सीआरपीसी की धारा 438

0
17764
Criminal Procedure Code
Anticipatory bail (Section 438 of CR.P.C.)

यह लेख ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी, हरियाणा की Vedika Goel ने लिखा है। यह लेख सीआरपीसी की धारा 438 का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करता है जो एक आरोपी को गैर-जमानती अपराध के लिए गिरफ्तारी की संभावना से बचाने का प्रयास करती है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

परिचय

अग्रिम (एंटीसिपेटरी) या पूर्व-गिरफ्तारी जमानत 1973 की आपराधिक प्रक्रिया संहिता में कहीं भी स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं है, अनिवार्य रूप से इसका अर्थ किसी व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी से पहले ही जमानत प्रदान करना है। यह भारतीय संविधान के तहत जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत स्वाधीनता (लिबर्टी) की स्वतंत्रता का एक महत्वपूर्ण घटक है। शब्द “अग्रिम जमानत” का उपयोग पहली बार 1969 की 41 वीं विधि आयोग की रिपोर्ट द्वारा उन आरोपी व्यक्तियों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए किया गया था, जिन्हें गिरफ्तारी का उचित भय या आशंका थी। इसलिए, इसका उद्देश्य उन आरोपी व्यक्तियों की रक्षा करना था जिनके पास यह मानने का उचित कारण या डर था कि उन्हें गैर-जमानती अपराध के लिए गिरफ्तार किया जा सकता है। प्रतिद्वंद्विता (रिवेलरी) या असहमति के कारण लोगों के खिलाफ झूठे मामले दर्ज होने की बढ़ती घटनाओं के कारण भी अग्रिम जमानत प्रदान करने की आवश्यकता महसूस की गई थी। इसके अलावा, यह भी माना जाता था कि किसी व्यक्ति को हिरासत में रखना जहां उसके फरार होने या जमानत पर उसकी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने की कोई संभावना नहीं है, अनुचित होगा। इसलिए, किसी व्यक्ति से कुछ समय के लिए हिरासत में रहने और फिर जमानत के लिए आवेदन करने की अपेक्षा करना बेतुका था। उपरोक्त कारकों को ध्यान में रखते हुए, 1973 में, संसद ने 1973 की आपराधिक प्रक्रिया संहिता को अधिनियमित किया और 41वें विधि आयोग की रिपोर्ट के सुझावों को शामिल करना सुनिश्चित किया। संसद ने “गिरफ्तारी की आशंका वाले व्यक्तियों को जमानत देने की दिशा” शीर्षक के साथ नए अधिनियमित (इनैक्टेड) संहिता में धारा 438 को जोड़ा।

यह लेख आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 438 का अर्थ, व्याख्या, साथ ही कुछ सबसे महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णयों पर चर्चा करेगा।

जमानत और अग्रिम जमानत के बीच अंतर

जमानत एक ऐसे व्यक्ति को दी जाती है जो पहले से ही गिरफ्तार है। व्यक्ति सीआरपीसी की धारा 437 और 439 के तहत नियमित जमानत के लिए आवेदन कर सकता है। दूसरी ओर, गिरफ्तारी से पहले ही अग्रिम जमानत दी जा सकती है। यह गैर-जमानती अपराध के लिए गिरफ्तार किए जाने के डर या विश्वास की उचित आशंका के आधार पर बनाया गया है। सीआरपीसी की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत के लिए उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय में एक आवेदन दायर किया जाता है।

सीआरपीसी की धारा 438 और इसका अर्थ

सीआरपीसी की धारा 438 को तीन उप-भागों में बांटा गया है। प्रावधान को विस्तार से समझने के लिए, इसके प्रत्येक उप-भाग को विस्तार से समझना आवश्यक हो जाता है।

धारा 438(1) में प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति गैर-जमानती अपराध के लिए गिरफ्तार होने के उचित विश्वास पर उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय में आवेदन कर सकता है। तदनुसार, अदालत, सावधानीपूर्वक विचार करने पर, आवेदन को अस्वीकार या अनुमोदित (अप्रूव) कर सकती है। यदि आवेदन स्वीकृत हो जाता है, तो गिरफ्तारी पर व्यक्ति को जमानत पर रिहा कर दिया जाएगा। इस प्रावधान में सबसे महत्वपूर्ण शर्त यह है कि विचाराधीन अपराध गैर-जमानती अपराध होना चाहिए। यह प्रावधान यह भी स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि अग्रिम जमानत देना अधिकार नहीं है, बल्कि केवल न्यायालय के विवेक पर निर्भर है।

