गुलजा कुमारी बनाम पंजाब राज्य के साथ लिव-इन-रिलेशनशिप के आसपास के समाज की पूर्वकल्पित धारणाएँ

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Gulza Kumari verses State of Punjab
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यह लेख नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ स्टडी एंड रिसर्च इन लॉ, रांची की Gursimran Kaur Bakshi ने लिखा है। इसमें लेखिका ने गुलजा कुमारी बनाम पंजाब राज्य के एक हालिया फैसले के संबंध में भारत में लिव-इन-रिलेशनशिप की वैधता का पता लगाया है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।

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परिचय 

“वह एक मूर्ख है जो पारंपरिक मानकों (स्टैंडर्ड्स) पर कायम है और उम्मीद करता है कि दुनिया उसके चारों ओर आ जाएगी” -जोसेफ जे. एलिस.

कठोर सामाजिक रूढ़िवादिता (स्टीरियोटाइप) समाज के कुछ वर्गों को मौलिक अधिकारों का पूरा आनंद लेने से दूर करती है। जिस समाज से हम घिरे हुए हैं, उसमें कई तरह की पूर्वकल्पित धारणाएँ (प्रिकंसिव्ड नोशंस) हैं। ये धारणाएँ संकीर्ण (परोकीयल) मानसिकता में निहित (इंप्लाइड) हैं जो मनुष्य को बुनियादी अधिकारों से वंचित करने की क्षमता रखती हैं।

हाल ही में, एक लिव-इन जोड़े ने पंजाब और हरियाणा के उच्च न्यायालय से अपने माता-पिता के खिलाफ सुरक्षा की मांग की, जिनसे उन्हें खतरे की आशंका थी। इसके बावजूद कि याचिकाकर्ताओं (पेटीशनर्स) में से एक विवाह योग्य उम्र का नहीं था, वे एक साथ रह रहे थे और जल्द ही शादी करने का विचार कर रहे थे। गुलझा कुमारी बनाम पंजाब राज्य (2021) में, न्यायमूर्ति एच.एस. मदान ने कहा कि उनके गैर वैवाहिक रिश्ते सामाजिक और नैतिक रूप से स्वीकार्य नहीं है। इसलिए याचिका खारिज कर दी गई। 

यह निर्णय निश्चित रूप से भारत में लिव-इन-रिलेशनशिप पर बहुसंख्यकों द्वारा अपनाई गई पूर्वकल्पित धारणाओं को दर्शाता है। हालाँकि, सामाजिक नैतिकता (मोरालिटी) पर उपदेश देते हुए यह निर्णय संवैधानिक नैतिकता पर विचार करने में विफल रहता है। 

नवतेज सिंह जौहर बनाम यूओआई (2018) में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लोकप्रिय भावना (पॉपुलर सेंटीमेंट्स) जो बहुसंख्यकवाद (मेजोरिटरिज्म) के साथ अनजान रास्ते पर धकेले जा रहे हैं, और इस तरह यह संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है। यह संवैधानिक न्याय को रोकता है और मौलिक अधिकारों के क्षेत्र में अतिक्रमण (ट्रांसग्रेस) करने की क्षमता रखता है। 

यह अनुमान लगाना गलत नहीं होगा कि भारत में लिव-इन-रिलेशनशिप की वैधता वर्तमान में लोकप्रिय भावनाओं के माध्यम से संचालित (गवर्न) होती है। हालांकि, ऐसा नहीं होना चाहिए क्योंकि घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम, 2005 (प्रोटेक्शन ऑफ वूमेन फ्रॉम डोमेस्टिक वॉयलेंस एक्ट) (पीडब्ल्यूडीवीए) में विधायिका (लेजिस्लेचर) ने घरेलू संबंधों की परिभाषा के अंतर्गत उन्हें मान्यता देकर लिव-इन रिलेशनशिप की रक्षा करने के अपने इरादे को दिखाया है। 

इसके अलावा, अदालतों ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) की धारा 125 की व्याख्या की है, जिसमें महिलाओं को उनकी वैवाहिक स्थिति की परवाह किए बिना शामिल किया गया है। अदालतों ने समय-समय पर पीडब्ल्यूडीवीए और सीआरपीसी की धारा 125 दोनों को पढ़ा है ताकि मौलिक अधिकारों के मापदंडों के माध्यम से लिव-इन-रिलेशनशिप को शामिल किया जा सके। ऐसा होने पर, गुलझा कुमारी बनाम पंजाब राज्य (2021) का हालिया फैसला कानून की नजर में गलत है।

भारत में लिव-इन रिलेशनशिप की वैधता  

भारत में विवाह पवित्र है और पारंपरिक रूप से इसे पुरुष और महिला के मिलन के रूप में देखा जाता है। भारत में, विवाह को नियंत्रित करने वाला प्रमुख अधिनियम हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (हिंदू मैरिज एक्ट) (एचएमए) है। एचएमए शादी को इस प्रकार परिभाषित करता है:

