रवि कुमार बनाम जुल्मी देवी (2010)

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यह लेख Shreeji Saraf सराफ द्वारा लिखा गया है। यह लेख रवि कुमार बनाम जुल्मी देवी (2010) के मामले के बारे में बात करता है जो आगे इस मामले के तथ्यों की, इसमे क्या मुद्दे उठाए गए थे, न्यायालय का निर्णय, दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुत तर्क की समझ प्रदान करता है और यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि मामले में क्या कानूनी पहलू शामिल थे। इसके अलावा, यह आगे क्रूरता की विभिन्न धारणाओं पर चर्चा करता है कि। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय 

यह मामला हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ भारत के सर्वोच्च न्यायालय में दायर एक अपील से संबंधित है, जिसमें न्यायालय ने वैवाहिक कार्यवाही में विचारणीय न्यायालय के आदेश को उलट दिया था। यह मामला इस बात पर प्रकाश डालता है कि आज की दुनिया में क्रूरता की विभिन्न अंतर्दृष्टियाँ (इनसाईट) क्या हैं। कभी-कभी यह एक ऐसा कार्य या कार्रवाई हो सकती है जो आक्रामक, यातनापूर्ण हो और किसी भी व्यक्ति को शारीरिक या मानसिक रूप से दर्द पहुँचाती हो। इस मामले में यह टिप्पणी दि गई है कि यदि विशेष रूप से, एक कार्य क्रूरता का गठन करता है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि यह अन्य मामलों में भी समान रूप से लागू होगा। यह मामला इस बात पर भी प्रकाश डालता है कि निचली अदालतों का यह कर्तव्य है कि वे बच्चे की गवाही को समान और प्रमुख महत्व दें, भले ही इस संबंधित मामले में इसकी अनदेखी की गई हो। निचली अदालतों को इन तथ्यों को पर्याप्त महत्व देना चाहिए।    

मामले का विवरण

  • अपीलकर्ता का नाम : रवि कुमार 
  • मामले का उल्लेख : (2010) 4 एससीसी 476
  • न्यायालय का नाम : माननीय सर्वोच्च न्यायालय
  • माननीय पीठ : पी. सदाशिवम और ए.के. गांगुली, न्यायाधीश। 
  • निपटान : बर्खास्त
  • निर्णय की तिथि : 9 फरवरी, 2010

मामले के तथ्य 

पति रवि कुमार (जिसे आगे पति कहा जाएगा) ने हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय और आदेश को चुनौती देते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की थी। उच्च न्यायालय ने जिला न्यायालय, मंडी द्वारा याचिका संख्या 20/2002 दिनांक 27.10.2004 में पारित निर्णय और आदेश को रद्द कर दिया। उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की गई थी। 

सबसे पहले, पत्नी जुल्मी देवी (जिसे आगे पत्नी कहा जाएगा) ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (जिसे आगे अधिनियम कहा जाएगा) की धारा 28 के तहत हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष जिला न्यायाधीश, मंडी द्वारा पारित निर्णय और आदेश के खिलाफ अपील दायर की थी, जिसमें पति के पक्ष में तलाक का आदेश दिया गया था। 

अपील के प्रासंगिक निर्णय के लिए जिन तथ्यों पर विचार किया जाना चाहिए, वे यह हैं कि दोनों पक्षों ने 13.12.1988 को हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह किया था। इस विवाह से मार्च, 1990 में एक लड़की का जन्म हुआ। पति ने कहा कि बच्चे के जन्म के बाद, पत्नी अपने मायके चली गई, जो कि समलेट गांव में स्थित था।

पति ने आगे आरोप लगाया कि पत्नी पहले गांव गरली में काम करती थी और वहीं रहती थी, जब उसका तबादला गांव गरली से चुहाकू में हुआ तो पति के बार-बार अनुरोध के बावजूद पत्नी ने अपने मायके में ही रहने का फैसला किया। गांव चुहाकू उसके ससुराल से 3 किलोमीटर दूर था। पति ने आगे बताया कि मई 1994 में पत्नी कुछ समय के लिए आई थी लेकिन उसके बाद वह उसे पूरी तरह से छोड़कर चली गई।

