यह लेख Adv. Dilpreet Kaur Kharbanda द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारत में एक नाबालिग की संरक्षकता (गार्जियनशिप) के सभी पहलुओं को गहराई से जानने का प्रयास करता है। इसके अलावा, इसमें हिंदू, मुस्लिम, ईसाई और पारसियों के बीच संरक्षकता के संबंध में धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) अधिनियमों और प्रावधानों पर चर्चा की गई है। यह लेख, राष्ट्रीय न्यास (ट्रस्ट) अधिनियम, 1999, और अधिनियम के तहत संरक्षकों को कैसे नियुक्त किया जाता है और हटाया जाता है, इस पर भी चर्चा करता है। विभिन्न प्रकार के संरक्षकों और उनके अधिकारों और कर्तव्यों जो कानून द्वारा निर्धारित किए गए हैं और अदालतों द्वारा व्याख्या किए गए हैं, उनका इस लेख में एक सिंहावलोकन (ओवरव्यू) है। इस लेख का अनुवाद Pradyumn Singh ने किया है।
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परिचय
ब्लैक लॉ डिक्शनरी के अनुसार, ‘संरक्षक’ वह व्यक्ति होता है जिसे कानूनी रूप से यह शक्ति प्राप्त होती है और वह उस व्यक्ति के व्यक्ति की देखभाल करने और संपत्ति एवं अधिकारों का प्रबंधन करने का दायित्व सौंपा जाता है, जो किसी खास स्थिति, उम्र के दोष, समझ की कमी या आत्मसंयम के अभाव के कारण अपने मामलों का प्रशासन करने में असमर्थ माना जाता है। और ‘संरक्षकता’ वह संबंध है जो संरक्षक और प्रतिपाल्य के बीच होता है।
भारत में विभिन्न धर्मों में संरक्षकता की सीमा अलग-अलग होती है। संरक्षकों की नियुक्ति, पात्रता, शक्तियां, कर्तव्य, अधिकार और उनको हटाने को नियंत्रित करने वाले अलग-अलग धर्मनिरपेक्ष कानून हैं। इन सभी को नियंत्रित करने वाला कोई एक समान कानून नहीं है, लेकिन सिद्धांत अधिनियम “संरक्षकता और प्रतिपाल्य (वॉर्ड) अधिनियम, 1890” है जिससे अन्य सभी अधिनियम अपना आधार प्राप्त करते हैं। हिंदू, मुसलमान, ईसाई और पारसी समुदायों के संरक्षकता कानूनों पर एक-एक करके चर्चा की गई है; विकलांग व्यक्तियों को नियंत्रित करने वाले कानून पर भी विस्तार से चर्चा की गई है।
अदालतों को नाबालिग के लिए संरक्षक नियुक्त करने का पूरा विवेकाधिकार है, लेकिन सर्वोपरि (पैरामाउंट) विचार बच्चे का कल्याण है, और नाबालिग के कल्याण के दायरे में क्या आता है, यह चर्चा का विषय है। इस लेख में आगे एकल माता को संरक्षक के रूप में नियुक्त किया जा सकता है? या क्या नाबालिग के दो या दो से अधिक संयुक्त संरक्षक हो सकते हैं जैसे प्रश्नों के उत्तर दिए गए हैं।
हिंदू कानून के तहत नाबालिग की संरक्षकता
प्राचीन हिंदू कानून में, संरक्षकता की अवधारणा बिल्कुल मौजूद नहीं थी। संयुक्त हिंदू परिवार व्यवस्था में, कर्ता, जो परिवार का वरिष्ठ सदस्य होता था, को संरक्षक माना जाता था। संरक्षकता की अवधारणा को संहिताबद्ध करने वाला पहला अधिनियम “संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890” के रूप में आया। यह अधिनियम संरक्षकता पर प्रमुख अधिनियम है। वर्तमान समय में, हिंदू कानून के तहत संरक्षकता को “हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956″ द्वारा नियंत्रित किया जाता है, जो अधिनियम की धारा 2 में उल्लिखित “संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम” का पूरक है। इसके अलावा, अधिनियम की धारा 5 के अनुसार, विसंगति के समय, 1956 का अधिनियम “संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम” पर प्रभावी होगा।
“हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956” की धारा 4(b) के तहत एक संरक्षक को परिभाषित किया गया है। एक समावेशी परिभाषा प्रदान की गई है, जिसमें संरक्षक को नाबालिग, उसकी संपत्ति या दोनों की देखभाल करने वाला व्यक्ति बताया गया है। लेकिन यहां यह महत्वपूर्ण है कि जिन संपत्तियों के लिए संरक्षकों को नियुक्त किया जाता है या जिन पर उनकी शक्तियां होती हैं, उनमें संपत्ति में अविभाजित हिस्सा शामिल नहीं है। धारा 4(b) स्वयं संरक्षकों को दो भागों में विभाजित करती है।
जैसा कि हम देखते हैं, खंड (b) के तहत दत्तक (अडोपटेड) संरक्षकों का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। लेकिन माननीय बॉम्बे उच्च न्यायालय ने रतन और अन्य बनाम बिसन रामचंद्र परदेशी (1977) के मामले में, अधिनियम में संरक्षक शब्द की परिभाषा के संबंध में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया कि परिभाषा समावेशी है और एक दत्तक संरक्षक को अधिनियम के तहत भी संरक्षक माना जा सकता है। दत्तक संरक्षक के संबंध में संदर्भ नागरिक प्रक्रिया संहिता की आदेश 32 से भी लिया जा सकता है, जो यह प्रावधान करता है कि एक नाबालिग निकटतम मित्र के माध्यम से वाद दायर कर सकता है। इसके अलावा, पटना उच्च न्यायालय ने नारायण सिंह बनाम संपूर्णा कुँवर (1967) के मामले में दत्तक संरक्षक और इस तथ्य पर चर्चा की कि नाबालिग का निकटतम मित्र कुछ हद तक एक संरक्षक के समान होता है, हालांकि केवल उसी विशेष कानूनी कार्यवाही तक सीमित होता है जिसके लिए उसे नियुक्त किया गया है। हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 के अनुसार विभिन्न प्रकार के संरक्षकों को नीचे स्पष्ट किया गया है।
नाबालिग का प्राकृतिक संरक्षक
हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 के धारा 6 के अनुसार, प्राकृतिक संरक्षक मूल रूप से वे होते हैं जो नाबालिग, उसकी संपत्ति, या माता, पिता या पति जैसे दोनों के साथ प्राकृतिक संबंध (या तो रक्त संबंध या विवाह से बाहर रिश्तेदार) में होते हैं। सौतेले पिता और सौतेली माँ को नाबालिग का स्वाभाविक संरक्षक नहीं माना जाता है।
आइए देखें कि विभिन्न स्थितियों में प्राकृतिक संरक्षक कौन हैं:
लड़का/अविवाहित लड़की
लड़के या अविवाहित लड़की के मामले में, जैसा कि धारा 6(a) मे बताया गया है, पिता को प्राकृतिक संरक्षक माना जाता है, और पिता के बाद, माँ नाबालिग की प्राकृतिक संरक्षक होती है। धारा 6(a) के प्रावधान में स्पष्ट रूप से प्रावधान है कि 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चे के लिए मां प्राकृतिक संरक्षक होगी।
ऊपर प्रयुक्त ‘बाद’ शब्द की न्यायालयों द्वारा बार-बार व्याख्या की गई है। जीजाभाई विट्ठलराव गजरे बनाम पठानखान (1969) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा तथ्यों पर विचार किया गया कि पिता और माँ लगभग 10 वर्षों से अलग-अलग रह रहे थे, पिता को नाबालिग की जिंदगी में कोई दिलचस्पी नहीं थी, और बच्चे की देखभाल और सुरक्षा माँ के पास थी। इस तथ्य के बावजूद कि पिता अभी भी जीवित थे, मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, अदालत ने पिता को अस्तित्वहीन माना। इस प्रकार, अदालत ने माँ को प्राकृतिक संरक्षक माना, न कि पिता को।
इसके अलावा, गीता हरिहरन बनाम भारतीय रिज़र्व बैंक (1999), के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ‘बाद’ शब्द की व्याख्या की और माना कि बाद का मतलब जरूरी नहीं कि पिता के जीवनकाल के बाद हो। नाबालिग की अनुपस्थिति, त्याग, उसके मामलों के प्रति उदासीनता, नाबालिग की देखभाल करने में शारीरिक रूप से असमर्थता, या मानसिक अक्षमता, सभी को ‘बाद’ शब्द का हिस्सा माना जा सकता है। इसलिए, उपर्युक्त परिस्थितियों में, भले ही पिता जीवित हो, माँ को नाबालिग की प्राकृतिक संरक्षक माना जाएगा।
अब, आइए एक और परिस्थिति पर विचार करें। अगर कोई अविवाहित महिला बच्चे को जन्म दे तो क्या होगा? क्या वह उस बच्चे की स्वाभाविक संरक्षक हो सकती है?