  • 21 वर्ष और उससे अधिक के पुरुष और 18 वर्ष और उससे अधिक की महिला के बीच।
  • दोनों ने पवित्र अग्नि के सामने सप्तपदी की है। 
  • एचएमए की धारा 7 के अनुसार हिंदू विवाह समारोह करने से पहले जोड़ों को धारा 5 में निर्धारित विवाह की शर्तों को पूरा करना चाहिए । 

एचएमए के अलावा, अंतर-जातीय विवाह (इंटर कास्ट मैरिज) विशेष विवाह अधिनियम (स्पेशल मैरिज एक्ट), 1954 के माध्यम से नियंत्रित होते हैं। इसके अलावा, मुसलमानों, ईसाइयों और पारसियों के अपने व्यक्तिगत कानून हैं जो विवाह के विषय को नियंत्रित करते हैं। 

हालाँकि, वर्तमान में, कोई भी अधिनियम समलैंगिक वाले जोड़ों के बीच विवाह से संबंधित नहीं है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि नवतेज सिंह जौहर बनाम यूओआई (2018) में भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 377 को कुछ इस प्रकार पढ़ा गया है, जो समलैंगिक वयस्कों (एडल्ट्स) के बीच सहमति से यौन संबंध को अपराध बनाती है।

लिव-इन रिश्तों की मान्यता के साथ मुद्दे

  • सबसे पहले, विवाह को केवल एक पुरुष और एक महिला के बीच के मिलन के रूप में समझा जाता है। यह परिलक्षित (रिफ्लेक्ट) होता है, उदाहरण के लिए, एचएमए की धारा 5 में जहां एक पुरुष और एक महिला केवल एक दूसरे से शादी कर सकते हैं। इस प्रकार, समलैंगिक विवाह की कोई मान्यता नहीं है।  
  • विवाह के पारंपरिक दृष्टिकोण से भी संतानोत्पत्ति (प्रोक्रिएट) के अधिकार को समझा जाता है। इस तरह की समझ अब इस तथ्य को देखते हुए अप्रचलित (ऑब्सिलेट) हो गई है कि मनुष्य का जीवन पारलौकिक (ट्रांसंडेंटली) रूप से विकसित होता है। भारत अपने समाज के उन वर्गों के लिए जगह बनाने की अपनी क्षमता में प्रगति कर रहा है जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से भेदभाव का सामना किया है। 
  • अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के संवैधानिक ढांचे से उत्पन्न होने वाले स्वतंत्र मानव अधिकारों के रूप में अपने साथी को चुनने की आज़ादी और स्वतंत्र मानवाधिकार (इंडिपेंडेंट ह्यूमन राइट्स) के रूप में जन्म लेने के अधिकार को समझने की आवश्यकता है। ऐसा करने से विवाह की पारंपरिक सीमाओं के भीतर बने रिश्तों के अलावा अन्य संबंधों को स्वीकार करने के प्रयास भी होने चाहिए। 

ये उपर दिए गए मुद्दे लिव-इन रिलेशनशिप की मान्यता में बाधा उत्पन्न करते हैं।  

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत लिव-इन रिलेशनशिप

लिव-इन रिलेशनशिप की व्याख्या तब की जा सकती है जब दो सहमति वाले वयस्क विवाह के बीना एक उचित समय के लिए विवाह के समान रिश्ते में एक साथ रह रहे हों। 1978 की शुरुआत में, बद्री प्रसाद बनाम डी वाई. डायरेक्टर ऑफ़ कंसॉलिडेशन (1978) को एक पुरुष और एक महिला के बीच विवाह की वैधता तय करने के मुद्दे का सामना करना पड़ा, जो पिछले 50 वर्षों से पति और पत्नी के रूप में एक-दूसरे के साथ रह रहे थे। 

कोर्ट ने कहा कि अगर दंपति (कपल) लंबे समय से एक-दूसरे के साथ रह रहे हैं तो शादी के पक्ष में एक मजबूत धारणा (प्रेजंप्शन) बनती है। इस तरह के अनुमानों को केवल सबूतों के भारी बोझ से मुक्त करने के लिए चुनौती दी जा सकती है। इसका मतलब है कि इसके विपरीत सबूत होना चाहिए। 

पीडब्ल्यूडीवीए शायद एकमात्र ऐसा अधिनियम है जो सिर्फ वैवाहिक संबंधों के अलावा अन्य रिश्तों को मान्यता देता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पीडब्ल्यूडीवीए कानून एक सामाजिक उद्देश्य को प्राप्त करना चाहता है। यह महिलाओं को परित्याग (डिजर्शन), घरेलू हिंसा और एक रिश्ते में होने वाले सभी प्रकार के शारीरिक, मानसिक और वित्तीय शोषण (फाइनेंशियल अब्यूज) से बचाने के लिए है। 

चूंकि घरेलू हिंसा और दुर्व्यवहार एक सामाजिक बुराई है जो विवाह के साथ या उसके बिना जोड़ों के बीच हो सकती है, अधिनियम उन सभी रिश्तों की रक्षा करना चाहता है जिन्हें अधिनियम के तहत घरेलू संबंधों की व्यापक (वाइड) परिभाषा में समायोजित (अकोमोडेट) किया जा सकता है। 

