स्टेट इमर्जेंसी और फंडामेंटल राइट्स 

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यह लेख विवेकानंद इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज़, इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली के छात्र Yash Sharma द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारत के संविधान में उल्लिखित स्टेट इमर्जेंसी के प्रावधानों के साथ-साथ इसको लागू करने, विकास और भारत के नागरिकों के फंडामेंटल राइट्स पर इसके प्रभावों से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।   

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

इमर्जेंसी एक असाधारण (एक्स्ट्राऑर्डिनरी) स्थिति है जिसमें स्टेट के सामान्य कार्य बाधित (डिसरप्ट) हो जाते हैं। इमर्जेंसी के प्रावधान (प्रोविजंस), विशेष प्रावधान या एग्जीक्यूटिव पॉलिसी, जो संवैधानिक प्रकृति से ज्यादा हो, के लिए अक्सर मांग करते है। भारतीय संदर्भ (कॉन्टेक्स्ट) में, इमर्जेंसी की स्थिति को उस अवधि के रूप में माना जाता है, जिसमें एक बदली हुई संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार शासन प्रणाली (गवर्नेंस सिस्टम) को बदल दिया जाता है। यह भारत के राष्ट्रपति के एक ऑर्डर के माध्यम से इमर्जेंसी के प्रोक्लेमेशन के तहत किया जाता है। इमर्जेंसी के प्रावधानों की आलोचना (क्रिटिसिजम्स) इस आधार पर हुई कि इस अवधि के दौरान, भारत के संविधान में दिए गए फंडामेंटल राइट्स को कुछ समय के लिए रोक दिया जाता है। फंडामेंटल राइट, भारत के संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर का एक हिस्सा है। इसे किसी भी स्थिति में छीना नहीं जा सकता है। राष्ट्र की सॉवरेंटी, सुरक्षा और इंटीग्रिटी की रक्षा के लिए, पूर्वजों द्वारा संविधान में इमर्जेंसी के प्रावधानों का उल्लेख किया गया था। इससे सरकार के सामने एक दुविधा (डेलिमा) भी खड़ी हो जाती है कि स्टेट की सुरक्षा की जाए या नागरिकों के फंडामेंटल राइट्स की रक्षा की जाए।

इसके अलावा, यह लेख इस बात से संबंधित है कि इमर्जेंसी किसी व्यक्ति को कैसे प्रभावित (इफेक्ट) करती है। यह, सभी फंडामेंटल राइट्स और अन्य कानूनी अधिकारों से संबंधित है जो इमर्जेंसी के दौरान रोक दिए जाते हैं। इन प्रावधानों को, सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाई कोर्ट्स द्वारा की गई न्यायिक जांच के साथ समझाया गया है। अंत में, अतीत में कुछ घटनाओं के कारण, इमर्जेंसी और संबंधित आर्टिकल्स के प्रावधानों में अमेंडमेंट किया गया है। उन अमेंडमेंट्स के साथ उनके कारणों को भी इस लेख में निर्दिष्ट (स्पेसिफाई) किया गया है। अंत में, जैसे की, किसी भी अन्य कानून या व्यवस्था की तरह, प्रक्रियाओं (प्रोसीजर्स) का एक सेट निर्धारित (ले आउट) किया जाता है, इसी प्रकार इमर्जेंसी के प्रोक्लेमेशन के लिए भी एक निर्धारित प्रक्रिया है, जिसका पालन करना होता है। उस प्रक्रिया का पालन न करने से प्रोक्लेमेशन अमान्य हो सकती है। साथ ही, प्रावधान और प्रक्रिया ही यह स्पष्ट करती है कि इमर्जेंसी की घोषणा, कुछ और मुद्दों को संभालने के लिए एक तरीका नहीं होगा। प्रक्रिया में शामिल सभी अधिकारियों का इमर्जेंसी की घोषणा से पहले अपना कर्तव्य है जिसे पूर्ण किया जाना है। उन कर्तव्यों को पूर्ण न करने पर इमर्जेंसी को ज्यूडिशियल रिव्यू किया जा सकता है।

परिभाषा (डेफिनेशन)

इमर्जेंसी एक ऐसी स्थिति है जिसमें सरकार अपनी इमर्जेंसी शक्ति का प्रयोग कर सकती है। इमर्जेंसी शक्ति में, कार्य करने या नीतियों को एक्जीक्यूट करने की शक्ति शामिल है, जिसे उन्हें सामान्य स्थिति में लागू करने के लिए सशक्त (एंपावर) नहीं किया जाता। इमर्जेंसी को एक ऐसी स्थिति के रूप में भी समझा जा सकता है जिसमें, स्टेट की सरकारी शासन प्रणाली (सिस्टम) विफल हो जाती है और स्थिति को संभालने और समस्याओं का मुकाबला करने के लिए जल्दी से सरकारी नियंत्रण (कंट्रोल) की आवश्यकता होती है। भारतीय संविधान द्वारा प्रदान किए गए इमर्जेंसी के भारतीय सिद्धांत (प्रिंसिपल) में, इसका अर्थ ऐसी किसी भी स्थिति से है, जिसे सरकार और स्टेट मशीनरी, ऐसे विशेष प्रावधानों को लागू करने के बिना सही नहीं कर सकती है।

इन परिस्थितियों के तहत, संविधान के भाग III के तहत दिए गए कुछ फंडामेंटल राइट रोक दिए जाते हैं। समाज के समग्र कल्याण (ओवर ऑल वेल बींग) के लिए राइट्स को रोक देना आवश्यक है। राइट्स रोके बिना, सरकार परिस्थितियों को स्थिर (स्टेबलाइज) नहीं कर सकती है। उदाहरण के लिए, यदि कोई सशस्त्र विद्रोह (आर्म्ड रिबेलियन) हुआ है तो सरकार को नागरिकों की स्वतंत्रता को रोकने की आवश्यकता होगी। भारतीय संविधान के आर्टिकल 19 क्लॉज  2 में कहा गया है कि, सरकार भारत की सॉवरेंटी और इंटीग्रिटी, स्टेट की सुरक्षा (सिक्योरिटी), विदेशी स्टेट्स के साथ मित्र जैसे संबंधों, सार्वजनिक व्यवस्था (पब्लिक ऑर्डर), शालीनता (डीसेंसी) या नैतिकता (मोरालिटी), या कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट, डिफेमेशन या किसी अपराध के लिए उकसाने (इनसाइटमेंट) के संबंध में, इस तरह के उचित प्रतिबंध (रिज़नेबल रेस्ट्रिक्शंस) लगाने के लिए कानून बना सकती है।

इस विषय पर, अंतर्राष्ट्रीय कानून भी ऐसे अधिकारों को रोकने की अनुमति देते है। द इंटरनेशनल कोवेनेंट फॉर सिविल एंड पॉलीटिकल राइट्स, किसी व्यक्ति के अधिकारों को दो प्रकारों में विभाजित (डिस्टिंगुइश) करती है: गैर-अपमानजनक (नॉन-डेरोगेबल) और अपमानजनक (डेरोगेबल) अधिकार। आई. सी. सी. पी. आर. का आर्टिकल 4, उन सभी गैर-अपमानजनक अधिकारों के बारे में बताता है जो रोके नहीं जा सकते हैं।

इमर्जेंसी प्रावधान (इमर्जेंसी प्रोविजंस)

