विश्राम सिंह रघुबंशी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2011) 

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यह लेख Saloni Bhatt द्वारा लिखा गया है। यह लेख विश्राम सिंह रघुबंशी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले से संबंधित है। इसमें मामले के तथ्यों और निर्णयों के संबंध में विस्तृत विवरण प्रदान किया गया है। यह न्यायालय की अवमानना (कंटेम्प्ट) की अवधारणा को भी स्पष्ट करता है। इसका अनुवाद Pradyumn Singh के द्वारा किया गया है। 

Table of Contents

परिचय 

विश्राम सिंह रघुबंशी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2011) मामला मुख्य रूप से “न्यायालय की अवमानना” ​​की अवधारणा के इर्द-गिर्द घूमता है। आमतौर पर इसे “अवमानना” कहा जाता है, अदालत की अवमानना ​​तब होती है जब कोई व्यक्ति अदालत के आदेश की अवहेलना करता है, या कानून की अदालत के प्रति अनादर करता है, या ऐसा कुछ करता या कहता है जो कानूनी प्रणाली को कलंकित करता है या न्याय, अधिकार और गरिमा के प्रशासन में अदालत का हस्तक्षेप करता है। जब ऐसा ही किसी विधायी निकाय के प्रति किया जाता है तो इसे संसद की अवमानना ​​कहा जाता है। अदालत की अवमानना ​​का अपराध आम तौर पर दो श्रेणियों का होता है, यानी जब कोई व्यक्ति अदालत कक्ष में न्यायाधीशों के प्रति अपमानजनक होता है या जानबूझकर अदालत के आदेश की अवज्ञा करता है।

कानूनी पेशे की गरिमा को बनाए रखने के लिए अदालत कक्षों में कुछ कानूनी मानकों और नैतिकता का रखरखाव बहुत महत्वपूर्ण है। अधिवक्ताओं, अधिकारियों और सरकारी अधिकारियों को हमेशा अदालत कक्ष में मर्यादा बनाए रखनी चाहिए; उन्हें हमेशा न्यायाधीश को सम्मानजनक तरीके से संबोधित करना चाहिए और न्यायाधीशों या विरोधी वकील के प्रति गैरकानूनी तरीके से कार्य करने से इनकार करना चाहिए। यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि कानून की अदालत में अनादर और कदाचार के बार-बार संकेत नहीं मिलेंगे; ऐसा करने से न्यायाधीश के साथ-साथ अदालत कक्ष में उपस्थित अन्य लोग भी निराश हो जाते हैं।

मामले की पृष्ठभूमि 

न्यायालय की अवमानना ​​अधिनियम, 1971, अदालत की अवमानना ​​​​को दंडित करने और उनकी प्रक्रियाओं को विनियमित करने में कुछ अदालतों की सीमाओं और शक्तियों को परिभाषित करता है।

Lawshikho

अधिनियम में धारा 2(a) अदालत की अवमानना ​​को सिविल और आपराधिक दोनों के रूप में परिभाषित किया गया है। धारा 2(b) न्यायालय की सिविल अवमानना ​​है, जिसका अर्थ है किसी भी निर्णय, निर्देश, डिक्री, आदेश की अवज्ञा करना या न्यायालय द्वारा दिए गए वचन का जानबूझकर उल्लंघन करना,और धारा 2(c) आपराधिक अवमानना ​​को प्रकाशन के रूप में परिभाषित किया गया है, चाहे वह शब्दों, लिखित, संकेतों या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा हो, जो किसी भी अदालत के अधिकार को बदनाम या कमजोर करता है, अदालत की उचित कार्यवाही में हस्तक्षेप करता है या न्याय प्रशासन में बाधा डालता है। 

अदालत की अवमानना ​​का इतिहास आम कानून में स्थापित अपराध से जुड़ा है, जिसका पता औपनिवेशिक (कोलोनियल) कानून से भी लगाया जा सकता है, जिसमें अपराध के लिए दंड सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण प्रावधानों में शामिल थे। 1773 का विनियमन अधिनियम, जिसमें कलकत्ता के मेयर न्यायालय के पास ऐसे अपराध करने वालों को दंडित करने के लिए अंग्रेजी राजा की पीठ की अदालत के समान शक्तियां थी। उस समय भारत में जो अदालतें बनीं, उनमें सामान्य कानून व्यवस्था का पालन किया गया कि सभी अदालतों को अवमानना ​​के अभियुक्त  को दंडित करने की शक्ति दी गई। बम्बई, मद्रास और कलकत्ता में उच्च न्यायालय ऐसी अदालतें थीं जो न्याय प्रशासन का अनादर करने वाले किसी भी व्यक्ति को दंडित करती थीं।

