पेंडेंट लाइट: एक कानूनी कहावत

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Hindu Marriage Act
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यह लेख गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय, दिल्ली की कानून की छात्रा Kanisha Goswami द्वारा लिखा गया है। यह लेख कानूनी मैक्सिम पेंडेंट लाइट और विभिन्न कानूनों के तहत इसके उपयोग का विश्लेषण प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।

परिचय 

पेंडेंट लाइट का अर्थ है न्यायालय में लंबित कानूनी मुकदमा। यह एक अस्थायी उपाय है जो कि न्यायालय मामले के पक्षकारों को प्रदान करती है। आम तौर पर शिकायत दर्ज करने के तीन या चार महीने के भीतर सुनवाई निर्धारित की जाती है। पेंडेंट लाइट तब लागू होती है जब मामला अनिर्णीत होने पर न्यायालय के आदेश अस्थायी रूप से प्रभावी होते हैं। इस कहावत का मुख्य उद्देश्य दोनों पक्षों के अधिकारों की रक्षा करना है। यह मुकदमों की निरंतरता के दौरान न्यायालय द्वारा प्रदान किया गया अस्थायी भरण पोषण (मेंटेनेंस) है। 

तलाक के मामले में, एक पेंडेंट लाइट नियम का उपयोग अक्सर उस पति या पत्नी की मदद के लिए किया जाता है, जिसके पास आय का कोई अन्य स्रोत नहीं है या जो कानूनी प्रक्रिया आगे बढ़ाने में असमर्थ है। यह वित्तीय या माता-पिता के अधिकारों या जिम्मेदारियों को स्थापित करने के लिए एक अस्थायी राहत है।

भारत में भरण पोषण के मामले में पेंडेंट लाइट का अनुप्रयोग

कानून के दृष्टिकोण से भरण पोषण का तात्पर्य किसी भी विवादित पक्ष को उनके द्वारा किए गए आवेदन के आधार पर दी गई वित्तीय सहायता से है। भरण पोषण का मुख्य उद्देश्य आश्रित पक्ष को उसके जीवन स्तर का प्रबंधन करने में मदद करना है, जिसके पास आय का कोई अन्य स्रोत नहीं है। भारत में, भरण पोषण एक पुरुष को अपनी पत्नी, माता-पिता और बच्चे के अच्छे पालनपोषण का कर्तव्य सौंपता है, जब वे खुद को संभालने में सक्षम नहीं होते हैं। बच्चे को जीवन का वही मानक (स्टैंडर्ड) प्रदान करना भी आवश्यक है जो अलग होने से पहले था। राशि की भरपाई या तो मासिक किश्तों के माध्यम से या एक ही बार में भुगतान द्वारा की जा सकती है। न्यायालय पति की वित्तीय स्थिरता और उस आधार की जांच करेगी जिसके लिए पत्नी उसे भरण-पोषण देने से पहले अपने पति से अलग होना चाहती है। पति हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 के तहत भरण-पोषण का दावा भी कर सकता है यदि वह न्यायालय को संतुष्ट करता है कि वह अपनी शारीरिक या मानसिक बीमारी के कारण अपने जीवन की रोज की जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ है या खुद को एक अच्छा जीवन प्रदान करने में असमर्थ है। तो, भरण पोषण पेंडेंट लाइट जरूरतमंद पक्ष को दिया जाने वाला अनुदान (ग्रांट) है।

पेंडेंट लाइट के संबंध में वैधानिक प्रावधान

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 

दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 के अनुसार, प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट को यह अधिकार है कि वह व्यक्ति को अपने पति या पत्नी, बूढ़े माता-पिता, वैध या नाजायज बच्चे को मासिक भत्ता देने का आदेश दे सकता है। आवेदन तब दर्ज किया जाएगा जब पति या पत्नी में से कोई भी अपने पति या पत्नी का भरण-पोषण करने से इनकार करता है, जो खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ है। यदि पति का प्रस्ताव है कि वह इस शर्त पर अपनी पत्नी का भरण-पोषण करेगा कि उसे उसके साथ रहना है, लेकिन वह मना कर देती है। यहां मजिस्ट्रेट उसके इनकार के आधार पर विचार करेगा और पति के पक्ष में साथ देगा। यदि पत्नी व्यभिचार (एडल्ट्री) में रहती है तो वह भत्ता मांगने की हकदार नहीं होगी।

