मध्यस्थता और सुलह अधिनियम 1966 की धारा 26

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यह लेख Janani Parvathy J, द्वारा लिखा गया है और इसमें मध्यस्थता और सुलह (आर्बिट्रेशन एंड कॉन्सिलिएशन) अधिनियम, 1966 की धारा 26 का विस्तृत विश्लेषण शामिल है। लेख में धारा 26 के अलग-अलग तत्वों की व्याख्या, धारा 26 के अंतर्गत विशेषज्ञों के प्रकार, भारतीय साक्ष्य अधिनियम के साथ अंतर्संबंध तथा धारा 26 पर कुछ महत्वपूर्ण निर्णय शामिल हैं। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है। 

Table of Contents

परिचय

विवाद निवारण के लिए मध्यस्थता सर्वाधिक व्यापक रूप से प्रयुक्त तंत्रों में से एक बनती जा रही है। विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली कई कंपनियां, निगम और यहां तक कि सरकारें भी अपने विवादों को सुलझाने के लिए मध्यस्थता का उपयोग करती हैं। प्रतिष्ठित कानूनी फर्म खेतान और कंपनी द्वारा इन-हाउस वकीलों और कॉर्पोरेट अधिकारियों के बीच किए गए सर्वेक्षण से पता चला कि 40% लोग मुकदमेबाजी की तुलना में मध्यस्थता को प्राथमिकता देते हैं। वैश्विक मध्यस्थता समीक्षा में एंडर यह एससी और केल्विन पूह ने भी एशिया-प्रशांत क्षेत्र में मध्यस्थता के उपयोग में उल्लेखनीय वृद्धि पाई, जहां शीर्ष 5 मध्यस्थता सीटों में से 3 सीटें वहां स्थित हैं। इसके अलावा, भारत में भी कई सरकारी और गैर-सरकारी संगठन, जैसे वोडाफोन, बीएसएनएल, टाटा और सरकारी सार्वजनिक उपक्रम (एंटरप्राइज) मध्यस्थता को प्राथमिकता देते हैं। लेकिन, गुलाब के साथ कांटे भी आते हैं, मध्यस्थ के पास हमेशा विवाद के विशिष्ट क्षेत्र का पर्याप्त ज्ञान नहीं हो सकता है। 21वीं सदी अत्यंत जटिल और गतिशील है। अनेक प्रौद्योगिकियों, कंप्यूटर संबंधी आविष्कारों (सीआरआई), कानूनी जटिलताओं, नए विषय-वस्तुओं तथा क्वांटम, कृत्रिम बुद्धिमत्ता और वैज्ञानिक युद्धों जैसे नवीन उप-विभागों के आने से मध्यस्थ  के लिए अकेले निर्णय करना अत्यंत कठिन हो गया है। इसके अतिरिक्त, सभी जांचों और विश्लेषणों में कई चरणों में कई विभागीय अधिकारियों की सहायता की आवश्यकता होती है। ऐसी जटिल परिस्थितियों से कुशलता और विशेषज्ञता के साथ निपटने तथा न्यायाधिकरणों द्वारा त्रुटि की संभावनाओं को न्यूनतम करने के लिए, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (जिसे आगे ‘अधिनियम’ कहा जाएगा) की धारा 26 लागू की गई। धारा 26 न्यायाधिकरण की सहायता के लिए विशेषज्ञों को उनके विशेषज्ञ ज्ञान के साथ लाने से संबंधित है। 

मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम की धारा 26 का खंडवार स्पष्टीकरण

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 में दो बार संशोधन किया गया, पहली बार 2015 में और फिर 2019 में संशोधन किया गया। यद्यपि इन संशोधनों के माध्यम से कई परिवर्तन किए गए, लेकिन धारा 26 का मूल विषय वही रहा, जबकि धारा का क्रम बदल गया है। मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 26 में विशेषज्ञों की नियुक्ति का प्रावधान है। इस धारा में कुल 3 खंड और 2 उप-खंड हैं।

खंड 1

1(a) पहला खंड मध्यस्थ न्यायाधिकरण को एक विशेषज्ञ को नियुक्त करने का अधिकार देता है जो उन्हें हल किए जाने वाले विशिष्ट मुद्दों पर रिपोर्ट देकर उनकी सहायता करेगा।

1(b) उप-खण्ड दो, पक्षों को किसी भी दस्तावेज, किसी भी प्रासंगिक दस्तावेज पर जानकारी, या निरीक्षण के लिए आवश्यक कोई भी सामान उपलब्ध कराकर विशेषज्ञ की सहायता करने का अधिकार देता है।

मध्यस्थता में, पक्षों को सभी अनुरोधित रिपोर्ट और दस्तावेज निर्दिष्ट समय अवधि के भीतर प्रस्तुत करने की आवश्यकता होती है; यदि निर्दिष्ट नहीं है, तो उचित समय के भीतर। 

खंड 2

खंड 2 मध्यस्थता कार्यवाही की मौखिक सुनवाई में विशेषज्ञों की भागीदारी की अनुमति देता है, बशर्ते कि उनकी उपस्थिति आवश्यक समझी जाए। इससे न केवल पक्षों को विशेषज्ञ की जांच करने का मौका मिलता है, बल्कि विशेषज्ञ के बयानों की विश्वसनीयता स्थापित करने में भी मदद मिलती है, साथ ही रिपोर्ट में पहचाने गए किसी भी संदेह या विसंगतियों को स्पष्ट करने में भी मदद मिलती है। 

खंड 3

यह खंड विशेषज्ञ को यह अधिकार देता है कि वह रिपोर्ट तैयार करने के लिए, न्यायाधिकरण द्वारा जांच के लिए या पक्षों के अनुरोध पर, पक्षों को वह संपत्ति, दस्तावेज और सामान उपलब्ध कराए जो उसके कब्जे में है और जिसका उसने रिपोर्ट तैयार करने के लिए उपयोग किया है। 

धारा 26 की प्रयोज्यता के लिए आवश्यक तत्व 

  • विशेषज्ञ की सलाह लेने के लिए दोनों पक्षों की सहमति होनी चाहिए।
  • विशेषज्ञ की नियुक्ति केवल मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा ही की जा सकती है।
  • धारा के खंड 2 और 3, अर्थात् गवाह की मौखिक परीक्षा और विशेषज्ञ द्वारा प्रयुक्त प्रासंगिक दस्तावेजों को प्रस्तुत करना, केवल तभी लागू होगा जब किसी भी पक्ष द्वारा अनुरोध किया जाए, न्यायाधिकरण द्वारा आवश्यक समझा जाए, और केवल तभी जब दोनों पक्षों द्वारा स्वीकार किया जाए। 

‘विशेषज्ञ’ के लिए कौन योग्यता रखता है?