एबीसी बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) (2015), के मामले में भी यही स्थिति माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष आई जहां अदालत ने सकारात्मक निर्णय दिया कि एक अविवाहित मां अपने बच्चे की प्राकृतिक संरक्षक हो सकती है। इसके अलावा, बच्चे के पिता को अनिवार्य नोटिस देने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह पहले ही महिला को अकेला छोड़ चुका है, और इसलिए कुछ भी नहीं बचा है। ऐसे मामले में माँ को प्राकृतिक संरक्षक कहा गया था।
नाजायज लड़का/नाजायज अविवाहित लड़की
धारा 6(b) अधिनियम में यह घोषित करती है कि नाजायज लड़के या अविवाहित लड़की का प्राकृतिक संरक्षक सबसे पहले माँ होती है और उसके बाद पिता। खास तौर पर इस्तेमाल किया गया लैटिन शब्द “फिलियस मैट्रिस” है, जिसका अर्थ है “माँ की संतान”। बॉम्बे उच्च न्यायालय ने धर्मेश वसंतराई शाह बनाम रेणुका प्रकाश तिवारी (2020) के मामले में फैसला सुनाया कि हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम की धारा 6(b) के तहत, माँ नाजायज लड़के या अविवाहित लड़की की प्राकृतिक संरक्षक होती है, और पिता का दावा माँ के बाद ही आता है। लेकिन, अदालत ने माँ को प्राथमिकता दिए जाने के नियम के दो अपवाद भी प्रस्तुत किए:
- यदि संरक्षकता का दावा करने वाला व्यक्ति हिंदू नहीं रह गया है तो प्राकृतिक संरक्षकता का दावा नहीं किया जा सकता है।
- यदि व्यक्ति ने पूरी तरह से और अंततः दुनिया को त्याग दिया है, एक साधु (वानप्रस्थ) या एक तपस्वी (यति या संन्यासी) बन गया है।
जब तक मामले में ऊपर उल्लिखित असाधारण परिस्थितियां मौजूद नहीं हैं, तब तक नाबालिग की मां के पास अपने नाजायज बच्चे की संरक्षकता का एक अपरिहार्य दावा है। पिता, मां के ऊपर नाबालिग की संरक्षकता या अभिरक्षा के अधिकार का दावा नहीं कर सकता।
विवाहित लड़की
जैसा कि नीचे दिया गया है धारा 6(c) पति को विवाहित लड़की का प्राकृतिक संरक्षक माना जाता है। धारा 12 प्रतिपाल्य अधिनियम में भी विवाहित लड़की की संरक्षकता पति के पास होने का संदर्भ है, लेकिन इसमें एक शर्त लगाई गई है कि शादी के समय नाबालिग लड़की के माता-पिता की सहमति ली जानी चाहिए।
गुजरात उच्च न्यायालय के समक्ष भी पटेल वेरभाई कालीदास बनाम गुजरात राज्य (1999) मामले में कुछ इसी तरह की स्थिति आई थी। इस मामले में नाबालिग लड़की के माता-पिता और उसके पति के बीच अभिरक्षा को लेकर झगड़ा चल रहा था। अदालत ने माना कि ऐसी परिस्थितियों में मुख्य विचार नाबालिग लड़की का कल्याण होना चाहिए। अदालत ने कहा कि सिर्फ इसलिए कि पति को हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 6 के खंड (c) के तहत प्राकृतिक संरक्षक माना जाता है, वह स्वतः ही विवाहित नाबालिग लड़की की अभिरक्षा का हकदार नहीं कहा जा सकता। मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार मामले को देखना होगा।
इसके अलावा, नाबालिग लड़की की शादी को कानूनी रूप से वैध विवाह नहीं कहा जा सकता, और साथ ही, पक्षों के बीच विवाह शून्य या रद्द करने योग्य भी नहीं हो सकता है। लेकिन ऐसे मामलों से निपटते समय कानून के प्रावधानों से निकलने वाली सार्वजनिक नीति, सार्वजनिक स्वास्थ्य और सार्वजनिक नैतिकता के गहरे पहलुओं को ध्यान में रखना होगा। अदालत ने नाबालिग लड़की के कल्याण का फैसला करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि चूंकि लड़की अपने माता-पिता के पास वापस नहीं जाना चाहती थी और अपने पति के साथ रहना भी एक व्यवहार्य विकल्प नहीं था, इसलिए माननीय अदालत ने उसे महिला कल्याण केंद्र को सौंपने का फैसला किया।
दत्तक पुत्र/पुत्री
अधिनियम की धारा 7 में यह प्रावधान है कि दत्तक पुत्र का प्राकृतिक संरक्षकता दत्तक पिता के पास जाती है और उसके बाद दत्तक माता के पास जाती है। इस धारा में दत्तक पुत्री का कोई उल्लेख नहीं है। इसी बात की ओर विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट संख्या 257 “भारत में संरक्षकता और अभिरक्षा कानूनों में सुधार” पर ध्यान दिलाया था। विधि आयोग ने कहा कि “इस धारा की भाषा असंगत प्रकृति की है क्योंकि यह केवल एक दत्तक पुत्र के प्राकृतिक संरक्षकता को संदर्भित करती है और दत्तक पुत्री को संदर्भित नहीं करती है। हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 उस समय लागू हुआ था जब सामान्य हिंदू कानून बेटी को गोद लेने को मान्यता नहीं देता था। इस प्रकार, अधिनियम के पारित होने के समय, बेटियों को गोद लेने की अनुमति केवल रिवाज के तहत थी, न कि संहिताबद्ध कानून के तहत। यह बताता है कि क्यों अधिनियम के मसौदा तैयार करने वालों ने केवल दत्तक पुत्रों की संरक्षकता को शामिल किया और बेटियों को गोद लेने की अनदेखी की। यह हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 से पहले भी अधिनियमित किया गया था, जिसने बेटी को गोद लेने की कानूनी स्थिति को वैधानिक रूप से ठीक किया था।”
इस प्रकार, धारा 7 की व्यापक व्याख्या की जानी चाहिए ताकि इसमें दत्तक पुत्रियों को भी शामिल किया जा सके।
प्राकृतिक संरक्षकों की शक्तियाँ
प्राकृतिक संरक्षक की शक्तियाँ हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम की धारा 8 निम्नलिखित के अंतर्गत प्रदान की गई है।
- एक प्राकृतिक संरक्षक नाबालिग के हित के लिए सभी आवश्यक, उचित और उपयुक्त कार्य कर सकता है। यह कार्य नाबालिग के व्यक्तिगत भले या नाबालिग की संपत्ति से संबंधित हो सकता है। लेकिन संरक्षक नाबालिग को किसी करार में बाध्य नहीं कर सकता।
- नाबालिग की किसी भी अचल संपत्ति या उसके किसी हिस्से को गिरवी रखने, उस पर भार डालने या उसे बेचकर, दान देकर या किसी अन्य तरीके से हस्तांतरित करने का अधिकार प्राकृतिक संरक्षक को नहीं है। अगर किसी प्राकृतिक संरक्षक को ऐसा करना है, तो उसे अदालत की सहमति लेनी होगी। पट्टे (लीज) के मामले में, संरक्षक अधिकतम पांच साल की अवधि के लिए ही पट्टा दे सकता है। ये पट्टा नाबालिग के वयस्क होने के एक साल बाद से अधिक मान्य नहीं होगी। उदाहरण के लिए, मान लीजिए आज A 16 साल का है। तो, A का संरक्षक उसकी संपत्ति को अधिकतम तीन साल के लिए पट्टा पर दे सकता है। हालांकि A दो साल में वयस्क हो जाएगा, लेकिन नाबालिग के वयस्क होने के बाद संरक्षक को एक साल का अतिरिक्त समय दिया जाता है।
एक अन्य स्थिति जिस पर ध्यान देने की आवश्यकता है, वह है जहाँ संरक्षक धारा 8(2) के उल्लंघन में नाबालिग की संपत्ति का निपटारा करता है। संरक्षक द्वारा संपत्ति का ऐसा निपटारा शून्य नहीं माना जाएगा, और इसका उल्लेख नारायण लक्ष्मण बनाम उदय कुमार (1994) के फैसले के माध्यम से किया जा सकता है। संरक्षक द्वारा किया गया ऐसा निपटारा नाबालिग के कहने पर रद्द किया जा सकता है, न कि शुरू से ही शून्य (वॉइड एब नीसीओ ) होगा। नाबालिग वयस्क होने के बाद ऐसे निपटारे या संपत्ति के हस्तांतरण को चुनौती दे सकता है, जहाँ अदालत की अनुमति नहीं ली गई थी। इसके अलावा, अदालत की सहमति के संबंध में, धारा 8(3) स्पष्ट रूप से प्रदान करती है कि अदालत संरक्षक को ऐसी अनुमति नहीं देगी, सिवाय दो परिस्थितियों के:
- नाबालिगों की आवश्यकता,
- अवयस्क को स्पष्ट लाभ।
हालाँकि, यह सुनिश्चित करना भी नाबालिग की जिम्मेदारी है कि वह कानून द्वारा प्रदान की गई सीमा अवधि के भीतर इस तरह के निपटान को चुनौती दे। सर्वोच्च न्यायालय ने विश्वंभर बनाम लक्ष्मीनारायण (2001) मामले में स्पष्ट रूप से यही बात कही है जहां सीमा अवधि बीत जाने के बाद जब नाबालिग द्वारा चुनौती दी गई तो कहा गया कि मुकदमा चलने योग्य नहीं है। परिसीमा (लिमिटेशन) अधिनियम, 1963 का प्रविष्टि 60 प्रतिपाल्य के संरक्षक द्वारा किए गए संपत्ति के हस्तांतरण को वयस्क प्रतिपाल्य द्वारा खारिज करने के लिए तीन साल की अवधि निर्धारित करता है, और अवधि की गणना उस तारीख से की जाती है जब प्रतिपाल्य वयस्क हो जाता है। मुरुगन बनाम केशव गौंडर (2019) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी यही दोहराया है।
इसके अलावा, प्राकृतिक संरक्षकों की सभी शक्तियां चली जाती हैं, यदि:
- वह हिंदू नहीं रहता
- वह पूरी तरह से संसार का त्याग कर देता है।
वसीयतनामा संरक्षक
हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम की धारा 9 नाबालिग के नियत संरक्षक को परिभाषित करती है। वसीयत के माध्यम से प्राकृतिक संरक्षक द्वारा नियुक्त संरक्षक एक नियत संरक्षक होता है। पहले, केवल नाबालिग का पिता ही अपनी वसीयत के माध्यम से संरक्षक नियुक्त कर सकता था और माँ को संरक्षक के रूप में अलग रख सकता था, लेकिन वर्तमान कानून में ऐसा नहीं है।
पिता के द्वारा नियुक्ति
धारा 9(1) के अनुसार, एक हिंदू पिता अपने वैध संतान के लिए वसीयत के माध्यम से एक नियत संरक्षक नियुक्त कर सकता है:
- नाबालिग व्यक्ति के लिए, या
- नाबालिग की संपत्ति के लिए, या
- संपत्ति और नाबालिग व्यक्ति दोनों के लिए।
माता द्वारा नियुक्ति
अधिनियम की धारा 9(2) के तहत वसीयत के माध्यम से माँ द्वारा संरक्षक नियुक्त करने की शक्ति दी गई है। नाबालिग की माँ, वसीयत के माध्यम से, एक संरक्षक नियुक्त कर सकती है, बशर्ते कि पिता की मृत्यु उसके पहले हो जाए।
