सीमा बनाम अश्विनी कुमार (2006)

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यह लेख Shweta Singh द्वारा लिखा गया है। इस लेख का उद्देश्य सीमा बनाम अश्विनी कुमार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय की व्याख्या और चर्चा करना है। लेख में न्यायालय के निर्णय के औचित्य और परिणामों पर जोर देते हुए निर्णय का विश्लेषण किया गया है। इसके अलावा, यह इस मामले में विचाराधीन कानूनों की समझ भी प्रदान करता है। यह लेख लोगों के जीवन और समग्र रूप से समाज पर फैसले के व्यावहारिक प्रभावों को भी स्पष्ट करता है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

हिंदुओं के लिए विवाह एक संस्कार है और मुसलमानों के लिए एक अनुबंध। हालाँकि, दोनों ही मामलों में, उचित कारण के बिना विवाह नहीं तोड़ा जा सकता है। वैवाहिक विवादों की बढ़ती संख्या और विवाह के अनिवार्य पंजीकरण के प्रावधान के अभाव के कारण पति द्वारा विवाह से इनकार करने के मामलों ने अदालत को इस प्रासंगिक मुद्दे पर निर्णय लेने के लिए प्रेरित किया है। श्रीमती सीमा बनाम अश्विनी कुमार (2006) (जिसे आगे “मामला” या “वर्तमान मामला” कहा जाएगा) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने वर्तमान स्थिति में मौजूद गंभीर परिदृश्यों पर गौर करते हुए धार्मिक पृष्ठभूमि के बावजूद प्रत्येक व्यक्ति पर लागू विवाह के पंजीकरण के लिए एक समान कानून का सुझाव देकर इस मुद्दे को हल करने का प्रयास किया। 

यह लेख वैवाहिक संबंधों के तहत महिलाओं के अधिकारों और बाल विवाह के खिलाफ बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा से संबंधित वर्तमान मुद्दे को हल करने में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय और उसके महत्व का आलोचनात्मक विश्लेषण करने का प्रयास करता है। 

मामले का विवरण

  • मामले का नाम: श्रीमती सीमा बनाम अश्विनी कुमार (2006)
  • न्यायालय का नाम: भारत का माननीय सर्वोच्च न्यायालय
  • निर्णय की तिथि: 14 फरवरी, 2006

  • मामले के पक्षकार

अपीलकर्ता- श्रीमती सीमा

 प्रतिवादी- अश्विनी कुमार

  • प्रतिनिधित्व: एमिकस क्यूरी- श्री जी.ई. वाहनवती, महान्यायवादी (सॉलिसिटर जनरल), और श्री रंजीत कुमार, वरिष्ठ अधिवक्ता
  • समतुल्य उद्धरण: एआईआर 2006 सर्वोच्च न्यायालय  1158, 2006 (2) एआईआर बॉम आर 783, 2006 (2) एआईआर कांट एचसीआर 402, (2006) 2 सुप्रीम 66, (2006) 1 केईआर एलटी 791, (2006) 2 पैट एलजेआर 116, (2006) 3 एससीजे 101।

सीमा बनाम अश्विनी कुमार (2006) की पृष्ठभूमि

स्वतंत्रता के बाद से लैंगिक असमानता को दूर करने के लिए कई उपाय किए गए हैं। यद्यपि इन प्रयासों से कुछ प्रगति हुई है, लेकिन बाल विवाह, द्विविवाह और लैंगिक हिंसा जैसी समस्याएं अभी भी हमारे समाज में व्याप्त हैं, बावजूद इसके कि ऐसी प्रथाओं को प्रतिबंधित करने और दंडित करने के लिए कानून मौजूद हैं। वर्तमान में वैवाहिक स्थिति से संबंधित बड़ी संख्या में विवाद अदालतों में लंबित हैं। वैध विवाह की पुष्टि करने वाले आधिकारिक अभिलेखों के अभाव के कारण महिलाओं को अक्सर पत्नी का दर्जा देने से इनकार कर दिया जाता है। महिलाओं और बच्चों के अधिकारों को सुरक्षित करने तथा महिलाओं और विवाहेतर संबंधों से पैदा हुए बच्चों को मिलने वाले अधिकार के हनन को कम करने के लिए न्यायालयों ने अनिवार्य विवाह पंजीकरण की आवश्यकता पर बार-बार जोर दिया है। विवाह धोखाधड़ी के मामलों में भी वृद्धि हुई है, जिसमें महिलाओं को वैध विवाह के लिए आवश्यक विवाह संस्कारों को पूरा किए बिना ही धोखे से विवाह के बंधन में बांध दिया जाता है। ऐसी विपरीत स्थिति केवल विवाहों के अनिवार्य पंजीकरण के अभाव के कारण है। 

बाल विवाह और बहुविवाह के लगातार मामले सांस्कृतिक और सामाजिक बाधाओं को दर्शाते हैं जो सुधार गतिविधियों की सफलता में बाधा डालते हैं। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 जैसे कानूनों और हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत द्विविवाह के खिलाफ कानून के अस्तित्व के बावजूद, ये प्रथाएं लंबे समय से चली आ रही परंपराओं और पर्याप्त प्रवर्तन के अभाव के कारण अभी भी समाज में प्रचलित हैं। एक अन्य गंभीर मुद्दा लैंगिक हिंसा से संबंधित है, जो पूर्वाग्रहों और घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 जैसे कानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन की कमी के कारण समाज में अभी भी व्याप्त है, जो मुख्य रूप से समाज में लैंगिक हिंसा के मुद्दे को संबोधित करता है। यह तथ्य कि विवाह का पंजीकरण अनिवार्य नहीं है, इन समस्याओं को बढ़ाता है। विवाह की किसी औपचारिक मान्यता के अभाव में महिलाओं और बच्चों को अक्सर अपने अधिकारों को लागू करने के लिए कानूनी और सामाजिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। विवाहों को औपचारिक मान्यता प्रदान करने के लिए किसी तंत्र के अभाव के कारण विवाह संबंधी विवादों तथा उत्तराधिकार एवं संपत्ति के अधिकार के मामलों का समाधान बहुत कठिन हो जाता है, तथा महिलाओं को परित्याग और शोषण का सामना करना पड़ता है। अनिवार्य विवाह पंजीकरण पर जोर केवल एक नौकरशाही उपाय नहीं है, बल्कि यह महिलाओं के अधिकारों और सामाजिक न्याय को सुरक्षित करने का आवश्यक मार्ग है। 

