रेवनसिद्दप्पा एवं अन्य बनाम मल्लिकार्जुन एवं अन्य (2011)

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यह लेख Almana Singh द्वारा लिखा गया है। यह भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रेवनसिद्दप्पा एवं अन्य बनाम मल्लिकार्जुन एवं अन्य (2011) 11 एससीसी 1 के मामले में सुनाए गए निर्णय जिसमें शून्य विवाह या शून्यकरणीय (वॉयडेबल) विवाह से पैदा हुए बच्चे के संपत्ति के अधिकार के प्रश्न का उत्तर दिया गया था, के विश्लेषण से संबंधित है। इसमें इस बात का पता लगाया गया है कि क्या ऐसे बच्चे स्वयं अर्जित संपत्ति, माता-पिता की पैतृक संपत्ति या दोनों पर अधिकार रखते हैं। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

जब दो वयस्क (एडल्ट्स) विवाह के बिना या शून्य/शून्यकरणीय विवाह के तहत बच्चा पैदा करने का निर्णय लेते हैं, तो ऐसे संबंधों से पैदा हुए बच्चों को अपने जन्म की परिस्थितियों पर कोई नियंत्रण न होने के बावजूद सामाजिक कलंक का सामना करना पड़ता है। पारंपरिक हिंदू समुदायों में, ऐसे बच्चों को अनुचित रूप से “नाजायज” करार दिया जाता है और उन्हें उत्तराधिकार और संपत्ति से संबंधित अधिकारों पर गंभीर प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने दो अलग-अलग अवसरों पर इस मुद्दे पर विचार किया। इस लेख का उद्देश्य रेवनसिद्दप्पा एवं अन्य बनाम मल्लिकार्जुन एवं अन्य के मामले में तथ्यात्मक पृष्ठभूमि, प्रस्तुत तर्कों और सुनाए गए निर्णयों का संपूर्ण विश्लेषण प्रदान करना है। सबसे पहले, 2011 में दो न्यायाधीशों की पीठ ने मामले को एक बड़ी पीठ को भेज दिया और उसके बाद 2023 में अदालत ने इस मामले में शामिल प्रावधानों के पीछे की व्याख्या और विधायी मंशा पर चर्चा की। 

मामले का विवरण

  1. मामले का नाम: रेवनसिद्दप्पा और अन्य बनाम मल्लिकार्जुन और अन्य 
  2. याचिकाकर्ता: रेवनसिद्दप्पा और अन्य
  3. प्रतिवादी: मल्लिकार्जुन और अन्य 
  4. न्यायालय: भारत का माननीय सर्वोच्च न्यायालय 
  5. मामला प्रकार: सिविल अपील 
  6. निर्णय की तिथि: 01 सितंबर 2023 
  7. पीठ: 
  • 2011 निर्णय: न्यायमूर्ति जी.एस. सिंघवी और न्यायमूर्ति ए.के. गांगुली 
  • 2023 निर्णय: भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा 

8. समतुल्य उद्धरण: 

  • 2011 निर्णय: [[मनु/एससी/0299/2011] [2011 (2) केएलटी 176] [2011 जीएलएच (1) 757] [2011 (आई) सीएलआर (एससी) 976]
  • 2023 निर्णय: [मनु/एससी/0956/2023] [(2023) 10 एससीसी 1] [2023 जीएलएच (3) 757] [2023 (4) सीसीसी 64]

9. इसमें शामिल प्रावधान और क़ानून: हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5, 11, 12 और 16; हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6; भारतीय संविधान का अनुच्छेद 300A

मामले की पृष्ठभूमि

जो प्रथम प्रतिवादी है, पति, उसकी की दो पत्नियाँ हैं तथा प्रत्येक पत्नी से उसके दो बच्चे हैं। इस मामले में पहली पत्नी और उसके बच्चे वादी हैं तथा दूसरी पत्नी तथा उसका पति प्रतिवादी हैं। 

पहली पत्नी और उसके दो बच्चों ने प्रतिवादियों के खिलाफ विभाजन और अलग कब्जे के लिए मुकदमा दायर किया, जिसमें उन्होंने पैतृक संपत्ति में से प्रत्येक को 1/4 हिस्सा देने की मांग की, जो अनुदान के रूप में पति को दी जाती है। वादी ने तर्क दिया कि पति का दूसरी पत्नी के साथ विवाह अवैध है, क्योंकि यह तब हुआ था जब पहली शादी अस्तित्व में थी और दूसरी शादी से पैदा हुए बच्चे पैतृक संपत्ति के हकदार नहीं होंगे, क्योंकि वे सहदायिक (कोपार्सनरी) का हिस्सा नहीं थे। 

मामले के तथ्य

पहली पत्नी ने अपने दो बच्चों के साथ बंटवारे के लिए वाद दायर किया, जिसमें आरोप लगाया गया कि वे पति की पैतृक संपत्ति में 1/4 हिस्सा पाने के हकदार हैं और दूसरी पत्नी के साथ दूसरा विवाह अवैध है तथा उसके बच्चे सहदायिक संपत्ति का हिस्सा नहीं हैं, इसलिए वे पैतृक संपत्ति के हकदार नहीं हैं। 

विचारण न्यायालय

विचारण न्यायालय ने 28 जुलाई 2005 को अपने फैसले में कहा कि पति न तो मौखिक बंटवारे के अस्तित्व को साबित कर पाया और न ही यह साबित कर पाया कि दूसरी पत्नी से विवाह करते समय तलाक हुआ था। दूसरी शादी को विचारण न्यायालय ने शून्य घोषित कर दिया। वादीगण और पति को सभी वाद सम्पत्तियों में से प्रत्येक में 1/4 हिस्सा पाने का हकदार माना गया। 

प्रथम अपीलीय न्यायालय

विचारण न्यायालय के फैसले से व्यथित होकर प्रतिवादियों ने प्रथम अपीलीय न्यायालय में अपील दायर की। सम्पूर्ण साक्ष्य पर पुनर्विचार और पुनः मूल्यांकन के बाद अपीलीय न्यायालय ने विचारण न्यायालय के निष्कर्षों की पुष्टि की। हालाँकि, विचारण न्यायालय का निर्णय कि शून्य विवाह या समान प्रकृति की स्थितियों से पैदा हुए नाजायज बच्चे सहदायिक संपत्ति में हिस्सेदारी के हकदार नहीं हैं, इसे श्रीमती सरोजम्मा और अन्य बनाम श्रीमती नीलाम्मा और अन्य (2005) के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ द्वारा सुनाए गए फैसले का हवाला देते हुए उलट दिया गया था। अपीलीय न्यायालय ने माना कि शून्य विवाह से पैदा हुए बच्चे सहदायिकों के समान ही हैं तथा उन्हें भी उनके समान ही अधिकार प्राप्त हैं। वादी और प्रतिवादी दोनों को पैतृक संपत्ति में 1/6 हिस्सा पाने का अधिकार था। 

अपीलीय न्यायालय के फैसले से व्यथित वादी ने कर्नाटक उच्च न्यायालय में अपील दायर की। 

कर्नाटक उच्च न्यायालय

उच्च न्यायालय के समक्ष दो प्रश्न थे, 

  1. क्या शून्य विवाह से पैदा हुए नाजायज बच्चों को हिंदू विवाह अधिनियम, 1956 के अनुसार सहदायिक माना जाता है?
  2. क्या पैतृक संपत्ति के सहदायिकों के बीच विभाजन के दौरान, नाजायज बच्चे उक्त संपत्ति में हिस्सा पाने के हकदार हैं?