किसी विशेषज्ञ की योग्यता का उल्लेख विभिन्न विधियों और उदाहरणों में किया गया है। मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 26 के अलावा, मध्यस्थता कार्यवाही में एक विशेषज्ञ की योग्यता का उल्लेख अंतर्राष्ट्रीय बार एसोसिएशन नियमों के अनुच्छेद 5.2.c, यूनिसिटरल (अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कानून पर संयुक्त राष्ट्र आयोग) मॉडल कानून के अनुच्छेद 29, डब्ल्यूआईपीओ (विश्व बौद्धिक संपदा संगठन) मध्यस्थता और बिचवई (मीडिएशन) नियमों के अनुच्छेद 55, अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य चेंबर नियम, 2021 के अनुच्छेद 25 और सियार्ब शिष्टाचार (प्रोटोकॉल), 2007 में भी किया गया है।  

  • अंतरराष्ट्रीय बार एसोसिएशन के अनुच्छेद 5 और 6 में मध्यस्थता विशेषज्ञों के बारे में विस्तार से बात की गई है। अनुच्छेद 5(2)(c) विशेषज्ञ को पक्षों, उनके वकील और मध्यस्थ न्यायाधिकरण से अपनी स्वतंत्रता प्रदर्शित करने के लिए एक बयान प्रस्तुत करने का आदेश देता है। इसी नियम के अनुच्छेद 6(1) में न्यायाधिकरण द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ की ‘स्वतंत्रता’ की भी अपेक्षा की गई है। अनुच्छेद 6(2) में विशेषज्ञ से विवाद के विषय में अपनी योग्यता का विवरण प्रस्तुत करने की भी अपेक्षा की गई है। इसके अलावा, अनुच्छेद 6(4)(c) के अनुसार विशेषज्ञ रिपोर्ट साक्ष्य, तर्क द्वारा समर्थित होनी चाहिए। 
  • यूनिसिटरल मध्यस्थता की धारा 29 में यह अनिवार्य किया गया है कि मध्यस्थता विशेषज्ञ ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो पर्याप्त रूप से योग्य, निष्पक्ष और स्वतंत्र हो। 
  • डब्ल्यूआईपीओ मध्यस्थता नियम यह भी निर्दिष्ट करते हैं कि विशेषज्ञ सक्षम और स्वतंत्र होना चाहिए। 
  • अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य चेंबर (आईसीसी) ने एक दस्तावेज प्रकाशित किया है, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि विशेषज्ञ को निष्पक्ष और स्वतंत्र होना चाहिए, अर्थात उसका किसी भी पक्ष या मध्यस्थ न्यायाधिकरण से कोई संबंध नहीं होना चाहिए। 
  • 2018 क्वीन मैरी विश्वविद्यालय अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता सर्वेक्षण ने निष्कर्ष निकाला कि विशेषज्ञों को मध्यस्थों के समान निष्पक्षता और स्वतंत्रता के मानकों का पालन करना चाहिए। कॉमनवेल्थ कोटिंग्स कॉरपोरेशन बनाम कॉन्टिनेंटल कैजुअल्टी कंपनी 393 यूएस 145 में न्यायमूर्ति ब्लैक ने कहा कि मध्यस्थों को पूर्वाग्रह के बारे में उठने वाले सभी संदेहों का समाधान करना चाहिए, तथा उपरोक्त तर्क को लागू करना चाहिए, यहां तक कि मध्यस्थता विशेषज्ञों को भी इसका पालन करना चाहिए। 
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम और मध्यस्थता कानूनों के विश्लेषण से पता चलता है कि दोनों के तहत विशेषज्ञ साक्ष्य समान हैं। इसलिए, हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम जय लाल एवं अन्य (1999) में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया यह निर्णय कि विशेषज्ञ गवाह के रूप में योग्यता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को विषय का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए, उस विषय में विशेष अध्ययन किया होना चाहिए या उस विषय में प्रशिक्षण प्राप्त किया होना चाहिए तथा अपने दावों को तर्क के साथ समर्थित करने में सक्षम होना चाहिए, मध्यस्थता विशेषज्ञों पर भी लागू होगा। 
  • हाजी मोहम्मद इकरामुल हेग बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1958) में अपीलीय अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि मध्यस्थता के तहत नियुक्त विशेषज्ञ ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो अपने सिद्धांत को तर्क और तथ्यों के साथ समर्थित करने में सक्षम हो। 

मध्यस्थता अधिनियम और अन्य अंतर्राष्ट्रीय नियमों के विश्लेषण के बाद, एक विशेषज्ञ की निम्नलिखित योग्यताओं का अनुमान लगाया जा सकता है: 

  • निष्पक्षता और स्वतंत्रता: विशेषज्ञ का किसी भी तरह से न तो पक्षों से और न ही मध्यस्थों से कोई संबंध होना चाहिए। विशेषज्ञ का किसी एक पक्ष के प्रति कोई पूर्व पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिए। विशेषज्ञ को अपनी सहायता अवधि के दौरान अपना कर्तव्य पेशेवर और निष्पक्ष तरीके से निभाना चाहिए। प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुसार निष्पक्षता न्यायिक कार्यवाही के आधारभूत सिद्धांतों में से एक है। 2018 क्वीन मैरी विश्वविद्यालय अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता सर्वेक्षण ने निष्कर्ष निकाला कि विशेषज्ञों को मध्यस्थों के समान निष्पक्षता और स्वतंत्रता के मानकों का पालन करना चाहिए। 
  • विशिष्ट विषय पर जानकार: विशेषज्ञ से उसकी विशेषज्ञता, ज्ञान और कौशल प्रदान करके मध्यस्थता कार्यवाही में सहायता करने के लिए परामर्श किया जाता है। न्यायाधिकरण आमतौर पर कानून, प्रौद्योगिकी, विपणन (मार्केटिंग), विज्ञान और नवाचार तथा कला जैसे क्षेत्रों के विशेषज्ञों से परामर्श करते हैं तथा विषय के सभी पहलुओं के जानकार व्यक्तियों की मांग करते हैं। 
  • पहले का अनुभव: विशिष्ट क्षेत्र में विशेषज्ञता, साथ ही वांछनीय पूर्व कार्य अनुभव और शोध कार्य, वे कारक हैं जिन्हें न्यायाधिकरण और पक्ष किसी विशेषज्ञ की तलाश करते समय देखते हैं। पूर्व अनुभव या तो उस विशिष्ट क्षेत्र में अध्ययन करके या उस क्षेत्र में कार्य करके प्राप्त किया जा सकता है। 
  • शैक्षिक रिकॉर्ड: उत्कृष्ट शैक्षणिक रिकॉर्ड वाले तथा शीर्ष महाविद्यालयों से स्नातक या शिक्षक व्यक्तियों को ही अधिकतर विशेषज्ञ के रूप में नियुक्त किया जाता है। 

