यह लेख Prathiksha .M. द्वारा लिखा गया है। इस लेख में हम मृत्युशैय्या पर दिए गए कथन के बारे में विस्तृत चर्चा करेंगे । इस लेख का अनुवाद Ayushi Shukla के द्वारा किया गया है।
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परिचय
“कोई भी तब तक अपने अपराध को स्वीकार नहीं करेगा जब तक उसका अपराध साबित नहीं हो जाता।”
भारतीय साक्ष्य अधिनियम भारतीय कानून में एक बुनियादी ढांचा प्रदान करता है जो न्यायालय में प्रस्तुत साक्ष्यों के आधार पर मामलों के फैसले को प्रभावित करता है। यह अधिनियम यह निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है कि साक्ष्य कितने विश्वसनीय और स्वीकार्य हैं, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि न्याय निष्पक्ष रूप से हो।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम का एक मुख्य पहलू यह है कि यह आपराधिक (क्रिमिनल) और दीवानी (सिविल) दोनों मामलों में लागू होता है।
आपराधिक मामलों में, यह अधिनियम साक्ष्य एकत्र करने, प्रस्तुत करने और उसका मूल्यांकन करने के दिशा-निर्देश देता है ताकि आरोपी की दोषीता या निर्दोषता तय की जा सके। यह सुनिश्चित करता है कि आरोपी को किसी कमजोर या अविश्वसनीय साक्ष्य के आधार पर दोषी न ठहराया जाए। इसके साथ ही, यह अधिनियम पीड़ितों और गवाहों के अधिकारों की भी रक्षा करता है ताकि न्यायिक प्रक्रिया के दौरान उन पर किसी प्रकार का अनुचित दबाव या प्रभाव न पड़े।
दीवानी मामलों में, भारतीय साक्ष्य अधिनियम का उद्देश्य सच्चाई स्थापित करना और पक्षों के बीच विवादों के परिणामों को तय करना होता है। यह मौखिक गवाही, दस्तावेजी साक्ष्य, और विशेषज्ञ की राय जैसे विभिन्न प्रकार के साक्ष्य की स्वीकार्यता को नियंत्रित करता है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि दीवानी मामलों के फैसले कानूनी रूप से स्वीकार्य और विश्वसनीय साक्ष्य पर आधारित हों, जिससे सभी पक्षों के लिए निष्पक्षता और न्याय सुनिश्चित हो।
अर्थ
मृत्युशैय्या पर दिया गया कथन (डाईंग डिक्लेरेशन) एक शक्तिशाली प्रमाण होता है जो न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है। यह बयान उस व्यक्ति द्वारा दिया जाता है, जो जानता है कि वह मरने वाला है और यह कथन उसकी मृत्यु से जुड़ी परिस्थितियों के बारे में पूछे गए सवालों के उत्तर में दिया जाता है। यह बयान स्वेच्छा से और बिना किसी दबाव (इनफ्लुएंस) या प्रापीड़न (कोअर्सन) के दिया जाना चाहिए।
प्रमाण के रूप में स्वीकार्य होने के लिए, मृत्युशैय्या पर दिया गया कथन कुछ शर्तों को पूरा करना चाहिए:
1.कथन देने वाले की क्षमता: जिस व्यक्ति ने बयान दिया है, उसे अदालत में गवाही देने की क्षमता होनी चाहिए। इसका मतलब है कि उस व्यक्ति को अपने कथन की प्रकृति और परिणाम को समझने की मानसिक क्षमता होनी चाहिए और वह अपने विचारों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में सक्षम होना चाहिए।
2.मृत्यु की निकटता: कथन देने वाले को यह जानना चाहिए कि वह मरने वाला है। इसे कथन के संदर्भ से समझा जा सकता है, जैसे कि उनकी शारीरिक स्थिति या चिकित्सा पेशेवरों द्वारा की गई टिप्पणियाँ।
3.स्वेच्छा से कथन देना: कथन स्वेच्छा से और स्वतंत्र रूप से दिया जाना चाहिए। इसे किसी धमकी, वादे या अन्य अनुचित दबाव के तहत नहीं लिया जा सकता।