उच्च न्यायालय ने श्री केंचेगौड़ा बनाम के.बी. कृष्णप्पा एवं अन्य (2008) मामले का हवाला दिया और कहा कि दोनों प्रश्न इस मामले के अंतर्गत शामिल किए गए हैं। उच्च न्यायालय ने कहा कि दूसरी शादी से पैदा हुए दोनों बच्चे नाजायज हैं और विवाह भी शून्य है। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 16(3) स्पष्ट करती है कि नाजायज संतान केवल स्व-अर्जित संपत्ति की हकदार है, सहदायिक या पैतृक संपत्ति की नहीं। प्रथम और द्वितीय प्रतिवादी सहदायिक थे और उन्हें जब भी उचित लगे, विभाजन का दावा करने का अधिकार था। उच्च न्यायालय ने विचारण न्यायालय और प्रथम अपीलीय न्यायालय के आदेशों की पुष्टि की और अपील को स्वीकार कर लिया। प्रथम और द्वितीय वादी अर्थात् पति के साथ-साथ पहली पत्नी से उत्पन्न बच्चे, प्रत्येक को वाद की संपत्ति में 1/3 हिस्सा पाने का अधिकार था। 

कर्नाटक उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर दूसरे और तीसरे प्रतिवादी अर्थात् दूसरी पत्नी के बच्चों ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की, और उस पर निर्णय 31 मार्च 2011 को सुनाया गया। 

शामिल मुद्दे

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जिस प्रश्न पर विचार किया गया था वह यह था कि क्या नाजायज संतान सहदायिक संपत्ति में हिस्सा पाने की हकदार है या क्या हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 16(3) के अनुसार उनका हिस्सा माता-पिता की स्व-अर्जित संपत्ति तक ही सीमित है? 

चर्चा किए गए कानून

इस मामले में हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के तहत कई प्रावधानों पर गहन चर्चा की गई। दोनों निर्णयों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सर्वाधिक उद्धृत (साइटेड) धाराओं का विवरण नीचे दिया गया है। 

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5

  1. दो हिंदुओं के बीच विवाह तभी वैध माना जाएगा जब धारा 5 के तहत दी गई शर्तें पूरी हों।
  • विवाह के समय किसी भी व्यक्ति का कोई जीवित जीवनसाथी नहीं होना चाहिए। 
  • विवाह के समय कोई भी पक्ष मानसिक अस्वस्थता के कारण वैध सहमति देने में असमर्थ नहीं होना चाहिए। 
  • यद्यपि वे सहमति दे सकते हैं, लेकिन एक मानसिक विकार से ग्रस्त होते हैं जो उन्हें विवाह और बच्चे पैदा करने के लिए अयोग्य बनाता है। 
  • लगातार और बार-बार पागलपन के प्रकरणों का अनुभव किया है। 

2. पुरुषों की आयु कम से कम 21 वर्ष तथा महिलाओं की आयु कम से कम 18 वर्ष होनी चाहिए।

3. व्यक्तियों को निषिद्ध स्तर के संबंधों में नहीं रहना चाहिए। हालाँकि, इस शर्त को किसी प्रथा या परंपरा द्वारा दरकिनार किया जा सकता है जो ऐसे विवाहों की अनुमति देती है। 

4. व्यक्ति सपिण्ड (निकट रक्त संबंधी) नहीं होना चाहिए। हालाँकि, इस शर्त को किसी प्रथा या परंपरा जो ऐसे विवाहों की अनुमति देती है द्वारा दरकिनार किया जा सकता है। 

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 11

यह धारा शून्य विवाह की अमान्यता के बारे में बात करती है। हिंदू विवाह अधिनियम 1956 के लागू होने के बाद, कोई भी विवाह जो धारा 5 में निर्धारित वैध विवाह की शर्तों का उल्लंघन करता है, उसे शून्य और शून्य माना जाएगा। पति या पत्नी में से कोई भी सक्षम न्यायालय से अनुरोध कर सकता है कि वह औपचारिक रूप से विवाह को अमान्य घोषित कर दे। 

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 12

धारा 12 शून्यकरणीय विवाहों के बारे में बात करती है और इसमें दो उप-धाराएं हैं जिनका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया है। 

  1. इस अधिनियम के लागू होने से पहले या बाद में संपन्न किसी भी विवाह को निम्नलिखित आधारों पर अमान्यता के आदेश द्वारा रद्द किया जा सकता है: 
  • प्रतिवादी की नपुंसकता के कारण विवाह सम्पन्न नहीं हो सकता है।
  • यह विवाह धारा 5 के खंड (ii) में निर्दिष्ट शर्त अर्थात मानसिक विकृति, मानसिक विकार या पागलपन के बार-बार होने वाले प्रकरणों का उल्लंघन करता है।
  • यदि समारोह की प्रकृति या प्रतिवादी से संबंधित किसी अन्य महत्वपूर्ण तथ्य या परिस्थिति के संबंध में याचिकाकर्ता या नाबालिग के अभिभावक की सहमति बलपूर्वक या धोखाधड़ी के माध्यम से प्राप्त की गई हो।
  • विवाह के समय प्रतिवादी याचिकाकर्ता के अलावा किसी अन्य व्यक्ति से गर्भवती थी।

2. उपधारा (1) में उल्लिखित आधारों के बावजूद, निम्नलिखित मामलों में विवाह को अमान्य घोषित करने की कोई याचिका स्वीकार नहीं की जाएगी: 

  • उपधारा (1) के खंड (c) में निर्दिष्ट आधार पर,
  • यदि विवाह निरस्तीकरण की याचिका बल समाप्त होने या धोखाधड़ी का पता चलने के एक वर्ष से अधिक समय बाद दायर की जाती है तो उस पर विचार नहीं किया जाएगा।
  • यदि याचिकाकर्ता, अपनी पूर्ण वैध सहमति से, बल प्रयोग की समाप्ति या धोखाधड़ी का पता चलने के बाद, जो भी मामला हो, दूसरे पक्ष के साथ पति या पत्नी के रूप में रह रहे हों।

3. उपधारा (1) के खंड (d) में निर्दिष्ट आधार पर, जब तक कि न्यायालय संतुष्ट न हो कि: 

