत है। इसने यह भी कहा कि यौन अभिविन्यास (सेक्शुअल ओरिएंटेशन) को निजता (प्राइवेसी) का एक तत्व (एलिमेंट) माना जा सकता है, और इस प्रकार धारा 377 समलैंगिकों के निजता के अधिकार पर एक आक्रमण (इनवेजन) था। न्यायमूर्ति के.एस.पुट्टास्वामी (सेवानिवृत्त (रिटायर्ड)) बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया में, संविधान के आर्टिकल 21 के तहत निजता को जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता (पर्सनल लिबर्टी) का एक आंतरिक (इंट्रिसिक) तत्व घोषित किया गया था।
10 जनवरी, 2019 को, भारतीय सेना के प्रमुख (चीफ) जनरल रावत से भारतीय सेना पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के प्रभाव के बारे में प्रश्न पूछे गए थे। उनके शब्दों ने दुनिया भर की सेनाओं में अधिकारियों की भावनाएं दर्शाई। उन्होंने कहा कि हालांकि सेना, सुप्रीम कोर्ट से ऊपर नहीं है, लेकिन इसमें नामांकन (एनरोल) होने वाले व्यक्ति को समान विशेषाधिकारों (प्रिविलेज) का हक नहीं दिया जाएगा। समलैंगिकों की उपस्थिति सैनिकों के बीच समलैंगिकता (होमोफोबिक) के तनाव को बढ़ा सकती है, जिससे सेना की एकता प्रभावित हो सकती है।
कानून में कमी (लीगल लैक्यूना)
संविधान का आर्टिकल 14 सभी नागरिकों को भारत के क्षेत्र में, कानून के समक्ष समानता (इक्वालिटी बिफोर लॉ) और कानूनों के समान संरक्षण (इक्वल प्रोटेक्शन ऑफ लॉ) की गारंटी देता है। संविधान के भाग 3 से असंगत (इनकंसिस्टेंट) कोई भी कानून, शून्य (वॉयड) घोषित होने के लिए बाध्य है। यदि इस आर्टिकल को पढ़ा जाए तो, सशस्त्र बलों में समलैंगिकों के प्रवेश पर रोक लगाने वाले कानून असंवैधानिक होंगे। हालांकि, आर्टिकल 14 उचित वर्गीकरण (रीजनेबल क्लासिफिकेशन) के आधार पर भेदभाव की अनुमति देता है। डी.एस. नाकारा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि आर्टिकल 14, वर्ग विधान (क्लास लेजिस्लेशन) को मना करता है लेकिन उचित वर्गीकरण की अनुमति देता है। वर्गीकरण को 2 परीक्षणों (टेस्ट) को संतुष्ट करना चाहिए- सबसे पहले, व्यक्तियों या चीजों के बीच अंतर, जो समूह से बाहर रह गए हैं, उन्हें एक समझदार अंतर (इंटेलिजिबल डिफरेंशिया) पर स्थापित (फाउंडेड) किया जाना चाहिए, और दूसरी बात, अंतर का उद्देश्य के साथ तर्कसंगत संबंध (रैशनल नेक्सस) होना चाहिए जिसे विचाराधीन (इन क्वेश्चन) क़ानून द्वारा हासिल करने की मांग की गई है। उदाहरण के लिए, धीरेंद्र पांडुआ बनाम स्टेट ऑफ उड़ीसा में, यह घोषित किया गया था कि कुष्ठ (लेप्रोसी) रोग से पीड़ित लोगों और अन्य लोगों के बीच भेदभाव वैध था, क्योंकि कुष्ठ रोग एक छूत की बीमारी थी और इसलिए वर्गीकरण उचित आधार पर था। समलैंगिकों के प्रवेश के संबंध में, आर्टिकल 14 को आर्टिकल 33 के साथ पढ़ा जा सकता है।
