यह लेख केआईआईटी विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ लॉ की Sheetal Sharma और Harsh Agarwal द्वारा लिखा गया है। इस लेख में भारतीय संविधान के तहत संसदीय विशेषाधिकार और प्रतिरक्षा (पार्लियामेंट्री प्रिविलेज एंड इम्यूनिटी) की चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।
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परिचय
भारतीय संविधान के आर्टिकल 105 में संसदीय विशेषाधिकारों को परिभाषित किया गया है। संसद के सदस्यों को उनके कर्तव्यों के दौरान कहे गए किसी भी बयान या किए गए कार्य के लिए किसी भी सिविल या आपराधिक दायित्व (लायबिलिटी) से छूट दी गई है। विशेषाधिकारों का दावा तभी किया जाता है जब व्यक्ति सदन का सदस्य हो। जैसे ही वह एक सदस्य के रूप में नही होता है, विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया जाता है। सदस्यों को दिए गए विशेषाधिकार संवैधानिक कार्यों को करने के लिए आवश्यक हैं। ये विशेषाधिकार आवश्यक हैं ताकि कार्यवाही और कार्यों को अनुशासित और अबाधित (अनडिस्टर्बड) तरीके से किया जा सके।
सदस्यों द्वारा व्यक्तिगत रूप से प्राप्त विशेषाधिकार हैं
संसद में बोलने की स्वतंत्रता
संसद के सदस्यों को भाषण और अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) की स्वतंत्रता के साथ निहित (वेस्टेड) किया गया है। चूंकि हमारे संसदीय लोकतंत्र का सार एक स्वतंत्र और निडर चर्चा करना है, इसलिए उनके द्वारा अपने विचार व्यक्त करने वाली कोई भी बात किसी भी दायित्व से मुक्त है और उनपर कानून की कोर्ट में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है।
सर जॉन एलियट का मामला– हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने माना कि कोर्ट को कभी भी देशद्रोही भाषणों के आरोप पर अधिकार क्षेत्र नहीं लेना चाहिए था, जिसके “विशेषाधिकार की दलील से पूरी तरह से जवाब दिया गया था” और कोर्ट ऑफ किंग की बेंच के फैसले को उलट दिया जिसमें उन्होंने सर जॉन को हाउस ऑफ कॉमन में देशद्रोही भाषण देने के लिए दोषी ठहराया था।
आर्टिकल 19 (2) के तहत एक नागरिक को दी गई भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संसद के एक सदस्य को प्रदान की गई भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से अलग है। भारतीय संविधान के आर्टिकल 105(1) के तहत इसकी गारंटी दी गई है। लेकिन स्वतंत्रता उन नियमों और आदेशों के अधीन है जो संसद की कार्यवाही को नियंत्रित करते हैं।
यह अधिकार गैर-सदस्यों को भी दिया जाता है जिन्हें सदन में बोलने का अधिकार होता है। उदाहरण, भारत के अटॉर्नी जनरल। ताकि, वाद-विवाद में सदस्यों की निडर भागीदारी हो और प्रत्येक सदस्य बिना किसी भय या पक्षपात के अपने विचार रख सके।
कुछ सीमाएं भी मौजूद हैं जिनका पालन प्रतिरक्षा का दावा करने के लिए किया जाना चाहिए
- भाषण की स्वतंत्रता संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार होनी चाहिए और संविधान के आर्टिकल 118 के तहत संसद के नियमों और प्रक्रियाओं के अधीन होनी चाहिए।
