यह लेख ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी, हरियाणा की छात्रा Vedika Goel के द्वारा लिखा गया है। यह लेख आई.पी.सी., 1860 की धारा 153 और 153 A का विस्तृत विश्लेषण (एनालिसिस) प्रदान करता है, जो किसी भी प्रकार के दंगे या धार्मिक शत्रुता को भड़काने या फैलाने वाले लोगों को दंडित करने का प्रयास करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।
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परिचय
भारत का संविधान अपने नागरिकों को कुछ बुनियादी मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है। अनुच्छेद 21, अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19 के तहत क्रमशः जीवन का अधिकार, समानता का अधिकार और भाषण और अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) की स्वतंत्रता का अधिकार सबसे महत्वपूर्ण है। हालांकि, यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि नागरिकों द्वारा ऐसे अधिकारों का दुरुपयोग न किया जाए। इस विशेष कारण से, विधान में विभिन्न कानून हैं जो न केवल इन मौलिक अधिकारों के किसी भी संभावित दुरुपयोग के लिए सुरक्षा उपायों के रूप में कार्य करते हैं बल्कि विभिन्न सांस्कृतिक और जातीय समूहों के बीच सद्भाव भी सुनिश्चित करते हैं। भारतीय दंड संहिता, 1860 (आई.पी.सी.), प्रतिबंध या दंड के रूप में विभिन्न प्रावधान प्रदान करती है। आई.पी.सी. की धारा 153 और 153A उन लोगों को दंडित करने का प्रयास करती है जो भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की छत्रछाया में किसी भी प्रकार की धार्मिक शत्रुता फैलाने का कार्य करते हैं।
यह लेख आई.पी.सी. की धारा 153 और 153 A के दायरे और प्रकृति के बारे में न्यायपालिका द्वारा पास किए गए विभिन्न निर्णयों के विस्तृत विश्लेषण के साथ-साथ इन प्रावधानों के तहत प्रदान किए गए अनिवार्य तत्वों, दंडों और आवश्यक कार्यों पर चर्चा करता है।
भारत में घृणा अपराध
घृणा अपराध, जैसा कि नाम से पता चलता है, इसमें वे आपराधिक कार्य शामिल होते हैं जो पूरी तरह से किसी विशेष समूह या समुदाय के प्रति पूर्वाग्रह (प्रेजुडिस), घृणा या असंतोष से प्रेरित होते हैं। इस तरह की घृणा का मूल कारण ज्यादातर धार्मिक, जातीय और विभिन्न समूहों के बीच नस्लीय (रेशियल) मतभेद होते है। हालांकि, घृणा अपराध आमतौर पर बड़े पैमाने पर एक समुदाय के खिलाफ किया जाता है और इसलिए इस अपराध का परिणाम गंभीर और बेहद विनाशकारी होता है। भारत, जिसे सांस्कृतिक विविधता (डायवर्सिटी) के केंद्र के रूप में भी जाना जाता है, में विभिन्न धर्मों, जातियों, नस्लों, पंथों (क्रीड्स) और यहां तक कि भाषाओं से संबंधित समूह और समुदाय रहते हैं। भारत ने विभाजन से लेकर आज तक विभिन्न धार्मिक मतभेदों को देखा है। विभाजन के दौरान गोधरा दंगे, मुजफ्फरनगर दंगे, बंगाल में हुए बदूरीया दंगे विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच घृणा, वैमनस्य (डिसहार्मनी) और शत्रुता की उपस्थिति के स्पष्ट उदाहरण हैं। भारत में धार्मिक दंगों की बढ़ती संख्या ने विधायिका के हस्तक्षेप करने को और कुछ कानूनों को लाने को आवश्यक बना दिया है जो ऐसे कार्यों को अपराधी बना सकते हैं।
