यह लेख Harshita Aggarwal द्वारा लिखा गया है। इस लेख में साउथ इंडिया कॉर्पोरेशन (प्रा.) लिमिटेड बनाम राजस्व बोर्ड (1964) के ऐतिहासिक निर्णय की विस्तृत जांच शामिल है, जिसमें कर निर्धारण वर्ष के महत्व और इसके परिणामस्वरूप कर वृद्धि पर प्रकाश डाला गया है। यह भारतीय संविधान के भीतर इस मामले में उल्लिखित दायरे के साथ-साथ करो, उपकरों (सेस) और शुल्क की बचत के निहितार्थों (इम्प्लिकेशंस) के साथ-साथ इसके व्यापक अनुप्रयोगों पर भी प्रकाश डालता है। निर्णय का समर्थन करने के लिए कई पूर्ववर्ती (प्रीसिडेंट) मामलों के उदाहरणों का उपयोग करके मामले के निर्णय का विश्लेषण किया गया है। इस लेख का अनुवाद Shubham Choube द्वारा किया गया है।
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परिचय
साउथ इंडिया कॉरपोरेशन (प्रा.) लिमिटेड बनाम राजस्व बोर्ड, (1964) का मामला “कार्य अनुबंधों” से संबंधित कर निर्धारण की संवैधानिकता पर प्रकाश डालता है। भारत के राष्ट्रपति और त्रावणकोर-कोचीन राज्य के राजप्रमुख के बीच समझौतों की वैधता की भी माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समीक्षा की गई और न्यायालय ने माना कि “विषय के अधीन” अभिव्यक्ति इस विचार को व्यक्त करती है कि एक प्रावधान को दूसरे प्रावधान या अधीनस्थ प्रावधान के अधीन होना चाहिए। 25 फरवरी 1950 को भारत के राष्ट्रपति और त्रावणकोर-कोचीन राज्य के राजप्रमुख के बीच एक समझौता हुआ था, जिसमें समझौते में निर्दिष्ट दस वर्षों की अवधि के लिए “कार्य अनुबंधों” पर कर लगाने के राज्य के अधिकार को सीमित कर दिया गया था। अपीलकर्ता द्वारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 और 227 के तहत केरल उच्च न्यायालय में चार याचिकाएँ दायर की गईं और न्यायालय ने उन्हें खारिज कर दिया। न्यायालय ने याचिका खारिज कर दी और जुर्माना भरने का आदेश दिया। चूंकि याचिकाकर्ताओं की दलील को न्यायालय ने खारिज कर दिया था, इसलिए उन्होंने अपील दायर करने का विकल्प चुना। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का उद्देश्य उच्च न्यायालय के पिछले आदेश को रद्द करना था क्योंकि इस मामले में कई पूर्ववर्ती मामलो और संवैधानिक संशोधनों के साथ-साथ एक पूर्व-संवैधानिक कानून पर चर्चा की गई थी और निर्णय सुनाया गया था कि राज्य निर्दिष्ट अवधि के दौरान ऐसे कर नहीं लगा सकता है।
लेख में मामले के तथ्यों, इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, इसमें शामिल मुद्दों तथा मामले के निर्णय और विश्लेषण पर चर्चा की गई है।
मामले का विवरण
- मामले का नाम: साउथ इंडिया कॉर्पोरेशन (प्रा.) लिमिटेड बनाम राजस्व बोर्ड
- न्यायालय का नाम: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
- निर्णय की तिथि: 13 अगस्त, 1963
- उद्धरण (साइटेशन): 1964 एआईआर 207, 1964 एससीआर (4) 280
- न्यायपीठ: न्यायमूर्ति एस. के. दास, न्यायमूर्ति सुब्बा रॉय, न्यायमूर्ति रघुबर दयाल, न्यायमूर्ति एन. राजगोपाल अयंगर, न्यायमूर्ति आर. मुधोलकर
- लेखक: न्यायमूर्ति सुब्बा रॉय
- पक्षों का नाम: याचिकाकर्ता: साउथ इंडिया कॉर्पोरेशन (प्रा.) लिमिटेड, प्रतिवादी: सचिव, राजस्व बोर्ड
मामले की पृष्ठभूमि
साउथ इंडिया कॉरपोरेशन (प्रा.) लिमिटेड बनाम राजस्व बोर्ड, 1964 के मामले की याचिका भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत दायर की गई थी। चारों जुड़ी हुई अपीलें केरल उच्च न्यायालय के एक निर्णय से उत्पन्न हुईं, जिसमें सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया गया था, जिसमें यह घोषित करने की मांग की गई थी कि सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1125 (1126 का अधिनियम XI) के प्रावधान, जिसमें कहा गया था कि कर “कार्य अनुबंधों” पर लगाया गया था और 26 जनवरी 1960 से केरल राज्य के किसी भी हिस्से में लागू नहीं होना चाहिए। अपीलकर्ता ने मूल्यांकन वर्ष 1960-61 और 1961-62 के लिए “कार्य अनुबंधों” पर बिक्री पर लगाए गए कर के आदेशों को रद्द करने के लिए अन्य उपयुक्त रिटों के साथ-साथ एक उत्प्रेषण (सर्टिओररी) रिट भी जारी की थी। कंपनी द्वारा प्रथम प्रतिवादी के समक्ष एक संशोधित याचिका दायर की गई थी जिसे खारिज कर दिया गया था। दूसरे प्रतिवादी द्वारा कंपनी के खिलाफ़ मूल्यांकन वर्ष 1956-57, 1957-58 और 1958-59 के लिए “कार्य अनुबंधों” के संबंध में बिक्री कर मूल्यांकन जारी किया गया था। केरल उच्च न्यायालय के समक्ष अपीलकर्ता की ओर से प्रस्तुत प्रारंभिक तर्क यह था कि प्रासंगिक बिक्री कर अधिनियम “कार्य अनुबंधों” पर बिक्री कर के संग्रह को लागू करते हैं। इसे भारतीय संविधान के अधिनियमन के बाद असंवैधानिक और इसलिए शून्य माना गया। याचिका को खारिज कर दिया गया और जुर्माना लगाया गया, जिसके कारण अपील दायर की गई।
