अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण

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Indian Constitution
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यह लेख Dhruv Vatsyayan द्वारा लिखा गया है। वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, लॉ स्कूल से बीएएलएलबी कर रहें है। इस लेख में, उन्होंने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 पर विशेष ध्यान देने के साथ अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण (प्रोटेक्शन इन रेस्पेक्ट ऑफ कनविक्शन फॉर ऑफेंसेस) के प्रावधानों (प्रोविजन) पर चर्चा की है। इस लेख का अनुवाद Archana Chaudhary द्वारा किया गया है।

परिचय (इंट्रोडक्शन)

हमारे दैनिक जीवन में हर दिन, हम विभिन्न समाचार रिपोर्टें देखते हैं जहां किसी पर किसी अपराध का आरोप लगाया जाता है।

मूल (बेसिक) प्रश्न जो प्रत्येक कानूनी उत्साही के सामने आता है, वह यह है कि क्या आरोपियों के लिए किसी प्रकार के मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट्स) या संरक्षण हैं या जिन्हें मुकदमे के लिए कोर्ट्स के सामने पेश किया जाना है।

संविधान के निर्माण के समय हमारे महान संविधान निर्माताओं को भी इसी प्रश्न और दुविधा (डिलेमा) का सामना करना पड़ा होगा। इस प्रकार, उसी से निपटने के लिए, अनुच्छेद 20 को भारतीय संविधान के भाग III में शामिल किया गया था।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 में खंड (क्लॉज) 3 हैं, जो अपराधों के लिए दोषिसिद्ध के संबंध में  संरक्षण प्रधान करता है। 

सरल अर्थ में, ये तीन खंड विधायिका (लेजिस्लेचर), कार्यपालिका (एक्जीक्यूटिव) और कार्यान्वयन अधिकारियों (इंप्लीमेंटिंग अथॉरिटीज) द्वारा अनावश्यक और अवांछनीय कार्यों (अनडिजायरेबल एक्शन) के मुद्दे से संबंधित हैं।

इन प्रावधानों की मूल जड़ हैं:

  1. यह स्थापित करता है कि अपराध के कमीशन के समय लागू कानून का उल्लंघन करने वालों के अलावा किसी अन्य अपराध के लिए किसी को भी दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए और साथ ही, एक्ट के कमीशन के समय मौजूद सजा से अधिक सजा नहीं दी जा सकती है।
  2. तथ्यों के एक ही सेट से जुड़े एक ही अपराध के लिए किसी को भी एक से अधिक बार दोषी और दंडित नहीं किया जा सकता है।
  3. किसी को भी ऐसे सबूत और जानकारी पेश करने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए जो उसके खिलाफ अक्षम ज्यूडिशियल ट्रिब्यूनल के परीक्षण (ट्रायल) के दौरान इस्तेमाल किया जा सकता है।

अनुच्छेद 20 भारतीय संविधान के उन अनुच्छेदों में से एक है, जिसे आपातकाल (इमरजेंसी) के दौरान भी अलग नहीं रखा जा सकता है। इस प्रकार, भारतीय संविधान की आधारशिला (कॉर्नरस्टोन) है।

अब, आइए भारतीय आपराधिक न्यायशास्त्र (इंडियन क्रिमिनल ज्यूरिस्प्रूडेंस) के तीन कानूनी सिद्धांतों (डॉक्ट्राइन) का एक सर्वेक्षण (सर्वे) करें, जो अनुच्छेद 20 के तीन खंडों को दर्शाता है, यानि एक्स-पोस्ट फैक्टो कानून, दोहरे खतरे का सिद्धांत (डॉक्ट्राइन ऑफ डबल जियोपार्डी) और आत्म-अपराध के खिलाफ निषेध (प्रोहिबीशन अगेंस्ट सेल्फ-इंक्रिमिनेशन)।

एक्स पोस्ट फैक्टो कानून के खिलाफ प्रावधान: अनुच्छेद 20 का खंड (1)

विचाराधीन प्रावधान, यानी अनुच्छेद 20 (1) कहता है कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए तब तक दोषसिद्ध नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि उसने ऐसा कोई कार्य करने के समय, जो अपराध के रुप में आरोपित है, किसी प्रवृत्त विधि (लॉ इन फोर्स) का अतिक्रमण (इंक्रोचमेंट) नहीं किया है या उससे अधिक शास्ति का भागी नहीं होगा जो उस अपराध के किए जाने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन अधिरोपित (इंपोज्ड) की जा सकती थी।

