गैर संज्ञेय अपराध

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Criminal Procedure Code

यह लेख स्कूल ऑफ लॉ, क्राइस्ट यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु के छात्र Parth Verma ने लिखा है। यह लेख गैर-संज्ञेय (नॉन कॉग्निजेबल) अपराधों की अवधारणा और इसके विभिन्न उदाहरणों की व्याख्या करता है। इसके अलावा, लेख का उद्देश्य समाज पर ऐसे अपराधों के प्रभाव पर भी चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

हम अपने दैनिक जीवन में बड़ी संख्या में ऐसे अपराध देखते हैं जिनके लिए आरोपी को दंडित किया जा सकता है। अपराधों की प्रकृति भिन्न हो सकती है। कुछ अपराध गंभीर हो सकते हैं, और कुछ अपराधों के लिए अधिक सजा की आवश्यकता नहीं होती है। यहां तक ​​कि विभिन्न अपराधों के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रिया भी भिन्न होती है। कम गंभीर अपराधों अर्थात, गैर-संज्ञेय अपराध, जिनका आम तौर पर केवल एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों पर प्रभाव पड़ता है, के मामले में, पुलिस को गलत करने वाले को गिरफ्तार करने के लिए एक अधिकृत (ऑथराइज्ड) गिरफ्तारी वारंट की आवश्यकता होती है। हालांकि, जब कोई अपराध बहुत गंभीर प्रकृति का होता है और सामान्य रूप से पूरे समाज के लिए खतरा होता है, यानी एक संज्ञेय अपराध, तो पुलिस को गिरफ्तारी वारंट जारी करने की आवश्यकता नहीं होती है। पुलिस त्वरित कार्रवाई करने के उद्देश्य से व्यक्ति को सीधे गिरफ्तार कर सकती है। यह देश में होने वाले विभिन्न अपराधों को वर्गीकृत करने का एक तरीका है।

भारत में अपराध दर में तेजी से वृद्धि के साथ, आम जनता के लिए उनके खिलाफ किए गए अपराध के प्रकार और उस विशेष स्थिति में उनके लिए उपलब्ध अधिकारों के बारे में जागरूक होना बहुत महत्वपूर्ण हो गया है ताकि न्याय प्राप्त किया जा सके। यह लेख, इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए गैर संज्ञेय अपराधों के विभिन्न पहलुओं और उदाहरणों को गहराई से बताता है।

गैर-संज्ञेय अपराध क्या हैं?

गैर-संज्ञेय अपराध एक व्यक्ति द्वारा किए गए अपराध जो आमतौर पर प्रकृति में कम गंभीर होते है को संदर्भित करता है। दूसरे शब्दों में, ऐसे अपराध केवल प्रभावित व्यक्ति या लोगों के समूह पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं, न कि सामान्य रूप से पूरे समाज पर। गैर संज्ञेय अपराधों के विभिन्न उदाहरण हैं, जिनकी व्याख्या और दंड, भारतीय दंड संहिता, 1860 में वर्णित हैं। इसके कुछ उदाहरण धोखाधड़ी, मानहानि (डिफेमेशन), जालसाजी (फॉर्जरी) या आपराधिक हमला हैं।

ऐसे अपराध के लिए किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए, पुलिस के पास एक वैध गिरफ्तारी वारंट होना आवश्यक है, जिसके बिना उनके पास गिरफ्तारी का आवश्यक अधिकार नहीं होगा। ऐसे मामलों में, उन्हें न्यायालय की उचित सहमति के बिना किसी भी अपराध की जांच करने का अधिकार नहीं होगा। जब उचित अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) वाले न्यायालय में किसी न्यायाधीश के समक्ष शिकायत दायर की जाती है, तभी उनके आदेश के अनुसार जांच शुरू की जा सकती है। गिरफ्तारी वारंट तभी जारी किया जाना चाहिए जब निचली अदालत उस व्यक्ति को किसी गैर-संज्ञेय अपराध का दोषी पाए। इस तरह के अपराध ज्यादातर जमानती प्रकृति के होते हैं, यानी दोषी व्यक्ति को गिरफ्तार होने की स्थिति में जमानत पाने का अधिकार होता है। पुलिस के समक्ष जमानत अर्जी दाखिल करने के बाद संबंधित व्यक्ति को रिहा किया जा सकता है। गैर संज्ञेय अपराधों से संबंधित प्रक्रियात्मक पहलुओं को दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 में निर्धारित किया गया है।