आई.पी.सी. की धारा 153 के तहत अपराध की प्रकृति
आई.पी.सी. की धारा 153 में कहा गया है कि जो कोई भी व्यक्ति जानबूझकर या अनजाने में अवैध तरीकों से किसी दंगे का कारण बनता है या किसी को उकसाता है और जानता है कि इस तरह के उकसावे से दंगा का अपराध हो सकता है, तो इस प्रावधान के तहत उसे दंडित किया जा सकता है। इस प्रावधान का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि कोई भी सजा से बच नहीं सकता है भले ही दंगा न किया गया हो। इसका मतलब यह है कि यह धारा अपराधी को दोषी ठहराती है, भले ही इस तरह के उकसावे का परिणाम सीधे दंगा न हो। आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 1 के अनुसार, अपराध को संज्ञेय (कॉग्निजेबल) और गैर-संज्ञेय के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।
जहां एक संज्ञेय अपराध पुलिस अधिकारी को बिना वारंट के आरोपी को गिरफ्तार करने की अनुमति देता है, वहीं एक गैर संज्ञेय अपराध, पुलिस अधिकारी को अदालत से आवश्यक अनुमति लेने के बाद ही ऐसा करने की अनुमति देता है। इसके अलावा, संज्ञेय अपराध मुख्य रूप से गंभीर प्रकृति के अपराधों से संबंधित होते हैं, और गैर-संज्ञेय अपराधों में आमतौर पर निजी गलतियाँ होती हैं जो प्रकृति में कम गंभीर होती हैं। हालांकि धारा 153 के तहत किया गया अपराध एक गंभीर प्रकृति का है, इसे एक संज्ञेय अपराध के रूप में वर्गीकृत किया जाता है जिसमें आरोपी को बिना वारंट के गिरफ्तार किया जा सकता है।
आई.पी.सी. की धारा 153 के तहत दायित्व
आई.पी.सी. की धारा 153 इस अपराध की सजा को दो भागों में निर्धारित करती है। सबसे पहले, यदि उकसावे के परिणामस्वरूप दंगा होता है, तो व्यक्ति एक वर्ष की सजा या जुर्माना या दोनों से दंडनीय होगा। इसके अनुसार, इसे एक जमानती अपराध माना जाता है और किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय (ट्रायबल) है। दूसरा, यदि दंगा नहीं किया जाता है, तो व्यक्ति 6 महीने की सजा या जुर्माना या दोनों से दंडित किया जाएगा। पहले भाग की तरह, यह अपराध भी जमानती है, हालांकि, यह केवल प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा ही विचारणीय है। इसलिए, इस प्रावधान के तहत व्यक्ति के दायित्व का निर्धारण करने के लिए पहला कदम उकसावे के परिणाम को देखना है। तदानुसार, एक बार यह निर्धारित हो जाने के बाद, इस धारा के तहत व्यक्ति पर दायित्व लगाया जा सकता है।
धारा 153 के तहत निर्णय
आई.पी.सी. की धारा 153 के दायरे और प्रकृति को समझने के लिए, इस प्रावधान की अदालत द्वारा दी गई व्याख्या की स्पष्ट समझ होना जरूरी है। यह खंड उन महत्वपूर्ण मामलों से निपटेगा जो आई.पी.सी. की धारा 153 के तहत भारत में अदालतों के सामने आए हैं।
अरुण पुरी बनाम एच.एल. वर्मा और अन्य (1998)
इस मामले में, शिकायतकर्ता, जो बॉम्बे का एक वकील था, वह छत्रपति शिवाजी का भक्त था, जिन्हें भगवान का अवतार माना जाता था, जिन्हें बॉम्बे को “सनाता हिंदू धर्म” की रक्षा और प्रचार करने के लिए पृथ्वी पर भेजा गया था। इसके अलावा, यह आरोप लगाया गया था कि 1991 में, ‘इंडिया टुडे’ नामक एक लोकप्रिय पत्रिका ने ‘धर्मनिरपेक्षता (सेक्युलरिज्म)’ के विषय पर एक बहस शुरू की थी। बहस में कुछ प्रमुख हस्तियों की भागीदारी आमंत्रित की गई थी।
