यह लेख Isha Garg द्वारा लिखा गया है। यह धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज करने के लिए कानूनी आवश्यकताओं की पड़ताल (एक्सप्लोर) करता है और धारा के प्रमुख तत्वों पर विस्तार से चर्चा करता है। इसमें कानूनी ढांचे और इसके व्यावहारिक निहितार्थों (प्रैक्टिकल इंप्लिकेशंस) की पूरी समझ प्रदान करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के नवीनतम और ऐतिहासिक फैसलों को भी शामिल किया गया है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।
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परिचय
वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन) के आगमन के साथ, लेन-देन को सुरक्षित करना समय की मांग बन गया। शुरू में, व्यापार वस्तु विनिमय (बार्टर) प्रणाली के माध्यम से किया जाता था, जिसे बाद में नकद लेन-देन द्वारा प्रतिस्थापित (रिप्लेस) किया गया। हालाँकि, चेक और विनिमय बिल (बिल ऑफ एक्सचेंज) जैसे परक्राम्य लिखतों (नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स) की शुरूआत ने व्यापार में क्रांति (रिवोल्यूशन) ला दी है। इन लिखतों ने पैसे या राशि के आदान-प्रदान को आसान बनाया, जिससे व्यवसायों को नकद के भौतिक हस्तांतरण (फिजिकल ट्रांसफर ऑफ़ कैश) के बिना लेन-देन करने की अनुमति मिली। बैंकिंग क्षेत्र के विकास के साथ, चेक लेन-देन का एक अधिक सुविधाजनक तरीका बन गया है। लेकिन ऐसी संभावना होती है कि चेक जारी करने वाले के खाते में अपर्याप्त या कोई राशि नहीं होने पर भी चेक जारी किए जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप चेक का अनादर (डिसऑनर) होता है। चेक के आदाता (ड्राई) या भुगतान करनेवाले (पेई) की सुरक्षा के लिए, यह आवश्यक समझा गया कि चेक का अनादर एक दंडनीय अपराध बनाया जाए। हालाँकि 1881 के परक्राम्य लिखत अधिनियम (जिसे आगे एनआई अधिनियम के रूप में संदर्भित किया जाता है) के तहत नागरिक समाधान (सिविल रेमेडीज) मौजूद थे, विधायिका ने राय दी कि ऐसे कृत्यों को कम करने के लिए, निवारक दंड (डिटेरेंट पनिशमेंट) की आवश्यकता थी। इसलिए, बैंकिंग, सार्वजनिक वित्तीय संस्थान (पब्लिक फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन) और परक्राम्य लिखत कानून (संशोधन) अधिनियम 1988 की धारा 138 से 142 के तहत अतिरिक्त आपराधिक समाधान प्रदान किए गए थे। इन उपायों के पीछे का उद्देश्य चेक के उपयोग को प्रोत्साहित करना और उनकी वैधता को मजबूत करना था। 1881 के परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 केवल अनादरित चेक के मामले में भुगतान करनेवाले या धारक को सुरक्षा प्रदान करने के लिए लाभ प्रदान करती है। वाणिज्यिक और वित्तीय लेन-देन में चेक के माध्यम से किए गए लेनदेन की विश्वसनीयता (ट्रस्टवर्थिनेस) और विश्वस्तता (रिलियाबिलिटी) सुनिश्चित करने में यह धारा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उभरते कारोबारी माहौल के अनुकूल होने के लिए इस धारा में कई संशोधन किए गए हैं। धारा 138 में अंतिम संशोधन 2002 में किया गया था।
परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के पीछे उद्देश्य
वाणिज्यिक दुनिया में, चेक जारी करने वालों की ओर से जवाबदेही (अकाउंटेबिलिटी) की कमी के कारण चेक की विश्वसनीयता कम होती जा रही थी। इसलिए, सामान्य तौर पर, अधिनियम की धारा 138 का उद्देश्य वाणिज्यिक लेनदेन में चेक की विश्वसनीयता को बनाए रखना है, और अपर्याप्त धनराशि वाले या धोखाधड़ी के इरादे से चेक जारी करने से रोकना है। विशेष रूप से, इस धारा के उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
- निवारण (डिटेरेंस): व्यक्तियों को पर्याप्त शेष राशि के बिना या धोखाधड़ी के इरादे से चेक जारी करने से रोकना।
- कानूनी जवाबदेही: इसका उद्देश्य चेक के अनादर के लिए लोगों को आपराधिक रूप से उत्तरदायी ठहराना है और भुगतान करनेवाले के लिए कानूनी उपाय सुनिश्चित करना है।
- विश्वास को बढ़ावा देना: चेक के दुरुपयोग को रोकने के लिए कानूनी तंत्र प्रदान करके वित्तीय लेनदेन में विश्वास और आत्मविश्वास को बढ़ावा देना।
- वित्तीय अनुशासन (फाइनेंशियल डिसिप्लिन): इसका उद्देश व्यक्तियों और व्यवसायों के बीच वित्तीय अनुशासन को प्रोत्साहित करने के लिए यह सुनिश्चित करना है की व्यावसायिक लेनदेन को सुरक्षित रखने के लिए चेक का जिम्मेदारीपूर्वक भुगतान किया जाए।
- शीघ्र समाधान: चेक अनादर मामलों के लिए त्वरित समाधान प्रक्रिया की सुविधा प्रदान करना, जिससे नागरिक समाधान की तुलना में मुकदमेबाजी का समय कम हो और न्यायिक दक्षता (ज्यूडिशियल एफिशिएंसी) में वृद्धि हो।
परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 का स्पष्टीकरण
अधिनियम की धारा 138 में उन परिस्थितियों का प्रावधान है, जिनके तहत चेक के अनादर का मामला दर्ज किया जाता है। धारा 138 के अनुसार, जब कोई व्यक्ति अपने बैंकर पर किसी भी राशि के भुगतान के लिए ऋण या दायित्व के पूरे या किसी हिस्से के भुगतान के लिए कोई चेक देता है, तो चेक में उल्लिखित राशि को पूरा करने के लिए धन की कमी के कारण, या उस बैंक के साथ किए गए समझौते द्वारा उस खाते से भुगतान की जाने वाली राशि से अधिक होने के कारण उसका अनादर हो जाता है, ऐसे व्यक्ति, यानी चेक जारी करने वाले को अपराध करने वाला माना जाता है। इस धारा के तहत, वह दो साल तक की सजा या चेक की राशि के दोगुने तक की राशि के जुर्माने या दोनों के लिए उत्तरदायी होगा।
इस धारा के अंतर्गत अपराध सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित आवश्यक बातें साबित की जाएंगी:
कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण या देयता