गैर संज्ञेय अपराधों से संबंधित कानूनी प्रावधान

आईपीसी और दंड प्रक्रिया संहिता के तहत गैर संज्ञेय अपराधों से संबंधित विभिन्न प्रावधान हैं जो निम्नानुसार हैं:

  1. दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2(l) गैर-संज्ञेय अपराधों को परिभाषित करती है। यह उन सभी अपराधों को संदर्भित करती है जिनके लिए पुलिस के पास वैध गिरफ्तारी वारंट के बिना किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का कोई अधिकार नहीं है।
  2. धारा 155 में कहा गया है कि पुलिस के पास किसी भी गैर-संज्ञेय अपराध के संबंध में प्राथमिकी (प्रथम सूचना रिपोर्ट) (एफआईआर) दर्ज करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है, जब तक कि उन्होंने इसके लिए मजिस्ट्रेट से अनुमति प्राप्त नहीं की हो।
  3. दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 158 के तहत संबंधित मजिस्ट्रेट को एक पुलिस रिपोर्ट विधिवत रुप से प्रस्तुत की जानी है ताकि उसे सूचित किया जा सके कि किसी दिए गए मामले पर पुलिस जांच हो रही है। यह रिपोर्ट संज्ञेय और गैर-संज्ञेय दोनों तरह के अपराधों के लिए प्रस्तुत की जाती है ताकि मजिस्ट्रेट को हो रही जांच पर नज़र रखने में मदद मिल सके।
  4. संहिता की धारा 159 के अनुसार, मजिस्ट्रेट यह तय कर सकता है कि वह पुलिस को जांच के लिए आगे बढ़ाना चाहता है या नहीं। इसके अलावा, वे जांच करने के लिए निर्देश भी जारी कर सकता है।
  5. सभी गैर संज्ञेय अपराधों के साथ-साथ उनके दंड को आईपीसी, 1860 में परिभाषित किया गया है। इन अपराधों को इस संहिता की पहली अनुसूची में प्रदान किया गया है।

ये गैर-संज्ञेय अपराधों की अवधारणा से संबंधित कुछ प्रावधान हैं, जिनमें विभिन्न संहिताओं के तहत उनके मूल और प्रक्रियात्मक दोनों पहलू शामिल हैं।

गैर संज्ञेय अपराधों की विशेषताएं

  • कम गंभीर अपराध

किसी व्यक्ति द्वारा किया गया अपराध कम गंभीर प्रकृति का होना चाहिए। उसी समय, इसे उच्च दंड की ओर नहीं ले जाना चाहिए। मानहानि, धोखाधड़ी, या उपद्रव (न्यूसेंस) जैसे अपराध इसके दायरे में शामिल हैं और ये आम तौर पर केवल एक विशेष व्यक्ति को प्रभावित करते हैं। नतीजतन, ऐसे अपराध समाज के लिए एक बड़ा खतरा पैदा नहीं करते हैं।

  • जमानती

गैर-संज्ञेय अपराध आमतौर पर प्रकृति में जमानती होते हैं। इसका मतलब है कि किसी व्यक्ति को जमानत की अर्जी दाखिल करने पर पुलिस द्वारा जमानत दी जा सकती है। जमानत देने के पीछे प्राथमिक कारण यह है कि व्यक्ति ने कोई बड़ा अपराध नहीं किया है और इसलिए निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित करने के लिए उन्हें जमानत पाने का अधिकार प्रदान किया जाना चाहिए।

  • गिरफ्तारी वारंट की उपस्थिति

गैर संज्ञेय अपराध करने वाले किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस के पास एक वैध गिरफ्तारी वारंट होना आवश्यक है। यह गिरफ्तारी वारंट न्यायिक मजिस्ट्रेट या उचित अधिकार क्षेत्र की अदालत द्वारा जारी किया जाना आवश्यक है। बिना अदालत की अनुमति के पुलिस जांच शुरू नहीं कर सकती है।