एक विशेषज्ञ की आवश्यकता

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 26 को सम्मिलित करने के पीछे का उद्देश्य मध्यस्थता कार्यवाही में विशेषज्ञ सलाह के महत्व पर प्रकाश डालना है। मध्यस्थता में कई जटिल सिद्धांत, विशिष्ट शब्द और सिद्धांत शामिल हो सकते हैं जो मध्यस्थों के लिए अज्ञात होते हैं। इस मामले में कला, विज्ञान और व्यवसाय जैसे विभिन्न क्षेत्रों के तकनीकी पहलू शामिल हो सकते हैं। ऐसी स्थितियों में निर्णय लेने के लिए विशेषज्ञों की बाह्य सहायता लेना अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है। उदाहरण के लिए, अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता में, उस देश के नियमों को समझाने के लिए किसी विदेशी कानूनी विशेषज्ञ की सहायता आवश्यक हो सकती है, या वैज्ञानिक प्रगति से संबंधित किसी मामले के लिए किसी वैज्ञानिक की राय भी आवश्यक हो सकती है। 

सामान्यतः, किसी आवश्यक परिसम्पत्तियों का मूल्यांकन करने, साइट निरीक्षण करने, वैज्ञानिक नवाचारों या आगामी प्रौद्योगिकियों पर विशेषज्ञ राय प्रदान करने, या सम्पूर्ण स्थिति का विशेषज्ञ विश्लेषण करने के लिए भी किसी विशेषज्ञ की आवश्यकता हो सकती है। क्वांटम विशेषज्ञों की बढ़ती मांग इस बात को उजागर करती है। एक विशेषज्ञ कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेजों जिन तक गोपनीयता या विशेषाधिकार प्रतिबंधों के कारण पहुंच नहीं हो सकती, के प्रकटीकरण में भी मदद कर सकता है। इसके अतिरिक्त, पक्षों को विशेषज्ञ गवाह पेश करने का अवसर भी दिया जाता है जो उनके मामले को पुष्ट कर सकते हैं तथा उनके सिद्धांत का समर्थन कर सकते हैं। न्यायाधिकरण के निर्णय को प्रभावित करने में विशेषज्ञ साक्ष्य एक महत्वपूर्ण कारक बन सकता है। 

हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम जय लाल एवं अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “एक विशेषज्ञ गवाह को न्यायाधीश को निष्कर्षों की सटीकता की जांच के लिए आवश्यक वैज्ञानिक मानदंड प्रदान करने की आवश्यकता होती है, ताकि न्यायाधीश मामले के तथ्यों के आधार पर इस मानदंड का उपयोग करके अपना स्वतंत्र निर्णय ले सकें। वैज्ञानिक राय का साक्ष्य, यदि समझने योग्य, विश्वसनीय और परीक्षण योग्य हो, तो अक्सर मामले के अन्य साक्ष्यों के साथ विचार के लिए एक महत्वपूर्ण कारक बन जाता है। 

कोविंगटन एंड बर्लिंग एलएलपी के प्रसिद्ध विधि पेशेवर श्री स्टीफन बॉन्ड ने विशेषज्ञ साक्ष्य के महत्व पर चर्चा करते हुए कहा कि: 

“सक्षम और पेशेवर विशेषज्ञता के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अनुभवी विशेषज्ञ महंगे होते हैं, विशेष रूप से उन मामलों में जिनमें विलंब विश्लेषण और क्षति परिमाणीकरण जैसे जटिल प्रश्नों की आवश्यकता होती है।” 

एम.एस. कमर्शियल बनाम कालीकट इंजीनियरिंग वर्क्स लिमिटेड (2004) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तलेखन विशेषज्ञ द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य पर पूरी तरह से भरोसा करते हुए यह निर्णय दिया कि मध्यस्थता समझौता अस्तित्व में है। कुछ निर्णयों और उदाहरणों के आधार पर हम यह वर्गीकृत कर सकते हैं कि विशेषज्ञों की आवश्यकता निम्नलिखित के लिए है: 

  • विशेषज्ञता: विज्ञान, प्रौद्योगिकी, भूगोल आदि जैसे कई तकनीकी मामलों में न्यायाधिकरण को उस विषय पर विशेषज्ञता और ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों की आवश्यकता हो सकती है। उन्हें कुछ अवधारणाओं को समझाने या मुद्दों पर अपनी राय देने की आवश्यकता हो सकती है। 
  • कानूनी सहायता: दो अलग-अलग देशों के कानून प्रायः हमेशा भिन्न होते हैं, और कुछ मामलों में तो विरोधाभासी भी होते हैं। ऐसे मामलों में, अदालत को स्पष्टीकरण देने के लिए कानूनी विशेषज्ञों को नियुक्त किया जाता है।
  • गवाह: पक्षों को अपने मामले के समर्थन में न्यायाधिकरण के समक्ष अपने स्वयं के विशेषज्ञों को पेश करने की भी अनुमति है। पक्षों को अपनी बात को पुष्ट करने तथा न्यायाधीश को अपनी कहानी समझाने के लिए ऐसे विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है। 
  • रिपोर्ट तैयार करना: विशेषज्ञों से भी विशेष मुद्दे का अध्ययन करने और न्यायालय की सहायता के लिए रिपोर्ट तैयार करने को कहा जा सकता है। 
  • अन्य सहायता: मुकदमे के दौरान आवश्यक छोटी-छोटी गतिविधियों में अदालत की सहायता के लिए विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, फर्म का लेखा परीक्षा (ऑडिट) करने के लिए एक लेखापाल (एकाउंटेंट) की आवश्यकता हो सकती है, या पहचान स्थापित करने के लिए एक हस्तलेखन विशेषज्ञ की आवश्यकता हो सकती है। 

विशेषज्ञ की नियुक्ति कौन करता है?

धारा 26 के अंतर्गत विशेषज्ञों की नियुक्ति पक्ष और न्यायाधिकरण दोनों द्वारा की जा सकती है। जबकि न्यायाधिकरण विशेषज्ञों की राय और ज्ञान के लिए उन्हें नियुक्त कर सकता है, पक्ष उन्हें गवाह के रूप में नियुक्त कर सकते हैं। धारा 26 पक्षों को “विवादित बिंदुओं पर गवाही देने के लिए विशेषज्ञ गवाहों को पेश करने” की अनुमति देती है। धारा 26 के साथ-साथ मध्यस्थता अधिनियम की धारा 20(3) और धारा 27 में यह भी निर्दिष्ट किया गया है कि पक्ष अपने मामले को स्थापित करने या विसंगतियों को हल करने में सहायता के लिए व्यक्तिगत रूप से विशेषज्ञों की नियुक्ति कर सकते हैं। 

मौखिक सुनवाई में विशेषज्ञ कब भाग लेता है?