अधिनियम की धारा 2(f) एक घरेलू संबंध को “दो व्यक्तियों के बीच संबंध के रूप में परिभाषित करती है, जो एक साझा (शेयर्ड) घर में रहते हैं, या किसी भी समय, एक साथ रहे हो, जब वे आम सहमति, विवाह, के माध्यम से संबंधित होते हैं। या वह व्यक्ति विवाह, गोद लेने की प्रकृति से संबंध में आए हो या संयुक्त परिवार के रूप में रहने वाले परिवार के सदस्य हैं।” 

इसके अलावा, यह धारा 2(s) के तहत एक साझा परिवार को एक ऐसे परिवार के रूप में परिभाषित करता है जहां पीड़ित व्यक्ति (महिला) रहता है या घरेलू संबंधों के किसी भी चरण में अकेले या प्रतिवादी (पुरुष) के साथ रहता है।   

डी. वेलुसामी बनाम डी. पचैअम्मल (2010) में अदालत ने कहा कि अधिनियम एक महिला को लिव-इन रिलेशनशिप (विवाह की प्रकृति में एक रिश्ता) में भी सुरक्षा प्रदान करेगा बशर्ते:

  • जोड़ों को घरेलू संबंध साझा करना चाहिए। 
  • उन्हें शादी करने के लिए कानूनी उम्र का होना चाहिए या कम से कम कानूनी विवाह में प्रवेश करने के लिए योग्य होना चाहिए।
  • उन्हें स्वेच्छा से एक महत्वपूर्ण अवधि के लिए सहवास (कोहेबिटीशन) करना चाहिए। 
  • उनके रिश्ते पति-पत्नी के समान होने चाहिए। 

पीडब्ल्यूडीवीए के तहत घरेलू संबंधों के दायरे में लिव-इन रिलेशनशिप को शामिल करने की इस स्थिति को सर्वोच्च न्यायालय ने इंद्र शर्मा बनाम वीकेवी शर्मा (2013) में भी मान्यता दी है । कोर्ट ने कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप या शादी जैसे रिश्ते न तो अपराध हैं और न ही पाप, भले ही इसे सामाजिक रूप से अस्वीकार्य माना जा सकता है। 

गुलझा कुमारी आदेश की चर्चा के संदर्भ में यह मामला विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। ऐसा इसलिए है क्योंकि दोनों ही मामलों में कोर्ट ने इस अवधारणा (कॉन्सेप्ट) से जुड़े सामाजिक मानदंडों पर विचार किया, लेकिन कम से कम सुप्रीम कोर्ट ने कानून के आधार पर आदेश को बरकरार रखा। जबकि, गुलझा कुमारी में न्यायालय उस प्रीसीडेंट को देखने में विफल रहा जो कि अदालत का कानून है क्योंकि यह देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया था।  

इसके अलावा, तुलसा और अन्य बनाम दुर्गटिया (2008) में, यह माना गया था कि चूंकि एक पुरुष और एक महिला एक साथ रह रहे हैं और उचित समय के लिए विवाह के समान संबंध साझा कर रहे हैं, उन्हें भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (इंडियन एविडेंस एक्ट) की धारा 114 के तहत पति और पत्नी के रूप में माना जाएगा।

धारा 125 सीआरपीसी के तहत मेंटनेंस प्रदान करने के उद्देश्य से लिव-इन-रिलेशनशिप की मान्यता

2003 में, आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधारों पर डॉ. जस्टिस वी.एस. मलीमठ समिति की रिपोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 125 की व्यापक व्याख्या के लिए सिफारिश की थी, जिसमें इसके दायरे में विवाह की प्रकृति के समान संबंधों को शामिल किया गया था। 

लिव-इन रिलेशनशिप में मेंटेनेंस का मुद्दा पहले एस. खुशबू बनाम कन्नियाम्मल (2010) और फिर बाद में डी. वेलुसामी बनाम डी. पचैअम्मल (2010) में आया, लेकिन दो अलग-अलग कानूनों के तहत। 

विमल (के) बनाम वीरास्वामी (के) (1991) में, कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 125 की व्याख्या करते हुए यह फैसला लिया कि इस प्रावधान का उद्देश्य एक सामाजिक उद्देश्य को प्राप्त करना है, यह गरीबी और आवारगी रोकने के लिए किया जाएगा। कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत पत्नी शब्द में एक ऐसी महिला शामिल होनी चाहिए जिसे पति ने तलाक दे दिया हो, जिसने तलाक ले लिया हो और दोबारा शादी नहीं की हो। यह विवाह की प्रकृति में रहने वाली लेकिन पत्नी की वैधानिक स्थिति (स्टेच्यूटरी स्टेटस) न होने वाली महिला को शामिल करने के लिए भी आयोजित किया गया था।

इससे पहले, मो. अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम (1985), धारा 125 सीआरपीसी को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(3) के तहत कमजोर वर्ग के शोषण को रोकने के लिए एक धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) प्रावधान माना गया था। इस मामले में कोर्ट ने एक मुस्लिम महिला को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत राहत दी, जो तीन बार तलाक बोलकर अपने पति से तलाक लेने पर बेसहारा हो गई थी। 

