शांति भूषण बनाम भारत का सर्वोच्च न्यायालय अपने रजिस्ट्रार के माध्यम से (2018)

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यह लेख Akanksha Singh द्वारा लिखा गया है। यह लेख शांति भूषण बनाम भारत के सर्वोच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार और अन्य (2018) के मामले के विश्लेषण के साथ एक व्यापक रूप से जानकारी प्रदान करता है, जिसे ‘मास्टर ऑफ़ रोस्टर केस’ के रूप में जाना जाता है। यह लेख इस ऐतिहासिक मामले का विस्तृत अध्ययन प्रदान करता है। यह इस मामले में शामिल प्रासंगिक मामलों और न्यायिक पूर्व-निर्णय (प्रेसिडेंट) के साथ-साथ आवश्यक सिद्धांतों पर भी चर्चा करता है। यह लेख शिक्षार्थियों (लर्नर्स) को एक व्यापक शिक्षण अनुभव प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय 

‘शांति भूषण बनाम भारत का सर्वोच्च न्यायालय अपने रजिस्ट्रार और अन्य के माध्यम से (2018)‘ का मामला कानून की अदालत में मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की शक्तियों और कार्यों से संबंधित कानूनों के विकास में एक महत्वपूर्ण चरण है। भारत के संविधान के तहत, अनुच्छेद 14 समानता के सिद्धांत को आत्मसात (इंबाइब) करता है। यह कहता है कि “कानून की नजर में सभी समान हैं”। न्यायपालिका की स्वतंत्रता भारत में शक्तियों के पृथक्करण (सेपरेशन ऑफ़ पॉवर्स) की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है। न्यायपालिका की यह विशेषता इस मामले में निर्णय तक पहुंचने के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य करती है। यह ऐतिहासिक निर्णय संवैधानिक कानून के संबंध में विकसित हो रही व्यापक जटिलताओं (कॉम्प्लेक्सिटीज) का एक उदाहरण है। याचिकाकर्ता, जो कानूनी बिरादरी में एक प्रसिद्ध व्यक्ति हैं और पूर्व केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री हैं, उन्होंने न्यायालय के प्रशासनिक कामकाज में न्यायिक प्रणाली की पारदर्शिता और जवाबदेही का विश्लेषण करने के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश की स्वतंत्र शक्तियों के मुद्दे को सामने लाना आवश्यक पाया। 

इस मामले ने न्यायाधीशों के पीठ के गठन और गठित पीठ को मामलों के आवंटन (एलॉटमेंट) के संबंध में भारत के मुख्य न्यायाधीश की अनन्य प्रशासनिक शक्तियों के बारे में बढ़ती चिंता को उजागर किया। याचिकाकर्ता ने चिंता व्यक्त की कि भारत के मुख्य न्यायाधीश की इस अप्रतिबंधित शक्ति की जाँच की जानी चाहिए और उनकी अनन्य शक्ति और कॉलेजियम (सर्वोच्च न्यायालय की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रणाली) की शक्ति के संबंध में संतुलन बनाया जाना चाहिए। याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तुत तर्कों का मुख्य दावा यह था कि विभिन्न पीठों को मामले आवंटित करने की मुख्य न्यायाधीश की शक्ति एक ऐसा कार्य है जिसे स्थापित मानदंडों (नॉर्म्स) और संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप किया जाना चाहिए न कि एक अभेद्य (अनएसेलेबल) या व्यक्तिगत अधिकार। उन्होंने तर्क दिया कि ऐसी अनन्य शक्तियाँ और खुलेपन की कमी मनमानी (आर्बिट्ररिनेस) के माहौल को बढ़ावा दे सकती है। इसलिए, अधिक जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करने वाले ढांचे की आवश्यकता थी। अपनी अपील में, याचिकाकर्ता ने सर्वोच्च न्यायालय से इस विचार को स्वीकार करने के लिए कहा कि मुख्य न्यायाधीश सिर्फ़ “समान प्रणाली में सबसे प्रथम” हैं, यह सुझाव देते हुए कि भारत के मुख्य न्यायाधीश का प्रशासनिक अधिकार अन्य न्यायाधीशों की तरह ही समान प्रतिबंधों और जाँच के अधीन है।

इस फैसले ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाने और न्यायिक प्रणाली में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने को लेकर चिंताएं जताईं। भारत के मुख्य न्यायाधीश की अदालत के रोजमर्रा के कामकाज में महत्वपूर्ण भूमिका होती है, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा, लेकिन इसने मामलों को आवंटित करने के लिए एक अधिक खुली और सहकारी प्रक्रिया की आवश्यकता पर भी बल दिया। “रोस्टर के मास्टर” (सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को दी गई पदवी) के रूप में माने जाने के बावजूद, भारत के मुख्य न्यायाधीश को इस अधिकार का उपयोग उचित, न्यायसंगत (जस्ट एंड इक्विटेबल) और खुले तरीके से करना चाहिए, जैसा कि फैसले में कहा गया है। न्यायालय ने स्वीकार किया कि मामलों को आवंटित करने का अधिकार न्यायपालिका की निष्पक्ष और त्वरित न्याय प्रदान करने की आवश्यकता से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, और इस दायित्व से कोई भी विचलन (डिपार्चर) देश की कानूनी प्रणाली में जनता के विश्वास पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है। 

मामले का विवरण

  • मामले का नाम: शांति भूषण बनाम भारत का सर्वोच्च न्यायालय अपने रजिस्ट्रार के माध्यम से (2018)
  • केस संख्या: 2018 का 789
  • समतुल्य उद्धरण: 8 एससीसी 396
  • न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
  • बेंच: माननीय न्यायमूर्ति एके सीकरी और माननीय न्यायमूर्ति अशोक भूषण
  • निर्णय के लेखक: न्यायमूर्ति अशोक भूषण
  • याचिकाकर्ता/अपीलकर्ता: शांति भूषण
  • याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व: अधिवक्ता दुष्यंत दवे
  • प्रतिवादी: भारत का सर्वोच्च न्यायालय अपने रजिस्ट्रार और अन्य के माध्यम से
  • प्रतिवादी का प्रतिनिधित्व: अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल
  • मामले का विषय: भारत के मुख्य न्यायाधीश की प्रशासनिक शक्तियां
  • फैसले की तारीख: 06 जुलाई, 2018 

मामले के तथ्य 

‘शांति भूषण बनाम रजिस्ट्रार और अन्य के माध्यम से भारत का सर्वोच्च न्यायालय’ का मामला भारत के सर्वोच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ अधिवक्ता द्वारा दायर किया गया था। इस उपर्युक्त याचिकाकर्ता ने आम जनता में और साथ ही कानून के पेशेवर सफर में भी अच्छी और विश्वसनीय प्रतिष्ठा हासिल की है। याचिकाकर्ता ने यह मामला भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर किया था। याचिकाकर्ता ने भारत के मुख्य न्यायाधीश की प्रशासनिक शक्ति पर स्पष्टीकरण मांगने के लिए यह याचिका दायर की थी। भारत के मुख्य न्यायाधीश की प्रशासनिक शक्ति के बारे में यह स्पष्टीकरण ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ की स्थिति और ‘मामलों के आवंटन के लिए रोस्टर’ की तैयारी में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया और सिद्धांतों के संबंध में था। इस प्रकार, यह मामला भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष आया। 

हालांकि, याचिकाकर्ता ने कानूनी सिद्धांतों को मान्यता दी और स्वीकार किया, जो कहते हैं कि “भारत के मुख्य न्यायाधीश रोस्टर के मास्टर हैं”। यह सिद्धांत आगे कहता है कि “भारत के मुख्य न्यायाधीश के पास भारत के सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न न्यायाधीशों या पीठों को मामले आवंटित करने का अधिकार है”। याचिकाकर्ता ने इस उपर्युक्त सिद्धांत के पीछे के तर्क को भी जाना और स्वीकार किया। तर्क इस समझ पर आधारित है कि ऐसा सिद्धांत केवल न्यायिक शिष्टाचार (डेकोरम) और अनुशासन बनाए रखने के लिए मौजूद है। याचिका में भारत के मुख्य न्यायाधीश की स्थिति के बारे में प्रावधान का भी उल्लेख किया गया है, “समानों में प्रथम” के रूप में। इस अभिव्यक्ति का अर्थ है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश हैं, जबकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीश समान स्थिति में हैं और उनके पास समान न्यायिक अधिकार और शक्ति है। हालाँकि, इस अभिव्यक्ति का अर्थ यह नहीं है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की तुलना में किसी भी तरह से अधिकार में श्रेष्ठ हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश की शक्तियों का प्रयोग पारदर्शी (ट्रांसपेरेंट), न्यायसंगत और निष्पक्ष तरीके से किया जाना आवश्यक है।

मुद्दे 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में निम्नलिखित मुद्दे तय किये:

  • क्या भारत के मुख्य न्यायाधीश को, रोस्टर के मास्टर के रूप में, सर्वोच्च न्यायालय की विभिन्न पीठों या विभिन्न न्यायाधीशों को मामले आवंटित करने का एकमात्र अधिकार है? 
  • क्या ‘भारत के मुख्य न्यायाधीश’ का अर्थ भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पांच वरिष्ठ न्यायाधीशों के कॉलेजियम से लगाया जाता है?

