यह लेख दयानंद कॉलेज ऑफ लॉ की छात्रा Magaonkar Revati द्वारा लिखा गया है। यह लेख संपत्ति हस्तांतरण (ट्रांसफर) अधिनियम के तहत आबंधन (टैकिंग) के सिद्धांत पर विस्तृत रूप से चर्चा करता है और इसके सभी प्रावधानों का संक्षेप में वर्णन करता है। इस लेख का अनुवाद Shubham Choube द्वारा किया गया है।
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परिचय
यह सिद्धांत उन मामलों से संबंधित है जब किसी अचल संपत्ति का मालिक अपनी संपत्ति को दूसरों के साथ बंधक रखते हैं ताकि उसके लिए विभिन्न अग्रिमों (ऐड्वैन्स) को सुरक्षित किया जा सके। इसलिए इसमें ऐसे मामलों को भी शामिल किया जाता है जब एक ही संपत्ति को बार-बार या बाद में दुबारा बंधक रख दिया गया हो। आबंधन, एक ऋणदाता (लेन्डर) की क्षमता है कि वह एक ही मौजूदा प्रतिभूति (सिक्युरटी) के तहत आगे के अग्रिम या नए ऋण सुरक्षित कर सके जो किसी अन्य ऋणदाता द्वारा बाद में दी गई और प्रतिभूति की गई राशि से पहले दर्जे पर आते है।
शब्द “आबंधन” का अर्थ
यह एक ऐसी प्रक्रिया है जहां कोई व्यक्ति किसी भी वास्तविक संपत्ति के अवैध कब्जे में होता है और अपने कब्जे की अवधि को अवैध कब्जे वाले व्यक्ति के अधिकार से पहले जोड़ता है।
आबंधन का तथ्यात्मक अर्थ सिलाई है – अर्थात पोशाक बनाने की प्रक्रिया में उपयोग किए जाने वाले किसी भी लंबे, ढीले अस्थायी टांके। यह एक कानूनी अवधारणा है जो एक ही संपत्ति से उत्पन्न होने वाले दो या अधिक प्रतिभूति हितों के बीच प्रतिस्पर्धी (कंपेटीटर) प्राथमिकताओं के लिए सामान्य कानून के तहत उत्पन्न होती है।
ब्लैक लॉ डिक्शनरी के अनुसार, आबंधन का अर्थ है, “विभिन्न लोगों के द्वारा अधिकार की लगातार अवधियों को एक साथ मानकर उन्हें एक सतत अवधि के रूप में जोड़ना; खासकर एक व्यक्ति के भूमि अधिकार की अवधि को किसी पूर्व अधिकारी के अधिकार की अवधि से जोड़कर स्थानिक अधिकार को कानूनी अवधि के लिए सतत अधिकार बनाना।”
इसका अर्थ एक उदाहरण देकर समझाया जा सकता है:
- बैंक ‘A’ ने ऋणदाता को एक ऋण दिया और उसकी संपत्ति को प्रतिभूति के लिए बंधक रख लिया। ऋण किसी भी भविष्य के ऋण की प्रतिभूति के लिए भी व्यक्त किया गया है।
- बैंक ‘B’ ने बाद में उस ऋणदाता को और पैसे उधार दिए और उसी संपत्ति के लिए एक दूसरे क्रम का बंधक (मॉर्गेज) कर लिया।
- बैंक ‘A’ ने बाद में उसी ऋणदाता को एक दूसरा ऋण दिया, जो मूल बंधक को प्रतिभूति के रूप में मानता था।
इसलिए, बैंक ‘A’ हमेशा संपत्ति के खिलाफ दावा करने के लिए प्राथमिकता रखेगा ताकि पहले ऋण की कुल राशि की वसूली हो सके, लेकिन वह संपत्ति पर बैंक ‘B’ के संबंध में अपने दूसरे ऋण के लिए प्राथमिकता के साथ दावा करने में सक्षम केवल तब ही होगा अगर इसे पहले ऋण के समय लिए गए बंधक से दूसरे ऋण को जोड़ने की अनुमति है।
यदि बैंक ‘A’ को दूसरे ऋण को जोड़ने की अनुमति नहीं है तो बैंक ‘B’ उस ऋणदाता को दी गई राशि का दावा कर सकता है, ताकि यह बैंक ‘A’ के दूसरे ऋण के दावे पर प्राथमिकता प्राप्त कर सके।
आबंधन के सिद्धांत की अवधारणा
