पिन्निंती वेंकटरमण एवं अन्य बनाम राज्य (1976)

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यह लेख Pujari Dharani द्वारा लिखा गया है। यह लेख पिन्निंती वेंकटरमण और अन्य बनाम राज्य (1976) मामले का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करता है, विशेष रूप से उच्च न्यायालय की टिप्पणियों और हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधानों का विश्लेषण प्रदान करता है और क्यों पंचिरेड्डी अप्पाला सरम्मा बनाम गडेला गणपतुलु (1975) में अपनाए गए दृष्टिकोण को पलट दिया गया, पर चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Himanshi Deswal द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

हम जानते हैं कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (बाद में इसे “अधिनियम” के रूप में उल्लिखित किया गया है) में दूल्हा और दुल्हन दोनों के लिए एक आयु सीमा निर्धारित है। हालांकि, लोग अभी भी इस शर्त का उल्लंघन कर शादियां कर रहे हैं। प्रमुख प्रश्न ऐसे विवाहों की वैधता का है जो वैध हिंदू विवाह की आवश्यक शर्तों में से एक, यानी आयु सीमा का उल्लंघन करके किए गए हैं और क्या ये विवाह कानून की नजर में वैध या शून्य हैं। भारतीय दंड संहिता, 1860 (इसके बाद “आईपीसी” के रूप में उल्लिखित) की धारा 494 यानी, द्विविवाह का अपराध, के तहत मामला स्थापित करने के लिए, दो वैध विवाह संपन्न होने चाहिए। द्विविवाह के लिए अभियुक्त(अक्यूज़्ड) अभियुक्त को दोषी ठहराने के उद्देश्य से बाल विवाह की वैधता, पिन्निंती वेंकटरमण और अन्य बनाम राज्य (1976) के मामले में आंध्र प्रदेश के माननीय उच्च न्यायालय द्वारा संबोधित प्रमुख प्रश्न था। यह एक ऐतिहासिक मामला है जहां बाल विवाह से संबंधित प्रासंगिक प्रावधानों और इसी मुद्दे पर पिछले उदाहरणों को उच्च न्यायालय द्वारा उचित तर्क के साथ स्पष्ट रूप से समझाया गया था।

आइए इस लेख को पढ़ें और मामले के तथ्य, इसमें शामिल पेचीदगियों और विभिन्न कानूनी प्रावधानों को जानें और देखें कि उच्च न्यायालय ने कैसे अपना तर्क दिया।

मामले का विवरण

  • मामले का नाम – पिन्निंती वेंकटरमण और अन्य बनाम राज्य (1976)
  • निर्णय की तारीख– 9 अगस्त, 1976
  • मामले के पक्ष-

1. याचिकाकर्ता: पिन्निंती वेंकटरमण और अन्य।

2. प्रतिवादी: राज्य

  • क्षों का प्रतिनिधित्व

1. याचिकाकर्ता: अधिवक्ता, अर्थात् ए. सूर्या राव और ए. लक्ष्मीनारायण

2. प्रतिवादी: अधिवक्ता, अर्थात् वाई भास्कर राव और जी वेणुगोपाल राव

  • उद्धरण (साइटेशन) – एआईआर 1977 एपी 43
  • मामले का प्रकार – आपराधिक पुनरीक्षण याचिका
  • न्यायालय – आंध्र प्रदेश का माननीय उच्च न्यायालय
  • शामिल प्रावधान और क़ानून – हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 4, 5, 11, 12, 13(2), 16, 17 और 18; भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 109 और 494; और विवाह कानून (संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 18(2)
  • पीठ – आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति बी.जे. दीवान, न्यायमूर्ति अल्लादी कुप्पुस्वामी, और न्यायमूर्ति के.ए. मुक्तदार।

पिन्निंती वेंकटरमण और अन्य बनाम राज्य के तथ्य (1976)

इस मामले में दो आपराधिक पुनरीक्षण याचिकाएं और एक आपराधिक विविध (मिसलेनियस) याचिका शामिल थी। यद्यपि प्रत्येक मामले के तथ्य अलग-अलग हैं, आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा संबोधित किया जाने वाला मुख्य मुद्दा एक ही है। इसलिए, मामले पर निर्णय लेने के लिए तीनों मामलों को उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ के समक्ष एक साथ रखा गया। 

आपराधिक पुनरीक्षण याचिकाओं के संबंध में, मामले के तथ्य यह हैं कि सभी याचिकाकर्ताओं को द्विविवाह के अपराध के लिए दोषी ठहराया गया था। एक न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, राजम द्वारा आईपीसी की धारा 494 के तहत और दूसरा आईपीसी की धारा 109 (उकसाने) के साथ पढ़ी जाने वाली धारा 494 के तहत। दोनों ने निचली अदालत द्वारा अपने संबंधित दोषसिद्धि आदेशों के खिलाफ आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और उच्च न्यायालय ने अपनी अपील में उनकी दोषसिद्धि को बरकरार रखा लेकिन सजा को संशोधित किया और 200 रुपये का जुर्माना लगाया; भुगतान न करने पर ऐसे याचिकाकर्ता को एक महीने की अवधि के लिए कठोर कारावास की सजा देने के लिए कहा। याचिकाकर्ता ने एक बार फिर आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण याचिका दायर करके अपनी सजा के खिलाफ कदम उठाया।