मामले का विवरण

मामले का नाम: विश्राम सिंह रघुबंशी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

मामला संख्या: एआईआर 2011 एससी  2275

मामले का प्रकार: आपराधिक अपील

न्यायालय का नाम: भारत का सर्वोच्च न्यायालय 

पीठ: स्वतंत्र कुमार, बी.एस. चौहान

फैसले की तारीख: 15 जून, 2011

समतुल्य उद्धरण: एआईआर 2011 एससी  2275।

पक्षों का नाम: विश्राम सिंह रघुबंशी (अपीलकर्ता) और उत्तर प्रदेश राज्य (प्रतिवादी)

मामले में शामिल कानून: न्यायालय की अवमानना ​​अधिनियम, 1971 की धारा 15, धारा 19अधिवक्ता अधिनियम 1961, भारतीय विधिज्ञ परिषद नियमों का भाग – IV (धारा 1)

विश्राम सिंह रघुबंशी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2011) के तथ्य 

अपीलकर्ता पिछले 30 वर्षों से इटावा (यूपी) की जिला अदालत में एक वकील के रूप में अभ्यास कर रहा था। दिनांक 25.7.1998 को, अपीलकर्ता ने जानबूझकर ओम प्रकाश नामक एक व्यक्ति को राम किशन पुत्र अशरफी लाल के रूप में पेश किया, जो द्वितीय अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में आपराधिक कार्यवाही में मुख्य अभियुक्त  था। जिस व्यक्ति को आत्मसमर्पणb(सरेंडर) के लिए अदालत में पेश किया गया था, उसकी वास्तविकता के बारे में कुछ चिंताएँ और संदेह उठाए गए थे; इसलिए, अदालत के पीठासीन (प्रेसीडिंग) अधिकारी ने उसी के संबंध में मुद्दे उठाए थे। अपीलकर्ता ने खुद को और अदालत के समक्ष पेश किए गए व्यक्ति को बचाने के लिए अदालत में उक्त अधिकारी के साथ दुर्व्यवहार किया और अभद्र भाषा का भी इस्तेमाल किया।

27.10.1998 को, न्यायालय के पीठासीन अधिकारी ने वादी के खिलाफ उत्तर प्रदेश  विधिज्ञ परिषद के समक्ष शिकायत दर्ज कराई और उसे अदालत अवमानना अधिनियम, 1971 की धारा 15 के तहत, कार्यवाही शुरू करने के लिए उच्च न्यायालय को भेज दिया। बाद में विधिज्ञ परिषद ने शिकायत खारिज कर दी। अपीलकर्ता ने, स्वयं एक वकील होने के नाते, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील दायर की। 

उच्च न्यायालय ने मामले पर विचार करने के बाद, अपीलकर्ता को 5.5.1999 को कारण बताओ नोटिस जारी किया, जिसमें उसने अपने खिलाफ लगाए गए आरोपों से इनकार किया और एक हलफनामे के रूप में माफी मांगी और कहा कि वह अदालत का सम्मान करता है और न्यायालय को सर्वोच्च सम्मान में रखा है। पीठासीन अधिकारी द्वारा शिकायत पत्र में, उन्होंने उल्लेख किया कि एक जिरह (क्रॉस एग्जामिनेशन) के दौरान, अपीलकर्ता को इस तरह से प्रश्न पूछने की सलाह दी गई थी जो शांतिपूर्ण हो और गवाह को चोट न पहुँचाए, जबकि उसने अदालती कार्यवाही के दौरान अभद्र भाषा का प्रयोग करके और न्याय के कार्य में बाधा डालकर इसके विपरीत कार्य किया। अपीलकर्ता के खिलाफ आरोप तय किए गए क्योंकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता के स्पष्टीकरण या उसके पश्चाताप के प्रस्ताव को स्वीकार करना उचित नहीं समझा।

अपीलकर्ता ने उसे भेजे गए कारण बताओ नोटिस का जवाब दाखिल किया और कई मौकों पर खेद व्यक्त किया, जो उच्च न्यायालय को स्वीकार्य हो भी सकता है और नहीं भी। जिसके बाद अपीलकर्ता को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की खंडपीठ के सामने अपनी बात रखने का पूरा मौका दिया गया। 

उठाये गए मुद्दे

  1. क्या अपीलकर्ता द्वारा दायर अपील अदालत में स्वीकार की जाएगी?
  2. क्या अपीलकर्ता की माफी अदालत में स्वीकार की जाएगी? 