विमल के मामले के बादमे, एक गैर वैवाहिक संबंध में रहने वाली महिलाओं के लिए धारा 125 सीआरपीसी के तहत मेंटनेंस देने के मुद्दा चानुमुनिया बनाम वीरेन्द्र कुमार सिंह कुशवाहा (2010) में फिर से आया। 

न्यायालय ने गोकलचंद बनाम परवीन कुमारी (1952), बद्री प्रसाद बनाम डायरेक्टर और अन्य (1978) और तुलसा और अन्य बनाम दुर्गाटिया और अन्य (2008) ने एक बिंदु बनाने के लिए कहा कि जहां निरंतर सहवास (कंटीन्युअस कोहेबिटेशन) है, कानून सीआरपीसी के धारा 125 के उद्देश्य के लिए विवाह के अनुमान का समर्थन करेगा। धारा 125 सीआरपीसी लागू करने के लिए शादी का सख्त सबूत पूर्व शर्त (प्री कंडीशन) नहीं है।

धारा 125 सीआरपीसी पहले 1889 आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत धारा 488 थी। हालांकि, बाद के प्रावधान में, मेंटनेंस की मांग करने की क्षमता वैवाहिक स्थिति की निरंतरता (कंटीन्यूटी) पर निर्भर थी। इस प्रकार, इन मामलों पर कम से कम इस बिंदु को स्पष्ट करने के लिए भरोसा किया जा सकता है कि अदालतों ने स्पष्ट रूप से लिव-इन-रिलेशनशिप को तब तक नाजायज नहीं बनाया जब तक कि इसके बारे में कोई स्पष्ट कानून में न कहा गया हो।  

इसके अलावा, डी. वेलुसामी बनाम डी. पचैअम्मल (2010) में, कोर्ट ने पीडब्ल्यूडीवीए की धारा 2(f) के तहत घरेलू संबंधों की परिभाषा के भीतर विवाह की प्रकृति के लिए लिव-इन-रिलेशनशिप को मान्यता दी। यह माना गया कि अधिनियम के तहत मुआवजे (कंपनसेशन) का मुद्दा उठ सकता है जहां महिला उस रिश्ते में आर्थिक शोषण से पीड़ित होती है। 

धारा 3(a) घरेलू हिंसा को परिभाषित करती है जिसमें घरेलू संबंधों में पुरुष द्वारा महिला को हुई सभी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक चोटें शामिल हैं। यह एक लिव-इन-रिलेशनशिप की स्थिति को कवर करेगा जहां एक महिला ने अपनी नौकरी छोड़ दी है या लिव-इन-रिलेशन में वित्तीय और आर्थिक संसाधनों के लिए पुरुष समकक्ष (कांउटर पार्ट) पर पूर्ण या आंशिक (पार्शियली) रूप से निर्भर है और पुरुष उसे छोड़ने का फैसला करता है कारण जो भी हों। 

ऐसे मामलों में, पीडब्ल्यूडीवीए के तहत एक उपाय लागू किया जा सकता है, बशर्ते कि लिव-रिलेशनशिप से संबंधित डी. वेलुसामी बनाम डी. पचैअम्मल (2010) के तहत निर्धारित शर्तों को अधिनियम के तहत घरेलू संबंध की परिभाषा के तहत कवर किया जा सकता है। 

महिला तब मजिस्ट्रेट के समक्ष या कानूनी कार्यवाही से पहले पीडब्ल्यूडीवीए की धारा 12(1) के तहत मुआवजे या हर्जाने के लिए आवेदन कर सकती है। मजिस्ट्रेट धारा 20(1)(d) के तहत मेंटनेंस दे सकता है या यदि कानूनी कार्यवाही में राहत मांगी जाती है, तो अदालत धारा 26(1) के तहत उसे अनुदान (ग्रांट) दे सकती है।

अदालत हमेशा से शादी को अपने नजरिए से देखता आया है और यह सारे मामले इस चीज़ का प्रमाण है। हालाँकि, गुलझा कुमारी बनाम पंजाब राज्य (2021) में न्यायालय प्रीसिडेंट पर विचार करने में विफल रहा, जिनमें से कुछ देश के कानून हैं। यह विशेष रूप से चिंताजनक है क्योंकि याचिकाकर्ता स्पष्ट थे कि वे जल्द ही शादी करने वाले हैं। 

न्यायालय यह नोट करने में विफल रहा कि कानून विवाह के समान संबंधों की रक्षा करने में सुसंगत (कंसिस्टेंट) रहा है। अदालत शायद कानून के प्रति आश्वस्त (कन्विन्स) होने के बजाय लोकप्रिय भावनाओं से ओतप्रोत (फिल्ड) हो गई।

यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि कानून हमेशा उनके संबंधों को वैधता देने और घरेलू और वैवाहिक कानूनों के तहत सुरक्षा प्रदान करने का पक्षधर (फेवर्ड) है। राजीव बनाम सरसम्मा व अन्य (2021) में, केरल उच्च न्यायालय ने यह आदेश दिया है कि एक आदमी और एक औरत के बीच लंबे समय सहवास को शादी की एकमान्य धारणा मानकर उसे बढ़ावा मिलेगा, भले ही औपचारिक (फॉर्मल) शादी का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण का आयोजन नहीं है। 