विवाह धोखाधड़ी के उभरते मामलों ने इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है कि औपचारिक विवाह पंजीकरण प्रणाली के अभाव में महिलाओं में धोखाधड़ी की संभावना अधिक हो गई है। धोखाधड़ीपूर्ण विवाह कानूनी प्रक्रिया की अस्पष्टता का लाभ उठाते हैं, जिसके कारण महिलाओं के पास कोई रास्ता नहीं बचता, क्योंकि वहां वैध विवाह की आवश्यकताएं पूरी नहीं होतीं। इसलिए कार्यकर्ता ने कहा कि विवाहों का अनिवार्य पंजीकरण एक कानूनी बाड़ के रूप में काम कर सकता है और इन धोखाधड़ी प्रथाओं को रोक सकता है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि सभी विवाह कानून के आवश्यक मानकों को पूरा करते हैं और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की जाती है। 

सीमा बनाम अश्विनी कुमार (2006) के तथ्य

वर्ष 2005 में याचिकाकर्ता सीमा ने प्रतिवादी अश्विनी कुमार के खिलाफ हरियाणा के जिला न्यायालय में मामला दायर किया था, क्योंकि दम्पति के बीच बार-बार झगड़े और बहस होती रहती थी। कार्यवाही के दौरान, मामला दिल्ली में अतिरिक्त जिला न्यायाधीश (एडीजे) की अदालत में स्थानांतरित कर दिया गया। 15 अप्रैल, 2005 को एक अंतरिम आदेश जारी किया गया, जिसके तहत मामले की कार्यवाही रोक दी गई। इसके बाद, एक व्यापक चिंता के कारण, अर्थात अपंजीकृत विवाह की समस्या के कारण, मामला भारत के सर्वोच्च न्यायालय को स्थानांतरित कर दिया गया। 

यह मामला सर्वोच्च न्यायालय को स्थानांतरित कर दिया गया क्योंकि आधिकारिक विवाह अभिलेख के अभाव में कई लोग अपनी शादी से इनकार कर देते थे। हालांकि, यह विशेष रूप से समस्याग्रस्त था, क्योंकि बहुत कम भारतीय राज्यों के कानूनों में विवाह पंजीकरण की आवश्यकताएं शामिल थीं, और विभिन्न राज्यों के बीच ऐसी आवश्यकता में असंगति के परिणामस्वरूप वैवाहिक विवादों में कई कानूनी अस्पष्टताएं और जटिलताएं उत्पन्न हुईं। 

इसके व्यापक प्रभाव को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को इस मामले पर अपना रुख स्पष्ट करने के लिए नोटिस जारी किए। न्यायालय ने तत्कालीन महान्यायवादी और विद्वान वरिष्ठ अधिवक्ता श्री रंजीत कुमार से अनुरोध किया कि उन्हें इस मामले में न्यायालय की सहायता के लिए न्यायमित्र नियुक्त किया जाए। 

न्यायालय द्वारा जारी नोटिस के जवाब में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने एक ऐसी व्यवस्था लागू करने की अत्यधिक आवश्यकता के बारे में अपनी मंशा व्यक्त की, जिसके परिणामस्वरूप विवाह का पंजीकरण अनिवार्य हो जाएगा। इस आम सहमति ने गैर-औपचारिक विवाहों के दुरुपयोग को समाप्त करने के लिए विवाह पंजीकरण की आवश्यकता पर प्रकाश डाला, जहां समाज के कमजोर सदस्यों का अक्सर शोषण किया जाता था। 

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय से जिन मुख्य प्रश्नों पर विचार करने के लिए कहा गया था उनमें से एक यह था कि क्या अनिवार्य विवाह पंजीकरण को कानूनी आवश्यकता के रूप में पूरे भारतीय क्षेत्र में लागू किया जाना चाहिए और अपनाया जाना चाहिए। विवाह पंजीकरण के लिए किसी समान प्रावधान के अभाव में विवाह से इंकार करने के कारण होने वाले वैवाहिक विवादों में वृद्धि को देखते हुए, विभिन्न राज्यों में विवाह पंजीकरण से संबंधित विद्यमान कानूनी ढांचे की आलोचनात्मक जांच करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय से संपर्क किया गया था। इसके अतिरिक्त, न्यायालय से विभिन्न राज्यों में प्रचलित असंगत कानूनों के संबंध में मौजूद अंतर को भी भरने का अनुरोध किया गया, जिससे विवाह के भीतर व्यक्तिगत अधिकार प्रभावित हो रहे हैं। 

यह मामला सर्वोच्च न्यायालय को इस उम्मीद के साथ स्थानांतरित किया गया था कि अनिवार्य विवाह पंजीकरण की प्रक्रिया निर्धारित की जाएगी, जो वैवाहिक विवादों को सरल बनाने तथा सभी संबंधित पक्षों को कानूनी स्पष्टता और सुरक्षा प्रदान करने में उपयोगी होगा। 

उठाए गए मुद्दे 

अदालत के समक्ष मुख्य मुद्दे इस प्रकार थे: 

  • क्या भारत के सभी नागरिकों के लिए विवाह का पंजीकरण अनिवार्य किया जाना चाहिए?
  • क्या विवाह के अनिवार्य पंजीकरण का प्रावधान संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप है। 

पक्षों के तर्कp

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह मामला एक स्थानांतरण याचिका है, जिसमें विवाह का पंजीकरण न कराने से महिलाओं, विधवाओं और नाबालिग लड़कियों के अधिकारों पर पड़ने वाले प्रभाव के महत्वपूर्ण मुद्दे पर निर्णय लेने के लिए मामले को सर्वोच्च न्यायालय में स्थानांतरित किया गया था। विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रतिनिधियों के साथ-साथ विद्वान महान्यायवादी और श्री रंजीत कुमार, विद्वान वरिष्ठ वकील, जिन्हें विवाह के अनिवार्य पंजीकरण के लिए कानून लाने के संबंध में अपना पक्ष रखने के लिए न्याय मित्र नियुक्त किया गया था। 

सभी राज्यों और केंद्र शासित lप्रदेशों ने सर्वसम्मति से अपना रुख व्यक्त किया कि देश में वर्तमान में प्रचलित परिदृश्य को देखते हुए विवाह का अनिवार्य पंजीकरण अत्यधिक वांछनीय है। यह सुझाव दिया गया है कि विवाह पंजीकरण को अनिवार्य बनाना बाल विवाह को समाप्त करने की दिशा में एक अच्छा कदम होगा, जो देश के कई क्षेत्रों में अभी भी प्रचलित है, तथा वैवाहिक विवादों के प्रभावी समाधान में भी मदद करेगा, जिसमें एक पक्ष विवाह के अनिवार्य पंजीकरण के संबंध में कानूनी खामियों का फायदा उठाता है। 