चूंकि पत्नी ने अपने ससुराल वापस आने से इनकार कर दिया, इसलिए पति ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए अधिनियम की धारा 9 के तहत याचिका दायर की। वैवाहिक अधिकारों का मतलब है साथ रहने का अधिकार। अधिनियम की धारा 9 ऐसी स्थिति के बारे में बात करती है, जहां पति-पत्नी में से किसी ने दूसरे को छोड़ दिया हो या बिना किसी उचित कारण के समाज से अलग हो गया हो, पीड़ित पति-पत्नी संबंधित न्यायालय के समक्ष याचिका दायर करके वैवाहिक अधिकारों की बहाली का दावा कर सकते हैं। 

जब न्यायालय को यह संतुष्टि हो जाती है कि वापसी बिना किसी उचित कारण के हुई थी, तो न्यायालय वैवाहिक अधिकारों की बहाली का आदेश दे सकता है। इस मामले में अपीलकर्ता ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली का दावा करते हुए कहा कि प्रतिवादी अपीलकर्ता के साथ सहवास नहीं कर रहा था। दोनों पक्षों के बीच एक समझौता माना जाता था, जहाँ पत्नी ने कहा कि वह लोक अदालत के समक्ष अपने पति के साथ रहने के लिए सहमत थी। 

पति ने आगे दावा किया कि पत्नी ने लोक अदालत के समक्ष किए गए समझौते का पालन नहीं किया और पति के साथ सहवास नहीं किया। पत्नी के कृत्यों से परेशान पति और पत्नी को वापस लाने के उसके निरंतर प्रयासों ने तलाक के आदेश को उचित ठहराया। विवाह विच्छेद के लिए पति द्वारा दायर की जा रही याचिका में अधिनियम की धारा 13 के अनुसार क्रूरता और परित्याग को आधार बताया गया है।

पत्नी ने पति द्वारा उसके खिलाफ लगाए गए सभी बयानों को खारिज कर दिया। पत्नी के अनुसार, वह अपने पति के साथ रह रही थी और वह नहीं बल्कि उसका पति उसकी देखभाल करने में विफल रहा। इसके अलावा, पत्नी ने अपना पक्ष रखते हुए दावा किया कि लोक अदालत के समक्ष पक्षों के बीच हुए समझौते के बावजूद, यह पति ही था जिसने समझौते का पालन नहीं किया और पत्नी के साथ बुरा व्यवहार करना शुरू कर दिया। 

पति की ओर से कई गवाह पेश किए गए, जिसमें बताया गया कि पत्नी अलग रह रही थी और पति द्वारा बार-बार पत्नी से वापस आने के लिए कहने पर भी पत्नी ने हमेशा मना कर दिया। वहीं दूसरी ओर पत्नी ने अपने ऊपर लगे सभी आरोपों और बयानों से इनकार किया। उसने बताया कि पति उसके साथ दुर्व्यवहार करता था, उसके साथ क्रूरता भी की गई थी। 

मंडी जिला न्यायाधीश पति-पत्नी जिन्होंने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था उन दोनों को ही समाधान देने में विफल रहे। संबंधित न्यायाधीश द्वारा एक आदेश पारित किया गया, जिसके तहत दोनों पक्षों को तलाक की अनुमति दी गई, लेकिन पत्नी ने इसे उच्च न्यायालय में चुनौती दी और उच्च न्यायालय ने लोक अदालत के फैसले को खारिज कर दिया। 

फैसले में बदलाव करते हुए, उच्च न्यायालय ने अधिनियम की धारा 28 के तहत कदम उठाए थे। न्यायालय ने अपील की पहली अदालत के रूप में काम किया। एक महत्वपूर्ण बिंदु जिस पर प्रकाश डाला जाना चाहिए वह यह है कि जब पति ने अधिनियम की धारा 9 के तहत याचिका दायर की है, तो पत्नी द्वारा किए गए सभी क्रूरतापूर्ण कृत्यों को पति द्वारा माफ कर दिया गया माना जाएगा। 