4.कथन की सामग्री (कन्टेंट): कथन में मृत्यु के कारण या उसके आसपास की परिस्थितियों का उल्लेख होना चाहिए। इसमें अपराधी की पहचान, मृत्यु से पहले की घटनाएँ, और अन्य संबंधित विवरण शामिल हो सकते हैं।
5.सुसंगति (कंसिस्टेंसी): कथन को मामले में अन्य प्रमाणों के साथ मेल खाना चाहिए। यदि इसमें महत्वपूर्ण असंगतियां हैं, तो अदालत कथन की विश्वसनीयता पर सवाल उठा सकती है।
मृत्युशैय्या पर दिए गए कथन को विश्वसनीय माना जाता है क्योंकि यह व्यक्ति के मृत होने की गंभीरता के एहसास के तहत दिया जाता है। हालांकि, इनकी महत्वता और विश्वसनीयता का निर्धारण अंततः अदालत द्वारा प्रत्येक मामले की विशिष्ट परिस्थितियों के आधार पर किया जाता है।
जब कोई व्यक्ति मृत्युशैय्या पर कथन देता है, तो इसे सही तरीके से दस्तावेज़ित करना महत्वपूर्ण होता है। यह कथन लिखित, श्रव्य (ऑडियो) या दृश्य रूप में दर्ज (रिकॉर्ड) किया जा सकता है। कथन देने वाले को दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने या उसे स्वीकार करने से पहले किसी भी गलती को सुधारने का अवसर दिया जाना चाहिए। गवाहों को भी मौजूद रहना चाहिए, ताकि वे कथन की स्वेच्छा और प्रामाणिकता की गवाही दे सकें।
मृत्युशैय्या पर दिए गए कथन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, खासकर अचानक या अस्पष्ट मौतों के मामलों में न्याय सुनिश्चित करने के लिए। ये मूल्यवान प्रमाण प्रदान करते हैं, जो अपराधियों की पहचान करने और मृत्यु से जुड़ी घटनाओं को पुनः निर्मित करने में मदद कर सकते हैं।
कानूनी सूत्र (लीगल मैक्सिम)
“नीमो मॉरीचरस प्राइसुमीचर मेंटियर” का मतलब है कि कोई भी व्यक्ति मरते समय झूठ नहीं बोलेगा। अदालत का यह मानसिक विश्वास होता है कि मृत्यु शैया पर कोई व्यक्ति झूठ नहीं बोलेगा।
मृत्युशैय्या पर कथन की स्वीकार्यता:
- कथन उस व्यक्ति द्वारा दिया जाना चाहिए और यह बयान उस व्यक्ति की मृत्यु से संबंधित परिस्थितियों से जुड़ा होना चाहिए।
- उस व्यक्ति की मृत्यु की पुष्टि होनी चाहिए।
- कथन स्वतंत्र इच्छा से दिया जाना चाहिए, और इसे किसी दबाव या प्रभाव में नहीं लिया जाना चाहिए।
- जो व्यक्ति कथन दे रहा है, वह मानसिक रूप से स्वस्थ होना चाहिए।
- व्यक्ति की मृत्यु का कारण कथन में होना चाहिए।
- यह कथन किसी भी भाषा में दिया जा सकता है।
मृत्युशैय्या पर कथन कैसे दिए जाते हैं:
मृत्युशैय्या पर कथन देने का कोई निश्चित तरीका नहीं होता; यह पूरी तरह से परिस्थिति और व्यक्ति की क्षमता पर निर्भर करता है।
1.मौखिक कथन :
मौखिक कथन सबसे सामान्य प्रकार का बयान होता है; पीड़ित व्यक्ति पूरी घटना को अधिकारी को बताता है या गवाह द्वारा बयान दिया जाता है।
2.हाव-भाव (जेस्चर):
जब व्यक्ति बोलने में असमर्थ होता है, तो हाव-भाव के माध्यम से भी कथन दिया जा सकता है। उदाहरण के लिए, क्वीन्स एंप्रेस बनाम अब्दुल्ला मामले में, पीड़ित की गला रेत दिया गया था और वह बोलने में असमर्थ थी, तो उसने अपराधी का नाम बताने के लिए हाव-भाव का प्रयोग किया।
3.प्रश्न और उत्तर:
जो व्यक्ति कथन दर्ज कर रहा है, वह कथन देने वाले से सवाल पूछता है और उसके उत्तर को दर्ज करता है। यह एक सरल और प्रभावी तरीका है।
एफ.आई.आर. को मृत्युशैय्या पर कथन के रूप में लेना:
जब कोई व्यक्ति पुलिस स्टेशन पर एफ.आई.आर. दर्ज करता है और कहता है कि उसकी जान को खतरा है, और फिर वह मर जाता है, तो वह एफ.आई.आर. मृत्युशैय्या पर बयान के रूप में स्वीकार की जा सकती है। उदाहरण के लिए, अगर श्री A को श्री B से लगातार जान से मारने की धमकी मिल रही थी और श्री A ने पुलिस स्टेशन में एफ.आई.आर. दर्ज की और अगले दिन उसकी लाश मिली, तो यह एफ.आई.आर. मृत्युशैय्या पर कथन माना जा सकता है।