आबंधन का सिद्धांत एक अवधारणा है जिसमें एक व्यक्ति जो किसी अचल संपत्ति का मालिक है, वह अपनी संपत्ति को दूसरों के साथ बंधक रख सकता है ताकि उसके लिए ऋण या अग्रिमों की प्रतिपूर्ति की जा सके।
यह सिद्धांत भारत में संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 79 से संबंधित है। इस क़ानून के अनुसार, यदि किसी ऋण के लिए भविष्य और वर्तमान में अग्रिम की प्रतिभूति के लिए एक बंधक बनाया जाता है और अधिकतम सीमित है, तो उसी संपत्ति का एक बाद का बंधक पूर्व बंधकधारक के संबंध में सभी अग्रिमों के लिए स्थगित कर दिया जाएगा, बशर्ते कि बाद का बंधकधारक पूर्व बंधक के बारे में जानता हो।
यह कहा जा सकता है कि यह सिद्धांत केवल अन्यायपूर्ण और बहुत-चर्चित अंग्रेजी नियम आबंधन में ही जीवित है।
इस सिद्धांत के उदाहरण
- ‘X’ अपनी अचल संपत्ति को, ऋण लेने के लिए ‘Y’ के पास बंधक रख सकता है। वह उसी संपत्ति को अन्य बैंक या व्यक्तियों को, ऋण लेने के लिए फिर से बंधक रख सकता है। वह उसी संपत्ति को बाद में ‘Y’ के पास नए धन के अग्रिम के लिए बंधक रख सकता है। इस मामले में, प्राथमिकता का नियम ‘Y’ के साथ केवल उसके पहले अग्रिम के संबंध में ही है, अपने दूसरे अग्रिम के लिए उसे प्राथमिकता नहीं दी जाएगी, इसलिए वह अन्य लोगों के बाद ही धन का दावा कर सकता है।
- यदि ‘A’ अपनी संपत्ति का बंधक, ‘B’ के साथ किसी भी भविष्य के ऋण के लिए, 30,000 रुपये की प्रतिभूति के लिए बनाता है और वह केवल आधी राशि उधार लेता है और बाद में ‘A’ ‘C’ के पास जाता है और उसी संपत्ति को बंधक रखता है, ‘C’ को पहले बंधक के बारे में पता होता है। उसके बाद, ‘A’ ‘B’ से शेष आधी राशि उधार लेता है। बाद में समय के साथ ‘C’ यह नहीं कह सकता या पूछ नहीं सकता कि ‘B’ को केवल पहले आधे हिस्से पर दावा करना चाहिए और उसके दूसरे आधे हिस्से का आबंधन ‘C’ द्वारा दिए गए अग्रिम के बाद ही किया जा सकता है।
संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम,1882 की धारा 93: आबंधन पर प्रतिबंध
संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 93 आबंधन पर प्रतिबंध से संबंधित है। इस धारा का शब्दांकन इस प्रकार है:
“कोई भी बंधकधारक, चाहे वह किसी मध्यवर्ती (इन्टर्मीडीएट) बंधक की सूचना के साथ या बिना हो, वह किसी भी पूर्व बंधक का भुगतान करके, अपनी मूल प्रतिभूति के संबंध में कोई प्राथमिकता प्राप्त नहीं करेगा; और धारा 79 द्वारा प्रदान की गई स्थिति के अपवाद के साथ, कोई भी बंधकधारक जो बाद में बंधककर्ता (मॉर्गेजर) को कोई अग्रिम देता है, चाहे वह किसी मध्यवर्ती बंधक की सूचना के साथ या बिना, इस तरह के बाद के अग्रिम के लिए अपनी प्रतिभूति के संबंध में कोई प्राथमिकता प्राप्त नहीं करेगा।”
संबंधित मामले
काकीनाडा विद्युत कर्मचारी बनाम श्रीमती एम. सुलोचना देवी 13 जून 2007 को