आर्टिकल 33, संविधान की एक अनूठी (यूनिक) विशेषता है, जो संसद को सशस्त्र बलों के सदस्यों के लिए, भाग 3 के उल्लंघन (कॉन्ट्रेवेंशन) में कानून बनाने का अधिकार देता है, जब तक कि यह उनके कार्यों के उचित निर्वहन (डिस्चार्ज) और उनमें अनुशासन बनाए रखने के लिए आवश्यक हो। यह तर्क दिया जा सकता है कि सशस्त्र बलों के सदस्यों के पास के क्वार्टर्स में रहना और कंधे से कंधा मिलाकर सेवा करनी होती है तो ऐसे में समलैंगिकों की उपस्थिति समलैंगिकता से तनाव पैदा कर सकती है, जिससे सदस्यों की शांति और एकता को खतरा हो सकता है। हालांकि यह धारा स्वयं मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) के उल्लंघन में कानून बनाने की अनुमति देती है, इसे एक उचित वर्गीकरण के रूप में भी समझा जा सकता है, जिससे सशस्त्र बलों में समलैंगिकों के प्रवेश के लिए आर्टिकल 14 को लागू करने पर रोक लगाई जा सकती है। सेना के पूर्व न्यायाधीश एडवोकेट जनरल (जे.ए.जी.) मेजर जनरल नीलेंद्र कुमार ने कहा, “सेना अधिनियम (आर्मी एक्ट) पूरी तरह से एक अलग अधिनियम है और धारा 46 के तहत समलैंगिकता एक अपराध है, जो अशोभनीय आचरण (अनबिकमिंग कंडक्ट) से संबंधित है। सुप्रीम कोर्ट के पास सेना अधिनियम की धारा 46 या वायु सेना (एयर फोर्स) और नौसेना अधिनियमों (नेवी एक्ट) में इसी तरह की धाराओं की जांच करने का अवसर नहीं था। इसलिए, वह कानून, किताब पर ही है और सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसे संशोधित (अमेंद) या इसमें बदलाव नहीं किया गया है।”
भारतीय सशस्त्र बलों में समलैंगिकों के प्रवेश पर प्रतिबंध के लिए आधार (ग्राउंड्स फॉर द प्रोहिबिशन ऑफ़ एडमिशन ऑफ़ होमोसेक्शुअल इन द इंडियन आर्मी)
नैतिकता (मॉरेलिटी)
जनरल रावत के सशस्त्र बलों में समलैंगिकों के प्रवेश के खिलाफ होने का प्राथमिक (प्राइमरी) कारण नैतिकता का ह्रास (डिग्रेडेशन) है। उनका मानना था कि अन्य सदस्य समलैंगिकों के साथ रहने और सेवा करने में सहज (कंफर्टेबल) महसूस नहीं कर सकते हैं। “हम आधुनिक (मॉडर्न) नहीं हैं … हम पश्चिमीकृत (वेस्टरनाइज्ड) नहीं हैं … हम देखेंगे कि बीस साल बाद क्या होता है“। आर.ए.एन.डी. अध्ययन (स्टडी) के अनुसार, यह मानना अनुचित है कि समलैंगिकों की उपस्थिति अनिवार्य रूप से सेना के वातावरण को खराब कर देगी। उदाहरण के लिए, वाटकिंस बनाम यूनाइटेड स्टेट्स आर्मी में, वादी (प्लेंटिफ) को समलैंगिकता के आधार पर निष्कासित (एक्सपेल) करने की मांग की गई थी। हालांकि, कोर्ट इस कथन के समर्थन (सपोर्ट) में निर्णायक (कंक्लूसिव) सबूत खोजने में विफल रही कि, उसकी समलैंगिकता ने यूनिट की परफॉर्मेंस, मनोबल (मोरल) या अनुशासन पर अपमानजनक प्रभाव डाला था। इसलिए, उन्हें सशस्त्र बलों में दोबारा रखा गया था। इसी तरह, प्रुइट बनाम चेनी में, वादी, जिसे उसकी समलैंगिकता के कारण बर्खास्त (डिस्मिस) कर दिया गया था, वह यह साबित करने में सक्षम था कि सेना में उसकी उपस्थिति ने दूसरों को किसी भी तरह से प्रभावित नहीं किया था। बल्कि, उसने अपने पूरे सर्किट से बहुत सम्मान और प्रशंसा प्राप्त की थी। इसलिए, ऐसे उदाहरणों के आलोक (लाइट) में, केवल उसके यौन अभिविन्यास के आधार पर समलैंगिक के प्रवेश पर रोक लगाना अन्याय होगा।