चेक किसी मौजूदा ऋण या देयता के निर्वहन के लिए तैयार किया गया होना चाहिए जो कानूनी रूप से लागू हो। हालाँकि, नैतिक दायित्व के निर्वहन में या अवैध विचार के लिए उपहार या दान के रूप में दिया गया चेक इस खंड के प्रयोजनों के लिए ऋण या देयता नहीं माना जाएगा।
सोमनाथ बनाम मुकेश कुमार (2015) के मामले में, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि यदि चेक समय-बाधित ऋण (टाइम बर्ड) के लिए जारी किया गया है, तो इसे धारा 138 के प्रयोजन के लिए कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण नहीं माना जाएगा।
अपर्याप्त कोष (इंसफीशिएंट फंड)
खाते में पर्याप्त धनराशि न होने या बैंक के साथ समझौते के तहत उस खाते से भुगतान की जाने वाली राशि से अधिक होने पर चेक को बिना भुगतान के वापस किया जाना चाहिए। हालाँकि, धारा 138 उन चेकों को इसमें शामिल नहीं करती है जो तकनीकी कारण जैसे कि पृष्ठांकन की अनियमितता (इरेगुलेरिटी ऑफ एंडोर्समेंट) या शब्दों और आंकड़ों में बताई गई राशियों के बीच विसंगति (डिस्क्रिपेंसी) के कारण अनादृत हो जाते हैं। लेकिन अगर चेक जारी करने वाले को ईमानदारी से लगता है कि चेक का भुगतान हो जाएगा या उसके पास यह मानने का कोई कारण नहीं है कि चेक का भुगतान नहीं होगा, तो इस धारा के तहत देयता से बचने के लिए कोई बचाव नहीं है।
3 महीने के भीतर प्रस्तुत किया गया
चेक जारी होने की तिथि से 3 महीने के भीतर या वैधता अवधि के भीतर, जो भी पहले हो, तब प्रस्तुत किया जाना चाहिए। 4 नवंबर, 2011 को आरबीआई की अधिसूचना द्वारा चेक प्रस्तुत करने की अवधि 6 महीने से घटाकर 3 महीने कर दी गई थी।
कानूनी नोटिस
धारा 138 के प्रावधान (b) में यह प्रावधान है कि बैंक से चेक के अनादर के बारे में सूचना प्राप्त होने के तीस दिनों के भीतर, प्राप्तकर्ता या धारक को, यथासमय, चेक में उल्लिखित धनराशि के भुगतान के लिए आहर्ता से लिखित रूप में मांग करनी चाहिए।
प्रावधान (c) के अनुसार नोटिस में यह उल्लेख होना चाहिए कि चेक में लिखी गई राशि का भुगतान चेक आहर्ता को नोटिस मिलने की तिथि से 15 दिनों के भीतर किया जाना चाहिए। यदि वह भुगतान करने में विफल रहता है, तो वह इस धारा के तहत आपराधिक शिकायत दर्ज कर सकता है। इसलिए, चेक के अनादर की नोटिस आहर्ता को दिए जाने के 16वें दिन कार्रवाई का कारण बनता है।
परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत मांग नोटिस भेजने का कोई विशेष तरीका नहीं बताया गया है। अत: इसे डाक द्वारा या किसी भी इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के जरिए से भेजा जा सकता है।
पंजीकृत डाक द्वारा सूचना
यदि नोटिस पंजीकृत डाक से भेजा जाता है और बिना तामील हुए वापस आ जाता है, तो तामील की धारणा बनती है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने सोम नाथ बनाम पंजाब राज्य और अन्य (2007) के मामले में कहा कि निम्नलिखित मामलों में उचित तामील की धारणा बनाई जा सकती है:
- बेदावा (अनक्लेम्ड)
- स्वीकार करने से इनकार कर दिया
- आहर्ता मौजूद नहीं था
के. भास्करन बनाम शंकरन वैद्यन बालन और अन्य (1999) के मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि कानूनी नोटिस की तामिल (सर्विस) होना नोटिस प्राप्त होने के समान नहीं है। नोटिस देने में एक प्रक्रिया शामिल होती है, जबकि नोटिस की प्राप्ति उसके पूरा होने का संकेत देती है। भुगतानकर्ता (पेई) को नोटिस सही पते पर भेजनी चाहिए और एक बार नोटिस भेजे जाने के बाद, उसकी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है। यह स्थापित है कि यदि नोटिस अस्वीकार किए जाने के बजाय आहर्ता द्वारा दावा किए बिना वापस आ जाती है, तो इसे तब तक वितरित माना जाता है जब तक कि प्राप्तकर्ता इसके विपरीत साबित न कर दे।
इसके अलावा, सी. सी. अलवी हाजी बनाम पलापेट्टी मुहम्मद और अन्य (2007) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि यदि शिकायतकर्ता नोटिस जारी करने वाले को नोटिस की तारीख बताए बिना तामील करता है, तो भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 114 और 1897 के सामान्य खंड अधिनियम (जनरल क्लॉजेस एक्ट) की धारा 27 के तहत, न्यायालय अभी भी यह मान सकती है कि नोटिस की तामिल समय पर की गई थी। ऐसा इसलिए है क्योंकि पंजीकृत डाक द्वारा भेजा गया पत्र सामान्य व्यावसायिक क्रम में वितरित माना जाता है।
ईमेल या व्हाट्सएप के माध्यम से सूचना
राजेंद्र बनाम यूपी राज्य (2024) के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के महत्वपूर्ण फैसले में, न्यायालय ने माना कि चेक के अनादर के लिए ईमेल या व्हाट्सएप के माध्यम से चेक आहर्ता को दी गई मांग नोटिस एक वैध नोटिस है। इसे उसी तिथि पर भेजा और दिया गया माना जाएगा, बशर्ते कि यह सूचना और प्रौद्योगिकी अधिनियम (इनफॉर्मेशन एंड टेक्नोलॉजी एक्ट), 2000 की धारा 13 की आवश्यकताओं को पूरा करता हो।
सर्वोच्च न्यायालय ने मेसर्स साकेत इंडिया लिमिटेड बनाम मेसर्स इंडिया सिक्योरिटीज लिमिटेड (1999) के मामले में माना कि एक महीने की अवधि को ब्रिटिश कैलेंडर के अनुसार माना जाना चाहिए जैसा कि सामान्य खंड अधिनियम, 1897 की धारा 3(35) के तहत प्रदान किया गया है, और जिस तारीख को कार्रवाई का कारण उत्पन्न हुआ उसे इससे बाहर रखा जाना चाहिए।
चेक बाउंस नोटिस प्रारूप (फॉरमेट)
यद्यपि कानून धारा 138 के तहत चेक अनादर की नोटिस के लिए किसी विशिष्ट प्रारूप को अनिवार्य नहीं करता है। लेकिन कानूनी नोटिस का मसौदा तैयार करते समय विचार करने के लिए कुछ प्रमुख बिंदु यहां दिए गए हैं:
- चेक जारी करने वाले व्यक्ति अर्थात चेक के आहर्ता का नाम और पता;