इस बिंदु पर, संबंधित न्यायालय ने निर्मला देवी बनाम वेद प्रकाश (1992) के मामले में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय की खंडपीठ द्वारा की गई टिप्पणियों का उल्लेख किया। ‘क्षमा (कंडोनेशन)’ शब्द को कहीं भी ठीक से स्पष्ट नहीं किया गया है। इसका तकनीकी रूप से मतलब है या इसका तात्पर्य है कि यह पीड़ित पति या पत्नी के सभी कथित कृत्यों को हटा देता है। दूसरे अर्थ में, इसका अर्थ है सुलह (रिकंसीलीएशन), जहाँ इसका मतलब है कि सभी गलतियों को अलग करके अपराधी साथी को उसी स्थिति में बहाल करने का उद्देश्य या इरादा होना, जैसा कि वह पहले था। संबंधित न्यायालय ने उपर्युक्त संदर्भ का उल्लेख इसलिए किया क्योंकि पति ने अधिनियम की धारा 9 के तहत याचिका दायर की थी। 

उच्च न्यायालय ने तथ्यों का अवलोकन करने के बाद कहा कि पति द्वारा पत्नी के खिलाफ कई आरोप लगाए गए थे, लेकिन पति आरोपों के समर्थन में कोई ठोस सबूत पेश नहीं कर सका। 

हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय का निर्णय

उक्त खोज को ध्यान में रखते हुए, उच्च न्यायालय की राय थी कि पति अपनी ओर से पत्नी के खिलाफ क्रूरता या परित्याग के दावों को साबित करने में विफल रहा है। अपनी ओर से, वह विशिष्ट आरोपों के बारे में सबूत पेश करने या साबित करने में विफल रहा। उच्च न्यायालय की राय थी कि विद्वान विचारणीय न्यायालय ने तलाक का आदेश पारित करने में गलती की थी और उसे खारिज किया जा रहा है। 

सर्वोच्च न्यायालय में अपील

सबसे पहले, उच्च न्यायालय ने माना कि पति ने पत्नी द्वारा बताई गई क्रूरता के सबूत पेश करने या साबित करने में विफल रहा है। संबंधित न्यायालय ने उसके उल्लेख को खारिज कर दिया और विचारणीय न्यायालय के फैसले को पलट दिया। इसने विश्वसनीय साक्ष्य के महत्व को और भी स्पष्ट कर दिया। 

दूसरा यह की, उच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्ता ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की और सर्वोच्च न्यायालय का मानना था कि उच्च न्यायालय द्वारा पारित या दिए गए निर्णय में हस्तक्षेप करने के लिए कोई प्रासंगिक कारण नहीं थे। इसने कहा कि उच्च न्यायालय द्वारा विचारणीय न्यायालय के निष्कर्षों को पलटने या अलग रखने में कोई गलती नहीं की गई थी। 

उठाए गए मुद्दे

भारत के सर्वोच्च न्यायालय में उठाया गया मुद्दा इस प्रकार है-

  • क्या जिला न्यायालय द्वारा पारित निर्णय और आदेश को रद्द करने और क्रूरता के आधार पर वही निर्णय पारित करने में उच्च न्यायालय की ओर से कोई गलती हुई है?

पक्षों के तर्क

अपीलकर्ता

अपीलकर्ता पति ने हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय और आदेश से असंतुष्ट होकर भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष, उन्होंने तर्क दिया कि अपीलकर्ता पक्ष द्वारा प्रस्तुत कई गवाह थे जिन्होंने कहा या उल्लेख किया कि पत्नी अपने वैवाहिक घर में नहीं रह रही थी और कुछ गवाह पत्नी को वापस लाने के लिए उसके माता-पिता के घर भी गए थे, लेकिन उसने ऐसा करने से इनकार कर दिया। उन्होंने आगे दावा किया कि यह पत्नी ही थी जिसने उनके साथ दुर्व्यवहार किया। बाद में, जब सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की गई, तो पति के विद्वान वकील ने तर्क दिया कि न्यायालय के पास समग्र आचरण या गवाहों की विश्वसनीयता की जांच करने का अवसर नहीं था। चूंकि उच्च न्यायालय प्रथम अपील न्यायालय के रूप में कार्य कर रहा था, इसलिए उसे विचारणीय न्यायालय के निर्णय को बदलने आवश्यकता नहीं थी। यहां इस बिंदु पर बहस नहीं की जा सकती क्योंकि जब न्यायालय अधिनियम की धारा 28 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग कर रहा होता है, तो न्यायालय कानून और तथ्यों दोनों का न्यायालय होता है। 

अपीलकर्ता ने दावा किया कि उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को पलटकर तथा उपर्युक्त आधारों पर पत्नी के पक्ष में आदेश पारित करके गलती की है।