साउथ इंडिया कॉर्पोरेशन (प्रा.) लिमिटेड बनाम राजस्व बोर्ड (1964) के तथ्य
मामले का अपीलकर्ता कंपनी अधिनियम, 2013 के तहत एक निगमित (इंकॉर्पोरेटेड) निजी लिमिटेड कंपनी है। इसका मुख्यालय मट्टनचेरी में स्थित है। कंपनी लोहा, घातु के सामान (हार्डवेयर), बिजली के सामान, लकड़ी, कॉयर और इंजीनियरिंग अनुबंधों सहित विभिन्न क्षेत्रों में काम करती है। कंपनी ने राज्य और केंद्र सरकार के विभागों के साथ-साथ निजी संस्थाओं के लिए इंजीनियरिंग ठेकेदार के रूप में भी काम किया। 17 मार्च 1959 को, बिक्री कर अधिकारी, विशेष वृत्त, एर्नाकुलम ने “कार्य अनुबंधों” के संबंध में आकलन वर्ष 1952-53 के लिए त्रावणकोर कोचीन सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1125 एम.ई. के तहत कंपनी पर बिक्री कर लगाया। वर्ष 1952-53 के लिए मूल्यांकन केवल त्रावणकोर-कोचीन सामान्य बिक्री कर अधिनियम (1125 एम.ई. के 11) के तहत किया गया था। इसलिए, बाद में बढ़ाए गए कर ने उस वर्ष के मूल्यांकन को प्रभावित नहीं किया। हालाँकि, वर्ष 1956-57, 1957-58 और 1958-59 के लिए कर निर्धारण त्रावणकोर-कोचीन सामान्य बिक्री कर (संशोधन) अधिनियम, 1957 के तहत किए गए थे। इसलिए, इस अधिनियम के तहत दर बढ़ाने का प्रावधान उन कर निर्धारणों को प्रभावित करेगा। केरल अधिनियम, 1957 के तहत की गई वृद्धि केवल कर निर्धारण वर्ष 1957-58 पर लागू होगी और कर निर्धारण वर्ष 1956-57 पर लागू नहीं होगी।
केरल में बिक्री कर कानून की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
प्रारंभ में, त्रावणकोर और कोचीन दो अलग-अलग संप्रभु (सॉवरेन) राज्य थे जिनके पास पूर्ण कराधान अधिकार था। कोचीन ने 1121 ई. के कोचीन सामान्य बिक्री कर अधिनियम 15 को लागू किया, जबकि त्रावणकोर ने 1124 ई. के त्रावणकोर सामान्य बिक्री कर अधिनियम 18 को लागू किया, दोनों ही अधिनियम “कार्य अनुबंधों” पर कर लगाते थे। इन राज्यों के विलय (मर्जर) के बाद, एकीकृत विधानमंडल के साथ त्रावणकोर-कोचीन संयुक्त राज्य की स्थापना की गई। विधानमंडल ने त्रावणकोर-कोचीन सामान्य बिक्री कर अधिनियम 11, 1125 ई. को अधिनियमित किया, जिसे आगे ‘अधिनियम’ के रूप में संदर्भित किया गया। विधानमंडल ने पूर्ण कराधान अधिकार के साथ “कार्य अनुबंधों” पर बिक्री कर लगाया।
17 जनवरी 1950 को अधिनियम आधिकारिक रूप से राजपत्र (गैज़ेट) में प्रकाशित हुआ। इसकी धारा 1(3) में प्रावधान किया गया कि यह सरकार द्वारा 30 मई 1950 को जारी अधिसूचना के माध्यम से निर्दिष्ट तिथि से प्रभावी होगा। उपर्युक्त निर्दिष्ट अधिनियम की धारा 24 के अनुसार, “कार्य अनुबंध” से संबंधित प्रक्रियाओं और बिक्री राशियों का पता लगाने के लिए नियम बनाए गए थे। नियम 4(3) उप-नियम (1) के अनुसार, “कार्य अनुबंधों” के संबंध में एक व्यापारी द्वारा बेचे गए माल का मूल्य अनुबंध के पूरा होने के लिए किए गए भुगतान के रूप में माना जाता था, जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के लिए राजस्व बोर्ड द्वारा निर्धारित एक निश्चित प्रतिशत घटा दिया जाता था। यह प्रतिशत निर्दिष्ट अधिकतम प्रतिशत के साथ उन क्षेत्रों में सामग्री लागत के लिए श्रम लागत के सामान्य अनुपात का प्रतिनिधित्व करता है।
हालांकि, राजस्व बोर्ड ने कार्य अनुबंध निष्पादित करने के लिए कटौती प्रतिशत निर्दिष्ट नहीं किया। चूंकि उक्त तथ्य को उच्च न्यायालय में स्वीकार कर लिया गया था, इसलिए त्रावणकोर-कोचीन राजपत्र से साक्ष्य न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किए गए, जिसमें इस तरह के प्रतिशत की स्थापना की पुष्टि की गई।
उठाए गए मुद्दे
- क्या संविधान के अनुच्छेद 278 के अंतर्गत राज्य द्वारा लगाए गए करों और भारत सरकार द्वारा लगाए गए करों के संबंध में तब तक कोई वैध समझौता किया जा सकता है जब तक कि संसद उपयुक्त कानून नहीं बना देती?
- क्या ऐसा कोई समझौता हुआ था जिसके तहत राज्य ने संघ के साथ की गई व्यवस्था के तहत उक्त कर लगाने का अपना अधिकार त्याग दिया था?
- क्या संविधान का अनुच्छेद 372 उसके अनुच्छेद 277 के अधीन है?
- क्या संविधान का अनुच्छेद 372 उसके अनुच्छेद 278 के अधीन है?
