राइट टू इक्वालिटी: ए फंडामेंटल राइट इन इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन (समानता का अधिकार: भारतीय संविधान में एक मौलिक अधिकार)

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right to equality
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यह लेख मोहनलाल सुखाड़िया यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लॉ, उदयपुर, राजस्थान की छात्रा, Mariya Paliwal ने लिखा है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है। इस लेख में समानता के अधिकार के बारे में बताया गया है।

Table of Contents

परिचय ( इंट्रोडक्शन)

संविधान के भाग III में अनुच्छेद 14 से 18 प्रत्येक व्यक्ति को समानता का अधिकार प्रदान करते है, भले ही वह भारत का नागरिक हो या नहीं। तथ्य (फैक्ट) यह है की, दुनिया के किसी अन्य संविधान में समानता के अधिकार को भारतीय संविधान के रूप में विस्तृत (एलाबोरेट) नहीं किया गया है। इस अधिकार को व्यक्ति के नकारात्मक (निगेटिव) अधिकार के रूप में वर्गीकृत (क्लासीफाइड) किया गया है, अर्थात सार्वजनिक (पब्लिक) कार्यालयों या स्थान पर जाने में भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। भारत विविधता (डायवर्सिटी)  का देश होने के नाते, संस्कृति में विभिन्न वर्गों के बीच में भेदभाव शामिल था। इसलिए इन मतभेदों को दूर करने के लिए हमारे संविधान निर्माताओं (मेकर्स) ने भेदभाव को प्रतिबंधित (प्रोहिबित) करने के लिए अनुच्छेद 15 से 18 तक व्यक्त प्रावधानों (प्रोविजन) को सम्मिलित (इंसर्टएड)  किया।

अनुच्छेद 14: (आर्टिकल 14)

प्राचीन भारतीय समय में समानता नहीं थी, धार्मिक दृष्टि (रिलीजियस प्वाइंट ऑफ़ व्यू ) से सभी मनुष्यों को ईश्वर के शरीर के विभिन्न अंगों के रूप में वर्गीकृत (कैटिगराइजड) किया गया था और इसी आधार पर प्रतिष्ठित (डिस्टिंग्विश्ड) किया गया था, हालाँकि वर्तमान संदर्भ में प्रत्येक मनुष्य ईश्वर की उपज (प्रोडक्ट)  है।

कानून के समक्ष समानता (इक्वालिटी बिफोर लॉ) या कानून के समान संरक्षण (इक्वल प्रोटेक्शन ऑफ लॉ) का मतलब यह नहीं है कि हर किसी के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए।  चूँकि दो मनुष्य सभी प्रकार से समान नहीं हैं, इसलिए उनके साथ हर दृष्टि से समान व्यवहार का परिणाम असमान व्यवहार होगा। उदाहरण के लिए, एक बच्चा जो शारीरिक रुप से अक्षम (चैलेंज्ड) है और दूसरा बच्चा स्वस्थ है दोनों के लिए एक ही उपचार असमान उपचार होगा और जिसे किसी के भी द्वारा उचित नही समझा जाएगा। इसलिए, समान के साथ समान (इक्वल मस्ट बी ट्रीटेड इक्वली) व्यवहार किया जाना चाहिए और असमान के साथ अलग व्यवहार किया जाना चाहिए।

कानून के समक्ष समानता (इक्वालिटी बिफोर लॉ)

कानून के समक्ष समानता के तहत एक सिद्धांत का पालन किया जाता है जिसके तहत समान के साथ समान व्यवहार किया जाता है। इसका मतलब है कि एक ही कारण के लिए मुकदमा करने और मुकदमा चलाने का अधिकार समान लोगों के लिए समान होना चाहिए यानी वे लोग जो समान परिस्थितियों में हैं और ऐसा अधिकार उन्हें धर्म, लिंग, जाति या कोई अन्य कारक के आधार पर बिना किसी भेदभाव के उपलब्ध होना चाहिए। 

पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार के मामले में, अदालत ने माना कि ‘कानून की समान सुरक्षा’ शब्द ‘कानून के समक्ष समानता’ शब्द का एक स्वाभाविक (नेचुरल) परिणाम है और इस प्रकार ऐसी स्थिति की कल्पना करना बहुत मुश्किल है जिसमें  कानून के समान संरक्षण का उल्लंघन (वॉयलेशन) हुआ है कानून के समक्ष समानता का उल्लंघन नहीं है।  इसलिए, जबकि उनके अलग-अलग अर्थ हैं, दोनों शब्द परस्पर जुड़े हुए हैं।

कानून का शासन (रूल ऑफ लॉ)

डाइसी ने कानून के शासन की अवधारणा (कांसेप्ट) दी थी। कानून के शासन का मतलब है कि कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। कानून की समानता कानून के शासन का हिस्सा है जिसे डाइसी ने समझाया है।

 डाइसी ने इस शब्द के तीन अर्थ दिए थे:

1. कानून की सर्वोच्चता (सुपरमैसी ऑफ लॉ): 

इसका मतलब है कि कानून सर्वोच्च (सुप्रीम) है और सरकार मनमाने ढंग से कार्य नहीं कर सकती है। यदि किसी व्यक्ति ने किसी कानून का उल्लंघन किया है, तो उसे दंडित किया जा सकता है, लेकिन सरकार की मर्जी से उसे किसी और चीज के लिए दंडित नहीं किया जा सकता।

2. कानून के समक्ष समानता (इक्वालिटी बिफोर लॉ)

इसका मतलब है कि सभी लोगों को कानून के समान प्रावधानों के अधीन होना चाहिए जो देश के सामान्य न्यायालयों (ऑर्डिनरी कोर्ट्स) द्वारा प्रशासित होते हैं। इस प्रकार, कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है और उसे कानून का पालन करना पड़ता है। डाइसी ने इस नियम के तहत सम्राट (मोनार्च) को अपवाद दिया था क्योंकि इंग्लैंड में यह माना जाता है कि राजा कुछ भी गलत नहीं कर सकता।

3. संविधान सामान्य कानून से उत्पन्न होता है (कॉन्स्टीट्यूशन ओरिजिनेट्स फ्रॉम द ऑर्डिनेरी लॉ) 

इसका मतलब है कि लोगों के अधिकार संविधान द्वारा प्रदान नहीं किए गए हैं, बल्कि यह उस देश के कानून का परिणाम है जो अदालतों द्वारा प्रशासित (एडमिनिस्टर्ड) है।

भारत में, इन में से पहला और दूसरा नियम अपनाया गया है लेकिन तीसरा नियम छोड़ दिया गया है क्योंकि संविधान देश का सर्वोच्च कानून है और लोगों के अधिकार इससे उत्पन्न होते हैं और अन्य सभी कानून जो विधानमंडल (लेजिस्लेचर) द्वारा पारित किए जाते हैं संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन नहीं है।

कानून के समक्ष समानता का अपवाद (एन एक्सेप्शन टू इक्वालिटी बिफोर लॉ)

समानता के नियम के कुछ अपवाद हैं जो भारतीय संविधान के तहत प्रदान किए गए हैं।  अनुच्छेद 105 और 194 के तहत, क्रमशः संसद और राज्य विधानमंडल के सदस्य (मेम्बर ऑफ पार्लियामेंट एंड स्टेट लेजिस्लेचर रिस्पेक्टिवली) सदन के भीतर किसी भी बात के लिए उत्तरदायी नहीं होते हैं।

अनुच्छेद 359 के तहत जब आपातकाल (इमरजेंसी) की उद्घोषणा (प्रोक्लेमेशन) होती है, तो अनुच्छेद 14 (b) सहित मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) के संचालन को निलंबित (सस्पेंड) किया जा सकता है और यदि इस तरह की उद्घोषणा (प्रोक्लेमेशन) के दौरान इस अधिकार का कोई उल्लंघन किया जाता है, तो उद्घोषणा समाप्त होने के बाद इसे न्यायालयों में चुनौती नहीं दी जा सकती।