आदेश (कमांड)
सशस्त्र बलों में समलैंगिकों के प्रवेश को अस्वीकार करने का एक अन्य कारण रैंक और आदेश की अखंडता (इंटीग्रिटी) है। सेना के जवान समलैंगिक के आदेशों का पालन करने से इंकार कर सकते हैं। यही कारण है कि महिलाओं को लड़ाकू भूमिकाओं (कंबेट रोल) में भर्ती किया जाना चाहिए या नहीं, इस सवाल पर बहुत बहस हुई है, क्योंकि अनपढ़ जवान एक महिला अधिकारी के आदेशों का पालन करने से इनकार कर सकते हैं। हालांकि, हाल के दिनों में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। फरवरी 2016 में पूर्व राष्ट्रपति, प्रणब मुखर्जी की घोषणा के बाद से, कि महिलाओं को अंततः भारतीय सशस्त्र बलों के सभी वर्गों में लड़ाकू भूमिका निभाने की अनुमति दी जाएगी, कई महिलाओं ने महत्वपूर्ण उद्देश्यों को हासिल करके पुरुष वर्चस्व (मेल सुप्रीमेसी) की अवधारणा (कांसेप्ट) को तोड़ दिया है। इसी तरह, ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म, जो संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा, कुवैत पर कब्जा किए हुए इराकी बलों को निकालने के लिए आयोजित एक सैन्य अभियान था, जिसका, यौन (सेक्शुअल) या नस्लीय (रेशियल) वर्चस्व के किसी भी मुद्दे के बिना एक अफ्रीकी-अमेरिकी द्वारा सफलतापूर्वक नेतृत्व (हेड) किया गया था। इसलिए, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि समलैंगिकों को प्रवेश के अधिकार से वंचित करने से सक्षम संभावनाओं (कॉम्पीटेंट प्रोस्पेक्ट्स) की भारतीय सेना को लाभ होगा।
विदेशी कार्य (फॉरेन एक्सरसाइज)
विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण (फ्रेंडली) संबंध भी समलैंगिकों को सशस्त्र बलों में प्रवेश से वंचित करने का एक कारण है। भले ही स्थानीय (लोकल) सेना, समलैंगिकों की उपस्थिति से संतुष्ट हो, अन्य राज्यों की सेनाएं ऐसा नहीं कर सकती हैं। दूसरे विश्व युद्ध की परिणति (कल्मिनेशन) के बाद से, ज्यादातर राज्य एक-दूसरे के साथ सौहार्दपूर्ण (हार्मोनियस) संबंधों को बढ़ावा देने के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं। प्रत्येक वर्ष बड़ी संख्या में संयुक्त सैन्य अभ्यास (जॉइंट मिलिटरी एक्सरसाइज) आयोजित किए जाते हैं। इसलिए, समलैंगिकों की उपस्थिति, विश्व भर की तैनाती में समस्याएं पैदा कर सकती है और राज्य सहयोग में बाधा उत्पन्न कर सकती है। इसका मतलब होगा कि गैर-प्रवेश न केवल यौन अभिविन्यास पर बल्कि रंग, लिंग आदि पर भी आधारित है। हालांकि, हाल की घटनाओं से पता चलता है कि कई देश इस अवधारणा से विचलित (डिविएट) हो रहे हैं। उदाहरण के लिए, 2014 में, 26 देशों ने समलैंगिकों को अपने सशस्त्र बलों में खुले तौर पर सेवा करने की अनुमति दी।
सामान्य शावर्स