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता
याचिकाकर्ता का मुख्य तर्क यह है कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 227 केवल संविधान के लागू होने से पहले राज्य द्वारा विधिपूर्वक लागू किए गए करों को ही संरक्षित कर सकता है और चूंकि अधिनियम संविधान के लागू होने के बाद लागू किया गया था, इसलिए इसके तहत कर लगाना अनुच्छेद द्वारा निर्धारित मानदंडों को पूरा नहीं करता है।
यदि यह मान लिया जाए कि अनुच्छेद 227 अधिनियम द्वारा लगाए गए कराधान को बरकरार रखता है, तो याचिकाकर्ता ने आगे तर्क दिया कि 25 फरवरी 1950 को भारत के राष्ट्रपति और त्रावणकोर-कोचीन राज्य के राजप्रमुख के बीच राज्य में संघीय वित्तीय एकीकरण के संबंध में एक समझौता हुआ था।
इस समझौते के अनुसार, संघ ने संघ सूची में विशिष्ट वस्तुओं से संबंधित कराधान शक्तियों के संवैधानिक हस्तांतरण से उत्पन्न राजस्व की कमी के लिए राज्य को क्षतिपूर्ति करने के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त की और इसके बाद, राज्य ने हस्तांतरित विषयों पर कर लगाने का अपना अधिकार खो दिया।
याचिकाकर्ता ने यह भी तर्क दिया कि अनुच्छेद 372 अन्य संवैधानिक प्रावधानों के अधीन है तथा किसी संघीय विषय पर कर लगाने के लिए राज्य को प्राधिकार प्रदान करने वाली शक्ति संविधान के संघीय ढांचे के विपरीत है तथा इसे अवैध माना जाता है।
प्रतिवादी
प्रतिवादी ने अपने तर्कों में सुझाव दिया कि 1125 ई. का त्रावणकोर-कोचीन सामान्य बिक्री कर अधिनियम संविधान के बाद अनुच्छेद 372 के स्पष्ट प्रावधानों के तहत प्रभावी रहा और तब तक जारी रहा जब तक कि उक्त कानून को उचित प्राधिकारी द्वारा परिवर्तित, निरस्त या संशोधित नहीं किया गया। इसलिए, संघ और राज्य के बीच कोई भी समझौता उक्त कानून के तहत कर लगाने के राज्य के अधिकार को कम नहीं करेगा।
प्रतिवादी ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 278(2) संघ और भाग B राज्य को केवल उस राज्य के भीतर भारत सरकार द्वारा लगाए गए कर के संबंध में समझौता करने की अनुमति देता है और जब किसी राज्य को संविधान के तहत कर लगाने और एकत्र करने की शक्ति के नुकसान के कारण राजस्व हानि होती है।
साउथ इंडिया कॉर्पोरेशन (प्रा.) लिमिटेड बनाम राजस्व बोर्ड, (1964) के मामले में, यह स्थापित किया गया था कि राज्य ने “कार्य अनुबंधों” पर कर लगाने का अधिकार तब तक बरकरार रखा जब तक कि संसद ने अनुच्छेद 277 द्वारा अनुमत उचित कानून नहीं बनाया। हालाँकि, इस कर के संबंध में राज्य को कोई राजस्व हानि नहीं हुई, जिससे राज्य सरकार और संघ के बीच कोई भी समझौता अमान्य हो गया।
अनुच्छेद 278 तभी अस्तित्व में आया जब भारत सरकार ने संसदीय कार्यवाही के माध्यम से अनुच्छेद 277 द्वारा बचाए गए एक विशेष कर को लगाने का अधिकार प्राप्त कर लिया, जो राजस्व की हानि की भरपाई के लिए एक समझौते के रूप में था, जो तब अमान्य हो गया जब ऐसी कोई हानि नहीं हुई थी।
साउथ इंडिया कॉर्पोरेशन (प्रा.) लिमिटेड बनाम राजस्व बोर्ड (1964) में चर्चित कानून
कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 2(68)
कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 2(68) के अनुसार, एक निजी कंपनी वह होती है जिसके पास न्यूनतम निर्धारित चुकता शेयर पूंजी होती है और जो अपने आर्टिकल्स के अनुसार:
- अपने शेयरों को हस्तांतरित करने के अधिकार को प्रतिबंधित करती है,
- एक व्यक्ति वाली कंपनी के मामले को छोड़कर, सदस्यों की संख्या को दो सौ तक सीमित करती है।
बशर्ते कि जहां दो या अधिक व्यक्ति संयुक्त रूप से किसी कंपनी में शेयर रखते हैं, उन्हें इस प्रावधान के तहत एकल सदस्य माना जाएगा।
इसके अलावा यह भी प्रावधान है कि:
- वे व्यक्ति जो कंपनी में कार्यरत हैं, और
- ऐसे व्यक्ति जो पहले कंपनी में कार्यरत थे, कार्यरत रहते हुए कंपनी के सदस्य थे और रोजगार समाप्त होने के बाद भी सदस्य बने रहे हैं, उन्हें सदस्यों में नहीं गिना जाएगा, तथा
- एक निजी कंपनी अपनी प्रतिभूतियों (सिक्योरिटीज) की खरीद के लिए जनता को किसी भी प्रकार के आमंत्रण पर रोक लगाती है।
यह प्रावधान एक निजी कंपनी से संबंधित है और साउथ इंडिया कॉर्पोरेशन (प्रा.) लिमिटेड को कानूनी सिद्धांतों के संदर्भ में प्रासंगिक बनाने के लिए निजी कंपनी की परिभाषा के अंतर्गत वर्गीकृत किया जाएगा।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 12
कुछ अपवादों को छोड़कर, सभी मौलिक अधिकार राज्य के विरुद्ध लागू होते हैं। अनुच्छेद 12 के अनुसार, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, “राज्य” में शामिल हैं-
- भारत की सरकार और संसद,
- प्रत्येक राज्य की सरकार और विधानमंडल, और
- सभी स्थानीय या अन्य प्राधिकरण,
- भारत के क्षेत्र के भीतर, या
- भारत सरकार के नियंत्रण में।
‘स्थानीय प्राधिकरण’ शब्द का तात्पर्य नगर पालिकाओं, जिला बोर्डों और पंचायतों जैसे निकायों से है। सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि ‘अन्य प्राधिकरण’ में संविधान या क़ानून द्वारा बनाए गए सभी प्राधिकरण शामिल हैं, जिन्हें सरकारी कार्यों में शामिल हुए बिना कानून द्वारा शक्तियाँ प्रदान की जाती हैं।
अजय हसिया बनाम खालिद मुजीब (1981) में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्धारित करने के लिए निम्नलिखित परीक्षण निर्धारित किया है कि कोई इकाई राज्य की साधन या एजेंसी है या नहीं:
- राज्य किस सीमा तक वित्तीय सहायता प्रदान करता है, खासकर यदि वह निगम के खर्चों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा वहन करता है, तो इससे निगम के सरकार के साथ जुड़ाव का संकेत मिल सकता है।
- यदि निगम को राज्य द्वारा प्रदत्त या संरक्षित एकाधिकार (मोनोपोली) का दर्जा प्राप्त है, तो यह सरकार से संबंध दर्शाता है।
- व्यापक राज्य नियंत्रण की उपस्थिति यह सुझाव दे सकती है कि निगम सरकार की एजेंसी या साधन के रूप में कार्य करता है।
- यदि निगम की गतिविधियां सार्वजनिक महत्व की हैं और सरकारी कार्यों से निकटता से जुड़ी हैं, तो इससे उसे सरकारी एजेंसी या साधन के रूप में वर्गीकृत करने का मामला मजबूत हो जाता है।
- यदि सरकार का कोई विभाग किसी निगम को हस्तांतरित कर दिया जाता है, तो यह इस निष्कर्ष के समर्थन में एक मजबूत कारक होगा कि निगम एक सरकारी एजेंसी या साधन के रूप में कार्य करता है।
- जब निगम की सम्पूर्ण शेयर पूंजी सरकार के स्वामित्व में हो।
मामले के अनुच्छेद में स्पष्ट किया गया कि राजस्व बोर्ड एक राज्य का प्राधिकरण है तथा संवैधानिक प्रावधानों के प्रवर्तन के अधीन है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 226
संविधान के अनुच्छेद 226 के आधार पर, प्रत्येक उच्च न्यायालय को निर्देश या आदेश या रिट जारी करने की शक्ति प्राप्त है, बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉरपस), परमादेश (मैंडेमस), निषेध (प्रोहिबिशन), अधिकार-पृच्छा (क्वो-वारंटो) और उत्प्रेषण (सर्टिओरारी) की प्रकृति के रिट शामिल हैं। रिट जारी करने का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालयों और अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय को प्रदान किया गया है।
उत्प्रेषण रिट निचली संस्था से कार्यवाही को उच्च न्यायालय में स्थानांतरित करती है ताकि उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर के किसी निर्णय को रद्द किया जा सके। यदि निचली अदालत ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर किसी मामले को स्वीकार कर लिया है तो अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय या अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय निषेध के रूप में जाना जाने वाला रिट या आदेश जारी कर सकता है जिसके द्वारा निचली अदालत को मामले पर निर्णय लेने से रोक दिया जाएगा लेकिन यदि उसने पहले ही कोई निर्णय पारित कर दिया है तो वे उत्प्रेषण आदेश जारी करेंगे जिसके द्वारा निचली अदालत के निर्णय को रद्द कर दिया जाएगा।
वीरप्पा पिल्लई बनाम रमन और रमन लिमिटेड (1952) में, यह माना गया कि अनुच्छेद 226 में उल्लिखित रिट का उद्देश्य उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करने की अनुमति देना था जब अधीनस्थ निकाय या अधिकारी अपने अधिकार क्षेत्र से परे कार्य करते हैं, प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन करते हैं, अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने में विफल रहते हैं, या स्पष्ट गलतियाँ करते हैं जो अन्याय की ओर ले जाती हैं। चाहे उसका अधिकार क्षेत्र कितना भी व्यापक क्यों न हो, उच्च न्यायालय को अपील की न्यायालय के रूप में कार्य करने या विवादित निर्णयों की शुद्धता का मूल्यांकन करने और जारी किए जाने वाले उचित स्थिति या आदेश का निर्धारण करने का अधिकार नहीं है।
उपर्युक्त मामले में, याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी के कार्यों से राहत के लिए अनुच्छेद 226 के तहत याचिका दायर की, जिसमें उल्लेख किया गया था कि कुछ करों को लागू करना असंवैधानिक था।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 227
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 227 सभी न्यायालयों की निगरानी करने के लिए उच्च न्यायालयों के अधिकार से संबंधित है। इस अनुच्छेद के अनुसरण में, प्रत्येक उच्च न्यायालय को अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर सभी न्यायालयों और न्यायाधिकरणों (ट्रिब्यूनल) पर पर्यवेक्षण अधिकार क्षेत्र प्राप्त है। उपरोक्त स्थिति के सामान्य दायरे को प्रभावित किए बिना, उच्च न्यायालय निम्न कार्य कर सकता है:
- इन न्यायालयों से दस्तावेजों की वापसी का अनुरोध करें।
- इन न्यायालयों के अभ्यास और प्रक्रियाओं को नियंत्रित करने के लिए सामान्य नियम बनाएं और जारी करें तथा प्रपत्र स्थापित करें।
- इन न्यायालयों के अधिकारियों द्वारा पुस्तकों, प्रविष्टियों और खातों को बनाए रखने के प्रारूप का निर्धारण करना।
- उच्च न्यायालय को इन न्यायालयों के शेरिफ तथा सभी लिपिको और अधिकारियों के साथ-साथ वहां वकालत करने वाले वकीलों, अधिवक्ताओं के लिए शुल्क निर्धारित करने का अधिकार है।
बशर्ते कि खंड (2) या (3) के तहत बनाए गए किसी भी नियम, निर्धारित प्रपत्र या निर्धारित शुल्क अनुसूचियाँ मौजूदा कानूनों के अनुरूप होनी चाहिए और राज्यपाल की पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता होगी।