धारा 26(1) के अनुसार, यदि पक्षों द्वारा अनुरोध किया जाए या आवश्यक समझा जाए तो विशेषज्ञ मौखिक सुनवाई में भाग ले सकते हैं। इस धारा में यह भी प्रावधान है कि न्यायाधिकरण के समक्ष किसी विशेषज्ञ से प्रश्न पूछे जा सकते हैं तथा दोनों पक्ष उससे पूछताछ कर सकते हैं। हालाँकि, अधिनियम में मौखिक सुनवाई और विशेषज्ञ की परीक्षा के लिए अपनाई जाने वाली किसी प्रक्रिया या विधि का उल्लेख नहीं किया गया है। विशेषज्ञ साक्ष्य की स्वीकार्यता के लिए, उसका मौखिक कार्यवाही में भाग लेना आवश्यक है। धारा 26 प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों से बंधी है, अर्थात, विशेषज्ञ की विश्वसनीयता स्थापित करने या उसे गलत साबित करने तथा निष्पक्ष न्यायिक कार्यवाही के लिए दोनों पक्षों को गवाहों की जांच करने का अवसर दिया जाना चाहिए। 

रमेश चंद्र अग्रवाल बनाम रीजेंसी हॉस्पिटल लिमिटेड एवं अन्य (2009) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “विशेषज्ञ साक्ष्य को स्वीकार्य बनाने के लिए पहली और सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता यह है कि विशेषज्ञ साक्ष्य को सुना जाना आवश्यक है।”

हाजी मोहम्मद इकरामुल हेग बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1958) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखा और विशेषज्ञ के साक्ष्य को अविश्वसनीय माना, क्योंकि मौखिक सुनवाई में विशेषज्ञ की जांच नहीं की गई थी। 

ये उदाहरण हमें यह निष्कर्ष निकालने में मदद करते हैं कि, अप्रत्यक्ष रूप से, मौखिक सुनवाई में किसी विशेषज्ञ की भागीदारी आवश्यक है। मौखिक सुनवाई में विशेषज्ञ की गैर-भागीदारी न्यायाधिकरण द्वारा प्रतिकूल निष्कर्ष पर पहुंचा सकती है और गवाह का उपयोग करने का पूरा उद्देश्य ही नष्ट हो सकता है।  

मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1966 की धारा 26 के अनुसार विशेषज्ञ के दायित्व क्या हैं?

  • विशेषज्ञ राय और विश्लेषण प्रदान करना तथा न्यायालय की चिंताओं का समाधान करना।
  • यदि आवश्यक हो तो मौखिक सुनवाई में भाग लेना तथा न्यायालय एवं पक्षों द्वारा पूछे गए प्रश्नों का ठोस तर्क, साक्ष्य और उचित कारणों के साथ उत्तर देना।
  • पक्षों को वे सभी दस्तावेज, रिपोर्ट, पुस्तकें, तथ्य और वस्तुएं उपलब्ध कराना जिन पर विशेषज्ञ ने अपनी राय बनाने के लिए भरोसा किया था। 

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1966 की धारा 26 के अनुसार पक्षों के दायित्व क्या हैं?

  • पक्षों को मामले से संबंधित सभी आवश्यक दस्तावेज, तथ्य, रिपोर्ट, सामान और संपत्ति विशेषज्ञ को विश्लेषण के लिए उपलब्ध करानी होगी।
  • यदि आवश्यकता हो तो पक्षों को विशेषज्ञ से मौखिक परीक्षा का भी अनुरोध करना होगा।
  • विशेषज्ञ द्वारा अपनी रिपोर्ट तैयार करने के लिए उपयोग किए गए दस्तावेज, सामान और संपत्ति केवल तभी प्राप्त की जा सकती है जब पक्षों द्वारा अनुरोध किया जाए। 

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1966 की धारा 26 के तहत नियुक्त विशेषज्ञों के प्रकार

धारा 26 न्यायाधिकरण को न केवल विशेषज्ञों की नियुक्ति करने का अधिकार देती है, बल्कि पक्षों को अपने स्वयं के विशेषज्ञ गवाह लाने की भी अनुमति देती है। आईसीसी सिंगापुर के एक प्रसिद्ध मध्यस्थ और न्यायाधीश डग जोन्स एओ का मानना है कि विशेषज्ञों को आमतौर पर निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है: 

  • तकनीकी विशेषज्ञ: जब विवाद ज्ञान के किसी विशेष क्षेत्र से संबंधित हो, तो किसी विशेषज्ञ की राय या सलाह की आवश्यकता होगी। प्राकृतिक विज्ञान, अर्थशास्त्र, व्यवसाय प्रशासन, विपणन आदि क्षेत्रों में विशेषज्ञता प्रदान करने के लिए तकनीकी विशेषज्ञों की आवश्यकता हो सकती है। न्यायाधिकरण द्वारा नियुक्त तकनीकी विशेषज्ञ, सिविल कानून वाले देशों में व्यापक रूप से अपनाई जाने वाली प्रथा है।
  • कानूनी विशेषज्ञ: मध्यस्थों के ज्ञान से परे कानूनी पहलुओं और मुद्दों को स्पष्ट करने के लिए अक्सर कानूनी विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है। मध्यस्थ न्यायाधिकरण आमतौर पर जटिल कानूनी प्रक्रियाओं या नियमों को समझाने, अन्य देशों के नियमों की जानकारी देने तथा अंतर्राष्ट्रीय विवादों में अधिकार क्षेत्र तय करने में मदद करने के लिए कानूनी विशेषज्ञों की नियुक्ति करता है। उन्हें सिविल और सामान्य कानून वाले दोनों देशों में व्यापक रूप से नियुक्त किया जाता है।
  • विलंब विशेषज्ञ: विलंब विशेषज्ञ सबसे व्यापक रूप से उपयोग किए जाने वाले विशेषज्ञों में से एक हैं। वे तथ्यों को छांटते हैं और न्यायाधिकरण को बताते हैं कि कोई घटना कैसे और क्यों घटित हुई। ये विशेषज्ञ न्यायाधीशों द्वारा दिए गए फैसले को प्रभावित करने की भी शक्ति रखते हैं।
  • क्वांटम विशेषज्ञ: वे न्यायाधिकरण को हानि या लाभ का क्वांटम आकलन प्रदान करते हैं, तथा मामले से संबंधित परिसंपत्तियों का मूल्यांकन करते हैं। इस प्रकार के विशेषज्ञों की नियुक्ति ज्यादातर विलय (मर्जर) अधिग्रहण, दिवालियापन (बैंकरप्सी) या कंपनियों के बीच वित्तीय विवादों के मामले में की जाती है। 

साक्ष्य अधिनियम और मध्यस्थता अधिनियम में विशेषज्ञ गवाह का अंतर्संबंध

यद्यपि, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 19(1) में कहा गया है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872, मध्यस्थता कार्यवाही को बाध्य नहीं करेगा, धारा 26 के तहत विशेषज्ञ गवाह की अवधारणा भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 45 और 51 के समान है, जो विशेषज्ञ गवाह की प्रासंगिकता और स्वीकार्यता के आसपास के प्रावधान हैं। दुर्भाग्यवश, भारतीय साक्ष्य अधिनियम के विपरीत, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 में विशेषज्ञ साक्ष्य के लिए कोई विशिष्ट प्रक्रिया या निर्दिष्ट साक्ष्य मूल्य निर्दिष्ट नहीं किया गया है। हालाँकि, यूनिसिटरल  कानून, जर्मन और सिंगापुर मध्यस्थता नियम मौजूदा खामियों को दूर करते हैं।

