भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 2

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Indian Contract Act

यह लेख पुणे के सिम्बायोसिस लॉ स्कूल में बीए एलएलबी (ऑनर्स) की छात्रा Divyanjali Nigam द्वारा लिखा गया है। इस लेख में भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 2 का विश्लेषण (एनालिसिस) किया गया है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

परिचय

भारत जैसे विकासशील देश में, जहां अर्थव्यवस्था दिन-ब-दिन बढ़ रही है, अनुबंध कानून हमारी अर्थव्यवस्था को नियमित रखता है। लगभग हर लेन-देन, हर सौदे में एक अनुबंध शामिल होता है। अनुबंध कानून को नियमों और सिद्धांतों के एक समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो पार्टियों के बीच लेनदेन को नियंत्रित करता है, इन पार्टियों के अधिकारों और दायित्वों को निर्धारित करता है। भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 (“आईसीए”) भारत में अनुबंध कानूनों को विनियमित (रेगूलेट) और नियंत्रित करने वाला क़ानून है।

एक अनुबंध एक औपचारिक (फॉर्मल) दस्तावेज है जिसे दोनों पार्टी, वादाकर्ता (प्रॉमिसर) और वादागृहीता (प्रॉमिसी) द्वारा स्वीकार किया जाता है, और यह किसी भी व्यावसायिक लेनदेन की आधारशिला (फाउंडेशन) है। यद्यपि अनुबंध का कानून समय के साथ विकसित हो रहा है, अनुबंध का न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) वही रहता है। आईसीए की धारा 2 व्याख्या खंड (इंटरप्रिटेशन क्लॉज) है, जो अधिनियम में प्रयुक्त शब्दों और अभिव्यक्तियों (एक्सप्रेशन) की सामान्य परिभाषा प्रदान करती है। इनका आम तौर पर पालन किया जाता है जब तक कि संदर्भ से कोई विपरीत इरादा प्रकट न हो। व्याख्या खंड का सार धारा 2 (h) है, जो एक अनुबंध को “कानून द्वारा लागू करने योग्य समझौते” के रूप में परिभाषित करती है।

धारा 2 का विश्लेषण

सर विलियम एंसन एक अनुबंध को “दो व्यक्तियों के बीच कानूनी रूप से लागू करने योग्य समझौते के रूप में परिभाषित करते है, जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्तियों को कानूनी अधिकार मिलता है और कुछ को संबंधित कानूनी जिम्मेदारियों को पूरा करना होता है”। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि एक अनुबंध एक समझौता है जो इसमें शामिल विभिन्न पार्टी के दायित्वों को परिभाषित करता है। इसलिए, एक अनुबंध दो या दो से अधिक सक्षम पार्टियों के बीच आपसी वादों के आधार पर, किसी विशेष काम को करने या करने से बचने के लिए एक समझौता है जो न तो अवैध है और न ही असंभव है। समझौते का परिणाम किसी भी दायित्व या कर्तव्य में होता है जिसे कानून की अदालत में लागू किया जा सकता है। समझौते कानूनी रूप से लागू करने योग्य अनुबंध होते है क्योंकि पार्टियां परस्पर संतोषजनक रूप से सहमत थीं।

धारा 2 (h) एक अनुबंध को “कानून द्वारा लागू करने योग्य समझौते” के रूप में परिभाषित करती है। इसका तात्पर्य यह है कि अनुबंध के दो प्राथमिक तत्व एक समझौता और लागू करने योग्य (एंफोर्सिएबिलिटी) है। केवल एक वैध अनुबंध ही कानून द्वारा लागू करने योग्य है, और एक अनुबंध को वैध होने के लिए कुछ शर्तों को पूरा करना होगा। यदि इनमें से किसी भी शर्त को पूरा नहीं किया जाता है, तो उस अनुबंध को शून्य माना जाता है। आईसीए की धारा 2 (e) द्वारा ‘समझौते’ को परिभाषित किया गया है, “हर वादा और वादों का हर सेट, जो एक दूसरे के लिए प्रतिफल (कंसीडरेशन) है, एक समझौता है”।

