आई.पी.सी., 1860 की धारा 34 

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6405
Indian Penal Code
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यह लेख दिल्ली में वकालत करने वाली वकील Jaya Vats के द्वारा लिखा गया है। इस लेख में, लेखक आई.पी.सी. की धारा 34 का विस्तृत अध्ययन देती है और आई.पी.सी. की धारा 34 के अर्थ, उद्देश्य, अपील और परिणामों का गहन विश्लेषण (एनालिसिस) भी प्रदान करती है। इस लेख का अनुवाद Sameer Choudhary द्वारा किया गया है।                      

Table of Contents

परिचय

यह आपराधिक कानून का एक सुस्थापित सिद्धांत है कि एक व्यक्ति अपने द्वारा किए गए अपराधों के लिए पूरी तरह से जवाबदेह होता है और वह दूसरों द्वारा किए गए कार्यों के लिए जवाबदेह नहीं होता है। दूसरे शब्दों में, आपराधिक अपराधीता (कल्पेबिलिटी) की मुख्य अवधारणा यह है कि जो व्यक्ति वास्तव में अपराध करता है वह प्राथमिक जिम्मेदारी वहन करता है, और केवल उस व्यक्ति को दोषी घोषित किया जा सकता है और कानून के अनुसार केवल उसे ही दंडित किया जा सकता है। इस सामान्य नियम का विरोध करते हुए भारतीय दंड संहिता, 1860 (आई.पी.सी.) की धारा 34 के तहत कहा गया है कि जब एक ‘सामान्य इरादे’ की खोज में कई लोगों द्वारा कोई आपराधिक कार्य किया जाता है, तो उनमें से प्रत्येक व्यक्ति उस अपराध के लिए उसी तरह जवाबदेह होता है जैसे कि यह अकेले उसके द्वारा ही किया गया था। यह खंड (क्लॉज), जो एक आपराधिक कार्य को करने में साझा जवाबदेही के सिद्धांत को स्थापित करता है, आपराधिक कानून के एक मौलिक सिद्धांत का अपवाद है। संयुक्त अपराधीता का मूल, आरोपी को सक्रिय (एनर्जाइज) करने वाले एक साझा लक्ष्य के अस्तित्व में पाया जाता है, जो उस इरादे की खोज में एक आपराधिक कार्य को करने की ओर जाता है।

सामान्य इरादा

आगे बढ़ने से पहले, ‘सामान्य इरादे’ शब्द के अर्थ को समझना चाहिए। एक सामान्य इरादे को एक पूर्व निर्धारित योजना के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो योजना के अनुसार एक साथ काम करती है। यह साबित होना चाहिए कि आपराधिक कार्य एक पूर्व नियोजित योजना को ध्यान में रखते हुए किया गया था। यह समय पर उस कार्य को करने से पहले मौजूद होता है, लेकिन उस समय में एक बड़ा अंतराल (गैप) नहीं होना चाहिए। यदि अंतराल बहुत लंबा नहीं है, तो कभी-कभी सामान्य इरादे मौके पर ही बनाए जा सकते हैं। प्राथमिक पहलू इच्छित परिणाम के लिए योजना को अंजाम देने के लिए एक पूर्व नियोजित रणनीति है। ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को एक साझा इरादे की खोज में किए गए कार्य के लिए जवाबदेह ठहराया जाता है जैसे कि वह कार्य एक ही व्यक्ति द्वारा किया गया था। सामान्य इरादे का मतलब यह नहीं है कि कई लोगों का एक ही इरादा है। एक सामान्य इरादा स्थापित करने के लिए, हर एक मौजूदा व्यक्ति के उद्देश्य से एक दूसरे को जागरूक होना चाहिए और उसे अपनाना चाहिए।

उदाहरण के लिए, चार लोग नदी के किनारे ‘A’ को पीटने का इरादा रखते हैं, और जैसे ही वे ‘A’ को पीटने के इरादे से उस स्थान पर पहुंचे, उनका सामना ‘B’, ‘A’ के विरोधी से हुआ। उन लोगो की रणनीति को जानने के बाद, ‘A’ को पीटने के लिए ‘B’ उन चार व्यक्तियों के साथ उनके समूह में शामिल हो जाता है। ‘B’ ने मौके पर ही उनके साथ शामिल होने का फैसला किया था, क्योंकि उसका भी वही इरादा था (यानी ‘A’ को पीटने के लिए), जिसने सभी को ‘सामान्य इरादे’ के दायरे में आने के लिए योग्य बना दिया था।

आई.पी.सी. की धारा 34

आपराधिक अपराधीता के व्यापक सिद्धांतों के अनुसार, अपराध करने वाले व्यक्ति की सबसे पहली जिम्मेदारी होती है, और केवल उस व्यक्ति को ही दोषी पाया जा सकता है और किए गए अपराध के लिए दंडित किया जा सकता है। हालांंकि, आई.पी.सी. में कई धाराएं हैं जिनमें ‘सामान्य इरादे’ की धारणा शामिल की गई है, जो दुनिया भर में आपराधिक कानून न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) में मौजूद है। यह सिद्धांत किसी व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किए गए अपराध के लिए आपराधिक रूप से जिम्मेदार ठहराने की अनुमति देता है, यदि यह कार्य आरोपी और अन्य व्यक्ति (व्यक्तियों) द्वारा सहमत सामान्य उद्देश्य के हिस्से के रूप में किया गया था। ऐसी ही एक धारा आई.पी.सी. की धारा 34 है।