याचिकाकर्ता, अरुण पुरी ने उपरोक्त बहस की अध्यक्षता की थी। यह आरोप लगाया गया था कि एक आरोपी ने बहस में कुछ अपमानजनक टिप्पणी की थी जिससे शिवाजी के समर्थकों में काफी विरोध हुआ था। इसलिए, याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि इस तरह की टिप्पणी आई.पी.सी. की धारा 153 के तहत किए गए अपराध को आकर्षित करती है। याचिकाकर्ता ने यह भी तर्क दिया कि वह केवल विभिन्न व्यक्तित्वों द्वारा व्यक्त विचारों की अध्यक्षता और मिलान कर रहा था और इस तरह इस विरोध को पैदा करने में उसका कोई हाथ नहीं था।
न्यायालय ने आई.पी.सी. की धारा 153 के तीन आवश्यक तत्वों को इस प्रकार निर्धारित किया:
- किया गया कार्य प्रकृति में अवैध होना चाहिए,
- इस तरह के एक अवैध कार्य को दुर्भावनापूर्ण इरादे से किया जाना चाहिए,
- दंगे का अपराध इस तरह के एक अवैध कार्य का परिणाम होना चाहिए।
इसलिए, आई.पी.सी. की धारा 153 के आवश्यक तत्वों को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय ने याचिकाकर्ता की दलीलों से सहमति व्यक्त की और फैसला सुनाया कि केवल ‘धर्मनिरपेक्षता’ के विषय पर संपादक (एडिटर) की अध्यक्षता करना एक अवैध कार्य नहीं माना जा सकता है। इसके अलावा, संपादक द्वारा वाद-विवाद का प्रकाशन (पब्लिकेशन) भी एक अवैध कार्य नहीं माना जा सकता है। न्यायालय ने एक बार फिर दोहराया कि भले ही टिप्पणी घातक थी, फिर भी यह धारा 153 के अपराध को आकर्षित नहीं कर सकती क्योंकि भाषणों के प्रकाशन के साथ-साथ भाषण की अध्यक्षता करना एक अवैध कार्य नहीं माना जा सकता है। इसलिए, यह निर्णय बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि यह आई.पी.सी. की धारा 135 के महत्वपूर्ण तत्वों पर जोर देता है।
डॉ अंबुमणि रामदास बनाम तमिलनाडु राज्य (2021)
इस हाल ही के मामले में, एक याचिकाकर्ता द्वारा दिए गए एक बयान से सांप्रदायिक (कम्यूनल) तनाव पैदा हो गया था, जिससे संपत्ति का गंभीर नुकसान हुआ था। सांप्रदायिक तनाव अंततः दंगे का कारण बना था। बयान में वर्तमान सरकार के साथ असंतोष की एक निश्चित भावना व्यक्त की गई थी क्योंकि उसने एक निश्चित मुद्दे पर कोई कार्रवाई नहीं की थी। अदालत ने याचिकाकर्ता के पक्ष में फैसला सुनाया और कहा कि कुछ तत्वों पर आवश्यक उपाय नहीं करने के लिए सरकार के साथ असंतोष व्यक्त करना ही सही है। इसका मतलब यह नहीं है कि ऐसा बयान देने वाला व्यक्ति समुदायों के बीच दंगा भड़काने या उकसाने का इरादा रखता है। इसलिए, यह हाल ही का निर्णय एक बार फिर आई.पी.सी. की धारा 153 के दायरे के साथ-साथ प्रकृति को दोहराता है।
आई.पी.सी. की धारा 153 A
आई.पी.सी. की धारा 153 A उन लोगों को दंडित करने का प्रयास करती है जो धर्म, जाति, नस्ल, जन्म स्थान या निवास, या यहां तक कि भाषा के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच किसी भी तरह की दुश्मनी को बढ़ावा देने के लिए कार्य करते हैं। प्रावधान उन पर दायित्व डालता है जो-