एक समझौता दो या दो से अधिक पार्टी के बीच हुई समझ या व्यवस्था है। इसके विपरीत, एक अनुबंध एक विशिष्ट प्रकार का समझौता है जो कानूनी रूप से बाध्यकारी है और कानून की अदालत में इसके नियमों और तत्वों द्वारा लागू किया जा सकता है। जबकि प्रत्येक अनुबंध एक समझौता है, लेकिन प्रत्येक समझौते अनुबंध नहीं है। एक समझौते में मोटे तौर पर एक प्रस्ताव, उसकी स्वीकृति और प्रतिफल शामिल होते हैं, जिन सभी को एक उचित अवधि के भीतर संचार (कम्यूनिकेशन) द्वारा एक साथ बाध्य होना चाहिए।

धारा 2 (a)

शब्द ‘प्रस्ताव’ को एक प्रपोजल भी कहा जाता है, जिसे धारा 2 (a) में परिभाषित किया गया है, “किसी व्यक्ति की कुछ करने की इच्छा या कुछ करने से मना करने की इच्छा, ऐसे कार्य या मना करने के लिए उस दूसरे व्यक्ति की सहमति प्राप्त करना है”। यह एक समझौते के गठन की दिशा में पहला कदम है। कानून की नजर में किसी प्रस्ताव के वैध होने के लिए, इसे प्रस्तावकर्ता (ऑफरी) को सूचित किया जाना चाहिए। समझौता करने के लिए दूसरी पार्टी की सहमति प्राप्त करना स्पष्ट और सटीक होना चाहिए।

जैसा कि आईसीए की धारा 4 में कहा गया है, एक प्रस्ताव तभी पूरा होता है जब यह दूसरी पार्टी के ज्ञान में आता है। जैसा कि लालमन शुक्ला बनाम गौरी दत्त के मामले में कहा गया था की, एक प्रस्ताव केवल तभी स्वीकार किया जा सकता है जब उसे प्रस्तावकर्ता को सूचित किया गया हो। एक समझौते के निर्माण के लिए, एक प्रस्ताव को सूचित करना होगा। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि एक समझौता एक स्वीकृत प्रस्ताव है।

धारा 2 (b)

भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 2 (b) स्वीकृति को परिभाषित करती है, “जब जिस व्यक्ति को प्रस्ताव दिया जाता है, वह उस पर अपनी सहमति का संकेत देता है, तो प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाता है।” वैध स्वीकृति बिना शर्त होनी चाहिए और उसे सूचित किया जाना चाहिए। यदि स्वीकृति का कोई विशिष्ट तरीका दिया गया है (उदाहरण के लिए, एक पत्र या टेलीफोन कॉल के माध्यम से), तो संचार निर्धारित मोड के माध्यम से होना चाहिए। संचार के मुद्दे को फेल्टहाउस बनाम बिंडले के मामले में उठाया गया था, जिसमें यह माना गया था कि स्वीकृति के संचार की आवश्यकता है, और केवल मौन रहना स्वीकृति के बराबर नहीं हो सकता है।

धारा 2 (d)

किसी चीज के बदले में प्रतिफल लेना, यानी पारस्परिक लाभ। इसे औपचारिक (फॉर्मल) रूप से परिभाषित किया गया है जब, वचनदाता (प्रॉमिसर) की इच्छा पर, किसी अन्य व्यक्ति ने कुछ कार्य किया है या करने से मना किया है, या कुछ करने या न करने का वादा किया है तो ऐसा कार्य या मना करना या वादे को, वादे के लिए प्रतिफल कहा जाता है। प्रतिफल कुछ ऐसा होना चाहिए जिसका कानून की नजर में मूल्य हो। अब्दुल अजीज बनाम मासूम अली के मामले में, अदालत ने माना कि समझौते का प्रतिफल पहलू अनुपस्थित था कोई वैध प्रतिफल नहीं था, तो समझौते को लागू नहीं किया जा सकता।

“हर वादा और वादों का हर सेट, जो एक दूसरे के लिए प्रतिफल का गठन करता है, वह एक समझौता है”। अब तक के विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रस्ताव और स्वीकृति एक समझौते के प्राथमिक चरण हैं।