भारतीय संविधान के भाग 18 के तहत आर्टिकल 352 से लेकर आर्टिकल 360 तक इमर्जेंसी प्रावधानों का उल्लेख किया गया है। इस भाग में 3 तरह की इमर्जेंसी के प्रावधान निर्धारित किए गए हैं। पहला, नेशनल इमर्जेंसी, जिसे पूरे भारत में लागू किया जाता है। नेशनल इमर्जेंसी को, भारतीय संविधान में आर्टिकल 352, 353, 354, 358 और 359 के तहत दिए गए प्रावधानों के अधीन लागू किया जाता है। दूसरा, इमर्जेंसी के इस रूप में, स्टेट में कुछ परिस्थितियों के तहत राष्ट्रपति शासन (प्रेसिडेंट्स रूल) लगाया जाता है और स्टेट सरकार शासन को सस्पेंड कर दिया जाता है। इस प्रकार की इमर्जेंसी के तहत राष्ट्रपति शासन लागू करना भारतीय संविधान के आर्टिकल 355, 356 और 357 के तहत दिए गए प्रावधानों के अधीन लागू किया जाता है। तीसरा, गंभीर वित्तीय अस्थिरता (फाइनेंशियल अनस्टेबिलिटी) की स्थिति में फाइनेंशियल इमर्जेंसी लगायी जाती है। फाइनेंशियल इमर्जेंसी को भारतीय संविधान के आर्टिकल 360 के प्रावधानों के तहत लागू किया जाता है।

नेशनल इमर्जेंसी के कारण

आर्टिकल 352 के तहत भारत के राष्ट्रपति के पास नेशनल इमर्जेंसी की घोषणा करने की शक्ति होती है। ऐसे 3 आधार है, जिसके तहत इमर्जेंसी लागू की जा सकती है। लेकिन केवल तभी जब राष्ट्रपति संतुष्ट हों कि इमर्जेंसी का कारण उन आधारों के अंदर आता है और वास्तव में वह कोई नेशनल सुरक्षा का मुद्दा है। तीन आधार इस प्रकार हैं:

  1. युद्ध (वॉर)
  2. बाहरी आक्रमण (एक्सटर्नल एग्रेन)
  3. सशस्त्र विद्रोह (आर्म्ड रिबेलीयन) (40वें संविधान अमेंडमेंट एक्ट, 1978 द्वारा इसे “आंतरिक अशांति (इंटर्नल डिस्टर्बेंस)” के साथ सब्स्टीट्यूट किया गया था)।

राष्ट्रपति शासन (प्रेसिडेंट रूल) या स्टेट इमर्जेंसी के कारण

आर्टिकल 356 के तहत राष्ट्रपति को, उस विशेष स्टेट के गवर्नर से अनुरोध (रिक्वेस्ट) या रिपोर्ट प्राप्त होने पर, स्टेट इमर्जेंसी को लागू करने का अधिकार है, जिसमें कहा गया है कि उस स्टेट की स्थिति ऐसी है कि स्टेट सरकार के संवैधानिक दायित्वों का डिस्चार्ज करना असंभव है। उस उद्देश्य के लिए, स्टेट सरकार को सस्पेंड कर दिया जाता है और राष्ट्रपति शासन लगाया जाता है।

फाइनेंशियल इमर्जेंसी के कारण

आर्टिकल 360 के तहत राष्ट्रपति फाइनेंशियल इमर्जेंसी लगा सकते है यदि वह संतुष्ट है कि स्थिति भारत या उसके किसी हिस्से के लिए वित्तीय खतरा पैदा कर रही है। भारतीय संविधान को अपनाने के बाद से भारत के इतिहास में कभी भी किसी भी परिस्थिति में फाइनेंशियल इमर्जेंसी नहीं लगाई गई है।

स्टेट इमर्जेंसी

स्टेट इमर्जेंसी की अवधारणा (कॉन्सेप्ट) आर्टिकल 355, 356 और 357 के तहत दी गई है। आर्टिकल 355, केंद्र सरकार पर एक स्टेट को बाहरी आक्रमण, आंतरिक अस्थिरता से बचाने और संविधान के प्रावधानों का पालन करने का आश्वासन (एश्योर) देता है। इसलिए, राष्ट्रपति केवल आर्टिकल 356 ही नहीं, बल्कि आर्टिकल 355 के तहत उल्लेख किए गए प्रावधान के पर्सपेक्टिव में भी स्थिति को जज कर सकते हैं।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (हिस्टोरिकल बैकग्राउंड)

स्वतंत्रता से पहले ब्रिटिश शासन के दौरान, भारतीय समाज, द गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 और अन्य कानूनों द्वारा शासित था। द गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 की धारा 93 के समान प्रावधानों का उल्लेख, भारतीय संविधान के आर्टिकल 356 में किया गया है। धारा 93 में प्रावधान है: यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है जब किसी प्रांत (प्रोविंस) के गवर्नर के अनुसार सरकार अपनी जिम्मेदारियों को नहीं निभा पा रही है, तब वह गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के तहत इमर्जेंसी की घोषणा करके, सरकार के सभी अधिकारों को स्वयं ग्रहण (अज्यूम) करता है। गवर्नर केवल उस स्टेट के हाई कोर्ट के अधिकार ग्रहण नहीं कर सकता है। इस तरह के प्रावधान का कारण यह था कि 1935 के एक्ट में पहली बार, एक्ट के तहत सरकार द्वारा बनाई गई मिनिस्ट्री को सत्ता सौंपी गई थी। औपनिवेशिक (कोलोनियल) प्रशासन (एडमिनिस्ट्रेशन) इन मिनिस्ट्री पर भरोसा करने को तैयार नहीं था और इस कारण से, उन्होंने इस इमर्जेंसी शक्ति को नियंत्रण के आखिरी टूल के रूप में रखा। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट की धारा 93 और आर्टिकल 356 के बीच अंतर यह है कि आर्टिकल 356 में गवर्नर की जगह राष्ट्रपति शक्ति ग्रहण करते है और ऐसा भारतीय रिपब्लिक) की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए किया गया था।

संविधान निर्माताओं ने महसूस किया कि राष्ट्र को बाद में कुछ मुद्दों का सामना करना पड़ेगा और इस उद्देश्य के लिए संविधान में इस प्रावधान का होना आवश्यक है। भले ही भारत में हमारे पास लोकतंत्रता (डेमोक्रेसी) है लेकिन भारतीय लोकतंत्र को सभी डायवर्सिटी के समावेशी (इंक्लूसिव) के रूप में लिया जाना चाहिए। भारत में, समाज धर्म, जाति, भाषा, संस्कृति के आधार पर कई वर्गों (सेक्शंस) में बंटा हुआ है और यह मानना ​​स्वाभाविक (नेचरल) है कि भविष्य में विवाद हो सकते हैं। हालांकि इस विषय पर बहुत आलोचना हुई और कई लोगों का मानना ​​था कि आर्टिकल 356, संविधान में शाही भावना को दुबारा डालेगा और इसे शक्ति के दुरुपयोग के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने इस बात का बचाव किया कि संविधान में निर्धारित सभी प्रावधानों का दुरुपयोग किया जा सकता है लेकिन यह, प्रावधान को शामिल न करने का आधार नहीं हो सकता है।

ब्रिटिशर्स ने एक्ट के तहत अनुमत (अलाउड) लोकतंत्र को प्रतिबंधित करने के लिए एक्ट में धारा 93 को लागू किया था। लेकिन आर्टिकल 356 के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। इसका कारण कंस्टीट्यूएंट असेंबली की डिबेट से लिया जा सकता है, जब आर्टिकल 355 और 356 को ड्राफ्ट किया जा रहा था, तो यह वाद-विवाद हुआ था कि, भारतीय स्टेट की इंटीग्रिटी और सॉवरेंटी के लिए गंभीर खतरे की स्थिति को संभालने के एकमात्र उद्देश्य के लिए संविधान में विशेष प्रावधान डाला गया था। 