- उस व्यक्ति का नाम और पता जिसके पक्ष में चेक जारी किया गया है, अर्थात भुगतानकर्ता; और अगर कंपनी को चेक दिया जा रहा हो, तो यह कंपनी के साथ-साथ कंपनी के प्रशासन और कारोबार के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों को भी संबोधित होना चाहिए;
- चेक का विवरण;
- जिस सटीक राशि के लिए चेक तैयार किया गया था, उसमें अनादर या कानूनी फीस के लिए शुल्क भी शामिल हो सकते हैं;
- वापसी ज्ञापन (रिटर्न मेमो) में उल्लिखित अनादर के कारण;
- वह तारीख जिस दिन चेक वापस किया गया;
- चेक अनादर नोटिस अवधि का उल्लेख;
- धारा 138 का संदर्भ।
अनादर के आधार
सामान्यतः, धारा 138 चेक के अनादर के लिए दो आधार प्रदान करती है:
- धन की कमी
- चेक की राशि समझौते में निर्दिष्ट राशि से अधिक है
इनके अलावा, न्यायिक निर्णयों से उक्त धारा के अंतर्गत अपराध सिद्ध करने के लिए अनेक अन्य कानूनी आधार सामने आए हैं।
- खाता बंद: एनईपीसी माइकॉन लिमिटेड एवं अन्य बनाम मैग्मा लीजिंग लिमिटेड (1999) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यह आधार भी धारा 138 के अंतर्गत आएगा, क्योंकि कोई खाता न होने से अंततः अपर्याप्त धनराशि या खाते में कोई धनराशि नहीं होगी।
- आश्वासक की ज़िम्मेदारी: आईसीडीएस बनाम बीना शब्बीर (2006) 6 एससीसी 426 के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि धारा 138 में “कोई भी चेक” और “अन्य देयता” शब्दों का उपयोग किया गया है। इसका मतलब है कि इसमें आश्वासक की ज़िम्मेदारी भी शामिल है।
- हस्ताक्षरों में विसंगति: मेसर्स लक्ष्मी डाइचेम बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य (2012) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यदि हस्ताक्षरों में विसंगति के कारण चेक अस्वीकृत होता है, तो यह धारा 138 के अंतर्गत आएगा।
- सुरक्षा चेक: यह चेक सिक्योरिटी के तौर पर दिया जाता है और साथ ही यह वादा भी किया जाता है कि अगर पक्ष भुगतान करने में विफल रहते हैं, तो सुरक्षा के लिए जारी किया गया चेक जमा कर दिया जाएगा। सैम्पली सत्यनारायण राव बनाम इंडियन रिन्यूएबल एनर्जी डेवलपमेंट (2016) के मामले में, ऋण के लिए सिक्योरिटी के तौर पर चेक दिया गया था, लेकिन यह भी वादा किया गया था कि नकद भुगतान की स्थिति में चेक वापस कर दिए जाएंगे। ऐसे मामले में जहां कोई नकद भुगतान नहीं किया गया था और चूक होने पर चेक जमा कर दिया गया था, यह माना गया कि चूंकि देयता बकाया थी, इसलिए यह धारा 138 के तहत अपराध बनता है।
प्रावधान के तहत उल्लिखित सजा
इससे पहले, धारा 138 के तहत चेक के अनादर के लिए एक साल तक की कैद या चेक की राशि से दोगुनी तक का जुर्माना लगाया जा सकता था। लेकिन, परक्राम्य लिखत (संशोधन और विविध प्रावधान अधिनियम) 2002 के माध्यम से, विधानमंडल ने कारावास की अवधि को दो साल तक बढ़ा दिया।
यह ध्यान देने योग्य है कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) की धारा 357 (3) के तहत, मुआवजे के भुगतान का आदेश इस धारा के तहत दी गई सजा के अतिरिक्त है। साथ ही, मेसर्स मीटर्स एंड इंस्ट्रूमेंट्स (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम कंचन मेहता (2017) के मामले में अदालत ने माना कि मुआवजे के आदेश को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 64 के तहत चूक की सजा और दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 431 के तहत वसूली प्रक्रिया द्वारा लागू किया जा सकता है।
हालाँकि चेक अनादर के मामलों में एक आपराधिक तत्व शामिल किया गया है, लेकिन इसकी प्रतिपूरक (कंपेंसेटरी) प्रकृति को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। दामोदर एस प्रभु बनाम सैयद बाबालाल एच. (2010) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि इस धारा की प्रतिपूरक प्रकृति इसके दंडात्मक पहलू से ज़्यादा अहमियत रखती है।
इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने मेसर्स जिम्पेक्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम मनोज गोयल (2021) में एक ऐतिहासिक फैसला दिया, जिसमें कहा गया कि धारा 138 प्रकृति में अर्ध-आपराधिक (क्वासी क्रिमिनल) है। इसके अलावा, इस धारा के तहत अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) में, शिकायतकर्ता की प्राथमिक चिंता धन की वसूली होती है और इसमें अभियुक्त को सजा देकर इसका बहुत कम उद्देश्य पूरा हो सकता है।
अपराध की प्रकृति
धारा 138 के तहत इस अपराध को अर्ध-आपराधिक (क्वासी क्रिमिनल) माना जाता है, जिसमें सिविल और आपराधिक दोनों पहलू शामिल हैं। सिविल उपाय पीड़ित पक्ष को ब्याज और लागत के साथ चेक की राशि वसूलने में सक्षम बनाता है, जबकि आपराधिक उपाय आरोपी पर निवारक प्रभाव डालता है।
इस धारा के अंतर्गत अपराध जमानतीय, समझौता योग्य और असंज्ञेय (नॉन कॉग्निजेबल) है, अर्थात किसी व्यक्ति को पुलिस अधिकारी द्वारा बिना वारंट के गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।
कार्रवाई का कारण
धारा 138 के तहत, कार्रवाई का कारण तब उत्पन्न होता है जब मांग नोटिस आहर्ता को दी जाती है और वह नोटिस प्राप्त होने के 15 दिनों के भीतर भुगतान करने में विफल रहता है। शिकायत दर्ज करने की सीमा कार्रवाई का कारण उत्पन्न होने की तिथि से एक महीने तक है। हालाँकि, 2002 के संशोधन अधिनियम के बाद, न्यायालय को एक महीने की समाप्ति के बाद भी देरी को माफ करके संज्ञान लेने का अधिकार है, यदि न्यायालय की संतुष्टि के लिए पर्याप्त कारण दिखाया गया हो।
पूर्वानुमान (प्रिजंप्शन)
परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 118 और 139 के तहत, चेक धारक के पक्ष में एक अनुमान लगाया जाता है। जब तक विपरीत साबित नहीं हो जाता, यह माना जाता है कि चेक कानूनी ऋण या देयता के निर्वहन के लिए जारी किया गया है। धारा में ‘अनुमान लगाएगा (शल प्रेज्यूम)’ का उपयोग किया गया है, जिसका अर्थ है कि न्यायालय कानून की धारणा का पालन करने के लिए बाध्य है। यह एक खंडनीय (रिबटेबल) अनुमान है। अभियुक्त पर भार भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 114 के मामलों की तरह हल्का नहीं है। यह अनुमान कि मौजूदा कानूनी ऋण या देयता कानूनी रूप से वसूली योग्य है, और इसे धारा 139 के तहत कवर नहीं किया गया है। यह केवल यह मानता है कि चेक ऋण या किसी अन्य देयता के निर्वहन के लिए जारी किया गया है।
परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत अपराधों का क्षेत्राधिकार
धारा 138 के तहत अधिकार क्षेत्र की अवधारणा को समझने के लिए, सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि इस धारा के तहत अपराध क्या है। अन्य क़ानूनों के विपरीत, यह धारा उन न्यायालयों के क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं करती है जिनमें चेक अनादर के मामले दर्ज किए जाने हैं। चूंकि विधानमंडल ने क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र के मामलों में खामियां छोड़ी हैं, इसलिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय की विभिन्न पीठों ने समय के साथ अलग-अलग तरीकों का उपयोग करके उन्हें संबोधित करने का प्रयास किया है।
प्रादेशिक अधिकार क्षेत्र पर पहला मामला के. भास्करन बनाम शंकरन वैद्यन बालन एवं अन्य (1999) था, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय की दो न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था कि धारा 138 के तहत अपराध निम्नलिखित कृत्यों की एक श्रृंखला के बाद ही पूरा किया जा सकता है:
- चेक निकालना (ड्राइंग ऑफ़ चेक)
- बैंक में चेक प्रस्तुत करना
- प्राप्तकृता के बैंक ने चेक का भुगतान न करके उसे वापस कर दिया
- प्राप्तकर्ता चेक की राशि के भुगतान के लिए आहर्ता को नोटिस देता है
- आहर्ता के नोटिस प्राप्त होने के 15 दिनों के भीतर भुगतान करने में विफल रहने पर
इस मामले में न्यायालय ने फैसला सुनाया कि शिकायतकर्ता किसी भी स्थानीय क्षेत्र में अधिकार क्षेत्र वाली किसी भी अदालत में मामला दर्ज कर सकता है, जहाँ उपरोक्त पाँचों कृत्य हुए हैं। न्यायालय ने 1973 की दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 177 – 179 पर भरोसा किया। इस फैसले में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि अगर नोटिस किसी ऐसी जगह से दी जाती है जहाँ चेक अनादृत नहीं हुआ है, तब भी अदालत के पास उक्त जगह पर अधिकार क्षेत्र होगा। अगर पंजाब के किसी खास इलाके में चेक अनादृत होता है, लेकिन नोटिस दिल्ली से दी गई है, तो दिल्ली की अदालतों के पास अधिकार क्षेत्र होगा। इसे फोरम शॉपिंग भी कहते हैं।
लेकिन मेसर्स हरमन इलेक्ट्रॉनिक्स (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम मेसर्स नेशनल पैनासोनिक इंडिया लिमिटेड (2008) में, सर्वोच्च न्यायालय की दो न्यायाधीशों की पीठ ने माना कि सिविल मामलों में लागू होने वाली कार्रवाई के कारण की अवधारणा को आपराधिक मामलों में भी लागू किया जा सकता है। इसलिए, अदालत ने फैसला सुनाया कि नोटिस भेजी हुई जगह से अधिकार क्षेत्र नहीं मिलेगा और कार्रवाई का कारण उस स्थान पर उत्पन्न होगा जहां चेक अनादरित हुआ था।
इस प्रकार, के. भास्करन बनाम शंकरन वैद्यन बालन एवं अन्य (1999) के तहत स्थापित अधिनियमों में से एक को हरमन इलेक्ट्रॉनिक मामले में सूची से हटा दिया गया।
हरमन इलेक्ट्रॉनिक मामले में आए फैसले के बाद, अदालतों ने सभी बाद के मामलों में इसके उदाहरणों को अपनाया है। लेकिन 2009 से पहले लंबित मामलों को जारी रखा गया और हरमन इलेक्ट्रॉनिक मामले में आए फैसले से लंबित मामलों के संबंध में कोई मदद नहीं मिली।
अंततः इस पहेली को सुलझाने के लिए मामले को दशरथ रूपसिंह राठौड़ बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य (2014) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों के पीठ के समक्ष भेजा गया। इस मामले में दिए गए फैसले ने मामले को और भी बदतर बना दिया क्योंकि इसमें कहा गया कि ऐसे मामलों में केवल उसी अदालत को अधिकार क्षेत्र होगा जिसके स्थानीय क्षेत्र में आहर्ता का बैंक खाता है। इस फैसले ने कुछ व्यावहारिक समस्याएं पैदा कीं क्योंकि इस फैसले के बाद शिकायतकर्ता को पैसे की वसूली के लिए आरोपी का सक्रिय रूप से पीछा करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
इसके अलावा, परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 142 (1) (c) के तहत, अभियोजन तभी शुरू किया जा सकता है जब धारा 138 के प्रावधान के खंड (c) के अनुसार कार्रवाई का कारण उत्पन्न हो गया हो। इसमें कहा गया है कि कार्रवाई का कारण तब उत्पन्न होता है जब चेक का आहर्ता नोटिस प्राप्त होने के 15 दिनों के भीतर चेक राशि का भुगतान करने में विफल रहता है।
इसलिए, अधिकार क्षेत्र को लेकर भ्रम की स्थिति को दूर करने के लिए, केंद्र सरकार ने 2015 में एक संशोधन लाया। धारा 142 (2) को परक्राम्य लिखत (संशोधन) अधिनियम 2015 द्वारा जोड़ा गया था, जिसमें कहा गया है कि अपराध की जांच और सुनवाई उस न्यायालय द्वारा की जाएगी जिसके स्थानीय अधिकार क्षेत्र में आदाता की बैंक शाखा स्थित है, अर्थात, जहां आदाता चेक को भुनाने के लिए प्रस्तुत करता है।
परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत मुकदमा
परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138, उन शिकायत मामलों को संबोधित करती है जो दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 द्वारा शासित होते हैं। ऐसे मामलों की संक्षिप्त सुनवाई की जाती है। चूंकि यह एक शिकायत मामला है, इसलिए मजिस्ट्रेट स्वयं जांच करता है। वह शिकायतकर्ता के साथ-साथ अन्य गवाहों की भी जांच करता है, और दस्तावेजों की जांच करने के बाद, यदि उसे आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधार मिलते हैं, तो अदालत प्रक्रिया जारी करती है। मजिस्ट्रेट द्वारा की जाने वाली इस जांच को सम्मन जारी करने से पहले वाले (प्री-समनिंग) चरण के रूप में जाना जाता है। समन जारी होने के बाद, सम्मन जारी करने के बादवाला (पोस्ट-समनिंग) चरण शुरू होता है। यह पूरी प्रक्रिया लंबी है, जो अधिनियम के उद्देश्य को विफल कर सकती है।
इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय ने इंडियन बैंक एसोसिएशन एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2014) के मामले में उक्त धारा के तहत सुनवाई के लिए दिशानिर्देश निर्धारित किए।
- मजिस्ट्रेट को अपराध गठित करने के लिए सभी आवश्यक तत्व मौजूद हैं, यह निर्धारित करने के बाद ही, सम्मन जारी करना चाहिए।
- सम्मन उचित पते पर जारी किया जाना चाहिए तथा इसे डाक, ईमेल या व्हाट्सएप द्वारा भेजा जा सकता है।
- सम्मन में यह दर्शाया जाना चाहिए कि अपराध समझौता योग्य प्रकृति का है।
- अभियुक्त को जमानत बांड प्रस्तुत करना होगा और धारा 145(2) के तहत आवेदन दायर करके संभावित बचाव की दलील देनी होगी।
- आवेदन पर दलीलें सुनने के बाद अदालत गवाहों की जांच की अनुमति दे सकती है।
- अदालतों को यह सुनिश्चित करना होगा कि जांच तीन महीने के भीतर पूरी हो जाए।
परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 का गैर-अपराधीकरण
8 जून, 2020 को वित्त मंत्रालय ने विभिन्न अपराधों को अपराधमुक्त करने का प्रस्ताव रखा। इसने अपने दृष्टिकोण को इस आधार पर उचित ठहराया कि इससे कारोबारी भावना में सुधार होगा और अदालती प्रक्रियाओं में बाधा नहीं आएगी। इन अपराधों में परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 भी शामिल है।
इस दौरान गैर-अपराधीकरण के समर्थन और विरोध में भी कई तर्क दिए गए।
जैसा कि पहले चर्चा की गई है, अधिनियम की धारा 138 आपराधिक दायित्व स्थापित करती है। इस धारा के तहत अपराध एक संज्ञेय और जमानती अपराध है। साथ ही, अपराध को दोनों पक्षों के बीच समझौता योग्य बनाया जा सकता है, बशर्ते दोनों पक्ष इसके लिए सहमति दें और कानून की अदालत से कोई औपचारिक अनुमति की आवश्यकता न हो।
गैर-अपराधीकरण के पक्ष में तर्क
- कारोबार में आसानी को बढ़ावा देना और 2020 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा परिकल्पित (इनविजनेड) “आत्मनिर्भर भारत” पहल का समर्थन करना।
- विदेशी निवेश आकर्षित करना।
- भारतीय अदालतों में लंबित मामलों के बोझ को कम करना।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि, 2008 में विधि आयोग की 213वीं रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 20 प्रतिशत लंबित मुकदमे परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के तहत चेक अनादर विवादों से संबंधित हैं। अहवाल में चेक जारी करने वालों द्वारा चेक को आदरनार्थ (ऑनर) करने के इरादे के बिना बेईमानी से किए गए व्यवहार के कारण आदाता को होने वाली कठिनाइयों का उल्लेख किया गया है। इसके अलावा, लंबे समय तक चलने वाले मुकदमे ऐसे आदाता के संघर्ष को और बढ़ा रहे हैं और साथ ही, चेक से जुड़ी विश्वसनीयता पर भी हमला कर रहे हैं। इसमें यह भी कहा गया है कि मंत्री स्तर पर फास्ट ट्रैक अदालतों का गठन किया जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि इस दृष्टिकोण से अतिरिक्त बुनियादी ढांचे और मजिस्ट्रेट की केंद्रित विशेषज्ञता का लाभ उठाया जा सकेगा, जिससे मामले के निपटान में दक्षता बढ़ेगी।
गैर-अपराधीकरण के खिलाफ तर्क
- बेईमानी के कृत्य को दंडनीय बनाने से समाज पर निवारक प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार, यह धोखाधड़ी और ठगी के जोखिम को कम करता है।
- समय पर भुगतान करने का मुख्य कारण कारावास, कानूनी आरोप और जुर्माने की आशंका (अप्रीहेंशन) थी।
- यदि चेक का अनादर होने पर कोई राहत नहीं मिलेगी तो निवेशकों की विश्वसनीयता पर आंच आएगी।
- यदि कोई दण्ड नहीं होगा, तो दोषी पक्ष स्थिति का लाभ उठाएगा, और इससे अधिनियम का उद्देश्य विफल हो जाएगा।
नियमों का पालन न करने की आदत पर केवल कठोर दंड व्यवस्था लागू करके ही अंकुश लगाया जा सकता है।
इसलिए, इस धारा को अपराधमुक्त करना उचित नहीं है, क्योंकि इसका प्राथमिक उद्देश्य ऋणदाताओं का विश्वास बढ़ाना तथा चेक प्रणाली में विश्वसनीयता को मजबूत करना था।
धारा 138 के विकल्प
एक पीड़ित व्यक्ति, अर्थात आहर्ता, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत सिविल मुकदमा दायर कर सकता है, अथवा सुलह, मध्यस्थता, लोक अदालत, न्यायिक समझौता आदि जैसे किसी भी वैकल्पिक विवाद समाधान का विकल्प चुन सकता है।
धारा 138 के संबंध में आरबीआई के नवीनतम दिशानिर्देश
भारत में, बैंकर पारंपरिक रूप से केवल चेक और ड्राफ्ट के माध्यम से भुगतान करते थे, जिन्हें जारी होने की तिथि से 6 महीने की अवधि के भीतर बैंकों में प्रस्तुत किया जाता था। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) को भारत सरकार द्वारा सूचित किया गया था कि लोग बैंकों द्वारा जारी होने की तिथि से छह महीने की अवधि के भीतर चेक, ड्राफ्ट या पे ऑर्डर को भुनाने (इनकैश) की उक्त प्रथा का शोषण कर रहे थे और उसका अनुचित लाभ उठा रहे थे क्योंकि ये उपकरण छह महीने तक नकदी की तरह बाजार में प्रचलन (सर्कुलेट) में रहते थे। जनहित में और बैंकिंग नीति में सुधार के लिए, आरबीआई संतुष्ट था कि चेक, ड्राफ्ट और पे ऑर्डर को भुनाने की अवधि को जारी होने की तिथि से छह महीने से घटाकर तीन महीने करना अनिवार्य था।