- संविधान के आर्टिकल 121 के तहत, संसद के सदस्यों को सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों के आचरण पर चर्चा करने से प्रतिबंधित (रेस्ट्रिक्टेड) किया गया है। लेकिन, अगर ऐसा होता भी है तो यह संसद का मामला है और कोर्ट इसमें दखल नहीं दे सकता है।
- सदन की कार्यवाही के बाहर कही गई किसी भी बात के लिए सदस्य द्वारा किसी विशेषाधिकार और प्रतिरक्षा का दावा नहीं किया जा सकता है।
गिरफ्तारी से स्वतंत्रता
सदस्यों को किसी भी सिविल मामले में सदन के स्थगन (एडजोर्नमेंट) के 40 दिन पहले और बाद में और सदन के सत्र (सेशन) में होने पर भी गिरफ्तारी से स्वतंत्रता का आनंद मिलता है। किसी भी सदस्य को संसद की सीमा से उस सदन की अनुमति के बिना गिरफ्तार नहीं किया जा सकता जिससे वह संबंधित है ताकि उनके कर्तव्यों के पालन में कोई बाधा न हो।
यदि संसद के किसी सदस्य को हिरासत में लिया जाता है, तो संबंधित प्राधिकारी (अथॉरिटी) को सभापति (चेयरमैन) या अध्यक्ष (स्पीकर) को गिरफ्तारी का कारण बताना चाहिए। लेकिन, निवारक निरोध अधिनियम (प्रिवेंशन डिटेंशन एक्ट), आवश्यक सेवा रखरखाव अधिनियम (एसेंशियल सर्विस मेंटेनेंस एक्ट) (ईएसएमए), राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) या इस तरह के किसी भी अधिनियम के तहत एक सदस्य को उसके खिलाफ आपराधिक आरोपों पर सदन की सीमा के बाहर गिरफ्तार किया जा सकता है।
गवाह के रूप में पेश होने से मुक्ति
संसद के सदस्यों को विशेषाधिकार प्राप्त हैं और उन्हें गवाह के रूप में कोर्ट में उपस्थित होने से छूट दी गई है। उन्हें कोर्ट के हस्तक्षेप के बिना सदन में उपस्थित होने और अपने कर्तव्यों का पालन करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी गई है।
प्रक्रिया के नियम बनाने की शक्ति
आर्टिकल 118 के तहत संसद के प्रत्येक सदन को नियम बनाने और अपनी कार्यवाही और अपने कामकाज के संचालन (कंडक्ट) को नियंत्रित करने की शक्ति है। दोनों सदनों ने अपनी नियम पुस्तिका अधिनियमित (इनैक्ट) की थी जिसे क्रमशः (रिस्पेक्टिवली) लोकसभा में प्रक्रिया और कार्य संचालन के नियम और राज्यों की परिषद (काउंसिल) में प्रक्रिया और कार्य संचालन के नियम के रूप में जाना जाता है।
संसद के हिस्से के रूप में सदस्यों द्वारा सामूहिक रूप से प्राप्त विशेषाधिकार
कार्यवाही के प्रकाशन (पब्लिकेशन) पर रोक लगाने का अधिकार
जैसा कि संविधान के आर्टिकल 105(2) में कहा गया है, किसी भी व्यक्ति को सदन के सदस्य के अधिकार के तहत सदन की किसी भी रिपोर्ट, चर्चा आदि को प्रकाशित करने के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जाएगा। सर्वोपरि (पैरामाउंट) और राष्ट्रीय महत्व के लिए, यह आवश्यक है कि संसद में क्या हो रहा है, इसके बारे में जनता को जागरूक करने के लिए कार्यवाही को सूचित किया जाए।
लेकिन, कार्यवाही के अलग हिस्से की आंशिक (पार्शियल) रिपोर्ट या द्वेषपूर्ण (मैलाइस) इरादे से किए गए किसी भी प्रकाशन को सुरक्षा के लिए अयोग्य घोषित किया जाता है। सुरक्षा तभी दी जाती है जब वह सदन की सही कार्यवाही को दर्शाता हो। यदि कोई निष्कासित (एक्सपंग्ड) कार्यवाही प्रकाशित की जाती है या कोई गलत बयानी या गलत रिपोर्टिंग पाई जाती है, तो इसे विशेषाधिकार का उल्लंघन और सदन की अवमानना (कंटेंप्ट) माना जाता है।