आइए इस स्थिति को सरल बनाने के लिए एक उदाहरण लेते हैं। ‘A’, पिता, अपनी वसीयत के माध्यम से ‘X’ को संरक्षक के रूप में नियुक्त करता है। यदि पिता ‘A’ की मृत्यु माँ ‘B’ से पहले हो जाती है, तो ‘X’ संरक्षक नहीं होगा। ‘B’ माँ संरक्षक होगी। इसका कारण यह है कि वह प्राकृतिक संरक्षक है, और यह नियत संरक्षक पर हावी होगी। अब, खंड 2 के अनुसार, ‘B’ भी अपनी इच्छानुसार एक वसीयतनामा संरक्षक, मान लीजिए ‘Y’ को नियुक्त करने के लिए वसीयत बना सकती है। तो ऐसे मामले में ‘Y’ संरक्षक होगा। लेकिन अगर ‘B’ बिना किसी वसीयत के मर जाती है, तो ‘A’ द्वारा बनाई गई वसीयत पुनर्जीवित हो जाएगी, और ‘X’ नाबालिग का नियत संरक्षक होगा।
इसके अलावा, नाबालिग की माँ भी किसी भी शारीरिक या मानसिक अक्षमता के कारण धारा 9(3) के तहत पिता के संरक्षक के रूप में कार्य करने में असमर्थ होने पर वसीयत के माध्यम से एक नियत संरक्षक नियुक्त कर सकती है। धारा 9(3) के तहत एक हिंदू विधवा भी एक नियत संरक्षक नियुक्त कर सकती है। इसके अतिरिक्त, धारा 9(4) के अनुसार, माँ भी अपनी नाजायज संतान के लिए वसीयत के माध्यम से एक नियत संरक्षक नियुक्त कर सकती है।
वसीयतनामा संरक्षकों को हटाना/अयोग्य ठहराना
1956 का अधिनियम स्पष्ट रूप से उन आधारों को निर्दिष्ट नहीं करता है जिनके आधार पर संरक्षकों को अयोग्य ठहराया जा सकता है। लेकिन संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 39 स्पष्ट रूप से ऐसे आधार निर्धारित करता है। आधार इस प्रकार हैं:
- विश्वास का दुरुपयोग;
- अपने कर्तव्यों को निभाने में लगातार विफलता;
- अपने न्यास के कर्तव्यों को निभाने में असमर्थता;
- नाबालिग के साथ दुर्व्यवहार या उचित देखभाल करने में उपेक्षा;
- प्रतिपाल्य अधिनियम के किसी प्रावधान या न्यायालय के किसी आदेश की निरंतर अवहेलना;
- किसी ऐसे अपराध के लिए दोषी ठहराया जाना, जिसमें चरित्र का दोष निहित हो, जो उसे अपने प्रतिपाल्य का संरक्षक बनने के लिए अयोग्य बनाता है, और अदालत की भी यही राय है;
- अपने कर्तव्यों के निष्ठापूर्वक पालन में प्रतिकूल रुचि रखना;
- न्यायालय के अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमा के भीतर निवास करना बंद करना;
- दिवालियापन (संपत्ति का संरक्षक);
- जिस कानून के अधीन नाबालिग है, उसके तहत संरक्षक की संरक्षकता समाप्त हो रही है, या समाप्त होगी।
इसलिए, यदि कोई वसीयतनामा संरक्षक किसी भी आधार के अंतर्गत आता है, तो उस संरक्षक को किसी भी इच्छुक व्यक्ति के आवेदन पर अदालतों द्वारा हटाया या अयोग्य ठहराया जा सकता है, या अदालत अपने स्वयं के प्रस्ताव पर भी ऐसा कर सकती है।
वसीयतनामा संरक्षकों की शक्तियाँ
हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 धारा 9(5) द्वारा प्रदत्त वसीयतनामा संरक्षक की शक्तियों को सामने रखता है। यह प्रदान करता है कि वसीयतनामा संरक्षक की शक्तियां बिल्कुल प्राकृतिक संरक्षकों के समान है। लेकिन ये शक्तियां अधिनियम के साथ-साथ प्राकृतिक संरक्षकों द्वारा बनाई गई वसीयत द्वारा प्रतिबंधित हैं। वे नाबालिग की संपत्ति को अलग कर सकते हैं, लेकिन यह अदालत की सहमति से होना चाहिए और नाबालिग के लाभ के लिए भी होना चाहिए। परन्तु धारा 9(6) के अंतर्गत ये शक्तियां और वसीयतनामा संरक्षकता एक नाबालिग लड़की के विवाह के बाद उसके मामले में समाप्त हो जाती है।
प्रमाणित संरक्षक
हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 के तहत कोई विशिष्ट धारा नहीं है, जो प्रमाणित संरक्षकों के बारे में बात करती हो। प्रमाणित संरक्षक मूलतः न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक होते हैं। धारा 7 प्रतिपाल्य अधिनियम स्पष्ट रूप से अदालत को नाबालिग व्यक्ति, संपत्ति या दोनों के लिए संरक्षक नियुक्त करने की शक्ति देता है। ऐसी नियुक्ति का आधार न्यायालय की संतुष्टि है कि नियुक्ति नाबालिग के कल्याण के लिए होगी। इसके अतिरिक्त, धारा 15 में ऐसे मामलों का प्रावधान है जहां नाबालिग की अलग-अलग संपत्तियों के लिए अलग-अलग संरक्षक हैं।
अधिनियम में धारा 19 उन परिस्थितियों का भी उल्लेख किया गया है जिनके तहत अदालतों को संरक्षकों की नियुक्ति नहीं करनी चाहिए, और ये इस प्रकार हैं:
- ऐसे मामलों में जहां पति संरक्षक बनने के लिए अयोग्य है, उसे नाबालिग विवाहित महिला के लिए संरक्षक के रूप में नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए।
- ऐसे मामले में जहां पिता और मां दोनों जीवित हैं, लेकिन संरक्षक बनने के लिए अयोग्य हैं, उन्हें नाबालिग महिला के लिए संरक्षक के रूप में नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए।
- ऐसे नाबालिग का संरक्षक जिसकी संपत्ति प्रतिपाल्य न्यायालय के पर्यवेक्षण (सुपरिन्टेन्डेनसी) के अधीन है।
तथ्यतः (डी फैक्टो) संरक्षक
हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 के तहत वास्तविक संरक्षक की कोई विशिष्ट परिभाषा प्रदान नहीं की गई है। लेकिन सामान्य शब्दों में, जो व्यक्ति लंबे समय तक अपने प्यार और स्नेह से नाबालिग की देखभाल करता है, वह तथ्यतः संरक्षक होता है।
1956 के अधिनियम से पहले, वास्तविक संरक्षकों के पास प्राकृतिक संरक्षक के समान संपत्ति हस्तांतरित करने का समान अधिकार था। हनुमान प्रसाद पांडे बनाम मुसुमत बाबूई मुनराज कूनवेरी (1856) 6 एमआईए 393, के मामले में न्यायालय द्वारा अपनाए गए रुख से यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है, कि वास्तविक और वैध संरक्षक के बीच कोई अंतर नहीं है।
एक प्रश्न उठता है: क्या यह कहना सही होगा कि 1956 के अधिनियम द्वारा वास्तविक संरक्षक की मान्यता रद्द कर दी गई है? जवाब है नहीं। 1956 का अधिनियम वास्तविक संरक्षकों की मान्यता रद्द नहीं करता है। इसके बजाय, धारा 11 ने संपत्ति के अधिकार छीन लिए हैं। नतीजतन, एक वास्तविक संरक्षक अब किसी नाबालिग की संपत्ति का प्रबंधन नहीं कर सकता है।
एस्सक्कयाल नादर बनाम माइकल नादर श्रीधरन बाबू और अन्य (1991), के मामले में केरल उच्च न्यायालय, ने यह माना कि यदि कोई वास्तविक संरक्षक नाबालिग की संपत्ति को अलग कर देता है, तो ऐसा लेनदेन बिल्कुल शून्य होगा। संपतिग्राही (एलियनी) एक अतिचारी (इंटरपोलर) या घुसपैठिए के बराबर होगा।
संयुक्त परिवार की संपत्ति में नाबालिग के अविभाजित हित का संरक्षक
1956 के अधिनियम की धारा 12 के अनुसार, कर्ता को ऐसी संपत्ति की देखभाल करने के लिए कहा जाता है। लेकिन यदि नाबालिग एकमात्र जीवित सहदायिक है, तो संरक्षक की नियुक्ति की जा सकती है। रखमाबाई काचू बनाम सिताबाई काचू (1951) के निर्णय से भी इसका उल्लेख किया जा सकता है। जहां बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना कि अविभाजित संयुक्त परिवार की संपत्ति के एकमात्र जीवित सहदायिक के मामले में, एक संरक्षक नियुक्त किया जा सकता है। इसके अलावा, उच्च न्यायालय को धारा 12 के तहत संरक्षक नियुक्त करने की अपार शक्ति दी गई है।
संरक्षक की नियुक्ति के लिए सर्वोपरि विचार
किसी नाबालिग के लिए संरक्षक नियुक्त करने का मूलभूत लेकिन सर्वोपरि विचार नाबालिग की भलाई और कल्याण है। 1956 के अधिनियम की धारा 13 के तहत यही प्रावधान किया गया है। कल्याण एक व्यापक शब्द है जिसमें नाबालिग के धन, देखभाल और मानसिक एवं भावनात्मक समर्थन को शामिल किया जाता है।
संरक्षकता कोई पवित्र अधिकार नहीं है। नाबालिग का संरक्षकता, चाहे वह नाबालिग के माता-पिता के संबंध में हो या विवाहित नाबालिग के पति के संबंध में हो, नाबालिग का कल्याण सर्वोपरि है।
रोज़ी जेकब बनाम जेकब चक्रमक्कल (1973) में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि निर्धारित करने वाला विचार नाबालिग की भलाई है, माता-पिता के अधिकार नहीं। इसके अलावा, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अमित बेरी बनाम शीतल बेरी (2002) मामले में माना कि धन ही एकमात्र चिंता या एकमात्र विचार नहीं है। बड़ी तस्वीर को देखना होगा। अगर मां शराबी है और उसका नाइट क्लब जाने का नियम है। नाबालिग के संरक्षक का फैसला करने से पहले इस पर भी विचार किया जाना चाहिए।
नील रत्न कुंडू बनाम अभिजीत कुंडू (2008) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि, “नाबालिगों की अभिरक्षा के संबंध में एक कठिन और जटिल प्रश्न का निर्णय करते समय, कानून की अदालत को प्रासंगिक विधियों और उनसे प्राप्त होने वाले अधिकारों को ध्यान में रखना चाहिए। लेकिन ऐसे मामलों का फैसला केवल कानूनी प्रावधानों की व्याख्या करके नहीं किया जा सकता है। यह एक मानवीय समस्या है और इसे मानवीय स्पर्श के साथ हल करने की आवश्यकता है। अभिरक्षा के मामलों से निपटने के दौरान, अदालत न तो विधियों से बाध्य है, न ही साक्ष्य या प्रक्रिया के सख्त नियमों से, न ही पूर्ववर्ती निर्णयों से। नाबालिग के उचित संरक्षक का चयन करते समय, सर्वोपरि विचार नाबालिग का कल्याण और भलाई होना चाहिए। संरक्षक का चयन करते समय, अदालत पेरेंस पैटरीआई अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करती है और उससे यही उम्मीद की जाती है, कि बच्चे के सामान्य आराम, संतोष, स्वास्थ्य, शिक्षा, बौद्धिक विकास और अनुकूल परिवेश को उचित महत्व दिया जाए। लेकिन शारीरिक सुख के अलावा, नैतिक और मूल्यों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वे समान रूप से महत्वपूर्ण हैं, या हम कह सकते हैं, और भी अधिक महत्वपूर्ण, आवश्यक और अनिवार्य विचार हैं। यदि नाबालिग एक बुद्धिमान निर्णय लेने के लिए काफी बड़ा है, तो अदालत को उस पसंद पर भी विचार करना चाहिए, हालांकि अंतिम निर्णय अदालत के पास होना चाहिए कि नाबालिग के कल्याण के लिए क्या अनुकूल है।”