प्रतिवादी

प्रतिवादी पत्नी ने हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष तर्क दिया कि उसके खिलाफ पति द्वारा लगाए गए सभी आरोप झूठे हैं। उसने आगे दावा किया कि यह पति ही था जिसने उसके साथ दुर्व्यवहार किया और उसे गाली दी। पत्नी ने कई बार पति की संगति में शामिल होने की कोशिश की, लेकिन उसने पूरी तरह से मना कर दिया। प्रतिवादी के अनुसार, अपीलकर्ता उसे मारता-पीटता था और यह पति ही था जिसने उसकी उपेक्षा की। उसने आगे कहा कि उसे उसके द्वारा धमकाया गया था और एक खाली कागज पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया था। उसने सभी आरोपों को पूरी तरह से नकार दिया।

रवि कुमार बनाम जुल्मी देवी (2010) में शामिल कानूनी पहलू

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9

अधिनियम की धारा 9 ऐसी स्थिति के बारे में बात करती है, जहाँ पति-पत्नी में से कोई एक दूसरे को छोड़ देता है या बिना किसी उचित कारण के समाज से अलग हो जाता है, पीड़ित पति-पत्नी संबंधित न्यायालय के समक्ष याचिका दायर करके वैवाहिक अधिकारों की बहाली का दावा कर सकते हैं। जब न्यायालय को यह संतुष्टि हो जाती है कि वापसी बिना किसी उचित कारण के हुई है, तो न्यायालय वैवाहिक अधिकारों की बहाली का आदेश दे सकता है। बशर्ते कि जहाँ पति-पत्नी द्वारा वापसी उचित साबित हो और पति-पत्नी इसे साबित करने में सक्षम हों, ऐसे स्थिती मे न्यायालय आदेश पारित नहीं कर सकता है। 

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 28

अधिनियम की धारा 28 में डिक्री और आदेशों के विरुद्ध अपील के दायरे का उल्लेख किया गया है। यह धारा बताती है कि यदि कोई भी पक्ष निचली अदालत के निर्णय से संतुष्ट नहीं है, तो वह उच्च न्यायालय में अपील दायर कर सकता है और अपील को आदेश या डिक्री पारित होने की तिथि से 90 दिनों के भीतर दायर किया जाना चाहिए। यदि उच्च न्यायालय 90 दिनों के भीतर अपील दायर न करने के लिए पक्ष द्वारा दिए गए पर्याप्त कारण से संतुष्ट है, तो वह इसके लिए आगे विस्तार प्रदान कर सकता है। 

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 41 नियम 33

यह प्रावधान न्यायालय को मामले के पक्षकारों के साथ पूर्ण न्याय करने की अनुमति देता है। यह ऐसा कोई भी निर्णय या आदेश दे सकता है जो पक्षकारों के साथ न्याय करता हो, जिसे न्यायालय द्वारा पारित किया जाना चाहिए था। 

रवि कुमार बनाम जुल्मी देवी (2010) में निर्णय

इस मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पति की अपील को खारिज कर दिया और कहा कि उच्च न्यायालय के फैसले में हस्तक्षेप करने के लिए कोई वैध कारण या आधार नहीं थे। कई अनिश्चित बयान या घोषणाएँ की गईं, लेकिन पति द्वारा बताई गई पत्नी द्वारा क्रूरता से संबंधित निश्चित पहलुओं के साथ ऐसा कोई बयान या घोषणा नहीं थी। पति द्वारा परित्याग (डेजर्शन) का कोई विशेष उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया गया। 

दी गई जानकारी और निष्कर्षों को संक्षेप में पढ़ने के बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि इस विशेष मामले में एक बच्चे की गवाही बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन उच्च न्यायालय इस पहलू विचार करना या बच्चे की गवाही को महत्व देना भूल गया। बेटी ने अपनी गवाही में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया था कि पति द्वारा पत्नी को पीटा जाता था, जिसने अंततः पत्नी को अपने माता-पिता के घर में अलग रहने के लिए पर्याप्त कारण प्रदान किया। बेटी ने इस बात से भी इनकार किया कि उसकी माँ ने उसके पिता के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया। 

न्यायालय ने अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए यह टिप्पणी की कि निचली अदालतों ने बच्चे के साक्ष्य या गवाही पर उचित रूप से विचार नहीं किया। ऐसे विशेष मामले में यह नहीं कहा जा सकता कि क्रूरता के लिए पत्नी ही दोषी है।