आपराधिक विविध याचिका की बात करें तो, एक महिला, वर्तमान मामले में प्रतिवादी ने अपने पति और दस अन्य व्यक्तियों के खिलाफ न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, सिद्दीपेट, मेडक जिले की न्यायालय में एक आपराधिक शिकायत दर्ज कराई, जिसमें आरोप लगाया गया कि पति ने द्विविवाह का अपराध किया और अन्य लोगों ने इस तरह के कार्य को बढ़ावा दिया।

इन मामलों को बड़ी पीठ को भेजा गया, यानी, उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ, जिसमें तीन न्यायाधीश शामिल हैं, इस मामले में मुख्य मुद्दे के रूप में पंचिरेड्डी अप्पाला सरम्मा बनाम गडेला गणपतुलु (1975) के मामले में इस न्यायालय की खण्ड न्यायपीठ द्वारा पहले ही निपटाया और निर्णय लिया जा चुका था।

पिन्निंती वेंकटरमण एवं अन्य बनाम राज्य (1976) में शामिल प्रावधान

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की प्रस्तावना (प्रियम्ब्ल) में कहा गया है कि यह क़ानून प्रथागत कानूनों सहित उन कानूनों को संशोधित और संहिताबद्ध करने के लिए बनाया गया था, जो हिंदू विवाह की संस्था से संबंधित हैं।

धारा 4

अधिनियम की धारा 4 एक व्यावृत्ति खण्ड (सेविंग क्लॉज़) है, और यह प्रदान करती है कि निम्नलिखित लागू होंगे।

  1. कोई भी हिंदू कानून पुस्तक,
  2. हिन्दू कानून का कोई नियम या व्याख्या,
  3. कोई भी रिति रिवाज़ या प्रथा जो हिंदू कानून का हिस्सा है और
  4. लागू कोई अन्य वैधानिक कानून।

बशर्ते वे हिंदू विवाह अधिनियम के लागू होने से ठीक पहले लागू होने चाहिए और इस अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत नहीं होने चाहिए।

धारा 5

अधिनियम की धारा 5 उन ज़रूरी आवश्यकताओं या अनिवार्य शर्तों के बारे में बात करती है जिन्हें कानून की नजर में किसी विवाह को वैध हिंदू विवाह मानने के लिए पूरा किया जाना चाहिए। कानूनी भाषा के अनुसार, एक विवाह जो कुछ शर्तों को पूरा करता है, उसे पक्षों के बीच संपन्न विवाह कहा जाता है और इसलिए, यह एक वैध हिंदू विवाह है। वैध हिंदू विवाह के लिए आवश्यक शर्तें निम्नलिखित हैं, जो वर्ष 1976 के समय मौजूद थीं, जिनमें अंततः संशोधन किया गया।

  1. खंड (i): विवाह के दोनों पक्षों, दूल्हा और दुल्हन, का विवाह के समय कोई जीवित जीवनसाथी नहीं होना चाहिए। हालाँकि, यदि किसी के पहले पति या पत्नी की मृत्यु हो गई है और उसने पहले पति या पत्नी की मृत्यु के बाद किसी अन्य महिला से दोबारा शादी की है, तो उसका कार्य द्विविवाह के अपराध की श्रेणी में नहीं आता है क्योंकि पहली शादी जारी नहीं रहती है। यहां कहा गया है कि पक्ष ने इस शर्त का उल्लंघन नहीं किया क्योंकि उन्होंने पहले पति या पत्नी की मृत्यु के बाद ही दूसरी बार शादी की थी।
  2. खण्ड (ii): विवाह के समय विवाह का कोई भी पक्ष मूर्ख या पागल नहीं होना चाहिए। यदि किसी पक्ष में विवाह के बाद पागलपन जैसी मानसिक बीमारी विकसित हो जाती है, तो इस शर्त के उल्लंघन के आधार पर ऐसे विवाह को शून्य घोषित नहीं किया जा सकता है। यह शर्त इसलिए रखी गई है क्योंकि कानून के अनुसार विवाह के समय व्यक्ति का दिमाग ठीक होना चाहिए और उसे कोई मानसिक बीमारी नहीं होनी चाहिए, ताकि वह जो विवाह कर रहा है, उसके लिए सहमति दे सके।
  3. खंड (iii): विवाह की तिथि पर, दूल्हे की आयु 18 वर्ष पूरी होनी चाहिए, जबकि दुल्हन की आयु 15 वर्ष होनी चाहिए। 
  4. खंड (iv): विवाह से पहले दूल्हा और दुल्हन के बीच का संबंध विवाह की किसी भी निषिद्ध डिग्री के अंतर्गत नहीं आना चाहिए। अधिनियम ने इस शर्त के लिए एक अपवाद प्रदान किया। अपवाद यह है, जब पक्षों को नियंत्रित करने वाली कोई प्रथा ऐसे विवाह की अनुमति देती है, हालांकि यह रिश्ते की निषिद्ध डिग्री के अंतर्गत आ सकता है, ऐसा विवाह शून्य नहीं है और इस शर्त से बच जाता है।
  5. खंड (v): विवाह के पक्षों के बीच कोई सपिंड संबंध नहीं होना चाहिए। इस शर्त का अपवाद यह है कि जिस जाति या समुदाय से दोनों पक्ष संबंधित हैं, उसकी रीति-रिवाज या प्रथा ऐसे विवाह की अनुमति देती है।
  6. खंड (vi): कानून कहता है कि अगर दुल्हन की उम्र 18 वर्ष से कम है तो उसके अभिभावक को ऐसी शादी के लिए सहमति देनी होगी।