अजनबियों को बाहर करने का अधिकार
सदन के सदस्यों के पास अजनबियों को कार्यवाही से बाहर करने की शक्ति और अधिकार है जो सदन के सदस्य नहीं हैं। सदन में स्वतंत्र और निष्पक्ष चर्चा सुनिश्चित करने के लिए यह अधिकार बहुत आवश्यक है। यदि किसी उल्लंघन की सूचना मिलती है तो नसीहत (एडमोनिशन), फटकार या कारावास के रूप में सजा दी जा सकती है।
विशेषाधिकारों के उल्लंघन के लिए सदस्यों और बाहरी लोगों को दंडित करने का अधिकार
भारतीय संसद के पास सदन के किसी भी उल्लंघन या अवमानना के लिए किसी भी व्यक्ति को दंडित करने की शक्ति है, चाहे वह अजनबी हो या सदन का कोई सदस्य हो। जब सदन के सदस्य द्वारा कोई उल्लंघन किया जाता है, तो उसे सदन से निकाल दिया जाता है।
इस अधिकार को ‘संसदीय विशेषाधिकार की आधारशिला (कीस्टोन)’ के रूप में परिभाषित किया गया है, क्योंकि इस शक्ति के बिना, सदन अवमानना और उल्लंघन का शिकार हो सकता है और अधिकार की रक्षा और अपने कार्यों का निर्वहन (डिस्चार्ज) करने के लिए बहुत आवश्यक है। अधिकांश मामलों में न्यायपालिका ने भी इस शक्ति को बरकरार रखा है। सदन किसी भी व्यक्ति या सदस्य को सदन के सत्र की अवधि तक अवमानना के लिए हिरासत में रख सकता है।
सदन के आंतरिक (इंटर्नल) मामलों को विनियमित (रेग्यूलेट) करने का अधिकार
प्रत्येक सदन को अपनी कार्यवाही को उस तरह से विनियमित करने का अधिकार है जिस तरह से वह उचित समझे। सदन पर प्रत्येक सदन का अपना अधिकार क्षेत्र होता है और दूसरे सदन का कोई भी अधिकार इसकी आंतरिक कार्यवाही के विनियमन में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। संविधान के आर्टिकल 118 के तहत, सदन को कार्यवाही के लिए अपने विनियमन का संचालन करने का अधिकार दिया गया है और इसे कोर्ट में इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि सदन आर्टिकल 118 के तहत बनाए गए नियमों के अनुसार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने भी माना कि यह सामान्य प्रावधान है और यह नियम सदन के लिए बाध्यकारी नहीं है। वे अपने अनुसार कभी भी नियम को बदल सकते हैं।
विशेषाधिकारों के उल्लंघन या सदन की अवमानना के लिए निर्धारित दंड
- कारावास – यदि किया गया उल्लंघन गंभीर प्रकृति का है, तो किसी भी सदस्य या व्यक्ति को कारावास के रूप में सजा दी जा सकती है।
- जुर्माना लगाना – यदि संसद की दृष्टि में, उल्लंघन या अवमानना आर्थिक अपराध है और उल्लंघन से कोई आर्थिक लाभ हुआ है, तो संसद व्यक्ति पर जुर्माना लगा सकती है।
- अपराधियों पर मुकदमा चलाना – संसद उल्लंघन करने वाले पर मुकदमा भी चला सकती है।
- अपने ही सदस्यों को सजा देना – यदि संसद के सदस्यों द्वारा कोई अवमानना की जाती है, तो उसे सदन द्वारा ही दंडित किया जाना है, जिसके परिणामस्वरूप सदस्य को सदन से निलंबित (सस्पेंड) भी किया जा सकता है।
संसदीय उल्लंघन या सदन की अवमानना का क्या अर्थ है?