डॉक्टर की भूमिका :
डॉक्टरों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है जब कोई व्यक्ति बयान दे रहा होता है। उन्हें यह प्रमाणित करना चाहिए कि व्यक्ति मानसिक रूप से स्वस्थ है और कथन देने के लिए सक्षम है। डॉक्टरों को यह बयान रिकॉर्ड करने का भी अधिकार होता है जब उन्हें पता हो कि व्यक्ति अधिक समय तक जीवित नहीं रहेगा, खासकर जब व्यक्ति को गंभीर चोटों के साथ अस्पताल में भर्ती कराया जाता है। डॉक्टरों का गवाही दिया गया कथन स्वीकार किया जाता है क्योंकि अदालत मानती है कि डॉक्टर झूठी गवाही नहीं देंगे।
कौन मृत्युशैय्या पर कथन दर्ज कर सकता है :
मृत्यु पूर्व कथन एक ऐसा कथन है जो किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा दिया जाता है जो मरने के करीब होता है और जिसे सत्य माना जाता है क्योंकि व्यक्ति का निधन निकट होता है। मृत्यु पूर्व कथन का उद्देश्य कानून की अदालत में किसी व्यक्ति की मृत्यु से जुड़े परिस्थितियों के बारे में साक्ष्य प्रदान करना है।
मृत्यु पूर्व कथन को कई लोग दर्ज कर सकते हैं, जिनमें शामिल हैं:
1.मजिस्ट्रेट:
मजिस्ट्रेट न्यायिक अधिकारी होते हैं जिन्हें मृत्यु पूर्व कथन लेने का अधिकार होता है। उनकी उपस्थिति बयान में वजन और विश्वसनीयता जोड़ती है, क्योंकि वे निष्पक्ष होते हैं और शपथ दिलाने का अधिकार रखते हैं।
2.पुलिस अधिकारी:
पुलिस अधिकारी अक्सर अपराध या दुर्घटना स्थल पर सबसे पहले पहुंचते हैं और उन व्यक्तियों से मिलते हैं जो मृत्यु के करीब होते हैं। ऐसे मामलों में, पुलिस अधिकारी पीड़ितों के मृत्यु पूर्व कथन को दर्ज कर सकते हैं ताकि घटना के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सके।
3.डॉक्टर:
डॉक्टर, विशेष रूप से वे जो गंभीर रूप से घायल मरीजों का इलाज कर रहे होते हैं, मृत्यु पूर्व कथन दर्ज करते समय मौजूद हो सकते हैं। उनके पास मरीज की स्थिति का आकलन करने की चिकित्सीय विशेषज्ञता होती है और यह सुनिश्चित करते हैं कि बयान उस समय लिया गया है जब व्यक्ति अभी भी सचेत और समझदार हो।
4.साधारण नागरिक:
ऐसी स्थिति में जहाँ मजिस्ट्रेट या अन्य प्राधिकृत व्यक्ति के आने का इंतजार करने का समय न हो, वहाँ उपस्थित कोई भी साधारण नागरिक मृत्यु पूर्व कथन को दर्ज कर सकता है। गवाह को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बयान देने वाला व्यक्ति सचेत है और स्थिति की गंभीरता को समझता है, इससे पहले कि वह बयान दर्ज करे।
यह ध्यान देने योग्य है कि अदालत में मृत्यु पूर्व कथन की स्वीकार्यता विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है, जैसे कि बयान देते समय बयानकर्ता की मानसिक स्थिति, बयान की सुसंगति, और कथन से जुड़े परिस्थितियाँ। अदालत अन्य साक्ष्यों के साथ मृत्यु पूर्व कथन का मूल्यांकन करेगी ताकि उसकी विश्वसनीयता और वजन का निर्धारण किया जा सके।
मृत्यु पूर्व बयान (डाईंग डिपॉजिशन)
मृत्यु पूर्व बयान (डाईंग डिपॉजिशन) और मृत्युशैय्या पर कथन (डाईंग डिक्लेरेशन) दोनों लगभग समान होते हैं, लेकिन इनमें कुछ महत्वपूर्ण अंतर होते हैं। मृत्युशैय्या पर कथन किसी भी सामान्य व्यक्ति, पुलिस अधिकारी, डॉक्टर या मैजिस्ट्रेट द्वारा रिकॉर्ड की जा सकती है, लेकिन मृत्यु पूर्व साक्ष्य में घायल व्यक्ति का बयान मैजिस्ट्रेट के सामने आरोपी के वकील की उपस्थिति में लिया जाता है।
