आर.एम.डी. चमारबागवाला बनाम भारत संघ (1957)

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यह लेख Ayushi Kumari द्वारा लिखा गया था और इसे Abha Singhal द्वारा आगे अद्यतन (अपडेट) किया गया है। अनिश्चितता और जटिलता से भरे कानूनी परिदृश्य में, भारत के द्युत (गैंबलिंग) कानून विशेष रूप से आकर्षक स्थान रखते हैं। आर.एम.डी. चमारबागवाला बनाम भारत संघ (1957) का ऐतिहासिक निर्णय इस अन्वेषण (एक्सप्लोरेशन) का एक अनिवार्य घटक है। यह लेख न्यायालय के निर्णय और देश में द्युत कानूनों पर इसके प्रभाव की व्याख्या करता है, और साथ ही कौशल के खेल और मौके के खेल के बीच चल रही बहस पर प्रकाश भी डालता है। इस लेख में, लेखक ने देश में द्युत को नियंत्रित करने और विनियमित करने के लिए राष्ट्रीय कानून की आवश्यकता का पता लगाया है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है। 

Table of Contents

परिचय

भारत का संविधान, अनुच्छेद 19 (1) (g) के तहत, किसी भी पेशे, व्यापार या व्यवसाय को आगे बढ़ाने के मौलिक अधिकार की गारंटी दी गई है, लेकिन यह अधिकार प्रकृति में निरपेक्ष नहीं है। यह अधिकार 1955 के पुरस्कार प्रतियोगिता अधिनियम के तहत उल्लिखित अधिकारों से टकराता है। यह अधिनियम, जो द्युत के तत्व को शामिल करने वाली प्रतियोगिताओं को विनियमित और प्रतिबंधित करना चाहता है, मौलिक अधिकारों के साथ इसकी अनुकूलता के बारे में मुद्दे और सवाल उठाता है। आर.एम.डी. चमारबागवाला बनाम भारत संघ (1957) का ऐतिहासिक फैसला इस मुद्दे के केंद्र में है। इस मामले की पेचीदगियों में जाने से हमें यह समझने में मदद मिलेगी कि कैसे अदालतों ने अधिनियम के तहत अधिकारों के इन प्रतिस्पर्धी (कंपटिंग) हितों और मौलिक अधिकारों के बीच एक नाजुक संतुलन बनाया है। यह अधिनियम व्यवसाय करने के व्यक्ति के अधिकार की रक्षा करते हुए सार्वजनिक नैतिकता की रक्षा और द्युत के माध्यम से शोषण के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करता है। मान लीजिए कि कोई प्रतियोगिता पूरी तरह से संयोग पर आधारित है, तो उस स्थिति में, अधिनियम के प्रतिबंध उचित हो सकते हैं, जो संभवतः संविधान के अनुच्छेद 19 (6) द्वारा अनुमत उचित प्रतिबंधों के दायरे में आते हैं। हालाँकि, कौशल के तत्व पर आधारित प्रतियोगिताओं के लिए, यह तर्क कि यह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, मजबूत हो जाता है, क्योंकि प्रतिबंधों को व्यवसायों में बाधा डालने और कौशल-आधारित विकास के क्षेत्र में नवाचार को दबाने के रूप में देखा जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (g) के संबंध में न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) का विकास इसे और जटिल बनाता है। इसके अलावा, वर्तमान संदर्भ में ऑनलाइन प्रतियोगिताओं के बढ़ने के साथ अधिनियम की प्रभावशीलता का पुनर्मूल्यांकन (री इवेल्यूएशन) आवश्यक हो गया है। क्या वर्ष 1955 में तैयार किया गया यह अधिनियम डिजिटल युग में भी वाक् (स्पीच) और अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित कर सकता है? इसलिए, एक विस्तृत विश्लेषण जो इसके द्वारा विनियमित प्रतियोगिता के उद्देश्यों, प्रकृति और विकसित कानूनी परिदृश्य पर विचार करता है, यह निर्धारित करने के लिए आवश्यक है कि क्या यह अधिनियम किसी व्यक्ति के व्यवसाय करने के मौलिक अधिकार पर एक उचित प्रतिबंध बनाता है?

भारत में द्युत कानूनों के विकास का इतिहास

दुनिया में जुआ और द्युत के सबसे जटिल तथा अबोध्य (कॉन्व्यूलेटेड) इतिहास में भारत भी सब देशों में से एक है। प्राचीन काल में, द्युत को मनोरंजन के लिए एक सामाजिक गतिविधि माना जाता था, चाहे वह दैनिक जीवन में हो या विशेष अवसरों के दौरान ही क्यों न हो। पुरातत्वविदों (आर्कियोलॉजिस्ट) द्वारा एक पासा (डाइस) खोजा गया था, और उनके द्वारा यह तर्क दिया गया था कि यह 3300 ईसा पूर्व का है और टेराकोटा और बलुआ पत्थर (सैंडस्टोन) से बना है। इसके अलावा, इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि सिंधु घाटी के निवासी मुर्गों की लड़ाई और सट्टेबाजी में लगे हुए थे। यह भी पाया गया था कि द्युत के बोर्ड और पासे के अवशेषों का पता हड़प्पा सभ्यता से लगाया गया है, जो साबित करता है कि वे 1000 ईसा पूर्व से अस्तित्व में थे। ऋग्वेद में भी, ‘द्युतरी का विलाप’ नामक एक भजन ने इंडो-आर्यन समाज में द्युत की लोकप्रियता को दिखाया था। इसके अलावा, हिंदू ग्रंथों के अनुसार, पासे के प्रत्येक पक्ष का नाम दुनिया के चार युगों के नाम पर रखा गया था। मनुस्मृति के श्लोक 221 में द्युत खेलने को सख्त वर्जित घोषित किया गया था, क्योंकि ऐसा माना जाता था कि इससे पूरे राज्य का नाश हो सकता है। इसके अलावा, प्राचीन काल से ही द्युत को सत्य, ईमानदारी और धन का नाश करने वाला भी माना जाता रहा है। लेकिन समय के साथ, जिस तरह हर खेल के लिए कुछ नियमों और प्रावधानों का पालन करना ज़रूरी होता है, उसी तरह द्युत के कानून भी भारत को ब्रिटिश शासन से आज़ादी मिलने से बहुत पहले ही विकसित हो गए थे, जैसा कि नीचे बताया गया है। 