यह दूसरी अपील अपीलीय अदालत के आदेश और फैसले के खिलाफ दायर की गई है, जिसने इस कारण को दरकिनार कर दिया, कि अपीलीय अदालत ने प्रतिवादियों द्वारा प्रस्तुत मौखिक और दस्तावेजी साक्ष्य पर उचित परिप्रेक्ष्य (पर्स्पेक्टिव) में विचार नहीं किया था और दूसरा प्रश्न की क्या तीसरे प्रतिवादी ने मामले के तथ्यों और परिस्थितियों सहित प्रतिकूल कब्जे से स्वामित्व को पूरा कर लिया है।
इस मामले में, विद्वान वकील ने तर्क दिया कि लंबे समय तक कब्जे से आबंधन के सिद्धांत को वर्तमान मामले के तथ्यों में लागू किया जाना चाहिए। चूंकि वादी के अधिकार समय की सीमा के कारण बाधित हो गए हैं और वर्तमान मुकदमे को स्थापित करने में असमर्थ हैं, इसलिए दी गई राहत जारी नहीं रखी जा सकती है।
प्रतिवादी-वादी के विद्वान वकील ने प्रस्तुत किया कि पहले और दूसरे प्रतिवादी दोनों द्वारा निर्धारित विशिष्ट बिंदु के प्रकाश में भी, प्रतिकूल कब्जे की दलील का प्रश्न लागू नहीं हो सकता है क्योंकि मुख्य रुख यह है कि वे सह-मालिक नहीं थे। उस समय लेकिन वादी मदुरा वेंकट रेड्डी के पिता का नाम बिक्री पत्र में दिखाया गया था।
विद्वान वकील ने यह भी बताया कि पहला बिक्री लेनदेन वर्ष 1969 में किया गया था और 1979 तक, रामगोपाल लुहानी द्वारा खरीद के बाद कोई आगे की कार्रवाई नहीं की गई थी। काकीनाडा ने सहकारी गृह भवन के कर्मचारियों के संबंध में कुछ निर्माण के बारे में गंभीर प्रयास किए क्योंकि प्रतिवादी-वादी के सामने मुकदमा दायर करना ही एकमात्र विकल्प था।
चूँकि बिक्री विलेख (सेल डीड) के दस्तावेज़ पर विशिष्ट रुख अपनाया गया था, जिसमें केवल पिता का नाम दिखाया गया था और जैसा कि दोनों अदालतों द्वारा देखा और निर्देशित किया गया था, विशेष रूप से दूसरी अपील में इसे बदला नहीं जा सकता है, इसलिए, विद्वान वकील ने निष्कर्ष निकालते हुए कहा कि यह दूसरी अपील खारिज किए जाने योग्य है।
वादी ने तर्क दिया कि उक्त संपत्ति को सथियाराजू साराभाव्या और अन्य द्वारा सह-स्वामित्व के समान अधिकार के रूप में प्राप्त किया गया था। इसे पहले प्रतिवादी और वेंकटरेड्डी से समान अग्रिम धन के साथ खरीदा गया था; इसलिए उनकी मृत्यु के बाद, उनकी निर्वसीयत संपत्ति और भूमि का अविभाजित आधा हिस्सा उनके एकमात्र उत्तराधिकारी और विधवा मां को हस्तांतरित कर दिया गया था, लेकिन वादी भी भूमि के संयुक्त कब्जे और आनंद में था।
इसलिए वादी की मां, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के तहत संपत्ति की पूर्ण मालिक बन गई। उनकी मृत्यु के बाद, वादी ने अपने पति के माध्यम से प्रतिवादी से विभाजन के लिए कहा लेकिन वह (प्रतिवादी) टाल रहा था और बाद में करने का वादा कर रहा था। छह महीने बीत गए लेकिन वह हर समय बचता रहा।
वादी को पता चला कि सभी प्रतिवादियों ने वादी को नुकसान पहुंचाकर लाभ के गलत इरादे से फर्जी दस्तावेज बनाए थे। वादी ने विभाजन के लिए नोटिस पंजीकृत किया, उन्होंने एक लिखित बयान दायर किया जिसमें संपत्ति की खरीद में से संयुक्त हिस्सेदारी से इनकार किया गया और अन्य आरोपों को गलत तरीके से खारिज कर दिया गया।
प्रतिवादी ने झूठे बयान देकर और फर्जी दस्तावेज दिखाकर संपत्ति बेच दी कि उक्त संपत्ति पर केवल उसका कब्जा था।