प्रुइट बनाम चेनी में, प्रतिवादी (डिफेंडेंट) की तर्कों में यह शामिल था कि समलैंगिकों की उपस्थिति अन्य लोगों को उनके विषम (एनोमेलस) यौन अभिविन्यास के कारण असहज (अनकंफर्टेबल) कर सकती है। सामान्य शावर्स साझा (शेयर) करने में महत्वपूर्ण असुरक्षा उत्पन्न हो सकती है। हालांकि, एबल बनाम यू.एस.ए में, कोर्ट ने इस मुद्दे को नकारते हुए कहा:
“विषमलैंगिकों (हेट्रोसेक्शुअल) की गोपनीयता को समायोजित (अकोमोडेट) करने का अर्थ है, उदाहरण के लिए, अपने नग्न शरीर को समलैंगिकों के घूरने से सुरक्षित रखने के लिए, जो नग्न शरीर को देखना चाहते हैं, लेकिन वे आसानी से ऐसा कर सकते हैं, जब उनके अभिविन्यास का पता लगने की जगह, वह एक रहस्य हो। अंतर केवल इतना होगा कि विषमलैंगिकों को यह नहीं पता होगा कि उनके कौन से सेवा-साथी (सर्विस मेट्स) समलैंगिक हैं और विषमलैंगिकों के पास शॉवर में सभी के बारे में एक सामान्यीकृत (जनरलाइज्ड) संदेह होने का कारण होगा, शायद ही ऐसी परिस्थिति में ‘सामंजस्य (कोहेशन)’ बढ़ने की संभावना हो।
सुरक्षा (सिक्योरिटी)
समलैंगिकों की उपस्थिति के कारण, अन्य सदस्य उनका मज़ाक उड़ा सकते है और उन्हें धमका सकते है, जिससे उनके बीच का अंतर और अधिक बढ़ सकता है। लोग उनके यौन अभिविन्यास के तथ्य (फैक्ट) को सार्वजनिक करने की धमकी देकर उन्हें ब्लैकमेल कर सकते हैं। हालांकि, हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि समलैंगिकों को विषमलैंगिकों की तुलना में अधिक सुरक्षा जोखिम नहीं है।
अन्य देशों में विचार करने योग्य प्रगति (कंसीडरेबल एडवांसमेंट्स इन अदर कंट्रीज)
2011 में, उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति, बराक ओबामा ने अंततः 28 फरवरी, 1994 को क्लिंटन प्रशासन (एडमिनिस्ट्रेशन) द्वारा स्थापित, डी.ए.डी.टी. (डोंट आस्क, डोंट टेल) नीति (पॉलिसी) को समाप्त कर दिया। डी.ए.डी.टी. के अनुसार, एक समलैंगिक व्यक्ति को, अपने सैन्य कर्मियों के सामने, अपने यौन अभिविन्यास को प्रकट करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। हालांकि, यदि वह इसे अपने स्वयं के उल्लंघन से प्रकट करता था, तो उसका निर्वहन किया जा सकता है, सिवाय इसके कि जब किसी सेवा सदस्य का आचरण (कंडक्ट) “सैन्य सेवा से बचने या समाप्त करने के उद्देश्य से” था या जब यह “सशस्त्र बल के सर्वोत्तम हित (बेस्ट इंटरेस्ट) में नहीं होगा“। इसकी समाप्ति के साथ, समलैंगिक, निष्कासित होने के डर के बिना, खुले तौर पर और गर्व से सशस्त्र बलों में सेवा करने में सक्षम होंगे। ओबामा ने एक बयान में कहा: “आज की स्थिति में, वर्दी में देशभक्त अमेरिकियों को अब इस बारे में झूठ नहीं बोलना पड़ेगा कि वे अपने देश की सेवा करने के लिए कौन हैं।”