स्पष्ट रूप से यह बताने के लिए कोई संहिता नहीं है कि कौन सी कार्रवाई उल्लंघन का गठन करती है और इसके लिए क्या सजा दी जाती है। हालांकि, ऐसे कई कार्य हैं जिन्हें सदन द्वारा अवमानना के रूप में माना जाता है। यह आम तौर पर उन कार्यों पर आधारित होता है जो सदन की कार्यवाही में बाधा डालते हैं और सदस्यों के लिए अशांति पैदा करते हैं। उनमें से कुछ पर संक्षेप (ब्रीफली) में चर्चा की गई है।
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सदन में कोई भ्रामक (मिसलीडिंग) बयान देना
जो कार्य केवल भ्रामक करने के उद्देश्य से किए जाते हैं, उन्हें सदन की अवमानना माना जाता है। यदि कथन किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा दिया गया है जो सूचना को सत्य मानता है, तो इसमें कोई उल्लंघन शामिल नहीं है। यह साबित करना होगा कि बयान सदन को भ्रामक करने के इरादे से दिया गया था।
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बाहरी लोगों द्वारा अशांति
नारे लगाने या पत्रक (लीफलेट्स) आदि फेंकने से कोर्ट की कार्यवाही को बाधित करने के उद्देश्य से उत्पन्न कोई भी अशांति सदन द्वारा एक बड़ी अवमानना के रूप में मानी जाती है। व्यक्ति को एक निश्चित अवधि के लिए सदन द्वारा कैद किया जाता है या मामले की गंभीरता के आधार पर चेतावनी दी जाती है।
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सदस्यों पर किसी भी प्रकार का हमला
यहां, विशेषाधिकार तब उपलब्ध होता है जब सदस्य अपने कर्तव्यों का पालन कर रहा होता है। किसी भी व्यक्ति द्वारा संसद के सदस्य पर कर्तव्यों का पालन करने के दौरान किए गए हमले को सदन की अवमानना माना जाता है।
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सदस्य के चरित्र के बारे में लेखन या भाषण
किसी भी प्रकाशित भाषण या सदस्य के चरित्र के खिलाफ किए गए अपमान को सदन की अवमानना माना जाता है। इन्हें आवश्यक माना जाता है क्योंकि यह सदस्य के सम्मान को कम करके उसके प्रदर्शन और कार्य को प्रभावित करता है।
तो, स्पष्ट रूप से, किसी भी तरह से सदस्यों के विशेषाधिकार पर किसी भी हमले को इसका उल्लंघन माना जाता है और संसद उसी के संबंध में कार्रवाई कर सकता है।
प्रेस की स्वतंत्रता और संसदीय विशेषाधिकार
संसदीय विशेषाधिकार प्रेस की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करते हैं, जो एक मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट्स) है। संसद की कार्यवाही या किसी सदस्य के आचरण की कोई रिपोर्ट प्रकाशित करते समय प्रेस को काफी हद तक सावधानी बरतनी पड़ती है। ऐसे उदाहरण हैं जहां प्रेस को सदन की अवमानना के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है
- संसद के किसी भी सदस्य के चरित्र से संबंधित किसी भी मामले को प्रकाशित करना।
- कार्यवाही का कोई भी समयपूर्व (प्री मेच्योर) प्रकाशन करना।
- सदन की कार्यवाही को गलत तरीके से पेश करना।
- कार्यवाही के निकाले गए भाग को प्रकाशित करना
इस तथ्य के बावजूद कि प्रेस की स्वतंत्रता संसदीय विशेषाधिकारों के अधीन है, प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कुछ अधिनियम बनाए गए हैं। यदि मौलिक अधिकार का उल्लंघन हो रहा है तो लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं है। प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा की जानी चाहिए क्योंकि हमें अपने प्रतिनिधियों के कार्यों के बारे में सूचित करने की आवश्यकता है। संसदीय कार्यवाही (प्रकाशन का संरक्षण) अधिनियम, 1977 कुछ निश्चित परिस्थितियों में प्रेस के अधिकारों की रक्षा करता है