स्वतंत्रता के पहले का युग

स्वतंत्रता के पहले के भारत में, 1867 का सार्वजनिक द्युत अधिनियम, जिसे 1845 के जुआ अधिनियम और 1853 के सट्टेबाजी अधिनियम दोनों से विकसित किया गया था और ब्रिटिश शासन से विरासत में मिला था, ने द्युत प्रथाओं को आकार देने और विनियमित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह अधिनियम सार्वजनिक व्यवस्था और सद्भाव बनाए रखने के लिए पेश किया गया था क्योंकि घोड़े की सट्टेबाजी जैसी गतिविधियाँ, जो उस समय प्रचलित थीं, वह सब अपराध और लत जैसी सामाजिक बुराइयों से जुड़ी थीं। हालाँकि, उन सब पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं था; टेनिस और बॉलिंग जैसे कौशल के खेलों के लिए कुछ अपवाद भी थे। हालाँकि, अंतर स्पष्ट नहीं था, क्योंकि कार्ड गेम जैसी गतिविधियाँ जिनमें कौशल का तत्व शामिल हो सकता है, उन्हें अवैध माना जाता था। 

इसके अलावा, ब्रिटिश सरकार के द्वारा अधिनियम के बाद भी लॉटरी जैसे खेल आयोजित किए गए थे। इन लॉटरी से प्राप्त राजस्व (रेवेन्यू) का उपयोग बुनियादी ढाँचे की परियोजनाओं के लिए किया गया था। यह एक विरोधाभासी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है कि एक ओर, सरकार द्युत से लाभ कमा रही थी, वहीं दूसरी ओर निजी गेमिंग प्रतिष्ठानों पर प्रतिबंध लगा रही थी।

यह भी कहा गया था कि भारत की द्युत संस्कृति और 20 वीं सदी में देश के आर्थिक (इकोनॉमिक) विस्तार के बीच एक संबंध है। कुछ लोगों का तर्क है कि द्युत संस्कृति में भाग लेने की जोखिम लेने की भावना ने उद्यमशीलता (एंटरप्रेन्योर) की संस्कृति को बढ़ावा दिया था और उसे प्रोत्साहित किया था, जबकि अन्य लोगों का तर्क है कि द्युत ने देश के संसाधनों (रिसोर्सेज) को खत्म कर दिया है और देश के सतत आर्थिक विकास में बाधा के रूप में कार्य किया है।

स्वतंत्रता के बाद का युग

शुरुआत में, ब्रिटिश शासन समाप्त होने और जनवरी 1950 में स्वतंत्र भारत का संविधान लागू होने के बाद भारत में द्युत कानूनों को लेकर असमंजस की स्थिति थी। चूँकि द्युत और सट्टा काफी हद तक राज्य की संपत्ति थे, इसलिए केवल राज्य विधानमंडल के पास ही इस से संबंधित कानूनों में बदलाव करने का अधिकार था। राज्य सट्टे और द्युत पर कर लगाने के लिए नियम भी बना सकता था।

सामान्य तौर पर, भारत ने कुछ अपवादों के साथ 1867 के सार्वजनिक द्युत अधिनियम के प्रावधानों का पालन किया है। सबसे उल्लेखनीय परिवर्तन, द्युत पर राज्य का समग्र नियंत्रण था। 

द्युत अधिनियम एक प्रमुख कानून है जिसे कुछ भारतीय राज्यों द्वारा स्वीकार किया गया है, जबकि अन्य राज्यों ने अपनी भूमि पर द्युत या जुए से संबंधित गतिविधियों को नियंत्रित करने और उनकी देखरेख करने के लिए अपना स्वयं का कानून विकसित किया है।  

पुरस्कार प्रतियोगिता अधिनियम: एक अवलोकन 

पुरस्कार प्रतियोगिता अधिनियम, 1955, जिसे भारतीय मनोरंजन के क्षेत्र में एक मार्गदर्शक माना जाता है, मनोरंजन परिदृश्य में पुरस्कार वाली प्रतियोगिताओं की देखरेख और उन्हे विनियमित करने वाला एक ऐतिहासिक कानून है।

यह एक व्यापक द्युत कानून है जो प्रतियोगिताओं के क्षेत्र में कौशल और क्षमता दिखाने के लिए एक मंच प्रदान करता है और प्रतियोगिता-आधारित मनोरंजन के माध्यमों जैसे पहेलियाँ, संख्या खेल, चित्र खेल और किसी भी अन्य खेल के माध्यम से दिए जाने वाले पुरस्कारों की एक विस्तृत श्रृंखला को शामिल करता है जो स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के माध्यम से पुरस्कार प्रदान करता है। इस अधिनियम का उद्देश्य निष्पक्षता सुनिश्चित करना, शोषण को रोकना और प्रतिभागियों द्वारा अत्यधिक खर्च को रोकना और नियंत्रित करना है।