धारा 11

अधिनियम की धारा 11 हमें बताती है कि किसी विवाह को कानून के अनुसार शून्य विवाह कब कहा जाता है। इस धारा के अनुसार, किसी विवाह को शून्य घोषित करने के लिए निम्नलिखित अनिवार्यताओं को पूरा किया जाना चाहिए और विवाह का कोई भी पक्ष, जो एक सक्षम न्यायालय में याचिका शुरू करके विवाह की शून्यता के लिए डिक्री की मांग कर रहा है, उसे ऐसे न्यायालय से प्राप्त कर सकता है।

  1. दो हिंदुओं के बीच विवाह संपन्न हुआ होगा;
  2. हिंदू विवाह अधिनियम के लागू होने के बाद ऐसा अनुष्ठान अवश्य होना चाहिए; और
  3. इस तरह के विवाह ने अधिनियम की धारा 5 के खंड (i), (iv) या (v) का उल्लंघन किया होगा।

इस धारा के शब्दों के अनुसार, विधायिका का इरादा यह है कि केवल तीन खंडों, अर्थात् खंड (i), (iv) और (v) का उल्लंघन, विवाह की शून्यता की डिक्री का कानूनी परिणाम है, अन्य खंडों के संबंध में नहीं।

धारा 12

अधिनियम की धारा 12 हमें बताती है कि कौन सा विवाह एक शून्यकरणीय (वॉइडेबल) विवाह का गठन करता है, जो एक ऐसा विवाह है जिसे एक पति या पत्नी के विकल्प पर शून्य घोषित किया जा सकता है जो ऐसा करने का हकदार है। कोई भी व्यक्ति, याचिका द्वारा, अपने विवाह की शून्यता की डिक्री प्राप्त कर सकता है, बशर्ते कि निम्नलिखित में से किसी एक आधार को पूरा किया जाना चाहिए।

  1. दोनों में से कोई भी पक्ष नपुंसक (इम्पोटेंट) है और इस कारण से, विवाह संपन्न नहीं होता है।
  2. धारा 5 के खंड (ii) में निर्दिष्ट मूर्ख या पागल न होने की शर्त का विवाह के किसी भी पक्ष द्वारा उल्लंघन किया गया था।
  3. याचिकाकर्ता की सहमति या, विवाह में अभिभावक की सहमति के मामले में, विवाह के निष्पादन के संबंध में अभिभावक की सहमति या तो बलपूर्वक या धोखाधड़ी से प्राप्त की गई थी। कपटपूर्ण प्रतिनिधित्व (रिप्रजेंटेशन) के मामलों में जिसके कारण सहमति प्राप्त की गई थी, ऐसे प्रतिनिधित्व का संबंध निम्नलिखित पहलुओं से होना चाहिए।
  • ऐसे विवाह के दौरान किए जाने वाले किसी भी समारोह की प्रकृति।
  • विवाह के दूसरे पक्ष जो याचिका में प्रतिवादी होगा, से संबंधित कोई सामग्री या महत्वपूर्ण तथ्य या परिस्थिति।

धारा 16

अधिनियम की धारा 16 शून्य और शून्यकरणीय विवाह के मामलों में बच्चों की वैधता के बारे में नियम प्रदान करती है। नियम यह है कि शून्य विवाह से पैदा हुए बच्चों को हमेशा वैध बच्चे माना जाएगा, बशर्ते ऐसे बच्चे धारा 12 के तहत न्यायालय द्वारा शून्यता की डिक्री दिए जाने से पहले पैदा हुए हों और विवादित विवाह वैध होने की स्थिति में उन्हें नाजायज नहीं माना जाएगा।

धारा 17

अधिनियम की धारा 17 में विवाह के उस पक्ष को दंडित करने का प्रावधान है जो धारा 5 के खंड (i) यानी एक विवाह नियम का उल्लंघन करता है। यह प्रावधान विशेष रूप से कारावास की अवधि या लगाए जाने वाले जुर्माने को निर्धारित नहीं करता है; बल्कि, यह सिर्फ इतना कहता है कि ऐसा विवाह, जो खंड (i) में निर्धारित नियम का उल्लंघन करके किया गया है, शून्य है और पक्ष, चाहे दूल्हा हो या दुल्हन, द्विविवाह का अपराध करता है। दंडात्मक प्रावधान, अर्थात्, भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494 और 495, ऐसे व्यक्ति को द्विविवाह का अपराध करने के लिए उत्तरदायी बनाने के लिए लागू होंगे।

द्विविवाह के कानूनी परिणाम को निर्दिष्ट करने के संबंध में धारा 12 और 17 के बीच अंतर यह है कि धारा 12 केवल ऐसे विवाह की वैधता बताती है और इसे शून्य बताती है, जबकि धारा 17 ऐसे विवाह को शून्य घोषित करने के अलावा, इसके लिए सजा भी निर्धारित करती है।