पक्षों के तर्क

याचिकाकर्ता

याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में उल्लेख किया है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश ही वह व्यक्ति हैं जो किसी विशेष मामले की सुनवाई करने वाली पीठ का निर्णय लेने के लिए जिम्मेदार हैं। इस प्रावधान का उल्लेख भारत के मुख्य न्यायाधीश की ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ की स्थिति के अनुसार किया गया था। हालांकि, याचिकाकर्ता भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा वांछित (डिजायर्ड) निर्णय प्राप्त करने के लिए किसी विशेष मामले को किसी विशिष्ट पीठ या न्यायाधीश को आवंटित करने के संबंध में आशंका से चिंतित थे। इसके अलावा, याचिकाकर्ता ने उन मामलों की सूची के बारे में भारत के सर्वोच्च न्यायालय से स्पष्टीकरण मांगा जो अत्यावश्यक थे। इस प्रकार, याचिकाकर्ता ने एक ऐसी प्रणाली की मांग की जिसमें मामलों की सूची और पुनः आवंटन के लिए बेहतर औचित्य (रैशनल) और पारदर्शिता अपनाई जाए। ऐसा असमानता और पक्षपात की किसी भी संभावना से बचने के लिए किया गया था। याचिकाकर्ता ने यह भी सुझाव दिया कि मामलों को सर्वोच्च न्यायालय नियम, 2013 के प्रावधानों के अनुसार सूचीबद्ध किया जाना चाहिए। इन नियमों को भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा मामलों की सूची और पुनः आवंटन प्रक्रियाओं में सख्ती से लागू किया जाना था। याचिका में उल्लेख किया गया है कि यह सर्वविदित (वेल नोन) है कि सर्वोच्च न्यायालय नियम, 2013 के अनुसार,  भारत के मुख्य न्यायाधीश को कुछ मामलों को किसी भी पीठ या न्यायाधीश को आवंटित करने में एक निश्चित स्तर की विवेकाधीन शक्ति का प्रयोग करने का अधिकार है। इस प्रकार, याचिकाकर्ता ने आगे उल्लेख किया कि, इस संबंध में कि इस तरह की शक्ति का प्रयोग निष्पक्ष और उचित तरीके से किया जाता है, “मुख्य न्यायाधीश” शब्द का अर्थ “कॉलेजियम” माना जाना चाहिए। “कॉलेजियम” में सर्वोच्च न्यायालय के पहले पांच न्यायाधीश शामिल होने चाहिए, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन और अन्य बनाम भारत संघ (1993) के प्रसिद्ध मामले में कहा गया है, जिसे “द्वितीय न्यायाधीश मामला” के रूप में जाना जाता है । याचिकाकर्ता की ओर से उपस्थित विद्वान वरिष्ठ वकील श्री दुष्यंत दवे ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपनी दलीलें प्रस्तुत कीं। इस संबंध में याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में स्पष्टीकरण दिया कि वर्तमान याचिका का दायरा मामलों की लिस्टिंग से संबंधित प्रक्रिया के संबंध में भारत के मुख्य न्यायाधीश की शक्तियों के आकलन तक सीमित है, और इस तरह की याचिका के पीछे एकमात्र उद्देश्य एक मानक प्रक्रिया सुनिश्चित करना है ताकि भारत के मुख्य न्यायाधीश की इस शक्ति का प्रयोग न्यायोचित (लॉफुल) तरीके से वैधानिक रूप से किया जा सके। इस संबंध में याचिकाकर्ता ने निम्नलिखित तर्क दिए:

  • याचिकाकर्ता ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 145 का हवाला देते हुए तर्क दिया। याचिकाकर्ता ने उल्लेख किया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 145 के अनुसार, भारत के सर्वोच्च न्यायालय को न्यायालय की प्रथाओं और प्रक्रियाओं के सामान्य विनियमन (रेगुलेशन) के लिए नियम बनाने का अधिकार दिया गया है। हालाँकि, नियमों में न्यायालय की प्रथाओं और प्रक्रियाओं के बारे में कोई भी नियम बनाते समय राष्ट्रपति की मंज़ूरी का भी प्रावधान है। 
  • याचिकाकर्ता ने आगे उल्लेख किया कि न्यायालय की कार्यप्रणाली और प्रक्रिया के संबंध में उपर्युक्त नियमों में अपील और न्यायालय की कार्यवाही से संबंधित अन्य मामलों की सुनवाई के तरीके से संबंधित प्रावधान भी शामिल किए जा सकते हैं, जिसमें अपील या अन्य मामलों की सुनवाई का समय भी शामिल है।
  • याचिकाकर्ता ने यह भी उल्लेख किया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 145 में संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या या भारत के संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत किए गए किसी संदर्भ के संबंध में कानून के किसी महत्वपूर्ण प्रश्न से संबंधित किसी भी मामले पर निर्णय लेने के लिए न्यायाधीशों की न्यूनतम संख्या का प्रावधान है।
  • याचिकाकर्ता ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 का विस्तृत संदर्भ देते हुए तर्क दिया। भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 में देश के सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना और गठन का उल्लेख है। इसमें कहा गया है कि भारत का एक सर्वोच्च न्यायालय होगा। भारत के सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के अधिकतम सात अन्य न्यायाधीश शामिल होंगे, जब तक कि संसद कानून द्वारा अधिक संख्या निर्धारित न कर दे। 
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 की उपर्युक्त व्याख्या के अनुसार, ‘सर्वोच्च न्यायालय’ शब्द में न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों के साथ-साथ भारत के मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हैं। इस प्रकार, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 और 145 दोनों को पढ़ने से, पूरे सर्वोच्च न्यायालय को शक्ति प्राप्त होती है। इस शक्ति में रोस्टर बनाने और न्यायालय के समक्ष मामलों की सूची बनाने और सुनवाई के लिए निर्देश देने की शक्ति भी शामिल है। 