यह प्रावधान आपराधिक अपराधों से संबंधित कानूनों के पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) कार्यान्वयन की संभावना को नकारता है। सरल शब्दों में, यह प्रावधान आपराधिक प्रकृति वाले कानून के पूर्वव्यापी कार्यान्वयन को निषिद्ध (प्रोहिबित) करके कानून के विधायी विशेषाधिकार (लेजिस्लेटिव प्रीरोगेटिव) को रोकता है।

उदाहरण: मान लीजिए कि महाराष्ट्र के धामन गांव में काला जादू करने वाला भैरव सुर्वे नाम का एक व्यक्ति 20 दिसंबर 2012 को अपने इलाके के एक बच्चे की हत्या कर देता है। बाद में, दिसंबर 2013 में, महाराष्ट्र की विधायिका (लेजिस्लेचर) ने महाराष्ट्र प्रिवेंशन एंड इरेडिकेशन ऑफ ह्यूमन सेक्रिफाइस एंड अदर इन्ह्यूमन, इविल एंड अघोरी प्रैक्टिसेज एंड ब्लैक मैजिक एक्ट, 2013 पास किया और एक्स पोस्ट फैक्टो कानून के खिलाफ प्रावधान के आधार पर, भैरव सुर्वे पर मुकदमा और उल्लिखित एक्ट के तहत आरोप नहीं लगाया जा सकता है क्योंकि अपराध का कमीशन उस समय से है जब एक्ट मौजूद नहीं था।

हालांकि, भारत में कानून को पूर्वव्यापी रूप से कानूनों को लागू करने का अधिकार है, यह खंड विधायिका को पूर्वव्यापी रूप से आपराधिक कानून बनाने से रोकता है। यह प्रावधान सुनिश्चित (इंश्योर) करता है कि किसी को भी ऐसे कानूनों के तहत बुक या आरोपित नहीं किया जा सकता है, जो अपराध के कमीशन के समय अस्तित्व (एक्सिस्टेंस) में नहीं थे।

इस सिद्धांत को नियंत्रित करने वाला ऐतिहासिक निर्णय वर्ष 1953 में केदार नाथ बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल के मामले में आया था। इस मामले में, भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने देखा कि, जब भी किसी एक्ट को आपराधिक अपराध घोषित किया जाता है और/या विधायिका द्वारा उसके लिए दंड का प्रावधान किया जाता है, तो यह प्रकृति में हमेशा संभावित (प्रोस्पेक्टिव) होता है और अनुच्छेद 20 (1) के तहत कही जा रही बातों को बनाए रखने के लिए इसे पूर्वव्यापी रूप से लागू नहीं किया जा सकता है।

हालाँकि, केवल सजा देने और दोषी ठहराने की प्रक्रिया ही इस खंड के तहत निषिद्ध है, न कि मुकदमे की। इस प्रकार, एक विशेष प्रक्रिया के अनुसार आरोपी व्यक्ति से इस खंड और एक्स पोस्ट फैक्टो कानून के सिद्धांत के तहत पूछताछ नहीं की जा सकती है।

इसी तरह की स्थिति से निपटने के लिए, मोहन लाल बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान (एआईआर 2015 एससी 2098) के मामले में, जिसमें नारकोटिक्स, ड्रग्स और साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट शामिल था, कोर्ट ने कहा कि, अनुच्छेद 20 के तहत स्वयं मुकदमा या अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) निषिद्ध नही है केवल एक्स पोस्ट फैक्टो कानून के तहत दोषसिद्धि और/या दंड निषिद्ध है। इसके अलावा, एक्ट के कमीशन के दौरान मौजूद प्रक्रिया की तुलना में एक अलग प्रक्रिया के तहत परीक्षण उसी के दायरे (एंबिट) में नहीं आता है और इसे असंवैधानिक (अनकांस्टीट्यूशनल) नहीं माना जा सकता है।

मारू राम आदि बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य (1980 एआईआर 2147) के मामले में एक अन्य महत्वपूर्ण निर्णय में, कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 20 (1) में यह नियम भी शामिल है कि अपराध शुरू होने के समय मौजूदा दंडों की तुलना में पूर्वव्यापी दंड का कोई प्रावधान नहीं होगा।