सीमा बनाम अश्विनी कुमार (2006) में शामिल कानून

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955

धारा 8

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 8 में हिंदू रीति-रिवाजों और समारोहों का पालन करके किए गए विवाह के पंजीकरण का प्रावधान है। धारा 8(1) राज्य सरकार को हिंदू विवाहों के पंजीकरण के लिए नियम बनाने का अधिकार देती है। इसका अर्थ यह है कि हिंदू विवाह में पक्षकार, यदि चाहें तो, अपने विवाह का विवरण एक विशेष विवाह पंजिका में दर्ज करा सकते हैं, जिसे हिंदू विवाह पंजिका के नाम से जाना जाएगा। जिस तरीके और शर्तों पर यह पंजीकरण किया जाएगा वह राज्य सरकार द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार होगा। 

धारा 8(1) के तहत विवाह का पंजीकरण स्वैच्छिक प्रकृति का है, तथापि, धारा 8(2) में निहित प्रावधानों के अनुसार, यदि राज्य सरकार पूरे राज्य या उसके किसी भाग के संबंध में आवश्यक या समीचीन समझे तो यह घोषित कर सकती है कि ऐसे विवाहों का पंजीकरण अनिवार्य होगा। यह सभी हिंदू विवाहों या सरकार द्वारा निर्धारित किसी विशिष्ट मामले पर लागू हो सकता है। इसमें आगे यह भी प्रावधान किया गया है कि जहां राज्य सरकार द्वारा विवाह का पंजीकरण अनिवार्य किया गया है, वहां पंजीकरण नियमों का उल्लंघन करने पर पच्चीस रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है। 

धारा 8(3) राज्य सरकार पर यह दायित्व डालती है कि वह इस धारा के तहत बनाए गए नियमों को बनते ही राज्य विधानमंडल के समक्ष प्रस्तुत करे। इससे नियमों की स्थापना में विधायी निगरानी के जोखिम से बचा जा सकता है। 

धारा 8(4) में आगे यह भी प्रावधान किया गया है कि विवाह रजिस्टर उचित समय पर निरीक्षण के लिए उपलब्ध कराया जाएगा। इसके अलावा, पंजिका का इस्तेमाल अदालतों में कानूनी सबूत के तौर पर किया जा सकता है। इस पंजिका के किसी भी अंश की प्रतियां और प्रमाणित प्रतियां आवेदन और निर्धारित शुल्क के भुगतान पर प्राप्त की जा सकती हैं। जबकि उपधारा (4) यह गारंटी देती है कि रजिस्टर में दर्ज अभिलेख विवाह के कानूनी साक्ष्य के रूप में कार्य करता है, धारा 8(5) स्पष्ट करती है कि भारतीय विवाह केवल इसलिए अमान्य नहीं है क्योंकि यह पंजीकृत नहीं है। यह उल्लेखनीय है कि धारा 8(5) के प्रावधान के अनुसार हिंदू विवाह पंजिका में विवाह का पंजीकरण न होने पर भी विवाह वैध है। इस प्रावधान का उद्देश्य यह है कि हिंदू विवाह की कानूनी पवित्रता इस तथ्य से प्रभावित नहीं होगी कि विवाह पंजीकृत नहीं है। 

पंजीकरण अधिनियम, 1908

धारा 6

पंजीकरण अधिनियम, 1908 की धारा 6 के प्रावधानों के अनुसार, राज्य सरकार को किसी भी व्यक्ति को रजिस्ट्रार या उप-रजिस्ट्रार नियुक्त करने का अधिकार है। रजिस्ट्रार निर्दिष्ट जिले में हिंदू विवाह को पंजीकृत करने के लिए जिम्मेदार होगा, जबकि उप-रजिस्ट्रार किसी विशेष राज्य में उप-जिले के रूप में ज्ञात छोटे प्रशासनिक प्रभागों के भीतर संपन्न हिंदू विवाहों को पंजीकृत करेगा। धारा 6 के प्रावधान राज्य सरकार को किसी भी व्यक्ति को रजिस्ट्रार या उप-रजिस्ट्रार के रूप में नियुक्त करने की अनुमति देते हैं, चाहे वह लोक सेवक हो या नहीं, जिसका तात्पर्य यह है कि सरकारी कर्मचारियों (लोक सेवकों) या निजी व्यक्तियों दोनों को, यदि राज्य प्राधिकारियों द्वारा उपयुक्त समझा जाए, नियुक्त किया जा सकता है। 

भारत का संविधान, 1950

सातवीं अनुसूची की सूची III (समवर्ती सूची) की प्रविष्टियाँ 5 और 30

भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची के अंतर्गत उल्लिखित समवर्ती सूची की प्रविष्टि 5, केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकार को “विवाह और तलाक; शिशु और नाबालिग; गोद लेने; वसीयत, अविवसाय और उत्तराधिकार; संयुक्त परिवार और विभाजन; वे सभी मामले जिनके संबंध में न्यायिक कार्यवाही में पक्ष इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले अपने व्यक्तिगत कानून के अधीन थे” से संबंधित मामलों के संबंध में कानून बनाने के लिए अधिकृत करती है। 

दूसरी ओर, प्रविष्टि 30, केंद्र सरकार को “जन्म और मृत्यु के पंजीकरण सहित महत्वपूर्ण आंकड़ों” के बारे में जानकारी एकत्र करने के लिए अधिकृत करती है। जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने व्याख्या की है, इस मामले में, “महत्वपूर्ण आँकड़े” शब्द में विवाह का पंजीकरण भी शामिल है। 

सीमा बनाम अश्विनी कुमार (2006) में निर्णय

द्विअर्थी (ऑबिटर डिक्टा)

सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि विवाह पंजीकरण से संबंधित प्रासंगिक कानून की जांच करने के बाद, यह पाया गया कि केवल चार क़ानूनों में अनिवार्य पंजीकरण की बात कही गई है। ये क़ानून थे: 

यह अधिनियम महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में लागू था। यह भारत में विवाह पंजीकरण को अनिवार्य बनाने वाला सबसे पहला कानून था, जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि इन राज्यों में होने वाले सभी विवाह आधिकारिक रूप से दर्ज किए जाएं। 