- कार्यवाही की रिपोर्ट काफी हद तक सही है।
- रिपोर्ट बिना द्वेष के की जाती है।
- रिपोर्ट जनता की भलाई के लिए बनाई गई है।
- रिपोर्ट में सदन की कोई गुप्त बैठक नहीं होनी चाहिए।
संसदीय विशेषाधिकारों का संहिताकरण (कोडिफिकेशन)
हमारी भारतीय संसद को संसद का सदस्य होने के नाते सर्वोच्च शक्तियां प्राप्त हैं। उन्हें दिए गए विशेषाधिकारों का दुरुपयोग भी होता है क्योंकि उनके पास अधिकारों पर कई प्रतिबंध नहीं हैं। उन्हें अपनी स्वयं की कार्यवाही का न्यायाधीश बनने, अपनी कार्यवाही को विनियमित करने, उल्लंघन क्या होता है और उल्लंघन के लिए क्या सजा दी जानी चाहिए, यह पूरी तरह से उनके द्वारा तय किया जाता है।
नागरिकों में निहित मौलिक अधिकारों की तुलना में उनमें निहित शक्ति बहुत व्यापक है। विशेषाधिकारों का कोई संहिताकरण नहीं होने से, उन्होंने एक अपरिभाषित शक्ति प्राप्त कर ली है क्योंकि उनकी शक्तियों की सीमाओं को बताने के लिए कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। सत्र के 40 दिन पहले और बाद में और सत्र के दौरान किसी भी सिविल गिरफ्तारी से विशेषाधिकार प्राप्त होता है कि उन्हें 365 दिनों से भी अधिक समय तक गिरफ्तारी से छूट दी जाती है। संसदीय विशेषाधिकारों के संहिताकरण के लिए संसद द्वारा आज तक कोई व्यापक कानून नहीं बनाया गया है।
इसका ज्यादातर सदस्यों द्वारा विरोध किया जाता है क्योंकि तब यह मौलिक अधिकारों के अधीन होगा और न्यायिक समीक्षा (रिव्यू) के दायरे में होगा। न्यायमूर्ति एम.एन. वेंकटचलैया संविधान समीक्षा आयोग के प्रमुख ने भी विधायिका (लेजिस्लेचर) के स्वतंत्र कामकाज के लिए विशेषाधिकारों को परिभाषित और परिसीमित (डीलिमिट) करने की सिफारिश की। यह इस आशंका पर आधारित है कि संहिताकरण में कोर्ट का हस्तक्षेप शामिल होगा क्योंकि मामलों को कोर्ट में पेश किया जाएगा। विशेषाधिकारों के गैर-संहिताकरण ने सदस्यों को अधिक से अधिक शक्तियों का आनंद लेने के लिए प्रेरित किया है। लेकिन, अब समय आ गया है कि विशेषाधिकारों को संहिताबद्ध और परिभाषित किया जाए और कार्रवाई की जानी चाहिए ताकि बिना किसी संघर्ष के संसद का कामकाज सुचारू (स्मूथ) रूप से चल सके।
संसदीय विशेषाधिकारों की न्यायिक समीक्षा
भारतीय न्यायपालिका को मौलिक अधिकारों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई है। संसद सदस्य अपनी शक्तियों पर पूर्ण संप्रभुता (सोवरेंटी) का दावा करते हैं और चाहते है कि न्यायपालिका किसी भी मामले में हस्तक्षेप नहीं करे। लेकिन, न्यायपालिका को हमारे संविधान का संरक्षक माना जाता है और अगर किसी नागरिक के मौलिक अधिकार का उल्लंघन विशेषाधिकारों के कारण होता है या किसी आपराधिक दायित्व से बच जाता है तो यह चुपचाप नहीं बैठ सकता है।
न्यायपालिका को विशेषाधिकारों का आश्रय लेने वाले सदस्यों द्वारा की गई गलतियों पर एक स्टैंड लेना होगा। केशव सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सदस्यों को दिए गए विशेषाधिकार मौलिक अधिकारों के अधीन हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना है कि विशेषाधिकारों और मौलिक अधिकारों के बीच उत्पन्न होने वाले किसी भी संघर्ष को सामंजस्यपूर्ण निर्माण (हार्मोनियस कंस्ट्रक्शन) को अपनाकर हल किया जाएगा। न्यायपालिका इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ है कि संसदीय मामलों पर उसका अधिकार क्षेत्र नहीं है, लेकिन समाज के लिए यह आवश्यक है कि किसी भी उल्लंघन का समाधान कोर्ट द्वारा किया जाना चाहिए जैसा वह उचित समझे।