हालाँकि, जब कोई व्यक्ति एक साथ दो प्रकार के सहवास में होता है, एक औपचारिक विवाह के अनुसार और दूसरा अनऔपचारिक विवाह के अनुसार, तो यह कानून पहले वाले के पक्ष में झुक जाएगा। लिव-इन रिलेशनशिप में एक महिला साथी के पास कानूनी रूप से विवाहित पत्नी से बेहतर दावा नहीं हो सकता।

किशोर न्याय अधिनियम (जुवेनाइल जस्टिस एक्ट), 2005 के तहत लिव-इन-रिलेशनशिप की मान्यता

किशोर न्याय अधिनियम, 2015 (‘जेजे एक्ट’) लिव-इन में एक बच्चे को अपनाने के उद्देश्य के लिए रिश्तों को मान्यता देते हैं। हाल ही में, 10 अप्रैल 2021 को, केरल उच्च न्यायालय ने एक फैसले में (मामले का नाम उपलब्ध नहीं है) लीव इन रिलेशनशिप में बच्चे को अपनाने या एडॉप्ट करने के बारे में निर्णय निर्धारित करने के लिए एक मुद्दे का सामना किया वह यह था कि, क्या जेजे अधिनियम के उद्देश्य से लिव-इन जोड़ों को विवाहित जोड़े के रूप में माना जा सकता है?

मामले के तथ्य

  • तथ्यों के अनुसार, केरल में 2018 में आई दुखद बाढ़ के दौरान एक युगल एक-दूसरे से मिले। वे अलग-अलग धर्मों से थे क्योंकि लड़का (जॉन) ईसाई था और लड़की (अनीता) आस्था से हिंदू थी। 
  • वे शादी करना चाहते थे और अपने माता-पिता की मंजूरी का इंतजार कर रहे थे। लेकिन उससे पहले ही लड़की गर्भवती हो गई और उसने एक लड़की को जन्म दिया। हालांकि इसके बाद जॉन ने अनीता से रिश्ता तोड़ लिया। 
  • अनीता, एक अविवाहित माँ होकर बच्चे को संभाल नहीं पा रही थी और उसे उसके प्रियकर द्वारा पहुँचाये गए आघात के कारण उसने अपनी बेटी को जेजे की धारा 35 के तहत एर्नाकुलम में बाल कल्याण समिति को सौंपने का फैसला किया। हालांकि, बाद में दंपति फिर मिले और बच्चे की कस्टडी लेने का फैसला किया।

कोर्ट का आदेश  

  • कोर्ट ने जेजे की धारा 38 के तहत इस मुद्दे पर फैसला करते हुए कहा कि एक सामाजिक संस्था के रूप में विवाह वैधानिक कानून पर निर्भर करता है। हालांकि, इसका किशोर न्याय की अवधारणा से कोई लेना-देना नहीं है, जो कि बच्चे के कल्याण की रक्षा करता है। 
  • चूंकि जैविक (बायोलॉजिकल) माता-पिता के अधिकार एक प्राकृतिक (पैरेंटल) अधिकार हैं, इसलिए उनकी वैवाहिक स्थिति पर कोई निर्भरता नहीं है। लिव-इन रिलेशनशिप में, एक युगल (कपल) कुछ पारस्परिक अधिकारों और दायित्वों को स्वीकार करता है और ऐसे रिश्ते में संतान का मतलब है कि उन्होंने जैविक माता-पिता के अधिकारों को भी स्वीकार किया है। 
  • इस प्रकार, कानूनी रूप से विवाहित और अविवाहित के बीच कृत्रिम (आर्टिफिशियल) अंतर का माता-पिता के अधिकारों से कोई लेना-देना नहीं है। चूंकि कानून वैधता के पक्ष में है, इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि कानून लिव-इन रिलेशनशिप में विवाह के पूर्वानुमान का समर्थन करता है। 
  • यह उस गैर-वैवाहिक संबंध से पैदा हुए बच्चे को किसी भी तरह की रूढ़ियों से बचाने के लिए है। यह बाल अधिकार कन्वेंशन, 1989 के तहत मान्यता प्राप्त बच्चे के सर्वोत्तम हित के अनुरूप (कन्सोनंस) है। 

रेवानसिदाप्पा और अन्य बनाम मल्लिकार्जुन व अन्य (2011) में, सुप्रीम कोर्ट ने भी हिन्दू संयुक्त परिवार की संपत्ति में वॉइड शादी से जन्मी एक बच्चे की संदायादता (कोपर्सनरी) अधिकार को मान्यता दी है। इस मामले में, एक व्यक्ति की दूसरी शादी को अमान्य माना जाता है क्योंकि पहली शादी पहले से ही चल रही थी। 

मुद्दा यह था कि क्या वॉइड विवाह से पैदा हुआ बच्चा पैतृक (एंसस्ट्रल) संपत्ति के हिस्से का दावा करने का हकदार होगा। न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 16(3) की व्यापक रूप से व्याख्या करके पुष्टि की, जो वॉयड विवाह से पैदा हुए बच्चे को संपत्ति (स्व-अर्जित (सेल्फ एक्वायर्ड) और पैतृक दोनों) प्राप्त करने की अनुमति देता है।