जब मृत्यु नहीं होती है :
यदि व्यक्ति ने मृत्युशैय्या पर कथन देने के बाद मृत्यु नहीं की, तो उसके द्वारा दिया गया ऐसा कथन मृत्युशैय्या पर कथन के रूप में नहीं माना जाएगा। हालांकि, उसके द्वारा दिए गए बयान पर सुनवाई की जाएगी। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 21 में इसे बयान देने वाले व्यक्ति के खिलाफ एक स्वीकारोक्ति के रूप में प्रमाण माना जा सकता है (मनोवस्था और शारीरिक अवस्था के आधार पर), धारा 137 मुख्य परीक्षा के लिए (साक्ष्य की पुष्टि के लिए), धारा 145 पूर्व लिखित बयानों के संबंध में जिरह के लिए, धारा 155 गवाह की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाने के लिए, धारा 159 स्मृति ताज़ा करने के लिए, और दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 में इकबाल-ए-जुर्म और बयान दर्ज करने के लिए प्रक्रिया निर्धारित की गई है।
मृत्युशैय्या पर कथन और मृत्यु पूर्व बयान में अंतर
मृत्युशैय्या पर कथन :
यह कथन उस व्यक्ति द्वारा दिया जाता है जो मरने वाला होता है और जिसे ठीक होने की कोई उम्मीद नहीं होती। यह कथन आम तौर पर किसी कानून प्रवर्तन अधिकारी, चिकित्सा पेशेवर, या अन्य प्राधिकृत व्यक्ति द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब में दिया जाता है। मृत्युशैय्या पर कथन को अदालत में प्रमाण के रूप में स्वीकार किया जा सकता है क्योंकि यह “हियरसे” अपवाद के तहत आता है। इसका मतलब यह है कि जब बयान देने वाला व्यक्ति अदालत में गवाही देने के लिए उपलब्ध नहीं होता, तो उसका बयान अदालत में स्वीकार किया जा सकता है। मृत्युशैय्या पर कथन और मृत्यु पूर्व बयान दो अलग-अलग कानूनी अवधारणाएँ हैं, जिन्हें अक्सर एक-दूसरे के साथ भ्रमित किया जाता है। हालाँकि दोनों में एक ऐसे व्यक्ति द्वारा दिए गए बयान शामिल होते हैं जो मरने की स्थिति में है, फिर भी इन दोनों में कई प्रमुख अंतर हैं।
मृत्यु पूर्व कथन को स्वीकार्य बनाने के लिए निम्नलिखित शर्तों का पूरा होना आवश्यक है:
- व्यक्ति को मृत्यु का खतरा होना चाहिए।
- व्यक्ति को ठीक होने की कोई उम्मीद नहीं होनी चाहिए।
- कथन शपथ या पुष्टि के साथ दिया जाना चाहिए।
- कथन स्वेच्छा से और दबाव के बिना दिया जाना चाहिए।
मृत्यु पूर्व बयान:
मृत्यु पूर्व बयान एक ऐसा बयान है जो किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा दिया जाता है जिसके मरने की संभावना मानी जाती है, लेकिन उसके पास अभी भी कुछ हद तक स्वस्थ होने की आशा होती है। यह बयान आमतौर पर किसी न्यायालय रिपोर्टर या अन्य न्यायालय अधिकारी द्वारा लिया जाता है। मृत्यु पूर्व बयान को अदालत में हियरसे (सुनी-सुनाई बात) के अपवाद के तहत साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता। हालांकि, इसे उस गवाह की गवाही को समर्थन देने या उसे खारिज करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है जो मुकदमे के दौरान मौजूद हो।
मृत्यु पूर्व जमा बयान लेने के लिए निम्नलिखित शर्तों का पूरा होना आवश्यक है:
- बयानकर्ता के जीवन को तत्काल खतरा होना चाहिए।
- बयानकर्ता के पास स्वस्थ होने की कुछ उम्मीद होनी चाहिए।
- बयान शपथ या पुष्टि के तहत दिया जाना चाहिए।
- बयान स्वेच्छा से और बिना किसी दबाव के दिया जाना चाहिए।
- अदालत को यह मानना चाहिए कि बयानकर्ता की गवाही को सुरक्षित रखने के लिए जमा बयान आवश्यक है।