विशेषज्ञ की परिभाषा:

भारतीय साक्ष्य अधिनियम और मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम के अनुसार विशेषज्ञ का अर्थ और योग्यताएं समान हैं। 

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 45 में विशेषज्ञ की स्पष्ट परिभाषा दी गई है। इसके अनुसार, विशेषज्ञ विशेष रूप से कुशल लोग होते हैं, जो न्यायालय को किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में सहायता करते हैं। 
  • हालाँकि, दूसरी ओर, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम कहीं भी किसी विशेषज्ञ के लिए कोई विशिष्ट परिभाषा प्रदान नहीं करता है। परिभाषा के भाग के लिए, मध्यस्थता से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय कानून इस कमी को पूरा करते हैं। यूनिसिटरल कानून की धारा 26 के अनुसार, विशेषज्ञ की परिभाषा विशिष्ट ज्ञान वाले ऐसे व्यक्ति के रूप में दी गई है, जो न्यायाधिकरण की सहायता के लिए नियोजित होता है। आईबीए नियमों के अनुसार न्यायाधिकरण द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ वह व्यक्ति या संगठन है, जिसे विशिष्ट मामलों पर न्यायाधिकरण को रिपोर्ट करने के लिए नियुक्त किया जाता है। 

विशेषज्ञों की भूमिका:

साक्ष्य अधिनियम और मध्यस्थता कानूनों के तहत विशेषज्ञ की भूमिका और उद्देश्य एक जैसे हैं। 

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुसार, न्यायालय के प्रश्नों को सुलझाने के लिए एक विशेषज्ञ को नियुक्त किया जाता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 45-50 में स्पष्ट किया गया है कि एक विशेषज्ञ को न्यायालय को बैलिस्टिक जानकारी, फिंगरप्रिंट विश्लेषण, हस्तलेख विश्लेषण, विदेशी कानून पर राय, चिकित्सा विश्लेषण, रीति-रिवाजों के अस्तित्व और यदि आवश्यक हो तो वैज्ञानिक सिद्धांतों की जानकारी देनी होगी। अधिनियम में मामला-दर-मामला आधार पर कुछ विशेषज्ञों, जैसे चिकित्सा विशेषज्ञों, बैलिस्टिक विशेषज्ञों और फोरेंसिक विशेषज्ञों की जांच का भी प्रावधान है। 
  • यद्यपि मध्यस्थता अधिनियम में विशेषज्ञ की भूमिका निर्धारित नहीं की गई है, लेकिन व्यापक रूप से यह स्पष्ट किया गया है कि विशेषज्ञों को अपने विशिष्ट ज्ञान और कौशल के माध्यम से न्यायालय की सहायता करनी चाहिए, अर्थात, यदि पूछा जाए तो रिपोर्ट या राय प्रदान करनी चाहिए। 

विशेषज्ञों का साक्ष्यात्मक मूल्य:

स्पष्ट रूप से, साक्ष्य अधिनियम और मध्यस्थता कानून विशेषज्ञ गवाहों को समान महत्व प्रदान करते हैं। 

  • साक्ष्य अधिनियम के अनुसार, किसी विशेषज्ञ गवाह का मूल्य उसके तथ्यों, राय के पीछे के तर्क और उसकी योग्यता पर निर्भर करता है। आमतौर पर, विशेषज्ञों द्वारा दिए गए साक्ष्य और राय सलाहकारी होती हैं। विशेषज्ञ की राय अदालत को अपना निष्कर्ष निकालने में मदद कर सकती है, लेकिन यह निर्णय के लिए एकमात्र मानदंड नहीं हो सकता। विशेषज्ञ का साक्ष्य अन्य गवाहों की पहले से मौजूद गवाही को भी रद्द नहीं कर सकता। एस. गोपाल रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1996) में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की व्याख्या करते हुए कहा कि “विशेषज्ञ साक्ष्य केवल एक राय है, न कि ठोस या सत्यापन योग्य साक्ष्य है। प्रक्रियात्मक नियमों के अनुसार, विशेषज्ञों की राय का कोई स्वतंत्र मूल्य नहीं होता है और उसे परिस्थितिजन्य साक्ष्यों से पुष्ट किया जाना चाहिए।”
  • यद्यपि मध्यस्थता अधिनियम विशेषज्ञ सलाह के साक्ष्यात्मक मूल्य को संबोधित नहीं करता है, परन्तु न्यायालय के निर्णय ऐसा करते हैं। मलय कुमार गांगुली बनाम डॉ. सुकुमार मुखर्जी (2009) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि विशेषज्ञों की राय केवल सलाहकार प्रकृति की होती है और न्यायालय को उन्हें स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। 

विशेषज्ञों की जांच:

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम और सभी मध्यस्थता कानून विशेषज्ञ की जांच की अनुमति देते हैं। इस प्रकार की जांच के पीछे उद्देश्य पक्षों को विशेषज्ञ राय बनाने के पीछे के तर्क और प्रेरकता को स्थापित करने या नष्ट करने का अवसर प्रदान करना है। दोनों कानूनों के अनुसार, न्यायालय द्वारा विशेषज्ञ की राय पर भरोसा करने के लिए उसकी जांच आवश्यक है। जांच न किए जाने पर न्यायालय प्रतिकूल निष्कर्ष पर पहुंच सकता है। 
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम और मध्यस्थता अधिनियम के अनुसार विशेषज्ञों की मुख्य परीक्षा और प्रति परीक्षा की जा सकती है। दोनों कानूनों के तहत विशेषज्ञ की जांच प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करती है, अर्थात दोनों कानूनों के तहत दोनों पक्षों को विशेषज्ञ से प्रश्न पूछने की अनुमति है। उन्हें विशेषज्ञ द्वारा अपनी राय बनाने के लिए उपयोग किये गये स्रोतों का निरीक्षण करने की भी अनुमति है। 

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1966 की धारा 26 पर मामले 

महावीरचंद पुत्र सुगनचंद देवड़ा बनाम आशयकुमार पुत्र भावरसिंग पारख (2011)

महावीरचंद बनाम आशयकुमार भावरसिंग पारख मामले में, उस आवश्यकता और परिस्थितियों की व्याख्या की गई है जिसके तहत एक विशेषज्ञ मध्यस्थ की नियुक्ति की जा सकती है। इसमें विशेषज्ञ के कुछ कर्तव्यों का भी उल्लेख किया गया है। इसमें मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 17 और धारा 26 के बीच अंतर पर भी चर्चा की गई है। इस मामले में न्यायालय ने माना कि विशेषज्ञ साक्ष्य न्यायाधिकरण प्रक्रिया में एक सहायक कदम था। 

