हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24

2
38958
Hindu Marriage Act
Image Source- https://rb.gy/f5clpj

यह लेख आर साई गायत्री द्वारा लिखा गया है, जो उस्मानिया विश्वविद्यालय के पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज ऑफ लॉ की छात्रा है। यह लेख हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 वाद लंबित रहने के दौरान भरण पोषण (मेंटेनेंस पेंडेंट लाइट) और कार्यवाही के खर्च के बारे में बात करती है। यहां, भरण पोषण यानी की मेंटेनेंस शब्द एक आश्रित पति या पत्नी के लिए बुनियादी जरूरतों के प्रावधान को संदर्भित करता है और ‘पेंडेंट लाइट’ एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है “जब एक वाद लंबित है” या “जब वाद जारी है”। इस प्रकार, यह समझा जा सकता है कि मेंटेनेंस पेंडेंट लाइट’ एक मुकदमा लंबित होने पर पति या पत्नी को रहने के लिए खर्च और वित्तीय (फाइनेंशियल) सहायता के प्रावधान को संदर्भित करता है। आइए हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 के बारे में अधिक जानें।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (इसके बाद ‘एच.एम.ए.,1955’) की धारा 24 में कहा गया है कि एच.एम.ए., 1955 के तहत किसी भी कार्यवाही में, यदि एक अदालत का मानना है कि पति या पत्नी मे से किसी के भी पास अपना गुजारा करने और कार्यवाही के आवश्यक खर्च देने के लिए स्वतंत्र आय का कोई स्रोत नहीं है, तो अदालत ऐसे आश्रित पति या पत्नी के आवेदन पर अन्य पति या पत्नी को भुगतान करने का आदेश दे सकती है –

  1. कार्यवाही का खर्च
  2. इस तरह की कार्यवाही के दौरान मासिक राशि, जो दोनों पति-पत्नी की आय के संबंध में अदालत को उचित लगती है।

विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के मामले में, धारा 36 के तहत एक प्रमुख अंतर के साथ एक समान प्रावधान किया गया है कि इस अधिनियम के तहत, वाद के लंबित रहने के दौरान भरण पोषण) का दावा केवल पत्नी द्वारा किया जा सकता है, यह पति पर लागू नहीं होता है। इसके अलावा, आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 में पति द्वारा पत्नी को अंतरिम (इंटेरिम) भरण-पोषण के प्रावधान के बारे में भी बात की गई है।

धारा 24 के तहत अंतरिम भरण-पोषण का प्रावधान, दाम्पत्य (कंजुगल) अधिकार की बहाली (रेस्टिट्यूशन) (धारा 9), न्यायिक पृथक्करण (ज्यूडिशियल सेपरेशन) (धारा 10), शून्य (वॉइड) विवाह (धारा 11), शून्यकरणीय (वॉइडेबल) विवाह (धारा 12) और तलाक (धारा 13) के मामलों पर लागू होता है। पति या पत्नी में से कोई भी अपने बच्चे के लिए अंतरिम भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं, इस तथ्य पर ध्यान दिए बिना कि किस पक्ष ने कार्यवाही शुरू की है। अंतरिम भरण-पोषण प्रदान करने की प्राथमिक शर्त यह है कि कार्यवाही के एक पक्ष के पास अपना गुजारा और कार्यवाही के आवश्यक खर्चों के लिए पर्याप्त स्वतंत्र आय नहीं है। धारा 24 के आधार पर, न्यायालय उसे प्रदान की गई शक्ति का प्रयोग कर सकता है, भले ही प्रतिवादी विवाह के तथ्य से इनकार करता हो।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 का उद्देश्य

वाद लंबित रहने पर भरण पोषण का अधिकार, दावेदार पति या पत्नी के खुद के गुजारे और कार्यवाही के आवश्यक खर्चों के लिए सहायता प्रदान करता है। एच.एम.ए.,1955 की धारा 24 के तहत वाद लंबित रहने पर भरण पोषण और खर्चा प्रदान करने का उद्देश्य मुख्य रूप से दावेदार पति या पत्नी को कार्यवाही जारी रखने और खुद के गुजारे के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करना है।