अनुच्छेद 361 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल किसी भी कार्य के लिए किसी भी अदालत के प्रति उत्तरदायी (लाइबल) नहीं हैं जो उनके द्वारा कार्यालय की अपनी शक्ति और कर्तव्यों का प्रयोग करने में किया जाता है।

कानूनों का समान संरक्षण (इक्वल प्रोटेक्शन ऑफ लॉस)

यह राज्य पर एक कर्तव्य लगता है की वह सभी आवश्यक कदम उठाए यह सुनिश्चित (इंश्योर) करने के लिए कि लोगों के समान व्यवहार की आश्वासन (गारंटी) का पालन किया जा रहा है। जैसे इस नियम के तहत लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाता है और इस नियम के तहत एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि विपरीत के साथ समान व्यवहार (अनलाइक शूड नॉट बी ट्रीटेड अलाइक) नहीं किया जाना चाहिए।  इस प्रकार, भले ही अलग-अलग पदों और परिस्थितियों में रहने वाले लोग एक ही नियम द्वारा शासित होते हैं, फिर भी समानता के नियम पर इसका नकारात्मक (निगेटिव)  प्रभाव पड़ेगा।

विधायी वर्गीकरण (लेजिस्लेटिव क्लासिफिकेशन)

विधायी वर्गीकरण के वैध (वैलिड) होने के लिए, यह उचित (रीजनेबल) होना चाहिए। विधायिका (लेजिस्लेचर) के पास विभिन्न वर्गों के लोगों या लोगों के समूह (ग्रुप) से संबंधित कानून बनाने की शक्ति है और वह कानून तभी मान्य होता है जब दो शर्तें पूरी होती हैं:

समझदार अंतर (इंटेलिजिबल डिफरेंटिया)

इसका मतलब यह है कि कानून को व्यक्तियों या चीजों के बीच उचित और बुद्धिमान भेदभाव के आधार पर वर्गीकृत (डिफरेंटिएशन)  किया जाना चाहिए, जिन्हें एक साथ समूहीकृत किया गया है और अन्य को समूह से बाहर रखा गया है।

प्राप्त करने के लिए उचित उद्देश्य (रीजनेबल ऑब्जेक्टिव टू बी अचीवेड)

इसका मतलब यह है कि अंतर का उस वस्तु से तर्कसंगत संबंध (रेशनल रिलेशन) होना चाहिए जिसे प्रश्न में क़ानून द्वारा प्राप्त करने की मांग की गई है।

उदाहरण के लिए: अनुबंध अधिनियम 1872 (कॉन्ट्रैक्ट एक्ट, 1872) में, नाबालिग (माइनर) की स्थिति का उल्लेख किया गया है जिसमें कहा गया है कि एक नाबालिग अनुबंध (कॉन्ट्रैक्ट)  में प्रवेश नहीं कर सकता है।  तो यह अधिनियम एक व्यक्ति को 2 श्रेणियों (कैटेगरीज) में वर्गीकृत (क्लासीफाइड) करता है यानी नाबालिग और वयस्क (एडल्ट्स) जिन्हें उम्र के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। इसलिए कानून का उद्देश्य अनुबंध करने की क्षमता का विस्तार करना है, जिसे पूरा किया जाता है।  हालांकि, अगर वर्गीकरण किसी व्यक्ति की त्वचा के रंग पर आधारित है तो गहरे रंग वाले लोग अनुबंध नहीं कर सकते हैं। यह मामला दूसरी शर्त को पूरा नहीं करता है कि अधिनियम/कानून के उद्देश्य को पूरा किया जाना चाहिए।

चरणजीत लाल चौधरी बनाम भारत संघ, एआईआर 1951 एससी 41

तथ्य (फैक्ट्स)