पक्षों की दलीलें

अपीलकर्ता   

अपीलकर्ता के वरिष्ठ वकील, श्री संजीव भटनागर ने अपनी दलीलें पेश करते हुए कहा कि वह अपीलकर्ता के असम्मानजनक व्यवहार का बचाव करने की स्थिति में नहीं होंगे, हालांकि उन्होंने यह अवगत कराया कि अपीलकर्ता एक बुजुर्ग, बीमार व्यक्ति हैं, जिन्होंने अदालत का अनादर करने के लिए बार-बार माफी मांगी है, जिसमें उन्होंने माना कि उनकी माफी स्वीकार की जा सकती है। अपीलकर्ता ने उसे जारी किए गए कारण बताओ नोटिस के जवाब में एक जवाब प्रस्तुत किया, जिसमें उसने कई बार माफी मांगी और कहा कि वह एक बूढ़ा और बीमार व्यक्ति है।

आपराधिक अवमानना के लिए उच्च न्यायालय में अपीलकर्ता के खिलाफ आरोप तय किए जाने के बाद, अपीलकर्ता द्वारा दूसरा हलफनामा दायर कर माफी मांगी गई थी। माफी अभियोग (चार्ज) के दबाव में तैयार की गई थी, यह महसूस करने के बाद कि उन्हें दंडित किया जा सकता है। माफी को केवल एक औपचारिकता के रूप में और उनके द्वारा किए गए घोरतम अवमानना के लिए अदालत की सजा से बचने के लिए पेश किया गया था। अपीलकर्ता की ओर से कोई पछतावा या खेद नहीं था; यदि ऐसा होता, तो पीठासीन अधिकारी के खिलाफ शिकायत करने के बजाय, अपीलकर्ता संबंधित न्यायिक अधिकारी के पास जाकर माफी मांग सकता था। अपीलकर्ता के वरिष्ठ वकील भी उनका बचाव करने में विफल रहे और केवल इतना कहा कि उनकी माफी स्वीकार की जा सकती है क्योंकि वह बूढ़े और बीमार आदमी हैं।

प्रतिवादी 

प्रतिवादी वकील, श्री आर.के. गुप्ता ने अपीलकर्ता के वकील द्वारा की गई प्रार्थनाओं से असहमति जताते हुए तर्क दिया कि अपीलकर्ता की माफी स्वीकार नहीं की जाएगी क्योंकि माफी की भाषा में उनकी ओर से कोई पछतावा नहीं दिखता है और उन्हें अदालत की अवमानना ​​​​के लिए दंडित किया जाएगा। प्रतिवादी ने तर्क दिया कि अपीलकर्ता ने आपराधिक अवमानना ​​का घोर अपराध किया है और अदालत द्वारा दी जाने वाली सजा से बचने के लिए उसे माफी मांगनी होगी।

 

उन्होंने आगे दलील दी कि शुरुआती चरण में माफी नहीं मांगी गई है। उच्च न्यायालय से कारण बताओ नोटिस मिलने और दबाव के बाद ही पहली माफी मांगी गई थी। इसके अलावा, अपीलकर्ता ने अपनी माफी में कोई पछतावा नहीं दिखाया है और अदालत के प्रति बहुत अपमानजनक रहा है। इसके अलावा, अपीलकर्ता ने गंभीर अपराध के लिए आत्मसमर्पण करने के लिए किसी अन्य व्यक्ति का रूप धारण करने का प्रयास किया। अपीलकर्ता अदालत का एक अधिकारी भी है, जिसमें वह अदालत को संतुष्ट करने और संबंधित व्यक्ति की वास्तविक पहचान स्थापित करने के लिए जिम्मेदार था। स्वयं एक वकील होने के नाते, अपीलकर्ता अदालत में अपनी गरिमा और आत्म-सम्मान बनाए रखने के लिए जवाबदेह है, जो उसने नहीं किया।