यह अनुच्छेद उच्च न्यायालय को सशस्त्र बलों से संबंधित कानूनों द्वारा या उनके तहत स्थापित किसी भी न्यायालय या न्यायाधिकरण पर अधीक्षण का कोई अधिकार नहीं देता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न उदाहरणों का हवाला दिया, जिन्होंने अनुच्छेद 226 और 227 के बीच के दायरे, अधिकार और अंतर को रेखांकित किया। सूर्या देवी राय बनाम राम चंद्र राय, (2003) में अपने पिछले निर्णय की समीक्षा करने के बाद, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालय को किसी भी व्यक्ति, सरकार या प्राधिकरण को निर्देश, आदेश और रिट जारी करने का अधिकार देता है, जबकि अनुच्छेद 227 उच्च न्यायालय को अपने अधिकार क्षेत्र में सभी न्यायालयो और न्यायाधिकरणों पर पर्यवेक्षी अधिकार प्रदान करता है। अनुच्छेद 226 के तहत कार्रवाई उच्च न्यायालय के मूल अधिकार क्षेत्र में आती है और अनुच्छेद 227 के तहत प्रक्रियाएं पूरी तरह से पर्यवेक्षी प्रकृति की हैं। उत्प्रेषण रिट उच्च न्यायालय के मूल अधिकार क्षेत्र (अनुच्छेद 226) के अंतर्गत आती है और पर्यवेक्षी अधिकार क्षेत्र (अनुच्छेद 227) मूल अधिकार क्षेत्र नहीं है और यह अपीलीय पुनरीक्षण के समान है। अनुच्छेद 226 के तहत अधिकार का प्रयोग पीड़ित पक्ष की ओर से या उनकी ओर से दलील देकर किया जा सकता है और अनुच्छेद 227 के तहत पर्यवेक्षी अधिकार क्षेत्र का प्रयोग स्वत: संज्ञान से भी किया जा सकता है।
इस मामले के प्रावधान से यह सुनिश्चित हुआ कि उच्च न्यायालय कर विवादों से निपटने वाले निचले न्यायालयों या न्यायाधिकरणों की निगरानी करेंगे तथा यह सुनिश्चित करेंगे कि वे अपने अधिकार क्षेत्र में काम करें तथा उचित प्रक्रिया का पालन करें।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 277
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 277 व्यावृत्ति (सेविंग) से संबंधित है। इसमें प्रावधान है कि संविधान लागू होने से पहले किसी राज्य सरकार या नगर पालिका या अन्य स्थानीय प्राधिकरण द्वारा विधिपूर्वक लगाए गए कोई भी कर, उपकर या शुल्क तब तक बनी रहेगी और उसी उद्देश्य के लिए उपयोग की जाती रहेगी जब तक कि संसद इसके विपरीत कानून नहीं बना देती।
नगर पालिका समिति बनाम रामचन्द्र वासुदेव चिमोटे, (1964) के ऐतिहासिक निर्णय में, अमरावती नगर पालिका के कार्यों को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अवैध ठहराया गया था क्योंकि इसे पूर्व-संवैधानिक करों, कर्तव्यों या शुल्क में परिवर्तन करने में अक्षम माना गया था। नगरपालिका ने पहले एक विशिष्ट संविधान-पूर्व कानून के अनुसार सोने और चांदी को छोड़कर वस्तुओं पर सीमा कर लगाया था। संविधान लागू होने के बाद, यह शक्ति सातवीं अनुसूची की सूची 1 के अंतर्गत थी। हालाँकि, भारत के संविधान के लागू होने के बाद नगरपालिका ने सीमा कर के दायरे में सोने और चांदी को शामिल करते हुए अधिसूचना में संशोधन किया।
इस मामले के लिए इस अनुच्छेद की प्रासंगिकता यह निर्धारित करना था कि संविधान-पूर्व लगाए गए करों को राज्य सरकार द्वारा अभी भी वैध रूप से लगाया जा सकता है या नहीं।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 372
भारत के संविधान में अनुच्छेद 372 मौजूदा कानूनों की निरंतरता और अनुकूलन को संबोधित करता है। अनुच्छेद 395 में उल्लिखित अधिनियमों के निरसन के बावजूद इस संविधान के अन्य प्रावधानों के अधीन, इसके लागू होने से ठीक पहले भारत के क्षेत्र में लागू सभी कानून तब तक प्रभावी रहेंगे जब तक कि उन्हें किसी सक्षम विधायिका या प्राधिकरण द्वारा परिवर्तित, निरस्त या संशोधित नहीं किया जाता।
मौजूदा कानूनों को इस संविधान के प्रावधानों के अनुसार संरेखित करने के लिए, राष्ट्रपति आवश्यक अनुकूलन और संशोधनों के लिए आदेश जारी कर सकते हैं, जिसमें निरसन या संशोधन शामिल है। बशर्ते कि कानून आदेश में निर्दिष्ट तिथि से प्रभावी होगा और किसी भी न्यायालय में उस पर सवाल नहीं उठाया जाएगा।
हालाँकि, खंड (2) राष्ट्रपति को इस संविधान के लागू होने के तीन साल बाद किसी कानून में कोई बदलाव या संशोधन करने का अधिकार नहीं देता है। यह किसी सक्षम विधायिका या अन्य सक्षम प्राधिकारी को इस खंड के तहत राष्ट्रपति द्वारा अपनाए गए या संशोधित किसी कानून को निरस्त या संशोधित करने से भी रोकता है।
चूंकि अनुच्छेद 372 सक्षम प्राधिकारी द्वारा निरस्त किए जाने तक विद्यमान कानूनों के जारी रहने से संबंधित है, इसलिए यहां इस बात पर चर्चा की गई कि क्या संविधान-पूर्व कर कानून संविधान के बाद भी वैध बने रहेंगे।
साउथ इंडिया कॉर्पोरेशन (प्रा.) लिमिटेड बनाम राजस्व बोर्ड (1964) में निर्णय
प्रतिवादी के वकील ने माना कि 1956-57, 1957-58 और 1958-59 के लिए कर निर्धारण त्रावणकोर-कोचीन सामान्य बिक्री कर (संशोधन) अधिनियम, 1957 और केरल कर अधिभार (सरचार्ज) अधिनियम (1957 का अधिनियम 11) के तहत अवैध थे। हालांकि, उन्होंने राज्य को अधिनियम के तहत उन वर्षों के लिए अपीलकर्ता का पुनर्मूल्यांकन करने की अनुमति मांगी। अपील और दलीलें सुनने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि आदेशों के मूल्यांकन का निर्णय लागू नहीं होना चाहिए और यहां या उच्च न्यायालय में कोई लागत नहीं दी जानी चाहिए। हालांकि, सुनवाई शुल्क के एक संग्रह की अनुमति दी गई और अपील की अनुमति दी गई।
मुद्दावार निर्णय
क्या संविधान के अनुच्छेद 278 के अंतर्गत राज्य द्वारा लगाए गए करों और भारत सरकार द्वारा लगाए गए करों के संबंध में तब तक कोई वैध समझौता किया जा सकता है जब तक कि संसद उपयुक्त कानून नहीं बना देती?