मामले के तथ्य

  • अपीलकर्ता, अर्थात महावीरचंद पुत्र सुगनचंद और प्रतिवादी अर्थात आशयकुमार पुत्र भावरसिंग, बम्बई में साझेदारी फर्म मेसर्स पारस के साझेदार हैं। वे खुदरा विक्रेता हैं जो रेमंड मिल्स द्वारा निर्मित कपड़ों की बिक्री करते हैं। एक दिन, दोनों साझेदारों के बीच विवाद उत्पन्न हो गया और प्रतिवादी 1 यानी, अशयकुमार ने उन्हें हल करने के लिए मध्यस्थता न्यायाधिकरण की नियुक्ति की मांग करते हुए बॉम्बे उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 
  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा कि चूंकि साझेदारी विलेख (डीड) में विवाद समाधान के लिए पहले से ही मध्यस्थता का उल्लेख है, इसलिए मध्यस्थ न्यायाधिकरण की नियुक्ति संभव है। मध्यस्थता न्यायाधिकरण की नियुक्ति की गई और इसमें दो चार्टर्ड एकाउंटेंट और एक पीठासीन अधिकारी शामिल थे। 
  • दोनों पक्षों ने एक-एक चार्टर्ड अकाउंटेंट नियुक्त किया तथा न्यायालय ने सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री न्यायमूर्ति एन.पी.चपलगांवकर को पीठासीन अधिकारी नियुक्त किया।

मध्यस्थ न्यायाधिकरण के समक्ष दावेदारों के तर्क

  • मध्यस्थता का अनुरोध करने वाले पक्ष ने न्यायाधिकरण के समक्ष प्रार्थना की कि:
  1. साझेदारी फर्म को भंग कर दिया जाता है और फर्म की सभी परिसंपत्तियों और संपत्तियों को साझेदारों के बीच उनके हिस्से के आधार पर विभाजित कर दिया जाता है। 
  2. फर्म के निगमन की तिथि से लेकर अब तक के खाते दावेदारों को दे दिए जाते हैं तथा फर्म का मूल्यांकन करने तथा विस्तृत लेखा-परीक्षण करने के लिए एक स्वतंत्र निष्पक्ष लेखा परीक्षक की नियुक्ति की जाती है। 
  • इसके अलावा, दावेदार मध्यस्थ न्यायाधिकरण के समक्ष अनुरोध करता है कि:
  1. फर्म का लेखापरीक्षण करने के लिए एक योग्य विशेषज्ञ को आंतरिक लेखापरीक्षक के रूप में नियुक्त किया जाता है। विशेषज्ञ द्वारा अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने हेतु एक विशिष्ट समय अवधि निर्धारित की जाएगी।
  2. नियुक्त विशेषज्ञ आवश्यकता पड़ने पर प्रौद्योगिकी विशेषज्ञों से सहायता ले सकते हैं।
  3. प्रतिवादियों को सभी चीजें साझा करने के लिए निर्देशित किया जाना चाहिए, अर्थात सभी लेखा पुस्तकें, दस्तावेज, सीडी फाइलें और अन्य चीजें जिनकी लेखापरीक्षा प्रयोजनों के लिए लेखापरीक्षक को आवश्यकता हो सकती है।
  4. दावेदार या उसके प्रतिनिधियों को लेखापरीक्षा कार्यवाही पूरी होने तक पूरे समय उपस्थित रहने की अनुमति है।

न्यायाधिकरण का निर्णय

  • दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद न्यायाधिकरण ने दावेदारों द्वारा लगाए गए वित्तीय आरोपों के दावे की पुष्टि के लिए एक विशेषज्ञ लेखा परीक्षक की नियुक्ति करना आवश्यक पाया। इसलिए सर आर.बी.चंडक को लेखा परीक्षक नियुक्त किया गया। यह नोट किया गया कि लेखा परीक्षक को सत्य और पूर्ण लेखा परीक्षा के लिए प्रतिवादियों द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले किसी भी दस्तावेज, रिपोर्ट या वित्तीय विवरण को मांगने का पूरा अधिकार होगा। लेखापरीक्षा रिपोर्ट एक महीने के भीतर जमा करानी होगी। इसी उद्देश्य से दावेदार को मध्यस्थ के पास एक लाख रुपए जमा कराने को कहा गया। 
  • उपरोक्त आदेश मध्यस्थता सुलह अधिनियम की धारा 17 के तहत पारित किया गया। 

उठाए गए मुद्दे 

  1. क्या इस मामले में किसी विशेषज्ञ की नियुक्ति आवश्यक थी?
  2. क्या यह निर्णय मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1966 की धारा 26 को संदर्भित करता है?

उठाए गए तर्क

अपीलार्थी

  • अपीलकर्ता महावीरचंद का प्रतिनिधित्व विद्वान वकील श्री सोमन ने किया। उन्होंने तर्क दिया कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1966 की धारा 17 इस स्थिति में लागू नहीं होगी। 
  • वकील ने आगे दावा किया कि फर्म के खातों की 1998 से पक्षों की आपसी सहमति के आधार पर लेखा परीक्षा  की जा रही थी और स्वतंत्र लेखा परीक्षक नियुक्त करने की कोई आवश्यकता नहीं थी 
  • वकील ने यह भी दावा किया कि धोखाधड़ी को साबित करने के लिए कोई सबूत मौजूद नहीं था और यह भी दावा किया कि न्यायाधिकरण ने अपीलकर्ताओं के दावों का मूल्यांकन किए बिना अचानक एक स्वतंत्र लेखा परीक्षक नियुक्त करने का फैसला किया था।

प्रतिवादी

  • प्रतिवादी संख्या 1 और 7 का प्रतिनिधित्व श्री लड्डा और श्री भंडारी ने किया। वकील ने न्यायाधिकरण द्वारा पारित आदेश का समर्थन किया। उनका दावा है कि न्यायाधिकरण ने अपने आदेश में कहीं भी धारा 17 का प्रयोग करते हुए निर्णय पारित करने का उल्लेख नहीं किया। 
  • वकील ने अदालत के समक्ष धारा 26 का सार प्रस्तुत किया। धारा 26 न्यायाधिकरण को यह अधिकार देती है कि यदि आवश्यक हो तो वह न्यायाधिकरण की सहायता के लिए विशेषज्ञों की नियुक्ति कर सकता है। वकील ने दावा किया कि धारा 26 के अनुसार न्यायाधिकरण विशेष सलाह के लिए विशेषज्ञों की नियुक्ति करने का हकदार है। 

मामले का फैसला

  • अदालत ने कहा कि यद्यपि न्यायाधिकरण द्वारा पारित आदेश मध्यस्थता अधिनियम की धारा 17 से संबंधित प्रतीत होता है, लेकिन धारा 17 के तहत सूचीबद्ध चार प्रावधानों में से कोई भी यहां लागू नहीं होता। इसके बजाय, न्यायाधिकरण द्वारा पारित आदेश धारा 26 (1) (a) के दायरे में आएगा। 
  • अदालत ने माना कि न्यायाधिकरण ने संभवतः धारा 17 को गलत तरीके से उद्धृत किया है। संपूर्ण आदेश को पढ़ने से यह स्पष्ट हो गया कि यह धारा 26 की सहायता से पारित किया गया था। 
  • अदालत ने कहा कि आंकड़े एकत्र करने, सूचना प्राप्त करने तथा प्रभावी ढंग से अंतिम आदेश पारित करने के लिए एक स्वतंत्र लेखा परीक्षक की नियुक्ति आवश्यक थी। अदालत ने कहा कि यह न्यायाधिकरण के समक्ष मुद्दों को निर्धारित करने तथा वित्तीय मामलों से संबंधित सभी तथ्यों को समझने में सहायता करने के लिए एक कदम था। इसलिए, अदालत ने अपील को खारिज कर दिया और न्यायाधिकरण द्वारा विशेषज्ञ की नियुक्ति को मंजूरी दे दी।