  • याचिकाकर्ता को विवाह के समय तथ्यों की जानकारी नहीं थी।
  • यदि विवाह हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के लागू होने से पहले संपन्न हुआ है या कार्यवाही अधिनियम के लागू होने के एक वर्ष के भीतर शुरू की गई है और यदि विवाह अधिनियम के लागू होने के बाद संपन्न हुआ है, तो समय सीमा विवाह की तारीख से एक वर्ष होगी। 
  • कथित आधार की खोज के बाद से याचिकाकर्ता की सहमति से कोई वैवाहिक संभोग नहीं हुआ है। 

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 16

धारा 16 की उप-धारा (1) और (2) शून्य और शून्यकरणीय विवाहों से पैदा हुए बच्चों को वैधता प्रदान करती है, जबकि उप-धारा (3) संपत्ति के हकदारी के उनके अधिकार को सीमित करती है। 

धारा 16(1) में कहा गया है कि धारा 11 के तहत विवाह अमान्य होने के बावजूद, ऐसी शादी से उत्पन्न कोई भी बच्चा वैध होगा। यह बात लागू होती है, चाहे बच्चे का जन्म विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 (1976 का 68 अधिनियम) के लागू होने से पहले हुआ हो या बाद में हुआ हो। यह इस बात पर भी लागू होता है कि इस अधिनियम के तहत विवाह को अमान्य घोषित किया गया है या नहीं, तथा चाहे विवाह को अन्य तरीकों से अमान्य घोषित किया गया है या नहीं। 

धारा 16(2) में कहा गया है कि यदि कोई शून्यकरणीय विवाह धारा 12 के तहत डिक्री द्वारा रद्द कर दिया जाता है और डिक्री से पहले गर्भ में पल रहा या जन्मा कोई बच्चा, जो विवाह को रद्द करने के बजाय विघटित होने पर वैध होता, तो उसे शून्यता की डिक्री के बावजूद वैध माना जाएगा। 

धारा 16(3) में कहा गया है कि उपधारा (1) और (2) के प्रावधान वास्तव में शून्य और शून्यकरणीय विवाह से उत्पन्न किसी भी बच्चे को उसके अपने माता-पिता के अलावा कोई अन्य संपत्ति अधिकार प्रदान नहीं करते हैं। 

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6 का उल्लेख किया हैं। धारा 6 में 2005 में बड़ा संशोधन किया गया था। नीचे धारा 6 के संशोधन से पूर्व और बाद का विस्तृत विवरण दिया गया है। 

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6, संशोधन पूर्व (2005 से पहले)

संशोधन से पहले हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6, हिंदू कानून के मिताक्षरा विचारधारा के तहत शासित एक संयुक्त हिंदू परिवार (जिसे आगे “जे.एच.एफ.” के रूप में संदर्भित किया गया है) के भीतर सहदायिक संपत्ति में हित के हस्तांतरण को नियंत्रित करती थी। हिंदू कानून की मिताक्षरा विचारधारा हिंदू कानून के दो प्रमुख विचारधारा में से एक है। यह एक पारंपरिक कानूनी प्रणाली है जो जे.एच.एफ. के उत्तराधिकार और संपत्ति अधिकारों को नियंत्रित करती है। 

2005 के संशोधन से पहले, किसी हिंदू पुरुष की मृत्यु के बाद उसकी सहदायिक संपत्ति में उसका हित उत्तरजीविता के नियम के अनुसार हस्तांतरित होता था। तथापि, इसमें एक अपवाद मौजूद था, जहां यदि मृतक की हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के साथ संलग्न अनुसूची की श्रेणी 1 के अंतर्गत निर्दिष्ट जीवित महिला संबंधी हो या उस श्रेणी में निर्दिष्ट कोई पुरुष संबंधी हो, जिसने ऐसी महिला संबंधी के माध्यम से दावा किया हो। ऐसे मामलों में, मृतक का हित वसीयतनामा या निर्वसीयत उत्तराधिकार के माध्यम से हस्तांतरित होगा, न कि उत्तरजीविता के नियम से हस्तांतरित होगा। 

धारा 6 के स्पष्टीकरण 1 ने एक कानूनी कल्पना स्थापित की, जहां विभाजन इस तरह से होगा कि यह मिताक्षरा सहदायिक की मृत्यु से ठीक पहले किया गया था, और उसकी मृत्यु के बावजूद, वह अपने दावे का हकदार है। 

स्पष्टीकरण 2 में स्पष्ट किया गया है कि मृतक की मृत्यु से पहले सहदायिक से अलग हुए लोग मृतक के हित में अपने हिस्से का दावा नहीं कर सकते है। 

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6, संशोधन के बाद (2005 के बाद)

अधिनियम 39, 2005 द्वारा लाया गया संशोधन, जो 09 सितम्बर 2005 से प्रभावी हुआ, ने धारा 6 में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर दिया है। 

संशोधित धारा 6(1) ने मिताक्षरा विचारधारा  द्वारा शासित संयुक्त गृह विद्यालय में बेटियों को सहदायिक संपत्ति में बेटों के समान अधिकार प्रदान किए है। इसमें कहा गया है कि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के लागू होने से बेटियां जन्म से ही सहदायिक हो जाएंगी और उन्हें बेटों के समान ही समान अधिकार और दायित्व प्राप्त होंगे। इस संशोधन का उद्देश्य बेटियों को उनके पुरुषों के समान पैतृक संपत्ति में समान अधिकार प्रदान करके पूर्ववर्ती प्रावधान में गहराई से निहित लैंगिक भेदभाव को समाप्त करना था। 

इस धारा के प्रावधान में कहा गया है कि संपत्ति का कोई भी निपटान या हस्तांतरण, जिसमें 20 दिसंबर 2004 से पहले हुआ वसीयती निपटान भी शामिल है, अप्रभावित रहेगा। इस संशोधन का उद्देश्य लैंगिक समानता के सिद्धांतों को बढ़ावा देना और बनाए रखना था। 

भारत का संविधान

सर्वोच्च न्यायालय ने 2011 और 2023 के अपने दोनों निर्णयों में भारत के संविधान के अनुच्छेद 300A का संदर्भ दिया है। यह प्रावधान भारत के संविधान में संविधान (44वां संशोधन) अधिनियम, 1978 द्वारा पेश किया गया था, जिसने अनुच्छेद 19(1)(f) को भी निरस्त कर दिया और अनुच्छेद 31(1) को संविधान के भाग 12 के अध्याय IV में रखकर अनुच्छेद 300A में पुनर्गठित किया। अनुच्छेद 300A यह स्पष्ट रूप से बताता है कि यद्यपि संपत्ति का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है, फिर भी यह भारत के संविधान के तहत एक संवैधानिक अधिकार है। 