पति की आय या वित्तीय क्षमता और अन्य प्रमुख कारकों के आधार पर पत्नी को भरण-पोषण दिया जाता है। प्रतिवादी को नोटिस दिए जाने की तारीख से साठ दिनों के भीतर अंतरिम भरण पोषण दिया जाएगा। सभी आश्रितों के लिए भरण-पोषण का दावा 500 रुपये प्रति माह से कम नहीं होना चाहिए, लेकिन अब इसे बढ़ा दिया गया है, मजिस्ट्रेट के पास अपनी शक्ति का प्रयोग करने और उचित राशि देने का अधिकार है। 

मजिस्ट्रेट नाबालिग बेटी के पिता को उसके वयस्क होने तक उसके जीवन की गुणवत्ता को सुविधाजनक बनाने का आदेश दे सकता है। इस तरह के भत्ते का भुगतान मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश की तारीख के ठीक बाद किया जाना चाहिए। एक महिला उस समय भरण-पोषण का दावा कर सकती है जब उसे पता चलता है कि उसके पति की किसी अन्य महिला से शादी हो गई है या उसने उसे छोड़ दिया है या उसने उसके साथ क्रूरता का व्यवहार किया है या जब उसने अपना धर्म बदल दिया है या वह हिंदू नहीं रहा है।

मो. अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम (1985), भारत में सबसे विवादास्पद भरण पोषण मुकदमा और एक ऐतिहासिक मामला था। शाह बानो बेगम और उनके पति ने 1932 में शादी की और उस विवाह से उनके तीन बेटे और दो बेटियां थीं। 1975 में, उनके पति ने उन्हें उनके ससुराल से निकाल दिया। 1978 में, उन्होंने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण के लिए अर्जी दी। उन्होंने प्रति माह 500 रुपये की मांग की क्योंकि उनका पति एक पेशेवर वकील था और उन्हें मासिक भत्ता देने में सक्षम था। उनके पति ने इससे इनकार किया और कहा कि वह पिछले दो वर्षों से उन्हें 200 रुपये का भुगतान कर रहा था। सर्वोच्च न्यायालय ने एक पीड़ित मुस्लिम महिला के पक्ष में फैसला सुनाया और कहा कि एक मुस्लिम महिला को भरण-पोषण का पूर्ण अधिकार है। न्यायालय ने कहा कि धारा 125 लिंग, जाति, धर्म आदि की परवाह किए बिना हर व्यक्ति पर लागू होती है। इसने फैसला सुनाया कि गुजारा भत्ता के समान भरण-पोषण का पैसा शाह बानो को दिया जाएगा।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 पत्नी के साथ-साथ पति को भरण पोषण पेंडेंट लाइट का दावा करने का अधिकार देती है जब वह यह दिखाता है की उसके पास आय का कोई स्वतंत्र स्रोत नहीं है। हालांकि, पति को न्यायालय को संतुष्ट करने के लिए अपनी मानसिक या शारीरिक अक्षमता साबित करनी होगी कि वह कमाई करने और अपने रोज की जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ है। न्यायालय को पक्ष को दो विशिष्ट राहत देने का अधिकार है:

  1. कार्यवाही के दौरान मासिक भत्ता।
  2. कार्यवाही के समय का खर्चा जिसके संबंध में राहत प्रदान की जाती है। कार्यवाही के खर्चों में यात्रा का खर्चा, वकील की फीस, लिपिकीय (क्लेरिकल) शुल्क आदि शामिल हैं।

न्यायालय इस प्रावधान के तहत कार्यवाही के खर्च और अंतरिम भरण पोषण प्रदान करने से इनकार नहीं कर सकती है। 

पत्नी या पति में से कोई भी अपने लिए या अपने बच्चे के लिए भी यह भरण-पोषण प्राप्त कर सकते हैं। भरण पोषण इस तथ्य पर दिया जाएगा कि एक पक्ष यह साबित कर रहा है कि उसके पास दैनिक जीवन में बुनियादी खर्चों के लिए आय का कोई स्रोत नहीं है।