इसलिए, यह निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए कि नाजायज माता-पिता हो सकते हैं लेकिन कानून बच्चे को नाजायज घोषित करने की अनुमति नहीं देगा। यह वैवाहिक संबंधों से बाहर पैदा हुए लोगों सहित बच्चे के सर्वोत्तम हितों की रक्षा करता है। 

लिव-इन रिलेशनशिप पर न्यायिक फैसला (जुडिशियल प्रोनाउंस्मेंट)  

लिव-इन रिलेशनशिप के साथ-साथ पसंद की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार  

सलामत अंसारी बनाम स्टेट ऑफ़ यूपी (2020) में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि चुनाव के एक साथी चुनने का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार है। यह अनुच्छेद 21 का एक हिस्सा है क्योंकि यह आंतरिक रूप से व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ है जिसका प्रयोग किसी व्यक्ति के साथ रहने के अधिकार जैसे व्यक्तिगत पसंद का अधिकार के बिना नहीं किया जा सकता है। 

एक साथी चुनने की पसंद की स्वतंत्रता और सम्मान के साथ जीने का अधिकार राज्य के अनावश्यक हस्तक्षेप के बिना प्रयोग किया जाना है। 

कोर्ट ने यह भी देखा कि वयस्क होने के बाद व्यक्ति को अपनी पसंद का साथी चुनने का अधिकार वैधानिक रूप से प्रदान किया जाता है। लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि जिन लोगों को ऐसा अधिकार नहीं दिया गया है, उन्हें इससे वंचित किया जाए? उत्तर तब तक नहीं है जब तक कि स्पष्ट वैधानिक निषेध (प्रोहिबिशन) न हो। 

बेशक, कोई भी विशिष्ट वैधानिक कानून अभी भारत में लिव-इन रिलेशनशिप को वैधता प्रदान नहीं करता है, लेकिन एक जोड़े के रूप में एक साथ रहना अभी भी एक मौलिक अधिकार के रूप में मौजूद है। ऐसा इसलिए है क्योंकि संविधान इस बात में भेदभाव नहीं करता है कि कौन विवाहित है और कौन अपने अधिकारों का प्रयोग करने के उद्देश्य से नहीं है, बशर्ते कि व्यक्ति ने वयस्कता की आयु प्राप्त कर ली हो। 

इस प्रकार गुलझा कुमारी बनाम पंजाब राज्य (2021) के आदेश ने सही कारणों से बहुत आलोचना (क्रिटिसाइज) की है। इस आदेश के पारित होने के कुछ ही हफ्तों के भीतर, पंजाब और हरियाणा के उच्च न्यायालय ने एक और फैसला सुनाया, लेकिन वह पूरी तरह से विपरीत तर्क के साथ था। 

पुष्पा देवी बनाम पंजाब राज्य (2021) में, याचिकाकर्ताओं, लगभग एक 21 साल की लड़की और 19 वर्ष के एक लड़के लीव इन रिलेशनशिप में रहने वाले जोड ने अपने माता पिता से रक्षा के लिए अदालत से सुरक्षा की मांग की, जो कि उनके पारिवारिक प्रतिष्ठा के लिए उन्हें मारने के लिए तैयार थे, चूंकि याचिकाकर्ताओं में से एक लड़के की शादी करने की उम्र 21 साल नहीं हुई है, इसलिए वे शादी करने में सक्षम नहीं थे।

न्यायालय ने न्यायमूर्ति अरुण कुमार के माध्यम से उन्हें इस आधार पर जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा प्रदान कि की दोनों याचिकाकर्ताओं ने उनके उम्र की मेजोरिटी प्राप्त कर ली है और उन्हें अपनी पसंद का प्रयोग (एक्सरसाइज) करने का अधिकार है। यह मामला  की आयु प्राप्त करने के महत्व को भी उजागर करता है और यह कैसे राज्य के हस्तक्षेप के खिलाफ संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करने का रस्ता बदल सकता है। 

इसी तरह की समझ पर, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने मेघा और एक अन्य बनाम हरियाणा राज्य (2019) और कोमलप्रीत कौर और एक अन्य बनाम पंजाब राज्य (2021) में लिव-इन जोड़ों की सुरक्षा के लिए आदेश पारित किए हैं ।

संजय बनाम स्टेट ऑफ़ हरियाणा (2021) में, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की एक और लिव-इन युगल में प्यार हो गया जो फेसबुक पर मिले थे और उन्होंने एक साथ रहने का फैसला किया था, जो अदालत के सामने बचाव के लिए आया था। अदालत ने यह भी माना कि लिव-इन रिलेशनशिप कोई नई घटना नहीं है लेकिन समाज ऐसे रिश्तों को स्वीकार किए बिना इस तरह के रिश्तों को स्वीकार करने की हद तक विकसित नहीं हुआ है।

इसी तरह की समझ पर, श्रीमती दिव्या शेखावत और अन्य बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान और अन्य (2021) में, राजस्थान के उच्च न्यायालय ने देखा कि समाज को यह विनियमित (रेगुलेट) करने का कोई अधिकार नहीं है कि व्यक्ति अपना जीवन कैसे जीने जा रहे हैं, खासकर यदि वे बड़े हैं।  

इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लिव-इन रिलेशनशिप की वैधता का सवाल नंदकुमार बनाम केरल राज्य (2018) में केरल उच्च न्यायालय की एक अपील के माध्यम से आया था। तथ्यों के अनुसार, एक जोड़े ने एक-दूसरे से शादी की और साथ रहने लगे लेकिन पुरुष की शादी की उम्र 21 वर्ष नहीं थी। 

महिला के पिता ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (पेटिशन ऑफ़ हेबियस कॉर्पस) दायर कर बेटी की कस्टडी की गुहार लगाई क्योंकि दंपति शादी के लिए सक्षम नहीं थे। केरल उच्च न्यायालय ने इस तरह महिला की कस्टडी उसके पिता को दे दी। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस आधार पर आदेश को पलट दिया कि मामला विवाह की वैधता से संबंधित नहीं है क्योंकि जोड़े ने वयस्कता की आयु प्राप्त कर ली है और उन्हें एक साथ रहने का अधिकार है। 

शफीन जहान बनाम अशोक के एम (2017) में, न्यायालय ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि एक वयस्क व्यक्ति की पसंद सम्मानित रूप से संविधान में मौलिक अधिकार के माध्यम से अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 के तहत प्रदान की है, और यह भी कहा गया कि किसी व्यक्ति कि पसंद किसी भी वैध कानूनी ढांचे को नहीं लांघती (ट्रांसग्रेस) है। 

यह अधिकार सामाजिक और नैतिक मूल्यों के विरोध में हो सकता है लेकिन ये मूल्य संवैधानिक रूप से गारंटीकृत स्वतंत्रता से ऊपर नहीं हैं। नवतेज सिंह जौहर बनाम यूओआई (2018) और नालसा बनाम यूओआई (2014) के साथ पढ़ा गया यह निर्णय निश्चित रूप से हमें इस बात की सराहना करने की अनुमति देगा कि एक वयस्क की पसंद उनकी व्यक्तिगत पहचान का एक सहज हिस्सा है।

एक अन्य मामला जो विस्तृत रूप से किसी व्यक्ति की पसंद के महत्व से संबंधित है, वह है सोनी गेरी बनाम गेरी डगलस (2018)। इसके तथ्यों के अनुसार, एक वयस्क बेटी के खिलाफ बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की गई थी जो आगे की पढ़ाई के लिए अपने पिता के पास कुवैत वापस जाना चाहती थी। लेकिन उसकी मां ने आरोप लगाया कि उसे उसके पिता के साथ रहने के लिए मजबूर किया जा रहा है। 

बेटी व्यक्तिगत रूप से अदालत में पेश हुई और स्पष्ट रूप से कुवैत वापस जाने का अपना इरादा बताया। कोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि व्यक्तिगत पसंद में 18 साल की उम्र हासिल करने का अपना महत्व है। शक्ति वाहिनी बनाम भारत संघ (2018) में, कोर्ट ने कहा कि किसी व्यक्ति की पसंद मानवीय गरिमा का एक अविभाज्य (अनसेपरेबल) हिस्सा है और उसमें सम्मान के बिना कुछ चुनने का अधिकार मौजूद नहीं हो सकता। 

निजता के अधिकार की तुलना में लिव-इन रिलेशनशिप का अधिकार 

एक और तरीका जिसके माध्यम से लिव-इन रिलेशनशिप में रहने की पसंद और स्वतंत्रता का विश्लेषण किया जा सकता है, वह है निजता का अधिकार। केएस पुट्टस्वामी बनाम यूओआई (2017) में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 का एक पहलू है। 

कोर्ट ने आगे कहा कि गोपनीयता एक मानव व्यक्तित्व के मूल का प्रतिनिधित्व करती है और प्रत्येक व्यक्ति की पसंद करने, अंतरंग (पर्सनल) और व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करने वाले निर्णय लेने की क्षमता को पहचानती है। एक साथी चुनने का अधिकार किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत अंतरंगताओं (पर्सनल इंटीमेसी) के संरक्षण सहित अपने जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं को नियंत्रित करने की क्षमता से संबंधित है। 

व्यक्तिगत स्वायत्तता (ऑटोनोमी) को सामाजिक परिवेश (मिलियू) के मापदंडों से नहीं आंका (जज) जाना चाहिए। इस फैसले को नवतेज सिंह जौहर बनाम यूओआई (2018) के साथ भी पढ़ा जाना चाहिए। दोनों का संयुक्त पठन हमें यह समझने की अनुमति देता है कि निजता का अधिकार अन्य यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान वाले व्यक्तियों के लिए पसंद का साथी चुनने के अधिकार की भी रक्षा करेगा। 

हालाँकि, हाल ही में, सरकार ने समलैंगिक विवाह को मान्यता देने का विरोध करते हुए कहा कि ‘कोई भी मर नहीं रहा है क्योंकि उनके पास विवाह प्रमाण पत्र नहीं है’। चूंकि यह तीसरे लिंग को अधिकार देने के लिए उनकी राय है, इसलिए संभवतः उनके लिव-इन रिलेशनशिप को पहचानने में उनकी अनिच्छा का अनुमान लगाया जा सकता है। 