आई.पी.सी. 1860 की धारा 34 के तहत कहा गया है कि जब एक से अधिक लोग एक सामान्य इरादे की खोज में कोई आपराधिक कार्य करते हैं, तो उनमें से प्रत्येक व्यक्ति को उस कार्य के लिए उसी तरह जवाबदेह बनाया जाता है जैसे कि वह कार्य अकेले उसके द्वारा ही किया गया था। यह खंड, जो एक अधिनियम के लिए ‘संयुक्त अपराध’ स्थापित करता है, आपराधिक कानून के एक मौलिक सिद्धांत का अपवाद है। संयुक्त अपराध का मूल संबंधित सभी पक्षों में एक समान इरादे की उपस्थिति है, जो उस सामान्य लक्ष्य की खोज में आपराधिक कार्य को करने की ओर ले जाता है।

सिद्धांत 

धारा 34 में किसी विशिष्ट अपराध का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। यह साक्ष्य के नियम को स्थापित करता है कि यदि दो या दो से अधिक लोग एक ही उद्देश्य के लिए अपराध करते हैं, तो वे संयुक्त रूप से जवाबदेह होते हैं। 

आई.पी.सी., 1860 की धारा 34 का उद्देश्य

धारा 34 का उद्देश्य एक ऐसे परिदृश्य (सिनेरियो) का सामना करना है जिसमें एक सामान्य उद्देश्य के समर्थन में काम करने वाले अलग-अलग सदस्यों द्वारा किए गए गैर कानूनी कार्यों के बीच या उनमें से प्रत्येक ने क्या भूमिका निभाई है, यह स्पष्ट करना असंभव हो सकता है। एक साथी का अस्तित्व उस व्यक्ति को सहायता, समर्थन, सुरक्षा और विश्वास देता है, जो वास्तव में अवैध कार्य को करने में भाग ले रहा है, यही वजह है कि ऐसी परिस्थितियों में सभी को दोषी माना जाता है। नतीजतन, एक आपराधिक कार्य को करने में शामिल किसी भी व्यक्ति को किए गए कार्य में उसकी भागीदारी के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है, भले ही समूह के किसी भी प्रतिभागी (पार्टिसिपेंट) द्वारा मुद्दे में सटीक कार्य नहीं किया गया था। एक विशिष्ट उद्देश्य होना चाहिए, जिसको प्राप्त करना समूह के सभी सदस्यों का अंतिम लक्ष्य है। अपराधिक कार्य में शामिल हर व्यक्ति को इस प्रावधान के तहत अवैध कार्य में उसकी संलिप्तता (इन्वॉल्वमेंट) के आधार पर दोषी ठहराया जाता है।

आई.पी.सी. की धारा 34 की प्रकृति

धारा 34 केवल संयुक्त अपराधीता की एक व्यापक अवधारणा प्रदान करती है। यह परिणामस्वरूप कोई महत्वपूर्ण या उचित अपराध नहीं होता है। इसके तहत किसी विशेष अपराध का उल्लेख नहीं किया गया है। यदि दो या दो से अधिक व्यक्ति एक समान इरादे से अपराध करते हैं, तो उन्हें संयुक्त रूप से आई.पी.सी. के तहत किसी भी अपराध के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। इस प्रकार, यदि आई.पी.सी. की धारा 34 की आवश्यकताओं को पूरा किया जाता है, तो उस धारा में सूचीबद्ध किसी भी अपराध के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों को दोषी पाया जा सकता है। इस प्रकार, क्या कोई अपराध संज्ञेय (कॉग्निजेबल), गैर-संज्ञेय (नॉन कॉग्निजेबल), जमानती या गैर-जमानती है, यह किए गए कार्य की प्रकृति और उन धाराओं में निर्दिष्ट (स्पेसिफाइड) प्रकृति द्वारा निर्धारित किया जाता है जिसके तहत आरोपी पर आरोप लगाया जाता है।

आई.पी.सी., 1860 की धारा 34 की आवश्यकता

धारा 34, भारतीय आपराधिक कानून का एक महत्वपूर्ण घटक है। यह उन मामलों में उपयोग के लिए एक सामान्य प्रावधान स्थापित करता है जब एक संयुक्त आपराधिक कार्य में शामिल पक्षों या व्यक्तियों की अपराधीता और जिम्मेदारियों के सटीक स्तर (लेवल) को साबित करना मुश्किल होता है। धारा 34 व्यक्तिगत जवाबदेही खोजने में सहायता करती है जहां एक कार्य में लगे सभी व्यक्तियों के सामान्य उद्देश्य के समर्थन में की गई गतिविधियों के लिए व्यक्तिगत दायित्व को साबित करना मुश्किल होता है।

आई.पी.सी. की धारा 34 का गठन करने वाली अनिवार्यताएं

किसी भी अन्य अपराध की तरह धारा 34 में भी कई आवश्यकताएं हैं जिन्हें संयुक्त अपराध के लिए जिम्मेदार व्यक्ति को ढूंढने के लिए पूरा किया जाना चाहिए। ये निम्नलिखित हैं:

कई लोगों द्वारा किया गया एक आपराधिक कार्य

सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता यह है कि आपराधिक कार्य किया जाए और यह कार्य कई लोगों द्वारा किया जाना चाहिए। आपराधिक कार्य करना या उसे करने से बचना आवश्यक है। आपराधिक गतिविधि में विभिन्न संघों द्वारा किए गए कार्य भिन्न हो सकते हैं, लेकिन सभी को किसी न किसी तरह से अवैध कार्य में सहयोग या संलग्न (एंगेज) होना चाहिए। धारा 34 का मूल एक विशिष्ट या इच्छित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अवैध गतिविधि में शामिल लोगों के मन का एक साथ मिलान है।