यह अधिनियम कर्नाटक में विवाहों के पंजीकरण को अनिवार्य बनाने के लिए लाया गया था। इस कानून को लागू करके राज्य का उद्देश्य विवाहों को कानूनी मान्यता प्रदान करना तथा धोखाधड़ी वाले विवाहों और वैवाहिक स्थिति पर विवाद जैसे मुद्दों का समाधान करना था। 

हिमाचल प्रदेश सरकार ने विवाहों का पंजीकरण अनिवार्य बनाने के लिए इस अधिनियम को लागू किया। इस कानून का उद्देश्य एक विश्वसनीय रिकॉर्ड रखने की प्रणाली बनाना, वैवाहिक विवादों को सुलझाने में मदद करना तथा पति-पत्नी और बच्चों के अधिकारों की रक्षा करना था। 

इस अधिनियम के तहत आंध्र प्रदेश में सभी विवाहों का पंजीकरण कराना अनिवार्य था। इसे विवाह पंजीकरण के लिए कानूनी ढांचा प्रदान करने के लिए अधिनियमित किया गया था, जिससे विवाह धोखाधड़ी के मामलों में कमी आए और यह सुनिश्चित हो कि विवाहों को कानून द्वारा मान्यता मिले। 

इन चार कानूनों के अलावा, भारत के किसी अन्य राज्य में विवाह पंजीकरण को अनिवार्य बनाने वाला कोई कानून नहीं था। अदालत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि असम, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में विशिष्ट अधिनियमों के माध्यम से मुस्लिम विवाहों के स्वैच्छिक पंजीकरण के प्रावधान मौजूद हैं, जैसे 

फिर भी, इन प्रावधानों के बावजूद, स्वैच्छिक प्रकृति के कारण कई विवाह अपंजीकृत रह गए, जिसके परिणामस्वरूप कानूनी दस्तावेजीकरण में अंतराल पैदा हो गया। अदालत ने कहा कि उत्तर प्रदेश राज्य में हिंदू विवाह पंजीकरण नियम, 1973 लागू किया गया था, जिसके तहत पंचायतों द्वारा विवाहों का अनिवार्य पंजीकरण तथा जन्म/मृत्यु का अभिलेख रखना अनिवार्य किया गया था। हालांकि, जम्मू और कश्मीर में ऐसा नहीं था, क्योंकि वहां विवाह के पंजीकरण के नियम हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिए नहीं बनाए गए थे या लागू नहीं किए गए थे, जिसके कारण विवाह का व्यवस्थित पंजीकरण विफल हो गया और इसके कानूनी और सामाजिक परिणाम सामने आए। न्यायालय की ऐसी टिप्पणियों ने विभिन्न क्षेत्रों में विवाह पंजीकरण कानून में विसंगतियों और खामियों को फिर से उजागर किया, जिसके परिणामस्वरूप कई कानूनी और सामाजिक मुद्दे पैदा हुए और व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करने तथा वैवाहिक विवादों को प्रभावी तरीके से हल करने में विफलता हुई। 

न्यायालय ने भारत में विवाह से संबंधित विभिन्न कानूनों का हवाला दिया। 1954 के विशेष विवाह अधिनियम के अनुसार, जो सभी भारतीयों के लिए लागू है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, प्रत्येक विवाह को नामित विवाह अधिकारी द्वारा पंजीकृत किया जाना चाहिए। 1872 का भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम विवाह के अनिवार्य पंजीकरण का प्रावधान करता है, जिसमें समारोह समाप्त होने के बाद चर्च में रखे गए विवाह रजिस्टर में प्रविष्टियां दर्ज की जाती हैं और दुल्हन, दूल्हे, समारोह संपन्न कराने वाले पादरी और गवाहों द्वारा हस्ताक्षर किए जाते हैं। इसी तरह, 1936 का पारसी विवाह और तलाक अधिनियम विवाह के अनिवार्य पंजीकरण का प्रावधान करता है। हालाँकि, हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 8 के अनुसार, यह पक्षकारों के विवेक पर छोड़ दिया गया है कि वे या तो उप-रजिस्ट्रार की उपस्थिति में विवाह संपन्न कराएं या फिर अनुष्ठान समारोह के बाद इसे पंजीकृत कराने का विकल्प चुनें। अधिनियम में यह भी प्रावधान है कि पंजीकरण में किसी प्रकार की चूक से विवाह अमान्य नहीं हो जाता। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 राज्य सरकार को विवाह के पंजीकरण के लिए नियम बनाने तथा जब भी राज्य सरकार आवश्यक समझे, विवाह के अनिवार्य पंजीकरण का प्रावधान करने का अधिकार देता है। ऐसे नियमों का उल्लंघन करने पर दंड के रूप में जुर्माना लगाया जाएगा। 

न्यायालय ने भारत में विवाह पंजीकरण को अनिवार्य प्रक्रिया बनाने की संवैधानिकता के मुद्दे पर निर्णय लेने के लिए भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची III की प्रविष्टियों 5 और 30 का उल्लेख किया। प्रविष्टि 5 राज्य और केंद्र दोनों सरकारों को विवाह और तलाक के संबंध में कानून पारित करने का अधिकार देती है और इसमें विवाह पंजीकरण की प्रक्रिया के संबंध में भी प्रावधान शामिल हैं। दूसरी ओर, प्रविष्टि 30, केंद्र सरकार को “जन्म और मृत्यु के पंजीकरण सहित महत्वपूर्ण आंकड़ों” के बारे में जानकारी एकत्र करने के लिए अधिकृत करती है। प्रविष्टि 30 में ‘जीवन सांख्यिकी’ शब्द को दिए गए अर्थ में विवाह से संबंधित जानकारी शामिल है और इस प्रकार प्रविष्टि 30 के दायरे में विवाह पंजीकरण भी शामिल है। 

अदालत ने राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) द्वारा दायर हलफनामे का अवलोकन किया, जिसमें कहा गया था कि विवाह का पंजीकरण न कराना अक्सर महिलाओं के लिए नुकसानदेह होता है। एनसीडब्ल्यू के अनुसार, विवाह के अनिवार्य पंजीकरण की मदद से कई महत्वपूर्ण समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। इससे विवाह के लिए न्यूनतम आयु लागू करने के साथ-साथ पक्षकारों की सहमति के बिना किए जाने वाले विवाहों पर रोक लगाकर बाल विवाह से बच्चों को बचाने में मदद मिलेगी। इससे अवैध द्विविवाह और बहुविवाह से निपटने में भी मदद मिलेगी क्योंकि इससे एक से अधिक विवाहों की पहचान करने में मदद मिलेगी। इसके अतिरिक्त, अनिवार्य पंजीकरण से विवाहित महिलाओं को वैवाहिक घर में रहने और वित्तीय सहायता प्राप्त करने के अधिकार की गारंटी मिलेगी, साथ ही विधवाओं को अपने पति की मृत्यु की स्थिति में उत्तराधिकार के अधिकार और लाभ प्राप्त करने में सहायता मिलेगी। इसके अलावा, यह पतियों को शादी के बाद अपनी पत्नियों को छोड़ने से तथा शादी के नाम पर युवा लड़कियों को स्थानीय स्तर पर या विदेश में बेचने से हतोत्साहित करेगा। राष्ट्रीय महिला आयोग की इस स्थिति से यह स्पष्ट हो गया कि विवाहों के अनिवार्य पंजीकरण से महिलाओं को बेहतर कानूनी सुरक्षा मिलेगी तथा अनेक सामाजिक अन्याय दूर होंगे। 