अधिनियम में “पुरस्कार प्रतियोगिता” को किसी भी प्रतियोगिता (चाहे इसे क्रॉसवर्ड पुरस्कार प्रतियोगिता, लुप्त (मिसिंग) शब्द पुरस्कार प्रतियोगिता, चित्र पुरस्कार प्रतियोगिता या किसी अन्य नाम से संदर्भित किया जाए) के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें अक्षरों, शब्दों या आकृतियों के निर्माण, व्यवस्था, संयोजन या क्रमपरिवर्तन (परम्यूटेशन) के आधार पर पहेली को हल करने के लिए पुरस्कार दिए जाते हैं। अधिनियम की धारा 4 के तहत यह भी प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी पुरस्कार प्रतियोगिता या प्रतियोगिताओं को बढ़ावा नहीं देगा या संचालित नहीं करेगा, जिसमें किसी भी महीने में दिए जाने वाले पुरस्कार या पुरस्कारों का कुल मूल्य भारतीय रुपए 1,000/- (केवल एक हजार रुपये) से अधिक हो, और प्रत्येक पुरस्कार प्रतियोगिता में अधिकतम 2,000 प्रविष्टियाँ (एंट्रीज) ही हो सकती हैं।

यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि इस अधिनियम के दायरे में सिर्फ़ कुछ प्रकार की पुरस्कार प्रतियोगिताएँ ही आती हैं। उदाहरण के लिए, बड़े पैमाने की लॉटरी आमतौर पर अलग-अलग राज्य या राष्ट्रीय कानूनों द्वारा नियंत्रित होती हैं, जिनका अनुपालन और नियंत्रण ज़्यादा सख्त होता है। इसके अलावा, ऐसी प्रतियोगिताएँ जो कौशल पर बहुत ज़्यादा निर्भर करती हैं और जिनमें तुलनात्मक रूप से ज़्यादा पुरस्कार मूल्य होते हैं, वे सीधे इस अधिनियम के दायरे में नहीं आ सकती हैं। निष्कर्ष के तौर पर, 1955 का पुरस्कार प्रतियोगिता अधिनियम भारत में पुरस्कार-आधारित प्रतियोगिताओं/गतिविधियों के एक सीमित हिस्से को विनियमित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

अब, आइए आगे के विश्लेषण के लिए आर.एम.डी. चमारबागवाला बनाम भारत संघ (1957) के मामले पर गौर करते हैं।

मामले का विवरण

  • मामले का नाम: आर.एम.डी. चमारबागवाला बनाम भारत संघ
  • समतुल्य उद्धरण (इक्विवलेंट सिटेशन): 1957 ए.आई.आर. 628, 1957 एस.सी.आर. 930
  • न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
  • फैसले की तारीख: 9 अप्रैल, 1957
  • मामले का प्रकार: रिट याचिका
  • याचिकाकर्ता: आर.एम.डी. चमारबागवाला 
  • प्रतिवादी: भारत संघ
  • पीठ: भारत के मुख्य न्यायाधीश सुधी रंजन दास, न्यायमूर्ति भुवनेश्वर पी. सिन्हा और न्यायमूर्ति पी.बी. गजेंद्रगडकर, न्यायमूर्ति टी.एल. वेंकटराम अय्यर।
  • संबंधित कानून: पुरस्कार प्रतियोगिता अधिनियम, 1955, अनुच्छेद 19 (1) और (6)।

आर.एम.डी. चमारबागवाला बनाम भारत संघ (1957) के तथ्य

  1. इस मामले में, याचिकाकर्ताओं, जो विभिन्न भारतीय राज्यों में पुरस्कार टूर्नामेंट का विज्ञापन और संचालन कर रहे थे, के द्वारा पुरस्कार प्रतियोगिता अधिनियम (955 का 42), धारा 4 और 5 तथा अधिनियम की धारा 20 के तहत बनाए गए नियम 11 और 12 की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। ये याचिकाएँ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के जवाब में दायर की गई थीं।
  2. उनका यह तर्क था कि अधिनियम की धारा 2 (d) में परिभाषित ‘पुरस्कार प्रतियोगिता’ में न केवल द्युत प्रतियोगिताएं ही शामिल हैं, बल्कि वे कार्य भी शामिल हैं जिनमें सफलता काफी हद तक कौशल पर निर्भर करती है और ये धाराएं और नियम उनके (याचिकाकर्ता के) व्यवसाय करने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करते हैं और इसलिए संविधान के अनुच्छेद 19(6) के तहत प्रत्येक व्यक्ति को गारंटीकृत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। उन्होंने यह भी तर्क दिया था कि अधिनियम के उक्त भाग को इससे अलग नहीं किया जा सकता है; इसलिए, पूरे अधिनियम को अमान्य घोषित किया जाना चाहिए।
  3. जबकि, भारत संघ की ओर से यह तर्क दिया गया था कि परिभाषा को उचित रूप से समझने पर इसका आशय केवल द्युत प्रतियोगिताओं से है और यदि ऐसा नहीं भी है, तो भी प्रश्न में जो प्रावधान है वह, जैसा कि उनके आवेदन में कहा गया है, अधिनियम से पृथक (सेपरेट) होने के कारण, जहां तक ​​द्युत प्रतियोगिताओं का संबंध है, वैध हैं।
  4. इन याचिकाओं पर दीवानी (सिविल) अपील संख्या 134/1956 के साथ सुनवाई की गई थी, जिसमें बॉम्बे लॉटरी और पुरस्कार प्रतियोगिता नियंत्रण और कर अधिनियम, 1948 की संवैधानिकता को वर्तमान याचिकाओं में प्रस्तुत आधारों के समान ही चुनौती दी गई थी।

मामले में शामिल मुद्दे

  1. क्या यह अधिनियम उन प्रतियोगिताओं पर लागू होता है जिनके लिए पर्याप्त कौशल की आवश्यकता होती है और जो द्युत की प्रकृति की नहीं हैं, यह धारा 2 (d) में “पुरस्कार प्रतियोगिता” की परिभाषा पर आधारित है।
  2. और, यदि अधिनियम उपरोक्त प्रतियोगिताओं में लागू होता है, तो क्या ऐसी प्रतियोगिताओं से संबंधित धारा 4 और 5 और नियम 11 और 12 के पहले से ही अमान्य के रूप में स्वीकृत प्रावधान को, उन प्रतियोगिताओं जो पहले से ही द्युत के चरित्र में हैं, के विरुद्ध पृथक्करण के सिद्धांत पर लागू किया जा सकता है?