दूसरी ओर, धारा 438(2) कुछ शर्तों को निर्धारित करती है जो आवेदक को तब पूरी करनी चाहिए जब उच्च न्यायालय धारा 438 (a) के तहत निर्देश देता है। यह शर्तें हैं-

  1. जब भी आवश्यक हो पूछताछ के लिए व्यक्ति को उपलब्ध होना चाहिए।
  2. व्यक्ति को किसी ऐसे व्यक्ति को धमकी, प्रेरित या वादा नहीं करना चाहिए जो मामले के तथ्यों से परिचित है या पुलिस अधिकारी को किसी भी तथ्य का खुलासा करने से नहीं रोकना चाहिए।
  3. व्यक्ति न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना भारत नहीं छोड़ेगा।
  4. व्यक्ति भी धारा 437 (b) के तहत उल्लिखित शर्तों से बाध्य होगा और ऐसा होगा जैसे कि धारा के तहत जमानत दी गई थी।

अंत में, धारा 438(3) स्पष्ट रूप से प्रावधान करती है कि आवेदन स्वीकार किए जाने पर, बिना वारंट के गिरफ्तारी पर व्यक्ति को तुरंत जमानत पर रिहा कर दिया जाएगा। इसके अलावा, यदि मजिस्ट्रेट संज्ञान (कॉग्निजेंस) लेता है, तो उसके बाद जारी किया गया कोई भी वारंट जमानती होगा।

सीआरपीसी की धारा 438 के तहत अपराध की प्रकृति

आपराधिक कानून में अपराधों को जमानती और गैर-जमानती के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। सीआरपीसी की धारा 2(a) जमानती अपराधों को परिभाषित करती है, कि वे अपराध जिन्हें पहली अनुसूची में स्पष्ट रूप से जमानती के रूप में परिभाषित किया गया है या लागू कानून द्वारा जमानती माना जाता है, जमानती अपराध है। गैर जमानती को इसी अधिनियम के तहत परिभाषित किया गया है जो पहली अनुसूची में सूचीबद्ध नहीं हैं। इसके अलावा, अनुसूची के दूसरे भाग में गैर-जमानती अपराधों को भी सूचीबद्ध किया गया है और गैर-जमानती अपराधों को परिभाषित किया गया है, जो मौत, आजीवन कारावास या सात साल के कारावास से दंडनीय हैं।

जमानती अपराध वे अपराध हैं जो आमतौर पर प्रकृति में कम गंभीर होते हैं। जमानती अपराधों में जमानत को अधिकार माना जाता है और आरोपी को तुरंत जमानत पर रिहा कर दिया जाता है। दूसरी ओर, गैर-जमानती अपराधों में गंभीर प्रकृति के अपराध शामिल हैं। गैर-जमानती अपराधों में जमानत केवल अदालत के विवेक पर निर्भर करती है। इसका मतलब है कि गैर-जमानती अपराधों के तहत जमानत अधिकार का मामला नहीं है। आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 438 के तहत, प्रावधान स्पष्ट रूप से कहता है कि अग्रिम जमानत केवल गैर-जमानती अपराधों के मामले में दी जाती है।

सीआरपीसी की धारा 438 के अपवाद

आपराधिक संशोधन विधेयक (बिल) 2018 ने सीआरपीसी की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत के प्रावधानों में खंड (क्लॉज) 4 जोड़कर कुछ अपवाद प्रदान किए है। यह अपवाद निम्नलिखित हैं-

सीआरपीसी की धारा 438 के महत्वपूर्ण ऐतिहासिक निर्णय

अग्रिम जमानत पर पहला ऐतिहासिक फैसला 1980 में गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (1980) के मामले में आया था। अदालत के सामने मुख्य मुद्दा यह था कि क्या कोई व्यक्ति केवल किसी डर से अग्रिम जमानत के लिए आवेदन कर सकता है। भय की आशंका को आरोपी द्वारा तथ्यों और घटनाओं के माध्यम से दिखाया जाना चाहिए। इस मुद्दे पर अदालत ने कहा कि कोई व्यक्ति केवल डर या विश्वास के कारण अग्रिम जमानत के लिए आवेदन नहीं कर सकता है। इसका अनिवार्य रूप से मतलब है कि डर या विश्वास को उचित आधार पर स्थापित किया जाना चाहिए। अदालत ने यह भी माना कि अग्रिम जमानत एक व्यापक अधिकार नहीं है और इसे अदालतों द्वारा हर मामले में सीमित किया जा सकता है। अदालत ने यह भी कहा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित अधिकार प्रतिबंधों के साथ नहीं आने चाहिए और तदनुसार, अग्रिम जमानत समयबद्ध (टाइम बार्ड) नहीं होनी चाहिए।