आर्टिकल 356 का प्रक्रियात्मक पहलू (प्रोसीजरल एस्पेक्ट ऑफ़ आर्टिकल 356)

यह पहले ही कहा जा चुका है कि किसी स्टेट के गवर्नर द्वारा, किसी भी स्थिति को संभालने के लिए स्टेट सरकार की मशीनरी की अक्षमता की रिपोर्ट मिलने पर राष्ट्रपति द्वारा इमर्जेंसी का प्रोक्लेमेशन किया जा सकता है। आर्टिकल 356 क्लॉज 2 के अनुसार ऐसा प्रोक्लेमेशन को, बाद के किया गए (सब्सिक्वेंट) प्रोक्लेमेशन, के द्वारा रद्द किया जा सकता है। इमर्जेंसी के प्रोक्लेमेशन की वैधता और उसे लागू करने के संबंध में, इस आर्टिकल के क्लॉज 3 के अनुसार ऐसे प्रोक्लेमेशन को संसद के दोनों सदनों के समक्ष पेश किया जाता है। प्रोक्लेमेशन के दो महीने बाद तक प्रोक्लेमेशन का अस्तित्व (एग्जिस्टेंस) समाप्त हो जाता है, यदि इसे संसद के दोनों सदनों द्वारा अप्रूव और पास नहीं किया जाता है।

यह संभव है कि लोक सभा, प्रोक्लेमेशन के समय सेशन में न हो या डीजोल्व हो गई हो या दो महीनों के दौरान ही उसका डिजोल्यूशन हो गया हो, तो उस स्थिति के लिए क्लॉज 3 प्रक्रिया निर्धारित करता है, यदि लोक सभा से अप्रूवल प्राप्त नहीं होता है। इसमें कहा गया है कि यदि राज्य सभा ने प्रोक्लेमेशन की मंजूरी दे दी हो, लेकिन 2 महीने की अवधि की समाप्ति से पहले इसे लोकसभा द्वारा अप्रूव नहीं किया गया है, तो लोक सभा के पुनर्गठन (रीकंस्टीट्यूशन) की तारीख से 30 दिनों के बाद प्रोक्लेमेशन समाप्त हो जाएगा, लेकिन केवल तभी, अगर यह उन 30 दिनों के अंदर लोकसभा द्वारा अप्रूव न हुआ हो ।

आर्टिकल 356 के क्लॉज 4 में कहा गया है कि भले ही संसद के दोनों सदनों द्वारा प्रोक्लेमेशन को मंजूरी दे दी गई हो, लेकिन इमर्जेंसी की घोषणा की तारीख से 6 महीने की अवधि की समाप्ति पर, यह अपने आप काम करना बंद कर देगा। इसके आगे यह कहा गया है कि यदि प्रोक्लेमेशन को 6 महीने के बाद जारी रखा जाना हो, तो उसके लिए दोनों सदनों से अप्रूवल प्राप्त करना जरूरी होगा।

इमर्जेंसी प्रावधानों की न्यायिक व्याख्या (ज्यूडिशियल इंटरप्रिटेशन ऑफ इमर्जेंसी प्रोविजंस)

जब हम आर्टिकल 356 के बारे में बात करते हैं, हालांकि यह अनिवार्य (एसेंशियल) रूप से एक स्टेट इमर्जेंसी के बारे में है, तो हमे यह याद रखना चाहिए कि यह आर्टिकल इमर्जेंसी से संबंधित सभी प्रावधानों का एक हिस्सा है। इस पूरे हिस्से को डॉ. आंबेडकर ने इस उम्मीद के साथ संविधान में रखा था कि इसका इस्तेमाल नहीं किया जाएगा और यह मृत पत्रों (डेड लेटर) के रूप में बने रहेंगे। यह केवल तार्किक (लॉजिकल) है क्योंकि इन प्रावधानों के लागू होने का मतलब संवैधानिक तंत्र की विफलता है, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। यह प्रावधान मुख्य रूप से दो मामलों में न्यायिक जांच से गुजरे हैं, अर्थात् स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (ए.आई.आर. 1977 एस.सी. 1361) और एस.आर. बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया। पहले उल्लेखित मामले में, 7 जजेस की एक संवैधानिक बेंच ने मामले पर फैसला सुनाया और एस.आर. बोम्मई के मामले में, 9 जजेस की संवैधानिक बेंच ने मामले पर फैसला सुनाया। इमर्जेंसी प्रावधानों की न्यायिक व्याख्या को समझने के लिए एस.आर. बोम्मई मामला पर्याप्त है क्योंकि कुछ तर्कों (पॉइंट्स) पर बोम्मई मामला स्टेट ऑफ राजस्थान के मामले से अलग है। बेंच ने अपने फैसले में आर्टिकल 356 के कुछ पहलुओं पर जोर दिया। आर्टिकल 356 के वे तत्व हैं: –

1. स्टेट तंत्र की विफलता पर राष्ट्रपति की संतुष्टि (प्रेसिडेंट्स सेटिस्फेक्शन ऑफ़ फेलियर ऑफ़ स्टेट मशीनरी)

कोर्ट ने आर्टिकल 356 के क्लॉज 1 को रिव्यू किया, जिसमें गवर्नर से रिपोर्ट प्राप्त करने पर राष्ट्रपति की संतुष्टि के बारे में बात की गई थी, जिसमें स्टेट सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारियों को पूरा करने में असमर्थता की सूचना दी गई थी। कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति को गवर्नर की रिपोर्ट से ऐसी आकस्मिक (मरजेंट) स्थिति से संतुष्ट होना चाहिए कि स्थिति गंभीर है और आकस्मिक कार्रवाई की आवश्यकता है। कोर्ट ने कहा कि संतुष्टि ‘उद्देश्य सामग्री (ऑब्जेक्टिव टेरियल)’ पर आधारित होनी चाहिए। उस उद्देश्य के लिए, उद्देश्य सामग्री में गवर्नर की रिपोर्ट या स्पष्ट स्थिति शामिल होती है। साथ ही, उद्देश्य सामग्री का परिणाम उस स्टेट में काम करने में स्टेट सरकार की अक्षमता के रूप में होगा, जिसे राष्ट्रपति को इमर्जेंसी की घोषणा से पहले संतुष्ट करना होता है। यदि उद्देश्य सामग्री मौजूद है तो प्रोक्लेमेशन को कानूनी रूप से एक्जीक्यूट किया जा सकता है, लेकिन यदि ऐसी सामग्री मौजूद नहीं है तो प्रोक्लेमेशन को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। इन शर्तों का लागू होना ऐसी प्रोक्लेमेशन पर न्यायिक रिव्यू की सीमा को इंगित (इंडिकेट) करता है।

2. इमर्जेंसी की घोषणा करने का राष्ट्रपति का दायित्व (ऑब्लिगेशन ऑफ़ द प्रेसिडेंट टू प्रोक्लेम इमर्जेंसी)