  • इस मामले में याचिकाकर्ता (पेटीशनर) शोलापुर स्पिनिंग एंड वीविंग कंपनी लिमिटेड का एक साधारण शेयरधारक (शेयरहोल्डर)  था। कंपनी अपने निदेशकों (डायरेक्टर्स) के माध्यम से इसी नाम से एक कपड़ा मिल का प्रबंधन और संचालन करती थी।
  • 1949 में कुप्रबंधन (मिस्मेनेजमेंट) और कंपनी के मामलों की उपेक्षा (नेगलेक्ट)  के कारण मिल को बंद कर दिया गया। कंपनी की कार्रवाई ने श्रमिकों (वर्कर्स) के बीच अशांति और बेरोजगारी पैदा करने के अलावा एक आवश्यक वस्तु के उत्पादन को प्रतिकूल (प्रेज्यूडिशियल) रूप से प्रभावित किया। 
  •  इसके जवाब में केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश (ऑर्डिनेंस) जारी किया जिसे बाद में शोलापुर स्पिनिंग एंड वीविंग कंपनी (आपातकालीन प्रावधान) अधिनियम, 1950 द्वारा बदल दिया गया। इस अधिनियम ने कंपनी की संपत्ति का प्रबंधन (मैनेजमेंट) और प्रशासन (एडमिनिस्ट्रेशन)  सरकार के द्वारा नियुक्त निदेशक (अप्वाइंटेड डायरेक्टर्स) के नियंत्रण में रखा।
  • पुराने निदेशकों (डायरेक्टर) को बर्खास्त (डिस्मिस्ड) कर दिया गया और कपड़ा मिल सहित कंपनी की संपत्ति को नए प्रबंधन की हिरासत में सौंप दिया गया। अधिनियम ने यह भी घोषित किया कि शेयरधारक (शेयरहोल्डर) न तो एक नया निदेशक नियुक्त कर सकते हैं और न ही वे कंपनी के समापन (वाइंडिंग अप) के लिए कार्यवाही कर सकते हैं।
  • याचिकाकर्ता (पेटीशनर) ने तर्क दिया कि आक्षेपित अधिनियम (इंप्यूग्न एक्ट) ने अनुच्छेद 14 का उल्लंघन किया है क्योंकि एक कंपनी और उसके शेयरधारक अन्य कंपनियों और उनके शेयरधारकों की तुलना में विकलांग (डिसेबिलिटीज) थे। इसलिए, इस मामले में याचिकाकर्ता ने शोलापुर स्पिनिंग एंड वीविंग कंपनी (आपातकालीन प्रावधान) अधिनियम, 1950 के प्रवर्तन के खिलाफ संविधान के अनुच्छेद 14 और 31 के तहत मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

निर्णय: सुप्रीम कोर्ट ने याचिका को खारिज कर दिया और कहा कि कानून वैध था।  इसके अलावा, यह निर्धारित किया कि एक कानून संवैधानिक हो सकता है, भले ही वह एक व्यक्ति पर लागू हो, अगर कुछ विशेष परिस्थितियों या कारणों के कारण उस पर लागू होता है या दूसरों पर लागू नहीं होता है, तो उस एकल व्यक्ति को अपने आप में एक वर्ग के रूप में माना जा सकता है और  कि जब तक यह नहीं दिखाया गया कि अन्य कंपनियां भी इसी तरह की परिस्थितियों में थीं, कानून को संवैधानिक माना जा सकता है।  शोलापुर कंपनी ने अपने आप में एक वर्ग का गठन किया क्योंकि कंपनी के मामलों के कुप्रबंधन ने एक आवश्यक वस्तु के उत्पादन को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया और समुदाय के वर्ग में गंभीर बेरोजगारी का कारण बना।

इसलिए, सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार पुष्टि की कि निर्दिष्ट (स्पेसिफिक) व्यक्तियों को भी प्रभावित करने वाला कानून वैध है।

प्रक्रियात्मक निष्पक्षता (प्रोसीजरल फेयरनेस)