- विभिन्न समूहों, धर्मों, जातियों या समुदायों के लोगों के बीच वैमनस्य, घृणा या अशांति पैदा करने के इरादे से शब्दों (बोलने या लिखित), दृश्य प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंटेशन) और संकेतों के रूप में शत्रुता फैलाते है।
- वैमनस्य फैलाना और विभिन्न नस्लीय और धार्मिक समूहों के लोगों की सार्वजनिक शांति भंग करते है।
- कुछ आंदोलनों, अभ्यासों के आयोजन (ऑर्गेनाइज) में सहायता करना, जो अन्य नस्लीय और धार्मिक समूहों और समुदायों से संबंधित लोगों पर आपराधिक बल और हिंसा का उपयोग करने के लिए ऐसे आंदोलनों के प्रतिभागियों को प्रोत्साहित करने के साथ-साथ प्रशिक्षित (ट्रेन) भी करते है।
धारा 153 A की प्रकृति
धारा 153 A शब्दों, बयानों और यहां तक कि हिंसा या आपराधिक बल के माध्यम से लोगों के विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी और वैमनस्य फैलाने वालों पर आपराधिक दायित्व लागू करती है, इसलिए इस धारा के तहत किया गया अपराध निस्संदेह गंभीर प्रकृति का है। तदनुसार, धारा 153 A के तहत किया गया अपराध एक संज्ञेय अपराध है, जिससे पुलिस अधिकारी बिना वारंट के आरोपी को गिरफ्तार कर सकते हैं। इसके अलावा, अपराध प्रकृति में गैर-जमानती है जिसमें आरोपी पर प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा मुकदमा चलाया जाता है।
धारा 153 A और धारा 295 A आई.पी.सी.
हालांकि आई.पी.सी. की धारा 153 A को ब्रिटिश काल के दौरान ही जोड़ा गया था, इस तरह के अपराधों के दायरे को व्यापक बनाने के लिए कानून ने आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 1927 द्वारा आई.पी.सी. में धारा 295 A को भी पेश किया था। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि धारा 295 A और धारा 153 A साथ-साथ लागू होते हैं। इसका मतलब यह है कि दोनों प्रावधान एक दूसरे से सम्बंधित हैं और इन धाराओं के तहत सूचीबद्ध अपराध आपस में जुड़े हुए हैं।
धारा 295 A में कहा गया है कि जो लोग इशारों या शब्दों के माध्यम से किसी विशेष समूह की किसी भी धार्मिक भावनाओं का अपमान करने का प्रयास करते हैं, उन्हें इस अपराध के तहत दंडित किया जा सकता है।
दोनों धाराओं के बीच एकमात्र अंतर यह है कि धारा 295 A किसी भी धार्मिक समूह या धर्म का अपमान करने वालों को अपराधी बनाती है, दूसरी ओर, आई.पी.सी. धारा 153 A, दो अलग-अलग समूहों के बीच दुश्मनी पैदा करने को अपराध के तहत लाती है, न कि केवल एक समूह के भीतर जैसा कि आई.पी.सी. की धारा 295 A के तहत दिया गया है।
आई.पी.सी. की धारा 153 A की अनिवार्यता
आई.पी.सी. की धारा 153 A के आवश्यक तत्वों को समझने के लिए, कुछ महत्वपूर्ण निर्णयों को समझना आवश्यक हो जाता है, जो आई.पी.सी. की धारा 153 A के तत्व प्रदान करते हैं।
रामजी लाल मोदी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1957)
इस मामले में, अदालत ने स्पष्ट किया कि धारा 153 A के तहत अपराध का गठन करने के लिए, बयान, शब्द या कार्य दुर्भावनापूर्ण होना चाहिए और अनजाने में नहीं हो सकता। इसलिए, मेन्स रीआ आई.पी.सी. की धारा 153 A का एक अनिवार्य घटक है। इसके अलावा, मंजर सईद खान बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में, अदालत ने दोहराया और कहा कि अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) पक्ष को प्रथम दृष्टया (प्राइमा फेसी) यह स्थापित करना चाहिए कि आरोपी के पास विभिन्न वर्गों के लोगों के बीच दुश्मनी पैदा करने का मेन्स रीआ था।