न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 277 और 278 के साथ समझौते को पढ़ने से भारत संघ को शुल्क लगाने और वसूलने का अधिकार प्राप्त होता है। इसलिए, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि संविधान के अधिनियमन के बाद, विचाराधीन उत्पाद शुल्क केवल भारत सरकार द्वारा ही लगाया जा सकता है। संसद द्वारा उचित कानून बनाए जाने तक राजस्थान राज्य के समर्थन में अस्थायी आरक्षण के बावजूद, न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि इस तरह के शुल्क के संबंध में अधिनियम के तहत समझौता अभी भी किया जा सकता है।
न्यायालय ने राजस्थान राज्य बनाम जी. चावला (1959) और वर्तमान मामले के बीच एकमात्र अंतर पर भी प्रकाश डाला कि जब संघ और राज्य के बीच समझौता हुआ था, तब संसद ने राज्य को “कार्य अनुबंधों” पर कर लगाने की शक्ति से वंचित करने के लिए आवश्यक कानून पारित नहीं किया था। हालाँकि, यह अंतर सिद्धांत को नहीं बदलता है क्योंकि पिछला निर्णय संबंधित कानून के अधिनियमन से पहले राज्य द्वारा लगाए जाने वाले बकाया से संबंधित समझौते की वैधता से संबंधित था। अनुच्छेद 278 में प्रावधान अनुच्छेद 277 के तहत कर लगाना जारी रखने के राज्य सरकार के अधिकार को प्रभावी रूप से रद्द कर देता है।
क्या ऐसा कोई समझौता हुआ था जिसके तहत राज्य ने संघ के साथ की गई व्यवस्था के तहत उक्त कर लगाने का अपना अधिकार त्याग दिया था?
भारत के संविधान के अनुसार, भारत के राष्ट्रपति और त्रावणकोर-कोचीन राज्य के राजप्रमुख के बीच समझौता, जब तक कि समिति की रिपोर्ट के संदर्भ में अन्यथा निर्दिष्ट न किया गया हो और यह समझौता संविधान के लागू होने से दस साल की अवधि तक प्रभावी रहा। इसमें कुछ बदलावों के साथ भारतीय राज्य वित्त जांच समिति की सिफारिशों को शामिल किया गया। इस समझौते के तहत, भारत संघ ने संघीय वित्तीय एकीकरण के कारण हुए नुकसान के लिए राज्य को मुआवजा देने पर सहमति व्यक्त की, जैसा कि इसमें वर्णित है।
यह किसी खास सामान तक सीमित आंशिक समझौता नहीं था, बल्कि इसका उद्देश्य संघ या अन्य किसी कारण से कुछ राजस्व स्रोतों के नुकसान के कारण राज्य द्वारा अनुभव किए गए राजस्व घाटे की संपूर्णता की भरपाई करना था। समझौते में शामिल भारतीय राज्य वित्त जांच समिति की प्रमुख सिफारिशें समझौते की संपूर्णता को उजागर करती हैं।
समिति ने भारतीय राज्यों में संघीय वित्त के क्रमिक एकीकरण और इसे किस प्रकार कार्यान्वित किया जाना चाहिए, सहित विभिन्न पहलुओं की जांच की और रिपोर्ट दी, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि इसमें सभी “संघीय” राजस्वों को केंद्र को हस्तांतरित करना शामिल है, लेकिन राज्यों में “संघीय” विभागों और सेवाओं से जुड़े सभी खर्चों का वहन भी शामिल है।
भाग II के अध्याय 11 में राज्यों में “संघीय” राजस्व और व्यय के केंद्र को हस्तांतरण के साथ-साथ संबंधित विभागों की प्रशंसा का विस्तृत विवरण दिया गया है। इसमें केंद्र द्वारा इन विभागों से जुड़ी सभी बकाया देनदारियों, दावों और परिसंपत्तियों को भी ग्रहण किया गया है।
क्या संविधान का अनुच्छेद 372 उसके अनुच्छेद 277 के अधीन है?
अनुच्छेद 372 एक व्यापक प्रावधान है जबकि अनुच्छेद 277 विशिष्ट प्रकृति का है। कानूनी सिद्धांतों के अनुसार, किसी विशेष प्रावधान को उसके परिभाषित दायरे में ही प्रभावी किया जाना चाहिए, तथा सामान्य सिद्धांतों को उन मामलों में लागू होने देना चाहिए जहाँ विशेष प्रावधान लागू नहीं हो सकता। पिछली बातचीत से यह स्पष्ट हो गया कि संविधान द्वारा वित्त के विषय को अलग से माना जाता है। अनुच्छेद 277 राज्यों द्वारा लगाए जाने वाले मौजूदा करों, चुंगी, उपकरों या शुल्कों की सुरक्षा करता है, बशर्ते कि उल्लिखित शर्तें पूरी हों। दूसरी ओर, अनुच्छेद 372 सभी वैध पूर्व-संवैधानिक कानूनों को सुरक्षित रखता है। अनुच्छेद 372 की व्याख्या कर-बचत के मुद्दों के दायरे को व्यापक बनाने के लिए नहीं की जा सकती। दूसरे शब्दों में, अनुच्छेद 372 को अनुच्छेद 277 के ढांचे के भीतर ही समझा जाना चाहिए।
क्या संविधान का अनुच्छेद 372 उसके अनुच्छेद 278 के अधीन है?