इस प्रकार, 1 अप्रैल, 2012 से बैंकों को निर्देश दिया गया कि वे इन उपकरणों को उनकी तिथि से तीन महीने से अधिक समय तक प्रस्तुत किए जाने पर स्वीकार न करें। बैंकों को इस निर्देश का सख्ती से पालन करना था और 1 अप्रैल, 2012 को या उसके बाद जारी किए गए उपकरणों पर नई प्रस्तुति अवधि को छांपकर या मुहर लगाकर ग्राहकों को इस बदलाव के बारे में सूचित करना था।
चेक अनादर शिकायतों की व्यावहारिक प्रासंगिकता
परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 की शुरूआत से पहले, व्यक्ति अक्सर चेक जारी करके निवेशकों को धोखा देते थे, लेकिन उनका आदरनार्थ करने का कोई इरादा नहीं था। एकमात्र उपाय सिविल मुकदमा दायर करना था, जो एक लंबी और महंगी प्रक्रिया थी। अत्यधिक बोझिल न्यायालय प्रणाली के कारण, विवादों को सुलझाने में लंबा समय लगता था, जिससे अक्सर पक्ष वर्षों तक असमंजस (लिंबो) की स्थिति में रहते थे। इस जटिल प्रक्रिया से बचने के लिए, पक्ष व्यक्तिगत रूप से समस्या को हल करने का प्रयास करते थे, और बार-बार चेक जारी करने वाले से भुगतान की मांग करते थे। यह प्रयास अक्सर सीमा अवधि से आगे बढ़ जाता था, जिससे पीड़ित पक्ष को कोई कानूनी उपाय नहीं मिल पाता था।
धारा 138 की नींव ने चेक अनादर के मामलों के लिए एक व्यापक समाधान प्रदान किया। इसने भुगतानकर्ताओं के लिए निवारण की मांग करने के लिए एक कानूनी ढांचा स्थापित किया, जिससे संभावित अपराधियों को लापरवाह और धोखाधड़ी वाले लेनदेन में शामिल होने से रोका जा सके। दंडात्मक प्रावधानों के बावजूद, अदालतें पक्षों के बीच सौहार्दपूर्ण समझौतों (एमिकेबल सेटलमेंट) के माध्यम से विवादों को हल करने की ओर झुकी हुई हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया है कि कारावास केवल असाधारण मामलों में लगाया जाना चाहिए, जिसमें मौद्रिक मुआवजा देने पर प्राथमिक ध्यान दिया जाना चाहिए, जिससे भुगतानकर्ता को चेक की राशि वापस मिल सके। जिन मामलों में अदालतें सज़ा देती हैं, वे चेक राशि के भुगतान से आरोपी को मुक्त नहीं करती हैं। इसलिए, दोहरा दृष्टिकोण पीड़ित पक्ष को एक व्यापक राहत प्रदान करता है। वे चूककर्ता (डिफॉल्टर) पक्ष को उत्तरदायी बनाने के लिए आपराधिक कार्यवाही कर सकते हैं और साथ ही साथ सिविल अदालतों के माध्यम से वित्तीय मुआवजे की मांग कर सकते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि इसका सामना करनेवाले कई लोगो (फ्रंट्स) के साथ न्याय किया जा सके।
धारा 138 के तहत कानूनी ढांचा बकाया राशि के शीघ्र निपटान को प्रोत्साहित करता है। यह नोटिस प्राप्त होने के बाद चेक राशि के भुगतान के लिए चूककर्ता पक्ष को 15 दिन का समय प्रदान करता है। यह वैधानिक समयसीमा त्वरित समाधान को बढ़ावा देती है और अक्सर इसका परिणाम यह होता है कि चेक का आहर्ता आगे की कानूनी कार्रवाई से बचने के लिए धन की व्यवस्था कर लेता है। यह सुनिश्चित करता है कि बकाया राशि का निपटान बिना किसी लंबे विवाद के कुशलतापूर्वक किया जाए।
उपभोक्ताओं के लिए, धारा 138 धोखाधड़ी के खिलाफ एक ढाल प्रदान करती है। साथ ही धारा यह सुनिश्चित करती है कि चेक प्राप्त करने वाले व्यक्ति, चेक के अनादर होने के मामलों में बिना मुआवजा मिले न रहे जाए। यह कानूनी सुरक्षा उपभोक्ताओं के बीच चेक स्वीकार करने का विश्वास पैदा करती है, क्योंकि उन्हें पता है कि चूक को संबोधित करने के लिए कानूनी उपाय मौजूद हैं।
कुल मिलाकर, यह खंड यह सुनिश्चित करके अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य में योगदान देता है कि वित्तीय लेनदेन ईमानदारी और जवाबदेही के साथ किए जाएं। चेक-आधारित लेनदेन में, यह विश्वास और विश्वसनीयता को बढ़ावा देकर वाणिज्य और व्यापार के सुचारू संचालन (स्मूथ फंक्शनिंग) को सुनिश्चित करता है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के नवीनतम निर्णय
हरपाल सिंह बनाम हरियाणा राज्य (2024)
सर्वोच्च न्यायालय ने हरपाल सिंह एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य (2024) के मामले में सर्वसम्मति से फैसला सुनाया कि धारा 138 के तहत चेक अनादर के मामलों में, यह बचाव कि दूसरे बैंक के खाते में पर्याप्त राशि उपलब्ध थी, मान्य नहीं हो सकता।
इस मामले में शिकायतकर्ता धरम सिंह ने आरोपी के खिलाफ चेक अनादर का मामला दर्ज कराया था। धरम सिंह ने आरोपी की कंपनी में निवेश किया था और उसे लाभ (रिटर्न) का भरोसा था। आरोपी ने तय रकम के भुगतान के लिए चेक दिए थे, लेकिन बैंक में पर्याप्त रकम न होने की वजह से एक चेक अनादृत हो गया। शिकायतकर्ता ने परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 और भारतीय दंड संहिता की धारा 420 के तहत शिकायत दर्ज कराई थी। निचली अदालत ने आरोपी को दोषी ठहराया था, लेकिन उच्च न्यायालय ने सजा में बदलाव किया। मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा, जहां आरोपी की यह दलील खारिज कर दी गई कि दूसरे खातों में भी पैसे हैं। अदालत ने तर्क दिया कि अगर चेक किसी खास खाते से जुड़ा है, तो उसे दूसरे खातों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए।
उपासना मिश्रा बनाम ट्रेक टेक्नोलॉजी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (2024)
उपासना मिश्रा बनाम ट्रेक टेक्नोलॉजी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (2024) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि प्रतिवादी ने अपीलकर्ता को चेक वापस करने की तारीख से 12 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से ब्याज की मांग के अलावा 6,50,000 रुपये की मांग करते हुए नोटिस दी थी, साथ ही 50,000 रुपये हर्जाने के रूप में और 5,500 रुपये नोटिस शुल्क के रूप में भी मांगे थे।