न्यायालय ने अनुच्छेद 14 के सामान्य सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए निष्पक्ष प्रक्रिया के कुछ सामान्य सिद्धांत विकसित किए हैं। एरुशियन इक्विपमेंट एंड केमिकल्स लिमिटेड बनाम पश्चिम बंगाल राज्य 1975 (2) एससीआर 674 677, के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता को ब्लैक लिस्ट करने के आदेश को रद्द कर दिया, जिसका नाम डीजीएस एंड डी की अनुमोदित (अप्रूव्ड) सूची में बिना कोई नोटिस दिए, दिखाई दिया क्योंकि यह सार्वजनिक रोजगार के मामले में एक व्यक्ति को अवसरों की समानता से वंचित करने का प्रभाव था। निर्णय देते समय मुख्य न्यायाधीश ने इस बात पर जोर दिया कि यह सच है कि एक नागरिक को सरकार के साथ अनुबंध करने का कोई अधिकार नहीं है, लेकिन वह निविदा (टेंडर) और कोटेशन देने वाले अन्य लोगों के साथ समान व्यवहार का हकदार है। सरकार की गतिविधियों में सार्वजनिक तत्व होते हैं और इसलिए उनके अभ्यास में निष्पक्षता और समानता देखी जानी चाहिए।

कर कानून और समानताएं (टैक्स लॉ एंड इक्वालिटी)

कराधान (टैक्सेशन) के उद्देश्य के लिए वर्गीकृत  करने की राज्य की शक्ति व्यापक श्रेणी और लचीलेपन (फ्लेक्सिबल) की है।  कर लगाने और एकत्र करने की शक्ति को राज्य की सबसे महत्वपूर्ण संप्रभु शक्ति और कार्यों में से एक माना जाता है। यह कर लगाने के लिए व्यक्ति या वस्तु का चयन कर सकता है। एक क़ानून इस आधार पर हमला करने के लिए खुला नहीं है कि वह कुछ व्यक्तियों या वस्तुओं पर कर लगाता है न कि दूसरों पर।

समानता के क्षेत्रों का विस्तार (एक्सपेंडिंग एरियाज ऑफ इक्वालिटी)

1970 के दशक की शुरुआत से, अनुच्छेद 14 के तहत समानता ने नए और महत्वपूर्ण आयाम (डाइमेंशंस) हासिल किए। समानता के नए विकास में सकारात्मक समानता पर जोर देना शामिल है और सकारात्मक कार्रवाई में अधिकांश लोग शामिल हैं और कमजोर वर्ग इससे लाभान्वित (बेनीफिटेड) होते हैं। कई फैसलों में, अदालत ने इस बात पर जोर दिया है कि समानता एक सकारात्मक अधिकार है और राज्य को मौजूदा असमानताओं को कम करने और संविधान में परिकल्पित (इन्वाइजेज) विशेष देखभाल के साथ असमान या वंचितों के साथ व्यवहार करने की आवश्यकता है।  लैंगिक समानता के अधिकार के उल्लंघन के आधार पर कामकाजी महिलाओं के यौन उत्पीड़न (सेक्सुअल हैरेसमेंट) को रोकने के लिए अनुच्छेद 14 को भी लागू किया गया है, जो कि अदालत के लगातार अनुसरण पर अंततः संसद का एक अधिनियम बन गया है।

अनुच्छेद 15: किसी भी प्रकार के भेदभाव का निषेध (आर्टिकल 15: फॉरबिडिंग एनी किंड ऑफ डिस्क्रिमिनेशन)

संविधान का अनुच्छेद 15(1) राज्य को धर्म, मूलवंश (रेस), जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव करने से रोकता है। अभिव्यक्ति भेदभाव (एक्सप्रेशन डिस्क्रिमिनेशन) का अर्थ है “बिना किसी पूर्वाग्रह (प्रेज्यूडिस) के”।