जैसा कि पहले चर्चा की गई है, एक समझौते और एक अनुबंध के बीच अंतर का महत्वपूर्ण बिंदु लागू करने की योग्यता है। एक समझौते को लागू करने योग्य होने के लिए, कुछ शर्तों को पूरा किया जाना चाहिए: पार्टियों को अनुबंध के लिए सक्षम होना चाहिए, अनुबंध का उद्देश्य वैध होना चाहिए, कानूनी इरादा बनाने का इरादा होना चाहिए, और पार्टियों को स्वतंत्र सहमति देनी चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि एक अनुबंध अकेले नहीं खड़ा हो सकता है। यदि अलग-अलग देखा जाए तो धारा 2(h) का वास्तविक जीवन में कोई व्यावहारिक अनुप्रयोग (एप्लीकेशन) नहीं होगा, इसलिए आईसीए के अन्य प्रासंगिक धाराओं के संदर्भ में धारा 2(h) को पढ़ना आवश्यक हो जाता है।

अनुबंध के हर पहलू का विश्लेषण

अनुबंध की धारणा हमारी पूरी अर्थव्यवस्था को आधार देती है, और इसलिए, अनुबंध के हर पहलू का विश्लेषण और सही ढंग से समझा जाना चाहिए। एक अनुबंध को धारा 2 (h) के अलगाव (आइसोलेशन) में नहीं देखा जा सकता है, क्योंकि यह सरल व्याख्या की अनुमति देगी, जिससे अनुबंध की अनिवार्यता की अनदेखी हो सकती है।

आइसीए की धारा 2(h) “अनुबंध” शब्द में “कानून द्वारा लागू करने योग्य” वाक्यांश जोड़ता है, लेकिन इस वाक्यांश के परिमाण पर धारा 10 से 30 तक की 20 धाराओं में विचार किया गया है। आईसीए की धारा 10 में समझौते, अनुबंध हैं अगर वे कुछ शर्तों को पूरा करते है।

धारा 13-18

एक अनुबंध के गठन में शामिल सभी पार्टी को स्वतंत्र रूप से सहमति देनी चाहिए, उन्हें एक ही बात पर एक ही अर्थ में सहमत होना चाहिए। धारा 14 में स्वतंत्र सहमति की व्याख्या की गई है, और जो स्वतंत्र सहमति के रूप में शामिल नहीं है उसकी विशेष परिभाषा निम्नलिखित धाराओं में दी गई है। कानून की अदालत द्वारा सहमति को स्वतंत्र सहमति के रूप में नहीं देखा जाएगा यदि इन पांच कारकों में से कोई भी इसे खराब करता है: जबरदस्ती (धारा 15), अनुचित प्रभाव (अंड्यू इनफ्लुएंस) (धारा 16), धोखाधड़ी (धारा 17), गलत बयानी (धारा 18) और गलती (धारा 2022)।

चिक्कम शेषम्मा बनाम चिक्कम अम्मीराजू के मामले में, यह माना गया था कि आत्महत्या की धमकी जबरदस्ती के बराबर थी। अनुबंध को शून्य घोषित कर दिया गया क्योंकि दी गई सहमति स्वतंत्र नहीं थी। हालांकि, अस्करी मिर्जा बनाम बीबी जय किशोरी के मामले में, यह माना गया था कि आपराधिक अभियोजन एक खतरा नहीं है, बल्कि पीड़ित पार्टी के अधिकार के मामले में उनके खिलाफ गलत है, और इस प्रकार पार्टियों के बीच अनुबंध वैध था।

वैध उद्देश्य

यह आवश्यक है कि अनुबंध का उद्देश्य कानूनी हो। एक अदालत एक अनुबंध को लागू नहीं करेगी जो अवैध है या सार्वजनिक नीति के विपरीत है। अवैध अनुबंध या तो क़ानून द्वारा या सामान्य कानून द्वारा निषिद्ध (प्रोहिबिट) होते हैं। उदाहरण के लिए, यदि दो लोग सक्रिय इच्छामृत्यु (एक्टिव यूथेनेशिया) के लिए एक अनुबंध में प्रवेश करते हैं, तो अनुबंध को कानून की अदालत द्वारा शून्य घोषित कर दिया जाएगा।