प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि ऐसे व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में स्वतंत्र रूप से कार्य करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए और वह जिस भी तरीके से चाहे, कानून को अपने हाथ में लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, जिससे न्याय प्रशासन प्रणाली के अस्तित्व का अनादर हो।

विश्राम सिंह रघुबंशी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2011) मामले में कानून की चर्चा 

इस मामले में, अपीलकर्ता को भारतीय विधिज्ञ परिषद नियमों के अध्याय 2 (भाग VI) की धारा 1 का उल्लंघन करने वाला बताया गया था, जिसमें कहा गया है कि अधिवक्ता का यह कर्तव्य है कि वह अपने मामले की पैरवी करते समय गरिमा और सम्मान के साथ पेश आए; वह अपने शिकायतों को न्यायिक अधिकारी के सामने रखेगा और साथ ही अदालत के प्रति सम्मानजनक रवैया रखेगा। वह अवैध या अनुचित तरीके से अदालत के फैसले को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करेगा। वह स्वयं को और अपने मुवक्किल को किसी भी तरह के अनुचित व्यवहार या अदालत से संबंधित किसी भी कार्य से दूर रखेगा।

अवमानना के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की खंडपीठ द्वारा पारित फैसले के आधार पर अवमानना अधिनियम, 1971 की धारा 19 के तहत अपील दायर की गई थी।

अधिनियम की धारा 12 में अदालत की अवमानना ​​के लिए सजा का प्रावधान है, जो छह महीने तक का साधारण कारावास या दो हजार तक का जुर्माना या दोनों हो सकता है।

अधिनियम की धारा 15 अदालत को अदालत की अवमानना ​​की कार्यवाही शुरू करने का अधिकार देती है, और अधिवक्ता अधिनियम की धारा 35 अधिवक्ताओं द्वारा कदाचार के लिए सजा को नियंत्रित करता है। 

अधिवक्ता अधिनियम 1961 भारत में अधिवक्ताओं के नामांकन प्रथाओं और आचरण संहिता को नियंत्रित करता है। यह न्यायालय और उनके कानूनी पेशे की गरिमा और अखंडता को बनाए रखने सहित अधिवक्ताओं के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को भी रेखांकित करता है।

विश्राम सिंह रघुबंशी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2011) में निर्णय

विश्राम सिंह रघुबंशी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने वकील विश्राम सिंह रघुबंशी को अदालत की अवमानना ​​का दोषी पाया। यह कहा गया था कि मात्र माफी किसी ऐसे कार्य के लिए ठोस बचाव, औचित्य या उचित सजा नहीं हो सकती जो अदालत की अवमानना ​​है। 

अपीलकर्ता ने उच्च न्यायालय से कारण बताओ नोटिस कि उसके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही क्यों शुरू नहीं की जा सकती को प्राप्त करने के बाद माफी मांगी। सर्वोच्च न्यायालय ने मामले का गहन मूल्यांकन करने और हर विवरण पर गौर करने के बाद निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्ता ने घोर आपराधिक अवमानना ​​का अपराध किया है, कि अपीलकर्ता के खिलाफ न्यायिक अधिकारी की शिकायत स्वीकार्य थी, और उक्त अपराध मे अपीलकर्ता दोषी था। अपीलकर्ता के खिलाफ जो आरोप साबित हुआ, उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता और ऐसी तथ्य-स्थिति में उसके द्वारा मांगी गई माफी ‘नेक नीयत’, और  स्वीकार्य नहीं था। 

अपीलकर्ता के इस तरह के रवैये से न केवल न्यायिक अधिकारियों बल्कि कानून की अदालत की गरिमा और सम्मान में भी बाधा उत्पन्न हुई है। अपीलकर्ता द्वारा दायर की गई अपील में योग्यता नहीं थी और अपीलकर्ता द्वारा दी गई माफ़ी न तो ईमानदार थी और न ही स्वीकार करने योग्य थी। प्रतिवादी की मुख्य रूप से दो दलीलें थीं जिनका अदालत ने समाधान किया-