  • यहां, याचिकाकर्ता ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाला और कहा कि यद्यपि ” मुख्य न्यायाधीश रोस्टर के मास्टर हैं” का सिद्धांत अधिसमय (कन्वेंशन) के तहत दिया गया है, संविधान के तहत पारंपरिक योजना मूल रूप से देश के सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों की पुष्टि करने के लिए है। 
  • इसके अलावा, याचिकाकर्ता ने एस. पी गुप्ता बनाम भारत संघ और अन्य (1981) के मामले का हवाला दिया, जिसे “प्रथम न्यायाधीशों के मामले” के रूप में जाना जाता है। यह पहला मामला था जिसमें कहा गया था कि “मुख्य न्यायाधीश” शब्द का अर्थ ‘कॉलेजियम’ माना जाएगा। यह निर्णय असुरक्षित के बारे में चिंताओं के जवाब के रूप में आया और “द्वितीय न्यायाधीशों के मामले” और “तृतीय न्यायाधीशों के मामले” में दोहराया गया।
  • इस प्रकार, उपर्युक्त मामले में निर्धारित कानूनों के अनुसार, न्यायालय के संवेदनशील मामलों के रोस्टर बनाने, सूचीबद्ध करने और आवंटन के महत्वपूर्ण कार्यों को भारत के मुख्य न्यायाधीश के एकमात्र विवेक पर नहीं छोड़ा जा सकता है। ऐसा कोई भी एकमात्र विवेकाधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 और अनुच्छेद 145 के तहत निर्धारित संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत माना जाता है। 
  • इसलिए, याचिकाकर्ता ने दृढ़ता से तर्क दिया कि “मुख्य न्यायाधीश” शब्द का अर्थ “सर्वोच्च न्यायालय” या सर्वोच्च न्यायालय के पांच वरिष्ठतम न्यायाधीशों के “कॉलेजियम” से माना जाना चाहिए, जैसा कि विभिन्न निर्णयों में कहा गया है, ताकि सत्ता के किसी भी संभावित दुरुपयोग के खिलाफ पर्याप्त “जांच और संतुलन” बनाए रखा जा सके। 
  • याचिकाकर्ता ने यह भी उल्लेख किया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 145 के तहत रजिस्ट्रार को सूचियों की तैयारी का प्रबंधन करने और याचिकाओं की सुनवाई की तारीख तय करने की शक्ति प्रदान की गई है। यह सर्वोच्च न्यायालय नियम, 2013 के नियम 7 और नियम 8 के तहत प्रदान किया गया है। नियमों के इन प्रावधानों का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए। इसमें मामलों को आदेश III, नियम 7 और नियम 8 के अनुसार सूचीबद्ध किया जाएगा। 
  • इसके अलावा, याचिकाकर्ता के विद्वान वकील ने दलील दी कि भारत के मुख्य न्यायाधीश को ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ के रूप में काम करते हुए प्रशासनिक शक्ति का प्रयोग न्यायपूर्ण और निष्पक्ष तरीके से करना होगा। ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ के रूप में कार्य करते हुए, भारत के मुख्य न्यायाधीश पूरी तरह से प्रशासनिक क्षमता में कार्य करते हैं। 
  • इसके अलावा, याचिकाकर्ता ने यह भी कहा कि पक्षपात के सिद्धांत की प्रयोज्यता निर्धारित करने में ‘उचित आशंका का परीक्षण’ (टेस्ट ऑफ़ रीजनेबल अप्रीहेंशन) लागू किया जाएगा। यह परीक्षण कहता है कि किसी विशेष मामले में किसी भी पक्ष के मन में उचित आशंका एक संभावना होगी। इस सिद्धांत का सार प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत में भी पाया जाता है। यह ‘रंजीत ठाकुर बनाम भारत संघ और अन्य (1987)’ के मामले में माना गया था। इस मामले ने इस तथ्य पर जोर दिया कि भारतीय न्यायपालिका एक स्वतंत्र निकाय (एंटिटी) है और न्यायिक समीक्षा (ज्यूडिशियल रिव्यू) का कार्य करती है। 
  • इस प्रकार, संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार न्यायपालिका की शक्तियों पर नियंत्रण रखना बहुत आवश्यक हो जाता है। मामले को सौंपने और उसे सूचीबद्ध करने का कार्य पारदर्शी और निष्पक्ष तरीके से किया जाना चाहिए। देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था में आम जनता का भरोसा और विश्वास बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है। इस प्रकार, किसी भी पीठ या न्यायाधीश को मामलों को सूचीबद्ध करने और आवंटित करने की शक्ति का प्रयोग किसी एक व्यक्ति द्वारा नहीं किया जाना चाहिए। यह दूसरे न्यायाधीशों के मामले में निर्धारित सिद्धांतों का पालन करके कुशलतापूर्वक किया जा सकता है। 
  • याचिकाकर्ता के विद्वान वकील ने आगे बताया कि भारत की न्याय व्यवस्था, जो लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर चलती है, उसका उद्देश्य भारत के मुख्य न्यायाधीश को दी गई प्रशासनिक शक्तियों को भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों के साथ साझा (शेयर) करना है। यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि मुख्य न्यायाधीश की शक्तियों का निष्पक्ष और न्यायपूर्ण तरीके से प्रयोग किया जाए। याचिकाकर्ता ने अपने तर्कों में अधिक स्पष्टता लाने के लिए विभिन्न देशों की विभिन्न न्यायिक प्रणालियों का भी हवाला दिया। याचिकाकर्ता ने विभिन्न विकसित देशों की न्यायिक अदालतों जैसे ऑस्ट्रेलिया के उच्च न्यायालय, यूनाइटेड किंगडम के सर्वोच्च न्यायालय, कैनेडा के सर्वोच्च न्यायालय, जर्मन संघीय न्यायालय, यूरोपीय न्यायालय और यूरोपीय मानवाधिकार न्यायालय का हवाला दिया।

प्रतिवादी

याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तुत तर्कों के जवाब में, विद्वान अटॉर्नी जनरल, श्री वेणुगोपाल ने प्रतिवादी की ओर से मामला प्रस्तुत करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता ने इस कानूनी रुख को स्वीकार कर लिया है कि “मुख्य न्यायाधीश रोस्टर के मास्टर हैं”। प्रतिवादी ने आगे तर्क दिया कि याचिकाकर्ता इस स्थिति को भी स्वीकार करता है कि मुख्य न्यायाधीश के पास मुख्य न्यायाधीश की ‘रोस्टर के मास्टर’ की क्षमता के अनुसार विभिन्न पीठ या सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न न्यायाधीशों को मामलों को सूचीबद्ध करने और आवंटित करने का अधिकार है। इस प्रकार, प्रतिवादी ने कहा कि विवाद केवल इस बात तक सीमित है कि इस तरह की स्वायत्त (ऑटोनोमस) शक्ति का उपयोग किस तरह किया जाना है। साथ ही, प्रतिवादी ने यह भी उल्लेख किया कि याचिकाकर्ता ने पीठ या न्यायाधीशों द्वारा दिए गए विभिन्न निर्णयों पर सवाल नहीं उठाया है। इसके अलावा, प्रतिवादियों ने बताया कि याचिका ने उनके पूरे मामले को इस बात पर आधारित किया है कि किस तरह से मामलों का आवंटन मुख्य न्यायाधीश द्वारा किया जाना है। याचिकाकर्ता ने इस तथ्य पर जोर दिया कि मुख्य न्यायाधीश द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के पीठ या न्यायाधीशों को मामलों का निष्पक्ष और न्यायपूर्ण आवंटन होना चाहिए। इसके अलावा, प्रतिवादी ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता ने ‘मुख्य न्यायाधीश’ शब्द को पांच वरिष्ठतम न्यायाधीशों के ‘कॉलेजियम’ के रूप में मानने का सुझाव दिया है। इन तर्कों के जवाब में, प्रतिवादी के विद्वान अटॉर्नी जनरल श्री वेणुगोपाल ने निम्नलिखित तर्क दिए। 

  • विद्वान अटॉर्नी जनरल ने अपनी दलील पेश की और कहा कि हालांकि, तीन न्यायाधीश के मामले ने इस तरह की व्यवस्था का सुझाव दिया था, यानी भारत के उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए ‘मुख्य न्यायाधीश’ शब्द का अर्थ पांच वरिष्ठतम न्यायाधीशों का ‘कॉलेजियम’ मानने की स्थिति, लेकिन जहां तक भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा “मास्टर ऑफ रोस्टर” की हैसियत से प्रशासनिक जिम्मेदारियों का संचालन करने की बात है तो यह स्थिति पूरी तरह अव्यावहारिक आधार पर आधारित है। विद्वान अटॉर्नी जनरल, श्री वेणुगोपाल ने याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त सुझाव का पुरजोर खंडन (स्ट्रोंगली रिफ्यूटेड) किया। विद्वान अटॉर्नी जनरल ने तर्क दिया कि ‘मुख्य न्यायाधीश’ शब्द की पांच वरिष्ठ न्यायाधीशों के ‘कॉलेजियम’ के रूप में व्याख्या पूरी तरह अव्यावहारिक है। उन्होंने अपनी दलील इस तर्क पर आधारित की कि इस तरह की व्याख्या पीठ के रोजमर्रा के कामकाज में काफी अराजकता (केओस) पैदा करेगी। यदि मामलों को अलग-अलग पीठों या अलग-अलग न्यायाधीशों को सूचीबद्ध करने और आवंटित करने का निर्णय पांच वरिष्ठतम न्यायाधीशों के ‘कॉलेजियम’ द्वारा किया जाता है, तो इससे रोजमर्रा के प्रशासनिक कार्यों की दक्षता में बाधा उत्पन्न होगी। 
  • विद्वान अटॉर्नी जनरल ने आगे तर्क दिया कि अलग-अलग बेंचों और अलग-अलग न्यायाधीशों को मामलों को सूचीबद्ध, आवंटन और पुनर्आवंटन से संबंधित निर्णय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए, जो व्यक्तिगत क्षमता में कार्य करते हैं। उनका तर्क है कि इस तरह के प्रावधान से न्यायालय की व्यवस्था में लोगों का विश्वास बहाल होगा और भारत की न्यायपालिका में सर्वोच्च संवैधानिक पद पर लोगों का विश्वास स्थापित करके न्यायालय के सुचारू (स्मूथ) कामकाज को सुनिश्चित किया जा सकेगा। 