हालांकि, इस प्रावधान के तहत प्रतिबंध के लिए एक अपवाद (एक्सेप्शन) भी मौजूद है। रतन लाल बनाम स्टेट ऑफ पंजाब के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आपराधिक कानूनों के ऐसे पूर्वव्यापी कार्यान्वयन की अनुमति दी, जहां प्रासंगिक (पर्टिनेंट) मुद्दा के उक्त अपराध में सजा में कमी है। अब, दोहरे खतरे के सिद्धांत पर चर्चा करते हैं।

दोहरा खतरा (डबल जियोपार्डी): अनुच्छेद 20 का खंड (2)

“किसी को एक ही कारण से दो बार परेशान नहीं किया जाना चाहिए”

दोहरे खतरे का सिद्धांत जो दंड के अमेरिकी न्यायशास्त्र में अपनी उत्पत्ति का पता लगाता है का अर्थ है कि किसी भी व्यक्ति पर बाद की कार्यवाही में एक ही अपराध के लिए दो बार मुकदमा नहीं चलाया जा सकता और न ही दंडित किया जा सकता है। और, अनुच्छेद 20 (2), जिसमें लिखा है कि किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दंडित नहीं किया जाएगा जिसमें तथ्यों का एक ही सेट कई दोषियों और दोहरे खतरे के खिलाफ गारंटी देता है।

वेंकटरमन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने स्थापित किया कि यह प्रावधान विशेष रूप से न्यायिक दंड से संबंधित है और यह प्रदान करता है कि न्यायिक अधिकारियों द्वारा किसी भी व्यक्ति पर दो बार मुकदमा नहीं चलाया जाता है। सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक फैसला (लैंडमार्क जजमेंट) मकबूल हुसैन बनाम स्टेट ऑफ बॉम्बे के मामले में आया, जहां आरोपी व्यक्ति के पास कुछ मात्रा में सोना था, जो उस समय लेक्स लोकी के खिलाफ था और सीमा शुल्क प्राधिकरण (कस्टम ऑथोरिटी) द्वारा सोना जब्त (कॉन्फिसकेट) कर लिया गया था। और, बाद में जब उस व्यक्ति पर एक आपराधिक कोर्ट के समक्ष मुकदमा चलाया गया, तो कोर्ट को इस सवाल का सामना करना पड़ा कि क्या यह दोहरे खतरे के बराबर है।

लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने देखा कि इस मामले में विभागीय कार्यवाही (डिपार्टमेंटल प्रोसिडिंग), यानी सीमा शुल्क प्राधिकरण द्वारा, इस मामले में, ज्यूडिशियल ट्रिब्यूनल द्वारा मुकदमे की राशि नहीं है, इस प्रकार इस मामले में आपराधिक कोर्ट के समक्ष कार्यवाही वर्जित (बार्ड) नहीं है और कार्यवाही जारी रह सकती है। संक्षेप (नटशेल) में विभागीय कार्यवाही न्यायिक कोर्ट या ट्रिब्यूनल द्वारा परीक्षण से स्वतंत्र होती है।

हालांकि, अभियोजन तब हो सकता है जब बाद की कार्यवाही में तथ्य अलग हों। वही भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एए मुल्ला बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के मामले में स्थापित (एस्टेब्लिश) किया गया था और देखा गया था कि अनुच्छेद 20 (2) उन मामलों में आकर्षित (अट्रैक्टेड) नहीं होगा जहां तथ्य (फैक्ट) बाद के अपराध या दंड में अलग हैं।

दूसरी बार अभियोजन से बचाव को भी सीआरपीसी की धारा 300(1) में शामिल किया गया है जो कहता है कि जिस व्यक्ति को किसी अपराध के लिए सक्षम (कंपीटेंट) कोर्ट द्वारा दोषी ठहराया गया/अभियोजित किया गया था, उस पर पिछली दोषसिद्धि/बरी (एक्विट) होने तक फिर से मुकदमा चलाने के लिए उत्तरदायी नहीं होगा। इस प्रकार, एक ही अपराध के लिए और तथ्यों के एक ही सेट पर दूसरी बार दोषसिद्धि से रोकना है। यह प्रावधान एक नियम तैयार करता है कहां दूसरे परीक्षण की अनुमति है और कहां नहीं है।

हालांकि, इस प्रावधान का आवेदन (एप्लीकेशन) कुछ शर्तों को पूरा करने की मांग करता है: 