सैंगयोंग इंजीनियरिंग एंड कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड बनाम भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (2019)

सैंगयोंग इंजीनियरिंग मामले में, कई अन्य बातों के साथ-साथ धारा 26 का भी विश्लेषण किया गया, और यह पाया गया कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 26 भी प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों अर्थात, एक न्यायसंगत सुनवाई की आवश्यकता है से बंधी हुई है। 

मामले के तथ्य

  • प्रतिवादी, भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (जिसे बाद में एनएचएआई कहा जाएगा) ने एनएच 26 (राष्ट्रीय राजमार्ग) पर चार लेन का राजमार्ग बनाने के लिए निविदा (टेंडर) आमंत्रित करते हुए एक परिपत्र जारी किया। अपीलकर्ता को 30 दिसंबर 2005 को स्वीकृति पत्र और 2,19,01,16,805 रुपये मूल्य का अनुबंध दिया गया। चूंकि दोनों पक्ष अलग-अलग देशों अर्थात कोरिया और भारत से संबंधित थे, इसलिए श्रम, संयंत्र (प्लांट) और मशीनरी, पेट्रोलियम, तेल और स्नेहक (लुब्रिकेंट्स) (पीओएल) और अन्य स्थानीय सामग्रियों के मूल्यों को समायोजित करने की आवश्यकता थी। सीमेंट, स्टील, संयंत्र एवं मशीनरी तथा अन्य स्थानीय सामग्रियों के लिए मूल्य समायोजन अनुबंध के उप-खण्ड 70.3 के अनुसार किया जाना था। उप खंड 70.3 के अंतर्गत मूल्य समायोजन की विधि के महत्वपूर्ण घटक C1, C0 और पीसी थे। 
  • 14 अप्रैल 2010 को एनएचएआई ने C1, C0 और थोक मूल्य सूचकांक (इंडेक्स) (डब्ल्यूपीआई) के सूचकांकों में परिवर्तन करते हुए एक नई श्रृंखला प्रकाशित की। परिपत्र में यह भी कहा गया था कि ठेकेदारों को एक शपथ-पत्र देना होगा, जिसमें नई श्रृंखला को स्वीकार करने की बात हो तथा भविष्य में दावा न करने का वादा हो तथा नई और पुरानी श्रृंखला के बीच एक संबंध स्थापित करने की आवश्यकता हो। 
  • सांगयोंग इंजीनियरिंग प्राइवेट लिमिटेड ने इस परिवर्तन को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। उच्च न्यायालय ने कहा कि विवाद निपटान निकाय और उसके बाद मध्यस्थ न्यायाधिकरण के माध्यम से समाधान उचित प्रक्रिया है। अपीलकर्ताओं ने वसूली और कटौतियों के खिलाफ अंतरिम आदेश के लिए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। उच्च न्यायालय ने प्रतिबंधात्मक आदेश दिया। 

मध्यस्थता कार्यवाही

  • मध्यस्थ न्यायाधिकरण ने बहुमत से एनएचएआई का पक्ष लिया तथा परिपत्र की वैधता को बरकरार रखा, जबकि एक मध्यस्थ ने असहमति जताई। मध्यस्थ न्यायाधिकरण ने कहा कि परिपत्र संविदात्मक शर्तों के अंतर्गत था और कानूनी था। 

उच्च न्यायालय का निर्णय

  • माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय की एकल पीठ के न्यायाधीश ने कहा कि मध्यस्थ पीठ द्वारा बहुमत से लिए गए निर्णय को बदला नहीं जा सकता। उच्च न्यायालय ने न्यायाधिकरण के निर्णय को मुख्यतः न्यायाधिकरण में बहुमत की राय के कारण बरकरार रखा, हालांकि व्यक्तिगत रूप से वह इसके विपरीत राय रखते है। 

मुद्दा

  • क्या मध्यस्थ के पास उचित क्षेत्राधिकार था और क्या वह अनुबंध प्रस्तुति के दायरे से बाहर चला गया था?
  • क्या अपीलकर्ताओं को नई श्रृंखला के लिए लिंकिंग कारक का उपयोग करने की आवश्यकता है?
  • क्या धारा 26 प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों से बंधी है?

तर्क

अपीलार्थी 

  • अपीलकर्ताओं की ओर से श्रीमती रहमीत कौर ने प्रतिनिधित्व किया। उनके वकील ने तर्क दिया कि मध्यस्थता पंचाट (अवॉर्ड) धारा 34(2)(a)(ⅳ) के अनुसार मध्यस्थता के लिए प्रस्तुतीकरण के दायरे से बाहर है। उन्होंने दावा किया कि यह क्षेत्राधिकार संबंधी त्रुटि थी और न्यायाधिकरण के पास पहले मामले में आदेश जारी करने का अधिकार ही नहीं था। न्यायाधिकरण द्वारा पारित आदेश धारा 34(2)(b)(ii) के अनुसार सार्वजनिक नीति के विरुद्ध था। वकील ने कई निर्णयों का हवाला देते हुए बताया कि वर्तमान मामले में धारा 34(2) किस प्रकार लागू होगी। 

प्रतिवादी 

  • प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व श्री एस. नंदकुमार ने किया। उन्होंने दावा किया कि बिना किसी लिंकिंग कारक के नई श्रृंखला अव्यवहारिक हो जाएगी। वकील ने दावा किया कि अपीलकर्ताओं ने पहले ही लिंकिंग कारक के साथ नई श्रृंखला का उपयोग शुरू कर दिया है। इसके अलावा, श्री नंदकुमार ने तर्क दिया कि मध्यस्थ न्यायाधिकरण का निर्णय बाध्यकारी और अंतिम है तथा उसमें हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। 

निर्णय

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 2015 के तहत मध्यस्थता का दायरा

  • न्यायालय ने अनेक उदाहरणों और अंतर्राष्ट्रीय विनियमों का विश्लेषण करने के बाद यह माना कि यह निर्णय मध्यस्थता के लिए प्रस्तुत करने के दायरे से परे नहीं है। मध्यस्थता अधिनियम के तहत मध्यस्थता का विषय ‘विवाद’ के रूप में समझा जा सकता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि क्षेत्राधिकार संबंधी त्रुटि अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता समझौतों पर लागू नहीं होगी। 