इसलिए, वादी ने पूरी तत्परता के साथ और समय के भीतर वर्तमान मुकदमा दायर किया और जब बिक्री विलेख दो व्यक्तियों के नाम पर होता है तो दोनों पक्ष समान हिस्सो के हकदार होते हैं। अदालत ने इस राय पर विचार किया कि दूसरी अपील में कोई दम नहीं है और इसे खारिज किया जाता है।
सुशीलाबाई और अन्य बनाम लक्ष्मण, 2 अगस्त 1995
यहां, इस मामले में, अपीलकर्ता अतिरिक्त न्यायाधीश द्वारा जिला न्यायालय न्यायाधीश, इंदौर द्वारा पारित डिक्री के स्वामित्व, सहीता और वैधता को चुनौती देता है।
वादी ने यहां तर्क दिया कि प्रतिवादी लक्ष्मण ने यह साबित नहीं किया है कि वह प्रतिकूल कब्जे के कारण संपत्ति का मालिक बन गया है और प्रथम अपीलीय अदालत के द्वारा निष्कर्ष निकालते हुए कानून की त्रुटि की गई थी कि प्रतिवादी ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 15(1)(d) के तहत साईबाई की संपत्ति को अधिराया(इन्हेरिटिड) था और संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 93 का संदर्भ दिया और प्रस्तुत किया कि आबंधन का सिद्धांत लागू नहीं होता है।
प्रथम अपीलीय अदालत ने माना था कि आबंधन का सिद्धांत वर्तमान मामले में लागू होता है और प्रतिवादी को साईबाई की उक्त संपत्ति विरासत में मिली थी। लेकिन सबूतों से यह पता चला कि साईबाई ने मुकदमे की संपत्ति मृतक कृष्णराव को उपहार में दी थी, जिसका अपीलकर्ता कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। साईबाई ने बाद में उक्त उपहार विलेख को रद्द करने के लिए मुकदमा दायर किया, लेकिन कृष्णराव के पक्ष में उक्त उपहार विलेख की पुष्टि करने वाला एक निर्णय आया, हालांकि, वह उक्त संपत्ति के मालिक बन गए। यह भी पता चला कि उनकी मृत्यु तक उक्त संपत्ति पर उनका कब्ज़ा था। तो इस सबूत के कारण, साईबाई के पास 1961 तक कृष्णराव के स्वामित्व वाली संपत्ति और संपत्ति नहीं थी। साईबाई के पास 1961 से 1968 तक अपीलकर्ता के स्वामित्व के प्रतिकूल संपत्ति हो सकती थी।
न्यायालय ने माना कि प्रथम अपीलीय अदालत ने उपरोक्त महत्वपूर्ण बिंदु पर विचार नहीं किया और खुद को गुमराह किया। उन्होंने सबूतों के बारे में बात करने के सिद्धांत का ग़लत इस्तेमाल किया था।
निष्कर्ष
इसलिए, आबंधन का सिद्धांत संपत्ति को बंधक रखते समय धन उधार लेनदेन में उपयोग किए जाने वाले कानून के विशिष्ट विषयों में से एक है। कोई भी विपरीत प्राप्ति करने वाला व्यक्ति इस सिद्धांत का उपयोग एक बेहतर शीर्षक प्राप्त करने के लिए कर सकता है। आबंधन भी निषिद्ध है और संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम के तहत समाप्त कर दिया गया है और इसे 1929 के संशोधन अधिनियम द्वारा भी निरस्त (रिपील) कर दिया गया है।
इसलिए आबंधन का सिद्धांत उधारकर्ता को एक से अधिक व्यक्तियों से अग्रिम या ऋण लेने का विकल्प देता है और यह वर्तमान और भविष्य के लेनदेन या किए जाने वाले अग्रिमों को प्रतिभूति भी प्रदान करता है। इसलिए यह उन सिद्धांतों में से एक है जो उधारकर्ता को एक से अधिक व्यक्ति, ऋणदाता या बैंक से ऋण लेने में मदद करता है।
संदर्भ