संक्षेप में, अदालत ने अग्रिम जमानत के संबंध में कुछ दिशानिर्देश निर्धारित किए। य़े हैं-

  • आवेदक को अदालत में यह साबित करना होगा कि “विश्वास करने का कारण” था कि एक गैर-जमानती अपराध के लिए उसकी गिरफ्तारी हो सकती है।
  • अदालतों को भी अपने दिमाग का इस्तेमाल करना चाहिए और फैसला करना चाहिए कि क्या राहत के लिए मामला बनाया जाना चाहिए।
  • अदालतों ने यह भी माना कि अग्रिम जमानत देने से पहले प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज करना अनिवार्य नहीं है।
  • अंत में, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि गिरफ्तारी के बाद अग्रिम जमानत नहीं दी जा सकती है।
  • अग्रिम जमानत सामान्य आदेश नहीं हैं और इन्हें समयबद्ध नहीं किया जाना चाहिए।

एक अन्य महत्वपूर्ण फैसले में, सर्वोच्च न्यायालय ने समंदर सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1987) ने स्पष्ट किया कि दहेज हत्या के मामलों में अग्रिम जमानत नहीं दी जानी चाहिए।

इसके तुरंत बाद, सलाउद्दीन अब्दुलसमद शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य (1996), के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने एक विपरीत दृष्टिकोण दिया और माना कि अग्रिम जमानत एक निश्चित समय अवधि तक सीमित होनी चाहिए। अदालत ने तर्क दिया कि जांच अधूरी होने पर अदालतों द्वारा जमानत दी जाती है और इसलिए, अदालतों को आरोपी के खिलाफ सबूतों की प्रकृति के बारे में पूरी तरह से सूचित नहीं किया जाता है। इसलिए, सबूतों की सराहना करने और आरोप पत्र प्रस्तुत करने के बाद ही जमानत दी जानी चाहिए। इस फैसले में अदालत द्वारा दिए गए तर्क की भारी आलोचना और बहस हुई थी।

बदरेश बिपिनबाई सेठ बनाम गुजरात राज्य (2015) के ऐतिहासिक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के आलोक में सीआरपीसी की धारा 438 की उदारतापूर्वक (लिबरली) व्याख्या की जानी चाहिए जो जीवन और व्यक्तिगत स्वाधीनता की स्वतंत्रता प्रदान करता है। न्यायालय का विचार था कि दोनों प्रावधानों को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि धारा 438 का उल्लंघन करने से सीधे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा। यह भी माना जाता था कि व्यक्तिगत स्वाधीनता से संबंधित कोई भी प्रावधान प्रतिबंधों के साथ नहीं आना चाहिए।

हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने दृष्टिकोण को सही किया और सुशीला अग्रवाल बनाम राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली) 2020 के हाल ही के फैसले में अपने पहले के फैसलों को खारिज कर दिया जिसमें न्यायालय ने कहा कि अग्रिम जमानत समयबद्ध नहीं होनी चाहिए। यह भी माना गया कि एक अग्रिम जमानत परीक्षण (ट्रायल) के अंत तक जारी रह सकती है। हालाँकि, अदालतें इसकी अवधि को सीमित कर सकती हैं यदि उसे ऐसा करना आवश्यक लगता है। इसके अतिरिक्त, अदालत ने यह भी कहा कि जमानत आवेदन ठोस तथ्यों के साथ गिरफ्तारी के लिए एक उचित आधार पर आधारित होना चाहिए। इसलिए, हर कीमत पर अस्पष्टता से बचा जाना चाहिए, और अस्पष्ट आरोपों पर कोई आवेदन नहीं किया जा सकता है। न्यायालय के लिए आवश्यक है कि आवेदन मूर्त (टैंजिबल) आधार पर आधारित हो जिसे न्यायालयों द्वारा निष्पक्ष रूप से निर्धारित किया जा सकता है। अदालत ने दोहराया कि आरोपी की भूमिका, आरोपी द्वारा सबूतों से छेड़छाड़ की संभावना, अपराध की प्रकृति और अन्य बातों जैसे महत्वपूर्ण कारकों को पर्याप्त महत्व दिया जाना चाहिए।