यह समझा जाना चाहिए कि वाद लंबित रहने पर भरण पोषण का अधिकार एच.एम.ए.,1955 के तहत पति-पत्नी में से किसी एक को प्रदान किया जाता है, यानी पति-पत्नी में से कोई भी भरण पोषण का दावा कर सकता है। हालांकि, अन्य क़ानूनों जैसे कि विशेष विवाह अधिनियम (1954), आपराधिक प्रक्रिया संहिता (1973), आदि के तहत, भरण-पोषण का दावा केवल पत्नी द्वारा किया जा सकता है, न कि पति द्वारा।

चित्रालेखा बनाम रंजीत राय (1977) के मामले में, यह माना गया है कि धारा 24 का उद्देश्य कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान निर्धन पति या पत्नी को वित्तीय सहायता प्रदान करना है और साथ ही पर्याप्त धन प्राप्त करना है ताकि मुकदमे को आगे बढ़ाने या अपना बचाव करने के लिए, धन की कमी के कारण उन्हें मुकदमे में अनावश्यक रूप से नुकसान न हो।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 के तहत न्यायालय की शक्ति

न्यायालयों के पास अंतरिम भरण-पोषण राशि, जिसका एक पति या पत्नी को उचित आधार पर दूसरे को भुगतान करना होता है, के संबंध में एक आदेश पारित करने का विवेकाधिकार (डिस्क्रीशन) है। इस विवेक का प्रयोग करने के लिए, अदालत उस पति या पत्नी की आय पर विचार करती है जिसने अंतरिम भरण-पोषण के लिए आवेदन किया है और अन्य पति या पत्नी की आय पर विचार किया जाता है, जिन्हें इस तरह के अंतरिम भरण-पोषण और खर्चों का भुगतान करना होता है।

राजेंद्रन बनाम गजलक्ष्मी (1985) के मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि एच.एम.ए., 1955 की धारा 24 के तहत अंतरिम भरण-पोषण एक ‘उचित’ राशि होनी चाहिए। आगे कहा गया था कि इस तथ्य को बताते हुए कि पत्नी का भाई आय-अर्जक है, यह अप्रासंगिक है और धारा 24 के तहत पत्नी को अंतरिम भरण-पोषण से इनकार करने का एक अमान्य आधार है। इस प्रकार, 150 रुपये प्रति माह के अंतरिम भरण-पोषण प्रदान करने के निचली अदालत के आदेश को मद्रास उच्च न्यायालय ने उचित ठहराया था।

पक्षों का आचरण एक महत्वपूर्ण कारक है जो न्यायालय के विवेक को प्रभावित करता है। धारा 24 के तहत न्यायालय पक्षों के आचरण की उपेक्षा नहीं करेगा। उदाहरण के लिए, यदि पति या पत्नी अपने स्वयं के कदाचार (मिसकंडक्ट) से सहवास को समाप्त कर देते हैं, तो अदालत उन्हें धारा 24 के तहत राहत देने से मना कर सकती है।

यह ध्यान देने योग्य है कि न्यायालय का विवेक न्यायिक है और प्रकृति में मनमाना नहीं है। इस तरह के न्यायिक विवेक का प्रयोग अधिनियम के उद्देश्य पर विचार करते हुए और वैवाहिक कानून के आदर्श सिद्धांतों का पालन करते हुए धारा 24 के दायरे में किया जाना चाहिए। मुकन कुंवर बनाम अजीत चंद (1958) में, यह माना गया था कि अदालत की विवेकाधीन शक्ति कानूनी सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए न कि मज़ाक और हास्य पर।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 के तहत प्रक्रिया

एच.एम.ए., 1955 की धारा 24 के तहत एक मामले को एक संक्षिप्त जांच के रूप में माना जाता है, न कि एक पूर्ण सुनवाई के रूप में। यदि अदालत का मानना ​​है कि आवेदक के विवाद में सफल होने की संभावना नहीं है तो ऐसे मामले में अदालत केवल इस आधार पर धारा 24 के तहत अंतरिम भरण पोषण और कार्यवाही का खर्च देने से इनकार नहीं कर सकती है।

सुशीला वीरेश छडवा बनाम वीरेश नग्शी छाडवा (1996) के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना कि यह तथ्य कि विवाह को अमान्य घोषित किए जाने की संभावना है, यह एच.एम.ए., 1955 की धारा 24 के तहत अंतरिम भरण-पोषण का दावा करने वाले पति या पत्नी के लिए, अंतरिम भरण-पोषण और कार्यवाही के खर्चों से इनकार करने का आधार नहीं होगा। 