अज़ीज़ल हक कौसर नकवी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1980)
इस मामले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले ने यह स्पष्ट किया कि यदि शब्द या बयान सौम्य (माइल्ड) और सम्मानजनक प्रकृति के हैं और किसी समूह या समुदाय की गहरी धार्मिक भावनाओं को आहत या अपमान नहीं करते हैं, तो धारा 153 A के तहत कोई अपराध नहीं है।
बिलाल अहमद कालू बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1997)
इस मामले में, अदालत ने कहा कि आई.पी.सी. की धारा 153 A के अपराध को आकर्षित करने के लिए, यह स्पष्ट रूप से जांचना महत्वपूर्ण है कि क्या कथित दुश्मनी दो अलग-अलग समूहों के बीच हुई है। इसलिए, केवल एक समुदाय की धार्मिक भावनाओं को भड़काते हुए एक धार्मिक समुदाय का उल्लेख करना आई.पी.सी. की धारा 153 A के तहत अपराध नहीं हो सकता है।
अमीश देवगन बनाम भारत संघ (2020)
इस हाल ही के 2020 के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने आई.पी.सी. धारा 153 A के तहत अपराध के दायरे के साथ-साथ इसके आवश्यक तत्वों को स्पष्ट किया है। न्यायालय ने आई.पी.सी. की धारा 153 A के तहत ‘सार्वजनिक शांति’ शब्द के दायरे की व्याख्या की और कहा कि इस शब्द को ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ शब्द के संयोजन (कॉम्बिनेशन) के साथ पढ़ा जाना चाहिए। इसलिए, इसका मतलब है कि कानून और व्यवस्था के सामान्य और नियमित मुद्दे सार्वजनिक शांति के दायरे में नहीं आ सकते हैं और इसलिए, आई.पी.सी. की धारा 153 A के तहत अपराध नहीं बन सकते है। न्यायालय ने यह भी कहा कि यह महत्वपूर्ण है कि इस प्रावधान के दुरुपयोग को हर कीमत पर रोका जाए।
अत: न्यायालय के उपरोक्त निर्णयों को ध्यान में रखते हुए धारा 153 A के आवश्यक तत्वों को संक्षेप में प्रस्तुत किया जा सकता है:
- शब्दों, बयानों या संकेतों से विभिन्न नस्लीय, धार्मिक और भाषा समूहों के बीच दुश्मनी, घृणा और सद्भाव में गड़बड़ी पैदा होनी चाहिए।
- कथित दुश्मनी दो या दो से अधिक समुदायों के बीच होनी चाहिए। धारा आई.पी.सी. की 153 A के तहत सजा को आकर्षित करने के लिए केवल दूसरे समुदाय का उल्लेख पर्याप्त नहीं है।
- मेन्स रीआ की उपस्थिति, अर्थात, व्यक्ति के पास विभिन्न समूहों और लोगों के समुदायों के बीच शत्रुता और वैमनस्य पैदा करने का इरादा होना चाहिए।
- बोले या लिखे गए शब्द गंभीर प्रकृति के होने चाहिए और समूह या समुदाय की गहरी धार्मिक भावनाओं को सीधे आहत करने वाले होने चाहिए।
- सार्वजनिक शांति ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ शब्द का पर्याय है। इसका मतलब यह है कि कानून और व्यवस्था के नियमित मुद्दों में गड़बड़ी इस अपराध को आकर्षित नहीं करती है।
धारा 153 A के तहत सजा