हालंकि, क्लॉज 1 में प्रयुक्त शब्द “यदि राष्ट्रपति ….. संतुष्ट है”, कोर्ट ने प्रोक्लेमेशन के इस मामले पर व्यक्तिपरक (सब्जेक्टिव) होने के लिए राष्ट्रपति की इस स्वायत्तता (ऑटोनोमी) को रिव्यू किया। आर्टिकल 74 का क्लॉज 1, राष्ट्रपति के लिए, प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले काउंसिल ऑफ मिनिस्टर की सलाह का पालन करना अनिवार्य बनाता है। यह काउंसिल ऑफ मिनिस्टर की इच्छा का पालन करने वाले राष्ट्रपति होते हैं और इस मामले में उनका अपना कुछ कहना नहीं है। साथ ही, आर्टिकल 356 का क्लॉज 1, ऐसी स्थिति बताता है जिसमें स्टेट सरकार संवैधानिक प्रावधानों का पालन नहीं कर सकती है, यहां इस मुद्दे पर यह सवाल उठता है कि क्या संविधान के किसी प्रावधान का पालन करने में अक्षमता का मतलब स्टेट सरकार की विफलता होगी या नहीं। इस सवाल का जवाब देते हुए कोर्ट ने कहा कि स्थिति की गंभीरता को जांचने के लिए कोई टूल को तैयार करना संभव नहीं है। लेकिन हमारे पास कोई विकल्प नहीं है, सिवाय यह मानने के, कि गवर्नर ने अपनी शपथ में अपनी सर्वश्रेष्ठ (बेस्ट) क्षमता के अनुसार संविधान को प्रिजर्व, सुरक्षित और उसका बचाव करने का वादा किया था।

विधान सभा का डिजोल्यूशन

आर्टिकल 356 स्पष्ट रूप से कहीं भी यह नहीं कहता है कि उस स्टेट की विधान सभा को डिजोल्व करना होगा। एस. आर. बोम्मई के मामले में जजेस ने बहुमत (मेजोरिटी) में यह कहा कि स्वतंत्रता के बाद से इस प्रथा का पालन करते हुए, राष्ट्रपति विधान सभा को डिजोल्व करने के लिए शक्ति का उपयोग कर सकते हैं। लेकिन इस शक्ति का प्रयोग तभी किया जा सकता है जब संसद के दोनों सदनों ने आर्टिकल 356 के क्लॉज 3 के तहत प्रोक्लेमेशन को मंजूरी दे दी हो। यह माना गया कि राष्ट्रपति के पास विधान सभा को सस्पेंड करने की शक्ति है। परंतु यदि दोनों सदन इस प्रोक्लेमेशन को अस्वीकृत कर देते हैं तो इमर्जेंसी के प्रोक्लेमेशन के प्रभाव के बिना विधान सभा का पुनर्गठन किया जाएगा। यदि प्रोक्लेमेशन को अमान्य ठहराया जाता है, भले ही उसे दोनों सदनों से अप्रूवल प्राप्त हो, तो कोर्ट स्टेटस क्वो को बहाल (रिस्टोर) कर सकता है। इसलिए, कोर्ट, विधानसभा, सरकार और मंत्रालय को बहाल कर सकता हैं। साथ ही यदि प्रोक्लेमेशन की वैधता को लेकर कोर्ट में चुनौती दी जाती है तो कोर्ट, मामले का निपटारा होने तक नए सिरे से इलेक्शन कराने पर रोक लगाने के लिए इंटरिम ऑर्डर जारी कर सकता है।

किसी स्थिति में अगर कोर्ट प्रोक्लेमेशन को अमान्य मानता है, तो कोर्ट के पास तब भी राष्ट्रपति द्वारा की गई कार्रवाई को मान्य ठहराने की शक्ति है, जब तक कि ऐसी घोषणा न हुई हो। यह राष्ट्रपति के कार्यों को मान्य करने के लिए स्टेट लेजिस्लेशन और संसद के लिए भी खुला है। भारतीय स्टेट व्यवस्था में फेडरलिज्म की सुरक्षा करने के लिए, आर्टिकल 356 का क्लॉज 3 एक सुरक्षा तंत्र के रूप में कार्य करता है। यदि दोनों सदन, 2 महीने के अंदर प्रोक्लेमेशन को मंजूरी नहीं देते हैं, तो किए गए कार्य, पास किए गए कानून और अप्रूवल अवधि समाप्त होने के बाद किए गए ऑर्डर, अपने आप ही अमान्य या अवैध नहीं हो जाते हैं। ऐसे सभी कार्यों या ऑर्डर्स को, विधान सभा द्वारा रिव्यू किया जाता है।

इन प्रावधानों में अमेंडमेंट (अमेंडमेंट्स टू दीज़ प्रोविजंस)

आर्टिकल 356 क्लॉज 5 के तहत इमर्जेंसी प्रावधान में अमेंडमेंट, संविधान (48वें अमेंडमेंट) एक्ट, 1984 के माध्यम से लाया गया था। अमेंडमेंट ने क्लॉज 5 में एक प्रावधान डाला, जिसमें कहा गया था कि 6 अक्टूबर, 1983 को पंजाब के संबंध में जारी किया गया प्रोक्लेमेशन, एक वर्ष के बाद समाप्त नहीं होगा। इसके स्थान पर, जोड़े गए इस प्रावधान में कहा गया है की, पंजाब स्टेट में विशेष परिस्थितियों के कारण 2 साल की समाप्ति तक उस प्रोक्लेमेशन को एक एक्सेप्शन के रूप में जारी किया जाएगा।

अमेंडमेंट एक्ट के लिए दिए गए तर्क में कहा गया है कि राष्ट्रपति द्वारा संविधान के आर्टिकल 356 के तहत 6 अक्टूबर 1983 को पंजाब के संबंध में जारी किया गया प्रोक्लेमेशन, एक वर्ष से अधिक समय तक लागू नहीं रह सकता है जब तक कि आर्टिकल 356 के क्लॉज (5) में उल्लिखित विशेष शर्तें संतुष्ट न हो जाए। हालांकि विधानसभा सस्पेंडेड रहेगी और एक लोकप्रिय सरकार स्थापित की जा सकती है, और स्टेट में मौजूदा स्थिति को ध्यान में रखते हुए, 5 अक्टूबर 1984 के बाद प्रोक्लेमेशन को जारी रखना आवश्यक हो सकता है। 5 अक्टूबर 1984 के बाद भी प्रोक्लेमेशन को जारी रखने का अप्रूवल करने वाले संसद के दोनों सदनों द्वारा एक प्रस्ताव को स्वीकार करने की सुविधा के लिए, संविधान के आर्टिकल 356 में अमेंडमेंट करना आवश्यक है। इसलिए आर्टिकल 356 के क्लॉज (5) में अमेंडमेंट करने का प्रस्ताव रखा गया, ताकि उसमें उल्लिखित शर्तों को उक्त प्रोक्लेमेशन के जारी रहने की तारीख से दो वर्ष तक लागू करने के लिए अनुपयुक्त (इनएप्लीकेबल) बनाया जा सके।

सरकारिया कमीशन

सरकारिया कमीशन  ने अपनी रिपोर्ट के छठे अध्याय (चैप्टर) में आर्टिकल 356 से संबंधित मुद्दों का विश्लेषण (एनालिसिस) किया है। इसमें कहा गया है कि आर्टिकल 356 जिसे एक मृत पत्र माना जाता था, उसे अब कई उदाहरणों में इस्तेमाल किया गया है। इस आर्टिकल का उपयोग काफी बढ़ गया है। कमिटी ने आर्टिकल 356 को जन समर्थन (सपोर्ट) से चल रहे स्टेट्स में प्रतिनिधि (रेप्रेज़ेंटेटिव) सरकार को बहाल करने के लिए केंद्र की शक्ति या जिम्मेदारी के रूप में अपनी राय व्यक्त की। आर्टिकल 356 में निर्धारित कई एहतियाती उपायों (प्रीकॉशनरी रेमेडीज) के बावजूद, आर्टिकल का इस्तेमाल कई बार स्टेट इमर्जेंसी के प्रोक्लेमेशन के लिए किया गया था। सरकारिया कमीशन को 1983 में बनाया गया था और केंद्र-स्टेट संबंधों में सुधार के लिए कई रिफॉर्म्स के साथ आने में इसे चार साल लगे।