12 जनवरी, 2000 को, ब्रिटेन के सशस्त्र बलों में सेवा करने से, समलैंगिकों पर लगाए गए प्रतिबंध (बैन) को आखिरकार हटा दिया गया। इस कदम का लोगों, विशेष रूप से समलैंगिक समुदाय (कम्युनिटी) के लोगों ने बहुत स्वागत किया। ब्रिटिश सेना के कर्नल मार्क अब्राहम के अनुसार: “प्रतिबंध हटने से पहले सेना में मौजूद बहुत सारे समलैंगिक और समलैंगिक सैनिकों ने बताया कि उनके प्रयासों का कुछ प्रतिशत, पहले यह सोचने में खर्च किया जाता था की कुछ बुरा होने की संभावना है और यह सुनिश्चित करने में कि वे पकड़े ना जाए, और अब समय का वह प्रतिशत काम और उनके गृह जीवन के लिए समर्पित किया जा सकता है, इसलिए वास्तव में वे पहले की तुलना में अधिक प्रभावी होंगी।”
फरवरी 2014 में, हेग सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक स्टडीज ने सशस्त्र बलों में समलैंगिक समुदाय के सदस्यों को शामिल करने से संबंधित एक वैश्विक (ग्लोबल) रैंकिंग तैयार की थी। 100 से अधिक देशों ने रैंकिंग में जगह बनाई। भारत ने अपना नाम, सूची (लिस्ट) के उत्तरार्ध (लेटर हाफ) में, 100 में से 34 का मामूली स्कोर दर्ज करते हुए पाया। दुनिया में सबसे अधिक समलैंगिक-मित्र पाए जाने वाले न्यूजीलैंड की सेना ने 100 रैंक पाई। इसलिए इन आंकड़ों के अनुसार, भारतीय सशस्त्र सेनाएं वर्तमान में दुनिया में सबसे कम समलैंगिकों के अनुकूल (फ्रेंडली) हैं।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
समलैंगिक समुदाय के सदस्यों को बहुत समय से, विशेष रूप से भारत में, कई लोगों द्वारा असामान्य एंटिटीज के रूप में देखा गया है। समलैंगिक, जीवन के सभी क्षेत्रों में काफी समय से पूर्वाग्रह (प्रेजुडिस) के शिकार रहे हैं। बहुसंख्यक दृष्टिकोण (मेजोरिटी व्यू) होने के बावजूद, भारतीय संविधान समाज की धारणाओं (परसेप्शन) के बजाय, अपने स्वयं के पाठ द्वारा निर्देशित (गाइडेड) है। एक अभिविन्यास जिसे कभी एक अभिशाप के रूप में माना जाता था, उसको सुप्रीम कोर्ट द्वारा हमारे समाज के एक अनिवार्य हिस्से के रूप में मान्यता दी गई थी। भारतीय सेना को पारंपरिक दृष्टिकोण और निराधार (अनफाउंडेड) पूर्वाग्रह के बीच के अंतर को ध्यान में रखना होगा। ‘रूढ़िवाद (कंजर्वेटिज्म)’ की आड़ में भारतीय सेना समलैंगिकों को उनके मूल (बेसिक) अधिकारों से वंचित कर रही है। इसके अलावा, समलैंगिकों के प्रवेश को पूरी तरह से नकारने का मतलब, सक्षम सैनिकों और कमांडर्स के सशस्त्र बलों को लाभ पहुंचाना हो सकता है। निराश समुदायों के लोगों के नेतृत्व करने और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनने के अनगिनत उदाहरण हैं।
लोगों की भर्ती करते समय, भारतीय सेना उनकी सेवाओं को विनियमित (रेगुलेट) करने के लिए एक गहन (इंटेंस) और प्रभावी कोड का पालन करती है। समलैंगिकों को भी उसी कठोरता के अधीन बनाया जाना चाहिए। हालांकि, उन्हें अपनी योग्यता साबित करने का मौका देने से इनकार करना स्पष्ट रूप से अन्यायपूर्ण है।
बदलाव अंदर से आना चाहिए। भारतीय सेना का आधुनिकीकरण (मॉडर्नाइजेशन) का उद्देश्य केवल हथियारों तक ही सीमित नहीं होना चाहिए बल्कि इसके दृष्टिकोण और धारणाओं तक भी विस्तारित (एक्सटेंड) होना चाहिए। तभी यह एक सच्ची महाशक्ति बनने के करीब एक कदम होगा।
संदर्भ (रेफरेंसेस)