  1. आरोपी या विचाराधीन व्यक्ति (पर्सन इन क्वेश्चन) पर पहले कोर्ट द्वारा मुकदमा चलाया गया होगा और यह केवल न्यायिक अभियोजन और कार्यवाही से संबंधित है।
  2. मामले की सुनवाई करने वाली कोर्ट को सक्षम होना चाहिए, यानी उसे अपने सक्षम अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) के तहत कार्य करना चाहिए और अपनी शक्ति का अधिकातीत (अल्ट्रा वायर्स) प्रयोग नहीं करना चाहिए।
  3. पिछली कार्यवाही या तो बरी होने या दोषसिद्धि में समाप्त होनी चाहिए और अगर यह केवल जांच (इंक्वायरी) के बाद समाप्त हुई, तो ऐसे मामले सीआरपीसी की धारा 300 (1) के दायरे में नहीं आते हैं।
  4. पिछली दोषसिद्धि/बरी लागू होनी चाहिए और अपील या पुन: विचारण (रीट्रॉयल) द्वारा रद्द (सेट एसाइड) नहीं की जानी चाहिए। यह एक आवश्यक शर्त है क्योंकि मान लीजिए, पिछले दंड के अभाव में, दूसरे अभियोजन के लिए कोई रोक नहीं होगी और दूसरा मुकदमा हो सकता है।
  5. और अंत में, बाद के मुकदमे में, उसे उसी अपराध के लिए और उसी तथ्य पर किसी अन्य अपराध के लिए मुकदमा चलाया जाना चाहिए, जिसमें सीआरपीसी की धारा 221 (1)/(2) के तहत एक अलग आरोप है।

इस प्रावधान का एक अपवाद मौजूद है, यानि इश्यू एस्टोपेल का सिद्धांत। यह अपवाद चल रहे अभियोजन के खिलाफ रोक लगाने का प्रावधान करता है यदि तथ्य-खोज आरोपी के पक्ष में होती है लेकिन यह एक अलग अपराध के लिए बाद की कार्यवाही से नहीं रोकता है। हालांकि, इस बचाव को लागू करने के लिए, न केवल शामिल पक्ष बल्कि मुद्दे के तथ्य (फैक्ट्स इन इश्यू) भी समान होने चाहिए। उसी के लिए रविंदर सिंह बनाम सुखबीर सिंह ऐतिहासिक मामला है।

जैसा कि हमने दोहरे खतरे के सिद्धांत के साथ किया है, आइए अब आत्म-दोष के खिलाफ निषेध पर चर्चा करें।

आत्म-दोष के विरुद्ध निषेध (प्रोहिबिशन अगेंस्ट सेल्फ इंक्रिमिनेशन): अनुच्छेद 20 का खंड (3)

एक अन्य महत्वपूर्ण नियम जो अपराधों के लिए दोषसिद्धि से सुरक्षा प्रदान करता है, वह है ‘आत्म-दोष के विरुद्ध निषेध।’ वही भारत के संविधान द्वारा भाग III में अनुच्छेद 20 (3) के तहत प्रदान किया गया है। यह वर्णन करता है कि किसी को भी मौखिक रूप से या दस्तावेजी माध्यम से ऐसी जानकारी या सबूत देने और प्रदान करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है जिसका उपयोग आगे की परीक्षण प्रक्रिया के दौरान खुद के खिलाफ किया जा सकता है।

इसके अलावा, ‘गवाह (विटनेस)’ शब्द में मौखिक और दस्तावेजी साक्ष्य दोनों शामिल हैं जैसा कि एमपी शर्मा बनाम सतीश चंद्र में हेल्ड किया गया था। जैसा कि एक ही मामले में हेल्ड किया गया था, हालांकि, वहां कोई प्रतिबंध नहीं है जहां अधिकारियों द्वारा दस्तावेजों की तलाशी या जब्ती (सीज़्यर) की जा रही है। हालांकि, आरोपी द्वारा स्वेच्छा (वॉलंटरी) से पेश की गई जानकारी और सबूत की अनुमति है।

आइए इसे एक उदाहरण से समझते हैं;

मान लीजिए कि कोई मिस्टर जोन्स हैं, जिन पर उसके सौतेले भाई की हत्या के अपराध का मुकदमा चल रहा है और पुलिस हिरासत में रहते हुए, वह कहता है कि “मैंने अपने सौतेले भाई को मार डाला है”।