गैर कानूनी कार्य करने के लिए सभी व्यक्तियों का समान इरादा

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, आई.पी.सी. की धारा 34 के तहत संयुक्त अपराधीता का मूल उस समूह के सभी सदस्यों द्वारा साझा किए गए एक सामान्य लक्ष्य की खोज में एक आपराधिक कार्य करने के लिए एक सामान्य उद्देश्य का अस्तित्व है। वाक्यांश “सामान्य इरादा” किसी अपराध को करने के लिए उस समूह का एक पूर्व कार्यक्रम या समूह द्वारा की गई पूर्व बैठक, साथ ही उस समूह के सभी सदस्यों की भागीदारी को इंगित करता है। उस समूह के विभिन्न सदस्यों द्वारा की जाने वाली गतिविधियाँ उनकी डिग्री और प्रकार में भिन्न हो सकती हैं, लेकिन उन सभी को एक ही सामान्य उद्देश्य से प्रेरित होना चाहिए।

सभी लोग आपराधिक गतिविधि (उस साझा इरादे को आगे बढ़ाने के लिए) को घटित करने में लगे है

संयुक्त अपराधीता स्थापित करने के लिए पूरे समूह द्वारा किए गए एक आपराधिक कार्य की आवश्यकता होती है। यह महत्वपूर्ण है कि अदालत यह निर्धारित करे कि सामान्य इरादे की खोज में समूह के सहयोग से कुछ अवैध कार्य किया गया था। वह व्यक्ति जो अपराध को करने में पहल करता है या अन्य लोगो की सहायता करता है, उसे वास्तविक (नियोजित (प्लेन)) अपराध को घटित करने में सहायता के लिए शारीरिक रूप से एक कार्य करना चाहिए।

सामान्य इरादे और समान इरादे के बीच अंतर

भारतीय दंड संहिता की धारा 34 को लागू करने के लिए, सभी का एक ही इरादा होना चाहिए। वाक्यांश ‘सामान्य इरादा’ और ‘समान इरादे’ एक समान लग सकते हैं, लेकिन वे समान नहीं हैं।

एक सामान्य इरादा एक पूर्व-व्यवस्थित योजना या उस कार्य की प्रतिबद्धता (कमिटमेंट) से पहले अपराधियों के मन का मिलान है। ‘सामान्य’ शब्द का तात्पर्य किसी भी चीज से है जो सभी के पास समान अनुपात (रेश्यो) में है। उनके लिए एक साझा उद्देश्य, आशय या लक्ष्य होना विशिष्ट है। 

दूसरी ओर, वही समान इरादा, सामान्य इरादा नहीं है क्योंकि इसमें पूर्व-नियोजित बैठक, साझाकरण (शेयरिंग) या सोच शामिल नहीं है।

उदाहरण के लिए, A, B के कार्यालय का सहकर्मी है। भले ही A वरिष्ठता (सिनियोरिटी) में अधिक है, लेकिन तब भी B को पदोन्नत (प्रमोट) किया जाता है। A और B दुश्मन हैं। A, B से बदला लेने का इरादा रखता है, दूसरी ओर, B पर घर के सबसे बड़े बेटे के रूप में जिम्मेदारियां हैं। C, जो B से छोटा है, परेशान था क्योंकि उसके बड़े भाई B को पदोन्नत किया गया था। A एक दिन काम से घर जाते समय B की हत्या करने का फैसला करता है। C, जो छोटा भाई है वह भी, घर जाते समय B की हत्या करने का इरादा रखता है। A और C दोनों एक ही स्थान पर B को पकड़ते और मारते हैं। दोनों ने यहां B को मारा है। हालांकि, उनका एक ही लक्ष्य है, वे दोनों B की हत्या करना चाहते थे, लेकिन उनके तरीके अलग थे, और उनके इरादे एक जैसे नहीं थे। A और C जो भी कार्य करते हैं उसके लिए जवाबदेह हैं लेकिन वे दूसरे के कार्य के लिए उत्तरदायी नहीं हैं। 

सामान्य इरादे और सामान्य उद्देश्य के बीच अंतर

आई.पी.सी. की धारा 149 सामान्य उद्देश्य को परिभाषित करती है। धारा 149, धारा 34 की तरह, रचनात्मक (कंस्ट्रक्टिव) संयुक्त जिम्मेदारी का प्रावधान करती है। धारा 149 एक विशेष अपराध स्थापित करती है। इस धारा में कहा गया है कि यदि गैर कानूनी सभा के किसी सदस्य के द्वारा कोई अपराध किया जाता है जो उस सभा के सामान्य उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए किया गया है या जैसे कि उस सभा के सदस्यों को उस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए स्वयं को उस विशेष कार्य के लिए प्रतिबद्ध (कमिट) करने की संभावना समझी जाती है, तो प्रत्येक व्यक्ति जो, उस अपराध के किए जाने के समय, उस सभा का सदस्य है, वह उस अपराध का दोषी है।

सामान्य इरादे और सामान्य उद्देश्य के बीच का अंतर इस प्रकार है:

आई.पी.सी. की धारा 34 आई.पी.सी. की धारा 149 
धारा 34 के अनुसार, अपराधिक कार्य में भाग लेने वालों की संख्या एक से अधिक होनी चाहिए। धारा 149 में कम से कम पांच लोगों की आवश्यकता होती है।
धारा 34 एक अलग अपराध नहीं है बल्कि सबूत का एक नियम स्थापित करता है। धारा 149 एक विशेष अपराध स्थापित करती है।
धारा 34 के लिए आवश्यक है कि सामान्य इरादा किसी भी प्रकार का हो। धारा 149 के लिए आवश्यक है कि सामान्य उद्देश्य धारा 141 में सूचीबद्ध उद्देश्यों में से एक हो ।
धारा 34 के लिए आरोपियों के मन का पहले से ही मिलन या पूर्व-व्यवस्थित साजिश की आवश्यकता होती है, अर्थात वास्तविक हमले के होने से पहले सभी आरोपी पक्षों को एक साथ मिलना चाहिए। धारा 149 के तहत पूर्व समझौते की आवश्यकता नहीं होती है। अपराध के समय यह आवश्यक है की वह व्यक्ति गैर कानूनी सभा का एक सदस्य है ।
धारा 34 में कुछ सक्रिय भागीदारी की आवश्यकता होती है, विशेष रूप से शारीरिक हिंसा से जुड़े अपराध में।  धारा 149 को सक्रिय भागीदारी की आवश्यकता नहीं है, और जिम्मेदारी केवल एक साझा लक्ष्य के साथ एक गैर-कानूनी सभा का सदस्य होने से उत्पन्न होती है।

आई.पी.सी.  की धारा 34 के तहत आरोप लगाए जाने पर क्या कर सकते हैं?

भारत में अपराध का आरोप लगाया जाना एक गंभीर बात है। आपराधिक मामला न केवल आरोपी के लिए बल्कि पीड़ित के लिए भी मुश्किल होता है। यदि किसी व्यक्ति को भारत में किसी अपराध का दोषी ठहराया जाता है, तो उसे कठोर दंड का सामना करना पड़ सकता है। हालांकि, याचिकाकर्ता के लिए अपने ऊपर लगे आरोपों को साबित करना भी उतना ही मुश्किल है। यही कारण है कि याचिकाकर्ता और प्रतिवादी दोनों को मामले की सावधानीपूर्वक तैयारी करनी चाहिए। ऐसे मामले में शामिल व्यक्ति को गिरफ्तारी से पहले और बाद में अपने सभी अधिकारों के बारे में पता होना चाहिए। दोनों पक्षों को इस कारण से अपने वकीलों की सेवाओं का उपयोग करना चाहिए। घटनाओं की एक समयरेखा भी विकसित की जानी चाहिए और लिखी जानी चाहिए ताकि वकील को मामले पर अधिक आसानी से जानकारी दी जा सके। यह वकील को सफलतापूर्वक परीक्षण करने के लिए एक योजना विकसित करने में सहायता करेगा और अदालत को आपके पक्ष में निर्णय देने के लिए सहमत करेगा।

इसके अलावा, एक आपराधिक मामले में शामिल कानून की पूरी समझ आवश्यक है। प्रक्रिया के साथ-साथ लागू कानून को समझने के लिए किसी को अपने वकील से परामर्श करना चाहिए।

अगर आई.पी.सी.  की धारा 34 के तहत आपराधिक कार्य का झूठा आरोप लगाया जाए तो क्या कर सकते हैं?

आई.पी.सी. की धारा 34 की स्थितियों में लोगों पर अक्सर गलत आरोप लगाए जाते हैं। ऐसे मामलों में, किसी के मामले का गठन करना इस तरह से महत्वपूर्ण है कि किसी व्यक्ति की बेगुनाही दिखाने के लिए उपयोग किए जानें वाले सबूत अदालत में पेश किए जा सकें। आरोपी को अपने वकील से परामर्श करना चाहिए और उसे पूरी परिस्थितियों का वर्णन करना चाहिए, क्योंकि थोड़े से संशोधनों (अमेंडमेंट) का भी मामले पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है। एक व्यक्ति को वकील के साथ स्थिति पर पूरी तरह से चर्चा करनी चाहिए, भले ही वह मानता हो कि वे अपने वकील को मामले में शामिल कुछ जटिलताओं को पूर्ण रूप से समझाने में असमर्थ है। एक व्यक्ति को मामले पर अपना स्वयं का अध्ययन भी करना चाहिए और एक वकील की सहायता से मुकदमे की तैयारी करनी चाहिए। एक व्यक्ति को अपने वकील के निर्देशों का सावधानीपूर्वक पालन करना चाहिए और अदालत में पेश होने, जिरह (क्रॉस एग्जामिनेशन) जैसे छोटे मामलों पर भी मार्गदर्शन लेना चाहिए।

आई.पी.सी.  की धारा 34 के मामले के लिए विचारण (ट्रायल) या न्यायालय की प्रक्रिया

 

एक आपराधिक विचारण में अदालत की प्रक्रिया की शुरुआत इस बात से निर्धारित होती है कि क्या किया गया अपराध संज्ञेय है या गैर-संज्ञेय। चूंकि धारा 34 एक व्यापक प्रावधान है, इसलिए मुकदमे या आपराधिक अदालत की प्रक्रिया आई.पी.सी. की अन्य धाराओं द्वारा निर्धारित की जाती है, जिसके तहत आरोपी पर आरोप लगाया गया है। हालांकि, ज्यादातर मामलों में, एक प्राथमिकी (एफ.आई.आर.) ही एक विचारण शुरू करती है। निम्नलिखित एक सामान्य आपराधिक विचारण की प्रक्रिया है:

