भारत में क्रिमिनल कोर्ट्स के पावर्स और हायरार्की 

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यह लेख गुरु गोविन्द सिंह इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी से सहबद्ध (एफिलिएटेड) इंस्टिट्यूट ऑफ़ प्रोफेशनल स्टडीज की छात्रा Aparajita Balaji  के द्वारा लिखा गया है। इस लेख में उन्होंने ने इंडिया में क्रिमिनल कोर्ट की हायरार्की के साथ साथ कोर्ट के संगठन (कंस्टीटूशन)और पावर्स पर भी चर्चा की है। इसके अलावा यह लेख सभी को न्याय दिलाने वाले इस प्रकार कोर्ट्स की हायरार्की के महत्त्व और ज़रुरत को स्पष्ट करता है। इस लेख का अनुवाद Aseer Jamal  द्वारा किया गया है। 

परिचय (इंट्रोडक्शन) 

इंडियन ज्यूडिशियरी दुनिया की सबसे कुशल (एफिशंट) ज्यूडिशियल सिस्टम्स में से एक है। ज्यूडिशियरी इंडियन कंस्टीटूशन से अपनी पावर्स प्राप्त करती हैं। विधायिका (लेजिस्लेचर) या कार्यपालिका (एग्जीक्यूटिव) द्वारा दिए गए पावर्स के दुरूपयोग को रोकने के लिए कोर्ट्स का होना बहुत ज़रूरी है। इंडियन ज्यूडिशियरी नागरिकों के फंडामेंटल राइट्स की संरक्षक (कस्टोडियन) होने के साथ साथ इंडियन कंस्टीटूशन की भी संरक्षक (गार्डियन) है।

ज्यूडिशियरी काफी लम्बी और जटिल कोर्ट्स की हायरार्की के साथ अच्छी तरह स्थापित (इस्टाब्लिशड) है। ज्यूडिशियल सिस्टम इस तरह स्थापित किया गया  है कि यह देश के हर व्यक्ति की ज़रुरत को पूरा करता है। भारत में ज्यूडिशियल सिस्टम एक पिरामिड के रूप में है जिसमें सुप्रीम कोर्ट हायरार्की में सबसे ऊपर है। हायरार्की इस तरह बनाई गयी है कि एक दूरस्थ छेत्र (रिमोट एरिया) के व्यक्ति को अपने विवादों के हल के लिए कोर्ट्स में जाना संभव हो। यह सिस्टम यूनियन के मुद्दों के साथ साथ राज्य के कानूनों से निपटने के लिए अच्छी तरह से सुसज्जित है। 

क्रिमिनल कोर्ट्स की हायरार्की 

भारत में क्रिमिनल कोर्ट्स की हायरार्की इस तरह है :

  • सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया – सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया, इंडियन कंस्टीटूशन के आर्टकिल 124 के तहत स्थापित की गयी है।
  • हाई कोर्ट्स ऑफ़ इंडिया – हाई कोर्ट्स हायरार्की के दूसरे स्तर पर है। ये संविधान (कंस्टीटूशन) के आर्टिकल 141 द्वारा शासित (गवर्नड) होते हैं और सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बाध्य (बाउंड) होते हैं। 
  • भारत के निचली अदालतों (लोअर कोर्ट्स) को निम्नलिखित रूप से वर्गीकृत (क्लासिफाइड) किया गया है। 
  • मेट्रोपोलिटन कोर्ट्स 
  • सेशंस कोर्ट्स 
  • चीफ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट 
  • फर्स्ट क्लास मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट 
  • डिस्ट्रिक्ट कोर्ट्स 
    • सेशन कोर्ट 
    • फर्स्ट क्लास ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट 
    • सेकण्ड क्लास ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट 
    • एग्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट 

भारत में क्रिमिनल कोर्ट्स का संगठन (कंस्टीटूशन ऑफ़ क्रिमिनल कोर्ट्स इन इंडिया)