वही बात माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने थर्टी होशी डोलीकूका बनाम होशियम शावकक्षा डोलीकूका (1982), मौसमी मोइत्रा गांगुली बनाम जयंत गांगुलीम (2008) और कई अन्य मामलों में दोहराई है कि नाबालिग का कल्याण सर्वोपरि विचार है और कुछ नहीं।
इसके अतिरिक्त, प्रतिपाल्य अधिनियम के धारा 17 मे संरक्षक की नियुक्ति से पहले ध्यान में रखी जाने वाली कुछ बातों को रेखांकित करता है। किसी नाबालिग के संरक्षक की नियुक्ति या घोषणा करते समय, अदालतों को निम्नलिखित कारकों द्वारा निर्देशित या ध्यान में रखना चाहिए ताकि यह देखा जा सके कि क्या इससे नाबालिग का कल्याण होगा:
- नाबालिग की उम्र, लिंग और धर्म,
- प्रस्तावित संरक्षक का चरित्र और क्षमता और नाबालिग के साथ उसके रिश्तेदारों की निकटता,
- मृत माता-पिता की इच्छाएँ,
- प्रस्तावित संरक्षक के नाबालिग या उसकी संपत्ति के साथ मौजूदा या पिछले संबंध,
- नाबालिग की प्राथमिकता, यदि वह बुद्धिमान प्राथमिकता बनाने के लिए पर्याप्त उम्र का है,
- संरक्षक के रूप में कार्य करने की संरक्षक की इच्छा।
इस प्रकार, अदालतों द्वारा संरक्षक की नियुक्ति का निर्णय लेते समय नाबालिग का कल्याण सर्वोपरि है।
मुस्लिम कानून के तहत नाबालिग की संरक्षकता
मुस्लिम कानून के तहत संरक्षकता की अवधारणा हिंदू कानून की तरह संहिताबद्ध नहीं है। यह कुरान से संदर्भ लेता है। पैगंबर की कुछ आयतों और हदीसों में संरक्षकता का उल्लेख है। आइए मुस्लिम कानून के तहत संरक्षकता की अवधारणा को दो शीर्षकों में विभाजित करके समझें।
अवयस्क की संपत्ति का संरक्षक
नाबालिग की संपत्ति पर संरक्षकता का अधिकार मुख्य रूप से पिता का होता है। लेकिन ऐसी अलग-अलग परिस्थितियां हो सकती हैं जहाँ अन्य संरक्षकों को या तो प्राकृतिक संरक्षक द्वारा स्वयं नियुक्त किया जा सकता है या नाबालिग के लाभ के लिए अदालतों द्वारा नियुक्त किया जा सकता है।
नाबालिग की संपत्ति के संबंध में संरक्षकों को चार शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है।
प्राकृतिक संरक्षक
जैसा कि प्राकृतिक शब्द स्वयं को परिभाषित करता है, इसका अर्थ है संरक्षक जो रक्त संबंधों से निर्मित होते हैं। शिया और सुन्नी दोनों ही नाबालिग की संपत्ति के लिए माता को नहीं बल्कि ‘पिता’ को प्राकृतिक संरक्षक के रूप में मान्यता देते हैं। इसलिए, माताएं नाबालिग की संपत्ति को अलग नहीं कर सकतीं। माँ के संरक्षक होने का सवाल ही नहीं उठता, कम से कम तब जब पिता जीवित हो। पिता को सर्वोच्च संरक्षक माना जाता है। हालांकि, पिता के अधिकार केवल वैध बच्चों तक ही सीमित हैं। प्राचीन इस्लामी कानून के अनुसार, पिता नाजायज बच्चों की संरक्षकता के हकदार नहीं हैं, यहाँ तक कि उन मामलों में भी जहां मां की मृत्यु पिता से पहले हो जाती है।
सुन्नियों में, पिता ही एकमात्र प्राकृतिक संरक्षक होते हैं। पिता की मृत्यु के बाद संरक्षकता उसके द्वारा नियुक्त निष्पादक के पास चली जाती है। जबकि शियाओं में पिता के बाद संरक्षकता दादा और फिर नियुक्त निष्पादक के पास चली जाती है।
वसीयतनामा संरक्षक
जिन संरक्षकों को वसीयत के माध्यम से नियुक्त किया जाता है, उन्हें वसीयतनामा संरक्षक कहा जाता है।
पिता द्वारा नियुक्ति
सुन्नियों में, पिता के पास वसीयतनामा संरक्षक नियुक्त करने की पूरी शक्ति होती है। यदि किसी पिता की मृत्यु संरक्षक नियुक्त किए बिना हो जाती है तो दादा को ऐसी नियुक्ति करने का अधिकार है। निष्पादकों (एक्जिक्यूटर) के लिए कोई अधिकार नहीं है।
जबकि शियाओं में, यदि पिता एक वसीयतनामा संरक्षक नियुक्त करता है और दादा को छोड़कर मर जाता है, तो ऐसी स्थिति में, दादा के जीवित रहने तक ऐसी नियुक्ति का कोई महत्व नहीं होगा। दादाजी को भी ऐसी नियुक्ति करने की शक्ति प्रदान की गई है।
माँ द्वारा नियुक्ति
सुन्नियों और शियाओं दोनों में, एक मां के पास अपने बच्चों के लिए वसीयतनामा संरक्षक नियुक्त करने की कोई शक्ति नहीं है। हालांकि, इसके अपवाद भी हैं। जो इस प्रकार हैं:
- जहां मां को स्वयं वसीयतनामा संरक्षक (निष्पादक) के रूप में नियुक्त किया गया है
- जहां मां के पास अपनी संपत्ति है तो उस स्थिति में वह अपनी निजी संपत्ति के लिए निष्पादक नियुक्त कर सकती है।
- ये दो परिस्थितियाँ हैं जहाँ एक माँ एक वसीयतनामा संरक्षक नियुक्त कर सकती है या एक हो सकती है।
शियाओं में, गैर-मुस्लिम माताएं किसी भी मामले में वसीयतनामा संरक्षक नियुक्त नहीं कर सकती हैं। जबकि सुन्नियों में, एक गैर-मुस्लिम मां असाधारण परिस्थितियों में एक वसीयतनामा संरक्षक के लिए नियुक्ति कर सकती है, जैसा कि ऊपर बताया गया है।
वसीयतनामा संरक्षक के रूप में किसे नियुक्त नहीं किया जा सकता है?
फतवा-ए-आलमगीरी के अध्याय IV में प्रावधान है कि:
- अवयस्क (वह व्यक्ति जिसने वयस्कता प्राप्त नहीं की हो),
- पागल व्यक्ति।
उक्त लोगों को वसीयतनामा संरक्षक के रूप में नियुक्त नहीं किया जा सकता। यदि उन्हें नियुक्त किया जाता है, तो उनके द्वारा किया गया कोई भी कार्य शून्य प्रकृति का माना जाएगा। इसके अलावा न्याय शास्त्रियों की यह भी मान्यता है कि किसी भी कुख्यात (बुरे चरित्र वाला) व्यक्ति को संरक्षक नियुक्त नहीं किया जा सकता। यही बात वसीयतकर्ता पर भी लागू होती है। वसीयत निष्पादित करते समय वसीयतकर्ता को अपनी इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण रखना चाहिए।
वसीयतनामा संरक्षक की नियुक्ति कैसे की जाती है?
वसीयतनामा संरक्षक को मौखिक रूप से या लिखित वसीयत द्वारा नियुक्त किया जा सकता है। अंतर्निहित तत्व यह है कि उस व्यक्ति विशेष को नियुक्त करने का स्पष्ट इरादा होना चाहिए।
फतवा-ए-आलमगीरी के अध्याय VI में स्पष्ट रूप से प्रावधान है कि स्वीकृति वसीयतकर्ता संरक्षक की ओर से होनी चाहिए। स्वीकृति स्पष्ट या परोक्ष रूप से की जा सकती है। एक बार स्वीकृति मिल जाने के बाद, अदालत की अनुमति के बिना इसे छोड़ा नहीं जा सकता।
प्रमाणित संरक्षक
न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक प्रमाणित संरक्षक कहलाते हैं। यदि प्राकृतिक और वसीयती संरक्षक दोनों मौजूद नहीं हैं, तो काजी नाबालिग के लिए एक उचित संरक्षक नियुक्त करता था। आधुनिक समय में, काज़ियों का स्थान अदालतों ने ले लिया है। संरक्षकों की नियुक्ति संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के तहत की जाती है। अधिनियम के तहत संरक्षक की नियुक्ति के लिए प्रमुख विचार जिन पर अदालतें विचार करती हैं, वे हैं:
- बच्चे का लिंग,
- बच्चे का धर्म,
- माता-पिता और बच्चों की इच्छा,
- पिता और माता की स्थिति।
जिला अदालतें प्रमाणित संरक्षक की नियुक्ति के संबंध में निर्णय लेती हैं। इन विचारों के अलावा, बच्चे के कल्याण को सर्वोपरि महत्व दिया जाता है।
तथ्यतः संरक्षक (फ़िज़ुली)
तथ्यतः संरक्षक मुस्लिम कानून के तहत एक मान्यता प्राप्त प्रकार का संरक्षक है। जो लोग करीबी दोस्त या दूर के रिश्तेदार हैं या जिनका लंबे समय से संबंध रहा है, उन्हें नाबालिगों के संरक्षक के रूप में नियुक्त किया जाता है।
प्रिवी काउंसिल के द्वारा, माता दीन बनाम शेख अहमद अली (1912), के मामले में यह माना गया कि वास्तविक संरक्षक एक अनधिकृत संरक्षक के अलावा और कुछ नहीं है। एक वास्तविक संरक्षक के पास नाबालिग की देखभाल करने और उसके लिए जिम्मेदार होने के सभी कर्तव्य हैं, लेकिन उनके पास नाबालिग की संपत्ति को अलग करने की कोई कानूनी शक्ति नहीं है। इमामबंदी बनाम शेख हाजी मुत्सद्दी (1918), के मामले में भी यही दोहराया गया है, जिसमें यह बताया गया था कि मुस्लिम कानून के तहत, एक वास्तविक संरक्षक के पास किसी नाबालिग की संपत्ति को हस्तांतरित करने की कोई शक्ति नहीं है, और यदि स्थानांतरण किया जाता है, तो वह शून्य होगा। मो. आमीन बनाम वकील अहमद (1952), के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा स्पष्ट रूप से माना गया कि वास्तविक संरक्षक के पास अचल संपत्ति में कोई अधिकार या हित व्यक्त करने की कोई शक्ति नहीं है। इसके अलावा, अधिकार को नाबालिग के खिलाफ लागू नहीं किया जा सकता है, और ऐसा अलगाव प्रकृति में शून्य होगा।
प्राकृतिक और वसीयतनामा संरक्षकों की शक्तियाँ
प्राकृतिक और वसीयतनामा संरक्षकों की शक्तियाँ इस प्रकार हैं:
अलगाव की शक्ति
चल और अचल संपत्ति पर संरक्षकों के पास अलग-अलग शक्तियां होती हैं। चल संपत्ति के मामले में, अचल संपत्ति की तुलना में अलगाव की शक्तियां बहुत व्यापक हैं। शक्तियों की सीमा में अंतर का मूल कारण इस तर्क से समझा जा सकता है कि अधिकांश चल संपत्तियां समय के साथ नष्ट हो सकती हैं, और ऐसी वस्तुओं को बेचकर उन्हें धन के रूप में संरक्षित किया जा सकता है।