  • प्राथमिकी रिकॉर्ड नहीं की जाती है

गैर-संज्ञेय अपराध के मामले में पुलिस को प्राथमिकी प्राप्त करने या रिकॉर्ड करने की अनुमति नहीं है। उन्हें ऐसा करने की अनुमति केवल तभी दी जाती है जब उन्होंने न्यायिक मजिस्ट्रेट से आवश्यक अनुमति प्राप्त की हो। हालांकि, यह कभी-कभी पीड़ित व्यक्ति के खिलाफ जा सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सभी उद्देश्यों के लिए अदालत से पूर्व अनुमति की आवश्यकता के कारण गलत करने वाले के खिलाफ उचित कार्रवाई करना एक बहुत लंबी प्रक्रिया हो सकती है।

  • पुलिस जांच

एक बार जब कोई विशेष मुद्दा न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने लाया जाता है, तो वे मामले पर विचार करने के बाद पुलिस को जांच करने का निर्देश दे सकते हैं। पूरी जांच करने के बाद, उन्हें उपयुक्त अदालत या न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए कई रिपोर्ट तैयार करने की आवश्यकता होगी। पुलिस द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली रिपोर्ट एक प्रारंभिक रिपोर्ट और एक अंतिम रिपोर्ट है।

  • आरोप पत्र (चार्जशीट) की तैयारी

आरोप पत्र एक दस्तावेज को संदर्भित करता है जिसमें विभिन्न आरोप शामिल हैं जो विचाराधीन (अंडर ट्रायल) व्यक्ति के खिलाफ आरोपित हैं। यह आरोप पत्र पुलिस द्वारा जांच रिपोर्ट सौंपे जाने के बाद तैयार की गई है। आरोप पत्र में उसके खिलाफ विभिन्न आरोपों को सत्यापित (वेरिफाई) करने के लिए व्यक्ति का परीक्षण होता है।

  • आरोपी का परीक्षण

परिक्षण में, यदि किसी व्यक्ति को अदालत द्वारा किसी ऐसे अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है जो प्रकृति में गैर-संज्ञेय है, तो गिरफ्तारी वारंट जारी किया जा सकता है। हालाँकि, यह केवल अदालत द्वारा निर्णय पारित किए जाने के बाद ही किया जा सकता है।

गैर संज्ञेय अपराधों के उदाहरण

आईपीसी, 1860 के तहत विभिन्न गैर-संज्ञेय अपराध बताए गए हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

  • मानहानि

मानहानि के अपराध को आईपीसी, 1860 की धारा 499 के तहत परिभाषित किया गया है। यह मौखिक या लिखित रूप में दिए गए किसी भी बयान जिसका उद्देश्य समाज के तर्कसंगत (रैशनल) सदस्यों के बीच किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाना है, को संदर्भित करता है। इस तरह के बयान को सीधे संबंधित व्यक्ति को संदर्भित करना चाहिए और किसी भी तरह से उनके नैतिक (मोरल) और बौद्धिक (इंटेलेक्चुअल) चरित्र को कम करना चाहिए। मानहानि भी कई प्रकार की हो सकती है, जैसे कि लिबेल (लिखित मानहानि), स्लैंडर (मौखिक मानहानि), और इन्नुएंडो (अप्रत्यक्ष (इनडायरेक्ट) मानहानि)।

उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति A एक पत्रिका में लिखता है कि एक विशेष राजनेता B रिश्वतखोरी में शामिल थे। हालांकि जांच के बाद उनके दावे झूठे साबित हुए। इस स्थिति में, A को समाज के विवेकपूर्ण सदस्यों के बीच B को बदनाम करने के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। यह लिबेल का उदाहरण है।

  • धोखाधड़ी 

आईपीसी की धारा 420 के अनुसार, कोई भी व्यक्ति जो धोखाधड़ी में शामिल है या किसी व्यक्ति को किसी संपत्ति को देने, नष्ट करने या बदलने के लिए बेईमानी से प्रेरित करता है, उसे धोखाधड़ी के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। इसे अपराध मानने के लिए किसी व्यक्ति के धोखा देने के इरादे को साबित करने की आवश्यकता है। हालांकि, यह संपत्ति के मामलों से सख्ती से संबंधित है और किसी भी अन्य पहलू पर लागू नहीं होता है।