विशेष विहाह अधिनियम, 1954 की धारा 36 के तहत भी भरण पोषण पेंडेंट लाइट शुरू की जा सकती है, लेकिन यहां केवल पत्नी ही भरण-पोषण का दावा कर सकती है। उसे यह साबित करना होगा कि वह उसके पास कमाई का कोइ स्त्रोत नही है। 

रानी सेठी बनाम सुनील सेठी (2011) में, अपीलकर्ता (पति) ने एक आवेदन दायर किया जिसमें उसकी पत्नी से भरण-पोषण की मांग की गई क्योंकि वह पेइंग गेस्ट होटल का व्यवसाय चला रही थी, जिसका अर्थ है कि वह स्वतंत्र और आर्थिक रूप से स्थिर थी। पति को घर से निकाल दिया और उसका सामान उसे दे दिया। उनका एक 26 वर्षीय अविवाहित बेटा और 24 वर्षीय अविवाहित बेटी थी। न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी को प्रति माह रु 20,000 और मुकदमेबाजी खर्च के लिए रु 10,000 का भुगतान करना होगा और उनके उपयोग के लिए एक ज़ेन कार प्रदान करनी होगी।

भरण पोषण पेंडेंट लाइट का दावा कौन कर सकता है

पत्नी, बच्चे या वृद्ध माता-पिता जो अपना जीवन के रोज की जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ हैं, वे अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों के तहत भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं, लेकिन पति केवल हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 के तहत दावा करने का हकदार है। न्यायालय को इस बात से संतुष्ट होना होगा कि जो व्यक्ति भरण-पोषण देने से इंकार कर रहा है या उपेक्षा कर रहा है, वह दूसरों का भरण-पोषण करने में सक्षम है या उसके पास कमाई का पर्याप्त स्त्रोत हैं।

पत्नी

पत्नी को अपने पति से भरण-पोषण का दावा करने का अधिकार है जब वह स्वतंत्र नहीं है या वह अपना भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं है या उसके पास बच्चे भी हैं। यदि वह व्यभिचार में रह रही है या बिना किसी स्वीकार्य कारण के अपने पति के साथ रहने से इनकार करती है या यदि वे अलग होने पर परस्पर सहमत हैं तो वह भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती है।

बच्चे 

एक बच्चा जो वैध या नाजायज है, चाहे विवाहित हो या नहीं, वह भरण-पोषण का दावा कर सकता है, लेकिन केवल तभी जब वे अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हों। हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 26 में कहा गया है कि न्यायालय समय-समय पर नाबालिग बच्चों के भरण-पोषण और शिक्षा के लिए अंतरिम आदेश पारित करेगी। भले ही वे वयस्क हो गए हो, वे भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं। विवाहित पुत्री को ऐसे भरण-पोषण का दावा करने का कोई अधिकार नहीं है।

श्रीमती जसबीर कौर सहगल बनाम जिला न्यायाधीश (1997) में, पत्नी को धारा 24 के तहत प्रति माह रुपये 1500 की दर से गुजारा भत्ता दिया गया। पति एक सेवानिवृत्त सेना अधिकारी थे और उसके बाद तेल और प्राकृतिक गैस आयोग में निदेशक (डायरेक्टर) थे। पत्नी ने एक मामला दायर किया और कहा कि पति ने संपत्ति और आय के सही खाते का उल्लेख नहीं किया है और उसने कहा कि एक पिता को अपनी अविवाहित बेटी को संभालना चाहिए जिसका उल्लेख हिंदू दत्तक और भरण पोषण अधिनियम, 1956 के तहत किया गया है। यहां, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि पत्नी को हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम की धारा 24 के तहत भरण-पोषण का दावा करने का अधिकार है जिसमें उसका भरण-पोषण और उसकी अविवाहित बेटी का खर्च शामिल है जो उसके साथ रह रही है।

वृद्ध माता-पिता

हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम की धारा 20 में कहा गया है कि जो व्यक्ति वृद्ध या दुर्बल है या अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, वह इस धारा के तहत भरण-पोषण का दावा कर सकता है। माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम, 2007 ने वृद्ध माता-पिता को भरण-पोषण प्रदान करने के लिए बच्चों और कानूनी उत्तराधिकारियों के लिए एक कानूनी दायित्व स्थापित किया। यहां, भरण पोषण में भोजन, निवास, कपड़े और चिकित्सा सुविधाएं शामिल हैं।