इस अपराध की गंभीर प्रकृति को ध्यान में रखते हुए, आरोपी को कारावास की सजा जो तीन साल तक हो सकती है या जुर्माना या दोनों से दंडित किया जा सकता है। हालांकि, एक दिलचस्प बात यह है कि जिन मामलों में पूजा की जगह में अपराध किया जाता है, वही सजा पांच साल तक या जुर्माना या दोनों हो सकती है।
निष्कर्ष
भारत, एक संप्रभु (सोवरेन), समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और एक धार्मिक देश होने के नाते, सबसे विविध समूहों और समुदायों का घर भी है। तदनुसार, संविधान अपने नागरिकों को मौलिक अधिकारों की अधिकता की गारंटी भी देता है। हालांकि, इन अधिकारों का लगातार दुरुपयोग एक खतरनाक कार्य था, जिसके कारण कानून के लिए एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाना और कुछ सुरक्षा उपायों को बनाना महत्त्वपूर्ण हो गया था। अपनी विविधता के लिए लोकप्रिय देश में विभिन्न समूहों के बीच धार्मिक मतभेद और घृणा असामान्य नहीं है।
इसलिए, धारा 153, 153 A और यहां तक कि धारा 295 A जैसे कानूनों को ‘विविधता में एकता’ प्राप्त करने की दिशा में लक्षित किया जाता है। इसके अलावा, यह एक जाना माना तथ्य है कि जिस स्वतंत्रता की गारंटी दी जाती है वह पूर्ण नहीं है। इसलिए, संतुलन हासिल करने और यह सुनिश्चित करने के लिए कि स्वतंत्रता का किसी भी तरह से दुरुपयोग न हो, कुछ प्रतिबंध आवश्यक हैं। धर्म विशिष्ट कानूनों को पेश करना निस्संदेह एक स्वागत योग्य कदम है। हालांकि, इन धाराओं में कुछ खामियाँ अभी भी मौजूद हैं।
उदाहरण के लिए, तर्कसंगतता (रीजनेबिलीटी) कारक पर इस धारा में कुछ नही कहा गया है। सरल शब्दों में, यह शत्रुता के आवश्यक तत्वों को परिभाषित नहीं करता है। इस सटीक कारण से, अदालतें धार्मिक मुद्दों पर कई छोटे मामलों से भरी पड़ी हैं। जबकि अदालतों ने इन धाराओं के दायरे पर लगातार चर्चा की है, यह महत्वपूर्ण है कि विधान एक संशोधन पारित करे जो अपवादों को स्पष्ट रूप से बताते हुए पूर्ण शत्रुता के दायरे को संबोधित कर सके। यह इन धाराओं में मौजूदा खामियों को दूर करने की दिशा में एक कदम आगे होगा।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
1. आई.पी.सी. की धारा 153 A और धारा 295 A में मुख्य अंतर क्या है?
हालांकि धारा 295 A किसी भी धार्मिक समूह या धर्म का अपमान करने वालों को अपराधी बनाती है, दूसरी ओर, आई.पी.सी. की धारा 153 A, दो अलग-अलग समूहों के बीच दुश्मनी पैदा करने को अपराध के तहत लाती है, न कि केवल एक समूह के भीतर, जैसा कि आई.पी.सी. की धारा 295 A के तहत दिया गया है।
2. क्या आई.पी.सी. की धारा 153 A के तहत अपराध करने के लिए इरादा एक आवश्यक तत्व है?
न्यायालय द्वारा विभिन्न निर्णयों में यह स्पष्ट किया गया है कि आई.पी.सी. की धारा 153 A के तहत अपराध का गठन करने के लिए दुर्भावनापूर्ण इरादे रखना एक आवश्यक तत्व है। अभियोजन पक्ष को प्रथम दृष्टया यह स्थापित करना चाहिए कि आरोपी के पास विभिन्न वर्गों के लोगों के बीच शत्रुता पैदा करने का कारण था।
3. क्या कोई व्यक्ति दायित्व से बच सकता है, भले ही परिणाम आई.पी.सी. की धारा 153 के तहत दंगा न हो?
प्रावधान के अनुसार, दंगा न होने पर भी कोई व्यक्ति सजा से बच नहीं सकता है। इसका मतलब यह है कि यह व्यक्ति को दोषी करता है, भले ही इस तरह के उकसावे का परिणाम सीधे दंगा न हो।
संदर्भ