  • सार्वजनिक उपद्रव

आईपीसी की धारा 268 के तहत, सार्वजनिक उपद्रव को किसी भी कार्य या चूक के रूप में परिभाषित किया गया है जो किसी संपत्ति के कब्जे वाले व्यक्ति को चोट या परेशानी का कारण बनता है। धारा 290 के तहत इसकी सजा को परिभाषित किया गया है और इसे गैर संज्ञेय अपराध घोषित किया गया है। इस तरह के कार्य से आम तौर पर समाज को प्रभावित करने की संभावना है, जिससे नागरिकों के मौलिक अधिकारों (कुछ बुनियादी अधिकारों) का उल्लंघन होता है। हालांकि, सार्वजनिक उपद्रव पैदा करने वाले किसी भी कार्य को इस आधार पर माफ नहीं किया जाना चाहिए कि यह किसी व्यक्ति की सुविधा या लाभ के लिए था।

उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति A ने एक आवासीय क्षेत्र में गेहूं पीसने का उद्योग (इंडस्ट्री) स्थापित किया, और यह हवा में भारी मात्रा में धूल छोड़ता है। यह हवा को सांस लेने के लिए हानिकारक बना देता है, जिससे आस-पास के लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यह सार्वजनिक उपद्रव का गठन करेगा क्योंकि इससे पूरे पड़ोस में बड़े पैमाने पर असुविधा हो रही है।

  • आपराधिक हमला

आईपीसी की धारा 351 के अनुसार, हमला किसी भी कार्य या इशारे को संदर्भित करता है जो व्यक्ति के मन में धमकी या आशंका पैदा करता है कि उस पर कोई आपराधिक बल लगाया जा सकता है। प्रयुक्त शब्द उत्तेजक (प्रोवोकेटिव) प्रकृति के होने चाहिए। बिना किसी गलत इरादे के केवल सामान्य शब्दों का प्रयोग हमला नहीं कहलाएगा। यह एक गैर-संज्ञेय अपराध है जैसा कि इस धारा के तहत कहा गया है और इशारों के माध्यम से लगाए जा रहे नुकसान या धमकी को पूर्वाभास (फोरसीन) और तत्काल होना चाहिए।

गैर संज्ञेय अपराध के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रिया

एक गैर-संज्ञेय अपराध के लिए प्रक्रिया एक संज्ञेय अपराध के मामले में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया से काफी अलग है। इसमें कई चरण शामिल हैं, जो इस प्रकार हैं।

  1. जैसा कि पहले कहा गया है, पुलिस के पास प्राथमिकी दर्ज करने का अधिकार नहीं है। वे केवल तभी कार्रवाई कर सकते हैं जब उन्हें मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसा करने का आदेश दिया गया हो।
  2. एक शिकायत सीधे न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास दर्ज की जाती है। जब पुलिस को मजिस्ट्रेट से आदेश मिलता है, तो उन्हें मामले की जांच करने और अधिक जानकारी प्राप्त करने की आवश्यकता होती है।
  3. जांच के दौरान पुलिस को कई रिपोर्ट तैयार करनी होती है। इन रिपोर्टों को आगे मजिस्ट्रेट को प्रस्तुत किया जाता है।
  4. पुलिस स्टेशन के प्रभारी (इन चार्ज) अधिकारी को दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 157 के अनुसार न्यायिक मजिस्ट्रेट को प्रारंभिक रिपोर्ट प्रस्तुत करना आवश्यक है।
  5. इस संहिता की धारा 168 के तहत कनिष्ठ (जूनियर) अधिकारी को जांच के उद्देश्य से थाने के प्रभारी अधिकारी को एक रिपोर्ट प्रस्तुत करना आवश्यक है।
  6. जांच के अंत में, संहिता की धारा 173 के अनुसार संबंधित मजिस्ट्रेट को एक अंतिम रिपोर्ट भेजने की आवश्यकता होती है।
  7. जांच रिपोर्ट और बाद के चरणों में किए गए परीक्षण के आधार पर, एक मजिस्ट्रेट पुलिस को गिरफ्तारी वारंट जारी करने का आदेश दे सकता है।
  8. यह केवल तभी होता है जब किसी व्यक्ति को मुकदमे में दोषी ठहराया गया हो, पुलिस द्वारा गिरफ्तारी वारंट जारी किया जा सकता है और वे दोषी को गिरफ्तार कर सकते हैं। हालांकि, दोषी को जमानत के लिए आवेदन करने का अधिकार है और वह निचली अदालत के फैसले के खिलाफ अपील भी कर सकता है।