अनुच्छेद 372 के तहत संविधान-पूर्व कराधान कानूनों के निरंतर बल के बावजूद अनुच्छेद 278 स्वतंत्र रूप से कार्य करता है। अनुच्छेद 278 के तहत संघ और राज्य सरकार के बीच एक समझौता भाग B राज्यों में राज्य के कानूनों को दरकिनार कर सकता है। समझौते की अवधि के दौरान, अनुच्छेद 277 के अनुच्छेद 372 के संचालन को छोड़कर या अनुच्छेद 278 को दरकिनार करने वाले समझौते के रूप में परिणाम एक समान रहा और राज्य ने “कार्य अनुबंधों” पर कर लगाने का अपना अधिकार खो दिया।
इस निर्णय के पीछे तर्क
न्यायालय ने रिपोर्ट के साथ पढ़े गए समझौते से निष्कर्ष निकाला कि संघीय वित्तीय एकीकरण के कारण राज्य को हुए नुकसान की भरपाई के लिए प्रावधान किए गए थे, जो संविधान के तहत संघ को विशिष्ट राजस्व स्रोतों के हस्तांतरण के कारण राज्य के राजस्व नुकसान को शामिल करने के लिए प्रतीत होता था। कुछ अस्थायी रूप से अधिकृत करों को बाहर करने के लिए समझौते की व्याख्या करना अनुचित होगा। व्यावृत्ति खंड एक समझौते पर निर्भर थे और राज्य को होने वाले किसी भी नुकसान की भरपाई के लिए समझौते के माध्यम से प्रभावी समायोजन किए गए थे, जिसके बाद व्यावृत्ति खंड अनावश्यक हो गया।
न्यायालय ने यह भी कहा कि संविधान लागू होने के दस साल बाद राज्य का अधिकार फिर से बहाल हुआ या नहीं, यह सवाल इस मामले में प्रासंगिक नहीं है क्योंकि सभी विवादित मूल्यांकन उस समय सीमा के भीतर आते हैं। यह तर्क कि संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 द्वारा अनुच्छेद 278 को हटा दिया गया था, ने समझौते को समाप्त कर दिया और बाद में, राज्य ने कर लगाने का अधिकार फिर से हासिल कर लिया। किसी समझौते की वैधता उसके गठन के समय प्राधिकरण की मौजूदगी पर निर्भर करती है और अवधि इसकी शर्तों या दिए गए प्राधिकरण की शर्तों द्वारा निर्दिष्ट की जाती है। अनुच्छेद 278 ने संघ और भाग B राज्यों को संविधान के प्रारंभ से दस साल तक चलने वाले समझौते में प्रवेश करने का अधिकार दिया। विचाराधीन समझौता दायरे में आता है और सातवें संशोधन के संभावित होने के कारण इसे अमान्य नहीं किया गया। इसलिए, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि विवादित मूल्यांकन आदेश बिक्री कर अधिकारियों द्वारा वैध रूप से जारी नहीं किए गए थे क्योंकि वे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 277 के तहत दिए गए अधिकार से अधिक थे।
विलास बनाम मनीला शहर, (1911) के मामले में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा दिए गए निर्णय के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने अपने विचार में कहा कि वे अमेरिकी कानून द्वारा उल्लिखित सामान्य सिद्धांतों पर ध्यान देने के बजाय संविधान के अनुच्छेद 372 के स्पष्ट प्रावधानों पर ही ध्यान केंद्रित नहीं कर रहे थे। इसके अलावा, अमेरिकी कानून के तहत राज्य की समाप्ति के कानूनी परिणामों और भारतीय संविधान में अनुच्छेद 372 की व्याख्या के बीच समानताएं खींचना भी अनुचित हो सकता है। इसलिए न्यायालय ने अपना ध्यान संविधान के विशिष्ट प्रावधानों तक ही सीमित रखा।
साउथ इंडिया कॉर्पोरेशन (प्रा.) लिमिटेड बनाम राजस्व बोर्ड (1964) का विश्लेषण
त्रावणकोर और कोचीन के पिछले कानूनों को 30 मई 1950 से निरस्त कर दिया गया था, जब तक कि “कार्य अनुबंधों” पर बिक्री कर को संबंधित अधिनियमों और उनके तहत बनाए गए नियमों के तहत नहीं लगाया गया था, जिसके परिणामस्वरूप नए अधिनियम और इसके साथ आने वाले नियमों के तहत कर लगाया गया। राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 1 नवंबर 1956 को लागू हुआ और केरल का नया राज्य बना। त्रावणकोर-कोचीन राज्य (एक छोटे से हिस्से को छोड़कर) और मद्रास राज्य के मालाबार जिले द्वारा पहले शामिल किया गया क्षेत्र इस नए राज्य का हिस्सा है। इसके बाद, केरल विधानमंडल ने त्रावणकोर-कोचीन सामान्य बिक्री कर (संशोधन) अधिनियम, 1957 को अधिनियमित किया, जिसने अधिनियम को संशोधित करके केरल के पूरे क्षेत्र को शामिल कर लिया। उक्त अधिनियम 1 अक्टूबर 1957 को लागू हुआ और इसमें पहले के अधिनियम के प्रावधान शामिल थे। केरल राज्य ने बिजली के सामान पर कर में किसी भी तरह की वृद्धि से इनकार किया या “कार्य अनुबंध” में शामिल सीमेंट पर कोई कर लगाया गया। अधिनियम के तहत लगाए गए बिक्री कर को केरल कर अधिभार अधिनियम, 1957 और फिर केरल कर अधिभार अधिनियम, 1960 द्वारा और बढ़ा दिया गया।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 372 के अनुसार, 1125 के त्रावणकोर-कोचीन अधिनियम के प्रावधान लागू नहीं रहेंगे क्योंकि वे संवैधानिक ढांचे और भाग XII के प्रावधानों के साथ असंगत थे।