निर्णय का औचित्य (रेशीयो डेसीडेंडी)

सर्वोच्च न्यायालय, कानून के प्रावधानों और राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा दायर हलफनामों की समीक्षा के बाद, विवाह के पंजीकरण के संबंध में एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचा। अदालत ने माना कि यदि विवाहों को आधिकारिक रूप से दर्ज कर लिया जाए तो विवाह के आयोजन से संबंधित अधिकांश विवादों को आसानी से समाप्त किया जा सकता है। यह निष्कर्ष राष्ट्रीय महिला आयोग के दृष्टिकोण के अनुरूप था, जिसमें कहा गया था कि विवाह का पंजीकरण न कराने से विशेष रूप से महिलाओं के अधिकार खतरे में पड़ जाते हैं, जिससे उनकी कानूनी और सामाजिक स्थिति प्रभावित होती है। अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंची कि विवाह का अनिवार्य पंजीकरण एक महत्वपूर्ण साक्ष्य है, जो इस संबंध में कानूनी मामलों में आवश्यक होगा कि विवाह हुआ है या नहीं, तथा यह कानूनी मामलों में एक खंडनीय अनुमान भी उत्पन्न करेगा। इसका अर्थ यह होगा कि हालांकि पंजीकरण स्वयं स्पष्ट रूप से यह नहीं दर्शाएगा कि वैध विवाह हुआ था, लेकिन पंजीकरण इस बात का महत्वपूर्ण साक्ष्य प्रदान करेगा कि विवाह हुआ था। यह साक्ष्य मूल्य विशेष रूप से बच्चों की अभिरक्षा, विवाहेतर संबंधों से पैदा हुए बच्चों के अधिकारों, तथा उन मामलों में महत्वपूर्ण होगा जहां विवाह के पक्षकार अपनी आयु नहीं बता पाते हैं। 

अदालत ने कहा कि विवाह पंजीकरण का अभाव महिलाओं को असहाय बना देता है, क्योंकि विवाह में भरण-पोषण या वैवाहिक घर में निवास के अधिकार जैसे अधिकारों को साबित करने का कोई तरीका नहीं है। इसके अलावा, अपंजीकृत विवाहों से उनके बच्चों की सामाजिक पृष्ठभूमि के संबंध में कानूनी अनिश्चितताएं उत्पन्न हो सकती हैं, जिससे उनकी विरासत के अधिकार और सामाजिक वैधता पर असर पड़ सकता है। अदालत ने भी इसकी पुष्टि करते हुए सुझाव दिया कि विवाह का अनिवार्य पंजीकरण समग्र रूप से समाज के हित में होगा। इसका अर्थ यह भी होगा कि विवाह कानूनों का बेहतर प्रवर्तन होगा, जिससे द्विविवाह और बाल विवाह जैसी अवैध प्रथाओं को हतोत्साहित किया जा सकेगा तथा विवाह के अंतर्गत महिलाओं के अधिकारों की रक्षा होगी। विवाह का अनिवार्य पंजीकरण कानूनी प्रणाली को वैवाहिक संबंध को अधिक मजबूत समर्थन और मान्यता देने में मदद करेगा और इस प्रकार इससे जुड़े विवादों की संख्या को कम करने में मदद करेगा तथा सामाजिक स्थिरता को बढ़ाने में योगदान देगा। 

इसलिए, ऊपर वर्णित कारणों से न्यायालय ने माना कि सभी भारतीय नागरिकों के विवाह, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, अनिवार्य रूप से उन राज्यों में दर्ज किए जाने चाहिए जहां विवाह हुआ हो। परिणामस्वरूप, न्यायालय ने राज्य और केंद्र दोनों सरकारों को निम्नलिखित कदम उठाने का निर्देश दिया: 

  1. प्रक्रिया अधिसूचना- प्रत्येक राज्य को विवाह पंजीकरण की प्रक्रिया अधिसूचित करनी होगी। न्यायालय ने संबंधित राज्यों को ऐसी प्रक्रिया अधिसूचित करने के लिए तीन महीने का समय प्रदान किया। अदालत ने सुझाव दिया कि यह कार्य वर्तमान नियमों में संशोधन करके या नए नियम लाकर किया जा सकता है। ये सभी नियम राज्यों द्वारा सार्वजनिक आपत्तियां आमंत्रित करने के बाद ही लागू किए जा सकते हैं, बशर्ते कि आपत्ति आमंत्रण का उचित प्रकाशन हो तथा विज्ञापन की तिथि से कम से कम एक माह तक आपत्ति अवधि खुली रहे। इस अवधि के बाद राज्यों को नियमों को लागू करने के लिए अधिसूचना जारी करनी चाहिए।
  2. प्राधिकृत रजिस्ट्रीकरण अधिकारी- इन नियमों के अधीन नामित अधिकारी को विवाहों का पंजीकरण करने का अधिकार होगा। पंजीकरण में व्यक्ति की आयु और वैवाहिक स्थिति (अविवाहित या तलाकशुदा) का स्पष्ट रूप से खुलासा किया जाना चाहिए। नियमों में विवाह का पंजीकरण न कराने या विवाह की झूठी घोषणा करने पर भी दंड का प्रावधान होना चाहिए। इन नियमों का प्राथमिक उद्देश्य इस न्यायालय के निर्देशों को लागू करना है। 
  3. केन्द्र सरकार का विधान: केन्द्र सरकार द्वारा समेकित विधान के रूप में पारित किये जाने वाले किसी भी कानून की समीक्षा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जानी चाहिए। 
  4. अनुपालन आश्वासन: विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के अधिवक्ताओं का यह कर्तव्य है कि वे इन निर्देशों का कड़ाई से अनुपालन सुनिश्चित करें। 