उधू दास बनाम प्रेम प्रकाश के मामले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक प्रतिफल या उद्देश्य तब तक वैध है जब तक कि यह कानून द्वारा निषिद्ध न हो या इस तरह की प्रकृति का हो कि यदि अनुमति दी जाती है, तो यह किसी भी कानून के प्रावधानों को विफल कर देगा।

धारा 11

एक समझौते को एक वैध अनुबंध कहा जाता है जब उस समझौते में प्रवेश करने वाली पार्टी अनुबंध के लिए सक्षम होती हैं, जिसका अर्थ है कि एक व्यक्ति को वयस्क (मेजॉरिटी) की आयु से ऊपर, स्वस्थ दिमाग का होना चाहिए और कानून द्वारा अयोग्य नहीं होना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि कोई नाबालिग (माइनर) भूमि की बिक्री के संबंध में एक अनुबंध में प्रवेश करता है, तो इसे शुरू से ही शून्य घोषित कर दिया जाएगा- यह मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष के मामले में स्थापित एक सिद्धांत है।

कानूनी संबंध

कानूनी संबंध बनाने के इरादे का सिद्धांत बाल्फोर बनाम बाल्फोर के ऐतिहासिक मामले में स्थापित किया गया था, जिसमें यह माना गया था कि इस तरह के इरादे से सहमत नहीं होने पर अनुबंध लागू नहीं किया जा सकता है। एक समझौते में लागू करने की योग्यता के लिए आवश्यक सभी चीजें हो सकती हैं, लेकिन यह इस इरादे के बिना अनुबंध नहीं बनेगा। इरादे की कमी इसलिए है कि जब लागू करने की बात आती है तो घरेलू, सामाजिक और धार्मिक समझौतों को अदालतों के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा गया है।

प्रतिफल

जबकि प्रतिफल धारा 2(d) के अंदर आता है, वैध प्रतिफल के विवरण पर धारा 2325 ​​में चर्चा की गई है, जो उन शर्तों को स्पष्ट करता है जिन्हें वैध होने के लिए प्रतिफल के लिए पूरा किया जाना चाहिए।

धारा 23 के अनुसार, एक गैरकानूनी प्रतिफल है:

  1. कानून द्वारा निषिद्ध;  या
  2. ऐसी प्रकृति का जो किसी भी कानून के किसी प्रावधान को विफल करता है;  या
  3. कपटपूर्ण;  या
  4. व्यक्ति या किसी अन्य की संपत्ति को चोट पहुंचाता;  या
  5. अदालत द्वारा अनैतिक (इम्मोरल) माना जाता है या सार्वजनिक नीति का विरोध करता है।

इनमें से प्रत्येक मामले में, गैरकानूनी प्रतिफल के कारण, अनुबंध को शून्य घोषित कर दिया जाएगा।

अवलोकन (ऑब्जर्वेशन)

आईसीए कानून का एक अच्छा हिस्सा है, लेकिन हर चीज की तरह, इसे प्रासंगिक और उपयोगी बने रहने के लिए समय के साथ बदलने की जरूरत है। विभिन्न पार्टियों के बीच अनुबंधों में उल्लेखनीय वृद्धि और परिणामस्वरूप विवादों के साथ वर्तमान कारोबारी माहौल में इसका महत्व कई गुना बढ़ गया है। दुनिया भर में व्यवसायों के विस्तार के साथ तकनीकी तक पहुंच के साथ, इस अधिनियम का महत्व केवल बढ़ रहा है। नए प्रकार के अनुबंधों में अधिक लोगों के प्रवेश करने और कारोबारी माहौल में बदलाव के साथ, संविदात्मक (कॉन्ट्रैक्चुअल) संबंधों में प्रवेश करने वाली पार्टी के हितों की रक्षा के लिए, इसे प्राप्त करने के लिए संशोधन की आवश्यकता की मांग की गई है।