धारा 18

अधिनियम की धारा 18 में विवाह के उस पक्ष के लिए सज़ा का प्रावधान है, जो अधिनियम की धारा 5 के कुछ खंडों, अर्थात् खंड (iii), (iv), (v), और (vi) का उल्लंघन करता है। 1976 के समय, धारा में प्रदान किए गए प्रत्येक खंड के उल्लंघन के लिए सजा नीचे दी गई है।

धारा 5 में एक खंड का उल्लंघन धारा 18 में सजा का प्रावधान
खंड (iii) का उल्लंघन, यानी, दूल्हा और दुल्हन दोनों के लिए निर्धारित आयु सीमा अधिकतम पंद्रह दिन का साधारण कारावास, या 1000 रुपये तक का जुर्माना, या कारावास और जुर्माना दोनों
खंड (iv) या (v) का उल्लंघन, यानी, एक शर्त कि दोनों पक्ष क्रमशः निषिद्ध या सपिंड संबंध के नहीं होने चाहिए साधारण कारावास, अधिकतम एक माह, या 1000 रुपये तक का जुर्माना, या कारावास और जुर्माना दोनों
खंड (vi) का उल्लंघन, अर्थात, जहां दुल्हन नाबालिग है, वहां विवाह के लिए अभिभावक की सहमति की शर्त 1000 रुपये तक का जुर्माना

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494

यह प्रावधान द्विविवाह के अपराध को परिभाषित करता है और दंडित करता है। आईपीसी की धारा 494 के तहत अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए अभियोजन पक्ष द्वारा सभी उचित संदेहों से परे कुछ आवश्यक बातें स्थापित की जानी हैं। आवश्यक बातें निम्नलिखित हैं-

  1. अभियुक्त ने दो वैध शादियां की होंगी। दोनों विवाहों की वैधता साबित करना महत्वपूर्ण है।
  2. पहला विवाह निर्वाह (सब्सिस्टन्स) में होना चाहिए। यदि पहला विवाह शून्यकरणीय है और ऐसा करने के हकदार पति या पत्नी के कहने पर इसे अस्वीकार नहीं किया जाता है, तो ऐसा विवाह वैध माना जाता है और निर्वाह में रहता है।

इस प्रावधान को अब भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 82 से बदल दिया गया है।

धारा 494 के बारे में अधिक जानने के लिए यहाँ दबाएँ

पिन्निंती वेंकटरमण एवं अन्य बनाम राज्य (1976) में उठाए गए मुद्दे

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष उठाया गया मुद्दा यह है कि क्या एक हिंदू विवाह, जो हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के प्रावधानों द्वारा शासित होता है, शुरू से ही शून्य है यदि विवाह के पक्ष या उनमें से कोई भी हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5 के खंड (iii) में निर्धारित अपनी-अपनी आयु से कम है। 

दलीलें

याचिकाकर्ताओं की ओर से तर्क 

आपराधिक विविध याचिका में, प्रतिवादी-शिकायतकर्ता, जिसने आरोप लगाया कि द्विविवाह का अपराध उसके पति द्वारा किया गया था, उसकी उम्र 9 वर्ष है और उनके विवाह के समय, यानी 1959 में, पति की उम्र 13 वर्ष थी। वर्तमान मामले में याचिकाकर्ता पति ने पंचिरेड्डी अप्पाला सरम्मा बनाम गडेला गणपतुलु (1975) के मामले में उच्च न्यायालय की खण्ड न्यायपीठ द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण पर भरोसा किया, जहां न्यायालय ने कहा कि एक हिंदू विवाह, जहां ऐसे विवाह के पक्षों की आयु निर्धारित आयु से कम है, कानून की नजर में कोई विवाह नहीं है और इसे शुरू से ही शून्य घोषित कर दिया जाएगा। इस उदाहरण का हवाला देकर, प्रतिवादी ने तर्क दिया कि शिकायत के साथ उसकी पहली शादी को शून्य विवाह माना जाएगा और इसलिए, उसकी दूसरी शादी द्विविवाह का मामला नहीं बनती है और बाद में, आपराधिक शिकायत को रद्द करने की प्रार्थना की।

पिन्निंती वेंकटरमण और अन्य बनाम राज्य में निर्णय (1976)

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने माना कि धारा 5 के खंड (iii) (दूल्हा और दुल्हन निर्धारित आयु सीमा के नहीं हैं) के उल्लंघन में किया गया विवाह न तो शून्य है और न ही रद्द करने योग्य है और दुल्हन के कहने पर, यदि सभी आवश्यक बातें उसके द्वारा सिद्ध कर दी गई हैं। ऐसे विवाह को धारा 13 (तलाक) के तहत विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त करके अस्वीकार किया जा सकता है और गलत करने वाले को धारा 18 के अनुसार दंडित किया जाएगा।

उच्च न्यायालय ने आपराधिक पुनरीक्षण याचिकाओं को उच्च न्यायालय की एकल-न्यायाधीश पीठ को सौंपने का निर्देश दिया और आपराधिक विविध याचिका खारिज कर दी गई।

पिन्निंती वेंकटरमण एवं अन्य बनाम राज्य (1976) में न्यायालय की टिप्पणियाँ

धारा 5 की धाराओं का उल्लंघन और उसके कानूनी परिणाम

न्यायालय ने उक्त प्रावधानों पर बेहतर स्पष्टता के लिए अधिनियम की धारा 11 और 12 को अलग किया। बेहतर समझ के लिए उक्त अंतर को सारणीबद्ध रूप में दिया गया था।