रेवनसिद्दप्पा एवं अन्य बनाम मल्लिकार्जुन एवं अन्य (2011) में निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 16 का हवाला देते हुए कहा कि शून्य या शून्यकरणीय विवाह से उत्पन्न संतान केवल माता-पिता की स्व-अर्जित संपत्ति पर ही अधिकार का दावा कर सकती है, इसके अलावा किसी अन्य पर नहीं। हालाँकि, धारा 16 को ध्यान से पढ़ने पर यह ध्यान देना दिलचस्प है कि विधायिका ने “संपत्ति” शब्द का उपयोग किया है, जिसने धारा के दायरे को व्यापक और सामान्य बना दिया है। शब्द “संपत्ति” में स्व-अर्जित संपत्ति या पैतृक संपत्ति शामिल हो सकती है। यह निर्दिष्ट नहीं किया गया है। 

धारा 16(3) के अधिनियमित होने से पहले, शून्य या शून्यकरणीय विवाह से पैदा हुए नाजायज बच्चों को स्व-अर्जित संपत्ति या पैतृक संपत्ति का हकदार मानने के मुद्दे पर कई मामलों में चर्चा की गई थी, और यह स्वीकार किया गया था कि शूद्रों की नाजायज संतानों को एक हद तक पिता की सहदायिक संपत्ति में अधिकार है। अदालत ने धारा 16(3) के अधिनियमन से पहले के कई मामलों का हवाला दिया, जो नाजायज बच्चों के अधिकारों की पुष्टि करते हैं। न्यायालय का मानना था कि धारा 16 को एक बदलाव लाने तथा शून्य या शून्यकरणीय विवाह से पैदा हुए बच्चों की नाजायजता से जुड़े कलंक को दूर करने के इरादे से पेश किया गया था। 

इसके बाद अदालत ने तीन मामलों का हवाला दिया, जिनके नाम हैं, जिनिया केओटिन एवं अन्य बनाम कुमार सीताराम मांझी एवं अन्य (2002), नीलाम्मा एवं अन्य बनाम सरोजम्मा एवं अन्य (2006), तथा भारत माथा एवं अन्य बनाम आर. विजया रेंगनाथन एवं अन्य (2010), जिनमें से सभी को उप-शीर्षक “रेवनसिद्दप्पा एवं अन्य बनाम मल्लिकार्जुन एवं अन्य (2011) में अदालत द्वारा संदर्भित मिसालें” के अंतर्गत संक्षिप्त विवरण दिया गया है। ये निर्णय संपत्ति के मुद्दे तथा इस बात पर विचार करते हैं कि नाजायज संतानें किस सीमा तक उक्त संपत्ति में हिस्सा और अधिकार पाने की हकदार हैं। न्यायालय का मानना था कि इन मामलों में धारा 16 की संकीर्ण व्याख्या की गई है। विधानमंडल ने धारा 16 के खंड 3 में “संपत्ति” शब्द का प्रयोग किया है तथा इस बारे में कुछ नहीं कहा है कि इसमें पैतृक संपत्ति, माता-पिता की स्व-अर्जित संपत्ति या दोनों शामिल हैं। 

धारा 16(3) की संवैधानिक वैधता

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 16(3) के लागू होने का अर्थ है कि नाजायज बच्चे अपने माता-पिता के अलावा किसी अन्य से संपत्ति पर कोई अधिकार पाने के हकदार नहीं हैं। हालाँकि, यह प्रतिबंध माता-पिता की संपत्ति पर लागू नहीं है। धारा 16(1) और धारा 16(2) पुष्टि करती है कि नाजायज बच्चे वैध बच्चों के बराबर हैं और अपने माता-पिता की संपत्ति में अधिकार पाने के हकदार हैं, चाहे वह स्व-अर्जित हो या पैतृक और उनके साथ भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। धारा 16(3) के तहत प्रतिबंध केवल माता-पिता के अलावा अन्य व्यक्तियों की संपत्ति पर लागू होता है। धारा 16(3) की संवैधानिक वैधता को परायणकंडियाल एरावत कनाप्रवन कल्लियानी अम्मा (श्रीमती) एवं अन्य बनाम के. देवी एवं अन्य (1996) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। अदालत ने कानून को बरकरार रखा और कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 एक लाभकारी कानून है जिसका उद्देश्य शून्य या शून्यकरणीय विवाह से पैदा हुए बच्चों को वैधता प्रदान करके सामाजिक सुधारों को आगे बढ़ाना है। उपर्युक्त मामले में फैसले के परिच्छेद (पैराग्राफ) 75 में, अदालत ने कहा कि धारा 16(1) को धारा 11 और 12 से स्वतंत्र रूप से संचालित करने के लिए संशोधित किया गया है। इसका अर्थ यह है कि शून्य विवाह से पैदा हुए बच्चे वैध माने जाएंगे, भले ही धारा 11 के अनुसार उस विवाह को अमान्य घोषित कर दिया गया हो। यह सिद्धांत संशोधन से पहले या बाद में पैदा हुए बच्चों पर लागू होता है। नाजायज बच्चों को सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए वैध माना जाना चाहिए, जिसमें उनके माता-पिता से विरासत भी शामिल है। हालाँकि, वे धारा 16(3) के तहत दिए गए इस नियम के आधार पर अन्य रिश्तेदारों से विरासत नहीं ले सकते हैं, और यह केवल माता-पिता की संपत्ति तक ही सीमित है। धारा 16(3) के इस संशोधन के साथ, यह पारंपरिक दृष्टिकोण कि शून्य और शून्यकरणीय विवाहों से उत्पन्न बच्चे विधितः नाजायज हैं, अर्थात् कानून द्वारा ही, पूरी तरह से बदल जाना चाहिए। इस धारा का उद्देश्य नाजायज बच्चों पर से नाजायजता के कलंक को हटाने के विचार को बढ़ावा देना है, जो अन्य बच्चों की तरह ही निर्दोष हैं। 

वर्तमान मामले पर वापस आते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि शून्य और शून्यकरणीय विवाहों से उत्पन्न बच्चे अपने माता-पिता की संपत्ति के उत्तराधिकारी हो सकते हैं, लेकिन उस पर स्वतंत्र रूप से दावा नहीं कर सकते हैं। जब पैतृक संपत्ति का बंटवारा होता है, तो माता-पिता को मिलने वाला हिस्सा उनके माता-पिता की स्व-अर्जित और पूर्ण संपत्ति में बदल जाता है। धारा 16 के अनुसार, कोई कारण नहीं है कि नाजायज बच्चों को ऐसी संपत्ति में हिस्सा नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि उन्हें वैध विवाह से उत्पन्न वैध बच्चों के बराबर माना जाता है। एकमात्र सीमा यह है कि नाजायज संतान अपने माता-पिता के जीवित रहते हुए बंटवारे की मांग नहीं कर सकती, तथा वे ऐसा केवल अपने माता-पिता की मृत्यु के बाद ही कर सकती हैं। 