इलेक्ट्रॉनिक / ऑनलाइन अनुबंध

इलेक्ट्रॉनिक अनुबंध गति, सुगमता (ईज) और उत्पादकता (प्रोडक्टिविटी) की आवश्यकता से पैदा होते हैं। यद्यपि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम में ई-अनुबंध कानूनी हैं, ऑनलाइन अनुबंधों से निपटने और निष्पादित करने के दौरान कुछ असुरक्षा है। ई-अनुबंध के गठन के संबंध में नियमों को और अधिक स्पष्टता देते हुए, संशोधन में ई-अनुबंध में अधिकार क्षेत्र, पार्टियों के अधिकारों और देनदारियों (लायबिलिटी), और एक पार्टी द्वारा एकतरफा (यूनीलेटरल) गलतियों के मामलों के मुद्दों को संबोधित करने की आवश्यकता है।

नाबालिग का दायित्व

नाबालिगों के प्रति भारतीय कानून की वर्तमान स्थिति (जैसा कि विशिष्ट राहत अधिनियम, (स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट) 1963 की धारा 33 मे व्याख्या की गई है) उन खामियों को जन्म देती है जो नाबालिग दायित्व से बचने के लिए प्रयोग कर सकते हैं और आईसीए में इससे संबंधित कोई विशेष प्रावधान नहीं है।

मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष के मामले में, भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 65 के अनुप्रियोग को चुनौती दी गई थी। प्रिवी अदालत ने माना कि यह तर्क तभी मान्य हो सकता है जब पार्टी अनुबंध करने के लिए कानूनी रूप से सक्षम हों। हालांकि, अपनी 13वीं रिपोर्ट में, विधि आयोग ने कहा कि उनका मानना ​​है कि प्रिवी काउंसिल द्वारा एक गलत व्याख्या पास की गई थी और सिफारिश की थी कि एक स्पष्टीकरण जोड़ा जाए जहां एक नाबालिग झूठे प्रतिनिधित्व पर एक समझौता करता है कि वह एक व्यस्क है।

अनुबंध की अनुचित (अनफेयर) शर्तों को विनियमित (रेगुलेट) करना

अनुबंधों में अनुचितता को नियंत्रित करने वाले सिद्धांतों को विकसित करना आवश्यक है। इसका विभिन्न अनुबंधों में व्यापक प्रभाव होगा, जिसमें उधार समझौते, बिल्डर-डेवलपर समझौते, ऋण साधन, मकान मालिक-किरायेदारी समझौते, सरकारी अनुबंध और मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन) समझौते शामिल हैं।

अधिकांश विकसित प्रणालियों ने अनुबंधों में अनुचितता से निपटने और प्रक्रियात्मक और वास्तविक अनुचितता की संभावना को पहचानने के तरीके विकसित किए हैं। कानूनी विशेषज्ञों की इस धारणा पर आम सहमति है कि न्यायालयों को अनुचितता के मुद्दे से निपटने के लिए सुसज्जित होना चाहिए, भले ही पार्टियों ने ऐसी याचिका नहीं उठाई हो। अपनी 103वीं रिपोर्ट में, विधि आयोग ने अनुचित शर्तों के मामले को संबोधित किया था, जिस पर निर्णय लंबित है।

निष्कर्ष

बाध्यकारी अनुबंधों को समाप्त करने की संभावना के बिना आधुनिक समाज अकल्पनीय है। अनुबंध न केवल व्यवसायों को वस्तुओं का व्यापार करने और सेवाओं का प्रस्ताव करने की अनुमति देते हैं, बल्कि नागरिक दैनिक जीवन में चीजों को आगे बढ़ाने के लिए अनुबंधों का भी उपयोग करते हैं- भले ही उन्हें हमेशा इसका एहसास न हो। अनुबंध कानून वर्तमान समाज का एक हिस्सा है जिसके बिना समाज की कल्पना करना लगभग असंभव है। जब एक समग्र परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टिव) में एक साथ देखा जाता है, तो कोई यह समझता है कि आवश्यक शर्तों को पूरा करने से एक अनुबंध पूरी तरह से सहमति और कानूनी रूप से बनाया जा सकता है। यह समझ आईसीए के अन्य धाराओं के संदर्भ में आईसीए के व्याख्या खंड का गहन विश्लेषण करने के बाद ही आती है।

संदर्भ

 

 

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