एविडेंस एक्ट की धारा 27 के तहत कोर्ट में स्वीकार्य (एडमिसिबल) हो सकता है और अनुच्छेद 20 (3) का उल्लंघन नहीं करता है, लेकिन यह अभियोजन पक्ष पर है कि वह यह पता लगाए कि प्रदान की गई जानकारी स्वैच्छिक है या मजबूरी (कंपल्शन) में दी गई है। इसके पीछे तर्क यह है कि साक्ष्य संचार (कम्युनिकेशन) के रूप में होना चाहिए और उन्हीं कारणों से, परीक्षण के दौरान की गई चिकित्सा जांच (मेडिकल एग्जामिनेशन) की अनुमति है। यही कारण है कि नार्को एनालिसिस टेस्ट अक्सर अधिकारियों द्वारा सूचना और सबूत इकट्ठा करने के लिए उपयोग किया जाता है और अनुच्छेद 20 (3) के तहत प्रावधान का उल्लंघन नहीं करता है।

आत्म-दोष के खिलाफ निषेध केवल तभी प्रभावी (इफेक्ट) हो सकता है जब व्यक्ति पर आपराधिक अपराध का आरोप लगाया जाता है। आपराधिक मामलों के अलावा अन्य मामलों के लिए इस सिद्धांत को लागू नहीं किया जा सका। इसके अलावा, जैसा कि नारायणलाल बनाम मानेक में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हेल्ड किया गया था, आत्म-दोषी होने से प्रतिरक्षा (इम्यूनिटी) का दावा करने के लिए, व्यक्ति के खिलाफ औपचारिक आरोप (फॉर्मल एक्यूजेशन) मौजूद होना चाहिए और केवल सामान्य जांच पड़ताल इसके लिए आधार (ग्राउंड) नहीं बन जाते हैं।

अनुच्छेद 20 (3) में यह भी कहा गया है कि किसी व्यक्ति को उसके स्वयं के अभियोजन या मामले में गवाह बनने के लिए मजबूर (कंपेल्ड) नहीं किया जा सकता है। इसे अमेरिकन संविधान में 5वें अमेंडमेंट के आधार पर भी शामिल किया गया है। साथ ही, अधिकारी आरोपी को सबूत पेश करने के लिए मजबूर नहीं कर सकते, जिसका इस्तेमाल उसके मुकदमे के खिलाफ किया जा सकता है। वे साक्ष्य मौखिक या दस्तावेजी हो सकते हैं। हालांकि, इसका अपवाद सीआरपीसी की धारा 91 जिसमें दस्तावेज़ या अन्य चीज पेश करने के लिए समन का प्रावधान है, यह किसी कोर्ट या अधिकारी को यह अधिकार देता है कि वह आरोपी के कब्जे (पोसेस्ड) वाले दस्तावेजों की मांग करते हुए आदेश जारी कर सकते हैं। 

एक अन्य प्रावधान जो आत्म-दोष के खिलाफ निषेध की गारंटी देता है, वह है सीआरपीसी की धारा 161 (2) जो कहती है कि अधिकारियों द्वारा जांच किए जाने के दौरान, एक व्यक्ति सभी प्रश्नों का सही उत्तर देने के लिए बाध्य है, सिवाय उन प्रश्नों को छोड़कर जो बाद में परीक्षण के दौरान स्वयं व्यक्ति के खिलाफ इस्तेमाल किए जाने की प्रवृत्ति (प्रोपेंसिटी) रखते हैं।

इस प्रकार, यहां हम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 (3) और आत्म-दोष के खिलाफ निषेध के लिए प्रदान करने वाले अन्य प्रावधानों पर चर्चा करने वाले खंड के अंत में आते हैं।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

यदि हम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 के सभी खंडों का विश्लेषण (एनालाइज) करने की जहमत (बोदर) उठाएँ, तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि ये खंड यानी अनुच्छेद 20(1), अनुच्छेद 20(2) और अनुच्छेद 20(3) दोषसिद्ध व्यक्तियों को क्रमशः (रिस्पेक्टाइवली) विधान, न्यायपालिका और कार्यकारी कार्रवाइयों से अधिक संरक्षण को दर्शाता है।

साथ ही, ये सुरक्षा सभी लोगों यानी भारतीयों के साथ-साथ विदेशियों के लिए भी उपलब्ध हैं और इस प्रकार यह भारतीय संविधान का आधार (बेडरॉक) बनता है और दोषी और आरोपी लोगों को बुनियादी मानवाधिकारों (ह्यूमन राइट्स) की गारंटी देता है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल लागू होने के दौरान भी इसकी उपलब्धता (अवेलेबिलिटी) इसे अद्वितीय (यूनिक) और लोकतांत्रिक मूल्यों (डेमोक्रेटिक वैल्यू) के निर्वहन (डिस्चार्ज) के लिए इतना महत्वपूर्ण बनाती है।

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