अंतर के आधार  अधिनियम की धारा 11 अधिनियम की धारा 12
किससे संबंधित है शून्य विवाह  शून्यकरणीय विवाह
प्रयोज्यता (ऍप्लिकेबिलिटी) धारा 11 के तहत नियम केवल उन विवाहों पर लागू होता है जो अधिनियम के लागू होने से पहले संपन्न हुए हैं। धारा 12 के तहत नियम सभी विवाहों पर लागू होता है, भले ही वे अधिनियम के लागू होने से पहले या बाद में संपन्न हुए हों।
आधार जब धारा 5 के खंड (i), (iv) या (v) का उल्लंघन किया जाता है जब धारा 5 में दिए गए किसी भी खंड का उल्लंघन किया जाता है, तो यह एक पक्ष जो ऐसा करने का हकदार है, के उदाहरण पर शून्यकरणीय हो जाता है, और, यदि धारा 12 में उल्लिखित आधारों में से कोई भी आधार संतुष्ट है, तो ऐसे विवाह को सक्षम न्यायालय द्वारा गैर-विवाह घोषित किया जाएगा।

उपरोक्त अंतर से, उच्च न्यायालय ने पाया कि धारा 5 के खंड (ii) का उल्लंघन विवाह के एक पक्ष के विकल्प पर ऐसे विवाह को शून्यकरणीय बना देगा और, जब तक ऐसा करने का हकदार पति या पत्नी ने विवाह की शून्यता की डिक्री प्राप्त करने के लिए सक्षम न्यायालय से संपर्क नहीं किया है, तब तक प्रश्नगत विवाह वैध है।

फिर, न्यायालय ने मामले से संबंधित हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधानों, अर्थात् धारा 4, 5, 11 और 12 में निर्धारित सिद्धांतों और कानून की जांच की और निष्कर्ष निकाला कि धारा के खंड (ii) यानी कानून द्वारा निर्धारित आयु सीमा के उल्लंघन के परिणाम के संबंध में हिंदू विवाह अधिनियम के किसी भी प्रावधान में कोई उल्लेख नहीं है।

हालाँकि, अधिनियम की धारा 5, 11, 12, 17 और 18 का सावधानीपूर्वक अध्ययन करने पर, उच्च न्यायालय ने धारा 5 में उल्लिखित धाराओं के उल्लंघन के कानूनी परिणामों के संबंध में निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले।

  1. केवल खंड (i), (iv) या (v) का उल्लंघन ही विवाह को अमान्य बना देगा, और विवाह का कोई भी पक्ष सक्षम न्यायालय से याचिका पर शून्यता की डिक्री प्राप्त कर सकता है, जैसा कि धारा 11 में प्रदान किया गया है। इस प्रकार, अन्य खंडों, अर्थात् खंड (ii), (iii) और (vi) का उल्लंघन, विवाह को शून्य नहीं करेगा।
  2. खंड (ii) का उल्लंघन, यानी, आयु सीमा की शर्त, धारा 12 के अनुसार, विवाह को शून्य नहीं, बल्कि शून्यकरणीय बना देगी और, बाद में, संबंधित पक्ष के विकल्प पर रद्द किया जा सकता है।
  3. ऐसे मामलों में जहां दुल्हन की उम्र 18 वर्ष से कम है, यदि विवाह में अभिभावक की सहमति बलपूर्वक या धोखाधड़ी के माध्यम से प्राप्त की जाती है, तो यह ऐसे विवाह को शून्यकरणीय कर देता है। न्यायालय ने यह भी पाया कि खंड (vi) का उल्लंघन या अभिभावक की सहमति की अनुपस्थिति विवाह को शून्य नहीं बनाती है।
  4. विधायिका उस पक्ष पर दंड या जुर्माना लगाती है जो खंड (ii) को छोड़कर धारा 5 के सभी खंडों में दिए गए किसी भी नियम का उल्लंघन करता है।

उपरोक्त निष्कर्षों से, यह स्पष्ट है कि धारा 5 के प्रत्येक खंड के उल्लंघन के कानूनी परिणाम एक दूसरे से भिन्न हैं।

Lawshikho

बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929

न्यायालय ने एक क़ानून, यानी, बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929 पर ध्यान दिया, जिसे हिंदू विवाह अधिनियम के अधिनियमन से पहले लागू किया गया था। उक्त क़ानून, हालांकि यह बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाता है और पक्ष, दूल्हा या दुल्हन को दंडित करता है, यदि वे इस अधिनियम के कानूनी प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं, तो भी विवाह को कभी भी शून्य घोषित नहीं किया जाता है। इस कानूनी स्थिति को न्यायमूर्ति जगदीसन ने बी. शिवानंदी बनाम भगवथ्यम्मा (1962) के मामले में दोहराते हुए कहा कि बाल विवाह निरोधक अधिनियम अपने कानूनी प्रावधानों के उल्लंघन के आधार पर किसी भी विवाह को अमान्य नहीं करता है, क्योंकि विवाह की वैधता एक ऐसा मामला है जो अधिनियम के दायरे में नहीं है। शिवानंदी मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने निम्नलिखित निर्णय लिया।