चल संपत्ति
किसी संरक्षक द्वारा चल संपत्ति की बिक्री को तभी उचित ठहराया जा सकता है जब:
- बदले में संरक्षक को पर्याप्त प्रतिफल (कंसीडरेशन) मिलता है।
- प्राप्त धन को किसी लाभकारी स्थान पर निवेश किया जाता है।
- बेची जा रही चल संपत्ति से जुड़ा जोखिम उचित और उचित होना चाहिए।
यहां सवाल यह उठता है कि क्या नाबालिग वयस्क होने के बाद चल संपत्ति की बिक्री से बच सकता है। प्रश्न का उत्तर यह है कि एक नाबालिग निम्नलिखित मामलों में वयस्कता की आयु प्राप्त करने के बाद चल संपत्ति की बिक्री को रद्द कर सकता है:
- जहां फर्जी तरीके से बिक्री की गई है।
- जहां प्रतिफल की घोर अपर्याप्तता है,
- जहां नाबालिग को स्पष्ट नुकसान हो या बिक्री बच्चे के हित के लिए हानिकारक हो।
इसलिए, वयस्क होने के बाद बच्चे की इच्छा पर संरक्षक द्वारा बिक्री शून्यकरणीय है। हालांकि, यदि संरक्षक अदालत में यह साबित कर देता है कि अलगाव प्रकृति में प्रामाणिक था और उचित देखभाल के साथ किया गया था, तो अलगाव को अमान्य करार दिए जाने से बचाया जा सकता है।
अचल संपत्ति
किसी नाबालिग की अचल संपत्ति को हस्तांतरित करने की संरक्षक की शक्ति कुछ हद तक सीमित है। फतवा-ए-आलमगीरी का अध्याय VI, आयत 222-240 उन मामलों का प्रावधान करता है जहां नाबालिग की अचल संपत्ति की बिक्री वैध है। ये मामले निम्नलिखित हैं:
- जब अलगाव से संपत्ति का दोगुना मूल्य प्राप्त हो सकता है,
- जब बिक्री स्पष्ट रूप से किसी अवयस्क के लाभ/पक्ष में हो,
- जब संपत्ति से होने वाली आय उसके रखरखाव पर होने वाले खर्च से कम हो
- जहां नाबालिग की संपत्ति को आसन्न खतरा हो, यानी सड़ने या नष्ट होने का खतरा हो,
- जहां किसी अतिक्रमी द्वारा संपत्ति हड़प ली गई हो
- जहां वसीयतकर्ता का ऋण अवैतनिक रह गया हो
- जहां वसीयत में विरासत के भुगतान जैसे सामान्य प्रावधान उल्लेखित है
- जहां नाबालिग के पास भरण-पोषण का कोई अन्य स्रोत नहीं है
मीथियान सिद्दीकी बनाम मोहम्मद कुंजू (1996) के मामले में, इस मुद्दे से निपटते समय कि क्या पिता को नाबालिग की संपत्ति को अलग करने का अधिकार है, अदालत ने संपत्ति को अलग करने के पिता के अधिकार की पुष्टि की। लेकिन साथ ही, उन्होंने बताया कि एक मां के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं है जब तक कि उसे निष्पादक के रूप में नियुक्त नहीं किया जाता है।
पट्टे पर देने की शक्ति
मुस्लिम कानून किसी नाबालिग की संपत्ति को संरक्षक द्वारा पट्टे पर देने के पक्ष में नहीं है। पट्टा केवल तभी दिया जा सकता है जब:
- यह नाबालिगों के लिए फायदेमंद है और
- यह लंबे समय तक नहीं होना चाहिए।
मद्रास उच्च न्यायालय, ज़ीबुन्निसा बेगम बनाम श्रीमती एच.बी. दानाघेर (1935), के मामले में यह माना गया कि संरक्षक किसी नाबालिग की संपत्ति को केवल तभी पट्टे पर दे सकता है जब वह नाबालिग के लाभ के लिए हो, और पट्टा केवल थोड़े समय के लिए होना चाहिए और किसी भी स्थिति में, बच्चे के अप्राप्तवयता होने से परे नहीं होना चाहिए।
व्यवसाय जारी रखने की शक्ति
संरक्षकों को नाबालिगों की ओर से व्यवसाय चलाने का अधिकार है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि उसे उचित विवेक के साथ अपना व्यवसाय चलाना चाहिए। बशर्ते कि व्यवसाय सट्टेबाजी या खतरनाक प्रकृति का नहीं होना चाहिए।
फतवा-ए-आलमगीरी में प्रावधान है कि निष्पादकों को नाबालिग की संपत्ति को साझेदारी में निवेश करने का अधिकार है, बशर्ते ऐसी साझेदारी नाबालिग के पक्ष में हो और प्रकृति में सट्टा या खतरनाक मोल भाव नहीं होनी चाहिए।
बॉम्बे उच्च न्यायालय, जाफ़राली भालू लाखा बनाम दक्षिण अफ़्रीका का स्टैंडर्ड बैंक (1927) के मामले में, यह माना गया कि यद्यपि संरक्षक को नाबालिग की ओर से साझेदारी में प्रवेश करने का अधिकार है, नाबालिग का दायित्व केवल साझेदारी में उसके हिस्से की सीमा तक होगा, और किसी भी मामले में नाबालिग को व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता है। यदि कोई नाबालिग और संरक्षक मिलकर कोई व्यवसाय चलाते हैं, तो उनके दोनों खाते अलग-अलग होने चाहिए।
ऋण लेने की शक्ति
कोई संरक्षक किसी नाबालिग के नाम पर ऋण नहीं ले सकता। केवल विशेष परिस्थितियों में, जब किसी नाबालिग का जीवन प्रभावित हो रहा हो, ऋण का अनुबंध किया जा सकता है। यदि नाबालिग के लिए कोई आवश्यकता नहीं है, तो संरक्षक द्वारा लिया गया कोई भी ऋण नाबालिग पर बाध्यकारी नहीं होगा।
अनुबंध करने की शक्ति
एक संरक्षक नाबालिग की ओर से अनुबंध में प्रवेश कर सकता है। श्री काकुलम सुब्रह्मण्यम बनाम के.सुब्बा राव (1948) के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने भी यही व्यवस्था दी है। माननीय न्यायालय ने माना कि नाबालिग की ओर से संरक्षक द्वारा किया गया अनुबंध विशेष रूप से नाबालिग के खिलाफ लागू करने योग्य है, बशर्ते कि संरक्षक ने नाबालिग के लाभ की दृष्टि से अनुबंध में प्रवेश किया हो। नाबालिग के वयस्क होने पर उस पर अनुबंध के संबंध में मुकदमा चलाया जा सकता है।
बंटवारा करने की शक्ति
प्राकृतिक और वसीयतनामा संरक्षकों के पास विभाजन करने की शक्ति नहीं है। यदि संरक्षक ऐसा करता है तो ऐसा बंटवारा बिल्कुल शून्य होगा। यदि किसी संपत्ति के उत्तराधिकारी वयस्क और नाबालिग दोनों हैं, तो वयस्कों को उनका हिस्सा दिया जाएगा, और बाकी (नाबालिग का हिस्सा) संरक्षक स्वयं रखेगा।
प्रमाणित संरक्षकों की शक्तियाँ
संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890, न्यायालयों द्वारा नियुक्त संरक्षकों की सामान्य शक्तियाँ और दायित्व प्रदान करता है। अधिनियम के धारा 27 में एक सामान्य नियम दिया गया है कि संरक्षक को संपत्ति के साथ ऐसे व्यवहार करना चाहिए जैसे कि वह उचित विवेक के साथ अपनी संपत्ति के साथ व्यवहार कर रहा हो। प्रमाणित संरक्षकों के पास नाबालिग की संपत्ति को हस्तांतरित करने की शक्ति है, लेकिन अधिनियम के धारा 29 और धारा 31 के तहत कुछ प्रतिबंध और सीमाएँ प्रदान की गई है। धारा 29 के तहत, संरक्षक को नाबालिग की संपत्ति को हस्तांतरित करने की शक्ति नहीं दी गई है:
- बिक्री, पट्टा, बंधक, शुल्क, या उपहार,
- बच्चे के वयस्क होने के बाद 5 वर्ष से अधिक और 1 वर्ष से अधिक की अवधि के लिए संपत्ति पट्टे पर नहीं दी जा सकती।
धारा 31 संपत्ति के हस्तांतरण के संबंध में सख्त प्रतिबंध लगाती है, जिसमें ऐसा करने के लिए अदालत की सहमति जरूरी है। इसके अलावा, नाबालिग के लाभ को सर्वोच्च प्राथमिकता के रूप में देखा जाएगा।
नाबालिग व्यक्ति का संरक्षक (हिजानत)
नाबालिग की हिजानत (संरक्षण) मां की होती है। यह एक सामान्य नियम है जिस पर नाबालिग के व्यक्ति की संरक्षकता कायम रहती है। यदि कोई सुन्नी पुरुष किताबिया महिला से शादी करता है और विवाह से बच्चा पैदा होता है, तो किताबिया महिला के पास हिजानत के सभी अधिकार होंगे। अगर कोई महिला अपने पति से अलग हो गई है तो भी उसे हिजानत का अधिकार है।
प्राचीन इस्लामी कानून के तहत, धर्म त्याग के कारण माताओं से हिजानत का अधिकार छीन लिया गया। हालांकि, जाति निःशक्तता निवारण अधिनियम, 1850, के आगमन के साथ माँ के हिजानत के अधिकार को प्रभावित करने वाली धर्म त्याग की अवधारणा को हटा दिया गया।
हिजानत मां का पूर्ण अधिकार नहीं है। हालांकि, साथ ही, माँ को हिजानत के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता जब तक कि वह किसी गंभीर कदाचार की दोषी न हो। ऐसी स्थिति का एक उदाहरण तब हो सकता है जब माँ बच्चे से पूरी तरह अनभिज्ञ हो और उसकी देखभाल नहीं करती हो।
यहां सवाल यह उठता है कि क्या बेटे और बेटी के मामले में मां का हिजानत का हक बराबर है? इस प्रश्न का उत्तर नहीं है। बेटी पर मां का हिजानत का हक बेटे से कहीं ज्यादा बड़ा है और बाप और शौहर के हक से भी बड़ा है।
बेटें
सुन्नियों, हनफियों और शफीयों के अनुसार, एक माँ अपने बेटे की देखभाल तब तक पाने की हकदार है जब तक कि वह सात साल का न हो जाए।
मलिकिस के अनुसार, माँ का अधिकार तब तक रहता है जब तक कि बेटा यौवन प्राप्त नहीं कर लेता।
जबकि शियाओं में यह अधिकार तभी तक है जब तक बेटा मां का दूध पी रहा हो या उसका दूध छुड़ा दिया गया हो।
बेटियां
सुन्नियों के अनुसार, माँ का अधिकार उसके यौवन प्राप्त करने तक विस्तारित होता है।
मलिकिस, शफ़ीस और हनबालिस में, हिजानत की मां का अधिकार तब तक मौजूद रहता है जब तक कि बेटी की शादी नहीं हो जाती।
जबकि शियाओं, खासकर इथना अशरिस में बेटी पर मां का हिजानत का अधिकार तब तक होता है जब तक वह सात साल की न हो जाए।
यहां एक और सवाल उठता है कि क्या हिजानत की मां के अधिकार वैध और नाजायज दोनों बच्चों के लिए समान हैं। इस प्रश्न का उत्तर हां है। मां के हिजानत का अधिकार वैध और नाजायज दोनों बच्चों के लिए समान है। इसके अलावा, हिजानत का अधिकार एक गैर-हस्तांतरणीय अधिकार है; इसे केवल कुछ मामलों में ही वापस लिया जा सकता है।
यदि मां मर गई या पागल हो गई तो हिजानत का अधिकार किसको मिलेगा?