शांति भूषण बनाम रजिस्ट्रार के माध्यम से भारत का सर्वोच्च न्यायालय के (2018) में चर्चित कानून

इस मामले में भारतीय संविधान के दो महत्वपूर्ण प्रावधानों पर चर्चा की गई। वे हैं अनुच्छेद 124 और अनुच्छेद 145।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 124

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 124 सर्वोच्च न्यायालय के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण प्रावधानों में से एक है, क्योंकि यह भारत के सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना, संरचना और कामकाज के लिए नियम निर्धारित करता है। आइए हम अनुच्छेद के प्रमुख प्रावधानों पर चर्चा करें। 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना और संरचना

अनुच्छेद 124 का खंड (1) भारत के सर्वोच्च न्यायालय की संरचना के बारे में बात करता है। इसमें कहा गया है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय में भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ संसद के कानूनों द्वारा निर्धारित कई अन्य न्यायाधीश होंगे। ऐतिहासिक रूप से, भारत के सर्वोच्च न्यायालय में भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ अन्य सात न्यायाधीश होते थे। हालाँकि, यह संख्या बढ़ गई है। भारत के राष्ट्रपति की स्वीकृति से ही सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाती है। 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति

अनुच्छेद 124 का खंड (2) सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को रेखांकित करता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। वरिष्ठता सिद्धांत, जो भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर सर्वोच्च रैंकिंग वाले सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को रखता है, ऐतिहासिक रूप से भारत के मुख्य न्यायाधीश के नामांकन का मार्गदर्शन करता रहा है। नए न्यायाधीशों की नियुक्ति करने से पहले राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों से संपर्क करते हैं; यह प्रक्रिया कॉलेजियम प्रणाली के रूप में विकसित हुई है। हालाँकि, इस प्रणाली का संविधान में उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन न्यायिक मिसालों के माध्यम से अदालतों द्वारा इसे स्थापित किया गया है। इस प्रणाली में भारत के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के चार सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों से बना एक कॉलेजियम शामिल है।

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए आवश्यक योग्यता

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के लिए किसी व्यक्ति की आवश्यकताओं को अनुच्छेद 124 के खंड (3) में रेखांकित किया गया है। योग्यता के लिए आवश्यक है कि वह भारतीय नागरिक हो, या तो राष्ट्रपति की दृष्टि में एक प्रमुख न्यायविद (प्रॉमिनेंट ज्यूरिस्ट) हो, या कम से कम पाँच वर्षों के लिए किसी उच्च न्यायालय (या लगातार दो या अधिक ऐसे न्यायालयों) का न्यायाधीश हो, या कम से कम 10 वर्षों के लिए किसी उच्च न्यायालय (या लगातार दो या अधिक ऐसे न्यायालयों) का अधिवक्ता हो। ये आवश्यकताएँ इस बात का आश्वासन देती हैं कि नियुक्त न्यायाधीशों के पास बहुत अधिक कानूनी ज्ञान या महत्वपूर्ण न्यायिक अनुभव हो।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाना

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अनुच्छेद 124(4) और (5) के तहत कार्यकाल और पदच्युति (रिमूवल) के अधीन हैं। न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक पद पर बने रहते हैं। वे राष्ट्रपति को अपने हस्ताक्षर से पत्र लिखकर अपना इस्तीफा दे सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को पदच्युत करने के लिए बहुत सीमित आधार हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को केवल सिद्ध अक्षमता या दुर्व्यवहार के आधार पर ही हटाया जा सकता है। यह पदच्युति केवल संसद से अनुमोदन वाली कठोर प्रक्रिया के माध्यम से की जा सकती है। 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 145 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 145 भारत के मुख्य न्यायाधीश की प्रशासनिक शक्तियों और भारत के सर्वोच्च न्यायालय के प्रक्रियात्मक ढांचे से संबंधित एक आवश्यक प्रावधान है। यह अनुच्छेद भारतीय न्यायपालिका को कुछ प्रशासनिक कार्यों को स्वतंत्र रूप से करने की स्वायत्तता प्रदान करता है। इस अनुच्छेद में कुछ तत्व हैं जिनकी चर्चा पाठकों को प्रावधान की बेहतर समझ देने के लिए नीचे की गई है। 

नियम बनाने की शक्ति

सर्वोच्च न्यायालय को अपने द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रियाओं और प्रथाओं के संबंध में नियम और विनियम बनाने का अधिकार है। ये प्रथाएँ और प्रक्रियाएँ सर्वोच्च न्यायालय के कामकाज से संबंधित हैं। 

भारत के राष्ट्रपति का अनुमोदन

इस अनुच्छेद के तहत, भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए नियम और विनियम भारत के राष्ट्रपति के अनुमोदन के अधीन होंगे। यह न्यायपालिका की स्वतंत्र रूप से कार्य करने और पारदर्शिता बनाए रखने की शक्ति के बीच एक जांच और संतुलन सुनिश्चित करता है। 

संसदीय निरीक्षण

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए नियम और विनियम संसद द्वारा बनाए गए कानूनों के अनुरूप होंगे। इससे यह सुनिश्चित होता है कि न्यायपालिका संसद द्वारा स्थापित कानूनी ढांचे के भीतर काम करती है। 

प्रशासनिक दक्षता

सर्वोच्च न्यायालय की नियम-निर्माण शक्ति यह सुनिश्चित करती है कि न्यायपालिका वर्तमान की आवश्यकताओं के अनुसार कार्य करे तथा न्यायालय में सुचारू रूप से कार्य हो। 

मामले का फैसला 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता और प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत सभी तर्कों पर गंभीरता से विचार किया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने शुरू में ही स्पष्ट कर दिया कि इस मामले को प्रकृति में प्रतिकूल नहीं माना गया है। इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि न्यायालय ने याचिकाकर्ता की ईमानदारी पर सवाल नहीं उठाया, जो वास्तव में न्यायालय में और साथ ही कानूनी बिरादरी में एक प्रतिष्ठित स्थिति का आनंद लेने वाला व्यक्ति है। इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इस मामले को निष्पक्ष रूप से और बड़ी जिम्मेदारी की भावना के साथ माना गया है। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भारत के संविधान, क़ानून और इस न्यायालय के उदाहरणों में शामिल अन्य लागू कानूनी प्रावधानों पर विचार करते हुए सभी प्रासंगिक कानूनी स्थितियों के अनुसार मामले का फैसला करना न्यायालय का कर्तव्य है। सर्वोच्च न्यायालय ने मामले में उठाए गए प्रत्येक मुद्दे पर चर्चा करके बहुत स्पष्ट और सटीक तरीके से फैसला सुनाया। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का विस्तृत फैसला निम्नलिखित है, जो मुद्देवार तरीके से दिया गया है। 

क्या भारत के मुख्य न्यायाधीश को, रोस्टर के मास्टर के रूप में, सर्वोच्च न्यायालय की विभिन्न पीठों या विभिन्न न्यायाधीशों को मामले आवंटित करने का एकमात्र अधिकार है?