पक्षों के तर्क

याचिकाकर्ता

याचिकाकर्ता श्री चमारबागवाला के द्वारा तर्क दिया गया था कि उनके द्वारा प्रचारित पुरस्कार प्रतियोगिताओं की प्रकृति केवल भाग्य के खेल पर आधारित नहीं थी, बल्कि इसमें योग्यता और कौशल का तत्व भी शामिल था, जिससे यह गतिविधि एक वैध व्यावसायिक गतिविधि बन गई है। उनके द्वारा माननीय न्यायालय के समक्ष यह कहा गया था कि अधिनियम द्वारा लगाए गए प्रतिबंध, ऐसी कौशल-आधारित गतिविधियों पर अंकुश लगाकर, भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (g) के तहत उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन करते हैं।

प्रतिवादी 

इस मामले में प्रतिवादी भारत संघ के द्वारा तर्क दिया गया था कि विवादित प्रतियोगिताएं मुख्य रूप से ऐसी प्रकृति की हैं कि उन्हें भाग्य का खेल माना जाता है और वे द्युत के दायरे में आती हैं, जो राज्य द्वारा लगाए गए उचित प्रतिबंधों के अधीन है और किसी भी तरह से  यह याचिकाकर्ता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं है। प्रतिवादी के द्वारा संविधान के अनुच्छेद 19 (6) का हवाला दिया गया था, जो किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों पर उचित प्रतिबंध लगाने की अनुमति देता है यदि वे किसी भी तरह से सार्वजनिक नैतिकता और व्यवस्था का उल्लंघन करते हैं। इसके अलावा, प्रतिवादी का पूरा तर्क द्युत से जुड़ी सामाजिक बुराइयों, जैसे शोषण, लत की संभावना और बड़े पैमाने पर सार्वजनिक स्वास्थ्य और नैतिकता में व्यवधान (डिसरप्शन) के इर्द-गिर्द केंद्रित था।

आर.एम.डी. चमारबागवाला बनाम भारत संघ (1957) में निर्णय

  1. 1956 की दीवानी अपील संख्या 134 में, जिसकी सुनवाई याचिकाओं के साथ-साथ हुई थी, में यह पाया गया था कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (g) और अनुच्छेद 301 द्वारा परिभाषित “व्यापार और वाणिज्य (कॉमर्स)” ही एकमात्र ऐसी गतिविधियाँ हैं जिन्हें अधिकृत व्यापारिक गतिविधियाँ माना जा सकता है, और द्युत रेस एक्स्ट्रा कॉमर्सियम है, अर्थात्, यह निजी अधिकारों के अधीन नहीं है, और इसलिए इनका व्यापार नहीं किया जा सकता, जिसका अर्थ है कि यह भारत के संविधान के संबंधित अनुच्छेदों के दायरे से बाहर है। इसका अनिवार्य रूप से यह मतलब था कि पुरस्कार प्रतियोगिता अधिनियम की धारा 4 और 5, और नियम 11 और 12 द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों की वैधता को अब संविधान के अनुच्छेद 19 (6) के तहत चुनौती नहीं दी जा सकती।
  2. न्यायालय ने कहा कि दो प्रकार की प्रतिस्पर्धा के बीच का अंतर उतना ही स्पष्ट है जितना वाणिज्यिक और दांव लगाने वाले अनुबंधों के बीच का अंतर है।
  3. तथ्यों के आधार पर, या एक नजर में, न्यायालय ने कहा कि यह पता लगाना कठिन हो सकता है कि कोई प्रतियोगिता किसी श्रेणी में आती है या नहीं, लेकिन एक बार प्रतियोगिता की वास्तविक प्रकृति निर्धारित हो जाने पर, वह किसी एक श्रेणी में आ जाएगी।
  4. चुनौती दिए गए प्रावधानों को धारा 2 (d) में परिभाषा के आधार पर सभी प्रकार की प्रतियोगिताओं पर लागू माना गया था, और वे उन प्रतियोगिताओं के लिए लागू होने में पृथक करने योग्य थे जिनमें उपलब्धि किसी महत्वपूर्ण सीमा तक कौशल पर निर्भर नहीं है।
  5. अंत में, न्यायालय ने माना कि उठाए गए दोनों तर्क स्पष्ट रूप से याचिकाकर्ताओं के खिलाफ पाए गए थे। याचिकाओं को लागत के साथ खारिज कर दिया गया था, क्योंकि उनमें कोई योग्यता नहीं थी।

यह मुद्दा कि क्या अधिनियम उन प्रतियोगिताओं पर लागू होता है जिनमें पर्याप्त कौशल की आवश्यकता होती है और जो द्युत की प्रकृति की नहीं होती हैं, धारा 2 (d) के तहत “पुरस्कार प्रतियोगिता” की परिभाषा पर आधारित है, माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा इस मुद्दे को संबोधित करते हुए यह कहा गया था कि पुरस्कार प्रतियोगिता अधिनियम को पर्याप्त मात्रा में मौके के आधार पर प्रतियोगिताओं पर लागू माना जाता है। इन प्रतियोगिताओं को द्युत माना जाता था और उन्हें अधिनियम के दायरे में माना जाता था। न्यायालय की व्याख्या के अनुसार, अधिनियम का उद्देश्य उन प्रतियोगिताओं को विनियमित करना नहीं था जहाँ सफलता काफी हद तक ज्ञान और कौशल पर निर्भर करती है।