अंत में, सर्वोच्च न्यायालय ने रजिस्ट्री से कहा कि वह विद्वान महान्यायवादी को आवश्यक अनुवर्ती कार्रवाई के लिए आदेश की एक प्रति उपलब्ध कराए। न्यायालय ने महान्यायवादी श्री जी. ई. वाहनवती और न्यायमित्र के रूप में कार्यरत वरिष्ठ अधिवक्ता श्री रंजीत कुमार द्वारा की गई उपयोगी प्रस्तुतियों के लिए भी आभार व्यक्त किया। 

मामले का विश्लेषण

भारत में अपंजीकृत विवाहों की उपेक्षा करना उचित नहीं होगा, क्योंकि अधिकांश विवाह बिना पुजारियों की उपस्थिति के, बिना किसी औपचारिकता के, स्थानीय रीति-रिवाजों के अनुसार, केवल रिश्तेदारों की उपस्थिति में संपन्न हो जाते हैं। यही कारण है कि, कई अन्य देशों की तरह भारत को भी महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर सम्मेलन, 1993 के बारे में संदेह था, जो विवाह के अनिवार्य पंजीकरण को बढ़ावा देता है। इसलिए कानून को रीति-रिवाजों और व्यक्तिगत कानूनों में विविधता को स्वीकार करने के लिए जगह बनानी चाहिए। इसलिए कानूनी शिक्षा आवश्यक है ताकि आबादी अपनी शादियों को पंजीकृत करने के महत्व को समझ सके। अपंजीकृत विवाह को अमान्य नहीं माना जाना चाहिए। बल्कि, विवाह को पंजीकृत न कराने पर छोटा-मोटा जुर्माना लोगों को विवाह पंजीकृत कराने के लिए प्रेरित करने का एक अच्छा विकल्प है। यह उन मामलों में सहायक है जहां एक पति या पत्नी बेसहारा हो जाता है और दूसरा पुनर्विवाह कर लेता है, तथा यह सुनिश्चित करता है कि पहले विवाह का प्रमाण मौजूद हो। भारत में विवाह और तलाक से संबंधित कई कानून हैं और अनिवार्य विवाह पंजीकरण विधेयक 2005 का उद्देश्य ऐसे कानूनों से टकराव उत्पन्न करना नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य केवल सभी विवाहों को पंजीकृत कराने के लिए प्रोत्साहित करना है। 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने बार-बार विवाह के अनिवार्य पंजीकरण के महत्व पर जोर दिया है। वर्तमान मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में सभी व्यक्तियों द्वारा, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, विवाह के अनिवार्य पंजीकरण की आवश्यकता पर बल दिया गया है, जिससे विवाह के पंजीकरण के व्यक्तिगत अधिकार को बरकरार रखने के मुद्दे पर निर्णय लेने के लिए न्यायालयों के समक्ष आगामी मामले के लिए आधार तैयार हो गया है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने रीना चड्ढा बनाम दिल्ली सरकार (2021) के मामले में विवाह पंजीकरण के उद्देश्य से “व्यक्तिगत उपस्थिति” शब्द की व्याख्या वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से उपस्थिति के रूप में करते हुए कहा कि वह “नागरिकों को उनके अधिकारों का प्रयोग करने से रोकने के लिए विवाह के पंजीकरण की अनुमति देने वाले क़ानून की कठोर व्याख्या की अनुमति नहीं दे सकता”। 

वर्तमान मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने बाल विवाह को रोकने और विवाह के लिए न्यूनतम आयु की आवश्यकता सुनिश्चित करने जैसे कारणों से विवाह के अनिवार्य पंजीकरण के प्रावधान के महत्व को सही रूप से स्वीकार किया है। विवाह का पंजीकरण द्विविवाह या बहुविवाह को रोकने में भी सहायता करता है, यह इस बात को बढ़ावा देता है कि विवाह दोनों पक्षों की सहमति से होता है और विवाहित महिलाओं के वैवाहिक घर में रहने तथा भरण-पोषण प्राप्त करने के अधिकारों का समर्थन करता है। यह विधवाओं के उत्तराधिकार के अधिकार के दावों का निवारण करने तथा पुरुषों को अपनी पत्नियों को त्यागने से रोकने में भी मदद करता है।

वर्तमान परिस्थितियों और परिदृश्य को देखते हुए, दिए गए निर्णय ने कई महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विवाह पंजीकरण को अनिवार्य बनाकर सर्वोच्च न्यायालय का उद्देश्य कानूनी अंतर को दूर करना तथा देश में कम उम्र में विवाह की प्रमुख समस्या का समाधान प्रदान करना था। बाल विवाह एक और समस्या है जो हमारे देश में व्यापक रूप से व्याप्त है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी लज्जा देवी बनाम दिल्ली राज्य (2012) मामले में 2012 में इस निर्णय को बरकरार रखा था, जिसके तहत उन्होंने विवाह पंजीकरण को अनिवार्य कर दिया था। अदालत ने कहा कि विवाह पंजीकरण से अभिभावकों को नाबालिग बच्चों की शादी करने से रोकने में मदद मिलेगी, क्योंकि दस्तावेज में बच्चे की उम्र दर्शाई जाएगी और इससे नाबालिगों के अवैध विवाह का पता चल सकेगा। 

प्रथम दृष्टया यह मामला एक सामान्य घरेलू मामला लग रहा था, जिसमें पत्नी और उसके पति के बीच वैवाहिक विवादों के कारण उत्पन्न मतभेदों को सुलझाने में असमर्थता थी। हालांकि, जैसे-जैसे सुनवाई आगे बढ़ी, अदालत को एहसास हुआ कि मौजूदा कानूनों में खामियों के कारण राष्ट्रीय स्तर पर और भी अधिक चिंताएं उत्पन्न हो रही हैं। इन मुद्दों पर सख्त कानूनी ढांचे को अपनाने की आवश्यकता पर जोर दिया गया, जिससे कमजोर व्यक्तियों की सुरक्षा में मदद मिलेगी और अवैध विवाहों को होने से रोका जा सकेगा। 

सीमा बनाम अश्विनी कुमार (2006) के बाद की स्थिति

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय ने केंद्र सरकार को विवाह के अनिवार्य पंजीकरण के लिए एक व्यापक कानून बनाने का निर्देश दिया। राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में अनिवार्य विवाह पंजीकरण के संबंध में हाल के घटनाक्रमों के मद्देनजर, मुद्दा यह है कि क्या इस विषय पर केंद्रीय कानून की आवश्यकता है। यदि ऐसा है, तो अगला प्रश्न यह उठता है कि क्या जन्म और मृत्यु पंजीकरण अधिनियम, 1969 में संशोधन किया जाए, जैसा कि जन्म और मृत्यु पंजीकरण (संशोधन) विधेयक, 2015 में सुझाया गया है, या विवाहों के अनिवार्य पंजीकरण को लागू करने के लिए एक अलग कानून बनाया जाए। 