  1. सेशन जज – सी. आर. पी. सी. की धारा 9 सेशन कोर्ट के स्थापना की बात करती है। राज्य सरकार सेशन कोर्ट की स्थापना करती है जिसकी अध्यक्षता हाई कोर्ट द्वारा नियुक्त जज करता है। हाई कोर्ट एडिशनल के साथ साथ असिस्टेंट सेशन जज भी नियुक्ति करता है। सेशन कोर्ट आमतौर पर हाई कोर्ट के आदेशानुसार स्थान और स्थानों पर बैठता है। लेकिन किसी विशेष मामले में,अगर सेशन कोर्ट की राय है कि उसे पक्षों (पार्टीज़) और गवाहों (विटनेसेस) की सुविधा को पूरा करना होगा तब वह प्रॉसिक्यूशन और आक्यूसेड की सहमति के बाद किसी अन्य स्थान’पर अपनी बैठक की अध्यक्षता करेगा। सी. आर. पी. सी. की धारा 10 के तहत असिस्टेंट सेशन जज, सेशन जज के प्रति जवाबदेह होते हैं। 
  2. एडिशनल/असिस्टेंट सेशन जज – ये किसी विशेष राज्य के हाई कोर्ट द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। ये सेशन जज की अनुपस्थिति में हत्या, चोरी, डकैती, जेबकतरे जैसे अन्य मामलों की सुनवाई लिए जिम्मेदार होते हैं। 
  3. ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट – हर ज़िले में, जो मेट्रोपोलिटन एरिया नहीं है वहां पर फर्स्ट क्लास और सेकण्ड क्लास ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट जितना हो सकते हैं होंगे। प्रेसिडिंग ऑफिसर्स की नियुक्ति हाई कोर्ट द्वारा की जाएगी। प्रत्येक ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट सेशन जज के अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) होगा।
  4. चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट – मेट्रोपोलिटन एरिया को छोड़कर, ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट ऑफ़ फर्स्ट क्लास को चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के रूप में नियुक्त किया जायेगा। सिर्फ फर्स्ट क्लास ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट को एडिशनल चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के रूप में नामित किया जा सकता है। 
  5. मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट – ये मेट्रोपोलिटन एरिया में स्थापित होते हैं। हाई कोर्ट्स के पास प्रेसिडिंग ऑफिसर की नियुक्ति करने की पावर होती है। मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट को चीफ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट के रूप में नियुक्त किया जायेगा। मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट सेशन जज के निर्देशों के तहत काम करता है। 
  6. एक्सेक्यूटिव मजिस्ट्रेट – सी. आर. पी. सी.  की धारा 20 के अनुसार हर ज़िले और हर मेट्रोपॉलिशन एरिया में राज्य सरकार द्वारा एक एग्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट की नियुक्ति की जाएगी और उनमें से एक जिला मजिस्ट्रेट होगा। 

क्रिमिनल कोर्ट की पावर्स 

1 . सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ज्यूडिशियल सिस्टम के शीर्ष पर अंतिम अदालत है। हमारे देश में इसका सर्वोच्च न्यायिक अधिकार है। 

  • फ़ेडरल कोर्ट – आर्टिकल 131 केंद्र और राज्यों के बीच या दो राज्यों के बीच उत्पन्न होने वाले विवाद को हल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट को ओरिजिनल जूरिस्डिक्शन का पावर देता है।
  • संविधान की व्याख्या (इंटरप्रिटेशन ऑफ़ कंस्टीटूशन) – संविधान से सम्बंधित किसी भी मुद्दे के आधार पर किसी प्रश्न को हल करने की पावर केवल सुप्रीम कोर्ट के पास है।
  • पावर ऑफ़ ज्यूडिशियल रिव्यु (आर्टिकल 137) – सभी कानून ज्यूडिशियरी के द्वारा जांच के अधीन हैं।
  • कोर्ट ऑफ़ अपील – सुप्रीम कोर्ट भारत में अपील के लिए सर्वोच्च न्यायालय है। इसके पास हमारे देश के विभिन्न’हाई कोर्ट और सबोर्डिनेट कोर्ट्स में पड़े सभी मामलों की अपील सुनने की पावर है। कानून के सवाल से जुड़े हाई कोर्ट के सभी मामलों में किसी भी फैसले, डिक्री या अंतिम आदेश (फाइनल आर्डर) के संबंध में संविधान के आर्टिकल 132(1), 133(1) और 134 के अनुसार सर्टिफिकेट ऑफ़ ग्राण्ट प्रदान दिया जाता है। सुप्रीम कोर्ट में अपील निम्नलिखित श्रेणियों (काटेगोरीज़) के तहत की जा सकती हैं: 
  • संवैधानिक मामले (कोंस्टीटूशनल मैटर) 
  • सिविल मामले 
  • क्रिमिनल मामले 
  • स्पेशल लीव पिटीशन 