इसलिए, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि एक दोषी निश्चित रूप से ऐसे अपराध करने के लिए निष्पक्ष सुनवाई के अपने मूल अधिकार से वंचित नहीं है। यह पूरी प्रक्रिया है जिसका गैर संज्ञेय अपराध के मामले में पालन किया जाना आवश्यक है।

प्रासंगिक मामले 

लोक अभियोजक (पब्लिक प्रॉसिक्यूटर) बनाम रत्नावेलु चेट्टी (1926)

मामले के तथ्य

इस मामले ने गैर संज्ञेय अपराधों के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण अनिवार्यताओं में से एक को निर्धारित किया गया था। प्रतिवादी के खिलाफ झूठे आरोप लगाने के एक अपराध के लिए सत्र (सेशन) अदालत द्वारा पारित बरी करने के आदेश के खिलाफ इस मामले में लोक अभियोजक द्वारा एक अपील की गई थी।

न्यायालय के समक्ष मुद्दे

इस मामले में अदालत के सामने सवाल यह था कि क्या गैर-संज्ञेय अपराध में आरोप पत्र एक रिपोर्ट के रूप में कार्य कर सकता है या नहीं।

न्यायालय का फैसला

अदालत ने इस मामले में यह निर्धारित किया कि जब पुलिस को गैर संज्ञेय अपराध के संबंध में कोई सूचना प्राप्त होती है, तो उन्हें मजिस्ट्रेट को सूचित करना आवश्यक है। केवल एक मजिस्ट्रेट के पास ही कार्यवाही शुरू करने की शक्ति है। दूसरी ओर, जब कोई व्यक्ति किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत दर्ज करता है, तो कुछ औपचारिकताओं (फॉर्मेलिटीज) को पूरा करने की आवश्यकता होती है, जैसे कि शपथ पत्र। दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 203 के तहत एक मजिस्ट्रेट के पास एक शिकायत को खारिज करने की भी शक्ति है।

ओम प्रकाश और अन्य बनाम भारत संघ (2011)

मामले के तथ्य

इस मामले में, एक याचिका दायर की गई थी जब 1944 में केंद्रीय उत्पाद शुल्क (सेंट्रल एक्साइज) अधिनियम पेश किया गया था, जिसमें कुछ अपराधों को गैर-संज्ञेय होने का प्रावधान था। एक विद्वान अधिवक्ता ने एक याचिका दायर की कि प्रावधान मनमाने और कई बार अनावश्यक थे। इसके अलावा, इस बारे में अस्पष्टता थी कि अपराध जमानती होने चाहिए या गैर-जमानती।

न्यायालय के समक्ष मुद्दे

न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या अधिनियम के तहत अपराध संज्ञेय या गैर-संज्ञेय हैं और क्या वे प्रकृति में जमानती होने चाहिए।

न्यायालय का निर्णय 

इस मामले में, न्यायालय ने गैर संज्ञेय अपराधों के मामले में पुलिस की शक्तियों की व्याख्या की। उन्होंने कहा कि एक पुलिस अधिकारी, या मौजूदा मामले में, उत्पाद शुल्क अधिकारी, वैध गिरफ्तारी वारंट के बिना किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं कर सकते है। यही प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 41 में है जो विभिन्न शर्तों को बताता है जिसके तहत पुलिस किसी व्यक्ति को वारंट के साथ या उसके बिना गिरफ्तार कर सकती है।

डॉ. कमल किशोर कालरा बनाम एनसीटी दिल्ली राज्य (2008)

मामले के तथ्य

इस मामले में अभियोजन पक्ष की ओर से यह तर्क दिया गया था कि उन्हें एक सूचना मिली थी जिसमें कहा गया था कि एक व्यक्ति ने सरकारी दवाओं को बेचने के इरादे से उन्हें चुराया था। इसे दिल्ली पुलिस अधिनियम, 1978 के तहत एक गैर-संज्ञेय अपराध के रूप में मान्यता दी गई थी। हालांकि, पुलिस द्वारा मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना जांच की गई, जो कि एक गैर-संज्ञेय अपराध के मामले में हमेशा आवश्यक होती है।