उल्लेखनीय है कि भारत में पिछले कुछ वर्षों में सभी व्यक्तियों के लिए, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, विवाह का पंजीकरण अनिवार्य बनाने के लिए कुछ विधायी और न्यायिक पहल की गई हैं। 2008 में, भारत के 18वें विधि आयोग ने सुझाव दिया था कि बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 के तहत, पूरे देश में हिंदुओं, मुसलमानों, ईसाइयों और अन्य सभी समुदायों के लिए विवाह का पंजीकरण अनिवार्य किया जाना चाहिए। बाद में आयोग ने अपनी 211वीं रिपोर्ट में विवाह और तलाक पंजीकरण अधिनियम को पूरे देश में लागू करने का प्रस्ताव रखा और जन्म और मृत्यु पंजीकरण अधिनियम, 1969 का नाम बदलकर जन्म, मृत्यु और विवाह पंजीकरण अधिनियम, 2012 करने की सिफारिश की। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के परिणामस्वरूप, वर्ष 2012 में जन्म एवं मृत्यु पंजीकरण अधिनियम, 1969 में विवाह के अनिवार्य पंजीकरण का प्रावधान करने के लिए एक विधेयक का मसौदा तैयार किया गया। यह विधेयक वर्ष 2013 में राज्य सभा द्वारा पारित किया गया था, लेकिन 2014 में पंद्रहवीं लोकसभा के भंग होने के बाद यह निरस्त हो गया। स्थायी समिति को उम्मीद थी कि यह कानून भरण-पोषण और संपत्ति के अधिकार के संबंध में महिलाओं के अधिकारों को मजबूत करेगा, साथ ही द्विविवाह को हतोत्साहित करेगा। 

विधेयक का नया मसौदा 2015 में पेश किया गया था और 2017 में विधि मामलों के विभाग ने विधि आयोग से इस बारे में प्रतिक्रिया मांगी थी कि क्या मौजूदा अधिनियम में संशोधन किया जाए या विवाह के अनिवार्य पंजीकरण के लिए नया कानून पेश किया जाए। आयोग से केन्द्रीय कानूनों में आवश्यक संशोधन, विवाह पंजीकरण को आईटी-सक्षम बनाने की आवश्यकता तथा अन्य संबंधित मुद्दों पर भी विचार करने को कहा गया। 

भारतीय विधि आयोग की हाल की 270वीं रिपोर्ट से पता चलता है कि विवाह के अनिवार्य पंजीकरण के लिए जन्म और मृत्यु पंजीकरण अधिनियम, 1969 में संशोधन की आवश्यकता है। इस परिवर्तन का उद्देश्य विभिन्न धर्मों और जातियों में होने वाले विवाहों को शामिल करना है, जिससे बाल विवाह और जबरन विवाह के खिलाफ कानूनों के बेहतर कार्यान्वयन में मदद मिलेगी, तथा लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण की वकालत होगी। सिफारिश में विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों के अस्तित्व को मान्यता दी गई है, साथ ही यह सुनिश्चित किया गया है कि सभी विवाहों को उचित कानूनों के तहत आधिकारिक रूप से दर्ज किया जाए। 

न्यायपालिका ने भी विवाह के अनिवार्य पंजीकरण के महत्व पर जोर देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और इस प्रकार अपने निर्णय के माध्यम से कई बार इसे व्यक्ति के मौलिक अधिकार के बराबर माना है। राजस्थान उच्च न्यायालय ने हाल ही में श्रीमती अश्विनी शरद एवं अन्य बनाम हिंदू विवाह रजिस्ट्रार और अन्य (2023) के मामले में विवाह के अनिवार्य पंजीकरण के मुद्दे पर विचार-विमर्श किया और पाया कि इस आधार पर विवाह के पंजीकरण से इनकार करना कि विवाह के पक्षों में से एक विदेशी नागरिक है, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत गारंटीकृत समानता के अधिकार का उल्लंघन है और इसलिए माना कि यदि विवाह भारत के कानूनों के अनुसार भारत में किया जाता है, तो विवाह को अनिवार्य रूप से पंजीकृत किया जाना चाहिए और रजिस्ट्रार इससे इनकार नहीं कर सकते। 

ललन पी.आर. एवं अन्य बनाम मुख्य विवाह महापंजीयक (सामान्य), (पंचायत निदेशक), तिरुवनंतपुरम एवं अन्य (2022) के एक अन्य हालिया मामले में केरल उच्च न्यायालय ने विवाहों का पंजीकरण अनिवार्य कर दिया। यह निर्णय यह सुनिश्चित करने में सहायक था कि नाबालिग लड़कियों का जबरन विवाह करने, उन्हें विवाह के बहाने बेचने तथा उनकी सहमति के बिना उनसे विवाह करने के रूप में शोषण न हो। इस प्रकार न्यायालय ने विवाह का पंजीकरण अनिवार्य कर दिया ताकि वह ऐसे विवाहों को पर्याप्त रूप से विनियमित और नियंत्रित कर सके। इसके अलावा, इस फैसले से विवाहित महिलाओं को कई अधिकार प्राप्त हुए। इससे उन्हें वैवाहिक घर में रहने के अपने अधिकार की रक्षा करने तथा अपने पति से भरण-पोषण का दावा करने में सहायता मिली, जिससे उनकी पीड़ा कम हुई तथा वैवाहिक अधिकारों से वंचित होने की संभावना कम हुई है।  

सर्वोच्च न्यायालय के ये फैसले नागरिकों के अधिकारों को बनाए रखने और समाज में व्याप्त सामाजिक अन्याय के मुद्दे से निपटने के लिए विवाह के अनिवार्य पंजीकरण की आवश्यकता पर न्यायपालिका के रुख को इंगित करते हैं। यह अच्छी तरह से बताता है कि न्यायपालिका सामाजिक बुराई को खत्म करने और प्रभावित समूहों और व्यक्तियों के लिए न्याय की गारंटी देने के उद्देश्य से कानूनों की व्याख्या कैसे करती है। ऊपर उल्लिखित मामले सामाजिक सुरक्षा और मानवाधिकार कानून की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कानूनी प्रावधानों का उपयोग करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय  के सक्रिय दृष्टिकोण का एक उदाहरण हैं। 