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई पहली और सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणी यह थी कि यह एक निर्विवाद तथ्य है कि मुख्य न्यायाधीश रोस्टर के मास्टर हैं। इस तथ्य पर भी कोई विवाद नहीं था कि मुख्य न्यायाधीश के पास सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न पीठों या विभिन्न न्यायाधीशों को मामले आवंटित करने का अधिकार है। इसके अलावा, याचिकाकर्ता ने खुद इस तथ्य को स्वीकार किया कि “मुख्य न्यायाधीश रोस्टर के मास्टर हैं” का सिद्धांत भारतीय न्यायपालिका के अनुशासन को बनाए रखने और अदालत के उचित कामकाज को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक था। इसी सिद्धांत को अशोक पांडे बनाम भारत के सर्वोच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार और अन्य (2018) के मामले के माध्यम से बताया गया था। 

इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की प्रशासनिक शक्तियों के बारे में कोई संदेह नहीं है। न्यायालय ने कहा कि यही सिद्धांत भारत के मुख्य न्यायाधीश की शक्तियों पर भी लागू होना चाहिए। न्यायालय ने टिप्पणी की कि जब भारत के मुख्य न्यायाधीश के न्यायिक कार्यों की बात आती है, तो वे अपने बराबर के लोगों में सबसे पहले हैं। हालांकि, जब रोस्टर की बात आती है, तो मुख्य न्यायाधीश के पास पीठ बनाने और उन्हें मामले आवंटित करने का एकमात्र अधिकार होता है। न्यायालय ने कहा कि निश्चित रूप से वही सिद्धांत जो उच्च न्यायालय पर लागू होता है, वह सर्वोच्च न्यायालय पर भी लागू होता है। न्यायालय ने आगे स्पष्ट किया कि न तो दो न्यायाधीशों की पीठ और न ही तीन न्यायाधीशों की पीठ किसी अन्य पीठ या खुद को मामले आवंटित कर सकती है और बेंचों के गठन का आदेश दे सकती है। दूसरे शब्दों में, न्यायालय ने कहा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश को इस बारे में कोई आदेश या निर्देश नहीं दिया जा सकता कि पीठ पर कौन बैठेगा या किसे कोई खास मामला आवंटित किया जाएगा। मुख्य न्यायाधीश को किसी खास पीठ का गठन करने का आदेश या सूचना नहीं दी जा सकती। ऐसा कोई भी आदेश कानून द्वारा अस्वीकार्य है। 

क्या ‘भारत के मुख्य न्यायाधीश’ शब्द का अर्थ भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पांच वरिष्ठ न्यायाधीशों के कॉलेजियम से लगाया जाता है?

सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 145 के प्रावधानों का उल्लेख किया, जो सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 145 में विशेष रूप से उल्लिखित मामलों सहित न्यायालय की कार्यप्रणाली और प्रक्रिया को सामान्य रूप से विनियमित करने के लिए नियम बनाने का अधिकार देता है। इन नियमों को भारत के राष्ट्रपति की मंजूरी से बनाया जाना चाहिए, भले ही इसने न्यायालय ने याचिकाकर्ता द्वारा मांगी गई राहत को अस्वीकार कर दिया हो। न्यायालय ने इसमें सर्वोच्च न्यायालय नियम 2013 के आदेश VI का भी संदर्भ दिया। यह निर्देश न्यायाधीशों और न्यायालयों की शक्ति के पृथक्करण (सेपरेशन ऑफ़ पॉवर्स) के निर्माण को संबोधित करता है। उस दस्तावेज़ के नियम 1 के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश न्यायाधीशों को नामित करने के लिए जिम्मेदार हैं, जो किसी विषय, मामले या अपील पर विचार करने के लिए एक पीठ का गठन करेंगे। 

इस प्रकार नियम 1 में प्रावधान है कि मुख्य न्यायाधीश के पास खंडपीठ के साथ-साथ बड़ी पीठ का गठन करने का भी अधिकार है। ऐसे मामले में, जहां किसी मामले का संदर्भ बड़ी पीठ द्वारा दिया गया है। मुख्य न्यायाधीश ही वह पीठ गठित करेंगे, जिसे ऐसा संदर्भ दिया जाएगा। नियम में कहीं भी यह उल्लेख नहीं किया गया है कि बड़ी पीठ के न्यायाधीश पिछली पीठ के न्यायाधीशों के समान ही होंगे।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आगे उल्लेख किया कि राजस्थान राज्य बनाम प्रकाश चंद (1998) और न्यायिक जवाबदेही (जुडिशियल अकाउंटेबिलिटी) और सुधार अभियान बनाम भारत संघ और अन्य (2018) के मामले में, यह माना गया था कि भारत के मुख्य न्यायाधीश शब्द के बारे में इस तरह के सुझाव “स्पष्ट रूप से गलत हैं”। अदालत ने माना कि यह एक सुस्थापित सिद्धांत है कि किसी निकाय या प्राधिकरण को निर्देश देने के लिए परमादेश (सर्शियोरेरी) जारी नहीं किया जा सकता है, जो पहले से ही नियम बनाने या किसी विशेष तरीके से नियम बनाने के लिए ऐसी शक्ति के साथ निहित है। इसलिए, याचिकाकर्ता किसी विशेष तरीके से किसी विशेष पीठ से संविधान के पक्ष में कोई आदेश मांगने का हकदार नहीं है। अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा मांगी गई राहत कानूनी और संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। याचिकाकर्ता ने एक मिसाल कायम करने की मांग की है जो कहती है कि मुख्य न्यायाधीश का मतलब कॉलेजियम होना चाहिए, और मुख्य न्यायाधीश के पास, पाँच वरिष्ठतम न्यायाधीशों के साथ पीठ का गठन करने और उसे मामले आवंटित करने का अधिकार होगा। हालाँकि, इस तरह के सुझाव का कोई संवैधानिक आधार नहीं है। साथ ही, न्यायालय ने कहा कि ऐसा प्रावधान निश्चित रूप से प्रशासनिक शक्तियों के संबंध में मुख्य न्यायाधीश की विशेष शक्ति में हस्तक्षेप के रूप में कार्य करेगा। 

इन आधारों के आधार पर, सर्वोच्च न्यायालय ने जहां तक पीठों के गठन का सवाल है, याचिकाकर्ता की प्रार्थना को खारिज कर दिया। न्यायालय ने उपर्युक्त निर्णय का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा पुनः प्रस्तुत किया और निम्नलिखित को उद्धृत किया:

“उच्च न्यायालय समय-समय पर मुख्य न्यायाधीश के अधिकार के तहत काम का रोस्टर प्रकाशित करते हैं। रोस्टर पीठ, डिवीजन और सिंगल के गठन को इंगित करता है। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को कार्य के आवंटन पर निर्णय लेते समय प्रत्येक न्यायाधीश की विशेषज्ञता के क्षेत्र को ध्यान में रखना होता है। हालाँकि, विशेषज्ञता कई पहलुओं में से एक है जो मुख्य न्यायाधीश के साथ वजन रखती है। एक नव नियुक्त न्यायाधीश को कानून की विभिन्न शाखाओं में विशेषज्ञता हासिल करने में सक्षम बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के नियत कार्यों (असाइनमेंट) में घुमाया जा सकता है। विशेषज्ञता की आवश्यकता के साथ-साथ, न्यायाधीशों को कानून के विविध क्षेत्रों की व्यापक समझ रखने की आवश्यकता है। कार्य के आवंटन और पीठ के गठन पर निर्णय लेने में, मुख्य न्यायाधीशों को काम और बकाया राशि को ध्यान में रखते हुए किसी विशेष विषय को सौंपी जाने वाली पीठ की संख्या निर्धारित करनी होती है। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश किसी दिए गए क्षेत्र में लंबित मामलों, सबसे पुराने मामलों को निपटाने की आवश्यकता, आपराधिक मामलों को प्राथमिकता देना जहां विषय की स्वतंत्रता शामिल है और संख्या के संदर्भ में न्यायालय की समग्र शक्ति जैसे कारकों को ध्यान में रखेंगे।”