  1. एक नाबालिग लड़के द्वारा किया गया विवाह वैध माना जाता है, हालांकि एक नाबालिग अनुबंध में शामिल होने के लिए सक्षम नहीं है, क्योंकि हिंदू कानून के तहत विवाह एक संस्कार है, अनुबंध नहीं।
  2. किसी नाबालिग को संविदात्मक दायित्वों का बोझ डालने से रोका जा सकता है, न कि संस्कार (हिंदू धर्म में समारोह) करने से।
  3. भले ही ऐसा बाल विवाह अभिभावक की सहमति के बिना किया गया हो, इसकी वैधता प्रभावित नहीं होगी और फैक्टम वैलेट के सिद्धांत के आधार पर शून्य नहीं होगी।

इस संबंध में, न्यायमूर्ति जगदीसन ने वेंकटाचार्युलु बनाम रंगाचार्युलु और अन्य (1991) पर भरोसा किया, जहां मद्रास उच्च न्यायालय ने माना कि विवाह सप्तपदी समारोह सहित सभी आवश्यक धार्मिक संस्कारों को पूरा करके संपन्न किया गया था। ऐसा कहा जाता है कि एक धार्मिक बंधन जीवन भर के लिए बंध जाता है और इसे केवल इस आधार पर नहीं तोड़ा जाएगा कि दुल्हन के पिता, एक वैष्णव ब्राह्मण लड़की, ने इस तरह के विवाह के लिए सहमति नहीं दी थी। न्यायालय ने माना कि उक्त विवाह एक वैध विवाह है और पिता इसे अस्वीकार नहीं कर सकता, इस प्रकार इस बात पर जोर दिया गया कि हिंदू कानून के तहत विवाह एक संस्कार है, न कि केवल एक अनुबंध। कानून की यह स्थिति, जो हिंदू विवाह अधिनियम के शुरू होने से पहले प्रचलित थी, वर्तमान मामले में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा उचित सम्मान दिया गया था।

फैक्टम वैलेट का सिद्धांत

फैक्टम वैलेट के सिद्धांत का अर्थ है कि किसी कार्य को वैध माना जाता है, भले ही वह कानून के अनुसार न हो जब ऐसा कार्य पूरी तरह से किया जाता है। यह सिद्धांत एक कहावत, फैक्टम वैलेट क्वॉड फिएरी डबुइट पर आधारित है, जिसका अर्थ है “जो नहीं किया जाना चाहिए वह किया जाने पर वैध हो जाता है”। इस सिद्धांत पर अधिक जानकारी के लिए यहाँ दबाएँ

उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि फैक्टम वैलेट का सिद्धांत उन मामलों में लागू किया जाता है जहां विवाह के नाबालिग पक्ष के अभिभावक की सहमति के बिना विवाह किया गया था। हिंदू कानून के निर्माता और लेखक इस सिद्धांत से अवगत थे। हिंदू कानून में एक संस्कृत पाठ है जो बताता है कि “एक तथ्य को सौ ग्रंथों द्वारा नहीं बदला जा सकता है।” फैक्टम वैलेट के सिद्धांत के आधार पर, बाल विवाह को पूर्ववत नहीं किया जा सकता है, हालांकि इसे प्रतिबंधित करने वाले कई कानूनी प्रावधान हैं। इस संदर्भ में, उच्च न्यायालय ने अधिनियम की धारा 4 में इस नियम का भी उल्लेख किया कि, जब तक अधिनियम में किसी भी प्रथा को प्रतिबंधित करने वाला कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है, तो ऐसी प्रथाओं को प्रासंगिक और उचित मामलों में लागू होने से नहीं रोका जाएगा।

पिन्निंती वेंकटरमण एवं अन्य बनाम राज्य (1976) के निर्णय को पलटना

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय की खंडपीठ, जिसमें मुख्य न्यायाधीश ओबुल रेड्डी और न्यायमूर्ति मधुसूदन राव शामिल थे, ने पंचीरेड्डी अप्पाला सरम्मा बनाम गडेला गणपतुलु (1975) के मामले में कहा कि धारा 5 के खंड (iii) के उल्लंघन में बाल विवाह, जो किसी भी हिंदू विवाह के लिए एक पूर्व शर्त है, कोई विवाह नहीं है, यानी कानून की नजर में शुरू से ही शून्य है, और विवाह के किसी भी पक्ष के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह आयु सीमा मानदंडों की गैर-संतुष्टि के आधार पर शून्यता की डिक्री प्राप्त करने के लिए सक्षम न्यायालय से संपर्क करे।

वर्तमान मामले में उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने इस बात पर प्रकाश डाला कि यदि किसी विवाह ने धारा 11 या 12 सहित हिंदू विवाह अधिनियम के किसी भी प्रावधान में आयु सीमा की शर्त का उल्लंघन किया है, तो विधायिका ने कोई कानूनी परिणाम निर्दिष्ट नहीं किया है। उच्च न्यायालय इस विचार से भी असहमत था कि अधिनियम की धारा 5 में उल्लिखित शर्तें किसी भी हिंदू विवाह को संपन्न करने से पहले की शर्तें हैं क्योंकि इस तरह के दृष्टिकोण से सहमत होने पर समाज में गंभीर परिणाम होंगे।