  1. सबसे पहला चरण प्राथमिकी दर्ज करने का होता है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 इसे संबोधित करती है। एक प्राथमिकी पूरे मामले की शुरुआत करती है।
  2. प्राथमिकी दर्ज होने के बाद जांच अधिकारी जांच करते हैं। अधिकारी तथ्यों और परिस्थितियों के मूल्यांकन, साक्ष्य को एकत्रित करने, व्यक्तियों की जांच और अन्य प्रासंगिक उपायों के मूल्यांकन के बाद जांच को पूरा और तैयार करता है।
  3. बाद में पुलिस द्वारा तैयार की गई चार्जशीट को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता है। चार्जशीट में आरोपी के खिलाफ दर्ज सभी आरोपों को सूचीबद्ध किया जाता है।
  4. मजिस्ट्रेट सुनवाई के निर्धारित दिन पर लगाए गए आरोपों पर पक्षों की दलीलें सुनते है और फिर उसके बाद में आरोप तय करते है।
  5. आरोपों को बनाने के बाद, आरोपी को अपना दोष स्वीकार करने का मौका दिया जाता है, और यह सुनिश्चित करने के लिए न्यायाधीश का दायित्व है कि अपराध की याचिका उसकी इच्छा से ही की गई थी। न्यायाधीश अपने विवेक से आरोपी को दोषी ठहरा सकते है।
  6. आरोपों को बनाने और ‘दोष न स्वीकार करने’ की आरोपी की दलील के बाद, पहले अभियोजन पक्ष द्वारा साक्ष्य प्रस्तुत किया जाता है, जो सबूत का पहला (आमतौर पर) बोझ वहन करता है। मौखिक और दस्तावेजी प्रमाण दोनों प्रस्तुत करना संभव है। मजिस्ट्रेट के पास गवाह के रूप में किसी को भी बुलाने या किसी दस्तावेज को पेश करने की आवश्यकता का अधिकार है।
  7. अभियोजन पक्ष के गवाहों से अदालत में आरोपी या उसके वकील द्वारा जिरह की जाती है।
  8. इस समय पर, यदि आरोपी के पास कोई सबूत है, तो उसे अदालतों में पेश किया जाता है। उसे अपने मामले को मजबूत करने का यह अवसर दिया जाता है। क्योंकि अभियोजन पक्ष के पास सबूत का बोझ होता है, तो आरोपी को सबूत पेश करने के लिए मजबूर नहीं किया जाता है।
  9. यदि बचाव पक्ष गवाहों को बुलाता है, तो अभियोजन पक्ष उनसे जिरह करता है।
  10. दोनों पक्षों द्वारा अदालत को साक्ष्य देने के बाद न्यायालय या न्यायाधीश द्वारा साक्ष्य प्रस्तुति को समाप्त किया जाता है।
  11. अंतिम तर्कों का चरण प्रक्रिया के अंत तक पहुँच जाता है। इस मामले में, दोनों पक्ष (अभियोजन और बचाव पक्ष) बारी-बारी से अदालत के सामने अंतिम मौखिक तर्क देते हैं।
  12. न्यायालय मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के साथ-साथ दिए गए तर्कों और प्रस्तुत किए गए साक्ष्यों के आधार पर अपना अंतिम निर्णय देता है। न्यायालय आरोपी को बरी करने या दोषी ठहराने के लिए अपना तर्क बताता है और अपना अंतिम निर्णय जारी करता है।
  13. यदि आरोपी को दोषी पाया जाता है, तो उन्हें दोषी ठहराया जाता है; दोषी नहीं पाए जाने पर आरोपी को बरी कर दिया जाता है।
  14. यदि आरोपी को दोषी पाया जाता है और उसे दोषसिद्ध किया जाता है, तो सजा की गंभीरता या अवधि या जेल के समय को निर्धारित करने के लिए सुनवाई की जाती है।
  15. यदि परिस्थितियाँ अनुमति देती हैं, तो उच्च न्यायालयों में अपील की जा सकती है। सत्र (सेशन) न्यायालय से उच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।

आई.पी.सी. की धारा 34 के मामले में जमानत

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, धारा 34 एक सामान्य खंड है जो एक सामान्य उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए किए गए किसी भी अपराध (आई.पी.सी. के तहत) पर लागू होता है। इस प्रकार, क्या आपको अधिकार (जमानती अपराध) के रूप में जमानत मिल सकती है या नहीं, यह आरोपी के खिलाफ लगाए गए आरोप पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, यदि आरोपी पर हत्या का आरोप लगाया गया है, तो उसे अधिकार के रूप में जमानत नहीं दी जा सकती है क्योंकि हत्या का अपराध, आई.पी.सी. की धारा 302 के तहत जमानती अपराध नहीं है। इसी तरह, यदि दो या दो से अधिक लोगों पर जमानती अपराध का आरोप लगाया जाता है, तो प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर आरोपी को जमानत दी जा सकती है।

आई.पी.सी. की धारा 34 के तहत अपील 

एक अपील, किसी बीमारी से जीवन को बचाने के लिए दूसरा शॉट दिए जाने जैसा है। यह वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से निचली या अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) अदालत के फैसले या आदेश के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। निचली अदालत के समक्ष विवाद का कोई भी पक्ष अपील दायर कर सकता है। वह व्यक्ति जो अपील दायर करता है या अपील जारी रखता है उसे अपीलकर्ता के रूप में जाना जाता है, और जिस न्यायालय में अपील दायर की जाती है उसे अपीलीय न्यायालय के रूप में जाना जाता है।

किसी पक्ष को उच्च न्यायालय के समक्ष किसी न्यायालय के निर्णय या आदेश पर विवाद करने का कोई अंतर्निहित (इन्हेरेंट) अधिकार नहीं है। एक अपील केवल तभी दायर की जा सकती है जब उसे कानून द्वारा स्पष्ट रूप से अनुमति दी गई हो और उसे निर्धारित प्रपत्र (फॉर्म) में और प्रासंगिक समय सीमा के अंदर ही प्रस्तुत किया जाना चाहिए।