निष्कर्ष

इस ऐतिहासिक निर्णय के साथ, सर्वोच्च न्यायालय ने न केवल उन विवाहित महिलाओं को बुनियादी सुरक्षा प्रदान की, जो संघर्ष कर रही थीं और उन्हें उनके वैवाहिक अधिकारों, जैसे कि अपने वैवाहिक घर में रहने का अधिकार, या भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार, से वंचित रखा गया था, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसने गंभीर दुर्व्यवहारों को झेलने वाली नाबालिग लड़कियों को बचाया है। उनके साथ होने वाले दुर्व्यवहारों में बाल विवाह, उनके माता-पिता द्वारा उन्हें विवाह के नाम पर बेच दिया जाना, तथा उनकी सहमति के बिना उनसे विवाह कर लेना शामिल है। यह निर्णय देश में लोगों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए न्यायपालिका की उत्साही और अथक लड़ाई का स्पष्ट उदाहरण है। इस प्रकार, कानूनी प्रावधानों की उचित व्याख्या करके न्यायपालिका सामाजिक बुराइयों को मिटाने के साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति को न्याय प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह उन अनेक मामलों में से एक है जो जनता की नागरिक स्वतंत्रता को बनाए रखने और उसकी रक्षा करने के लिए न्यायपालिका की प्रतिबद्धता और जिम्मेदारी को दर्शाता है। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

किसी विवाह को वैध मानने के लिए कौन सी शर्तें पूरी करना आवश्यक है?

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5 वैध हिंदू विवाह की शर्तों से संबंधित है। इस धारा के अनुसार, दो हिन्दू व्यक्तियों के बीच विवाह तभी वैध माना जाएगा जब एक दूसरे से विवाह करने वाले व्यक्तियों के विवाह के समय उनका कोई जीवनसाथी जीवित न हो। दूल्हे की आयु 21 वर्ष तथा दुल्हन की आयु 18 वर्ष होनी चाहिए। दोनों पक्षों को अस्वस्थ्य नहीं होना चाहिए तथा अपनी सहमति देने में सक्षम होना चाहिए। यहां तक कि यदि कोई भी पक्ष सहमति देने में सक्षम है, तो उन्हें ऐसी मानसिक स्थिति से ग्रस्त नहीं होना चाहिए, जिससे वह व्यक्ति विवाह और संतानोत्पत्ति के लिए अयोग्य हो जाए। दोनों पक्षों को बार-बार पागलपन के हमलों से पीड़ित नहीं होना चाहिए। धारा 5 के तहत निर्धारित एक अन्य शर्त यह है कि पक्षकार निषिद्ध संबंधों की श्रेणी में नहीं आएंगे। इस शर्त का अपवाद यह है कि ऐसी शर्त लागू नहीं होगी यदि पक्षकारों के बीच प्रचलित प्रथा और प्रथा दोनों के बीच विवाह की अनुमति देती हो। अंतिम शर्त यह है कि पक्षकार एक दूसरे के सपिंड न हों, तथापि, यह उस स्थिति में लागू नहीं होगा जब रीति-रिवाज और प्रथा ऐसे विवाह को संपन्न करने की अनुमति देते हों। 

क्या विवाह का पंजीकरण यह साबित करता है कि विवाह वैध है?

नहीं, विवाह का पंजीकरण इस बात का निर्णायक प्रमाण नहीं है कि विवाह वैध है और इसके विपरीत, अर्थात, विवाह के पंजीकरण की अनुपस्थिति से विवाह की वैधता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। किसी विवाह को वैध बनाने के लिए हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 के तहत निर्धारित शर्तों को पूरा करना आवश्यक है। इसके अलावा, धारा 8(4) के अनुसार, विवाह के पंजीकरण के लिए बनाए गए रजिस्टर का उपयोग अदालतों में कानूनी साक्ष्य के रूप में किया जा सकता है। इस रजिस्टर के किसी भी अंश की प्रतियां और प्रमाणित प्रतियां आवेदन करके और निर्धारित शुल्क का भुगतान करके प्राप्त की जा सकती हैं। जबकि धारा 8(4) यह गारंटी देती है कि रजिस्टर में दर्ज रिकॉर्ड विवाह के कानूनी साक्ष्य के रूप में कार्य करता है, धारा 8(5) स्पष्ट करती है कि भारतीय विवाह केवल इसलिए अमान्य नहीं है क्योंकि यह पंजीकृत नहीं है। उल्लेखनीय है कि धारा 8(5) के प्रावधान के अनुसार हिंदू विवाह रजिस्टर में विवाह का पंजीकरण न होने पर भी विवाह वैध है। इस प्रावधान का उद्देश्य यह है कि हिंदू विवाह की कानूनी पवित्रता इस तथ्य से प्रभावित नहीं होगी कि विवाह पंजीकृत नहीं है। 

भारत में विवाह पंजीकरण की प्रक्रिया क्या है?

विवाह पंजीकरण की प्रक्रिया शुरू करने के लिए, दोनों व्यक्तियों को अपने बारे में बुनियादी विवरण और जानकारी के साथ विवाह पंजीकरण प्रपत्र (फॉर्म) भरना होगा। विवाह पंजीकरण के समय आवश्यक दस्तावेजों में जन्म प्रमाण पत्र, निवास प्रमाण पत्र, विवाह निमंत्रण पत्र और दूल्हे और दुल्हन दोनों के पासपोर्ट फोटो शामिल हैं। दोनों पक्षों को वैध सहमति कथन भी प्रस्तुत करना होगा। कभी-कभी, अधिकारी आपत्तियां प्राप्त करने के लिए सार्वजनिक नोटिस जारी कर सकते हैं, जिसमें आमतौर पर 30 दिनों से अधिक समय नहीं लगता है। इससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि कोई भी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से विवाह सम्बन्ध की निषिद्ध सीमा के भीतर सम्बन्धित नहीं है। जांच अवधि पूरी होने के बाद अधिकारी विवाह पंजीकरण प्रमाणपत्र जारी करेंगे। 

स्थानांतरण याचिका क्या है?

स्थानांतरण याचिका सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष दायर एक आवेदन है जिसमें निचली अदालत (आमतौर पर उच्च न्यायालय) में लंबित मामले को किसी अन्य अदालत में स्थानांतरित करने का अनुरोध किया जाता है, आमतौर पर सुविधा, न्याय या पूर्वाग्रह से बचने के कारणों से अनुरोध किया जाता है। 

संदर्भ

 

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