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि इस निर्णय ने इस संबंध में एक मिसाल कायम की है। न्यायालय ने यह भी बताया कि भारत के संविधान में मुख्य न्यायाधीश की भूमिका निर्दिष्ट नहीं है। हालाँकि, उपर्युक्त मामले में दिया गया निर्णय लंबे समय में विकसित किए गए ठोस कानूनी सिद्धांतों और परंपराओं पर आधारित है और सर्वोच्च न्यायालय के नियमों के रूप में निहित है। इस संबंध में मुख्य न्यायाधीश की राय को अन्य पीठों की राय के समान ही माना जाता है। इसलिए, किसी विशेष मामले में, यह संभव है कि मुख्य न्यायाधीश की राय अल्पमत (माइनोरिटी) में हो। ऐसे उदाहरण में, बहुमत द्वारा लिया गया निर्णय मामले के परिणाम को निर्धारित करेगा। उपरोक्त कथन में “प्रथम” वाक्यांश केवल यह दर्शाता है कि “मुख्य न्यायाधीश” न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश हैं। 

दूसरा मिथक (मिथ) यह है कि चूंकि वह “मुख्य न्यायाधीश” और न्यायपालिका के वरिष्ठ सदस्य हैं, इसलिए उनके पास न्यायालय का नेतृत्व करने का अधिकार है। “मुख्य न्यायाधीश” अक्सर यह सुनिश्चित करने के लिए प्रभारी होते हैं कि न्यायालय इस कारण से आवश्यक होने पर सुधार और परिवर्तन को प्रोत्साहित करे। “मुख्य न्यायाधीश” पर अब चल रहे न्यायिक परिवर्तनों की देखरेख करने का नैतिक दायित्व है जो यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हैं कि लोगों को न्याय तक वास्तविक पहुँच मिले। न्याय प्रशासन में ये परिवर्तन न केवल न्यायिक, यानी मामलों का निर्णय कैसे किया जाना चाहिए, मामलों और न्यायालय का प्रबंधन, शीघ्र निपटान आदि को शामिल करते हैं, बल्कि प्रशासनिक, यानी कानूनी प्रणाली प्रशासन सुधार को भी शामिल करते हैं। न्यायिक सुधार का एक महत्वपूर्ण घटक प्रक्रियात्मक सुधारों को अपनाना है। न्याय प्रदान करना, सर्वोच्च, सबसे महान गुण और अंतिम लक्ष्य है। फिर से, यह कहा जा सकता है कि न्यायिक कार्यभार को कैसे विभाजित किया जाए, इस पर “मुख्य न्यायाधीश” का अंतिम कहना है क्योंकि वह न्यायालय चलाने के प्रभारी हैं और इसके प्रशासन पर उनका अधिकार क्षेत्र है। 

हालांकि, एक बार जब कोई मामला किसी पीठ को सौंप दिया जाता है, तो “मुख्य न्यायाधीश” के पास यह नियंत्रित करने का अधिकार नहीं होता कि वह पीठ कैसे काम करती है या उसे सौंपे गए मामलों पर कैसे निर्णय लेती है। कानून के अनुसार, कमज़ोर न्यायाधीशों से बनी एक पीठ किसी के भी हस्तक्षेप से मुक्त होकर यहाँ तक कि “मुख्य न्यायाधीश” के से भी भी मुक्त होकर अपनी न्यायिक भूमिका निभाती है। इस प्रकार, किसी विशेष विषय को किसी विशेष पीठ को सौंपने से, उस पीठ को मामले पर विशेष अधिकार प्राप्त होता है। उपर्युक्त बातों को देखते हुए, यह निष्कर्ष निकलता है कि “मुख्य न्यायाधीश” की दो प्राथमिक ज़िम्मेदारियाँ है, न्यायालय के संचालन को प्रशासित करना और न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में अन्य न्यायाधीशों के साथ समान आधार पर न्यायिक अधिकार का प्रयोग करना है। इन सिद्धांतों और उपर्युक्त निर्णायक निर्णयों के अनुपात के प्रकाश में, याचिकाकर्ता का दावा कि “मुख्य न्यायाधीश” शब्द की व्याख्या वास्तव में “कॉलेजियम” के रूप में की जानी चाहिए, जिसमें मुख्य न्यायाधीश और अन्य पाँच सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश शामिल हैं, इसे आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता है। 

इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने उल्लेख किया कि याचिकाकर्ता द्वारा दलील का आधार भी द्वितीय न्यायाधीश का मामला /सेकंड जजेज केस’ है। इस मामले में यह तय किया गया कि मुख्य न्यायाधीश को, हालांकि, अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों के साथ पूर्ण बातचीत और कुशल परामर्श (कंसल्टेशन) के सभी लाभ प्राप्त होंगे, लेकिन इसमें कॉलेजियम के सभी सदस्यों की सामूहिक बुद्धि पर विचार किया जाना चाहिए। अदालत ने यह भी उल्लेख किया कि यदि मुख्य न्यायाधीश को कॉलेजियम के रूप में माना जाता है, तो वास्तव में, अदालत के दिन-प्रतिदिन के कामकाज में बाधा उत्पन्न होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने बताया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम के सभी सदस्यों के साथ परामर्श की आवश्यकता अनिवार्य है, जैसा कि द्वितीय न्यायाधीश मामले में निर्धारित किया गया है। हालांकि, वर्तमान मामले में सवाल रोस्टर बनाने और विभिन्न पीठों या विभिन्न न्यायाधीशों को मामलों के आवंटन के संबंध में है। यह प्रावधान अदालत के दिन-प्रतिदिन के कामकाज से संबंधित है, जबकि न्यायाधीशों की नियुक्ति अदालत के नियमित कामकाज का हिस्सा नहीं है। इस प्रकार, न्यायालय ने कहा कि रोस्टर बनाने और मामलों के आवंटन के लिए प्रतिदिन कॉलेजियम की बैठक अव्यावहारिक (इम्प्प्रैक्टिकल) है। यहां तीन न्यायाधीशों के मामले के संदर्भ में की गई टिप्पणियों पर विचार करना आवश्यक है। इसे ध्यान में रखते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि “मुख्य न्यायाधीश” शब्द जहाँ भी आता है, उसे उन निर्णयों के अनुपात के आधार पर वरिष्ठ न्यायाधीशों के “कॉलेजियम” का प्रतिनिधित्व करने के लिए व्याख्या नहीं किया जा सकता है।

रोस्टर के मास्टर के रूप में “मुख्य न्यायाधीश” का कार्य भी बहुत महत्वपूर्ण है। प्रत्येक “मुख्य न्यायाधीश” कई प्रासंगिक चरों को ध्यान में रखते हुए आम सहमति (कंसेंसस) और परामर्श से अपने कर्तव्यों का पालन करता है, जैसे कि प्रत्येक न्यायाधीश की रुचियां और कौशल, उनकी विशेषज्ञता का क्षेत्र, किसी विशेष प्रकार के मामले को संभालने की उनकी क्षमता और कई अन्य चीजे। लेकिन “मुख्य न्यायाधीश” जिसके पास “रोस्टर के मास्टर” का अधिकार है, उसे इस तरह की शक्ति का बुद्धिमानी से उपयोग करना चाहिए। साथ ही, अदालत ने कहा कि मामलों को सर्वोच्च न्यायालय नियम, 2013 के अनुसार सूचीबद्ध किया जाना है।  

शांति भूषण बनाम रजिस्ट्रार के माध्यम से भारत के सर्वोच्च न्यायालय का विश्लेषण (2018)