यदि अपील प्रस्तुत करने के मजबूत कारण हैं, तो उच्च न्यायालय में अपील दायर की जा सकती है। जिला या मजिस्ट्रेट की अदालत के फैसले के खिलाफ सत्र अदालत में अपील की जा सकती है। सत्र न्यायालय से उच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।

यदि कोई भी व्यक्ति सत्र न्यायाधीश या अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के समक्ष मुकदमे में या किसी अन्य अदालत के समक्ष मुकदमे में दोषी ठहराया गया है, और उसी मुकदमे में उसके खुद के लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए 7 साल से अधिक जेल की सजा सुनाई गई है, तो ऐसे में वह उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है। इस प्रकार, कोई भी पक्ष अपील कर सकता है या नहीं, यह अपराध के आरोपी के साथ-साथ प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों द्वारा निर्धारित किया जाता है।

आई.पी.सी.  की धारा 34 के परिणाम 

भारतीय दंड संहिता की धारा 34 के तहत अपराध के आरोपी और दंडनीय व्यक्ति को कई अप्रिय (अनप्लीसेंट) नतीजों का सामना करना पड़ सकता है। उनमें से कुछ नीचे दिए गए हैं।

  1. सभी के लिए अपमान: धारा 34 के मामले में, अनुमानों के माध्यम से निष्कर्ष निकाले जाते हैं, जिससे मामला और अधिक जटिल हो जाता है और इसलिए निर्णायकों (एडजुडिकेटर) के लिए स्पष्ट रूप से आकलन करना और भी मुश्किल हो जाता है। ऐसी परिस्थितियों में, संयुक्त अपराधीता के सिद्धांत का उपयोग किया जाता है, जिसमें यह माना जाता है कि कार्य में शामिल प्रत्येक आरोपी को एक सामान्य उद्देश्य की खोज में आपराधिक कार्य में शामिल होने का दोषी माना जाता है, और ऐसे सामान्य उद्देश्य को साझा किया गया था और सभी सहयोगियों को इसके बारे में पता था। धारा 34 के मामले जटिल प्रकृति के होते हैं।
  2. आरोपी को अपने कामों में कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है: क्योंकि ऐसे मामलों को पूरा होने में लंबा समय लगता है और आमतौर पर आरोपी की उपस्थिति की मांग की जाती है, ऐसे में आरोपी को अदालती प्रक्रियाओं में उलझने के कारण काफी जोखिम होता है, जिससे उन्हें अपने कामों में कठिनाई हो सकती है।
  3. आरोपी से संबंधित व्यक्तियों द्वारा अनुभव की गई पीड़ा : परिणामस्वरूप, आरोपी के भाई-बहन, बच्चे, रिश्तेदार और परिवार के अन्य सदस्य भी पीड़ा और अन्य समान चिंताओं का अनुभव करते हैं।
  4. मामले को घसीटना : धारा 34 से जुड़ी स्थितियों में, जब कई सारे आरोपी शामिल होते हैं, तो मामला मुश्किल हो जाता है, और वास्तविक घटनाओं की स्पष्ट तस्वीर प्राप्त करने में लंबा समय लग सकता है, साथ ही उनके इरादे और उनके द्वारा निभाई गई भूमिका को भी स्पष्ट करने में समय लग सकता है, जिससे मामले को लंबी अवधि तक खींचा जाता है, एवं आरोपी को दुख, उत्पीड़न और दुर्व्यवहार झेलना पड़ता है।
  5. संदिग्ध के साथ अपराधी की तरह व्यवहार करना: इस बात का काफी जोखिम है कि आरोपी को अपराधी माना जा सकता है और इसलिए उसे सही तरीके से नहीं संभाला जाएगा। अपने खिलाफ शुरू की गई प्रक्रियाओं का सामना करते हुए, आरोपी अंततः आत्म-सम्मान, आत्मविश्वास, गरिमा (डिग्निटी) और आशा खो सकता है।
  6. नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम : आरोपी का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य नकारात्मक रूप से प्रभावित हो सकता है, जिससे असंतुलित अस्तित्व हो सकता है।
  7. सह-आरोपियों पर मुकदमा चलाया जा सकता है, भले ही उन्होंने सक्रिय रूप से खुले तौर पर उस कार्य में भाग नहीं लिया हो : जब कई लोगों पर अपराध करने की साजिश का आरोप लगाया जाता है, तो ऐसी स्थिति हो सकती है कि उनमें से उपस्थित कुछ लोगो ने खुले तौर पर इस तरह की साजिश में सक्रिय रूप से भाग नहीं लिया हो, लेकिन उन्हें तब भी दंडित किया जा सकता है जैसे कि अपराध उनके द्वारा ही किया गया था और जैसे की यह साबित हो चुका है कि ऐसे आरोपी ने उन लोगों के साथ साजिश रची जिन्होंने स्पष्ट रूप से कार्य को अंजाम दिया था।
  8. व्यक्तिगत दायित्व (इंडिविजुअल लायबिलिटी) भी तब तय किया जा सकता है जब धारा 34 के तहत साजिश रचने और अपराध करने के आरोप स्थापित होने में विफल हो जाते है: यदि किसी विशेष स्थिति में साजिश रचने और अपराध करने का आरोप स्थापित होने में विफल रहता है, तब भी न्यायालय आगे कार्यवाई में बढ़ सकता है और व्यक्तिगत रूप से उनके खिलाफ लगाए गए आरोपों के अनुसार आरोपी के द्वारा किए गए व्यक्तिगत कार्यों का विश्लेषण करने के बाद व्यक्तिगत दायित्व तय कर सकता है।