न्यायालय के समक्ष मुद्दा

अदालत को इस सवाल का सामना करना पड़ा कि क्या पुलिस द्वारा मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना जांच की गई थी या नहीं।

न्यायालय का फैसला

अदालत ने इस विशेष मामले में घोषित किया कि यदि पुलिस शुरू में एक संज्ञेय अपराध की प्रक्रिया के तहत जांच कर रही थी, लेकिन बाद में, यह एक गैर-संज्ञेय अपराध के रूप में सामने आता है, तो पुलिस की जांच रिपोर्ट को पुलिस अधिकारी द्वारा की गई शिकायत के रूप में माना जा सकता है।

संज्ञेय और गैर संज्ञेय अपराधों के बीच अंतर

मूल और प्रक्रियात्मक दोनों पहलुओं में संज्ञेय और गैर-संज्ञेय अपराधों के बीच कुछ अंतर हैं। इनमें से कुछ अंतर इस प्रकार हैं।

संज्ञेय अपराध गैर संज्ञेय अपराध
संज्ञेय अपराध उन सभी अपराधों को संदर्भित करता है जिनके लिए पुलिस बिना गिरफ्तारी वारंट के किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकती है, अर्थात पुलिस, अपराध का संज्ञान (कॉग्निजेंस) अपने हाथ में ले सकती है। इन्हें दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2(c) के तहत परिभाषित किया गया है। गैर-संज्ञेय अपराध उन सभी अपराधों को संदर्भित करते हैं जिनके लिए पुलिस किसी व्यक्ति को तभी गिरफ्तार कर सकती है जब उनके पास वैध गिरफ्तारी वारंट हो। ये मामले का संज्ञान अपने हाथ में नहीं ले सकते। ऐसे अपराधों को संहिता की धारा 2(l) के तहत परिभाषित किया गया है।
इस तरह का अपराध किए जाने का आरोप होने पर पुलिस द्वारा प्राथमिकी दर्ज की जा सकती है। गैर-संज्ञेय अपराध के मामले में पुलिस द्वारा प्राथमिकी दर्ज करने की अनुमति नहीं है।
ये प्रकृति में अधिक गंभीर हैं और समाज के एक बड़े वर्ग को प्रभावित करते हैं। ये अपराध प्रकृति में तुलनात्मक रूप से कम गंभीर होते हैं और आमतौर पर पीड़ित व्यक्ति को कोई शारीरिक चोट नहीं पहुंचाई जाती है।
सभी संज्ञेय अपराध या तो जमानती या गैर-जमानती होते हैं। हालांकि, ये ज्यादातर गैर-जमानती होते हैं क्योंकि अपराध प्रकृति में बहुत ही जघन्य (हिनियस) या हानिकारक होते हैं। गैर संज्ञेय अपराध ज्यादातर प्रकृति में जमानती होते हैं क्योंकि ऐसे अपराध बहुत गंभीर या जघन्य नहीं होते हैं।
संज्ञेय अपराध के मामले में पुलिस अदालत की मंजूरी के बिना जांच कर सकती है। गैर-संज्ञेय अपराध में पुलिस द्वारा अपने आप जांच शुरू नहीं की जा सकती है। मजिस्ट्रेट द्वारा तथ्यों के मूल्यांकन (इवेल्यूएशन) के बाद ही वे पुलिस को जांच करने की अनुमति दे सकते हैं।
संज्ञेय अपराधों के उदाहरण हत्या, बलात्कार और अपहरण हैं। गैर-संज्ञेय अपराधों के उदाहरण धोखाधड़ी, सार्वजनिक उपद्रव आदि हैं।

गैर संज्ञेय अपराधों के लिए सजा

गैर संज्ञेय अपराध, जैसा कि पहले कहा गया है, प्रकृति में कम गंभीर होते हैं। इसलिए, ऐसे अपराधों के लिए सजा की मात्रा भी कम गंभीर होती है। इसके अलावा, ये अपराध गिरफ्तार व्यक्ति या किसी संबंधित व्यक्ति द्वारा एक आवेदन दायर करने के माध्यम से भी जमानती हैं। गैर संज्ञेय अपराधों के लिए दंड, भारतीय दंड संहिता, 1860 की पहली अनुसूची में वर्णित हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं।