सर्वोच्च न्यायालय को सामाजिक रूप से लाभकारी कानूनों की व्याख्या उनके उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए करनी चाहिए, न कि उसमें बाधा डालने के लिए करनी चाहिए। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39(f) में कहा गया है कि राज्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चे स्वस्थ, स्वतंत्र और सम्मानपूर्ण तरीके से विकसित हों तथा उन्हें शोषण और परित्याग से बचाया जाए। यह सिद्धांत धारा 16(3) की व्याख्या के लिए मार्गदर्शक होना चाहिए। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 300A का हवाला दिया, जो यह गारंटी देता है कि कानून के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता है। यद्यपि संपत्ति के अधिकार मौलिक अधिकार नहीं हैं, फिर भी वे संवैधानिक अधिकार हैं। धारा 16(3) इन अधिकारों को प्रतिबंधित नहीं करती है; बल्कि यह केवल माता-पिता की संपत्ति तक ही संपत्ति के अधिकारों पर सीमा और बाधा डालती है, जो या तो स्व-अर्जित या पैतृक हो सकती है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला और राय दी कि इस मामले पर एक बड़ी पीठ द्वारा पुनर्विचार किया जाना चाहिए और इस उद्देश्य के लिए मामले के रिकॉर्ड को भारत के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष रखा जाना चाहिए। 

न्यायालय द्वारा संदर्भित पूर्ववर्ती मामले 

श्रीमती सरोजम्मा एवं अन्य बनाम श्रीमती नीलाम्मा एवं अन्य (2005)

श्रीमती सरोजम्मा एवं अन्य बनाम श्रीमती नीलाम्मा एवं अन्य (2005) के मामले में, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत अमान्य विवाहों से पैदा हुए बच्चों की वैधता और उत्तराधिकार अधिकारों के प्रश्न पर विचार किया था। विचारण न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा गया, जिसमें कहा गया था कि पहली वादी कुरुवती बसवराजप्पा की पहली शादी के कारण कानूनी रूप से विवाहित पत्नी नहीं थी, और इससे हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 11 के तहत उनकी दूसरी शादी शून्य हो जाती है। यह उल्लेख किया गया कि इस तरह के विवाह से पैदा हुए बच्चे धारा 16 के तहत वैध माने जाते हैं और इसके साथ ही, अदालत ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 16(3) के अनुसार, शून्य और शून्यकरणीय विवाह से पैदा हुए बच्चे अपने माता-पिता की संपत्ति के हकदार हैं, जिसमें माता-पिता की स्व-अर्जित संपत्ति के साथ-साथ संयुक्त परिवार या पैतृक संपत्ति भी शामिल है। 

जिनिया केओटिन और अन्य बनाम कुमार सीताराम मांझी (2002)

इस मामले में, वादी ने अनुसूची A से D संपत्तियों में 1/6वां हिस्सा और अनुसूची E संपत्तियों में 1/3वां हिस्सा मांगते हुए यह मुकदमा शुरू किया। पैतृक संपत्ति सहदेव मांझी, महादेव मांझी और उनकी मां दुखानी केओटिन के बीच बांटी जानी थी, जो इस मामले में प्रतिवादी भी थे। सहदेव के 1/3 हिस्से को 4 बराबर हिस्सों में बांटा गया। सहदेव का 8वें प्रतिवादी के साथ विवाह अमान्य होने के कारण प्रतिवादी 8 से 11 को इस हिस्से के लिए अयोग्य माना गया। यह विवाह शून्य माना गया क्योंकि यह हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अधिनियमित होने के बाद हुआ था, जबकि श्रीमती कमली देवी के साथ उनका विवाह अभी भी कायम था। 

मामले के लंबित रहने के दौरान सहदेव की मृत्यु हो गई। अब उसका 1/9वां हिस्सा उसके सभी उत्तराधिकारियों को दिया जाना था, जिसमें वादी, उसकी बेटी, उसकी मां (प्रतिवादी संख्या 6), उसकी पत्नी (प्रतिवादी संख्या 7), प्रतिवादी संख्या 9, 10 और 12, तथा अपीलकर्ता संख्या 7 यानी सहदेव का उसकी पत्नी जिनिया केओतिन से उत्पन्न पुत्र शामिल थे। सहदेव के आठ उत्तराधिकारियों में से प्रत्येक को 1/9वें हिस्से में से 1/72 के बराबर हिस्सा पाने का अधिकार था। इस बंटवारे से असंतुष्ट दूसरी पत्नी ने अपने बच्चों के साथ अपील दायर की थी। 

इस मामले में अपीलकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि धारा 16 के अंतर्गत अमान्य विवाहों से पैदा हुए बच्चों को वैध विवाहों से पैदा हुए बच्चों के समान माना जाना चाहिए। विरोधी वकील ने तर्क दिया कि धारा 16(3) स्पष्ट रूप से ऐसे उत्तराधिकार अधिकारों को केवल माता-पिता की संपत्ति तक ही सीमित करती है। अपील खारिज कर दी गई और निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा गया। भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुनाए गए इस फैसले ने धारा 16(3) के पीछे विधायी मंशा की पुष्टि की थी। 

नीलाम्मा एवं अन्य बनाम सरोजम्मा एवं अन्य (2006)

इस मामले में, अपीलकर्ताओं ने कुरुवती बसवराजप्पा की मृत्यु के बाद जे.एच.एफ. में अपने हिस्से का विभाजन और अलग कब्जे की मांग की थी। प्रथम वादी ने कुरुवती की कानूनी रूप से विवाहित पत्नी होने का दावा किया, तथा वादी 2 और 3 ने उसके बच्चे होने का दावा किया था। दूसरी ओर, प्रतिवादी सरिजम्मा ने कुरुवती की कानूनी रूप से विवाहित पत्नी होने का दावा किया था। 

प्रश्न यह था कि क्या वादी 2 और 3, जो कथित तौर पर कुरुवती बसवराजप्पा की अमान्य विवाह से उत्पन्न संतान हैं, जे.एच.एफ. संपत्ति में हिस्सेदारी के हकदार हैं। यह विवाद धारा 16(3) की व्याख्या पर उत्पन्न हुआ। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि हालांकि विवाह अमान्य है, वादी 2 और 3 जे.एच.एफ. संपत्ति में अपने हिस्से के हकदार हैं और दूसरी ओर, प्रतिवादियों ने दावा किया कि नाजायज बच्चे पैतृक संपत्ति पर अपने अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं और इसके अतिरिक्त, उनके अधिकार स्व-अर्जित संपत्ति तक ही सीमित हैं। 

कर्नाटक उच्च न्यायालय ने संकीर्ण दृष्टिकोण अपनाया और जिनिया केओटिन मामले का हवाला दिया, जिसमें यह माना गया कि धारा 16(1) और 16(2) विधायी वैधता सुनिश्चित करती है, लेकिन धारा 16(3) नाजायज बच्चों के अधिकारों को सीमित करती है। 

भरत मठ और अन्य  बनाम आर. विजया रंगनाथन और अन्य (2010)