सरकारिया कमीटी ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की, कि आर्टिकल 356 का प्रयोग रेयरेस्ट ऑफ रेयर मामलों में किया जाना चाहिए। उन्होंने फ्रेमर्स के दृष्टिकोण (विजन) को बरकरार रखा कि आर्टिकल 356, इस रूल का एक्सेप्शन होगा। उन्होंने आर्टिकल 355 के संदर्भ में उल्लेख किया कि केंद्र सरकार, स्टेट्स की सुरक्षा और कल्याण की रक्षा करेंगे। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि “… संवैधानिक प्रावधान के प्रत्येक उल्लंघन (ब्रीच) को, इसके महत्व, सीमा और प्रभाव के बावजूद, संवैधानिक तंत्र की विफलता के रूप में नहीं माना जा सकता है”। विभिन्न व्यक्तियों, संगठनों (ऑर्गनाइजेशन) और समूहों (ग्रुप) के सुझावों को रिव्यू करने के बाद कमीटी ने आर्टिकल 356 के उपयोग पर टिप्पणी (कमेंट) की। कमीटी ने कहा कि जब सभी उपलब्ध उपाय और रिसोर्सेज, स्टेट में संवैधानिक तंत्र को सुधारने में विफल होते हैं तो केवल आर्टिकल 356 का उपयोग किया जा सकता है।

गवर्नर के दायित्व (गवर्नर्स ऑब्लिगेशन)

रिपोर्ट में विधान सभा में बहुमत से समर्थन प्राप्त होने के बाद, गवर्नर के कुछ दायित्वों (ऑब्लिगेशंस) की सिफारिश की गई थी। गवर्नर, इमर्जेंसी की स्थिति में, सबसे पहले, समस्या के सभी संभावित (पॉसिबल) समाधानों का पता लगाएंगे। इमर्जेंसी की घोषणा करने से पहले, यदि सरकार स्थापित नहीं की जा सकती है, लेकिन, एक नया इलेक्शन हो सकता है, तो इसे बिना किसी देर के किया जाना चाहिए।

गवर्नर या राष्ट्रपति, स्टेट सरकार को तब तक डिसॉल्व नहीं कर सकते जब तक कि आर्टिकल 356(1) के तहत प्रक्रिया का पालन न किया गया हो और संसद के दोनों सदनों द्वारा प्रोक्लेमेशन पर विचार न किया गया हो। कमीशन की रिपोर्ट में इमर्जेंसी के प्रोक्लेमेशन के आधारों का उल्लेख करना जरूरी बनाने के लिए, आर्टिकल 356(1) में अमेंडमेंट की भी सिफारिश की गई थी। आधारों को शामिल करने से न्यायिक रिव्यू के उपाय को, माला फाइड इमर्जेंसी के प्रोक्लेमेशन के खिलाफ अधिक कुशल (एफीशिएंट) बनाया जा सकता है। गवर्नर की रिपोर्ट, जो आर्टिकल 356 के तहत राष्ट्रपति के द्वारा प्रोक्लेमेशन के लिए एक जरुरी शर्त है, वह एक ‘बोलने वाला दस्तावेज होना चाहिए, जिसमें सभी भौतिक (मटेरियल) तथ्यों और आधारों का एक स्पष्ट (एक्सप्लिसिट) विवरण होना चाहिए, जिसके आधार पर राष्ट्रपति खुद को संतुष्ट कर सकते हैं या अन्यथा आर्टिकल 356 के तहत इमर्जेंसी पर विचार कर सकते हैं। कमीशन की रिपोर्ट में यह भी सिफारिश की गयी थी की, गवर्नर की रिपोर्ट का, मीडिया में व्यापक रूप से प्रचार (पब्लिसिटी) किया जाना चाहिए।

पिछली स्टेट इमर्जेंसी की स्थितियां (प्रीवियस स्टेट इमर्जेंसीज)

आर्टिकल 356 के तहत राष्ट्रपति शासन की घोषणाओं के संबंध में दायर आर.टी.आई. के जवाब में, इसने एक आंकड़ा प्रस्तुत किया। आर्टिकल 356 को पहली बार 1951 में पंजाब में लागू किया गया था। तब से लेकर 2017 तक इसे कुल 115 बार इस्तेमाल किया गया है। जनता एलायंस के सत्ता में आने के बाद 1977 में एक साल में सबसे अधिक प्रोक्लेमेशंस का रिकॉर्ड दर्ज किया गया था, उस वर्ष 12 स्टेट्स में इमर्जेंसी की घोषणा की गई थी जो आज तक का सबसे अधिक रिकॉर्ड है। दूसरा सबसे बड़ा रिकॉर्ड, वर्ष 1980 का है जब इंदिरा गांधी सत्ता में वापस आई थीं, उस वर्ष 9 अलग-अलग स्टेट्स में इमर्जेंसी की घोषणा की गई थी। अन्य उदाहरण जब इस प्रावधान का व्यापक रूप से उपयोग किया गया था, वह साल 1992 है, जब इसे 9 अलग-अलग स्टेट्स में लागू किया गया था और 1972 में जब इसे उड़ीसा सहित, इसे 7 अन्य स्टेट्स में 3 बार लागू किया गया था।

आजादी के बाद से यह आर्टिकल हर दशक (डिकेड) में विभिन्नताओं (वेरिएशंस) के साथ लगाया गया है। स्वतंत्र भारत के पहले दो दशकों में, अर्थात 1950 से 1970 तक में, 20 बार इमर्जेंसी की घोषणा की गई थी। 1971 से 1990 तक के अगले दो दशकों में, इसका उपयोग वर्ष में 63 बार किया गया था, अर्थात, एवरेज के हिसाब से 3 इमर्जेंसी 1 साल में लागू हुई थी । उस अवधि के दौरान, 1971 से 1980 तक वर्षों में, अकेले 49 बार इसका इस्तेमाल किया गया था। इन प्रावधानों का यह रेपिटिटव उपयोग ध्रुवीकृत (पोलराइज़्ड) राजनीतिक माहौल दिखाता है। इस अवधि के दौरान, आर्टिकल 356 सरकारों द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला एक राजनीतिक टूल बन गया था।

स्टेट्स के संदर्भ में, उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक बार इमर्जेंसी की घोषणा की गयी है। लेकिन सबसे लंबी अवधि के लिए, इसे पंजाब में लगभग 10 वर्षों के लिए लगाया गया था।

संवैधानिक सीमा को लंबे समय तक लागू की गयी इमर्जेंसी (इमर्जेंसी एनफोर्सड लॉन्गर देन द कंस्टीट्यूशनल लिमिटेशन)

वास्तव में, 3510 दिनों  के लिए पंजाब में इमर्जेंसी लगाई गई थी, अर्थात पूरे 10 साल के लिए लगाई गई थी। इस तरह की घोषणा का कारण, 1980 के दशक के दौरान पंजाब में मिलिटेंसी की गतिविधि थी। पंजाब 1872 से 1992 तक लगातार 5 वर्षों तक राष्ट्रपति के नियंत्रण में था। इंदिरा गांधी की हत्या और 1984 के सिख नरसंहार (मैसेक्रे) के बाद स्थिति बहुत ज्यादा ख़राब हो गयी थी और इस तरह की घोषणा की मांग की गई थी।

पंजाब के अलावा अन्य इमर्जेंसी केवल जम्मू और कश्मीर स्टेट संवैधानिक रूप से अनुमत (अलाउड), मैक्सिमम 3 साल की अवधि के लिए थी। जम्मू और कश्मीर में इमर्जेंसी की घोषणा लगभग 6 वर्षों के लिए, अर्थात 2061 दिनों तक लगातार की गई थी। इमर्जेंसी का प्रोक्लेमेशन 1990 से 1996 तक जारी रही।