मुल्ला के अनुसार, अगर नाबालिग की मां की मृत्यु हो जाती है या बच्चे की देखभाल करने के लिए मानसिक रूप से अयोग्य हो जाती है, तो हिजानत का अधिकार अलग-अलग लोगों पर आ जाता है।
हनाफ़ि में, माँ के बाद: माँ की माँ→पिता की माँ → सगी बहन → गर्भाशय (यूटेरिन) बहन → रक्त संगिनी (कनसांगुइन) बहन → पूर्ण बहन की बेटी → गर्भाशय बहन की बेटी → रक्त संगिनी बहन की बेटी → मातृ बहन {सभी महिलाएं}
शियाओं में माँ के बाद: पिता → दादा
परन्तु अमीर अली के अनुसार दादा को हिजानत का अधिकार नहीं है; बल्कि, पिता के बाद, यह दादी और उसके आरोही और संपार्श्विक हैं जिनके पास नाबालिग के हिजानत का अधिकार है।
हिजानत के पिता का अधिकार
हिजानत पर पिता का अधिकार केवल दो मामलों में उत्पन्न होता है:
- जहां नाबालिग ने केवल इतनी ही उम्र हासिल की हो, वहां मां को हिजानत का अधिकार है।
- जहां परिवार में कोई मां या महिला न हो.
पिता के साथ हिजानत का यह अधिकार बच्चे के यौवन प्राप्त करने तक की अवधि तक ही सीमित है।
हनफ़ी में, पिता को नाबालिग के लिए हिजानत का अधिकार नहीं है। माँ के बाद, अधिकार दादाजी → सागा भाई → रक्तसंग भाई → साग भाई का पुत्र इत्यादि को जाता है। {सभी पुरुष}
किन परिस्थितियों में माँ हिजानत पर अपना अधिकार खो देती है?
- पागलपन
- अप्राप्तवयता
- एक महिला (हाज़िना, या संरक्षक) एक पूर्ण अजनबी से शादी करती है। इस बात पर सभी विचारधारा एकमत हैं। लेकिन अगर कोई महिला बच्चे के चाचा से शादी करती है, तो हिजानत का अधिकार बना रहता है।
- हाज़िना का दुर्व्यवहार एक और आधार है। यदि महिला व्यभिचारी रिश्ते में है, बच्चे की लगातार उपेक्षा की जा रही है, माँ की ओर से यौन दुर्व्यवहार किया जा रहा है, या बच्चे के साथ क्रूरता की जा रही है।
- हाज़िना द्वारा बच्चों को हटा देना दूसरा कारण है। एक बच्चे को वैवाहिक घर में बड़ा करना पड़ता है। यदि बच्चे को बिना किसी विशेष कारण के वैवाहिक घर से निकाल दिया जाता है, तो हिजानत खो जाती है। लेकिन यदि माँ निम्नलिखित कारणों से बच्चे को दूर ले जा रही है, तो ये एक अपवाद के रूप में कार्य करेंगे:
- जब माँ कामकाजी हो और उसके लिए वैवाहिक घर में रहना असंभव हो
- जहां मां को पिता से अलग कर दिया गया है और वो भी पिता की गलती की वजह से।
ईसाई कानून के तहत एक नाबालिग की संरक्षकता
ईसाई दृष्टिकोण से संरक्षकता को उन लोगों के जीवन पर प्रबंधन कहा जा सकता है जो स्वयं की रक्षा करने में असमर्थ हैं। बाइबल बताती है, “कमज़ोरों और अनाथों की रक्षा करो; गरीबों और पीड़ितों के हितों को कायम रखें।” बाइबल के इस आदेश को संरक्षकता के ईसाई दृष्टिकोण के लिए मूलभूत माना जाता है, जो देशवासियों को जरूरतमंद लोगों के लिए रक्षक और वकील के रूप में कार्य करने के लिए मार्गदर्शन करता है।
अन्य धर्मों के विपरीत, ईसाइयों के बीच संरक्षकता से संबंधित कोई विशिष्ट व्यक्तिगत कानून नहीं है। वे केवल संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 द्वारा शासित होते हैं। ईसाई कानून के संबंध में एबीसी बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) (2015), एक ऐतिहासिक निर्णय है जहां एक ईसाई नाबालिग की संरक्षकता का फैसला किया गया और पिता के नाम का खुलासा किए बिना एक एकल ईसाई मां को दे दिया गया। संरक्षकों की सभी नियुक्तियां, अधिकार और कर्तव्य संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम से प्राप्त होते हैं।
पारसी कानून के तहत नाबालिग की संरक्षकता
ईसाई कानून के समान, पारसियों की संरक्षकता से संबंधित कोई विशिष्ट कानून नहीं है। इसे अक्सर हिंदू नियमों और रीति-रिवाजों से प्रभावित माना जाता है। हालांकि, पारसियों में संरक्षकता “संरक्षक और नाबालिग अधिनियम” (संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम) द्वारा नियंत्रित होता है। अदालतों द्वारा किए गए अवलोकनों से इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
कलकत्ता उच्च न्यायालय ने जहांगीर मानाजी मेहता बनाम नीना जहांगीर मेहता (1970) के मामले में बताया कि “पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936” और “संरक्षक और नाबालिग अधिनियम, 1890” को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए। माननीय न्यायालय ने, यह तय करते समय कि पारसी कानून के तहत संरक्षकता का अधिकार किसके पास है, ‘कानूनी अभिरक्षा’ शब्द को मामले के तथ्यों के अनुसार अदालत के आदेश के तहत या किसी व्यक्तिगत कानून के तहत अभिरक्षा के रूप में परिभाषित किया। अदालत ने कहा कि कोई भी पारसी व्यक्तिगत कानून पिता या माता को बच्चों की अभिरक्षा का कानूनी अधिकार प्रदान नहीं करता है। दूसरी ओर, धारा 49 अदालत को बच्चों की अभिरक्षा, भरण-पोषण और शिक्षा के संबंध में आदेश पारित करने की एकमात्र शक्ति प्रदान करती है। धारा 49 केवल बच्चों की अभिरक्षा तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसके दायरे में भरण-पोषण और शिक्षा के लिए आदेश पारित करने के लिए अदालतों की शक्तियां भी शामिल हैं। अदालत ने उस संभावना को भी सामने रखा जहां नाबालिग लड़की के पति को अभिरक्षा दी जा सकती है यदि वह नाबालिग का भरण-पोषण करने और उसकी शिक्षा के लिए भुगतान करने के लिए आर्थिक रूप से पर्याप्त रूप से मजबूत है।
इसी तरह, “संरक्षक और नाबालिग अधिनियम” की धारा 9, 10, 17, 24, और 25 को एक साथ पढ़ते हुए, यह कहा गया कि नाबालिग के संरक्षक की नियुक्ति करते समय, अदालत को यह संतुष्ट होना चाहिए कि ऐसी नियुक्ति नाबालिग के कल्याण के लिए की गई है। अदालत ने देखा कि पारसी समुदाय के सदस्य भी “संरक्षक और नाबालिग अधिनियम” द्वारा शासित होते हैं, और नाबालिग के संरक्षक की नियुक्ति के अंतर्निहित सिद्धांतों को “पारसी विवाह और तलाक अधिनियम” के तहत बच्चों की अभिरक्षा के बारे में निर्णय लेने में अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। जब किसी व्यक्ति को नाबालिग के संरक्षक के रूप में नियुक्त किया जाता है, तो स्वाभाविक रूप से उसे अपने पालन-पोषण, देखभाल और सुरक्षा के संबंध में प्रतिपाल्य की अभिरक्षा का अधिकार होता है। अदालत ने माना कि “पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 की धारा 49 अदालत को अभिरक्षा, भरण-पोषण और शिक्षा के संबंध में आदेश पारित करने का व्यापक विवेक प्रदान करती है, लेकिन इस तरह के विवेक के प्रयोग में, अदालत का सर्वोपरि विचार बच्चों का कल्याण है”।
इस प्रकार, पारसी कानून के तहत संरक्षकता को एक सीधा हल नहीं कहा जा सकता जिसे हर जगह लागू किया जा सकता है। अदालतें, परिस्थितियों के आधार पर, “संरक्षक और नाबालिग अधिनियम” और “पारसी विवाह अधिनियम” को लागू करती हैं।
राष्ट्रीय न्यास अधिनियम, 1999 के तहत संरक्षकता
अगर हम नाबालिग के लिए संरक्षक नियुक्त करने के पीछे के तर्क को देखें, तो यह उसकी खुद की और अपनी संपत्ति की देखभाल करने में उसकी अक्षमता है। कुछ ऐसी ही स्थिति उन लोगों के साथ भी है जो ऑटिज्म, सेरेब्रल पाल्सी, मानसिक मंदता और बहुविकलांगता से पीड़ित हैं। वे नाबालिगों के साथ-साथ 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने के बाद भी एक विशेष स्थिति में होते हैं। वे अपना जीवन और संपत्ति संभालने के लिए दूसरों पर निर्भर होते हैं। इसलिए, इस अधिनियम का प्रमुख उद्देश्य 18 वर्ष से कम या उससे अधिक उम्र के विकलांग व्यक्तियों के लिए संरक्षकता के संबंध में मौजूद कानूनी खामी को दूर करना और उनकी मदद करना है ताकि वे अपने संरक्षकों की मदद से अपने लिए सूचित निर्णय ले सकें।
ऑटिज़्म, सेरेब्रल पाल्सी, मानसिक मंदता और एकाधिक विकलांगता वाले व्यक्तियों के कल्याण के लिए राष्ट्रीय ट्रस्ट अधिनियम, 1999, की धारा 14(3) इसे एक आवश्यकता-आधारित प्रावधान कहा जा सकता है क्योंकि इसमें दो संकेत दिए गए हैं जिनका उत्तर संरक्षक नियुक्त होने से पहले दिया जाना चाहिए:
- क्या विकलांग व्यक्ति को संरक्षक की आवश्यकता है और
- वे उद्देश्य जिनके लिए विकलांग व्यक्ति के लिए संरक्षकता की आवश्यकता होती है।
संरक्षकों की नियुक्ति राष्ट्रीय न्यास अधिनियम के धारा 14 के द्वारा की जाती है, इसका विवरण नीचे दिया गया है। प्रक्रिया नीचे बताई गई है:
- संरक्षकता के लिए आवेदन प्राप्त करें,
- माता-पिता या रिश्तेदार से (धारा 14(1) के तहत),
- संरक्षक के रूप में अपनी पसंद के किसी भी व्यक्ति की नियुक्ति के लिए।
2. एक पंजीकृत संगठन से (धारा 14(2) के तहत)
- निर्धारित प्रपत्र में आवेदन,
- विकलांग व्यक्ति के संरक्षक की सहमति अवश्य प्राप्त करें।
3. आवेदन पर विचार करें (धारा 14(3) के तहत):