हाल के एक घटनाक्रम में, सर्वोच्च न्यायालय ने मोहम्मद नाजिम बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2021) के मामले में एक बार फिर व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वाधीनता के अधिकार और मामले की जांच के लिए जांच एजेंसी के अधिकार के बीच संतुलन बनाए रखने के महत्व पर जोर दिया। इसके अलावा, अपराध की गंभीरता ऐसा कारक हैं जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है।

एक और दिलचस्प घटनाक्रम में, पीयूष (नाबालिग) बनाम हरियाणा राज्य (2021) के मामले में न्यायमूर्ति राजेश भारद्वाज की पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि किशोरों (जुवेनाइल) की ओर से अग्रिम जमानत के आवेदन विचारणीय नहीं हैं। अदालत ने तर्क दिया कि चूंकि किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 अपने आप में एक संपूर्ण संहिता है, इसलिए अधिनियम के प्रावधान लागू होंगे। इसके अलावा, चूंकि एक किशोर को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि एक किशोर को गिरफ्तारी की कोई आशंका थी। इसलिए, ऐसे मामलों में अग्रिम जमानत की कोई आवश्यकता नहीं होती है।

निष्कर्ष

आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 में अग्रिम जमानत को शामिल करना निस्संदेह एक स्वागत योग्य कदम था। अग्रिम जमानत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदान किए गए जीवन के मौलिक अधिकार और व्यक्तिगत स्वाधीनता का एक अभिन्न अंग है। हालांकि, साथ ही यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि यह अधिकार जांच प्रक्रियाओं के आड़े न आए। दोनों के बीच हमेशा संतुलन बनाए रखना चाहिए। भारतीय न्यायालयों ने भी इसे लगातार दोहराया है। अदालतों ने यह भी सुनिश्चित किया है कि अग्रिम जमानत के प्रावधान का दुरुपयोग न हो और इसलिए इस प्रावधान का उपयोग कुछ शर्तों के साथ होना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भय की आशंका अस्पष्ट आधारों पर आधारित नहीं होनी चाहिए। डर वाजिब होना चाहिए और अदालत में साबित किया जाना चाहिए। विधायिका का इरादा स्पष्ट रूप से बताता है कि अदालतों के पास यह तय करने की विवेकाधीन (डिस्क्रेशनरी) शक्तियां हैं कि आवेदन दिया जाना चाहिए या नहीं। “जैसा वह ठीक समझे” शब्दों का प्रयोग यह दर्शाता है कि विधायिका किस प्रकार न्यायालयों को यह शक्ति प्रदान करना चाहती थी। इससे अदालतों को इस शक्ति का सोच-समझकर इस्तेमाल करने की जिम्मेदारी का अहसास भी होता है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

  • क्या हर कोई अग्रिम जमानत के लिए आवेदन करने के योग्य है?

किशोरों की ओर से अग्रिम जमानत के लिए आवेदन नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा, आपराधिक संशोधन विधेयक 2018 ने कुछ अपवादों को भी निर्धारित किया है जिसमें 16 और 12 वर्ष से कम उम्र की महिलाओं पर बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के आरोपी व्यक्ति अग्रिम जमानत के लिए आवेदन नहीं कर सकते हैं।

  • किस प्रकार के अपराधों के लिए अग्रिम जमानत के लिए आवेदन किया जा सकता है?

सीआरपीसी की धारा 438 के अनुसार, अग्रिम जमानत केवल गैर-जमानती अपराधों के लिए ही लागू की जा सकती है, यानी ऐसे अपराध जो गंभीर प्रकृति के है।

  • क्या अग्रिम जमानत देने से पहले प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य है?

गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (1980) के ऐतिहासिक मामले में अदालत ने स्पष्ट किया कि अग्रिम जमानत देने के लिए प्राथमिकी दर्ज करना एक अनिवार्य शर्त नहीं है।

संदर्भ

 

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here