2. हाई कोर्ट्स 

  • ओरिजिनल जूरिस्डिक्शन – कुछ मामलों में, मामला सीधे हाई कोर्ट्स में दायर किया जा सकता है। इसे हाई कोर्ट के ओरिजिनल जूरिस्डिक्शन के रूप में जाना जाता है जैसे कि फंडामेंटल राइट्स, विवाह और तलाक के मामले।
  • अपीलेट जूरिस्डिक्शन – निचली अदालत से आने वाले मामलों के लिए हाई कोर्ट अपीलीय न्यायालय है।
  • सुपरवाइजरी जूरिस्डिक्शन – यह सभी सबोर्डिनेट कोर्ट्स के मामलों पर हाई कोर्ट्स की जेनरल पावर ऑफ़ सुपरिंटेंडेंस की बात करता है।

इंडियन कंस्टीटूशन में विभिन्न कोर्ट्स की पावर्स को हाईलाइट किया गया है। इन कोर्ट्स के अलावा, सबोर्डिनेट क्रिमिनल कोर्ट्स की पावर एंड फंक्शन्स को कोड ऑफ़ क्रिमिनल प्रोसीजर, 1973 की धारा 6 में बताया गया है।

  • कोर्ट ऑफ़ सेशन 
  • फर्स्ट क्लास ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट और किसी भी मेट्रोपोलिटन एरिया में मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट 
  • सेकण्ड क्लास ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट 
  • एग्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट्स 

कोड ऑफ़ क्रिमिनल प्रोसीजर की धारा 26-35 में विभिन्न सबोर्डिनेट क्रिमिनल कोर्ट्स की पावर को बताया गया है, जिसका वर्णन नीचे दिया गया है। 

धारा 26 में उन कोर्ट्स की सूची (लिस्ट) दी गयी है जो अपराधों की सुनवाई कर सकती हैं – धारा 26 के अनुसार, इंडियन पीनल कोड के तहत दिए गए किसी भी अपराध की सुनवाई हो सकती है।

  • हाई कोर्ट 
  • कोर्ट ऑफ़ सेशन 
  • क्रिमिनल प्रोसीजर के फर्स्ट शेड्यूल में विनिर्दिष्ट (स्पेसिफाइड) किसी भी अन्य कोर्ट द्वारा 

हालाँकि यह सुनिश्चित होना चाहिए की इंडियन पीनल कोड की धारा 376, धारा 376A, धारा 376B, धारा 376C, धारा 376D और धारा 376E के तहत किये गए किसी भी अपराध  पर एक महिला जज द्वारा मुक़दमा की सुनवाई की जाये

3. सेशंस कोर्ट 

राज्य सरकार सेशंस कोर्ट की स्थापना करती है जिसकी अध्यक्षता हाई कोर्ट द्वारा नियुक्त जज करता है। हाई कोर्ट एडिशनल के साथ असिस्टेंट सेशन जज की भी नियुक्ति करता है। सेशंस कोर्ट आमतौर पर हाई कोर्ट के आदेशानुसार स्थान और स्थानों पर बैठता है

4. मजिस्ट्रेट कोर्ट 

मजिस्ट्रेट जजों की नियुक्ति आमतौर पर हाई कोर्ट द्वारा की जाती है

जूवेनाइल्स के मामलों में जूरिस्डिक्शन (धारा 27) – कोई भी व्यक्ति जो सोलह साल से कम आयु का है, जो जुवेनाइल है, उसे मृत्युदंड और आजीवन कारावास की सजा से छूट दी गई है। चिल्ड्रेन एक्ट, 1960 (60 ऑफ़ 1960) और कोई अन्य कानून जो फ़िलहाल लागु है जो के युथ अपराधी के ट्रीटमेंट, ट्रेनिंग और रेहाबिलिएशन की बात करता है इन एक्ट्स के द्वारा स्पेशिअली एम्पवार्ड चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट, या कोई और कोर्ट, इस तरह के मामलों पर मुक़दमे की सुनवाई करने योग्य है