सज़ा

हालांकि धारा 34 केवल संयुक्त जवाबदेही का एक व्यापक विवरण देती है, इसलिए दो या दो से अधिक लोगों (सामान्य इरादे के अनुसरण (पर्सुएंस) में) द्वारा संयुक्त रूप से किए गए अवैध कार्य के लिए कोई उपयुक्त दंड निर्दिष्ट नहीं किया गया है। यह धारा अपने आप में केवल साक्ष्य का नियम है। यह एक महत्वपूर्ण अपराध का कारण नहीं बनता है। धारा 34, अपने आप में, कोई स्पष्ट या अद्वितीय अपराध नहीं बनाती है; बल्कि, यह अपराधीता की अवधारणा को स्थापित करती है, यह घोषणा करते हुए कि यदि दो या दो से अधिक लोग कानून का उल्लंघन करते हैं, या भारतीय दंड संहिता के तहत कोई भी अपराध करते हैं, तो दोनों (या सभी) को उस अपराध के लिए जवाबदेह बनाया जाएगा। इसके परिणामस्वरूप, धारा 34 के तहत दी गई सजा भारतीय दंड संहिता के तहत किए गए अपराधों के लिए लगाए गए दंड के अनुरूप (कंसिस्टेंट) होगी।

आई.पी.सी., 1860 की धारा 34 एक रचनात्मक जिम्मेदारी की अवधारणा है, जिसमें अपराधीता के मूल में आरोपी के दिमाग में साझा इरादे की उपस्थिति होती है। हालांकि धारा 34 अपने आप में एक अपराध नहीं बन सकती है, तो इसलिए जब भी दो या दो से अधिक लोगों द्वारा आपराधिक कार्य किया जाता है, तो दोनों धाराएं, यानी की उस विशिष्ट आपराधिक कार्य के लिए प्रदान करने वाला भाग और संयुक्त अपराधीता के लिए प्रदान करने वाली धारा (धारा 34) लागू की जाएगी। उदाहरण के लिए, यदि एक साझा लक्ष्य को आगे बढ़ाने के लिए एक हत्या की जाती है, तो दोनों पक्षों को आई.पी.सी. की धारा 302 के साथ-साथ आई.पी.सी. की धारा 34 के तहत जवाबदेह ठहराया जाएगा।

आई.पी.सी. की धारा 34 को आमतौर पर आई.पी.सी. की अन्य मूल धाराओं के साथ पढ़ा जाता है क्योंकि इसके तहत कोई अपराध निर्धारित नहीं किया गया  है।

न्यायिक निर्णय

बरेंद्र कुमार घोष बनाम किंग एंपरर, 1925 का मामला ऐसा पहला उदाहरण था जिसमें एक अदालत ने किसी अन्य व्यक्ति के कार्य के लिए, एक सामान्य इरादे को आगे बढ़ाने के लिए किसी अन्य व्यक्ति को दोषी ठहराया था। इस मामले में दो लोगों ने एक डाकिये से पैसे की मांग की थी, जो उस समय पैसे गिन रहा था और जब उन्होंने डाकिए पर तमंचे से गोली चलाई तो उसकी मौके पर ही मौत हो गई। सभी आरोपी बिना पैसे लिए वहां से फरार हो गए। इस उदाहरण में, बरेंद्र कुमार ने दावा किया कि उन्होंने बंदूक से गोली नहीं चलाई और वह केवल वहां खड़े थे, लेकिन अदालतों ने उनकी अपील को खारिज कर दिया और उन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 302 और 34 के तहत हत्या का दोषी पाया गया था। न्यायालय ने आगे कहा कि यह आवश्यक नहीं है कि सभी प्रतिभागी समान रूप से भाग लें। कम या ज्यादा रूप मे भाग लेना संभव है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि कम करने वाले व्यक्ति को दोष से मुक्त किया जाना चाहिए। उसकी कानूनी जिम्मेदारी भी दूसरे आरोपियों के समान ही रहेगी।

पांडुरंग बनाम हैदराबाद राज्य, 1955 के मामले में न्यायालय ने कहा कि एक व्यक्ति को दूसरे के कार्यों के लिए प्रत्यक्ष रूप से जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता है यदि अपराध करने का उनका उद्देश्य सामान्य नहीं था। यदि उनका कार्य दूसरे के कार्य से स्वतंत्र है तो यह सामान्य इरादा नहीं है। यह समान उद्देश्य के लिए जाना जाएगा।

राम बिलास सिंह बनाम बिहार राज्य, 1963 के मामले में, न्यायालय ने निर्धारित किया कि सामान्य इरादे से उस कार्य में लिप्त प्रत्येक व्यक्ति के लिए सजा की अवधि अपराध के प्रकार और डिग्री द्वारा निर्धारित की जाती है। 

छोटू बनाम महाराष्ट्र राज्य, 1998 के मामले में, शिकायतकर्ता पक्ष पर आरोपी द्वारा हमला किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप एक व्यक्ति की मौत हो गई थी। चश्मदीद गवाह के मुताबिक तीन लोग मृतकों को गालियां दे रहे थे, जबकि चौथा वहां हाथ में चाकू लिए खड़ा था। यह माना गया कि आई.पी.सी. की धारा 34 के साथ पठित धारा 302 के तहत चार में से केवल तीन आरोपी जिम्मेदार थे, और चौथे का समान उद्देश्य नहीं था।