विधायी अधिनियमों की व्याख्या के संबंध में, माननीय न्यायालय ने इस तथ्य पर ध्यान दिया कि विधायिका का इरादा केवल इस्तेमाल किए गए शब्दों के शाब्दिक अर्थ से नहीं निकलता है, बल्कि इतिहास, उद्देश्य, सामाजिक और नैतिक कारकों जैसे कई अन्य कारकों और उस रिष्टि (मिस्चीफ) को भी ध्यान में रखता है जिसे वह संबोधित करना चाहता है। इसके अलावा, इस मामले में, पृथक्करण के सिद्धांत ने अदालत द्वारा दिए गए फैसले में एक प्रमुख भूमिका निभाई। यह विवाद था कि क्या अधिनियम की धारा 4 और धारा 5 और नियम 11 और 12 उन प्रतियोगिताओं के लिए उनके आवेदन में शून्य हैं जिनमें सफलता किसी कौशल पर निर्भर नहीं करती थी। इसलिए, पृथक्करण के सिद्धांत के आवेदन के संदर्भ में अदालत द्वारा यह तय किया जाना था कि एक क़ानून जो आंशिक रूप से शून्य है, उसे समग्र रूप से शून्य माना जाएगा या क्या वैध भाग प्रवर्तन योग्य है। 

पृथक्करण के सिद्धांत पर नीचे विस्तार से चर्चा की गई है।

पृथक्करण का सिद्धांत क्या है?

पृथक्करण के सिद्धांत का दूसरा नाम ‘अलगाव का सिद्धांत’ है। यह सिद्धांत यह बताता है कि जब किसी कानून का कोई हिस्सा भारतीय संविधान के तहत गारंटीकृत किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के साथ विवाद में आता है, तो अदालतें केवल संबंधित कानून के प्रतिकूल प्रावधान को ही गैरकानूनी मानेंगी, न कि पूरे कानून/अधिनियम को गैर कानूनी मानेंगी। 

जैसा कि भारतीय संविधान के  अनुच्छेद 13 के तहत कहा गया है:

“संविधान के लागू होने से पहले भारत में लागू सभी कानून, जहां तक ​​वे मौलिक अधिकारों के प्रावधानों के साथ असंगत हैं, उस असंगति की सीमा तक शून्य होंगे।”

इसका अर्थ यह है कि वे सभी कानून जो भारतीय संविधान को अपनाने से पहले भारत में मौजूद थे और लागू थे तथा जो इसके लिए दिए गए प्रावधानों से असंगत हैं, अपनी असंगतता की सीमा तक शून्य हो जाएंगे।

इस अनुच्छेद के अंतर्गत पृथक्करण के सिद्धांत की व्याख्या निम्नलिखित दो तरीकों से की जा सकती है:

  1. भारत के संविधान का अनुच्छेद 13(1) सभी संविधान के पहले बनाए गए कानूनों को मान्यता देता है और घोषित करता है कि भारतीय संविधान की शुरुआत से पहले लागू कोई भी कानून शून्य है यदि वह मौलिक अधिकारों के साथ असंगत है।
  2. भारत के संविधान के अनुच्छेद 13(2) के अनुसार राज्य को ऐसा कोई कानून पारित नहीं करना चाहिए जो लोगो को, संविधान के भाग III में गारंटीकृत उन्हे मौलिक अधिकारों से वंचित करता हो या प्रतिबंधित करता हो, और ऐसा करने वाले किसी भी कानून को अमान्य घोषित कर दिया जाएगा।

हालांकि, यदि कानून का कोई प्रावधान मौलिक अधिकार के साथ असंगत है और कानून के कार्य करने के लिए आवश्यक है, अर्थात यदि ऐसा कोई विवादित प्रावधान अनुपस्थित है, तो पूरा कानून ही समाप्त हो जाएगा, और तब किसी एक प्रावधान के बजाय पूरे कानून को ही शून्य घोषित कर दिया जाएगा। 

पृथक्करणीयता के सिद्धांत की प्रयोज्यता

पृथक्करण का सिद्धांत अनिवार्यतः भारतीय न्यायपालिका को कानून का विश्लेषण करने तथा यह आकलन करने का अधिकार देता है कि क्या यह भारतीय संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के साथ सुसंगत और अनुकूल होना चाहिए। 

पृथक्करण का यह सिद्धांत कानून की संपूर्णता की जांच करके कानून के असंगत हिस्सों की पहचान करता है। एक बार असंगत और विरोधाभासी प्रावधान की पहचान हो जाने पर, माननीय न्यायालय उसे हटा देता है या उसमें संशोधन करता है। यह प्रक्रिया उन हिस्सों को हटा देती है जो असंवैधानिक हैं, जबकि यह सुनिश्चित करती है कि कानून के अनुरूप प्रावधान रहें।

पृथक्करण के सिद्धांत के कुछ उदाहरण

पृथक्करण के इस सिद्धांत का महत्वपूर्ण पहलू कानून के पीछे के मूल उद्देश्य को बनाए रखना है। इस सिद्धांत को लागू करते समय न्यायालय कानून के मुख्य उद्देश्य को यथासंभव सुरक्षित रखने का प्रयास करते है।

भारतीय न्यायपालिका के द्वारा देश के विभिन्न ऐतिहासिक निर्णयों में पृथक्करण के सिद्धांत को लागू किया गया है। उनमें से कुछ को नीचे स्पष्ट किया गया है:

ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950) के मामले में, निवारक निरोध (प्रिवेंटिव डिटेंशन) अधिनियम को चुनौती दी गई थी, जिसके तहत अधिकारियों को बिना किसी सुनवाई के व्यक्तियों को हिरासत में रखने की अनुमति दी गई थी, और इससे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के उल्लंघन का मुद्दा उठा था। माननीय न्यायालय के द्वारा निवारक निरोध के महत्व को समझते हुए कई प्रावधानों को मनमाना (आर्बिट्ररी) माना गया था, और इसलिए केवल उन प्रावधानों को ही असंवैधानिक माना गया जबकि बाकी बचे प्रावधान प्रभावी रहे थे।