उच्च न्यायालय ने इस स्थापित सिद्धांत पर जोर दिया कि कानून और न्यायालयो को हमेशा किसी भी विवाह से पैदा हुए निर्दोष बच्चों को वैधता प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए। इस सिद्धांत को हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 16 में मान्यता दी गई थी, जो धारा 11 के तहत शून्य या धारा 12 के तहत शून्यकरणीय घोषित किए गए विवाह से पैदा हुए बच्चों को वैधता प्रदान करता है। हालाँकि, न्यायालय ने पाया कि यह प्रावधान उन मामलों पर लागू नहीं होगा जहां धारा 5 के खंड (iii) के उल्लंघन में विवाह संपन्न हुआ है क्योंकि खंड (iii) के उल्लंघन का परिणाम न तो धारा 11 में और न ही धारा 12 में प्रदान किया गया है। इस प्रकार, न्यायालय ने कहा कि यदि पी.ए. सरम्मा मामले में अपनाई गई कानूनी स्थिति का पालन किया जाता है, तो दुर्भाग्यवश, बाल विवाह से पैदा हुए ऐसे बच्चों को नाजायज बच्चा माना जाएगा।

इसके अलावा, उच्च न्यायालय ने कहा कि विधायिका का भी धारा 5 की शर्तों को पूर्व उदाहरण के रूप में प्रदान करने का कोई इरादा नहीं था क्योंकि, यदि ऐसा मामला है, तो धारा 5 में प्रत्येक खंड के उल्लंघन के परिणाम को निर्दिष्ट करने के लिए अलग-अलग प्रावधानों का मसौदा तैयार नहीं किया जाएगा और किसी भी खंड का उल्लंघन ऐसे विवाह को शून्य बना देगा। इस प्रकार, पीए सरम्मा मामले में निर्णय विधायिका की मंशा के विपरीत है, और यह उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ के लिए उक्त उदाहरण में लिए गए दृष्टिकोण से सम्मानपूर्वक असहमत होने का एक और कारण है कि धारा 5 में खंड शर्त उदाहरण हैं।

इसके अतिरिक्त, उच्च न्यायालय ने विभिन्न उच्च न्यायालयों और अन्य न्यायालयो के कुछ मामलों का हवाला दिया जहां यह माना गया था कि धारा 5 के खंड (iii) और (vi) के उल्लंघन में किए गए बाल विवाह को विवाह शून्य या शून्यकरणीय नहीं माना जाएगा और ऐसे विवाह कानून की नजर में वैध हैं और कानून द्वारा लागू किए जाने योग्य हैं। यह बात पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की खण्ड न्यायपीठ ने मोहिंदर कौर बनाम मेजर सिंह (1972) में, हिमाचल प्रदेश के न्यायिक आयुक्त ने एमटी. कलावती बनाम देवी राम (1961), सुश्री प्रेमी बनाम दया राम (1965) और श्रीमती नौमी बनाम नरोत्तम (1963) में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एमएसटी महरी बनाम चकबंदी निदेशक (1969) में, उड़ीसा उच्च न्यायालय ने बुद्धि साहू बनाम लोहुरानी साहूनी आईएलआर (1970) सीएएल 1215 में और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने गिंदन बनाम बारेलाल (1976) में कही। अंत में, आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने पाया कि उपरोक्त मामलों में लिया गया निर्णय उसके विचार में सही है। 

उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि विवाह कानून (संशोधन) अधिनियम, 1976 ने हिंदू विवाह अधिनियम में विभिन्न संशोधन किए, विशेष रूप से तलाक के लिए एक और आधार, जिसे धारा 13 में जोड़ा गया, जिसमें कहा गया कि यदि पत्नी की शादी पंद्रह वर्ष से कम उम्र में हुई है, तो वह विवाह विच्छेद की डिक्री के लिए याचिका दायर कर सकती है और पंद्रह वर्ष की आयु होने पर और अठारह वर्ष की होने तक तलाक की डिक्री प्राप्त कर सकती है। इससे यह समझा जा सकता है कि विधायिका ने बाल विवाह की वैधता प्रदान नहीं की है और यदि विधायिका का इरादा बाल विवाह को शुरू से ही शून्य बनाना या विवाह न करना है, तो इसमें तलाक की कोई आवश्यकता नहीं होगी और इस संशोधन को शामिल करना जरूरी नहीं होगा।

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ द्वारा दिए गए उपर्युक्त तर्क के लिए, पंचिरेड्डी अप्पाला सरम्मा बनाम गडेला गणपतुलु (1975) में लिए गए निर्णय को गलत माना गया और पलट दिया गया।

निष्कर्ष

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने पंचिरेड्डी अप्पाला सरम्मा बनाम गडेला गणपतुलु (1975) के निर्णय को सही ढंग से पलट दिया और न्यायिक त्रुटि को दूर कर दिया। अन्यथा, आईपीसी की धारा 494 के तहत आरोपित कई अभियुक्त, जिनकी पहली शादी तब हुई थी जब वे बच्चे थे, दलील देंगे कि उनकी पहली शादी शून्य है क्योंकि यह धारा 5 के खंड (iii) का उल्लंघन कर रही है और वे अपने आपराधिक दायित्व से बच जाएंगे। यह उन महिलाओं के साथ घोर अन्याय होगा जो अपने-अपने पतियों द्वारा की गई द्विविवाह की शिकार हैं। इन परिणामों से अवगत होकर, उच्च न्यायालय ने सही निर्णय लिया और हिंदू विवाह अधिनियम और हिंदू कानून अवधारणाओं के प्रासंगिक प्रावधानों का उचित विश्लेषण करके यह माना कि बाल विवाह कानून की नजर में न तो शून्य है और न ही शून्यकरणीय है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

हिंदू विवाह की शर्तें क्या हैं?