मिसलेनियस पावर्स 

  • पावर्स देने का तरीका – धारा 32 कहता है कि हाई कोर्ट या राज्य सरकार के पास एक आदेश द्वारा लोगों को उनके खिताब की बुनियाद पर एम्पावर करने की पावर  है।
  • विथड्रॉल ऑफ़ पावर्स – धारा 33 के अनुसार,हाई कोर्ट या राज्य सरकार को इस कोड के तहत उनके द्वारा दी गयी पावर्स को वापस लेने की पावर है।
  • पावर ऑफ़ जजेस और मजिस्ट्रेट जो उनके सक्सेसर्स-इन-ऑफिस द्वारा इस्तेमाल की जा सकती हैं – धारा 35 के अनुसार, इस कोड के अन्य प्रावधानों के अधीन, एक जज या मजिस्ट्रेट की पावर्स और ड्यूटीज को उनके सक्सेसर-इन-चीफ द्वारा परफॉर्म किया जा सकता है।

विभिन्न कोर्ट्स द्वारा पारित होने वाली सज़ाएं (सेन्टेन्सेस विच कैन बी पास्ड बाई दी वेरियस कोर्ट्स)

  1. हाई कोर्ट और सेशन जजेस (धारा 28) निम्नलिखित सज़ा दे सकते हैं 
  • कानून द्वारा अधिकृत (औथोराइज़्ड) कोई भी सजा हाई कोर्ट दे सकता है
  • एक सेशंस या एडिशनल सेशन जज के पास कानून द्वारा अधिकृत किसी भी सजा को देने का अधिकार है। लेकिन, मृत्युदंड देते समय हाई कोर्ट से पूर्व अनुमति की ज़रुरत होती है। 
  • एक असिस्टेंट सेशन जज के पास कानून द्वारा अधिकृत किसी भी सजा को देने का अधिकार है। ऐसा जज मृत्युदंड, आजीवन कारावास या 10 साल से ज़्यादा की कारावास की सजा नहीं दे सकता है
  1. मजिस्ट्रेट द्वारा दी गयी सज़ाएं (धारा 29) – कोर्ट ऑफ़ चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट मृत्युदंड, आजीवन कारावास या सात साल से ज़्यादा के कारावास को छोड़कर कानून द्वारा स्वीकृत (एप्रूव्ड) किसी भी सजा को पारित करने का अधिकार है।
  • फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट तीन साल से ज़्यादा अवधि (टर्म) के लिए कारावास की सजा या दस हजार रुपये से ज़्यादा का जुर्माना या दोनों को देने के लिए योग्य है
  • सेकण्ड क्लास मजिस्ट्रेट एक वर्ष से ज़्यादा अवधि के लिए कारावास, या जुर्माना या दोनों की सजा दे सकता है। लेकिन जुर्माना पांच हजार रुपये से ज़्यादा नहीं हो सकता है
  • फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट के पावर्स के अलावा, चीफ मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के पास चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के साथ-साथ मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट की भी पावर्स होती हैं।
    1. जुर्माना नहीं देने पर सज़ा (धारा 30) – इस धारा के अनुसार, मजिस्ट्रेट को कानून द्वारा स्पेसिफाइड जुर्माना का भुगतान नहीं होने पर कारावास देने की पावर होती है | लेकिन निम्नलिखित शर्तों को पूरा करने की जरूरत है:
  • ये अवधि मजिस्ट्रेट के पावर्स के दायरे से बाहर नहीं होना चाहिए (धारा 29)
  • ये अवधि कारावास की अवधि का एक-चौथाई से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए, जिसे मजिस्ट्रेट केवल तभी देने के लिए योग्य है जब कारावास,अपराध के लिए सजा के रूप में मुख्य (सब्सटांटिव) सजा का एक हिस्सा है।
  • इस धारा के तहत कारावास की सजा धारा 29 के तहत मजिस्ट्रेट द्वारा दी जाने वाली अधिकतम अवधि के लिए कारावास की मुख्य सजा के अतिरिक्त हो सकती है।
  • एक मुकदमे में कई अपराधों  के दोषसिद्धि (कनविक्शन) होने पर सजा (धारा 31) – इस धारा के अनुसार, जब किसी व्यक्ति को दो या दो से ज़्यादा अपराधों  के लिए दोषी पाया जाता है, तो कोर्ट उसे एक मुकदमे में ऐसे अपराध के लिए धारा 71 के प्रावधानों के अधीन सजा दे सकता है।
  • कोर्ट के पास कई और सजा देने की भी पॉवर है। कारावास की ऐसी सजाएं अन्य सज़ाओं की समाप्ति पर शुरू हो सकती हैं। जब तक कोर्ट्स यह निर्देश नहीं देतीं हैं कि ऐसी सजाएं एक साथ चलनी चाहिए। सकसीडिंग सेन्टेन्स के मामले में, कोर्ट के लिए अपराधी को हाई कोर्ट के समक्ष भेजना ज़रूरी नहीं है अगर कई अपराधों के लिए कुल सजा कोर्ट द्वारा एक अपराध  में दी जाने वाली सजा कोर्ट की पावर से ज़्यादा है बशर्ते कि:
  • कारावास का अवधि चौदह साल से ज़्यादा की नहीं होनी चाहिए। 
  • कुल सजा भी उस सजा से दोगुने से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए जो न्यायालय एक ही अपराध में देने के लिए योग्य है।