न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी ने विस्तृत विवरण दिया कि न्यायालय ने उपर्युक्त निर्णय क्यों लिया। न्यायमूर्ति सीकरी ने कहा कि न्यायालय ने अनुच्छेद 124 की व्याख्या के संबंध में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए सिफारिशें करते समय सामूहिक विवेक पर भरोसा किया। न्यायमूर्ति ने आगे सुझाव दिया कि रोस्टर बनाने के संबंध में मुख्य न्यायाधीश की शक्ति की व्याख्या करते समय भी ऐसा ही दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। न्यायालय ने इस तथ्य को स्वीकार किया कि रोस्टर बनाने और विभिन्न पीठों या विभिन्न न्यायाधीशों को मामलों के आवंटन का काम कॉलेजियम के कई न्यायाधीशों को नहीं दिया जा सकता। यह पूरी तरह संभव है कि कॉलेजियम के न्यायाधीशों के बीच मतभेद हो, जिससे न्यायालय के दैनिक कामकाज में बाधा उत्पन्न होगी। भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने ब्रिटिश भारत में संघीय न्यायालय (फेडरल कोर्ट) बनाया, जिसके बाद भारत का सर्वोच्च न्यायालय बना। भारत सरकार अधिनियम, 1935 की धारा 200 में पहली बार भारत के मुख्य न्यायाधीश को ध्यान में रखा गया। संघीय न्यायालय की स्थापना होने तक न्याय राज्य उच्च न्यायालयों द्वारा प्रशासित किया जाता था। उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील पर प्रिवी काउंसिल की न्यायिक समिति द्वारा विचार किया गया। इस मामले के उद्देश्य के लिए इस देश की अदालतों की कानूनी पृष्ठभूमि पर शोध करना आवश्यक नहीं है।

अनुच्छेद 214 की व्याख्या के बारे में विस्तार से बताते हुए न्यायमूर्ति ए.के. सिखरी ने कहा कि अनुच्छेद 214 के खंड (3) में प्रावधान है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश ही न्यायालय के किसी भी खंड और उसके सदस्यों के गठन का निर्धारण करेंगे। इसी तरह, भारत के संविधान के अनुच्छेद 145 में न्यायालय के नियमों का प्रावधान है। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय को न्यायालय के अभ्यास और प्रक्रिया के सामान्य विनियमन के लिए नियम बनाने का अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय नियम, 2013 अनुच्छेद 145 के प्रावधानों के अनुसार बनाए गए हैं। 

न्यायालय ने मुख्य न्यायाधीश शब्द को वरिष्ठतम पांच न्यायाधीशों के कॉलेजियम के रूप में मानने के मुद्दे पर भी निर्णय दिया। इस संबंध में न्यायालय ने उल्लेख किया कि यह तर्क सर्वोच्च न्यायालय के एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (1981) के मामले में दिए गए संवैधानिक निर्णयों के आधार पर प्रस्तुत किया गया था, जिन्हें द्वितीय न्यायाधीश मामले द्वारा स्पष्ट किया गया था । हालांकि, इस मामले में मुख्य न्यायाधीश की शक्तियां न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में दी गई हैं, न कि न्यायालय के दिन-प्रतिदिन के कामकाज के संबंध में। 

तीन न्यायाधीश मामले में न्यायालय ने कहा कि कॉलेजियम में सर्वोच्च न्यायालय के चार सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश शामिल होंगे। दूसरे और तीसरे न्यायाधीश मामले में अनुच्छेद 124 के अनुसार “चीफ जस्टिस / मुख्य न्यायाधीश” शब्द को कॉलेजियम के रूप में पढ़ा गया। 

इस प्रकार, न्यायमूर्ति सीकरी ने माना कि न्यायालय को सर्वोच्च न्यायालय नियम 2013 के अनुसार कार्य करना चाहिए। न्यायालय ने आगे कहा कि न्यायालय के सभी मामले और कामकाज 2017 की “प्रथाओं और प्रक्रियाओं तथा कार्यालय प्रक्रिया” पुस्तिका के अनुसार किए जाने चाहिए। 

यह वास्तव में सही है कि भारत के संविधान का अधिकार संविधान के तहत पदों और पदों के प्रभारी लोगों से ऊपर है। इसलिए, निष्पक्षता और पारदर्शिता (ट्रांसपेरेंसी) के प्रावधानों का हर समय प्रभारी लोगों द्वारा सम्मान किया जाना चाहिए। मामलों को पीठ को आवंटित करने के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश की अनन्य (एक्सक्लूजिव) और एकमात्र शक्ति एक ऐसी शक्ति है जिसका प्रयोग हर रोज़ किया जाना है, और इस प्रकार, अन्य न्यायाधीशों द्वारा गैर-हस्तक्षेप ऐसे प्रशासनिक कार्यों के सुचारू संचालन को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है। 

संदर्भित मामले

इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने भारत के मुख्य न्यायाधीश को सौंपी गई शक्ति के परिधि (एंबिट) और दायरे को स्पष्ट करने के लिए विभिन्न न्यायालयों के विभिन्न निर्णयों का उल्लेख किया। 

राजस्थान राज्य बनाम प्रकाश चंद एवं अन्य (1998)

सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थान राज्य बनाम प्रकाश चंद एवं अन्य (1998) के मामले का उल्लेख किया, जिसका उल्लेख याचिकाकर्ता ने स्वयं अपनी याचिका में किया था। इस मामले में, यह माना गया कि “उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रोस्टर के मास्टर हैं।” निर्णय में यह घोषित किया गया कि केवल भारत के मुख्य न्यायाधीश ही न्यायालय की विभिन्न पीठों के गठन और पीठों या न्यायाधीशों को मामले आवंटित करने के लिए जिम्मेदार हैं और उनके पास ऐसा करने की शक्तियाँ हैं। इस निर्णय के आधार पर, न्यायालय ने कुछ निष्कर्ष निकाले। सबसे पहले, इसने उल्लेख किया कि मुख्य न्यायाधीश रोस्टर के मास्टर हैं और उनके पास ही उनके द्वारा गठित विभिन्न पीठों के समक्ष मामलों को सूचीबद्ध करने का अधिकार है। दूसरे, न्यायालय ने उल्लेख किया कि विभिन्न पीठों या विभिन्न न्यायाधीशों को मामलों के आवंटन से संबंधित कोई भी ऐसा निर्णय किसी भी उप न्यायाधीश द्वारा तभी किया जा सकता है जब भारत के मुख्य न्यायाधीश उसे ऐसा कार्य सौंपे और उप न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश के निर्देशों के अनुसार काम करना होगा। इसके अतिरिक्त, यह भी स्पष्ट किया गया कि सामान्य न्यायाधीश के पास उच्च न्यायालय के समक्ष लंबित किसी भी मामले को “चुनने और पसंद करने” का कोई अधिकार नहीं है । वह उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के उचित आदेशों के साथ किसी भी लंबित मामले को आवंटित कर सकते हैं। इसके अलावा, यह माना गया कि रजिस्ट्री को न्यायाधीशों द्वारा ऐसे निर्देश नहीं दिए जा सकते जो मुख्य न्यायाधीश द्वारा दिए गए निर्देशों के विपरीत हों।  

न्यायिक जवाबदेही और सुधार अभियान बनाम भारत संघ और अन्य (2018)

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि उपर्युक्त सिद्धांत राजस्थान राज्य बनाम प्रकाश चंद (1998) और न्यायिक जवाबदेही और सुधार के लिए अभियान बनाम भारत संघ और अन्य (2018) के मामलों में निर्धारित किया गया था। इस मामले में, अदालत ने माना कि उच्च न्यायालय का प्रशासनिक नियंत्रण केवल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पास है। रजिस्ट्रार को मुख्य न्यायाधीश द्वारा दिए गए निर्देशों के विपरीत किसी भी पीठ या किसी न्यायाधीश को मामले सूचीबद्ध करने का आदेश नहीं दिया जा सकता है। इस मामले ने उजागर किया कि प्रभारी व्यक्ति बहुत प्रतिष्ठित और उच्च पद पर हो सकता है, हालांकि, वह कानून से ऊपर नहीं होगा। ‘कानून के शासन’ का सिद्धांत एक बहुत ही आवश्यक सिद्धांत है जिसका हर समय पालन किया जाता है। मुख्य न्यायाधीश प्रशासनिक कार्य करते समय देश के कानूनों से समान रूप से बंधे होते हैं।   

अशोक पांडे बनाम अपने रजिस्ट्रार और अन्य के माध्यम से भारत का सर्वोच्च न्यायालय (2018)