हिंदू विवाह की शर्तें हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 के तहत निर्दिष्ट की गई थीं। शर्तें यह हैं कि विवाह के पक्षकार, यानी दूल्हा और दुल्हन, निर्वाह योग्य विवाह में नहीं होने चाहिए, सहमति देने में असमर्थ नहीं होने चाहिए, स्वस्थ दिमाग के होने चाहिए, निर्धारित आयु सीमा के अनुरूप होने चाहिए और उनके रिश्ते को प्रतिबंधित डिग्री में नहीं होना चाहिए और एक दूसरे के प्रति सपिंड नहीं होना चाहिए।

क्या हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 में निर्दिष्ट सभी शर्तों को पूरा करना अनिवार्य है?

पिन्निंती वेंकटरमण बनाम राज्य (1976) के मामले में दिए गए निर्णय के अनुसार, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 में निर्दिष्ट शर्तें, उदाहरण की शर्तें नहीं हैं और कानून ने पक्षों पर उन्हें अनिवार्य रूप से पूरा करने के लिए बाध्य नहीं किया है। हालाँकि, क्योंकि यह निर्णय माननीय आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया है, यह मामला केवल आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) न्यायालयो पर बाध्यकारी है, लेकिन पूरे देश की न्यायालयो पर नहीं। हालाँकि यह एक बाध्यकारी प्राधिकारी नहीं है, फिर भी इसका प्रेरक मूल्य है और यह एक संदर्भ के रूप में काम कर सकता है।

क्या वैध विवाह की शर्तों के उल्लंघन के कोई कानूनी परिणाम हैं?

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के प्रावधान, धारा 5 के प्रत्येक खंड के उल्लंघन के लिए कानूनी परिणाम प्रदान करते हैं। कुछ खंडों का उल्लंघन आपराधिक दायित्व होगा, जबकि अन्य खंडों का उल्लंघन केवल विवाह को शून्य बनाने के बराबर होगा। इस प्रकार, हालांकि धारा 5 में निर्दिष्ट शर्तें उदाहरण नहीं हैं, इसके किसी भी उल्लंघन के अपने कानूनी परिणाम होते हैं, जिन्हें कोई हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 11, 12, 17 और 18 में पा सकता है।

क्या हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अनुसार बाल विवाह कानून की नजर में वैध विवाह है?

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 का खंड (iii) हिंदू विवाह के लिए दूल्हा और दुल्हन दोनों के लिए न्यूनतम आयु सीमा के संबंध में एक शर्त निर्दिष्ट करता है। इसमें कहा गया है कि दुल्हन की उम्र अठारह साल और दूल्हे की उम्र इक्कीस साल होगी। 

बाल विवाह के कानूनी परिणाम की बात करें तो, धारा 13 महिला को अपनी शादी को अस्वीकार करने का विकल्प प्रदान करती है यदि उसकी शादी पंद्रह वर्ष से कम उम्र में हुई हो। इसके अलावा, धारा 17 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि बाल विवाह करने में संबंधित व्यक्तियों को दो साल तक की कठोर कारावास या एक लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया जाएगा। न्यायालय अपने विवेक से दोषी व्यक्तियों को कारावास की सजा और जुर्माना दोनों लगा सकता है।

इसके अलावा, बाल विवाह की वैधता को हिंदू विवाह अधिनियम में स्पष्ट रूप से संबोधित नहीं किया गया है क्योंकि इसका उल्लेख न तो धारा 11 में किया गया है, जो शून्य विवाह के बारे में बात करता है, न ही धारा 12 में, जो शून्यकरणीय विवाह से संबंधित है।

क्या धारा 494 मामले से निपटने के उद्देश्य से बाल विवाह को वैध विवाह माना जाता है?

एक अभियुक्त व्यक्ति के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही में, जिस पर भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494 का आरोप लगाया गया है, बाल विवाह को एक वैध विवाह माना जा सकता है, बशर्ते इसे अस्वीकार न किया गया हो और वैध विवाह के अन्य आवश्यक तत्व अभियोजन पक्ष द्वारा साबित किए गए हों। उदाहरण के लिए, पिन्निंती वेंकटरमण बनाम राज्य (1976) के मामले में, अभियुक्त ने बाल विवाह किया और फिर से शादी की। उन्होंने तर्क दिया कि वैध विवाह की शर्तों में से एक के रूप में बाल विवाह कानून की नजर में कोई विवाह नहीं है, यानी हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 के खंड (iii) में निर्दिष्ट न्यूनतम आयु सीमा की पुष्टि करना। आंध्र प्रदेश के माननीय उच्च न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया और उनके पहले बाल विवाह सहित दोनों विवाहों को वैध विवाह मानते हुए उन्हें द्विविवाह का दोषी ठहराया।

संदर्भ

  • डॉ. पारस दीवान द्वारा लिखित “आधुनिक हिंदू कानून”।
  • रतनलाल और धीरजलाल द्वारा लिखित “द इंडियन पीनल कोड”।

 

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