  1. प्रतिरूपण (इंपरसोनेशन)और;
  2. न्यायालय में अभद्र भाषा का प्रयोग। 

आइए इन पर विस्तार से चर्चा करें। 

न्यायालय में अभद्र भाषा का प्रयोग 

अदालत ने यह बिल्कुल स्पष्ट कर दिया कि माफी को स्वाभाविक रूप से स्वीकार करना आवश्यक नहीं है, बिना किसी ‘नेक नीयत ‘ के इरादे से मांगी गई माफी सिर्फ कागजी माफ़ी है। अदालत के पास माफी को अस्वीकार करने और अपने तर्क का दस्तावेजीकरण करते हुए सजा देने का अधिकार है। अपमानजनक भाषा का प्रयोग आलोचक को किसी भी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं करता है। यदि टिप्पणियाँ गणना की गई है और स्पष्ट रूप से अपमान करने के लिए हैं, तो कोई भी माफ़ी जो बिना किसी पछतावे, या पछतावे के पेश की गई है, माफी प्राप्त करने योग्य नहीं है। अपीलकर्ता द्वारा दी गई माफ़ी न तो ईमानदार थी और न ही नेक नीयत, स्वीकार करने लायक। 

एम.बी. सांघी बनाम पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय एवं अन्य (1991), के मामले के संदर्भ में, यह देखा गया कि अपमानजनक और आपत्तिजनक  शब्दों का उपयोग हमारी न्यायिक प्रणाली की नींव को कमजोर करता है, जो इसे चलाने वालों की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर निर्भर करती है। एक पीठासीन न्यायाधीश के खिलाफ किए गए ऐसे अपमानजनक निशानों के अपने परिणाम होते हैं, अब समय आ गया है कि हम न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा करने की आवश्यकता को स्वीकार करें, न केवल विधायी या निष्पादन से बल्कि उन लोगों से भी जो हमारी न्यायिक प्रणाली का हिस्सा हैं।

 

इसी प्रकार,एल.डी. जैकवाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1984 के मामले में यह कहा गया था कि खेद व्यक्त करना कलम के बजाय दिल से आना चाहिए, लिखित माफी भी अवमानना कर्ता को महसूस होनी चाहिए। आपराधिक अदालत की अवमानना ​​के लिए जल्द से जल्द माफी मांगी जानी चाहिए।’

प्रतिरूपण 

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता को अदालत की अवमानना का दोषी पाया, और उच्चतम न्यायालय ने अपना तर्क देते हुए, उसे अदालत की अवमानना के अपराध और किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किए गए अपराध के लिए एक निर्दोष व्यक्ति का रूप धारण करने के लिए जवाबदेह ठहराया। अदालत ने यह भी कहा कि एक वकील अदालत में स्वीकार्य सीमा से बाहर कार्य नहीं कर सकता। श्री रघुबंशी  के कार्यों का मतलब अदालत को गुमराह करने और प्राधिकरण को बदनाम करने या नीचा दिखाने का प्रयास था।

सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी माफी को कपटपूर्ण पाया और इस तथ्य को भी पाया कि श्री रघुबंशी  ने जल्द से जल्द माफी नहीं मांगी और उसी के लिए औचित्य दिए। सर्वोच्च न्यायालय ने अपील खारिज कर दी और उन्हें कारावास की सजा सुनाए जाने के फैसले को बरकरार रखा।

निष्कर्ष 

न्यायालय ने अपीलकर्ता विश्राम सिंह रघुबंशी  को आपराधिक अवमानना का दोषी पाया। अपीलकर्ता को 3 महीने के कारावास और ₹2000/- के जुर्माने की सजा सुनाई गई थी। यह इस तथ्य के संदर्भ में था कि उसने मामले में एक फर्जी अभियुक्त  को आत्मसमर्पण के लिए पेश करके असली अभियुक्त  का रूप धारण किया था, उसने पीठासीन अधिकारी के प्रति अपमानजनक व्यवहार किया था, और उच्च न्यायालय ने उसके सच्चे पछतावे को खारिज कर दिया था। अपीलकर्ता की अपील को खारिज करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने अदालत की गरिमा और सम्मान बनाए रखने के महत्व को रेखांकित किया।

अदालत की अवमानना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच अंतर करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। हालांकि आमतौर पर अदालत के फैसलों की आलोचना करना स्वीकार्य है, किसी मामले को कमजोर करने या अदालत कक्ष में असहमति दिखाने के उद्देश्य से टिप्पणी करना अवमानना माना जा सकता है।

अदालत की अवमानना के लिए दंड मामले की गंभीरता के आधार पर भिन्न होता है; कुछ मामलों में, सजा छह महीने तक के कारावास और जुर्माने से लेकर, अन्य मामलों में, सच्ची पश्चाताप व्यक्त करने से कम किया जा सकता है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

न्यायालय की अवमानना ​​का उद्देश्य क्या है?