- मूल्यांकन करें कि क्या विकलांग व्यक्ति को संरक्षक की आवश्यकता है।
- उन उद्देश्यों को निर्धारित करें जिनके लिए संरक्षकता की आवश्यकता है।
4. आवेदनों पर प्रक्रिया करें और निर्णय लें (धारा 14(4) के अंतर्गत)।
- आवेदन प्राप्त करें
- प्राप्त आवेदनों पर कार्यवाही करें।
- आवेदनों पर निर्णय लें
- नियुक्ति की अनुशंसा करें और संरक्षक के दायित्वों को निर्दिष्ट करें।
5. समिति को विवरण भेजें (धारा 14(5) के अंतर्गत) विनियमों द्वारा निर्धारित अंतराल पर।
जिलाधिकारी की अध्यक्षता वाली स्थानीय स्तर समिति, राष्ट्रीय न्यास नियम, 2000 के नियम 16(1) के तहत फॉर्म A में आवेदन प्राप्त करने और नियम 16(2) के तहत फॉर्म B में संरक्षक नियुक्त करने के लिए अधिकृत है। आत्मकेंद्रित विकृति, सेरेब्रल पाल्सी, मानसिक मंदता और बहु विकलांग व्यक्तियों के लिए, यह उनकी संपत्ति सहित ऐसे लोगों के हितों की रक्षा और उनकी रक्षा के लिए एक तंत्र भी निर्धारित करता है।
धारा 17 अधिनियम संरक्षकों को हटाने की प्रक्रिया और उन आधारों को निर्धारित करता है जिन पर उन्हें हटाया जा सकता है। प्रक्रिया इस प्रकार है:
- संरक्षक को हटाने के लिए आवेदन प्राप्त करें:
- माता-पिता या रिश्तेदार से,
- एक पंजीकृत संगठन से।
2. एक जांच दल की नियुक्ति जिसमें शामिल हैं:
- मूल संगठन के प्रतिनिधि,
- विकलांगों के लिए संगठन के प्रतिनिधि और
- सरकारी अधिकारी (सहायक निदेशक रैंक या उससे ऊपर)।
3. शिकायत की जांच करें कि शिकायत, संरक्षक हटाने के किस आधार के अंतर्गत आती है:
- किसी विकलांग व्यक्ति का एकान्त कारावास,
- किसी विकलांग व्यक्ति को जंजीर से बांधना,
- यौन शोषण,
- बुनियादी जरूरतों (भोजन, पानी, कपड़े) से लंबे समय तक वंचित रहना,
- पुनर्वास (रिहैबिलिटेशन) या प्रशिक्षण कार्यक्रमों का अनुपालन न करना,
- किसी व्यक्ति की संपत्ति का दुरुपयोग,
- पर्याप्त सुविधाओं या प्रशिक्षित कर्मचारियों का अभाव,
- पीटना या चोट पहुंचाना या त्वचा/ऊतक (बॉडी) को क्षति पहुंचा (खुद को पहुंचाई गई चोटों को छोड़कर)।
4. 10 दिन के भीतर रिपोर्ट प्रस्तुत करें।
5. स्थानीय स्तर की समिति रिपोर्ट प्राप्त करती है।
6. स्थानीय स्तर की समिति 10 दिनों के भीतर निर्णय लेती है।
- निम्नलिखित मापदंडों के आधार पर प्रस्तावित संरक्षक का आकलन करना:
- भारत के नागरिक,
- मानसिक रूप से अस्वस्थ न हो/मानसिक बीमारी का इलाज न करा रहा हो,
- आपराधिक दोषसिद्धि का कोई इतिहास नहीं,
- निराश्रित या प्रतिपाल्य नहीं,
- दिवालिया घोषित नहीं किया गया हो।
- संस्थान/संगठन का आकलन (यदि लागू हो):
- राज्य/केंद्र सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त,
- विकलांगता पुनर्वास सेवाओं में न्यूनतम 2 वर्ष का अनुभव,
- आवासीय सुविधा/छात्रावास (स्थान, कर्मचारी, फर्नीचर, पुनर्वास, चिकित्सा सुविधाएं) के लिए मानकों को पूरा करता है।
- बोर्ड-निर्दिष्ट दिशानिर्देशों का अनुपालन करता है।
- संरक्षक को सुनवाई का अवसर दिया जाता है।
- फिर स्थानीय स्तर की समिति अपना निर्णय देती है:
- संरक्षक को हटाने की मंजूरी दें और कारण लिखित में दर्ज करें या
- आवेदन को अस्वीकार करें और कारण लिखित में दर्ज करें।
इसलिए, 1999 का यह अधिनियम विकलांग लोगों के जीवन को थोड़ा आसान बनाने और उनके जीवन में एक संरक्षक की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित करने की दिशा में एक बड़ा कदम है, भले ही उनकी उम्र 18 वर्ष से अधिक हो। यदि हम संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 और राष्ट्रीय ट्रस्ट अधिनियम, 1999 की तुलना करते हैं, तो बाद वाले अधिनियम में संरक्षकों की नियुक्ति के संबंध में प्रतिबंध तुलनात्मक रूप से कड़े हैं। लेकिन दोनों के बीच बड़ा अंतर यह है कि राष्ट्रीय ट्रस्ट अधिनियम के तहत, संरक्षकों की नियुक्ति सीमित समय के लिए की जाती है, ताकि विशेष आवश्यकता वाले लोगों को किसी विशिष्ट उद्देश्य या विशिष्ट समय सीमा के लिए मदद मिल सके।
नाबालिग की संरक्षकता पर ऐतिहासिक मामले
गीता हरिहरन बनाम भारतीय रिजर्व बैंक (1999)
मामले के तथ्य
इस मामले में, नाबालिग की मां ने अपने नाबालिग बच्चे के नाम पर राहत बांड खरीदने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक में आवेदन दायर किया। लेकिन बैंक ने मां के हस्ताक्षर के तहत ऐसा करने से इनकार कर दिया और पिता को हस्ताक्षरकर्ता बनने के लिए कहा या याचिकाकर्ता (माँ) को सक्षम प्राधिकारी से संरक्षकता का प्रमाण लाने के लिए कहा। ये तथ्य रिट याचिका के रूप में सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचे।
उठाये गए मुद्दे
मुद्दा यह था कि क्या हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 6A और संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 19(b) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन है?
मामले का फैसला
निर्णय लेने के दौरान, अदालत ने ‘संरक्षक’ शब्द की परिभाषा पर गौर किया और यह माना कि इसमें बच्चे के दोनों माता-पिता शामिल हैं। धारा 6(a) में आने वाले शब्द को भी यही अर्थ दिया जाना चाहिए; अन्यथा, यह विधायी इरादे से हिंसक के समान होगा। इसके अलावा, अदालत ने इस तथ्य पर ध्यान दिया कि लैंगिक समानता हमारे संविधान के मूल सिद्धांतों में से एक है, और यदि ‘बाद’ शब्द को पिता के जीवनकाल के दौरान माँ के संरक्षक के रूप में कार्य करने की अयोग्यता के रूप में पढ़ा जाना है, तो यह निश्चित रूप से संवैधानिक जनादेश की बुनियादी आवश्यकताओं के विरुद्ध होगा और लिंग के बीच भेदभाव को जन्म देगा। अदालत का मत था कि ‘बाद’ शब्द को एक ऐसा अर्थ देना होगा जो अधिनियम के प्रमुख विचार, यानी नाबालिग के कल्याण की पूर्ति करे। ‘बाद’ शब्द का मतलब जरूरी नहीं कि पिता की मृत्यु के बाद हो; बल्कि इसे ‘पिता की अनुपस्थिति में’ के रूप में पढ़ा जाना चाहिए।
एबीसी बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) (2015)
मामले के तथ्य
अपीलकर्ता मां चाहती थी कि उसके बेटे को उसकी सभी बचत और अन्य बीमा पॉलिसियों के लिए उसका नामांकित व्यक्ति नियुक्त किया जाए। इसलिए, अपीलकर्ता ने उसी दिशा में सभी आवश्यक कदम उठाए। हालांकि, उनसे कहा गया था कि उन्हें अपने बच्चे के पिता का नाम घोषित करना होगा या अदालत से संरक्षकता या गोद लेने का प्रमाण पत्र प्राप्त करना होगा। इसलिए, अपीलकर्ता ने यह घोषित करने के लिए संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 7 के तहत एक आवेदन दायर किया कि अपीलकर्ता बेटे का एकमात्र संरक्षक है।
उठाए गए मुद्दे
क्या एक ईसाई अविवाहित मां को उसके बच्चे का संरक्षक नियुक्त किया जा सकता है?
मामले का फैसला
माननीय न्यायालय ने कुछ महत्वपूर्ण उत्तर दिये। सबसे पहले, अदालत ने माना कि 1956 अधिनियम की धारा 6(b) के तहत एक अविवाहित मां को उसके बच्चे के संरक्षक के रूप में नियुक्त किया जा सकता है,और कथित पिता को नोटिस भेजने की कोई आवश्यकता नहीं है।
दूसरा, अदालत ने माना कि बच्चे को विद्यालय में प्रवेश दिलाने के साथ-साथ नाबालिग बच्चे के लिए पासपोर्ट प्राप्त करने के लिए आवेदन में पिता का नाम बताना अब आवश्यक नहीं है। हालांकि, अदालत ने कहा कि इन दोनों मामलों में, जन्म प्रमाण पत्र प्रस्तुत करना अभी भी आवश्यक हो सकता है। और जन्म प्रमाण पत्र जारी करने के संबंध में, इसे मां को जारी किया जा सकता है, बशर्ते अदालत द्वारा कोई विपरीत निर्देश जारी न किया गया हो।
तीसरा, पहले की तरह कई बार पहले के फैसलों में अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि नाबालिग का कल्याण अत्यंत महत्वपूर्ण है और माता-पिता के अधिकार कभी भी नाबालिग के अधिकारों पर हावी नहीं हो सकते।
माधेगौड़ा कानूनी प्रतिनिधि द्वारा बनाम अंकेगौड़ा कानूनी प्रतिनिधि द्वारा (2001)
मामले के तथ्य
इस मामले में, जब प्रतिवादी, श्रीमती सकाम्मा नाबालिग थीं, उनकी बहन, श्रीमती मडम्मा ने उनकी वास्तविक संरक्षक के रूप में काम किया। प्रतिवादी के विवाह के लिए धन इकट्ठा करने के लिए, श्रीमती मडम्मा ने प्रतिवादी की संपत्ति के हिस्से को दिनांक 24.4.1961 के एक पंजीकृत विक्रय विलेख द्वारा अपीलकर्ता, श्री माधेगौड़ा को बेच दिया। अपीलकर्ता को संपत्ति का कब्जा दे दिया गया था, और वह कब्जे में बना रहा। श्रीमती सकाम्मा ने वयस्क होने के बाद अपनी संपत्ति के हिस्से को अंकेगौड़ा को बेच दिया। अब विवाद खड़ा हो गया है कि प्रतिवादी की संपत्ति के कब्जे का अधिकार किसको है।
उठाए गए मुद्दे
वास्तविक संरक्षक नाबालिग की संपत्ति को हस्तांतरित कर सकता है या नहीं?