सर्वोच्च न्यायालय को उच्च न्यायालय द्वारा पारित फैसले में हस्तक्षेप करने का कोई ठोस कारण नहीं मिला। चूंकि उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के आदेश को पलटते हुए कहा था कि पति की ओर से पत्नी के खिलाफ क्रूरता के दावे के समर्थन में कोई उचित सबूत पेश नहीं किया गया। उच्च न्यायालय ने यहां तक कहा कि सबूत पेश करने का भार पति पर है।  

इस मामले में संदर्भित निर्णय

एन.जी. दास्ताने बनाम एस. दास्ताने (1975)

इस मामले में, पति अपीलकर्ता है और पत्नी प्रतिवादी है और वे वर्ष 1956 से एक दूसरे से विवाहित हैं। दोनों साथी एक साथ यात्रा कर चुके थे और कई स्थानों पर रह चुके थे और विवाह के दौरान उनकी 3 बेटियों का जन्म हुआ था। शादी से पहले, पत्नी के पिता ने एक पत्र भेजा था जिसमें उसकी बीमारी का जिक्र था। कुछ समय बाद, दोनों पक्षों में कई असहमतियां और बहस हुईं, जिसके कारण उनका रिश्ता कमजोर होने लगा और दोनों पक्षों की ओर से क्रूरता के दावे किए गए। बाद में, रिश्तेदारों से घृणित पत्रों और आपसी अविश्वास के साथ उनके बीच संबंध खराब हो गए। पति ने अधिनियम की धारा 10(1)(b) के तहत न्यायिक अलगाव (ज्यूडिशियल सेपरेशन) के लिए आवेदन किया लेकिन निचली अदालतों ने इसे खारिज कर दिया। इसके बाद उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की। सर्वोच्च न्यायालय ने भी उनकी अर्जी खारिज कर दी। न्यायालय ने कहा कि निचली अदालतें क्रूरता के संबंध में सबूतों को महत्व या विश्वसनीयता देने में विफल रहीं। न्यायालय ने कहा कि उनके लिए अपीलकर्ता द्वारा प्रतिवादी के विरुद्ध उल्लिखित क्रूरता या परित्याग के किसी भी तथ्य पर विचार करना या निर्णय देना कठिन है, क्योंकि अपीलकर्ता ने प्रतिवादी के पूर्व कृत्यों को जानबूझकर नजरअंदाज किया था।

सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले का हवाला देते हुए इस बात पर प्रकाश डाला कि विवाह के मामले में व्यक्ति को तर्कसंगत और समझदार व्यक्ति की उतनी चिंता नहीं होती जितनी लापरवाही के मामले में होती है। अगर एक व्यक्ति समझदार और तर्कसंगत है, तो क्रूरता के मामलों की कोई गुंजाइश नहीं है, लेकिन ऐसा नहीं है। क्रूरता के मामले तब होते हैं जब पति-पत्नी में से कोई एक दूसरे के प्रति तर्कसंगत तरीके से व्यवहार और सोच नहीं रखते है।

शोभा रानी बनाम मधुकर रेड्डी (1987)

इस मामले में, पत्नी ने क्रूरता को आधार बताते हुए तलाक के लिए अर्जी दी थी और अपनी सास से बार-बार पैसे की मांग की थी। इसके अलावा, निचली अदालतों ने उसके दावों को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि वह अपने दावों का समर्थन करने वाले सबूत पेश करने में विफल रही है। इस मामले में मुख्य मुद्दा यह था कि क्या पैसे के लिए लगातार अनुरोध अधिनियम की धारा 13(1)(1a) के तहत क्रूरता के बराबर है और क्या दावों के समर्थन में अदालतों के समक्ष प्रस्तुत किए गए सबूत पर्याप्त थे या नहीं। 

सर्वोच्च न्यायालय का मानना था कि वर्तमान मामले में पत्नी द्वारा किए गए दावे अधिनियम की धारा 13(1)(1a) के अनुसार क्रूरता के समान हैं और आगे कहा गया कि पत्नी द्वारा अदालत में प्रस्तुत किए गए साक्ष्य उसके दावे का समर्थन करने के लिए पर्याप्त थे और निचली अदालतों ने इस मामले में क्रूरता के आरोप लगाने में गलती की थी, इसलिए अदालत ने विवाह विच्छेद की अनुमति दे दी। 