अनुच्छेद 15 के खंड (2) में कहा गया है कि राज्य को किसी भी व्यक्ति को धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर विकलांगता, दायित्व (लायबिलिटी), प्रतिबंध या शर्त के अधीन नहीं करना चाहिए।  सबसे पहले, सभी को दुकानों, सार्वजनिक रेस्तरांट, होटलों और सार्वजनिक रोजगार के स्थानों तक समान पहुंच होनी चाहिए।  दूसरे, कुओं, टैंकों, स्नान घाटों, सड़कों और सार्वजनिक रिसॉर्ट के स्थानों तक पहुंच, जो पूर्ण या आंशिक रूप से राज्य निधि से या आम जनता के उपयोग के लिए समर्पित है।

अनुच्छेद 15 का खंड (3) राज्य को महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है।  हालाँकि, अनुच्छेद 15 के खंड (1), (2) और (3) को एक साथ पढ़ने से यह पता चलता है कि लिंग के आधार पर भेदभाव करने की अनुमति नहीं है, लेकिन महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान अनुमेय (पर्मिसिबल) हैं।

उदाहरण के लिए, महिलाओं की स्थिति की रक्षा के लिए राज्य द्वारा विभिन्न नियम बनाए जाते हैं जैसे दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 जो पति पर अपनी पत्नी को भरण-पोषण प्रदान करने के लिए बाध्य करता है; हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 14 को महिलाओं की संपत्ति के सीमित स्वामित्व को पूर्ण स्वामित्व में परिवर्तित करना संविधान के अनुच्छेद 15 के साथ उपयुक्त पाया गया।

खंड (4) को संवैधानिक (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951 द्वारा जोड़ा गया था, जो मद्रास राज्य बनाम चंपकम दोरैराजन, एआईआर 1951 एससी 226 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का परिणाम था। इस खंड को इस प्रकार पढ़ा जाता है  एक सक्षम प्रावधान जिसके तहत राज्य विशेष प्रावधान कर सकता है, हालांकि वह ऐसे विशेष प्रावधान करने के लिए बाध्य नहीं है।

संवैधानिक (93वां संशोधन) अधिनियम, 2006 ने अनुच्छेद 15 में खंड (5) जोड़ा। यह संशोधन महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोजित किया गया था कि न तो आरक्षण की नीति राज्य द्वारा लागू की जा सकती है और न ही कोई कोटा या प्रवेश का प्रतिशत हो सकता है। अल्पसंख्यक (माइनोरिटी) या गैर-अल्पसंख्यक (नॉन माइनोरिटी) गैर-सहायता (अनएडेड) प्राप्त शैक्षणिक संस्थान में राज्य द्वारा उपयुक्त होने के लिए तैयार किया गया।

अनुच्छेद 16: सार्वजनिक रोजगार के अवसर में समानता ( आर्टिकल 16: इक्वालिटी इन द ऑपर्च्युनिटी पर्टेनिंग टू पब्लिक एंप्लॉयमेंट)

अनुच्छेद 16, अनुच्छेद 14 में निर्धारित कानून (लॉ लेड डाउन) के समक्ष समानता के सामान्य नियम के लागू होने और राज्य के तहत किसी भी कार्यालय में रोजगार या नियुक्ति के सार्वजनिक अवसर के संबंध में अनुच्छेद 15(1) में भेदभाव के निषेध का एक और उदाहरण है।

अनुच्छेद 17: अस्पृश्यता का उन्मूलन (एबोलिशन ऑफ अनटचैबिलिटी)

यह अनुच्छेद 17, 2 घोषणाओं को अधिनियमित (डिक्लेरेशन)  करता है:

  1. यह घोषणा करता है कि “अस्पृश्यता (अनटचैबिलिटी)” को समाप्त कर दिया गया था और किसी भी रूप में इसका अभ्यास प्रतिबंधित (फोरबिड्डेन) है।
  2. यह घोषणा करता है कि “अस्पृश्यता” से उत्पन्न होने वाली किसी भी तरह की पाबंदी (डिसेबिलिटी) को लागू करना कानून के अनुसार दंडनीय अपराध होगा।

अस्पृश्यता शब्द का प्रयोग यहाँ उसके शाब्दिक या व्याकरणिक अर्थ में नहीं किया गया है, बल्कि उस प्रथा का है जो इस देश में ऐतिहासिक रूप से विकसित हुई है।