अपील के लिए, इस धारा के तहत अपराधी के खिलाफ दी गयी कुल सजा को आम तौर पर एक ही माना जाता है। 

कोर्ट्स के बीच डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ़ पावर्स में होने वाले परिवर्तन (चैंजेस टू बी मेड इन द एक्सिस्टिंग डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ़ पॉवर अमोंग द कोर्ट) 

वर्तमान में, भारत में, आपराधिक मामलों में मौत की सजा होने पर कोई विशेष दिशा निर्देश (गाइडलाइन्स ) नहीं हैं। इसके अलावा, बहुत सारे अपराधों  में या तो अधिकतम (मैक्सिमम) या न्यूनतम (मिनिमम) सजा का ही उल्लेख किया गया है। यह फैसला जज पर छोड़ दिया गया है कि किसी विशेष परिस्थिति में सजा की सही अवधि क्या होनी चाहिए। 

समान परिस्थितियों (सर्कमस्टांसेस) के मामलों में जजों के पास  विशेष सजा देने के लिए कोई यूनिफार्म प्रोसीजर और परफॉर्मा नहीं है। समान तथ्यों (फैक्ट्स) वाले मामलों में भी सजा की मात्रा अलग अलग हो सकती है। इसलिए जजों के पास एक स्ट्रक्चर्ड लेआउट होना ज़रूरी है जिसके मानदंडों (क्राइटेरिआ) को आधार बनाकर उन्हें अपना फैसला देना चाहिए।

निष्कर्ष (कन्क्लूज़न)

इंडियन कंस्टीटूशन भारत में बहुत अहमियत रखता है और इसके पास पूर्ण अधिकार (अब्सोल्युट अथॉरिटी) है। इसलिए, इसकी सुरक्षा के लिए कुछ करना बहुत ज़रूरी हो जाता है और इसी वजह से, कोर्ट्स को हर तरह की पावर्स दी जाती हैं ताकि वह जांच करें और यह सुनिश्चित करें की कोई भी प्राधिकरण (औथोरिटी) अपनी पावर्स का दुरुपयोग और दूसरों के डोमेन पर अतिक्रमण (एन्क्रोचमेंट) नहीं करे। कोर्ट रूम ऐसी जगह हैं जहां लोग अपनी शिकायतें ले जा सकते हैं और सरकार के अन्य सिस्टम के फेल होने पर अपने विवादों का समाधान करवा सकते हैं।

कोर्ट्स की हायरार्की इस तरह विकसित की गयी है कि इस देश में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए जब भी कोई विवाद उत्पन्न होता है तो उसके लिए कोर्ट्स का दरवाजा खटखटाना हमेशा आसान होता है। यह नागरिकों को हाई कोर्ट्स  में अपील करने का हक़ देता है जब उन्हें लगता है कि लोअर कोर्ट्स ने उनके साथ न्याय नहीं किया है भारत बहुत बड़ी आबादी वाला देश है। इसलिए, इस मौजूदा ज्यूडिशियल सिस्टम को और अच्छा करने की और इसकी प्रक्रिया को आसान बनाने की ज़रुरत है , ताकि लोग इसे आसानी से प्राप्त कर सकें और इससे देश के सभी नागरिकों को न्याय मिल सके।

संदर्भ (रेफरेन्सेस) 

  • कोड ऑफ़ क्रिमिनल प्रोसीजर,1973
  • R.V. Kelkar’s Lectures on Criminal Procedure Paperback – 2018, published by Dr K.N. Chandrasekharan Pillai  

 

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