प्रतिवादी भारत के संविधान के अनुच्छेद 227 पर भरोसा नहीं कर सकता क्योंकि यह केवल तभी लागू होता है जब:
- यह विशिष्ट कर संविधान के लागू होने से ठीक पहले राज्य सरकार द्वारा वैध रूप से लगाया गया था और यह स्पष्ट रूप से संघ सूची में सूचीबद्ध है।
- संविधान से पहले राज्य द्वारा लागू कर और उसके बाद लागू कर के बीच दर, अधिकार क्षेत्र, स्थिति और उद्देश्य के संबंध में प्रत्यक्ष संरेखण (एलाइनमेंट) के लिए पूर्व-आवश्यकताएं पूरी नहीं हुई हैं।
अपीलकर्ता द्वारा अनुच्छेद 277 की प्रयोज्यता (ऍप्लिकेबिलिटी) पर भरोसा नहीं किया जा सका, क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 278 के अनुसार त्रावणकोर के राजप्रमुख और संघ सरकार के बीच समझौता हुआ था।
विचाराधीन अधिनियम, “कार्य अनुबंधों” पर कराधान के साथ, भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है, क्योंकि इसमें इसके प्रावधानों को असमान रूप से लागू किया गया है, जिसके परिणामस्वरूप विशेष रूप से त्रावणकोर-कोचीन राज्यों के बाहर के लोगों को छोड़कर भेदभावपूर्ण व्यवहार में यह निरंतरता है।
राजस्व बोर्ड अधिनियम के नियम 4(3) के तहत कटौती प्रतिशत निर्दिष्ट करने में विफल रहा, जिसने कर निर्धारण वर्ष 1952-53 के लिए कर निर्धारण को अवैध बना दिया।
“संविधान के अन्य प्रावधानों के अधीन” वाक्यांश यह दर्शाता है कि यदि पहले से मौजूद कानूनों और संवैधानिक प्रावधानों के बीच कोई असंगत विवाद है, तो बाद वाला उस दायरे में प्रबल होगा। एक संवैधानिक अनुच्छेद पूरी तरह से या आंशिक रूप से पूर्व-संवैधानिक कानून के साथ विवाद कर सकता है। कई अनुच्छेदों का संचयी प्रभाव कुछ संदर्भों में पहले से मौजूद कानूनों को अनुपयुक्त बना सकता है। किसी भी असंगति को संविधान के स्पष्ट प्रावधानों से स्पष्ट किया जाना चाहिए, न कि संविधान में अंतर्निहित अनुमानित राजनीतिक दर्शन से।
निष्कर्ष
उपर्युक्त तर्क और कारकों ने संविधान और उससे संबंधित मामलों के संबंध में मामले के महत्व को निष्कर्ष निकाला। इस अनुच्छेद का उद्देश्य संविधान के लागू होने के बाद पहले से मौजूद कानूनों की निरंतरता को बनाए रखना था, जब तक कि उन्हें किसी सक्षम प्राधिकारी द्वारा निरस्त, परिवर्तित या संशोधित नहीं किया जाता। इस प्रावधान के बिना, कानूनी भ्रम पैदा होगा। संविधान मानता है कि राज्य के कानून उपयुक्त प्राधिकारी की विधायी क्षमता के अंतर्गत आ सकते हैं या नहीं भी आ सकते हैं। यदि संविधान लागू होने से पहले के कानूनों को भारत के संविधान के विधायी ढांचे के साथ सख्ती से संरेखित करने की आवश्यकता होती है, तो अनुच्छेद अप्रभावी और उद्देश्यहीन हो जाएगा।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
आयकर पर उपकर से आप क्या समझते हैं?
उपकर आयकर का एक रूप है और केंद्र सरकार द्वारा किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए धन जुटाने के लिए लगाया जाने वाला अतिरिक्त शुल्क है। उपकर का उपयोग केवल तभी किया जाता है जब किसी विशेष सार्वजनिक कल्याण व्यय को संबोधित करने की आवश्यकता होती है।
आयकर में अधिभार से आपका क्या मतलब है?
आयकर पर अधिभार सरकार द्वारा निर्धारित एक निश्चित सीमा से अधिक आय अर्जित करने वाले करदाताओं पर लगाया जाने वाला एक अतिरिक्त कर है। इसकी गणना करदाता की कर योग्य आय के प्रतिशत के रूप में की जाती है।
“कार्य अनुबंध” क्या है?
सेवा के अनुबंध में उक्त अनुबंध के निष्पादन में माल की आपूर्ति शामिल हो सकती है, जो पक्षो के बीच समझौते में सेवा घटक के प्रमुख होने के साथ सेवाओं और माल दोनों की एक समग्र आपूर्ति का प्रतिनिधित्व करती है।
एक कार्य अनुबंध, जिसमें सेवाओं के प्रावधान और माल की बिक्री दोनों के तत्व शामिल हैं, परिणामस्वरूप दोनों कानूनों के तहत कर योग्य था।
मौजूदा कानून और लागू कानून क्या है?
मौजूदा कानून से तात्पर्य वर्तमान में लागू कानून से है और लागू कानून में न केवल वास्तव में लागू कानून शामिल है, बल्कि अधिसूचना और अन्य माध्यमों से विस्तारित किए जाने वाले संभावित कानून भी शामिल हैं।
भाग B राज्य क्या है?
भाग B राज्यों में नौ तत्कालीन रियासतें शामिल थीं, जिनमें विधानसभाएँ थीं। राजप्रमुख की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती थी और वह निर्वाचित विधानमंडल वाले घटक राज्य के शासक के रूप में कार्य करता था। भाग B राज्यों में पटियाला और पूर्वी पंजाब राज्य संघ, हैदराबाद, जम्मू और कश्मीर, त्रावणकोर-कोचीन, मध्य भारत, मैसूर, राजस्थान और सौराष्ट्र शामिल थे।
संदर्भ