डॉ (श्रीमती) विजया मनोहर अर्बत बनाम काशी राव राजाराम सवाई (1987) में, अपीलकर्ता प्रतिवादी की बेटी थी जो कल्याण में एक चिकित्सा व्यवसायी थी, और वह प्रतिवादी की पहली पत्नी से हुई थी, जिसकी मृत्यु 1948 में हो गई थी और फिर प्रतिवादी ने पुनर्विवाह किया और उसे दूसरी पत्नी से एक बेटा हुआ था। प्रतिवादी ने अपने बेटे और बेटी दोनों से भरण-पोषण का दावा किया क्योंकि वह अपना और अपनी पत्नी का भरण-पोषण करने में असमर्थ है। बेटी शादीशुदा और स्वतंत्र है। उसके पिता ने अपनी बेटी से रुपये 500 की दर से भरण पोषण की मांग की। न्यायालय ने कहा कि अपने माता-पिता का भरण-पोषण करना बेटे के साथ-साथ बेटी का भी दायित्व है। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 बेटे और बेटी दोनों पर एक कर्तव्य लगाती है और इस धारा के तहत माता-पिता, बेटे के साथ-साथ अपनी बेटी से भी भरण पोषण का दावा करने के हकदार है।

पति

पति धारा 24 के तहत भरण-पोषण का दावा कर सकता है यदि वह कमाई करने में असमर्थता साबित करता है या वह साबित करता है कि उसके पास खुद की महत्वपूर्ण जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं। सबूत का भार पति पर होता है क्योंकि उसे मजिस्ट्रेट को संतुष्ट करना होता है कि वह किसी मानसिक या शारीरिक अक्षमता के कारण अपने जीवन की जरूरतो को पूरा नहीं कर सकता है, इस प्रकार, वह अपनी पत्नी से भरण-पोषण लेने के योग्य है।

भरण पोषण पेंडेंट लाइट और स्थायी गुजारा भत्ता 

भरण पोषण पेंडेंट लाइट 

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 के तहत भरण पोषण पेंडेंट लाइट दिया जाएगा जब न्यायालय संतुष्ट हो जाती है कि दावेदार खुद को बनाए रखने की स्थिति में नहीं है। गुजारा भत्ता और पति या पत्नी, जो अपने जीवन जीने की जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ है, को कार्यवाही की लागत देने की शक्ति न्यायालय पर निर्भर करती है। इस धारा के तहत प्रावधान यह प्रदान करता है कि कार्यवाही और अंतरिम भरण पोषण के खर्च के भुगतान के लिए आवेदन का निपटारा उस तारीख से 60 दिनों के भीतर किया जाएगा जिस दिन पक्ष को नोटिस भेजा जाता है। 

चित्रालेखा बनाम रंजीत राय 30 जुलाई, (1977) में, यह उल्लेख किया गया है कि इस धारा के पीछे का मकसद मुकदमे के लंबित रहने के दौरान खुद की जीवन जीने की महत्त्वपूर्ण जरूरतों के लिए निर्धन पक्ष को वित्तीय सहायता प्रदान करना है ताकि पति या पत्नी को आर्थिक संकट से जूझना न पड़े।

स्थायी गुजारा भत्ता

एचएमए, 1955 की धारा 25 न्यायालय को किसी भी पक्ष को भरण-पोषण और स्थायी गुजारा भत्ता का दावा करने का अधिकार देने का अधिकार देती है। ऐसा गुजारा भत्ता या भरण-पोषण कोई डिक्री पारित करते समय दिया जाएगा। यह प्रावधान न्यायालय को सकल राशि, आवधिक राशि या मासिक राशि प्रदान करने का अधिकार देता है। 

सविताबेन सोमाभाई भाटिया बनाम गुजरात राज्य (2005) में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि विवाह द्विविवाह के आधार पर शून्य है। यहां ऐसे मामलो में, पत्नी हिंदू विवाह अधिनियम के तहत भरण-पोषण की हकदार नहीं है।