  1. जैसा कि आईपीसी की धारा 417 में कहा गया है, धोखाधड़ी एक दंडनीय अपराध है जिसके लिए अधिकतम एक वर्ष की अवधि के लिए कारावास या जुर्माना या दोनों हो सकता है।
  2. आईपीसी की धारा 352 के तहत हमले की सजा तीन महीने तक की कैद, तीन सौ रुपए जुर्माना या दोनों हो सकती है।
  3. आईपीसी की धारा 500 के तहत मानहानि की सजा दो साल तक की कैद, जुर्माना या दोनों हो सकती है।
  4. आईपीसी की धारा 290 के अनुसार, सार्वजनिक उपद्रव के लिए दंड एक निश्चित राशि का भुगतान है जो दो सौ रुपये तक हो सकता है।
  5. आईपीसी की धारा 465 के तहत, जालसाजी भी एक दंडनीय अपराध है जिसमें कारावास की अवधि दो साल तक है, और जुर्माना या दोनों भी हो सकता है।

ये गैर संज्ञेय अपराधों के लिए कुछ दंड हैं। ऐसे किसी भी अपराध में आमतौर पर कारावास की अवधि दो वर्ष से अधिक नहीं होती है।

गैर संज्ञेय अपराधों में मुद्दे

  1. गैर-संज्ञेय अपराधों के मामले में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया बहुत बोझिल है और इसमें बड़ी संख्या में औपचारिकताएं शामिल हैं। इससे निर्णय लेने में देरी हो सकती है और प्रभावित व्यक्ति के हितों के खिलाफ जा सकता है।
  2. सभी मजिस्ट्रेट पर लगाए गए अत्यधिक जिम्मेदारी उनके बोझ को बढ़ा सकते हैं, जो अंततः मामले के निपटान की गति को प्रभावित करेगा। मजिस्ट्रेट को कई कर्तव्यों को सौंपे जाने के कारण प्रक्रिया बेहद धीमी हो जाती है।
  3. यह प्रक्रिया उस प्रक्रिया से बहुत अलग है जिसका आमतौर पर संज्ञेय अपराधों के लिए पालन किया जाता है। नतीजतन, यह पीड़ित पक्ष और पुलिस दोनों के लिए कई बार अस्पष्टता पैदा कर सकती है क्योंकि वे एक साथ बड़ी संख्या में मामलों से निपट रहे होते हैं।
  4. पुलिस द्वारा जांच रिपोर्ट तैयार करने में देरी हो सकती है। इससे मामलों के निपटारे में और देरी हो सकती है। पीड़ित व्यक्ति को निष्पक्ष न्याय प्रदान करने के लिए, जो इस स्थिति में दोषी नहीं है, अदालतों को इंतजार करना होगा और अंततः मामले को आगे बढ़ाने के लिए रिपोर्ट को स्वीकार करना होगा।

ये कुछ प्रमुख मुद्दे हैं जो गैर संज्ञेय अपराधों की प्रक्रिया में उत्पन्न होते हैं, और इन अंतरालों (गैप) को भरने के लिए कुछ कार्रवाई करने की आवश्यकता होती है। इससे अनावश्यक देरी कम होगी और सभी को समय पर न्याय मिलेगा।

विश्लेषण और सिफारिशें

संज्ञेय अपराधों की तुलना में गैर-संज्ञेय अपराधों की एक पूरी तरह से अलग प्रक्रिया होती है। यह पुलिस की शक्तियों और गैर संज्ञेय अपराधों के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के संबंध में कई मुद्दों को जन्म दे सकता है, जैसा कि ऊपर कहा गया है। इसलिए, पीड़ित पक्ष और आरोपी दोनों के लिए निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित करने के लिए इन मुद्दों को संबोधित करने की आवश्यकता है।