धारा 24 में प्रदान किए गए परंतुक (प्रोविजो) में कहा गया है कि अंतरिम भरण-पोषण और कार्यवाही के खर्चों के भुगतान के लिए आवेदन का निपटारा पति या पत्नी को नोटिस भेजने की तारीख से 60 दिनों के भीतर किया जाएगा।

धारा 24 के तहत भरण पोषण की मात्रा

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 के तहत अंतरिम भरण-पोषण की मात्रा तय करने के लिए कोई कठोर नियम नहीं है। हालांकि, ऐसे अंतरिम भरण पोषण की मात्रा निम्नलिखित कारकों पर निर्भर करती है:

  1. विवाह की अवधि।
  2. जीवनसाथी का आचरण।
  3. जीवनसाथी की कमाई करने की क्षमता।
  4. बच्चों की शिक्षा और भरण पोषण।
  5. दावेदार की ऐसी अन्य उचित जरूरतें।

यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि भरण पोषण देने के मामलों में, न्यायालय व्यापक विवेक का प्रयोग करता है, हालांकि, इस विवेक का प्रयोग मनमाने ढंग से नहीं किया जाना चाहिए। यह धारा 24 के दायरे में होना चाहिए और वैवाहिक कानूनों के आदर्श सिद्धांतों द्वारा निर्देशित होना चाहिए।

दिनेश मेहता बनाम उषा मेहता (1978) के मामले में, बॉम्बे के उच्च न्यायालय ने कहा कि एच.एम.ए., 1955 की धारा 24 अंतरिम भरण पोषण के लिए एक उचित राशि का निर्णय लेने से संबंधित है। इस प्रकार, एक उचित राशि का निर्धारण कई प्रतिस्पर्धी (कंपीटिंग) दावों के बीच संतुलन खोजने से अधिक है। न्यायालय ने आगे कहा कि यहां उचित का मतलब यह है कि पत्नी को उसी तरह की सुख-सुविधाएं सुनिश्चित की जानी चाहिए जैसी कि उसे अपने पति के साथ रहने पर मिल रही थी।

धारा 24 के तहत कब आवेदन किया जा सकता है?

एच.एम.ए.,1955 की धारा 24 के तहत अंतरिम भरण-पोषण और कार्यवाही के खर्च के लिए आवेदन वाद के लंबित रहने के दौरान किसी भी समय दायर किया जा सकता है। उस मामले में जहां पत्नी प्रतिवादी है, वह अपना लिखित बयान दाखिल करने से पहले अनुदान (ग्रांट) की मांग कर सकती है।

छगन लाल बनाम सक्खा देवी (1974) के मामले में, राजस्थान के उच्च न्यायालय ने कहा कि एच.एम.ए., 1955 की धारा 24 के तहत अंतरिम भरण-पोषण के लिए एक आवेदन और किसी अन्य वैवाहिक क़ानून के तहत भरण-पोषण के लिए एक आवेदन पर जल्द से जल्द निर्णय लिया जाना चाहिए, लेकिन ऐसा किसी भी मामले में मुख्य आवेदन तय होने से पहले किया जाना चाहिए।

एच.एम.ए., 1955 की धारा 24 के तहत बच्चों का भरण-पोषण

एच.एम.ए., 1955 की धारा 24 का प्राथमिक उद्देश्य दावेदार पति या पत्नी को कार्यवाही के खर्च के साथ अंतरिम भरण पोषण के प्रावधान को सक्षम करना है। हालांकि, कुछ अपवादात्मक मामलों में, अदालत उन बच्चों के लिए भी भरण-पोषण का आदेश दे सकती है, जो पति या पत्नी के साथ रह रहे हैं और उस पति या पत्नी पर निर्भर हैं, जिन्होंने अंतरिम भरण-पोषण का दावा किया है और जहां इस तरह के दावे को अदालत ने उचित ठहराया है।