इसी तरह, नाज़ फाउंडेशन बनाम दिल्ली सरकार (2009) के मामले में, भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 377 को अदालत के समक्ष चुनौती दी गई थी, जिसमें समलैंगिकता (होमोसेक्सुअलिटी) को अपराध माना गया था। यह तर्क दिया गया था कि उक्त धारा भेदभावपूर्ण है और संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करती है। माननीय न्यायालय ने पृथक्करण के सिद्धांत को लागू किया और धारा के उस हिस्से को रद्द कर दिया जो समलैंगिक कृत्यों को अपराध मानता था, जबकि धारा के बाकी हिस्से को वैसे ही लागू रहने दिया था।

पृथक्करण की धारणा का उपयोग मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) के मामले में भी किया गया था, जहाँ 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 की धारा 4 को संसद की संशोधन क्षमता से बाहर होने के कारण रद्द कर दिया गया था, जबकि अधिनियम के बाकी हिस्से को वैध पाया गया था। एक और प्रसिद्ध मामला किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हु (1992) का मामला है, जिसे कभी-कभी दलबदल (डिफेक्शन) मामले के रूप में भी जाना जाता है। इस मामले में, दसवीं अनुसूची के पैराग्राफ 7 को अमान्य माना गया था क्योंकि इसने अनुच्छेद 368 (2) के प्रावधानों का उल्लंघन किया था। हालाँकि, पूरे खंड को अमान्य नहीं माना गया था।

पृथक्करण का सिद्धांत आर.एम.डी. चमारबागवाला बनाम भारत संघ (1957) से कैसे संबंधित है

इस मामले को जन्म देने वाला विवाद अधिनियम की धारा 2(d) में निहित पुरस्कार प्रतियोगिता की परिभाषा के बारे में था। याचिकाकर्ताओं के द्वारा तर्क दिया गया था कि परिभाषा में न केवल ऐसे कार्य शामिल हैं जो प्रकृति में द्युत हैं, बल्कि ऐसे कार्य भी शामिल हैं जिनमें किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत कौशल शामिल हैं। इसलिए, यह उनके व्यवसाय करने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है क्योंकि वे ऐसे कार्यों में शामिल थे जिनमें पर्याप्त कौशल की आवश्यकता थी और जो प्रकृति में द्युत नहीं थे। याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया है कि चूंकि द्युत कृत्यों के संबंध में नियम 11 और 12 द्वारा लगाई गई शर्तें सही थीं, इसलिए वे (शर्तें) कौशल से जुड़े कार्यों के साथ संरेखित नहीं थीं, और इसलिए, अधिनियम को अपनी संपूर्णता में विफल होना चाहिए। हालांकि, यह प्रतिवादी के वकील थे जिनके द्वारा जोर दिया गया था और तर्क दिया गया था कि पूरे अधिनियम को प्रभावित किए बिना भी जब इसका विवादित हिस्सा अधिनियम के बाकी हिस्से से अलग किया जा सकता है, तो पूरे अधिनियम को रोकने या रद्द करने की आवश्यकता नहीं है।

इस मामले में, न्यायालय ने मूल रूप से चर्चा के लिए दो मुख्य मुद्दे रखे थे। पहला, क्या धारा 2 (d) के तहत पुरस्कार प्रतियोगिता की परिभाषा में ऐसी प्रतियोगिताएं भी शामिल हैं जिनमें कौशल शामिल है और जो द्युत की प्रकृति की नहीं हैं, और दूसरा, यदि ऐसा है, तो धारा 4 और 5 तथा नियम 11 और 12 द्वारा लगाए गए प्रतिबंध द्युत की प्रकृति वाले कार्यों के लिए पृथक्करण के सिद्धांत की सहायता से लागू किए जाएंगे।

इस मामले में न्यायालय ने बंगाल इम्युनिटी कंपनी लिमिटेड बनाम बिहार राज्य और अन्य (1955) के मामले का हवाला दिया है, जिसमें न्यायालय के द्वारा माना गया है कि भले ही पुरस्कार प्रतियोगिता अधिनियम की धारा 2 (d) में दोनों तरह के कार्यों को शामिल करने वाली परिभाषा शामिल हो, यानी ऐसे कार्य जिन्हें प्रकृति में द्युत माना जा सकता है और साथ ही ऐसे कार्य जिनमें पर्याप्त कौशल शामिल है, फिर भी वे अधिनियम के नियम 11 और 12 द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के कारण अपने आवेदन में अलग-अलग हैं। इसलिए, इसे द्युत प्रतियोगिता के संबंध में शून्य नहीं माना जा सकता।

वर्तमान मामले में, न्यायालय के द्वारा इस कानून को बनाने के लिए प्रेरित करने वाली परिस्थितियों का हवाला देते हुए धारा 2 (d) की व्याख्या तय की गई थी। इसके अलावा, न्यायालय को धारा 4 और धारा 5, तथा अधिनियम के नियम 11 और 12 के आवेदन के संबंध में पृथक्करण के सिद्धांत को न केवल कौशल से जुड़े कार्यों पर बल्कि उन कार्यों पर भी लागू करना था जो किसी भी कौशल पर निर्भर नहीं थे। यह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि याचिकाकर्ताओं द्वारा चुनौती दिए गए प्रावधान उन प्रतियोगिताओं पर लागू होने में पृथक्करणीय हैं जिनमें सफलता किसी भी महत्वपूर्ण तरीके से कौशल पर आधारित नहीं है।   

क्या द्युत पर प्रतिबंध अनुच्छेद 19 (1) (g) के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है