इस मामले में, अपीलकर्ता की पूर्ववर्ती, पेरिया मारियाम्मल ने 1975 में संपत्ति के अधिकार के लिए मुकदमा दायर किया और दावा किया कि उनके भाई, मुथु रेड्डीर की अविवाहित और बिना वसीयत के मृत्यु हो गई। इस मामले में प्रतिवादियों ने मुकदमा लड़ा और दावा किया कि मुथु रेड्डीर के साथ उनका लिव-इन रिलेशनशिप था और उनके बच्चों के माध्यम से रेड्डीर की संपत्ति पर उनका अधिकार था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे पर विचार किया कि क्या रेंगम्माल और अलगरसामी रेड्डीर के बीच विवाह सिद्ध हुआ था और क्या इससे बच्चों की वैधता के साथ-साथ उनकी संपत्ति पर अधिकार प्रभावित हुआ था। सर्वोच्च न्यायालय ने लिव-इन रिलेशनशिप के बारे में विचार-विमर्श किया और बाद में फैसला सुनाया कि लंबे समय तक साथ रहने के कारण कोई प्रकल्पित विवाह अस्तित्व में नहीं था, और इस प्रकार, इसने बच्चों को सहदायिक संपत्ति के संबंध में उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित कर दिया था। 

परायणकांडियाल एरावथ कानाप्रवन कल्लियानी अम्मा (श्रीमती) और अन्य बनाम के. देवी और अन्य (1996)

इस मामले मे परायणकांडियाल कन्हिरनकुन्नाथ कुरुंगोदन रमन नारी का 9 जनवरी 1975 को निधन हो गया और वे अपने पीछे केरल और तमिलनाडु में काफी संपत्ति छोड़ गए। उनकी दो पत्नियाँ और 14 बच्चे थे। यह ध्यान देने योग्य बात है कि उनकी दूसरी शादी उनकी पहली पत्नी के जीवित रहते ही हुई थी। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि उनकी दूसरी शादी अवैध थी तथा उस विवाह से उत्पन्न बच्चे भी नाजायज थे। अदालत ने धारा 16(3) के अनुसार कानूनी कल्पना का हवाला दिया, जो नाजायज बच्चों सहित सभी बच्चों को वैध बच्चों के समान मानता है। अदालत ने व्यापक व्याख्या का विकल्प चुना और माना कि अमान्य दूसरे विवाह से उत्पन्न बच्चे धारा 16(3) के अनुसार रमन नायर की संपत्ति के उत्तराधिकारी होंगे और वे जे.एच.एफ. संपत्ति में हिस्सेदारी के भी हकदार होंगे। 

यह निर्णय हिंदू विवाह अधिनियम के सामाजिक सुधार और शून्य विवाह से पैदा हुए बच्चों को वैधता प्रदान करने के उद्देश्य के अनुरूप है। यह सुनिश्चित करता है कि इन बच्चों के साथ केवल उनके जन्म की परिस्थितियों के कारण भेदभाव न किया जाए। यह भारत के संविधान में निहित समानता के लोकतांत्रिक सिद्धांतों के प्रति अनुचित और विरोधाभासी होगा। 

सर्वोच्च न्यायालय ने रेवनसिद्दप्पा एवं अन्य बनाम मल्लिकार्जुन एवं अन्य (2011) मामले में कई निर्णयों का हवाला दिया। यह विचार था कि जिनिया केओटिन मामले, नीलाम्मा मामले और भरत मठ मामले में धारा 16 की उपधारा 3 की संकीर्ण तरीके से व्याख्या की गई है, तथा हिंदू विवाह अधिनियम के पीछे सामाजिक सुधार और लैंगिक समानता की मंशा को पीछे धकेल दिया गया है। न्यायालय ने उत्तराधिकार के प्रश्न पर उपर्युक्त मामलों से भिन्न दृष्टिकोण अपनाया, सिवाय परायणकंडियाल एरावत मामले के, जहां कानून के प्रगतिशील इरादे को ध्यान में रखा गया था। 

रेवनसिद्दप्पा एवं अन्य बनाम मल्लिकार्जुन एवं अन्य (2023)

बाद में, इस मुद्दे को एक बड़ी पीठ के समक्ष उठाया गया, और लेख का यह भाग 01 सितंबर 2023 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुनाए गए निर्णय के सारांश से संबंधित है, जिसे भारत के मुख्य न्यायाधीश डॉ. धनंजय वाई. चंद्रचूड़ ने लिखा था। 

उठाए गए मुद्दे 

  1. क्या इस कानून का उद्देश्य धारा 16 के अंतर्गत नाजायज संतान को वैधता प्रदान करना है, जो एक तरह से उन्हें सहदायिक बनाता है और उन्हें विभाजन में हिस्सा लेने का अधिकार देता है?
  2. धारा 16(3) के अनुसार, विधायी वैधता वाले बच्चे केवल अपने माता-पिता की संपत्ति पर अधिकार का दावा कर सकते हैं। अतः, किस बिंदु पर कोई विशिष्ट संपत्ति माता-पिता की संपत्ति बन जाती है? 

निर्णय

2023 में सुनाए गए फैसले का सारांश नीचे दिया गया है। 

  • धारा 16(1) के तहत, धारा 11 के तहत शून्य और अमान्य विवाह से उत्पन्न बच्चे को निम्नलिखित शर्तों के बावजूद विधायी वैधता सुनिश्चित की जाती है।
    • सबसे पहले, क्या बच्चे का जन्म 1976 के संशोधन के लागू होने से पहले या बाद में हुआ था;
    • दूसरा, क्या अधिनियम के तहत उस विवाह को अमान्य घोषित किया गया है या फिर याचिका के अलावा किसी अन्य माध्यम से विवाह को अमान्य घोषित किया गया है।
  • धारा 16(1) और 16(2) बच्चों को वैधता प्रदान करती है, जहां वे केवल अपने माता-पिता की संपत्ति के हकदार हैं, किसी तीसरे व्यक्ति के नहीं।
  • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 3(1)(j) की व्याख्या करते समय यह आवश्यक है कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 16 द्वारा प्रदत्त वैधता पर विचार किया जाए और विधायी वैधता प्राप्त संतान को ‘वैध रिश्तेदारी से संबंधित’ की परिभाषा के अंतर्गत शामिल किया जाएगा और उसे धारा 3(1)(j) के प्रयोजनों के लिए नाजायज नहीं माना जा सकता हैं। 
  • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6, सहदायिक की अवधारणा के साथ-साथ मिताक्षरा विचारधारा  के तहत शासित संयुक्त गृह उत्तराधिकार की अवधारणा को मान्यता देती है। धारा 6 में संशोधन करके, अधिक लैंगिक समानता वाले कानून बनाने के लिए बेटियों और बेटों को समान अधिकार प्रदान किए गए हैं। 

  • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 सहदायिक संपत्ति में हिस्सेदारी के हस्तांतरण की रूपरेखा प्रस्तुत करती है। 2005 के संशोधन से पहले, उत्तरजीविता (सर्वाइवरशिप) का नियम लागू था, जिसके तहत एक पुरुष हिंदू अपनी मृत्यु के बाद अपना हिस्सा शेष सहदायिकों को दे देता था। इस नियम का एकमात्र अपवाद यह था कि यदि मृतक अपने पीछे कोई महिला संबंधी या पुरुष संबंधी छोड़ गया हो, जो अनुसूची के वर्ग I में किसी महिला के माध्यम से दावा कर रहा हो, तो इन मामलों में संपत्ति वसीयतनामा या बिना वसीयत के उत्तराधिकार द्वारा हस्तांतरित होगी। 2005 के बाद, धारा 6 में संशोधन किया गया और उत्तरजीविता के नियम को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया और अब उत्तराधिकार वसीयत उत्तराधिकार या निर्वसीयत उत्तराधिकार नियमों के अनुसार होता है। 
  • संशोधन के बाद हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6(3) एक कानूनी कल्पना प्रस्तुत करती है, जिसमें यह माना जाता है कि मृतक की संपत्ति का बंटवारा उसकी मृत्यु से ठीक पहले ही हो चुका था, भले ही वह अपने जीवनकाल में बंटवारे का दावा कर सकता हो या नहीं। एक बार मृतक का हिस्सा निश्चित हो जाने पर उसके उत्तराधिकारी, जिनमें धारा 16 के अंतर्गत वैधानिकता प्राप्त बच्चे भी शामिल हैं, अपने हिस्से के हकदार होंगे। 
  • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 और हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के प्रावधान सामंजस्य में काम करते हैं, जहां धारा 16 (1) और धारा 16 (2) के तहत वैधता प्रदान की गई संतान धारा 16 (3) के अनुसार अपने माता-पिता के अलावा किसी अन्य की संपत्ति में अधिकार पाने की हकदार नहीं होगी। 

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय का समापन यह आदेश देते हुए किया कि अब इन मामलों को निपटान के लिए निर्धारित कार्य के अनुसार दो न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया जाएगा। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार (न्यायिक) को निर्देश दिया गया कि वे निर्णय की एक प्रति सभी उच्च न्यायालयों के रजिस्ट्रार (न्यायिक) को प्रसारित करें। 

रेवनसिद्दप्पा एवं अन्य बनाम मल्लिकार्जुन एवं अन्य (2011) का आलोचनात्मक विश्लेषण

वर्ष 2011 और 2023 के निर्णय हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 16 की विरोधाभासी व्याख्याएं प्रस्तुत करते हैं। 2011 के फैसले में कहा गया कि धारा 16(3) का व्यापक क्षेत्राधिकार है और यह अमान्य तथा अमान्यकरणीय विवाहों से पैदा हुए बच्चों को अपने माता-पिता की सहदायिक संपत्ति में उत्तराधिकार पाने की अनुमति देता है। हालाँकि, 2023 के फैसले ने इस व्याख्या को संकुचित कर दिया और कहा कि धारा 16(3) की नकारात्मक भाषा उत्तराधिकार के अधिकारों को प्रतिबंधित करती है और बच्चों को माता-पिता की स्व-अर्जित संपत्ति में अधिकार देती है, किसी अन्य व्यक्ति को अधिकार नहीं देती है। 

एक ओर, धारा 16(1) और 16(2) का उद्देश्य इन बच्चों को कलंकमुक्त करना और उन्हें विधायी वैधता प्रदान करना है ताकि वे वैध विवाह से पैदा हुए वैध बच्चों के बराबर की स्थिति प्राप्त कर सकें। यह असमानता कानून द्वारा अपेक्षित सामाजिक सुधारों और लैंगिक समानता को कमजोर करती है। 

इस व्याख्या में समानता के सिद्धांतों और आदर्शों का पालन नहीं किया गया है। माता-पिता के विवाह की प्रकृति के आधार पर बच्चे को दंडित करना अन्यायपूर्ण और अनुचित है, क्योंकि विवाह बच्चे के नियंत्रण में नहीं था। उत्तराधिकार अधिकारों पर प्रतिबंधों के कारण, 2023 का निर्णय असमानता को बढ़ावा देता है जो इस कानून की भावना और समानता की धारणा के विपरीत है। 

2011 के फैसले में खामियां

जब 2011 के निर्णय का उल्लेख किया जाता है तो इसमें कुछ हद तक विरोधाभास है जिसे स्पष्ट करने की आवश्यकता है। एक ओर, दो न्यायाधीशों की पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि “धारा 16(3) में निहित निषेध ऐसे बच्चों पर उनके माता-पिता के अलावा किसी अन्य व्यक्ति की संपत्ति के संबंध में लागू होगा।” इसमें यह भी कहा गया है कि “संयुक्त परिवार की संपत्ति के मामले में ऐसे बच्चे केवल अपने माता-पिता की संपत्ति में हिस्सेदारी के हकदार होंगे, लेकिन वे अपना अधिकार नहीं मांग सकते है”। 2011 के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि एक बार माता-पिता का हिस्सा तय हो जाने पर, इसे उनकी पूर्ण और स्व-अर्जित संपत्ति माना जाएगा, तथा ऐसे कोई बच्चे नहीं होने चाहिए जिनका इस पर अधिकार न हो। 

सर्वोच्च न्यायालय ने 2011 में कहा था कि संसद नाजायज बच्चों को वैधता प्रदान करती है, लेकिन यह भी धारा 16(3) के तहत सीमित है। इसके बावजूद, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संपत्ति के अधिकार के मामले में नाजायज बच्चे भी वैध बच्चों के बराबर हैं, जबकि सच यह नहीं है। 

यह ध्यान देने योग्य है कि 2011 के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय  का तर्क, जिसमें वैधता प्रदान करने को नाजायज बच्चों को सभी संपत्ति अधिकार प्रदान करने के रूप में देखा गया था, धारा 16(3) के अनुरूप नहीं था। धारा 16(3) में उल्लेख है कि बच्चे के अधिकार उसके माता-पिता की संपत्ति तक ही सीमित हैं, किसी अन्य व्यक्ति तक नहीं। 

वर्तमान स्थिति 

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 2023 के फैसले की शुरुआत यह टिप्पणी करते हुए की कि जब 2005 के संशोधन के बाद किसी हिंदू की मृत्यु हो जाती है, तो जे.एच.एफ. की संपत्ति में उनका हित वसीयत या बिना वसीयत के उत्तराधिकार के माध्यम से प्राप्त होगा, न कि उत्तरजीविता के नियम से प्राप्त होगा। धारा 6(3) के अनुसार, ब्याज का निर्धारण इस प्रकार किया जाता है मानो काल्पनिक विभाजन उनकी मृत्यु से ठीक पहले हुआ हो। इस काल्पनिक विभाजन से मृतक को आवंटित होने वाला हिस्सा हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 8 के तहत दिए गए उत्तराधिकार के सामान्य नियमों के अनुसार बाधित होता है। 

इसके बाद संपत्ति को धारा 10 के तहत निर्धारित नियमों के अनुसार वर्ग I के उत्तराधिकारियों के बीच वितरित किया जाता है। मृतक के प्रत्येक जीवित पुत्र, पुत्री और माता को एक हिस्सा मिलता है। यदि विधवा/विधवाएं एक से अधिक हों तो उन्हें सामूहिक रूप से एक हिस्सा मिलेगा। 