सर्वोच्च न्यायालय ने आज की दुनिया में विवाह में क्रूरता से संबंधित वैकल्पिक अंतर्दृष्टि के लिए इस मामले को संदर्भित किया और बस इतना कहा कि आज के घरों में एक महत्वपूर्ण अंतर और विकास हुआ है, इसलिए अदालत को केवल जीवन स्तर तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। कई अन्य कारक भी हैं जो क्रूरता के कारण में योगदान करते हैं। एक मामले में लागू क्रूरता के कृत्यों का एक सेट दूसरे मामले में अलग हो सकता है।

मामले का आलोचनात्मक विश्लेषण

रवि कुमार के मामले के माध्यम से माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह इंगित करने का प्रयास किया है कि क्रूरता की कई परिभाषाएँ हैं। विशेष मामले में उच्च न्यायालय ने यहाँ तक कहा था कि परित्याग का दावा करने वाले पक्ष को न केवल इसे साबित करना चाहिए बल्कि यह भी स्थापित करना चाहिए कि जिस दूसरे पक्ष के खिलाफ वह परित्याग का दावा कर रहा है, उसका दूसरे पक्ष को स्थायी रूप से परित्यक्त करने का उचित इरादा और मकसद था। 

उच्च न्यायालय ने यहां तक कहा कि पति को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके किसी भी कृत्य के कारण पत्नी अलग नहीं रह रही है। एक महत्वपूर्ण बिंदु जिस पर प्रकाश डाला जाना चाहिए वह यह है कि जब पति ने अधिनियम की धारा 9 के तहत याचिका दायर की है, तो पत्नी द्वारा किए गए सभी क्रूरतापूर्ण कृत्यों को पति द्वारा माफ कर दिया गया माना जाएगा। इस बिंदु पर, संबंधित अदालत ने निर्मला देवी बनाम वेद प्रकाश (1992) के मामले में खंड पीठ द्वारा की गई टिप्पणियों का उल्लेख किया। 

सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 41 नियम 33 के तहत शक्ति का उल्लेख न्यायालय को पक्षों के बीच न्याय करने की शक्ति देता है। उल्लिखित आदेश के माध्यम से, न्यायालय को कई शक्तियाँ दी की जाती हैं। इसके अलावा, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि अधिनियम के तहत ‘क्रूरता’ शब्द की कोई उचित और विशिष्ट परिभाषा नहीं है। वैवाहिक संबंधों पर विचार करते हुए, क्रूरता का अर्थ एक पति या पत्नी द्वारा दूसरे का अनादर करना हो सकता है और इससे अक्सर पति-पत्नी के बीच झगड़े या बहस होती है। 

कभी-कभी क्रूरता मौखिक दुर्व्यवहार के रूप में हो सकती है, यह शारीरिक दुर्व्यवहार का रूप भी ले सकती है, एक पति या पत्नी द्वारा दूसरे की पिटाई जो हिंसा की ओर ले जाती है। इसलिए, क्रूरता की उचित परिभाषा स्थापित करना स्पष्ट रूप से संभव नहीं है। यह निर्धारित करना कि पत्नी पति के प्रति क्रूर है या इसके विपरीत, किसी पूर्व विशिष्ट सूत्र या धारणा द्वारा निर्धारित नहीं किया जाना चाहिए। 

इसे किसी विशेष मामले की सभी दी गई परिस्थितियों और तथ्यों को ध्यान में रखकर निर्धारित किया जाना चाहिए। वैवाहिक संबंधों में, क्रूरता कभी-कभी सिर्फ़ एक दृष्टिकोण या रवैया या सिर्फ़ एक ऐसा कार्य या कार्रवाई हो सकती है जो आक्रामक, यातनापूर्ण हो और किसी भी व्यक्ति को शारीरिक या मानसिक रूप से पीड़ा पहुँचाए। क्रूरता का रूप या श्रेणी हर मामले और हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग हो सकती है। क्रूरता के एक स्थापित रूप को अन्य मामलों में क्रूरता नहीं माना जा सकता। 