मृत्युशैय्या पर कथन और मृत्यु पूर्व बयान में तुलना :
निम्न तालिका में मृत्युशैय्या पर कथन और मृत्यु पूर्व बयान की तुलना और विरोधाभास किया गया है:
मापदंड | मृत्युशैय्या पर कथन | मृत्यु पूर्व बयान |
स्वीकृति | अदालत में इसे प्रमाण के रूप में स्वीकार किया जाता है। | अदालत में इसे प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता। |
उद्देश्य | मृत्युशैय्या पर कथन का उद्देश्य व्यक्ति के मरने से पहले घटना की जानकारी प्राप्त करना होता है। | बयान मुख्य रूप से गवाह के परीक्षण को समर्थन देने या उसे अस्वीकार करने के लिए लिया जाता है। |
समय | यह तब दिया जाता है जब कथनकर्ता मृत्यु के निकट संकट में होता है और स्वस्थ होने की सभी आशा छोड़ चुका होता है। | यह तब दिया जाता है जब कथनकर्ता मृत्यु के निकट संकट में होता है, लेकिन ठीक होने की उम्मीद होती है। |
प्राधिकृत व्यक्ति की उपस्थिति | आमतौर पर कानून प्रवर्तन अधिकारी, चिकित्सा पेशेवर, या अन्य प्राधिकृत व्यक्ति के प्रश्नों के उत्तर में दिया जाता है। | आमतौर पर इसे एक न्यायालय रिपोर्टर या अन्य न्यायालय अधिकारी द्वारा लिया जाता है। |
स्वेच्छाधीनता (वालेंटरीनेस) | कथन स्वेच्छा से और दबाव के बिना दिया जाता है। | बयान भी स्वेच्छा से और दबाव के बिना दिया जाता है। |
केस विश्लेषण
कुशल राव बनाम बम्बई राज्य
इस मामले में, 5 लोगों ने मिलकर बाबूलाल पर हमला किया। उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां डॉक्टरों ने उसकी जांच की और पाया कि उसके शरीर पर चोटें आई हैं। डॉक्टर ने उससे पूछा कि क्या हुआ था, तब बाबूलाल ने कहा कि उसे ठाकुराम और कुशल ने मारा। डॉक्टर ने यह सब कागज पर नोट किया और पुलिस थाने को सूचित किया। पुलिस अधिकारी ने यह विचार करते हुए कि बाबूलाल लंबे समय तक नहीं जी सकेगा, उसकी मृत्युशैय्या पर कथन लिया और फिर मैजिस्ट्रेट ने डॉक्टर से मानसिक रूप से ठीक होने का प्रमाण पत्र प्राप्त करने के बाद इसे दर्ज किया। अगले दिन सुबह बाबूलाल की मृत्यु हो गई। सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए मामले को खारिज कर दिया कि बाबूलाल का मृत्युशैय्या पर कथन आरोपी की हत्या की सजा को बनाए रखने के लिए पर्याप्त था।
दिल्ली प्रशासन बनाम लक्ष्मण कुमार और अन्य
इस मामले में, लक्ष्मण और उसकी मां ने सुधा को आग लगा के जलाने की कोशिश करी थी। इस मामले की सुनवाई विचारण न्यायालय में हुई थी, जहां पड़ोसियों को गवाह के रूप में पेश किया गया। उन्होंने बताया कि उन्होंने सुधा की चीख सुनी और उनके फ्लैट में पहुंचे, जहां उन्होंने देखा कि सुधा की साड़ी आग में जल रही थी। उन्होंने उसे कंबल से ढककर मदद करने की कोशिश की। जब उनसे पूछा गया कि क्या हुआ था, तो उसने कहा कि उसकी सास ने केरोसिन डाला और उसके पति ने आग लगाई, और बाद में वह अस्पताल में मर गई। दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद, ट्रायल कोर्ट ने पति, सास और साले को मृत्युदंड की सजा सुनाई। आरोपियों ने उच्च न्यायालय में अपील की, और माननीय न्यायाधीशों ने कहा कि सुधा की मृत्यु एक दुर्घटना थी, इसलिए तीनों को बरी कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय में फिर से अपील की गई, और सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा कि यह दुर्घटना नहीं थी, हालांकि सुधा के साले को सही सबूत न होने के कारण बरी कर दिया गया, जबकि पति और सास को आजीवन कारावास की सजा दी गई।