अब, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 16 की उप-धारा 1 और 2 के तहत विधायी वैधता प्राप्त बच्चा भी मृतक की संपत्ति में हिस्सेदारी का हकदार है। चूंकि, धारा 16(3) बच्चे को अपने माता-पिता के अलावा किसी अन्य की संपत्ति विरासत में पाने से रोकती है, क्योंकि यह एक काल्पनिक विभाजन है, यह मृतक का है और इसलिए यह माता-पिता की संपत्ति है और धारा 16(3) के तहत प्रतिबंध लागू नहीं होगा। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि जब किसी मृतक की बिना वसीयत के मृत्यु हो जाती है, तो संपत्ति सभी बच्चों को समान रूप से विरासत में मिलती है, अर्थात वैध और विधायी रूप दोनों से मिलती है। अदालत ने कहा कि यह प्रक्रिया हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 16(3) के तहत दिए गए प्रावधानों का उल्लंघन नहीं है। 

धारा 6 की व्याख्या को समझने के लिए, जो काल्पनिक विभाजन की धारणा को अनिवार्य बनाती है, न्यायालय ने एक उदाहरण की मदद से इसे सरल बनाया है, जिसे गहन अवलोकन के लिए नीचे संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है। 

अदालत द्वारा दिए गए उदाहरण में कहा गया है कि चार सहदायिक हैं, अर्थात् C1, C2, C3 और C4। मान लीजिए कि C2 की मृत्यु हो गई और उसने अपने पीछे एक विधवा, एक पुत्र, एक पुत्री और एक नाजायज संतान छोड़ी, जो हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 11 के अनुसार अमान्य विवाह से उत्पन्न हुई थी। अब, हम यह मान लेंगे कि भाइयों के बीच सहदायिक संपत्ति का विभाजन C2 की मृत्यु से ठीक पहले हुआ था और इस विभाजन में, C2 को उक्त सहदायिक संपत्ति में से 1/4 हिस्सा मिला। C2 की शाखा में विधवा और उसके सभी बच्चों को 1/3 हिस्सा मिलेगा। C2 का हिस्सा निम्नलिखित तरीके से विभाजित किया जाएगा: 

C2 की विधवा को C2 के 1/4 हिस्से में से 1/3 हिस्सा प्राप्त होगा; 

वैध रूप से जन्मे बच्चे को C2 के 1/4 भाग में से 1/3 भाग मिलेगा; 

धारा 11 के अंतर्गत अमान्य विवाह से पैदा हुआ बच्चा भी C2 के 1/4 भाग में से 1/3 भाग का हकदार होगा। 

यह धारा 6 की सही व्याख्या होगी, जहां काल्पनिक विभाजन सहदायिक की मृत्यु से ठीक पहले होता है और फिर शेयरों को मृतक के उत्तराधिकारियों के बीच वितरित किया जाता है, जिसमें धारा 16(1) और 16(2) के तहत आने वाले विवाहों से पैदा हुए बच्चे भी शामिल हैं, जिन्हें विधायी रूप से वैध माना गया है। 

निष्कर्ष

निष्कर्ष रूप में, रेवनसिद्दप्पा एवं अन्य बनाम मल्लिकार्जुन एवं अन्य (2011 एवं 2023) के मामले में दिए गए निर्णय, शून्य एवं शून्यकरणीय विवाहों से उत्पन्न बच्चों के संबंध में उत्तराधिकार अधिकारों की जटिलताओं से संबंधित हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 से लेकर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 और भारतीय संविधान तक कई कानूनों का विश्लेषण किया और उनके जटिल अंतर्संबंधों की जांच की हैं। यह निष्कर्ष निकाला गया कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 11 और 12 के अंतर्गत शून्य और शून्यकरणीय माने जाने वाले विवाहों से पैदा हुए बच्चे नाजायज श्रेणी में आते हैं, और इसलिए, संपत्ति और उत्तराधिकार से संबंधित उनके अधिकार सीमित हैं। धारा 16(3) में प्रावधान है कि नाजायज बच्चे केवल माता-पिता की स्व-अर्जित संपत्ति के हकदार हैं, और उन्हें जे.एच.एफ. की सहदायिक संपत्ति में कोई अधिकार नहीं है। ऐसा वैध विवाहों और शून्य/शून्यकरणीय विवाहों से पैदा हुए बच्चों के अधिकारों के बीच संतुलन को ध्यान में रखते हुए किया गया था। यह वैध विवाह से उत्पन्न बच्चों की संपत्ति और उत्तराधिकार के अधिकारों की रक्षा करता है तथा यह सुनिश्चित करता है कि उनमें हस्तक्षेप न किया जाए। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

जे.एच.एफ. और सहदायिक के बीच क्या अंतर है?

जे.एच.एफ. एक बड़ी संस्था है क्योंकि इसमें एक ही पूर्वज के सभी पुरुष वंशज, उनकी पत्नियां और बेटियां शामिल हैं। दूसरी ओर, सहदायिकता एक संकीर्ण (नैरो) संस्था है और इसमें संपत्ति के अंतिम धारक के साथ एक ही पूर्वज के पुरुष वंशजों की केवल 3 पीढ़ियां ही शामिल होती हैं। इस दृष्टिकोण को 2005 में संशोधित किया गया और बेटियों को भी सहदायिक अधिकार दिए गए हैं। कोई भी सदस्य विवाह के माध्यम से सहदायिकता में शामिल नहीं हो सकता हैं। हालाँकि, जे.एच.एफ. में विवाह के माध्यम से भी शामिल हुआ जा सकता है। उदाहरण के लिए, भाइयों की पत्नियाँ विवाह के बाद भाइयों के जे.एच.एफ. का हिस्सा बन जाएँगी।

उत्तरजीविता का सिद्धांत क्या है?

जब सहदायिक संपत्ति उत्तरजीविता के नियम के अनुसार हस्तांतरित की जाती है, यदि एक संयुक्त स्वामी की मृत्यु हो जाती है, तो संपत्ति में उनका हिस्सा जीवित सहदायिकों के बीच हस्तांतरित हो जाता है, जो कि वसीयत उत्तराधिकार की अवधारणा या हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के तहत निहित उत्तराधिकार के नियमों के विपरीत है, जहां संपत्ति आमतौर पर मृतक के उत्तराधिकारियों को हस्तांतरित की जाती है। उत्तरजीविता के नियम के तहत, संयुक्त परिवार में जन्म और मृत्यु के आधार पर सभी सहदायिक सदस्यों का हिस्सा घटता-बढ़ता रहता है। यह सिद्धांत पैतृक संपत्ति के संरक्षण और एकीकृत उपभोग के पारंपरिक विचार से मेल खाता है। यद्यपि, यह ध्यान देने योग्य बात है कि 2005 के बाद भारत में उत्तरजीविता का नियम लागू नहीं है। 

संदर्भ

 

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