न्यायालय ने सुमन सेठी बनाम अजय के. चूड़ीवाल एवं अन्य (2000) के मामले में दिए गए निर्णय पर भरोसा किया और पाया कि परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत जारी की गई नोटिस सर्वव्यापक (ओम्नबस) प्रकृति की होती है और आगे दोहराया कि यदि नोटिस में दावे के विभाजन में चेक राशि, ब्याज, हर्जाना आदि को अलग-अलग निर्दिष्ट किया गया है और ये अतिरिक्त दावे (एडिशनल क्लेम्स) अलग-अलग हैं, यह मांग नोटिस को अमान्य नहीं करेगा। संक्षेप में, धारा के अंतर्गत की गई मांग की सूचना में चेक राशि के लिए स्पष्ट और विशिष्ट मांग की जानी चाहिए; अन्यथा, नोटिस वैध नहीं होगा।
इसलिए, इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि प्रतिवादी द्वारा की गई मांग सर्वव्यापक प्रकृति की थी, अर्थात अवैध थी, इस प्रकार चेक अनादर की कार्यवाही को रद्द कर दिया गया।
घनश्याम गौतम बनाम उषा रानी (व्यक्ति मृतक होने की वजह से) उनके कानूनी प्रतिनिधि रविशंकर के माध्यम से (2024)
घनश्याम गौतम बनाम उषा रानी (व्यक्ति मृतक होने की वजह से) उनके कानूनी प्रतिनिधि रविशंकर के माध्यम से (2024) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने मामले के सभी तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने के बाद पाया कि पक्षों के बीच समझौता हो गया है और शिकायतकर्ता ने चूक की गई राशि के पूर्ण और अंतिम निपटान को स्वीकार करते हुए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इसलिए, अदालत ने माना कि एक बार सौहार्दपूर्ण समझौता हो जाने के बाद, धारा 138 के तहत कार्यवाही रद्द की जा सकती है।
अजीतसिंह चेहुजी राठौड़ बनाम गुजरात राज्य और अन्य (2024)
अजीतसिंह चेहुजी राठौड़ बनाम गुजरात राज्य और अन्य (2024) का मामला भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 और परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 के बीच पेचीदा अंतर्संबंध पर जोर देता है। सर्वोच्च न्यायालय ने नोट किया कि परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के तहत शिकायत में, यदि आरोपी चेक पर हस्ताक्षर को लेकर विवाद करता है, तो बैंक से प्रमाणित (सर्टिफाइड) हस्ताक्षरों को चेक के हस्ताक्षर से मिलान (कंपेयर) करने के लिए बुलाया जा सकता है। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि चेक पर किए गए पृष्ठांकन उसी अधिनियम की धारा 118 (e) के तहत वास्तविकता की धारणा रखते हैं। इसलिए, हस्ताक्षरों की वास्तविकता की धारणा (प्रिजंप्शन ऑफ़ जेनुइननेस) को खारिज करने के लिए सबूत पेश करना आरोपी की जिम्मेदारी है।
न्यायालय ने आगे बताया कि बैंक द्वारा जारी किए गए दस्तावेज़ की प्रमाणित प्रति स्वयं बैंकर बुक्स एविडेंस एक्ट, 1891 के तहत स्वीकार्य है। इसका मतलब है कि बैंक से प्रमाणित प्रति जारी करना ही पर्याप्त है और न्यायालय के समक्ष औपचारिक सबूत पेश करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसलिए, उचित मामलों में, बैंक द्वारा बनाए गए नमूना हस्ताक्षर की प्रमाणित प्रति प्राप्त की जा सकती है, और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 73 के तहत शक्तियों का उपयोग करके चेक पर हस्ताक्षर के साथ इसकी तुलना करने के लिए न्यायालय से अनुरोध किया जा सकता है।
आत्मजीत सिंह बनाम राज्य (दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली) (2024)
सर्वोच्च न्यायालय ने आत्मजीत सिंह बनाम राज्य (दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) (2024) के मामले में इस प्रश्न का निर्धारण किया कि क्या उच्च न्यायालयों को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत कार्यवाही में यह तय करना चाहिए कि जारी किया गया चेक समय-बाधित ऋण से संबंधित है या नहीं।
न्यायालय ने योगेश जैन बनाम सुमेश चड्ढा (2022) के मामले में दिए गए निर्णय पर भरोसा किया और माना कि एक बार जब ऋण या देयता के संबंध में चेक जारी किया जाता है और, अनादरित होने पर, कानूनी नोटिस जारी की जाती है, तो अभियुक्त पर परक्राम्य लिखत की धारा 118 और 139 के तहत उठाए गए अनुमान को खारिज करने का भार होता है। यह सवाल कि चेक समयबद्ध ऋण के संबंध में जारी किया गया है या नहीं, साक्ष्य का विषय है और सीआरपीसी की धारा 482 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए किसी भी उच्च न्यायालय द्वारा इसका फैसला नहीं किया जा सकता है।
प्रेम राज बनाम पूनमम्मा मेनन एवं अन्य (2024)
प्रेम राज बनाम पूनमम्मा मेनन एवं अन्य (2024) के मामले में, अदालत ने निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर अपना निर्णय दिया:
श्रीमान X ने बकाया ऋण के लिए सुरक्षा के रूप में 2 लाख रुपये की राशि का चेक जारी किया। हालांकि, चेक को अपर्याप्त निधि के आधार पर अस्वीकृत कर दिया गया। परिणामस्वरूप, श्रीमान X ने श्रीमान Y को चेक भुनाने से रोकने के लिए दीवानी कार्यवाही शुरू की क्योंकि यह चेक भुनाने के लिए नहीं बल्कि सुरक्षा उद्देश्यों के लिए जारी किया गया था। दीवानी न्यायालय ने श्रीमान X के पक्ष में मुकदमा चलाया और उन्होंने श्रीमान Y को भुनाने से रोक दिया। दूसरी ओर, श्रीमान X ने परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के तहत चेक अनादर के लिए आपराधिक कार्यवाही शुरू की। आपराधिक परीक्षण (क्रिमिनल प्रोसीडिंग्स) न्यायालय ने चेक अनादर के लिए अभियुक्त को दोषी ठहराया और उक्त धारा के तहत सजा सुनाई। आपराधिक न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर, उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।