जसबीर कौर सहगल बनाम जिला न्यायाधीश (1997) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि धारा 24 के तहत प्रावधानों को सीमित अर्थ नहीं दिया जा सकता है। आगे यह भी कहा गया कि वाद लंबित रहने पर भरण पोषण का दावा करने के पत्नी के अधिकार में उसका अपना और उसके साथ रहने वाली उसकी अविवाहित बेटी का भरण-पोषण शामिल होगा।

कार्यवाही का खर्च

पति/पत्नी एच.एम.ए., 1955 की धारा 24 के तहत कार्यवाही के आवश्यक खर्चों के साथ-साथ अंतरिम भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि कार्यवाही के खर्चों को पूरा करने के लिए पति या पत्नी को पर्याप्त धन उपलब्ध कराया गया है। ‘कार्यवाहियों के खर्च’ का दायरा व्यापक है; इसमें अदालत का शुल्क, वकील का शुल्क, गवाहों की सेवाएं लेने में होने वाला खर्च, ज़ीरोक्स और टाइपिंग शुल्क, प्रक्रिया शुल्क आदि शामिल हैं।

प्रिली परिहार बनाम कैलाश सिंह परिहार (1975) के मामले में, न्यायालय ने कहा कि यदि बाद में आवश्यकता पड़ी, तो अदालत के पास मूल रूप से स्वीकृत राशि से अधिक अतिरिक्त खर्च देने का अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) है।

आदेशों का प्रवर्तन (एनफोर्समेंट)

अंतरिम भरण-पोषण और कार्यवाही के खर्चों के संबंध में आदेशों को लागू करने के लिए अदालतों ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अलावा अन्य तरीकों का सहारा लिया है। नरिंदर कौर बनाम प्रिलम सिंह (1985) के मामले में, एक नियोजित (इंप्लॉयड) पति, जिसने वाद लंबित रहने के दौरान भरण पोषण का भुगतान करने के आदेश का पालन करने से इनकार किया था, को अवमानना ​​(कंटेम्प्ट) के लिए दंडित किया गया था और उसे चार महीने की सजा दी गई थी।

अनीता करमोतरार बनाम बीरेंद्र चंद्र कन्नोकट (1962) के मामले में, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने माना कि पति द्वारा वाद लंबित रहने के दौरान भरण पोषण का भुगतान करने के आदेश का पालन न करने की स्थिति में याचिकाकर्ता की कार्यवाही पर रोक लगाना एक सख्त अनुमेय कदम था। आगे यह माना गया कि सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 151 न्यायालय को उक्त शक्ति प्रदान करती है।

अमरजीत कौर बनाम हरभजन सिंह (2003) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि वाद लंबित रहने पर भरण पोषण प्रदान करने के लिए मुख्य शर्त यह पता लगाना है कि क्या इस तरह के अंतरिम भरण पोषण का दावा करने वाले पति या पत्नी की स्वतंत्र आय है जो उनके लिए पर्याप्त है। यदि यह दिखाया जाता है कि ऐसे पति या पत्नी के पास पर्याप्त आय नहीं है तो अदालत अंतरिम भरण-पोषण देने के लिए बाध्य है और अदालत के पास एकमात्र विवेक इस तरह के अंतरिम भरण-पोषण की मात्रा होगी।

लंबित अपील पर आदेश का पालन न करने के प्रभाव की चर्चा बंसो बनाम सरवन (1978) के मामले में की गई थी, जहां पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने निचली अदालत द्वारा न्यायिक अलगाव के लिए याचिका खारिज होने के बाद पत्नी द्वारा अपील पर, वाद लंबित रहने के दौरान भरण पोषण के भुगतान के लिए पति को आदेश दिया था। इस आधार पर उच्च न्यायालय ने अपील को मंजूरी दी थी।

निष्कर्ष

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 में कहा गया है कि एच.एम.ए., 1955 के तहत किसी भी कार्यवाही में, यदि कोई अदालत यह मानती है कि पति या पत्नी के पास अपन गुजारे और कार्यवाही के आवश्यक खर्च के लिए स्वतंत्र आय का कोई स्रोत नहीं है, तो न्यायालय, ऐसे आश्रित पति या पत्नी के आवेदन पर, अन्य पति या पत्नी को कार्यवाही के खर्च और ऐसी कार्यवाही के दौरान मासिक राशि का भुगतान करने का आदेश दे सकता है।

संदर्भ

 

2 टिप्पणी

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here