पिछले साल, चिन्मयी जेना @ सोनू कृष्णा जेना बनाम उड़ीसा राज्य (2020) में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने समलैंगिक जोड़ों को लिव-इन रिलेशनशिप में रहने की अनुमति दी थी। न्यायालय ने नालसा बनाम यूओआई (2014) और योग्याकार्ता सिद्धांतों पर अपना निर्णय आधारित किया । 

योग्याकार्ता सिद्धांत विभिन्न यौन अभिविन्यास (सेक्शुअल ओरिएंटेशन) और लिंग पहचान के व्यक्तियों के अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकारों की मान्यता पर आधारित हैं। ये सिद्धांत मानते हैं कि समलैंगिक जोड़ों को सिद्धांत 24 के तहत एक परिवार ‘पाने का अधिकार’ है और यह पूरी तरह से वैवाहिक स्थिति पर आधारित नहीं है। 

परमजीत कौर बनाम स्टेट ऑफ पंजाब (2020) में, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे समलैंगिक जोडे की रक्षा करते हुए कहा कि उनकी एक दूसरे के साथ अपने रिश्ते की वैधता को, उनके जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को एक ही महत्व है।

लिव-इन-रिलेशनशिप की अंतर्राष्ट्रीय समझ

लिव-इन रिलेशनशिप यूरोप और अमेरिका में कॉमन लॉ मैरिज के रूप में बहुत आम है। आम कानून विवाह ज्यादातर अनुबंधों (कॉन्ट्रैक्ट) पर आधारित होते हैं जहां जोड़े कुछ अधिकारों और दायित्वों को अपनाने का फैसला करते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में, एक महिला को जो काफी समय से लिव-इन रिलेशनशिप में है गुजारा भत्ता (मेंटनेंस अलाउंस) देने पर भी विचार किया जाता है। लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिलाओं को गुजारा भत्ता देने के लिए ‘पालिमनी’ शब्द गढ़ा गया था। 

में मारविन बनाम मारविन (1976), पालिमनी के लिए एक मामला कैलिफोर्निया सुपीरियर कोर्ट के सामने आया। इस मामले में एक मशहूर अभिनेता मार्विन ली लेडी मिशेल मार्विन के साथ गैर-वैवाहिक संबंध में रह रहे थे और उन्होंने एक संविदात्मक समझौता (कॉन्ट्रैक्चुअल एग्रीमेंट) भी किया था। 

अनुबंध में कहा गया है कि मार्टिन मिशेल को एक साथी के रूप में खुद को समर्पित करने के लिए वह एक गायिका के रूप में अपने आकर्षक करियर को छोड़ने पर विचार करने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करेगी। अदालत ने उस व्यवस्था को कानूनी रूप से वैध माना। 

हेलेन एम. देवेनी बनाम फ्रांसिस (2008) के एक अन्य मामले में, न्यू जर्सी सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत से यह माना कि लिव-इन रिलेशनशिप में सहवास एक शर्त नहीं है, जो कि पालिमनी के लिए कार्रवाई के कारण प्रीसीडेंट है, बशर्ते कि वह एक अस्तित्व हो वैवाहिक-प्रकार के संबंधों का अस्तिव होना चाहिए। 

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

अब एक आम सहमति होनी चाहिए कि विधायिका और न्यायपालिका ने लिव-इन-रिलेशनशिप की वैधता को बार-बार पहचाना है। हाल के दिनों में बहुत सारे निर्णय भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 से निकलने वाली पसंद की स्वतंत्रता के महत्व पर जोर देने की क्षमता में प्रगतिशील रहे हैं। 

चूंकि यह मामला रहा है, हाल के गुलझा फैसले को एक अच्छे प्रीसीडेंट के रूप में नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि इसमें याचिकाकर्ताओं के कानूनी और मौलिक अधिकार हैं जिसे कि एक अभिभावक (गार्डियन) के रूप में संरक्षित करना था। 

लिव-इन रिलेशनशिप को विशिष्ट अधिकार नहीं देने के लिए विधायिका की ओर से कुछ अनिच्छा (रेलक्टेंस) भी है। यह इस तथ्य से प्रमाणित किया जा सकता है कि हाल ही में सरोगेसी (संशोधन) विधेयक, 2019, समलैंगिक वाले लिव-इन भागीदारों सहित लिव-इन भागीदारों को अल्ट्रूइस्टिक सरोगेसी का विकल्प चुनने की अनुमति नहीं देता है। 

अब कोई बहाना नहीं होना चाहिए कि विधायिका लिव-इन रिलेशनशिप को वैधता प्रदान नहीं करती है क्योंकि सम्मान से अधिक, इसकी प्राप्ति महत्वपूर्ण है। अंत में, संवैधानिक न्यायालय के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह उन उदाहरणों को छोड़ दे जो मानवाधिकारों की गतिशील प्रकृति की सराहना करने में बाधा उत्पन्न करते हैं। 

संदर्भ (रेफरेंसेस)

 

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