क्रूरता के संबंध में कई ऐसी स्थितियां हो सकती हैं जिन्हें ध्यान में रखा जाना चाहिए जैसे सामाजिक और आर्थिक स्थिति, समाज या जीवन जीने का तरीका जो उनके लिए महत्वपूर्ण है। निचली अदालत बच्चे के साक्ष्य का उचित मूल्यांकन नहीं कर पाई है, जो इस विशेष मामले में बहुत महत्वपूर्ण है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि उच्च न्यायालय अपील न्यायालय होने के नाते कानून और तथ्यों दोनों का न्यायालय है और सर्वोच्च न्यायालय के पास उच्च न्यायालय के निर्णय में हस्तक्षेप करने का कोई उचित आधार नहीं है।

क्रूरता से संबंधित हालिया निर्णय

कंवल किशोर गिरधर बनाम सीमा गिरधर (2024)

इस मामले में, याचिकाकर्ता होने के नाते पति ने दिनांक 09.10.2018 के फैसले और आदेश से व्यथित होकर अपील दायर की थी। उक्त अपील कुटुंब न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 19 के साथ अधिनियम की धारा 28 के संबंध में दायर की गई थी। यह मामला पति और पत्नी के बीच विवाद का है। पति और पत्नी का विवाह 09.05.1998 को हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार एक दूसरे से हुआ था और उक्त विवाह से दो बेटियों का जन्म हुआ। पति एक सेना अधिकारी था, उन्होंने दावा किया कि शादी के बाद उनके बीच मतभेद दिखाई देने लगे। पति ने क्रूरता का आधार बताते हुए तलाक के लिए अर्जी दी और विभिन्न उदाहरणों का उल्लेख किया जहां पत्नी ने उसके दोस्तों और परिवार के सामने उसका अपमान किया था, उसने घर के काम में मदद करना बंद कर दिया था। 

इतना ही नहीं, उसने पुलिस में झूठा प्रतिवेदन (रिपोर्ट) दर्ज करवाया और अपने पति के खिलाफ व्यभिचार (एडल्ट्री) का झूठा आरोप लगाया। पत्नी ने दोनों के बीच हुई बहस में एक नाबालिग बच्चे को शामिल करने की कोशिश की थी। पति ने क्रूरता के आधार पर पत्नी से तलाक की अपील दायर की थी। उन्होंने आगे कहा कि उनके बीच विवाद में नाबालिग बच्चे को शामिल करने का कृत्य पूरी तरह से गलत था। पत्नी द्वारा किए गए कृत्य मानसिक क्रूरता के बराबर थे। पत्नी ने अपनी याचिका में आगे बताया कि पति ने गर्भावस्था के दौरान उस पर कोई ध्यान नहीं दिया और उसका विवाहेतर संबंध था। सभी तथ्यों पर विचार करने के बाद, दिल्ली उच्च न्यायालय का मानना था कि पत्नी की ओर से ऐसा करना बहुत गलत था, खासकर नाबालिग बच्चे को इसमें शामिल करना। न्यायालय ने यहां तक कहा कि पति की ओर से सुलह की कई कोशिशें की गईं, लेकिन पत्नी की ओर से कोई सहयोग नहीं किया गया।  

इस प्रकार दिल्ली उच्च न्यायालय ने पति को पत्नी द्वारा उसके विरुद्ध किए गए क्रूरतापूर्ण कृत्यों के लिए तलाक प्रदान कर दिया। न्यायालय ने कहा कि विवाह में झगड़े और बहस होना बहुत आम बात है, लेकिन झगड़े के बीच नाबालिग बच्चे को लाना पत्नी के कृत्यों को उचित नहीं ठहराता। पत्नी द्वारा पति के विरुद्ध लगाए गए बिना किसी आधार के और अपुष्ट आरोप क्रूरता का चरम उदाहरण हैं। 

 

दीपा तोमर बनाम अजय (2023)

इस मामले में पत्नी अपीलकर्ता है और पति प्रतिवादी है और दोनों का विवाह 21.11.2011 को ग्वालियर में हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार हुआ था। इसमें एक बेटी का जन्म विवाह से बाहर हुआ बताया गया। पत्नी ने पति के खिलाफ क्रूरता का दावा किया जिसमें शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की क्रूरता शामिल थी। मामले का एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पति के खिलाफ दो मामले दर्ज किए गए थे और उसे दोषी ठहराया गया था और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। तलाक की मांग करने वाली पत्नी ने अधिनियम की धारा 13(1) के तहत पारिवारिक न्यायालय में याचिका दायर की थी और उसके द्वारा बताए गए आधार क्रूरता और परित्याग के थे। 