मामले का फैसला
माधेगौड़ा कानूनी प्रतिनिधि द्वारा बनाम अंकेगौड़ा कानूनी प्रतिनिधि द्वारा (2001) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षक अधिनियम, 1956 की धारा 11 और 12 से संबंधित निर्णय देते हुए माना कि वास्तविक संरक्षक के पास नाबालिग की संपत्ति को अलग करने की शक्ति नहीं होती है। अदालत ने माना कि धारा 11 हर व्यक्ति को केवल वास्तविक संरक्षक होने के आधार पर नाबालिग की संपत्ति से निपटने से रोकती है। ऐसे अलगाव का हस्तांतरी किसी भी संपत्ति में कोई हित नहीं प्राप्त करता है। और यही कारण है कि इस तरह के लेन-देन को रद्द करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके अलावा, माननीय अदालत ने देखा कि नाबालिग, वयस्क होने पर, किसी भी समय, जैसे ही अवसर आता है, हस्तांतरण को अस्वीकार कर सकता है। वयस्क होने के बाद, यदि नाबालिग संपत्ति में अपने हित को किसी को भी विधिपूर्वक हस्तांतरित करता है, यह घोषणा करते हुए कि उसके पास संपत्ति का पूरा शीर्षक है, इसका मतलब है कि नाबालिग ने वास्तविक संरक्षक द्वारा किए गए हस्तांतरण को अस्वीकार कर दिया है।
अतहर हुसैन बनाम सैयद सिराज अहमद (2010)
मामले के तथ्य
इस मामले में अपीलकर्ता, अतहर ने 31 मार्च, 1993 को इस्लामिक संस्कारों और रीति-रिवाजों के अनुसार, प्रतिवादी नंबर 1 की बेटी उम्मे असमा से शादी की। विवाह से दो बच्चे पैदा हुए: अथिया अली और अयान अली। माँ, उम्मे अस्मा, अपने पीछे एक 13 वर्षीय और एक 5 वर्षीय बच्चे को छोड़कर मर गई। अपीलकर्ता ने 25 मार्च, 2007 को जवाहर सुल्ताना से दोबारा शादी की। नाना ने याचिका दायर की कि बच्चों के कल्याण के लिए बच्चों की अभिरक्षा उन्हें दी जाए।
उठाये गये मुद्दे
क्या संरक्षक की नियुक्ति की कार्यवाही लंबित रहने के दौरान नाबालिग की अंतरिम अभिरक्षा पिता के अलावा किसी अन्य व्यक्ति को दी जाएगी।
मामले का फैसला
इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय,ने ‘अभिरक्षा’ और ‘संरक्षकता’ के बीच सूक्ष्म अंतर को समझा। हालांकि मामले में सवाल संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम के तहत एक बच्चे के संरक्षक की नियुक्ति के संबंध में था, माननीय अदालत ने कहा कि एक अदालत के पास पिता के अलावा किसी अन्य संरक्षक को नियुक्त करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है, लेकिन अंतरिम अभिरक्षा किसी अन्य को दी जा सकती है। उस समय के लिए व्यक्ति जहां संरक्षक की नियुक्ति की कार्यवाही लंबित है। मौजूदा मामले में, अंतरिम अभिरक्षा नाना को दी गई।
अदालत ने कहा कि अभिरक्षा का सवाल संरक्षकता के सवाल से अलग है। एक ही समय में दो स्थितियाँ हो सकती हैं। पिता बच्चों का स्वाभाविक संरक्षक बना रह सकता है। हालाँकि, बच्चे के कल्याण से संबंधित विचार यह संकेत दे सकते हैं कि नाबालिग की कानूनी अभिरक्षा किसी अन्य दोस्त या रिश्तेदार के पास होनी चाहिए, क्योंकि यह बेहतर और उसके सर्वोत्तम हित में होगा। इसके अलावा, नाबालिग की अभिरक्षा के सवाल पर निर्णय लेने के मामले में संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम की धारा 19 द्वारा अदालतों पर रोक नहीं है।
निष्कर्ष
हर्बर्ट हूवर ने ठीक ही कहा है, “बच्चे मानव जाति का सबसे पवित्र हिस्सा हैं, सबसे प्यारे, क्योंकि वे भगवान के हाथों से सबसे ताजा हैं”। कुछ ही शब्दों में, एक बच्चे के सच्चे सार को लिख दिया गया है। बच्चों के कल्याण और उनकी सभी जरूरतों को पूरा करने के लिए एक संरक्षक या देखभालकर्ता होना जरूरी है।
पूरे लेख में, हमने भारत में प्रचलित संरक्षकता से संबंधित विभिन्न कानूनों को देखा है। कुछ जगहों पर माताओं को नाबालिग का संरक्षक बनने का अधिकार दिया जाता है, वहीं कुछ जगहों पर अधिकार सिर्फ पिता या परिवार के पुरुषों तक ही सीमित होता है। माननीय अदालतों ने पूर्व निर्णय पेश करके कानूनों की व्याख्या को सरल और व्यापक बना दिया है। लेकिन फिर भी, धर्मनिरपेक्ष कानूनों में सुधार और संशोधन की गुंजाइश है ताकि उन्हें और अधिक संतुलित बनाया जा सके और माताओं और परिवार की महिलाओं को स्वयं संरक्षक बनने या नाबालिग के लिए संरक्षक नियुक्त करने का अधिकार दिया जा सके।
भारतीय विधि आयोग ने अपनी 133वीं रिपोर्ट में कहा है कि, “हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षक अधिनियम की धारा 6(a) में निहित प्रावधान अत्यंत अनुचित और अन्यायपूर्ण हैं और बदलते समय के साथ अप्रासंगिक और अप्रचलित हो गए हैं।”
गीता हरिहरन बनाम भारतीय रिजर्व बैंक जैसे मामलों में अदालतों द्वारा किए गए टिप्पणियों को व्यावहारिक उपयोग में लाने की आवश्यकता है। अदालत ने स्पष्ट रूप से बताया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत माताओं को पिताओं से अधिक वरीयता देना लिंग के आधार पर स्पष्ट भेदभाव है।
संशोधन के लिए एक अन्य स्थान संरक्षकता से संबंधित धर्मों के लिए एक समान कोड हो सकता है। एक जनहित याचिका, अश्विनी कुमार उपाध्याय बनाम भारत संघ (2020), में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित है, जहां अदालत यह निर्णय करेगी कि क्या गोद लेने और संरक्षकता संबंधी कानून समान प्रकृति के होने चाहिए (चाहे एक समान नागरिक संहिता लागू होनी चाहिए), इसमें शामिल व्यक्तियों के धर्म या लिंग की अवहेलना करते हुए।
एकरूपता लाना एक कार्य की तरह लग सकता है, लेकिन ईसाइयों और पारसियों को नियंत्रित करने वाले कानूनों में विधायी अंतर को भरने की सख्त जरूरत है। इस अंतर को भरकर बहुत सारे न्यायिक भ्रम और तकनीकी बाधाओं को दूर किया जा सकता है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
संरक्षकता का उद्देश्य क्या है?
संरक्षकता का मुख्य उद्देश्य बच्चे का कल्याण है। कल्याण केवल शारीरिक कल्याण तक ही सीमित नहीं है बल्कि भावनात्मक और बौद्धिक कल्याण भी है। एक संरक्षक की नियुक्ति की जाती है ताकि नाबालिग की संपत्ति की देखभाल की जा सके।
क्या भारत में संरक्षकता को नियंत्रित करने वाला एक समान कानून है?
नहीं, भारत में संरक्षकता को नियंत्रित करने वाला कोई समान कानून नहीं है। अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग कानून है। हिंदू हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 द्वारा शासित होते हैं, जबकि मुसलमानों के पास संरक्षकता का कोई संहिताबद्ध कानून नहीं है, लेकिन यह कुरान से संदर्भ लेता है। ऐसे कोई विशिष्ट क़ानून नहीं हैं जो संरक्षकता को नियंत्रित करते हैं, विशेष रूप से ईसाइयों और पारसियों के लिए, लेकिन उन्हें संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के तहत निपटाया जाता है।
क्या किसी नाबालिग को संरक्षक नियुक्त किया जा सकता है?
किसी भी धर्मनिरपेक्ष कानून के तहत नाबालिगों को संरक्षक के रूप में नियुक्त नहीं किया जा सकता है। संदर्भ हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 10 से लिया जा सकता है। हालांकि, धारा 21 संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम में प्रावधान है कि एक नाबालिग अपनी नाबालिग पत्नी या बच्चे के लिए संरक्षक के रूप में कार्य कर सकता है, या ऐसे मामलों में जहां वह हिंदू अविभाजित परिवार का प्रबंध सदस्य है। ये दोनों प्रावधान परस्पर विरोधी प्रतीत हो सकते हैं, लेकिन न्यायालय ने भूडी जैनर बनाम धोबाई नाइक (1957) मामले में माना गया कि दोनों प्रावधानों के बीच कोई विरोधाभास नहीं है क्योंकि धारा 21 व्यक्ति की संरक्षकता से संबंधित है, जबकि धारा 10 नाबालिग की संपत्ति की संरक्षकता से संबंधित है। इस प्रकार, वे स्वभाव से परस्पर विरोधी नहीं हैं और इसलिए सह-अस्तित्व में रह सकते हैं।
क्या यह अनिवार्य है कि प्रत्येक विकलांग व्यक्ति के लिए एक कानूनी संरक्षक नियुक्त किया जाए?
यह अनिवार्य नहीं है कि प्रत्येक विकलांग व्यक्ति के लिए एक कानूनी संरक्षक नियुक्त किया जाए, लेकिन राष्ट्रीय न्यास अधिनियम, 1999 के अनुसार, ऐसा करना उन लोगों की भलाई के लिए फायदेमंद है जो अपनी और उनकी संपत्ति की देखभाल करने में अक्षम हैं। यह एक व्यापक परिप्रेक्ष्य देता है और 18 वर्ष से ऊपर के व्यक्ति को भी अपनी देखभाल के लिए किसी को रखने का अवसर देता है।
क्या संरक्षकता और अभिरक्षा एक ही अवधारणा है, या वे अलग-अलग हैं?
संरक्षकता और अभिरक्षा दो अलग अवधारणाएँ हैं। संरक्षकता की तुलना में अभिरक्षा एक बहुत ही संकीर्ण अवधारणा है। संरक्षकता उन अधिकारों और कर्तव्यों से संबंधित है जो एक वयस्क या संरक्षक के पास नाबालिग के व्यक्ति या संपत्ति के प्रति होते हैं। जबकि अभिरक्षा केवल बच्चे की दैनिक देखभाल, सुरक्षा और पालन-पोषण तक ही सीमित है। माननीय बॉम्बे उच्च न्यायालय, तुकाराम गढ़वे बनाम सुमनबाई वामनराव गोंडकर (2007), मामले में माना गया कि अभिरक्षा की अवधारणा शारीरिक नियंत्रण से संबंधित है, जबकि संरक्षकता न्यासधारित के बारे में है। एक संरक्षक नाबालिग के लिए सरंक्षक के रूप में कार्य करता है।
संदर्भ
- https://blog.ipleaders.in/guardianship-child-different-personal-laws/
- https://papers.ssrn.com/sol3/papers.cfm?abstract_id=3579286
- https://blog.ipleaders.in/overview-of-the-hindu-minority-and-guardianship-act-1956/
- https://thenationaltrust.gov.in/content/innerpage/guardianship.php#:~:text=A%20guardian%20is%20a%20person,the%20property%20of%20the%20world।
- https://www.scobserver.in/cases/ashwini-kumar-upadhay-union-of-india-uniform-adoption-and-guardianship-case-background/
- https://www.scconline.com/blog/post/2019/11/25/custody-of-children/#_ftnref1