धारा 26

  • यह विश्लेषण करते हुए कि क्या दोनों पक्षों को अपना मामला प्रस्तुत करने का समान अवसर प्रदान किया गया था, अदालत ने धारा 18, 26 और 24(3) का विश्लेषण किया। अदालत ने धारा 26 का विश्लेषण किया और कहा कि:
  1. धारा 26 विशेषज्ञ साक्ष्य से संबंधित है। जब मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा किसी विशेषज्ञ रिपोर्ट पर भरोसा किया जाता है, तो उक्त रिपोर्ट को पहले दोनों पक्षों को उनके अनुरोध पर उपलब्ध कराया जाना चाहिए। 
  2. विशेषज्ञ द्वारा अपनी अंतिम रिपोर्ट तैयार करने के लिए उपयोग किए गए या उन पर निर्भर किए गए किसी भी अन्य दस्तावेज, सामान, साक्ष्य या संपत्ति को दूसरे पक्ष को उपलब्ध कराया जाना चाहिए। 
  3. एक बार जब रिपोर्ट दोनों पक्षों को उपलब्ध हो जाए, तो यदि पक्ष अनुरोध करें तो उन्हें विशेषज्ञ से प्रश्न करने का अवसर भी दिया जाना चाहिए।
  4. पक्षों को अपना मामला साबित करने के लिए अपने स्वयं के गवाह लाने की भी अनुमति है।
  5. अदालत ने व्याख्या की कि पक्षों को किसी विशेषज्ञ से प्राप्त ‘अदालत के बाहर के ज्ञान’ पर भी टिप्पणी करने का अधिकार है। पक्षों को न्यायाधिकरण द्वारा अपना निर्णय देने के लिए प्रयुक्त विशेषज्ञ साक्ष्य पर टिप्पणी करने का अधिकार है। 
  • इसलिए, न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को खारिज कर दिया तथा दोहराया कि केवल असाधारण परिस्थितियों में ही मध्यस्थ न्यायाधिकरण के निर्णय में हस्तक्षेप किया जा सकता है।

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1966 की धारा 26 का विश्लेषण

मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 26 मध्यस्थता द्वारा विवाद के आसान समाधान का मार्ग प्रशस्त करती है। जबकि धारा 26 में केवल न्यायाधिकरण द्वारा नियुक्त विशेषज्ञों के बारे में विस्तार से बताया गया है, मध्यस्थता अधिनियम में पक्षों को विशेषज्ञों को लाने की भी अनुमति दी गई है। न्यायाधिकरण द्वारा विशेषज्ञों की नियुक्ति न केवल विशेषज्ञ की स्वतंत्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित करती है, बल्कि विशेषज्ञों की योग्यता भी सुनिश्चित करती है। ये विशेषज्ञ अप्रत्यक्ष रूप से न्यायाधिकरण को छोटी से छोटी सहायता देकर न्याय प्रदान करने में मदद करते हैं। तकनीकी विशेषज्ञ, क्लर्क, क्षति विशेषज्ञ और गणना विशेषज्ञ सभी अपनी-अपनी क्षमता में न्यायाधिकरण की सहायता करते हैं। यदि मध्यस्थता अधिनियम में ऐसा प्रावधान नहीं होता, तो मध्यस्थों के लिए स्वयं ही सब कुछ पता लगाना एक कठिन कार्य होता। इसके अलावा, विवाद को सुलझाने में लगने वाला समय भी अकल्पनीय होता। यद्यपि धारा 26 के कई फायदे हैं, फिर भी इसमें कुछ खामियां हैं जिन्हें दूर करने की आवश्यकता है। सबसे पहले, इस बात पर स्पष्टता की आवश्यकता है कि मध्यस्थता विशेषज्ञ के रूप में किसे परिभाषित किया जा सकता है। दूसरा, मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए एक अच्छी तरह से परिभाषित प्रक्रिया सहायक होगी, और अंत में, विशेषज्ञ के लिए निर्धारित उचित शक्तियां सहायक होंगी। न्यायाधिकरण द्वारा नियुक्त विशेषज्ञों को कभी-कभी पक्षों की स्वतंत्रता पर अवरोध के रूप में देखा जाता है। धारा 26 विशेषज्ञ को निरीक्षण के उद्देश्य से पक्षों के किसी भी दस्तावेज, संपत्ति या सामान का अनुरोध करने का अधिकार भी प्रदान करती है, जिससे कुछ हद तक उनकी स्वतंत्रता बाधित होती है। इनके बावजूद, धारा 26 मध्यस्थता के विकास का समर्थन करने वाले सबसे मजबूत स्तंभों में से एक है। 

निष्कर्ष

धारा 26 न्यायालय की सहायता करने, पक्षों की सहायता करने, तकनीकी आंकड़ों को सरल बनाने और सबसे महत्वपूर्ण रूप से पक्षों को न्याय दिलाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। दुनिया के अधिक जटिल और गतिशील होते जाने के कारण, तथ्यों को उचित रूप से समझने के लिए न्यायाधीशों को अवधारणाओं को समझाने हेतु विशेषज्ञों की आवश्यकता तेजी से महसूस की जा रही है। तकनीकी शब्दों और उन्नत प्रौद्योगिकी को समझाने के लिए वैज्ञानिक विशेषज्ञों की सहायता का उपयोग बढ़ रहा है। मध्यस्थता में विशेषज्ञ साक्ष्य के लिए अपनाई जाने वाली साक्ष्य मूल्य और प्रक्रिया भारतीय साक्ष्य अधिनियम के समान ही है। यद्यपि मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम में कई बार संशोधन किया गया, लेकिन इस धारा में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ। समाज की गतिशील प्रकृति के कारण इस धारा में कुछ परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की जा सकती है। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1966 की धारा 26 क्या कहती है?

धारा 26 मध्यस्थता कार्यवाही में विशेषज्ञों के उपयोग के बारे में बात करती है। विशेषज्ञों को या तो पक्ष द्वारा नियुक्त किया जा सकता है या न्यायाधिकरण द्वारा नियुक्त किया जा सकता है। वे कई अवधारणाओं को समझाकर या महत्वपूर्ण दस्तावेजों तक पहुंच प्रदान करके अदालत की सहायता करते हैं। 

धारा 26 के अनुसार क्या प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए?

धारा 26 में स्पष्ट रूप से कोई प्रक्रिया निर्धारित नहीं की गई है। अंतर्राष्ट्रीय कानून, संधियाँ और भारतीय साक्ष्य अधिनियम ऐसा करते हैं। 

क्या धारा 26 के अंतर्गत न्यायालय के समक्ष विशेषज्ञ से जांच की जा सकती है?

हां, धारा 26 पक्षों को जांच करने का अधिकार प्रदान करती है, अर्थात, पक्षों और न्यायाधिकरण द्वारा नियुक्त विशेषज्ञों से मुख्य जांच और जिरह करने का अधिकार है। उनसे प्रश्न पूछे जा सकते हैं तथा मौखिक सुनवाई में साक्ष्य के साथ अपनी राय प्रस्तुत करने के लिए कहा जा सकता है। 

संदर्भ

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