निर्धारित किया जाने वाला प्रश्न यह था कि क्या सिविल न्यायालय का निर्णय क्षतिपूर्ति (डैमेज) और सजा की सीमा तक निचली आपराधिक अदालत पर बाध्यकारी है। इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि ‘चेक’ सिविल और आपराधिक दोनों कार्यवाही में विवाद का विषय था। एक बार जब सिविल न्यायालय ने चेक के भुनाने पर रोक लगा दी, तो सिविल न्यायालय का निर्णय परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 के तहत शुरू किए गए आपराधिक मामलों पर बाध्यकारी होगा। नतीजतन, आपराधिक कानून द्वारा दी गई सजा कानून में बनाए रखने योग्य नहीं है। इसलिए, आपराधिक न्यायालय दोषसिद्धि को रद्द करने के लिए बाध्य है।
राज रेड्डी कल्लम बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (2024)
राज रेड्डी कल्लम बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (2024) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि चाहे अभियुक्त ने चेक राशि का भुगतान करके पीड़ित पक्ष को मुआवजा दिया हो या नहीं, फिर भी वह परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के तहत लगाए गए आपराधिक दायित्व से बच नहीं सकता है। इसके अलावा, शिकायतकर्ता को अपराध के शमन (कंपाउंडिंग) के लिए सहमत होने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।
निष्कर्ष
1881 के परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 भारत में वित्तीय कानून के ढांचे में एक आधार है। यह चेक के अनादर के मुद्दे से निपटता है, जो वाणिज्यिक लेनदेन में मौजूद एक आम और उल्लेखनीय समस्या है। यह प्रावधान भुगतान के तरीके के रूप में चेक के उपयोग में विश्वास और विश्वसनीयता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह चेक को आदरनार्थ करने के किसी भी इरादे के बिना आकस्मिक (कैजुअल) जारी करने को हतोत्साहित (डिस्करेज) करने का प्रयास करता है। पहले के कानून में केवल एक नागरिक उपाय प्रदान किया गया था, लेकिन बाद में, 1988 के संशोधन द्वारा, एक आपराधिक उपाय का प्रावधान पेश किया गया था। चेक अनादर के कृत्य को आपराधिक बनाकर, क़ानून का उद्देश्य समय रहते भुगतानकर्ता और धारक के हितों की रक्षा करना है।
धारा 138 के तहत आपराधिक दायित्व को आकर्षित करने के लिए कुछ कानूनी आवश्यकताओं को पूरा करने की आवश्यकता है। यह सुनिश्चित करता है कि अधिकार क्षेत्र के मामले पर निर्देश प्रदान करके उचित न्यायालयों में कानूनी प्रक्रिया का पालन किया जाता है। यह इस मुद्दे को संबोधित करने के लिए एक सख्त लेकिन निष्पक्ष तंत्र भी प्रदान करता है, जो निपटान के अवसरों के साथ दंडात्मक परिणामों को संतुलित करता है। इसके अलावा, विधायिका द्वारा प्रदान किए गए कानून के अलावा, न्यायिक घोषणाओं ने भी चेक के अनादर करने पर एक कानून के विकास में योगदान दिया। न्यायिक व्याख्याओं ने इसके आवेदन को स्पष्ट किया है, वित्तीय अनुशासन को बढ़ावा देने में इसकी भूमिका को मजबूत किया है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
क्या मुख्तारनामा (पावर ऑफ अटॉर्नी) धारक परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत उत्तरदायी है?
हां, धारा 138 के तहत चेक अनादर के मामलों में मुख्तारनामा धारक उत्तरदायी है। वह समय के साथ भुगतानकर्ता या धारक या आहर्ता की भूमिका ग्रहण करता है, जैसा भी मामला हो। इसलिए, उसके द्वारा दायर की गई शिकायत उक्त धारा के तहत विचारणीय है। बशर्ते कि ऐसे मुख्तारनामा धारक को लेन-देन का ज्ञान हो ताकि वह शिकायत या अपराध की सच्चाई को अभिलेख (रिकॉर्ड) पर ला सके।
क्या धारा 138 के अंतर्गत अपमान के अपराध का शमन करने की अनुमति है?
हां, धारा 138 के तहत अपराध को शिकायतकर्ता द्वारा कम किया जा सकता है। हालांकि, अदालतें शिकायतकर्ता को चेक की राशि के भुगतान को कम करने के लिए बाध्य नहीं कर सकती हैं। क्योंकि आरोपी को दंडित करना एक बात है और चेक की राशि की वसूली दूसरी बात है। राशि का भुगतान करने से आरोपी को दंड से मुक्ति नहीं मिलती है।
क्या उत्तर दिनांकित (पोस्ट डेटेड) चेक अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत आते हैं?
उत्तर दिनांकित चेक इस धारा के अंतर्गत आते हैं, बशर्ते कि सभी आवश्यकताएं पूरी हों, जैसा कि डालमिया सीमेंट (भारत) लिमिटेड बनाम मेसर्स गैलेक्सी ट्रेडर्स एंड एजेंसीज लिमिटेड (2001) में बताया गया है। इसमें कहा गया है कि उत्तर दिनांकित चेक के मामले में अगर भुगतान रोक दिया जाता है, तो वास्तव में उक्त धारा के तहत अपराध बनता है।
चेक कितनी बार जमा किया जा सकता है?
चेक को कितनी बार जमा किया जा सकता है, इस पर कोई प्रतिबंध नहीं है। एमएसआर लेदर बनाम एस पलानीअप्पन (2013) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्धारित किया कि चेक को किसी भी संख्या में जमा करने की अनुमति दी जानी चाहिए और पीड़ित पक्ष को आरोपी को नोटिस देने के लिए उत्सुक नहीं होना चाहिए, लेकिन अगर 3 महीने के बाद भी कोई व्यक्ति चेक की राशि का भुगतान नहीं करता है, तो जाहिर है कि कानूनी कार्रवाई शुरू की जा सकती है।
हस्तलिखित नोटिस वैध है या नहीं?
पवन कुमार रल्ली बनाम मनिंदर सिंह नरूला (2014) के मामले में, यह माना गया कि नोटिस का वास्तविक उद्देश्य व्यक्ति को यह जानकारी देना है कि जारी किया गया चेक अनादर हो गया है और नोटिस का प्रारूप चिंता का विषय नहीं है। इसमें केवल अनादृत हुए चेक के बारे में विवरण होना चाहिए और यदि हस्तलिखित नोटिस में वे सभी विवरण शामिल हैं तो यह एक वैध नोटिस है।
क्या धारा 138 के अंतर्गत शिकायतें वापस ली जा सकती हैं?
हां, धारा 138 के तहत शिकायतों को कार्यवाही के किसी भी चरण में न्यायालय की अनुमति से वापस लिया जा सकता है। ऐसा उन मामलों में हो सकता है जहां पक्षकार समझौता कर लेते हैं या कोई अन्य पर्याप्त कारण होता है या न्यायालय संतुष्ट होती है कि न्याय के हित में ऐसा करने के लिए उचित कारण है।
संदर्भ