पाकला नारायण स्वामी बनाम सम्राट
इस मामले में, आरोपी की पत्नी ने मृतक से 3000 रुपये का 18% ब्याज पर कर्ज लिया था। 20 मार्च 1937 को महिला ने मृतक को पत्र भेजकर कर्ज की राशि चुकता करने के लिए कहा। मृतक ने अपनी पत्नी को बताया कि वह कर्ज लेने के लिए महिला के पास जा रहा है। 23 मार्च 1937 को एक शव ट्रंक में पाया गया, जिसे पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया। रिपोर्ट से यह साबित हुआ कि यह हत्या थी। मृतक की पत्नी ने शव को पहचाना। न्यायालय ने मृतक की पत्नी के बयान और पत्र के आधार पर महिला के पति को हत्या का दोषी ठहराया, साथ ही हत्या के खिलाफ पर्याप्त सबूत होने के कारण आरोपी को सजा दी।
पानीबेन बनाम गुजरात राज्य
इस मामले में, बाई कांता का अपनी सास के साथ अक्सर झगड़ा होता था। 7 मई को बाई कांता अकेले ‘ओर’ में सो रही थी। उसकी सास ने मौके का फायदा उठाकर उस पर केरोसिन डाल दिया और आग लगा दी। बाई कांता ने मदद के लिए चिल्लाया; चीखने की आवाज सुनकर उसके पति और पड़ोसी वहां पहुंचे और आग बुझाई। बाई कांता को तुरंत अस्पताल में भर्ती कराया गया, और इस मामले की सूचना पास के पुलिस स्टेशन को दी गई। हेड कांस्टेबल ने उससे पूछा कि क्या हुआ था, और उसने बताया कि उसकी सास ने उसे जलाया है, और यह कथन दर्ज कर लिया गया। एक अन्य बयान कार्यकारी मजिस्ट्रेट ने भी दर्ज किया और उसमें भी वही बात कही गई। यह मामला माननीय सत्र न्यायालय के समक्ष आया, जहां कहा गया कि बाई कांता ने आत्महत्या की हो सकती है और आरोपी को बरी कर दिया गया। इस आदेश के खिलाफ उच्च न्यायालय में पहली अपील दायर की गई, जिसमें सत्र न्यायालय के आदेश को चुनौती दी गई। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने माना कि यह हत्या थी, आत्महत्या नहीं; इसलिए, बरी करने के आदेश को रद्द कर दिया गया। आरोपी को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया गया।
निर्भया दुष्कर्म मामला
इस मामले में, निर्भया और उसकी दोस्त एक बस में यात्रा कर रहे थे, जब एक समूह (गैंग) ने उन्हें अगवा कर लिया। उस समूह ने निर्भया के साथ चलती बस में सामूहिक दुष्कर्म किया और फिर दोनों को सड़क पर फेंक दिया। एक व्यक्ति ने उन्हें देखा और पुलिस को सूचित किया। दोनों को अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने निर्भया के शरीर की जांच की और पाया कि उसकी आंत पूरी तरह से क्षतिग्रस्त थी और उसकी योनि में जंग के कण पाए गए थे। निर्भया ने मृत्युशैय्या पर तीन कथन दिए, एक डॉक्टर को, एक उप प्रभागीय (सब डिविजनल) न्यायाधीश को और एक मेट्रोपोलिटन मैजिस्ट्रेट को। आरोपी में से एक नाबालिग को बाल (जुवेनाइल) न्यायालय में भेजा गया, और उसे 3 साल की सजा मिली। ड्राइवर ने विचारण (ट्रायल) के दौरान तिहाड़ जेल में आत्महत्या करने की कोशिश की, और अन्य 4 आरोपियों को मृत्युदंड की सजा दी गई।
निष्कर्ष
मृत्युशैय्या पर कथन एक व्यक्ति द्वारा मृत्यु के निकट दिए गए बयान होते हैं जो घटना के कारणों के बारे में होते हैं। मृत्युशैय्या पर कथन को अदालत में प्रमाण के रूप में सावधानीपूर्वक दर्ज किया जाना चाहिए। यदि कथन अधूरा, मजबूरी में या धमकी के तहत दिया जाता है, तो अदालत उसे मान्यता नहीं देती। मृत्युशैय्या पर कथन साक्ष्य अधिनियम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि इसके आधार पर सजा दी जा सकती है, बिना अन्य साक्ष्यों के समर्थन के।
संदर्भ