इस सवाल का जवाब देने के लिए कि क्या द्युत पर प्रतिबंध, भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (g) के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, यह कार्य में  शामिल द्युत की गतिविधि की प्रकृति पर निर्भर करता है। अनुच्छेद 19 (1) (g) किसी भी पेशे, व्यापार या व्यवसाय का अभ्यास करने के अधिकार की गारंटी देता है। बार-बार यह तर्क दिया गया है कि द्युत पूरी तरह से मौके पर आधारित नहीं है, कौशल, ज्ञान और रणनीति के तत्व भी द्युत की गतिविधि का गठन करते हैं, और इस तरह के खेल उक्त अनुच्छेद के तहत संरक्षित हैं और उन्हें एक वैध व्यावसायिक गतिविधि माना जाता है। इस पर विस्तार से बात करने के लिए, यह भी तर्क दिया गया है कि चूंकि द्युत में मौके और किस्मत का तत्व भी शामिल है, जो समाज की सामाजिक बुराइयों जैसे कि लत और शोषण से जुड़ा हुआ है, इसलिए इस गतिविधि को पूरी तरह से प्रतिबंधित करने के बजाय उन बुराइयों को दूर करने के लिए अलग-अलग नियम होने चाहिए। इस बहस के संबंध में कई ऐतिहासिक उदाहरणों ने अलग-अलग निर्णय दिए हैं, उनमें से कुछ नीचे स्पष्ट किए गए हैं: 

आंध्र प्रदेश राज्य बनाम के. सत्यनारायण (1968) के मामले में, रम्मी की वैधता को चुनौती देने का तर्क अदालत के समक्ष रखा गया था, जिसमें यह माना गया था कि रम्मी के खेल में मुख्य रूप से कौशल और तकनीक शामिल होती है, जो कि भाग्य के खेल के दायरे से बाहर है, इसलिए, इस खेल को अनुच्छेद 19 (1) (g) के तहत संरक्षण के लिए उत्तरदायी माना गया था। 

ऑल इंडिया गेमिंग फेडरेशन बनाम कर्नाटक राज्य (2017) के मामले में, कर्नाटक पुलिस अधिनियम, 1963 को चुनौती देने के लिए एक मामला दायर किया गया था, जिसमें सट्टेबाजी या द्युत से जुड़े ऑनलाइन गेम पर प्रतिबंध लगाया गया था। याचिकाकर्ता, जो रम्मी और पोकर जैसे खेल पेश कर रहे थे, ने अदालत के समक्ष तर्क दिया कि इन खेलों में रणनीति और कौशल का एक महत्वपूर्ण तत्व शामिल है, और इस पर पूर्ण प्रतिबंध अनुच्छेद 19 (1) (g) के तहत याचिकाकर्ताओं के अधिकार का उल्लंघन होगा। अदालत ने कौशल के तत्व को स्वीकार किया और इस तथ्य पर जोर दिया कि गतिविधि की समग्र प्रकृति पर विचार करने की आवश्यकता है, जिसका अर्थ है कि भले ही कुछ कौशल शामिल हो, अगर मौके का तत्व प्रमुख रूप से परिणाम निर्धारित करता है, तो इसे द्युत माना जाएगा। इसके अलावा, इसने जुए की गतिविधि के संभावित नकारात्मक परिणामों को पहचाना और माना कि सार्वजनिक नैतिकता और व्यवस्था की रक्षा और संरक्षण में राज्य की रुचि याचिकाकर्ता के मामले से अधिक महत्वपूर्ण है।

द्युत और उससे संबंधित कानूनों से संबंधित हालिया घटनाक्रम

भारत में, द्युत की दुनिया, विशेष रूप से ऑनलाइन द्युत, इस तथ्य के कारण परिवर्तन और कानूनी अनिश्चितता के दौर से गुज़र रही है कि इसे नियंत्रित करने के लिए कोई एकीकृत राष्ट्रीय कानून नहीं है। इसके विपरीत, कई राज्यों के द्वारा द्युत की गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए बहुत अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाए गए हैं। उदाहरण के लिए, सिक्किम राज्य में, सिक्किम ऑनलाइन गेमिंग (विनियमन) संशोधन अधिनियम, 2009 के तहत, राज्य सरकार ऑनलाइन द्युत के संचालकों को लाइसेंस देती है। सरकार के पास पेश किए जाने वाले खेलों और उन पर लगाए जाने वाले शुल्क और करों को विनियमित करने का भी अधिकार है। यह कानून सिक्किम को भारत का एकमात्र ऐसा राज्य बनाता है जिसे भारत में ऑनलाइन द्युत की अनुमति देने और विनियमित करने की अनुमति है।

इसके विपरीत, तमिलनाडु जैसे राज्यों ने तमिलनाडु गेमिंग और द्युत निषेध अधिनियम, 2022 के कानून के तहत द्युत के सभी रूपों पर व्यापक प्रतिबंध लागू किया गया है। इसमें लॉटरी सट्टेबाजी (सरकारी लॉटरी अपवाद है), कैसीनो गेम, ऑनलाइन सट्टेबाजी और पैसे जीतने के लिए रम्मी से जुड़े कार्ड गेम जैसे खेल भी शामिल हैं। इस तरह के प्रतिबंध के पीछे तर्क गतिविधि से जुड़ी सामाजिक बुराइयों को मिटाना है, जैसे कि लत, वित्तीय कठिनाई, शोषण और यहां तक ​​​​कि संभावित आपराधिक गतिविधियां। आंध्र प्रदेश सरकार के द्वारा भी अपने कानून, आंध्र प्रदेश गेमिंग (संशोधन) अधिनियम, 2020 के तहत एक समान रुख अपनाया गया है, केवल इस अपवाद के साथ कि आंध्र प्रदेश अभी भी इस तर्क पर घोड़ों की दौड़ पर सट्टेबाजी की अनुमति देता है कि यह एक कौशल-आधारित गतिविधि है और केवल मौके का खेल नहीं है। 