अनुच्छेद 18: उपाधियों का उन्मूलन (आर्टिकल 18: एबोलीशन ऑफ टाइटल्स)

अनुच्छेद 18 खंड (1) उपाधियों को प्रदान करने पर रोक लगाता है, हालांकि सैन्य (मिलिट्री) और शैक्षणिक भेदों ( एकेडमिक डिस्टिंक्शंस) को निषेधों (प्रोहिबिशन) से छूट दी गई है।

यह खंड (2) भारत के नागरिक को किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार करने से रोकता है।

खंड (3) एक गैर-नागरिक प्रदान करता है जो राज्य के तहत लाभ या विश्वास का कोई पद धारण करता है, राष्ट्रपति की सहमति के बिना किसी भी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा।

खंड (4) यह प्रदान करता है कि कोई भी व्यक्ति (नागरिक या गैर-नागरिक) राज्य के तहत लाभ या विश्वास का कोई पद धारण नहीं करेगा, राष्ट्रपति की सहमति के बिना, किसी भी विदेशी राज्य से या उसके तहत किसी भी प्रकार का कोई वर्तमान या परिलब्धियां या कार्यालय नहीं होगा।

1954 में, भारत सरकार ने सार्वजनिक सेवा सहित किसी भी क्षेत्र में असाधारण और विशिष्ट सेवा के लिए भारत रत्न, पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्म श्री नाम से चार पुरस्कारों की शुरुआत की। इन पुरस्कारों को चुनौती दी गई और इसके आधार पर उन्हें 1977 में समाप्त कर दिया गया और फिर 1980 में बहाल कर दिया गया। उनकी वैधता को उस अनुच्छेद के साथ उनकी असंगति के आधार पर अनुच्छेद 18 के तहत अदालत में चुनौती दी गई थी। संवैधानिक इतिहास और इन पुरस्कारों के पीछे की मंशा का पीछा करने के बाद, अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंची कि वे अनुच्छेद 18 के साथ संघर्ष नहीं करते क्योंकि वे उस लेख के अर्थ के भीतर शीर्षकों के बराबर नहीं थे। इसके अलावा यह भी कहा गया कि उन्हें अपने पुरस्कार विजेताओं के नाम में उपसर्ग (प्रीफिक्स) या प्रत्यय (सफिक्स) के रूप में नहीं जोड़ा जा सकता है और यदि ऐसा जोड़ा जाता है तो उन्हें जब्त किया जा सकता है। अदालत ने इन पुरस्कारों के अंधाधुंध वितरण (इंडिस्क्रिमिनेट कन्फ्रमेंट) पर भी ध्यान दिया। इसलिए, यह सलाह दी गई कि पुरस्कारों के लिए लोगो को चुनने के लिए प्रधान मंत्री  के अधीन एक समिति होगी जिसमें लोकसभा के अन्य वक्ताओं, भारत के मुख्य न्यायाधीश और भारत के राष्ट्रपति के परामर्श से विपक्ष के नेता शामिल होगे।

निष्कर्ष (कनक्लूजन)

इसलिए, मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम, 2017 (“मातृत्व संशोधन”), नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ, डब्ल्यूपी (सीआरएल) संख्या 76/2016 (धारा 377 का अपराधीकरण (डीक्रिमिनिलाइजेशन), शायरा बानो बनाम भारत संघ  और अन्य, 2016 की रिट याचिका (सी) संख्या 118 (ट्रिपल तालक), डॉ एस गणपति बनाम केरल राज्य, 2018 (सबरीमाला मुद्दा), संविधान (108वां संशोधन) विधेयक (बिल) और कई अन्य हैं,  प्रत्येक परिवर्तन के आधार के रूप में समानता बनाने वाले समाज में परिवर्तन संरचित (स्ट्रक्चर्ड) हैं। इसके अलावा, इस तरह के परिवर्तन/संशोधन भारत के संविधान में गहरे विश्वास को और अधिक गहरा करते हैं।

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