सर्वोच्च न्यायालय ने बताया कि इस प्रश्न को अशोक पांडे बनाम भारत के सर्वोच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार और अन्य (2018) के मामले के माध्यम से संदर्भित किया जा सकता है। इस मामले में, न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्ता ने कई शिकायतों का हवाला देते हुए संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक रिट याचिका दायर की, और उस याचिका के परिणामस्वरूप निर्णय हुआ। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में कुछ कार्यवाहियों के बारे में व्यक्तिगत शिकायतों को व्यक्त करने के अलावा, उन्होंने प्रथम प्रतिवादी, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ परमादेश के रूप में राहत का अनुरोध किया, जिसमें न्यायालय की पीठों के गठन और उनके बीच अधिकार क्षेत्र को विभाजित करने की प्रक्रिया विकसित करने का निर्देश दिया गया। इस संबंध में, याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि इस आशय के नियम बनाए जाएंगे। मुख्य न्यायाधीश की अदालत में तीन न्यायाधीशों की पीठ में मुख्य न्यायाधीश और दो अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होने चाहिए।

इंदर मणि एवं अन्य बनाम मथेश्वरी प्रसाद एवं अन्य (1996)

न्यायालय ने इंदर मणि एवं अन्य बनाम मथेश्वरी प्रसाद एवं अन्य (1996) के निर्णय का संदर्भ दिया। इस मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने न्यायमूर्ति वी. एन. खरे और न्यायमूर्ति ए. पी. सिंह की खंडपीठ गठित की थी। हालांकि, सुनवाई की तिथि पर न्यायमूर्ति ए. पी. सिंह न्यायमूर्ति वी. एन. खरे के साथ नहीं बैठे। बाद में इस तरह की घटना को लेकर सवाल उठे। न्यायपालिका के अनुशासन के लिए यह आवश्यक है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश अपने मुख्य न्यायाधीश द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करें। न्यायाधीशों को मुख्य न्यायाधीश द्वारा दिए गए निर्देशों के विरुद्ध जाने की अनुमति नहीं है और वे अपनी इच्छा और मर्जी के अनुसार मामलों का चयन नहीं कर सकते। यह अनुचित था कि न्यायमूर्ति ए. पी. सिंह मुख्य न्यायाधीश के निर्देशों के बाद भी खंडपीठ में नहीं बैठे और अपने विवेक के अनुसार मामलों की सुनवाई करने के लिए अकेले बैठे। ऐसे मामले में जहां न्यायमूर्ति ए. पी. सिंह को खंडपीठ में बैठने में कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, सही कदम यह होता कि पहले मुख्य न्यायाधीश के साथ इस मुद्दे पर चर्चा की जाती और फिर उसके अनुसार कार्य किया जाता। इस मामले में यह माना गया कि न्यायाधीश अपने लिए या किसी अन्य न्यायाधीश के लिए मामले का चयन नहीं कर सकते। चयन और चुनने से निर्णय की विश्वसनीयता पर असर पड़ता है और ऐसा सख्त वर्जित है।

उत्तर प्रदेश राज्य बनाम नीरज चौबे और अन्य (2010)

उत्तर प्रदेश राज्य बनाम नीरज चौबे और अन्य (2010) के मामले में, यह माना गया कि मुख्य न्यायाधीश को मामलों को आवंटित करने की शक्ति न केवल राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 की धारा 51 के तहत वैधानिक प्रावधान से आती है, बल्कि उनके काम की प्रकृति से भी आती है। इस संबंध में, अदालत ने एक आवश्यक बयान दिया, जो नीचे दिया गया है:

“यदि न्यायाधीशों को अपना क्षेत्राधिकार चुनने की स्वतंत्रता हो या उन्हें कोई भी विकल्प दिया जाए कि वे जो भी मामला सुनना और निर्णय करना चाहें, वह करें, तो न्यायालय की यंत्रणा ध्वस्त हो जाएगी और किसी विशेष क्षेत्राधिकार या किसी विशेष मामले की लालसा के कारण आंतरिक (इंटरनल) कलह उत्पन्न होने से न्यायालय का न्यायिक कार्य समाप्त हो जाएगा।”

निष्कर्ष 

न्यायालय इस तथ्य से अनभिज्ञ (अनवेअर) नहीं हैं कि किसी भी प्रणाली या संगठन के सुचारू संचालन में काफी समय लगता है। यह एक निरंतर प्रक्रिया है। ऐसी प्रणाली में सुधार के लिए काम करना आवश्यक है और यह एक स्वागत योग्य कदम है। सर्वोच्च न्यायालय उपर्युक्त लक्ष्यों का अपवाद नहीं है। हालांकि, पहले न्यायाधीशों के मामले में न्यायमूर्ति वेंकटरमैया द्वारा दिए गए निम्नलिखित कथन को याद रखना महत्वपूर्ण है:

“एक न्यायाधीश को उसके कर्तव्य में खुद से स्वतंत्र होना चाहिए। एक न्यायाधीश एक इंसान है जो जुनून और पूर्वाग्रहों (प्रेज्यूडिस), पसंद और नापसंद, स्नेह और दुर्भावना, घृणा और अवमानना और भय और लापरवाही का एक समूह है। एक सफल न्यायाधीश बनने के लिए, इन तत्वों पर अंकुश लगाया जाना चाहिए और उन्हें संयम में रखा जाना चाहिए और यह केवल शिक्षा, प्रशिक्षण, निरंतर अभ्यास और विनम्रता और कर्तव्य के प्रति समर्पण की भावना के विकास से ही संभव है।”

इस प्रकार, वर्तमान मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने रजिस्ट्रार के माध्यम से कार्य करते हुए, इस मामले में एक प्रमुख निर्णय दिया, जो न्यायिक सुधार और प्रशासन के बारे में भारत में बातचीत को प्रभावित करता है। इसने न्यायपालिका के खुलेपन को बेहतर बनाने, जवाबदेही संस्कृति को मजबूत करने और यह सुनिश्चित करने के लिए सुधारों की आवश्यकता पर निरंतर चर्चा को प्रेरित किया है कि न्याय को स्पष्ट और निष्पक्ष तरीके से प्रशासित किया जाए। यह मामला, जो एक न्यायिक प्रणाली की निरंतर खोज का प्रतीक है जो ईमानदारी और न्याय के उच्चतम मानकों को बनाए रखता है, कानूनी शिक्षाविदों (एकेडमिक्स), चिकित्सकों और नीति निर्माताओं के लिए एक मील का पत्थर बना हुआ है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एकल न्यायाधीश (सिंगल जज) और रजिस्ट्रार की क्या भूमिका है?

सर्वोच्च न्यायालय का कोई भी एकल न्यायाधीश न्यायालय के सिविल और आपराधिक मामलों से निपटने के लिए जिम्मेदार होता है, जबकि रजिस्ट्रार भारत के सर्वोच्च न्यायालय के प्रशासन की देखभाल करता है। 

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति कैसे होती है?

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श के बाद की जाती है। 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 145 के अंतर्गत न्यायाधीशों की न्यूनतम संख्या का उल्लेख क्यों किया गया है?

संवैधानिक प्रावधानों से संबंधित किसी भी महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्न की सुनवाई के लिए, पीठ में कम से कम पांच न्यायाधीशों की उपस्थिति आवश्यक है। ऐसा देश के संविधान जैसे महत्वपूर्ण मामलों पर व्यापक दृष्टिकोण को शामिल करने के लिए किया जाता है।  

क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 में कोई संशोधन किया गया है?

हां, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 में महत्वपूर्ण संशोधन हुए हैं। ये संशोधन सर्वोच्च न्यायालय की क्षमता और संरचना से संबंधित हैं। न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनको हटाने के संबंध में भी संशोधन हुए हैं। 

सर्वोच्च न्यायालय के नियमों के प्रकाशन के संबंध में क्या प्रावधान हैं?

अनुच्छेद 145 का खंड (5) सर्वोच्च न्यायालय के नियमों के प्रकाशन का प्रावधान करता है। इसमें प्रावधान है कि अनुच्छेद 145(5) के तहत बनाए गए सभी नियम आधिकारिक राजपत्र (ऑफिशियल गैजेट) में प्रकाशित किए जाएंगे। यह प्रावधान भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रियाओं को नियंत्रित करने वाले नियमों की सार्वजनिक पहुंच और पारदर्शिता पर नज़र रखता है। 

संदर्भ 

 

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