न्यायालय प्रणाली की अखंडता और गरिमा सुनिश्चित करने के लिए न्यायालय की अवमानना ​​मौजूद है। यह सुनिश्चित करता है कि न्यायाधीश हस्तक्षेप या धमकी के डर के बिना निष्पक्ष सुनवाई की अध्यक्षता कर सकते हैं।

न्यायालय की सिविल  और आपराधिक अवमानना ​​के बीच क्या अंतर है?

सिविल अवमानना का अर्थ है अदालत के आदेश की जानबूझकर अवज्ञा करना या न्याय प्रशासन की प्रक्रिया में बाधा डालना। उदाहरण के लिए, यदि कोई अदालती शुल्क का भुगतान करने में विफल रहता है, किसी मामले में सबूत नष्ट कर देता है, या धोखा देने वाले तथ्य प्रस्तुत करता है, तो उसे सिविल अवमानना का दोषी माना जा सकता है।

आपराधिक अवमानना किसी भी उस कार्य को संदर्भित करती है जो अदालत को बदनाम करता है, किसी मुकदमे को प्रभावित करता है या न्यायिक कार्यवाही के निर्धारित पाठ्यक्रम में बाधा डालता है। कोई भी कार्य जो अदालत की गरिमा और आचरण संहिता को बाधित करता है, उसे अदालत की आपराधिक अवमानना माना जा सकता है। उदाहरण के लिए, किसी गवाह को धमकाना, अभद्र भाषा का प्रयोग करना, किसी चल रहे मामले में भड़काऊ भाषण देना या अदालत के अधिकारियों का अनादर करना।

आपराधिक अवमानना के लिए कारावास प्रत्येक मामले के तथ्यों के आधार पर जुर्माने से लेकर छह महीने तक के कारावास तक भिन्न हो सकता है। विश्राम सिंह रघुबंशी  बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में, अपीलकर्ता आपराधिक अवमानना का अपराध करने का दोषी पाया गया था।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अदालत की अवमानना ​​के साथ कैसे संतुलित किया जाता है?

बोलने की आजादी और अदालत की अवमानना ​​के बीच की रेखा काफी धुंधली हो सकती है। आम तौर पर, शिकायतों और मुद्दों को अदालत में उठाया जा सकता है, लेकिन ऐसी टिप्पणियां या कार्य जो कानून की अदालत का अपमान कर सकते हैं, मुकदमे को गुमराह कर सकते हैं या अदालत में शत्रुतापूर्ण माहौल बना सकते हैं, उन्हें अदालत की अवमानना ​​​​माना जा सकता है।

यदि कोई गलती से न्यायालय की अवमानना ​​कर दे तो क्या होगा?

किसी व्यक्ति ने अदालत की अवमानना ​​की है या नहीं, यह तय करने में इरादा एक महत्वपूर्ण कारक है। यदि कोई अनजाने में प्रक्रिया में बाधा डालता है या ऐसी टिप्पणी करता है, तो उन्हें अपराध के लिए मुकदमा चलाने से छूट मिल सकती है यदि वे ईमानदारी से माफी मांगते हैं या उचित ठहराते हैं कि उनका ऐसा करने का कोई इरादा नहीं था।

यदि आप न्यायालय के आदेश का पालन नहीं कर सकते तो क्या होगा?

यदि कोई व्यक्ति वास्तव में अदालत के आदेशों का पालन नहीं कर सकता है, तो उसे तुरंत अदालत को सूचित करना होगा। यदि परिस्थितियां किसी के नियंत्रण से बाहर हैं, तो अदालत सबूत का बोझ प्रदान करने के बाद दी गई परिस्थितियों के अनुसार आदेश को संशोधित कर सकती है। यदि कोई ऐसा करने में विफल रहता है, तो उस पर अदालत की अवमानना ​​का मुकदमा चलाया जाएगा।

 संदर्भ

 

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