महबूब शाह बनाम एंपरर, 1945 के मामले में अपीलकर्ता महबूब शाह को सत्र न्यायाधीश द्वारा अल्लाहदाद  की हत्या का दोषी पाया गया था। सत्र न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) द्वारा उन्हें दोषी पाया गया और मौत की सजा दी गई थी। उच्च न्यायालय ने भी मृत्युदंड की पुष्टि की थी। लॉर्डशिप की अपील पर हत्या की सजा और मौत की सजा को उलट दिया गया था। जब अल्लाहदाद और हमीदुल्लाह ने भागने की कोशिश की, वली शाह और महबूब शाह उनके बगल में आए और गोलीबारी की, और इसलिए इस बात का सबूत था कि उन्होंने एक सामान्य इरादा बनाया था, ऐसा इस मामले में कहा गया था।

विलियम स्टेनली बनाम मध्य प्रदेश राज्य, 1956 के मामले में, आरोपी 22 वर्षीय युवक था जो मृतक की बहन से प्रेम करता था। मृतक ने उनकी निकटता की सराहना नहीं की। घटना के दिन मृतक और आरोपी के बीच कहासुनी हो गई थी और आरोपी को घर छोड़ने का आदेश दिया गया था। बाद में आरोपी अपने छोटे भाई के साथ लौटा और मृतक की बहन को बुलाया। बहन की जगह मृतक भाई हाजिर हुआ। शब्दों का एक उग्र आदान-प्रदान शुरू हुआ। आरोपी ने पीड़ित के गाल पर वार किया। इसके बाद आरोपी ने अपने छोटे भाई की हॉकी स्टिक ली और मृतक के सिर पर प्रहार किया, जिससे उसका सिर टूट गया। दस दिन बाद, मृतक की अस्पताल में मौत हो गई। डॉक्टर के अनुसार, क्षति काफी गंभीर थी जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु हो गई थी। दोनों आरोपियों और उनके सह-आरोपी भाई पर आई.पी.सी. की धारा 302 और 34 के तहत हत्या का आरोप लगाया गया था।

कृष्णन बनाम केरल राज्य, 1996 के मामले में, न्यायालय ने कहा कि इस धारा के तहत आवश्यक तत्व एक सामान्य इरादे को आगे बढ़ाने में किया गया आपराधिक कार्य है, और धारा 34 को आकर्षित करने के लिए किसी और चीज की आवश्यकता नहीं है। हालांकि अदालत यह निर्धारित करने में किसी भी खुले कार्य के बारे में सुनना चाहेगी कि क्या व्यक्ति का एक सामान्य इरादा था, अदालत ने जोर दिया कि एक खुले कार्य का गठन धारा 34 के लिए एक अनिवार्य शर्त नहीं है।

खाचेरू सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1955 के मामले में, कई लोगों ने एक व्यक्ति पर लाठियों से हमला किया, जब वह एक खेत में जा रहा था। वह आदमी उनके पास से भाग निकला, और जब उन्होंने उसे पकड़ लिया, तो उन्होंने उसके साथ मारपीट की। यह निर्धारित किया गया था कि मामले के तथ्य यह स्थापित करने के लिए पर्याप्त थे कि आरोपी पक्षों ने अपराध करने में एक सामान्य उद्देश्य साझा किया था। नतीजतन, यहां सबसे महत्वपूर्ण बात साझा इरादे को प्रदर्शित करना है, जो किसी भी तरह से किया जा सकता है।

निष्कर्ष

जब एक से अधिक व्यक्ति अपराध करते हैं, तो प्रत्येक व्यक्ति के उद्देश्य और भाग की पहचान करने में मामला और अधिक जटिल हो जाता है। ऐसे मामलों में साझा अपराधीता की धारणा का उपयोग किया जाता है। यह महत्वपूर्ण है कि आरोपी सक्रिय रूप से आपराधिक कार्य में भाग लेते हैं, जबकि वह परिणामों से अवगत होते हैं और एक सामान्य इरादे को साझा करते हैं। हालांकि, सामान्य इरादा आरोपी के कार्यों और आचरण के साथ-साथ मामले के तथ्यों के लिए सहायक होना चाहिए।

आम तौर पर पूछे जाने वाले प्रश्न

  1. क्या एक वास्तविक अपराध गठित करने के लिए सामान्य इरादा पर्याप्त है?

धारा 34 एक प्रमाणिक विनियमन (रेगुलेशन) है जो एक वास्तविक अपराध उत्पन्न नहीं करता है। धारा 34 को उन स्थितियों को संबोधित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है जिनमें अलग-अलग कार्यों के बीच अंतर करना मुश्किल हो सकता है।

2. क्या मौके पर ही सामान्य इरादा बन सकता है?

सर्वोच्च न्यायालय ने कृपाल सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1954 में फैसला किया कि अपराधियों के वहां एकत्र होने के बाद एक सामान्य इरादा उस जगह पर मौजूद हो सकता है। पूर्व रणनीति की आवश्यकता नहीं है। आरोपी के व्यवहार और मामले के तथ्यों का इस्तेमाल सामान्य इरादे को स्थापित करने के लिए किया जा सकता है।

3. क्या किसी अपराध के संचालन से पहले साझा उद्देश्य के लिए हमेशा आना आवश्यक है?

यह साबित होना चाहिए कि आपराधिक कार्य एक पूर्व नियोजित योजना के समन्वय (कोऑर्डिनेट) में किया गया था। यह समय पर कार्य को करने से पहले मौजूद है, लेकिन यह एक बड़ा अंतराल नहीं होना चाहिए। यदि अंतराल बहुत लंबा नहीं है, तो कभी-कभी मौके पर ही सामान्य इरादा बनाया जा सकता है।

संदर्भ

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