यह हमें “कौशल के खेल” और “संभावना के खेल” के बीच अंतर के बारे में चल रही लड़ाई की ओर ले जाता है, जिसमें कई निर्णयों के बाद भी जैसा कि पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है, अभी भी कोई आम सहमति नहीं है। यह सब इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि व्यापक राष्ट्रीय कानून की आवश्यकता है जो द्युत के परिदृश्य में कुछ निश्चितता और एकरूपता ला सके। सरकार को लाभ पहुंचाने के लिए नियमों का एक अच्छी तरह से परिभाषित और स्पष्ट सेट आवश्यक है।

निष्कर्ष और आगे का रास्ता

आर.एम.डी. चमारबागवाला बनाम भारत संघ के दिए गए मामले में, पृथक्करण के सिद्धांत ने यह निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई कि याचिकाओं को अनुमति दी जानी चाहिए या नहीं। दावा किया गया था कि पुरस्कार प्रतियोगिता अधिनियम 1955 के कुछ प्रावधान याचिकाकर्ता के अनुच्छेद 19 (1) (g) के तहत गारंटीकृत व्यवसाय करने के मौलिक अधिकार को प्रभावित कर रहे थे और इस अधिनियम को अमान्य घोषित किया जाना चाहिए। हालाँकि, न्यायालय ने उक्त सिद्धांत को लागू करके फैसला सुनाया कि अधिनियम वैध है। इस मामले में न्यायालय का निर्णय हमारे सामने एक महत्वपूर्ण पहलू पर आधारित था। न्यायालय ने द्युत के बीच अंतर किया, जो कौशल-आधारित या मौका-आधारित हो सकता है। इसने कहा कि प्रतिबंधों को तब तक अनुमति दी जानी चाहिए जब तक वे मौके के तत्व पर आधारित खेलों पर हों, और इसने इस तथ्य को स्वीकार किया कि कौशल पर निर्भर करने वाली प्रतियोगिताएँ द्युत के दायरे में नहीं आ सकती हैं।

मौलिक अधिकार वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति को दिए गए अनन्य अधिकार हैं, हालाँकि, उल्लंघन हो रहा है या नहीं, निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले इस बात को ध्यान में रखना चाहिए। अधिकारों का उल्लंघन किसी याचिका को बनाए रखने का एकमात्र कारण नहीं हो सकता है जब विचार करने के लिए अन्य परिदृश्य हों। चूँकि अनुच्छेद 19 (1) (g) में उल्लिखित ‘व्यापार और वाणिज्य’ के बीच स्पष्ट अंतर है और निश्चित रूप से ‘द्युत’ ‘व्यापार’ से अलग है और चुनौती दिए गए प्रावधान अधिनियम के बाकी प्रावधानों से अलग किए जा सकते हैं, इसलिए याचिका को खारिज कर दिया गया, यह घोषित करते हुए कि किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं हुआ है। 

सके अलावा, द्युत पर एकीकृत राष्ट्रीय कानून की कमी परिदृश्य को जटिल बनाती है। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, राज्यों ने विपरीत दृष्टिकोण अपनाए हैं, कुछ राज्यों के द्वारा देश में द्युत के परिदृश्य को अनुमति दी गई है और उसे विनियमित किया गया है, जबकि अन्य राज्यो के द्वारा सामाजिक बुराइयों को बढ़ावा देने के डर से इस गतिविधि पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाकर एक चरम दृष्टिकोण अपनाया गया है। इस असंगति को प्राथमिकता के रूप में संबोधित करने की आवश्यकता है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफ.ए.क्यू.)

पृथक्करणीयता का सिद्धांत क्या है, और यह आर.एम.डी. चमारबागवाला बनाम भारत संघ (1957) के मामले में कैसे लागू हुआ था?

पृथक्करण का सिद्धांत एक ऐसा सिद्धांत है जो न्यायालयों को कानून के वैध भागों को अमान्य भागों से अलग करने की अनुमति देता है। इस मामले में, न्यायालय ने पुरस्कार प्रतियोगिता अधिनियम के मुख्य उद्देश्य को बनाए रखने के लिए इस सिद्धांत को लागू किया, जो द्युत को विनियमित करना है, भले ही कानून की नज़र में कुछ भागों को अमान्य माना जा सकता है।

भारत में द्युत के संदर्भ में किसी चीज़ को “कौशल का खेल” कहने के लिए किन कारकों पर विचार किया जाना चाहिए?

इस बात की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है कि कौन से खेल/गतिविधियाँ कौशल के खेल कहलाने के योग्य हैं, लेकिन न्यायालयों ने निम्नलिखित कारकों पर विचार किया है:

  • संयोग का तत्व: भाग्य खेल के परिणाम को कितना प्रभावित करता है?
  • विशेषज्ञता का स्तर: क्या संबंधित खेल में सफल होने के लिए कौशल और ज्ञान की आवश्यकता है?
  • रणनीति: क्या खिलाड़ी खेल जीतने के लिए रणनीतिक सोच और योजना का उपयोग कर सकते हैं?
  • विशेषज्ञता का स्तर: क्या खेल में सफल होने के लिए ज्ञान या कौशल की आवश्यकता होती है?

वर्तमान समय में भारत में ऑनलाइन द्युत कैसे विनियमित होता है?

चूंकि द्युत को नियंत्रित करने के लिए कोई केंद्रीय कानून नहीं है, चाहे वह ऑफ़लाइन हो या ऑनलाइन, कुछ राज्यों, जैसे सिक्किम, आंध्र प्रदेश, आदि के पास अपने स्वयं के विशिष्ट कानून हैं, लेकिन हर राज्य में ऐसा नहीं है। इसने भारत में ऑनलाइन द्युत के कारोबार के लिए एक ग्रे क्षेत्र बना दिया है।

संदर्भ

 

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