लैंडमार्क मामले जहां पेंडेंट लाइट दिया गया था  

गुलाब चंद बनाम संपति देवी 19 नवंबर (1986) के मामले में पत्नी ने न्यायालय में आवेदन किया और पति से गुजारा भत्ता की मांग की। न्यायालय ने पत्नी को भरण-पोषण की अनुमति दी क्योंकि वह अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ थी और न्यायालय ने उसके नाबालिग बच्चों को भी भरण-पोषण की अनुमति दी क्योंकि वे उसके साथ रह रहे थे। प्रतिवादी द्वारा यह तर्क दिया गया था कि धारा 26 के तहत बच्चों के लिए भरण-पोषण का कोई विशिष्ट आवेदन दायर नहीं किया गया था। न्यायालय ने माना कि वे न केवल पति या पत्नी को बल्कि उन बच्चों को भी भरण-पोषण देने के हकदार हैं जो उसके साथ रह रहे हैं और उस पर निर्भर हैं। न्यायालय ने रु. 150 मुकदमेबाजी खर्च के लिए और रु 200 प्रति माह भरण पोषण के लिए डिक्री पारित की।

संदीप कुमार बनाम झारखंड राज्य और अन्य (2003) में याचिकाकर्ता (पति) द्वारा रांची में कौटुंबिक न्यायालय द्वारा पारित आदेश के खिलाफ आवेदन दायर किया गया था जो पत्नी के पक्ष में था। उसने फैसले को चुनौती दी और कहा कि उसकी पत्नी (दूसरा प्रतिवादी) एक संगीत विद्यालय चला रही है और वह स्वतंत्र रूप से खुद को संभाल रही है। इसका पत्नी द्वारा विरोध किया गया और उसने कहा कि संगीत केंद्र उसकी भाभी द्वारा चलाया जा रहा है जिसकी वह मदद करती है और वह वहां वेतनभोगी कर्मचारी नहीं है। न्यायालय ने पत्नी को भरण पोषण पेंडेंट लाइट का आदेश दिया और रुपये 2,500 मुकदमेबाजी के लिए और प्रति माह रुपए 1000  का भरण पोषण के लिए अनुमति दी। 

श्रीमती कंचन डब्ल्यू / ओ कमलेंद्र बनाम कमलेंद्र उर्फ ​​कमलाकर (1992), में पति ने अपनी पत्नी से भरण-पोषण की मांग की क्योंकि वह बेरोजगार था। पत्नी एक कर्मचारी थी और उसे अपने 10 साल के बच्चे का भरण-पोषण करना था। पति मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति था। न्यायालय ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 में कहा गया है कि पति गुजारा भत्ता का दावा तब कर सकता है जब वह न्यायालय को संतुष्ट कर दे कि वह मानसिक या शारीरिक रूप से अक्षम है और वह कमा नहीं सकता है या अपने जीवन की जरूरतों को पूरा नहीं कर सकता है। इसलिए, यहां पति को पेंडेंट लाइट भरण पोषण नहीं दिया गया था क्योंकि न्यायालय कहता है कि यदि भरण पोषण एक ऐसे व्यक्ति को दिया जाता है जो कमा सकता है, तो यह एक कुशल व्यक्ति के आलस को बढ़ावा देगा।

निष्कर्ष 

पेंडेंट लाइट कहावत का उद्देश्य ऐसे व्यक्ति को वित्तीय सहायता या मानक जीवन प्रदान करना है जो अपने जीवन की रोज की जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ है। जब अधिकार और न्याय की बात आती है, तो ज़रूरतमंद पत्नियाँ अलग-अलग क़ानूनों के तहत भरण-पोषण की हकदार होती हैं, लेकिन हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 पति और पत्नी दोनों को भरण-पोषण का दावा करने का समान अधिकार देती है और अन्य प्रावधान बच्चों, पत्नी, और वृद्ध माता-पिता भरण पोषण के लिए दावा करने के लिए अधिकार देते है। न्यायालय पक्षों को एक आयकर रिटर्न, खातों का विवरण, लीज डीड आदि जैसे दस्तावेज दाखिल करने के लिए कहती है। भरण पोषण के रूप में कोई भी राशि देने से पहले इस तथ्य पर अनुमति दी जाएगी कि कार्यवाही से जुड़े पक्ष के पास आय का कोई पर्याप्त स्रोत नहीं है। न्यायालय मासिक राशि या एकमुश्त (लंप सम) राशि का आदेश दे सकती है। 

संदर्भ

 

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