इमर्जेंसी में फंडामेंटल राइट्स

लोकतंत्र में, इमर्जेंसी उन मूल सिद्धांतों (बेसिक प्रिंसिपल्स) को रोकती है, जिन पर स्टेट मशीनरी काम करती है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह उस स्टेट के नागरिकों को फंडामेंटली उपलब्ध अधिकारों को बाधित (डीसृप्ट) करता है। भारत में, इमर्जेंसी का प्रोक्लेमेशन, लोगों के फंडामेंटल राइट्स को बहुत ज्यादा प्रभावित करता है। साथ ही, यह कहना भी सही नहीं है कि यह प्रावधान असंवैधानिक (अनकंस्टीट्यूशनल) है। फंडामेंटल राइट और इमर्जेंसी की स्थिति, दोनों एक ही दस्तावेज का हिस्सा है। कभी-कभी, चरम (एक्सट्रीम) स्थितियों के मामले में, आर्टिकल 359 के तहत फंडामेंटल राइट को रोक दिया जाता है। संविधान निर्माताओं द्वारा यह अनुमान लगाया गया था कि भविष्य में कुछ घटनाओं या बलों (फोर्सेज) के बढ़ने के कारण नेशनल सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है और ऐसी स्थिति में, स्टेट के लिए, नेशनल सुरक्षा के उद्देश्य से, व्यक्तियों की स्वतंत्रता को रोकना आवश्यक हो सकता है।

इमर्जेंसी स्थितियों ने, लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को एक उलझन में डाला है, की वह या तो नेशनल सुरक्षा के अपने प्राथमिक (प्राइमरी) दायित्व को पूरा करे या फिर अपने नागरिकों के मानवाधिकारों (ह्यूमन राइट्स) की रक्षा के समान महत्वपूर्ण दायित्व की रक्षा करे। इस उलझन को और एक दायित्व को दूसरे के ऊपर चुनने के विकल्प को एक मुख्य कारण माना गया है, जिसके वजह से संविधान में आर्टिकल 359 और आर्टिकल 358 को शामिल गया है। आर्टिकल 359, राष्ट्रपति के ऑर्डर जारी करने के बाद, सभी नागरिकों के लिए उपलब्ध सभी फंडामेंटल राइट्स को रोक देता है। 44वें अमेंडमेंट के बाद यह स्पष्ट कर दिया गया कि राष्ट्रपति के ऑर्डर के दायरे में आर्टिकल 20 और आर्टिकल 21 को नहीं रोका जाएगा।

आर्टिकल 359 के तहत अधिकारों को रोकना

आर्टिकल 359, यह प्रावधान करता है की, राष्ट्रपति संविधान के भाग III के तहत फंडामेंटल राइट्स को रोक सकतें है। इसमें कहा गया है कि, यदि इमर्जेंसी लागू होती है, तो राष्ट्रपति अपने ऑर्डर के द्वारा, नागरिकों के अधिकारों को लागू करने के लिए कोर्ट जाने के अधिकार को रोकने की घोषणा कर सकते हैं। आर्टिकल 20 और आर्टिकल 21 में दिए गए अधिकारों को अन्य अधिकारों की तरह रोका नहीं जा सकता है। ऐसे अधिकारों को लागू करने के लिए कोर्ट में पेंडिंग सभी कार्यवाही भी इमर्जेंसी हटने तक रुकी रहेंगी। यह विशेष आर्टिकल, स्टेट इमर्जेंसी की स्थिति में, पूरे भारत या भारत के किसी भी हिस्से में लागू किया जा सकता है, जो आर्टिकल 258 के विपरीत है। साथ ही, आर्टिकल 359 के क्लॉज 1 के तहत दिए गए किसी भी ऑर्डर को जल्द से जल्द दोनों सदनों के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए।

38वें संविधान अमेंडमेंट एक्ट, 1975 ने आर्टिकल 359 में क्लॉज 1(A) डाला। नए जोड़े गए क्लॉज में यह प्रावधान है कि क्लॉज 1 के तहत ऑर्डर, एक ऐसा ऑर्डर है जिसके द्वारा, संविधान के तहत भाग III में दिया गया कोई भी प्रावधान, संकट से बचने के लिए स्टेट को कानून बनाने या एग्जीक्यूटिव को कोई भी कदम उठाने के लिए सीमित नहीं कर सकता है, और ऐसे ऑर्डर के समाप्त होने के बाद, ऐसी स्थिति में बनाए गाए कोई भी कानून, कानून को प्रभावित करने से पहले किए गए या ना किए गए कार्य को छोड़कर, काम करना बंद कर देंगे।

44वें अमेंडमेंट एक्ट के प्रभाव

44वें अमेंडमेंट एक्ट के तहत किए गए बदलावों को दो भागों में बांटा जा सकता है:

  1. इसने फंडामेंटल राइट्स को रोकने की राष्ट्रपति की शक्ति के दायरे को बदल दिया है। इसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति, आर्टिकल 359 के क्लॉज 1 के तहत एक ऑर्डर देकर भी, आर्टिकल 20 और आर्टिकल 21 के तहत दिए गए अधिकारों को रोक नहीं सकते हैं। 
  2. अप्रतिबंधित (अनरिस्ट्रिक्टेड) कानूनों को लागू करने की स्टेट की शक्ति को स्पष्ट रूप से यह उल्लेख किए बिना उसे अधिनियमित (इनैक्ट) नहीं किया जा सकता है, कि ऐसा कानून इमर्जेंसी के प्रोक्लेमेशन के संबंध में बनाया गया है।  संसद द्वारा अधिनियमित कोई भी कानून या एग्जीक्यूटिव द्वारा इमर्जेंसी के संबंध में, इस तरह की घोषणा के बिना उठाए गए कदम को लागू नहीं किया जा सकता है।

साथ ही, ऐसी घोषणा के बिना, ऐसे किसी भी कानून को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है, भले ही इमर्जेंसी का प्रोक्लेमेशन प्रभावी हो। ए.डी.एम. जबलपुर बनाम एस. शुक्ला के मामले में, सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने बहुमत में फैसला किया कि जीवन के अधिकार के उल्लंघन (वॉयलेशन) के लिए कोई कोर्ट नहीं जा सकता है। इस फैसले को लोगों के विरुद्ध माना गया, क्योंकि इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने किसी ऐसे व्यक्ति के लिए अपना दरवाजा बंद किया, जो जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अपने सबसे फंडामेंटल राइट से वंचित (डिप्राइव) था। ऐसा कुछ रोकने के लिए और फर से अमेंडमेंट करने के लिए, यह सुनिश्चित किया गया कि आर्टिकल 20 और आर्टिकल 21 का उल्लंघन सबसे चरम स्थितियों में भी नहीं किया जाएगा। यहां तक ​​कि अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित भी होता है, तो वह अपने अधिकारों को लागू कराने के लिए कोर्ट जाने का हकदार है। दूसरे शब्दों में, कोर्ट के पास किसी भी कानून या एग्जीक्यूटिव कार्रवाई को अमान्य घोषित करने की शक्ति होगी यदि वह आर्टिकल 20 या आर्टिकल 21 का उल्लंघन करती है।

न्यायिक उपचार का अधिकार (राइट टू जुडिशियल रेमेडी)

यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि, आर्टिकल 358 की तरह, कोर्ट में जाने का अधिकार अपने आप ही सस्पेंड नहीं होता है। यह राष्ट्रपति के ऑर्डर के बाद ही होता है कि कोर्ट में जाने का अधिकार सस्पेंड हो जाता है। 3 नवंबर 1962 को 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान, आर्टिकल 359 के क्लॉज 1 के तहत एक राष्ट्रपति ऑर्डर जारी किया गया था। ऑर्डर में कहा गया था कि संविधान के आर्टिकल 359 के क्लॉज (1) द्वारा प्रदान की गई शक्तियों का प्रयोग करते हुए, राष्ट्रपति यह घोषणा करते हैं कि संविधान के आर्टिकल 14, 21 और 22 द्वारा गारंटीकृत अधिकारों को लागू करने के लिए किसी भी व्यक्ति के कोर्ट में जाने के अधिकार को तब तक रोका जाएगा, जब तक  इमर्जेंसी लागू रहेगी।

माखन सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब के मामले में, माखन सिंह और अन्य कुछ लोगों को द डिफेंस ऑफ़ इंडिया एक्ट, 1962 के तहत हिरासत में लिया गया था। उन्होंने द डिफेंस ऑफ़ इंडिया एक्ट, 1962 के तहत अपनी हिरासत को चुनौती देते हुए हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। उन्होंने आरोप लगाया कि उनकी हिरासत अनुचित और अवैध थी क्योंकि डिफेंस ऑफ़ इंडिया एक्ट के तहत बनाए गए नियम और कानून, आर्टिकल 14, 20 और 21 के तहत उनके फंडामेंटल राइट्स का उल्लंघन करते हैं। याचिका को हाई कोर्ट द्वारा इस आधार पर खारिज कर दिया गया था कि राष्ट्रपति का ऑर्डर, हाई कोर्ट को ऐसी याचिकाओं पर निर्णय लेने से प्रतिबंधित (बार) करता है। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई थी। अपील में, सुप्रीम कोर्ट ने आर्टिकल 359 के तहत दिए गए राष्ट्रपति के ऑर्डर के दायरे और प्रभाव की जांच की।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने अवलोकन (ऑब्जर्वेशन) में कहा कि आर्टिकल 359 किसी के फंडामेंटल राइट्स को नहीं रोक सकता है, लेकिन बस फंडामेंटल राइट्स को लागू करने के लिए कोर्ट जाने के अधिकार को रोकता है और यह कहा जा सकता है कि वह अधिकार सैद्धांतिक (थियोरिटिकली) रूप से रोके नहीं जाते हैं। जिसके भी अधिकार को रोका जाता है, उसे अपने फंडामेंटल राइट के उल्लंघन के लिए उपाय तलाशने का अधिकार है। फंडामेंटल राइट के उल्लंघन के मामले में कोर्ट में जाने के अधिकार को रोकने के लिए आर्टिकल 359 का दायरा सिर्फ सुप्रीम कोर्ट तक ही सीमित नहीं है, वाक्यांश “किसी भी कोर्ट” का अर्थ आर्टिकल 226 के तहत किसी भी हाई कोर्ट सहित सक्षम अधिकार क्षेत्र (कम्पीटेंट ज्यूरिडिक्शन) का कोई भी कोर्ट है। साथ ही, आर्टिकल 32(3) जो संसद को अन्य कोर्ट्स को सशक्त बनाने का अधिकार देता है लेकिन वह सुप्रीम कोर्ट के समान दर्जा उन्हे नहीं दे सकता है। इसलिए, वाक्यांश “किसी भी कोर्ट” का अर्थ है सुप्रीम कोर्ट और संबंधित स्टेट का हाई कोर्ट जिसमें याचिका दायर की जा सकती है।

दुर्भावनापूर्ण हिरासत (मालाफाईड डिटेंशन)

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि हिरासत की प्रकृति चाहे दुर्भावना से हो या वास्तविक, किसी भी मामले में महत्वपूर्ण है। यदि, हिरासत में रखने से किसी व्यक्ति के फंडामेंटल राइट का उल्लंघन किया जाता है, तो वह हैबियस कॉरपस की रिट प्राप्त करने के लिए कोर्ट में जा सकता है, यदि इस तरह की हिरासत का ऑर्डर दुर्भावनापूर्ण इरादे से किया गया है। साथ ही, किसी ऐसे अधिकार के उल्लंघन को, जिसे राष्ट्रपति द्वारा दिए गए ऑर्डर के तहत रोका नहीं गया है, उसको भी कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। इसी तरह, यदि किसी व्यक्ति को हिरासत में लिया जाता है और वह एक याचिका दायर करता है कि डिफेंस ऑफ़ इंडिया एक्ट, एक्ट और ऑर्डिनेंस जिसके तहत उस व्यक्ति को हिरासत में लिया गया है, वह शक्ति के अत्यधिक प्रत्यायोजन (एक्ससेसिव डेलिगेशन) से ग्रस्त (सफर) है। राष्ट्रपति के ऑर्डर के कारण ऐसी याचिका पर रोक नहीं लगाई जा सकती है क्योंकि ऐसी याचिका ऑर्डर में उल्लिखित फंडामेंटल राइट्स से संबंधित नहीं है।

ऐतिहासिक निर्णय (लैंडमार्क केसेस)

  • 1966 में सुप्रीम कोर्ट ने स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र बनाम प्रभाकर में एक व्यक्ति के कोर्ट में जाने के अधिकार पर फैसला सुनाया था। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अगर किसी व्यक्ति के अधिकार को डिफेंस ऑफ़ इंडिया एक्ट या राष्ट्रपति के ऑर्डर के तहत बनाए गए किसी कानून के तहत रोका नहीं जाता, तो उसे एक उपाय के लिए कोर्ट में जाने का अधिकार है।
  • राम मनोहर लोहिया बनाम स्टेट ऑफ़ बिहार के इसी तरह के एक मामले में, कोर्ट ने डिफेंस ऑफ़ इंडिया नियमों के तहत हिरासत को अमान्य करार दिया क्योंकि हिरासत के ऑर्डर के नियम, निर्धारित शर्तों के साथ असंगत (इनकंसिस्टेंट) थे। इस मामले में डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट के ऑर्डर पर डॉ. राम मनोहर लोहिया को हिरासत में लिया गया था। डिफेंस ऑफ़ इंडिया एक्ट, 1962 के तहत सरकार द्वारा डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट को शक्ति सौंपी गई थी। ऑर्डर में कहा गया है कि बंदी (डिटेनी) को समाज में सुरक्षा और कानूनी व्यवस्था का उल्लंघन करने से रोकने के लिए, उसे हिरासत में लेना जरूरी था।

कोर्ट ने माना कि राष्ट्रपति का ऑर्डर किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने के बाद रिहाई के लिए आवेदन (अप्लाई) करने से नहीं रोकता है। यदि किसी व्यक्ति को डिफेंस ऑफ़ इंडिया एक्ट के तहत हिरासत में लिया जाता है, तब भी वह अपने फंडामेंटल राइट के लिए कोर्ट जा सकता है। उसकी याचिका पर सुनवाई होगी। कोर्ट इस तर्क से संतुष्ट थी कि डिफेंस ऑफ़ इंडिया एक्ट या ऑर्डर के तहत बनाए गए नियमों के तहत हिरासत उचित नहीं थी। कोर्ट ने माना कि जिस ऑर्डर के तहत उसे हिरासत में लिया गया था, उसे तब तक चुनौती दी जा सकती है जब तक कि ऑर्डर, एक नियम के रूप में, “कानून और व्यवस्था” के एक्सप्रेशन के तहत नहीं आता है। “कानून और व्यवस्था के रखरखाव (मेंटेनेंस)” की अभिव्यक्ति से सार्वजनिक व्यवस्था के लिए खतरे के महत्व और गंभीरता को नहीं हटाया जा सकता है।