संसदीय विशेषाधिकार और प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत
अलगापुरल आर. मोहनराज बनाम तमिलनाडु विधान सभा के मामले में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों द्वारा हाल के एक फैसले में, यह माना गया कि विशेषाधिकार समिति द्वारा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है।
मामले के तथ्य
19-02-2015 को, तमिलनाडु विधान सभा के कुछ सदस्यों को अनियंत्रित आचरण के आधार पर निलंबित कर दिया गया था। इसे आगे बढ़ाने के लिए, सदस्यों के आचरण और विशेषाधिकार हनन से संबंधित आगे की कार्यवाही की जांच के लिए एक विशेषाधिकार समिति का गठन किया गया था। यह पाया गया और सिफारिश दी गई कि विशेषाधिकार के उल्लंघन के लिए 6 सदस्यों के खिलाफ आवश्यक कार्रवाई की जाए।
दिनांक 31-03-2015 के एक प्रस्ताव (रेजोल्यूशन) द्वारा सदस्यों को अगले सत्र के लिए दस दिनों की अवधि के लिए निलंबित कर दिया गया। इसके अलावा इसे उनके वेतन में कटौती और निलंबन अवधि तक कोई अन्य लाभ देने के लिए बढ़ा दिया गया था। संविधान के आर्टिकल 32 के तहत सदस्यों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका (पेटिशन) दायर की गई थी।
सदस्यों द्वारा उठाई गई आपत्तियां
याचिकाकर्ताओं (पेटीशनर) द्वारा यह तर्क दिया गया था कि संविधान के आर्टिकल 19(1)(a), 19(1)(g), 14 और 21 के तहत उनके मौलिक अधिकारों का उक्त प्रस्ताव द्वारा उल्लंघन किया गया है।
कोर्ट का फैसला
कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं की इस दलील को खारिज कर दिया कि प्रस्ताव ने आर्टिकल 19(1)(a) और 19(1)(g) का उल्लंघन किया है। इसने इस तर्क (कंटेंशन) को भी स्वीकार किया कि संविधान के आर्टिकल 14 के तहत अधिकारों का उल्लंघन किया गया था। कोर्ट ने पाया कि वीडियो रिकॉर्डिंग जिसमें सदस्यों के कार्य को उल्लंघन के रूप में दिखाया गया था, याचिकाकर्ताओं के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया था। यदि प्रस्तुत किया होता तो शायद उन्हें अपने आचरण को स्पष्ट करने का अवसर मिलता। याचिकाकर्ता के वेतन और अन्य लाभों को बहाल (रिस्टोर) करने के लिए कोर्ट द्वारा इसे आगे निर्देशित किया गया था।
निष्कर्ष
संसद के सुचारू संचालन के लिए सदस्यों को विशेषाधिकार प्रदान किए जाते हैं। लेकिन, ये अधिकार हमेशा मौलिक अधिकार के अनुरूप होने चाहिए क्योंकि ये हमारे प्रतिनिधि हैं और हमारे कल्याण के लिए काम करते हैं। यदि विशेषाधिकार मौलिक अधिकारों के अनुरूप नहीं हैं तो नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए लोकतंत्र का सार ही खो जाएगा। यह संसद का कर्तव्य है कि वह संविधान द्वारा गारंटीकृत किसी अन्य अधिकार का उल्लंघन न करे। सदस्यों को भी अपने विशेषाधिकारों का बुद्धिमानी से उपयोग करना चाहिए और उनका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। उन्हें हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि शक्तियां उन्हें भ्रष्ट नहीं बनातीं है। संसद हर उस विशेषाधिकार को स्वीकार नहीं कर सकती है जो हाउस ऑफ कॉमन्स में मौजूद है, लेकिन केवल उन्हीं विशेषाधिकारों को अपनाना चाहिए जो हमारे भारतीय लोकतंत्र के अनुरूप हों।
संदर्भ
- https://www.importantindia.com/12240/parliamentary-privileges-and-immunities-in-indian-constitution/