पारिवारिक न्यायालय ने उसकी याचिका खारिज कर दी थी और इससे व्यथित होकर उसने पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 19 के तहत मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में अपील दायर की। पत्नी ने दावा किया कि पति की आपराधिक गतिविधियों में संलिप्तता और उसे हत्या के आरोप में सजा देना मानसिक क्रूरता के बराबर है। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का मानना था कि पत्नी को तलाक का आदेश देना सही है क्योंकि विवाह में मानसिक और शारीरिक सुरक्षा सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है। यहां पति के कृत्यों से पत्नी को पीड़ा हुई थी, इसलिए न्यायालय ने पत्नी द्वारा बताए गए आधारों पर पति और पत्नी के बीच उक्त विवाह का विच्छेदन कर दिया। 

निष्कर्ष 

जैसा कि यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि क्रूरता की कोई उचित परिभाषा नहीं है। यह व्यक्ति दर व्यक्ति और मामले दर मामले अलग-अलग होती है। क्रूरता कई रूप ले सकती है, यह कभी-कभी क्रूर, हिंसक और कभी-कभी सिर्फ़ मौखिक और तीखी बहस भी हो सकती है। यह इस बात पर भी प्रकाश डालता है कि निचली अदालतों के लिए हर सबूत के महत्व पर विचार करना ज़रूरी है और इसे पर्याप्त रूप से ध्यान में रखा जाना चाहिए। इस संबंधित मामले में निचली अदालत ने फ़ैसला सुनाने में गंभीर गलती की थी। सुप्रीम कोर्ट ने तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करते हुए कहा कि उन्हें हाई कोर्ट द्वारा पारित फ़ैसले में हस्तक्षेप करने का कोई विशेष कारण या कारण नहीं मिला और याचिका को खारिज कर दिया।  

जैसा कि यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि क्रूरता की कोई उचित परिभाषा नहीं है। यह व्यक्ति दर व्यक्ति और मामले दर मामले अलग-अलग होती है। क्रूरता कई रूप ले सकती है, यह कभी-कभी क्रूर, हिंसक और कभी-कभी सिर्फ़ मौखिक और तीखी बहस भी हो सकती है। यह इस बात पर भी प्रकाश डालता है कि निचली अदालतों के लिए हर सबूत के महत्व पर विचार करना ज़रूरी है और इसे पर्याप्त रूप से ध्यान में रखा जाना चाहिए। इस संबंधित मामले में निचली अदालत ने फ़ैसला सुनाने में गंभीर गलती की थी। सर्वोच्च न्यायालय ने तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करते हुए कहा कि उन्हें उच्च न्यायालय द्वारा पारित फ़ैसले में हस्तक्षेप करने का कोई विशेष कारण नहीं मिला और याचिका को खारिज कर दिया।  

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

वह समय अवधि क्या है जिसके भीतर वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना (रेस्टीट्यूशन) के लिए याचिका दायर की जा सकती है?

वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिए अनुरोध करने वाली याचिका, साथी से अलग होने की तिथि से एक वर्ष के भीतर दायर की जानी चाहिए।

वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना के मामले में साक्ष्य प्रस्तुत करने का दायित्व किस पक्ष पर है?

सबूत का भार याचिकाकर्ता पर है, उन्हें यह साबित करना होगा कि दूसरे पक्ष ने बिना किसी उचित कारण या वजह के उनका त्याग कर दिया है।

हिंदू विवाह अधिनियम के तहत क्रूरता शब्द का क्या अर्थ है?

उक्त अधिनियम के अंतर्गत क्रूरता शब्द का अर्थ है कि एक पति या पत्नी के कार्यों से दूसरे पति या पत्नी के मन में खतरे की आशंका उत्पन्न हो गई है। 

क्रूरता का कृत्य किसे कहते हैं?

मनुष्य पर अप्रासंगिक शारीरिक और मानसिक पीड़ा थोपना क्रूरता है। इसमें ऐसी हरकतें शामिल हैं जो जानबूझकर की गई हो और जो दर्द का कारण बनती हैं। 

संदर्भ

 

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