  • मोहम्मद याकूब बनाम स्टेट ऑफ़ जम्मू और कश्मीर, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि आर्टिकल 359(1) के तहत दिया गया कोई भी ऑर्डर, भारत के संविधान के आर्टिकल 13(2) के तहत ‘कानून’ की परिभाषा में नहीं आता। इसलिए, यदि यह संविधान के भाग III के तहत गारंटीकृत फंडामेंटल राइट्स का उल्लंघन करता है, तो इसकी वैधता को चुनौती नहीं दी जा सकती है। कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि कोई ऑर्डर आर्टिकल 14 को लागू करने से रोकता है तो उसे अमान्य नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि यह आर्टिकल 14 का उल्लंघन है। ऑर्डर की वैधता को उल्लंघनकारी (वॉयलेटिव) नहीं माना जा सकता है जिसे ऑर्डर ने स्वयं रोक दिया है। गुलाम सरवर बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही फैसले को खारिज कर दिया।
  • ए.डी.एम. जबलपुर बनाम एस. शुक्ला के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक अपील पर अपना जवाब दिया, जिसे आर्टिकल 352 के तहत राष्ट्रपति द्वारा इमर्जेंसी के प्रोक्लेमेशन को चुनौती देते हुए, प्रतिवादी (रेस्पोंडेंट) ने दायर किया था। सुप्रीम कोर्ट की इस अपील में प्रतिवादियों को मेंटेनेंस ऑफ़ इंटर्नल सिक्योरिटी एक्ट (एम.आई.एस.ए.) के तहत हिरासत में लिया गया था। इस मुद्दे के जवाब देते हुए, कि क्या कोई व्यक्ति, राष्ट्रपति द्वारा आर्टिकल 359 के तहत दिए गए ऑर्डर के तहत हिरासत को चुनौती दे सकता है या नही, इस मुद्दे पर कोर्ट ने कहा कि किसी भी व्यक्ति को आर्टिकल 226 के तहत हैबियस कॉरपस की रिट के लिए कोर्ट में जाने का अधिकार नहीं है। ऑर्डर को चुनौती इस आधार पर नहीं दी जा सकती है कि, दिया गया ऑर्डर एक्ट के अनुपालन (कंप्लायंस) में नहीं था या अवैध था, या दुर्भावनापूर्ण इरादे से दिया गया था या बाहरी विचारों पर आधारित था।

इसी मामले में, प्रतिवादियों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में एक तर्क (कंटेंशन) प्रस्तुत किया गया था। यह तर्क दिया गया था कि आर्टिकल 359(1) केवल एक व्यक्ति को संविधान के आर्टिकल 32 के माध्यम से अपने फंडामेंटल राइट को लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में जाने से रोकता है। यह भी तर्क दिया गया कि यह ऑर्डर, हाई कोर्ट के समक्ष सामान्य कानून और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के वैधानिक (स्टेच्यूटरी) अधिकार और आर्टिकल 226 के तहत इसे लागू करने के तरीके को प्रभावित नहीं करता है। संक्षेप (शॉर्ट) में, तर्क यह था कि आर्टिकल 21 किसी व्यक्ति के जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का एकमात्र स्रोत (सोर्स) है और एक व्यक्ति, ऐसे अधिकार को लागू करने के लिए कोर्ट में जा सकता है, भले ही वह रोका गया हो।

इस तर्क को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था। इसे इस आधार पर खारिज कर दिया गया था कि आर्टिकल 21 व्यक्ति के जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का एकमात्र स्रोत है। एक बार जब आर्टिकल 21 के उल्लंघन के लिए न्यायिक उपचार का अधिकार रोक दिया जाता है, तो वह व्यक्ति किसी अन्य प्रकार के उपचार के लिए कोर्ट में नहीं जा सकता है। इसी तरह, आर्टिकल 359(1) के तहत दिया गया एक ऑर्डर, न केवल आर्टिकल 32 के तहत किसी व्यक्ति के सुप्रीम कोर्ट में जाने के अधिकार को रोकता है बल्कि भाग III में दिए गए अधिकारों को लागू करने के लिए आर्टिकल 226 के तहत कोर्ट जाने के अधिकार को भी रोकता है।

इस फैसले की आलोचना की गई थी, क्योंकि इसने संविधान में प्रदान की गई सभी सुरक्षाओं को छीन लिया था। इस मामले ने किसी व्यक्ति के जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ-साथ अपराधों की सजा के खिलाफ सुरक्षा के अधिकार को भी रोक दिया। फैसले का विरोध करने के लिए 44वां अमेंडमेंट लाया गया था और यह कहा गया कि आर्टिकल 20 और आर्टिकल 21 को आर्टिकल 359(1) के तहत राष्ट्रपति के ऑर्डर के माध्यम से रोका नहीं जा सकता है। इस तरह स्पष्ट मानव अधिकारों के उल्लंघन की एक और घटना को एग्जीक्यूटिव एजेंसीज को बिना किसी नतीजे के दोहराया नहीं जा सकता है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

नेशनल सुरक्षा और असाधारण मुद्दों को संभालने के लिए संविधान में इमर्जेंसी के प्रावधान जोड़े गए थे। यहां तक ​​​​कि संविधान के निर्माताओं ने भी यह सोचा था कि भविष्य में ऐसी स्थितियां हो सकती हैं, जिनके लिए स्टेट को प्रतिक्रिया (रेस्पोंड) देने और स्थिति को संभालने के लिए विशेष शक्तियों की आवश्यकता होगी। आजादी के बाद से इमर्जेंसी के प्रावधानों का कई बार इस्तेमाल किया गया है। एक महत्वपूर्ण अवधि के लिए, स्टेट द्वारा इसका उपयोग नैतिक (एथिकल) नहीं था और उनका राजनीतिक नियंत्रण जारी रखने के लिए एक राजनीतिक उपकरण के रूप में इसे इस्तेमाल किया गया था। राष्ट्रपति द्वारा इमर्जेंसी के प्रोक्लेमेशन के लिए निर्धारित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था और उसका दुरुपयोग किया गया था। संविधान द्वारा निर्धारित इमर्जेंसी जारी रखने की अधिकतम समय सीमा का उल्लंघन पंजाब और जम्मू और कश्मीर में भी किया गया था।

दुरुपयोग की इन घटनाओं के कारण 44वें अमेंडमेंट एक्ट में इन प्रावधानों में कुछ अमेंडमेंट पेश किए गए। इस बीच, भारतीय ज्यूडिशियरी ने किसी भी तरह के मानवाधिकारों के उल्लंघन की अपील लेना बंद कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों में, किसी व्यक्ति के फंडामेंटल राइट्स के उल्लंघन के मामले में, उसके कोर्ट जाने की शक्ति पर चर्चा की गई थी। 44वें अमेंडमेंट एक्ट के बाद, कोर्ट द्वारा यह सहमति व्यक्त की गई कि किसी भी स्थिति में किसी भी व्यक्ति से उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को नहीं छीना जा सकता है। इमर्जेंसी की स्थिति में भी आर्टिकल 20 और 21 को रोका नहीं जा सकता था। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि सभी फंडामेंटल राइट बने रहने के क्रम में उनको लागू करने के लिए कोर्ट में जाने की शक्ति को रोक दिया गया है। इसलिए, एक इमर्जेंसी की स्थिति के बाद, कोई भी व्यक्ति जिसके फंडामेंटल राइट को छीन लिया गया है, वह उपचार के लिए कोर्ट में जा सकता है।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

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