  • गैर संज्ञेय अपराधों के मामलों में पुलिस की शक्तियों को बढ़ाने की आवश्यकता है। मजिस्ट्रेट से औपचारिक अनुमति के कारण होने वाली किसी भी देरी को कम करने के लिए, त्वरित कार्रवाई करने के लिए, पुलिस को सभी परिस्थितियों में जांच शक्तियां प्रदान की जानी चाहिए।
  • इन बढ़ी हुई शक्तियों के साथ, सभी परिस्थितियों में समय पर जांच रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए पुलिस को भी अधिक जवाबदेह बनाया जाना चाहिए। न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्तियों को अन्य अधिकारियों के बीच वितरित (डिस्ट्रीब्यूट) किया जाना चाहिए। यह सबसे पहले व्यक्तिगत पूर्वाग्रह (बायस) के किसी भी रूप की संभावना को कम करेगा और दूसरा, यह मजिस्ट्रेट के बोझ को भी कम करेगा, जिससे उसे अपने काम पर ध्यान केंद्रित करने और उनकी समग्र दक्षता (एफिशिएंसी) में सुधार करने में मदद मिलेगी।
  • कथित अपराधी को शीघ्र बरी करने या गिरफ्तार करने के लिए न्यायालयों द्वारा निष्पक्ष और त्वरित सुनवाई सुनिश्चित करने की भी आवश्यकता है। इससे पीड़ित व्यक्ति को मुआवजे का शीघ्र भुगतान प्राप्त करने में मदद मिलेगी।
  • आईपीसी, 1860 के तहत इस तरह के अपराधों के लिए भुगतान किया जाने वाला जुर्माना अभी भी पुराने समय के अनुसार लगाया जाता है। मामले के आधार पर, कारावास की अवधि के साथ-साथ मुआवजे या जुर्माने के रूप में भुगतान की जाने वाली राशि को अद्यतन (अपडेट) करने की आवश्यकता है।
  • अंत में, लोगों में इस बात के बारे में पर्याप्त जागरूकता पैदा करने की भी आवश्यकता है कि यदि वे गैर संज्ञेय अपराध के शिकार हैं तो उन्हें किस मार्ग का उपयोग करना होगा। इससे उन्हें हर समय अपने अधिकारों के बारे में जानकारी मिलती रहेगी।

निष्कर्ष

गैर संज्ञेय अपराध आईपीसी, 1860 की पहली अनुसूची में वर्णित अपराधों की एक श्रेणी है। ये अपराध प्रकृति में कम गंभीर हैं और परिणामस्वरूप, जमानती भी हैं। इन अपराधों में कम सजा होती है, लेकिन उनके प्रक्रियात्मक पहलुओं और शक्तियों के वितरण में समस्याएं उत्पन्न होती हैं। इन मुद्दों को रोकने के लिए, कुछ उपायों को सक्रिय (एक्टिव) रूप से अपनाया जा सकता है। यदि ये सभी उपाय किए जाएं तो गैर संज्ञेय अपराधों से भी आसानी से निपटा जा सकता है। पीड़ित पक्ष को पीड़ित होने की आवश्यकता नहीं होगी, और विवेकाधीन शक्तियों को नियंत्रण में लाया जाएगा। इसलिए, गैर-संज्ञेय अपराधों के संबंध में देश में न्यायिक प्रणाली और दंड की प्रक्रिया में सुधार के लिए अभी भी कुछ उपाय किए जाने की आवश्यकता है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

  • गैर संज्ञेय अपराधों के लिए सजा क्या है?

गैर-संज्ञेय अपराधों के लिए सजा आमतौर पर संज्ञेय अपराधों की तुलना में कम होती है, जिसमें कारावास की अवधि आमतौर पर 2 साल तक होती है।

  • गैर संज्ञेय अपराध में पुलिस की क्या भूमिका होती है?

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 155 के तहत पुलिस में शिकायत की जा सकती है। फिर उन्हें रिकॉर्ड बनाए रखने के लिए राज्य सरकार द्वारा अधिकार प्राप्त एक अधिकारी को सभी आवश्यक जानकारी प्रदान करने की आवश्यकता होती है और जानकारी देने वाले को मजिस्ट्रेट के पास भी भेजा जाता है।

  • गैर-संज्ञेय अपराध में प्राथमिकी का विकल्प क्या है?

गैर संज्ञेय अपराध के मामले में, पुलिस द्वारा सभी गैर संज्ञेय अपराधों का रिकॉर्ड रखने के लिए एक सामुदायिक सेवा रजिस्टर का रखरखाव किया जाता है। इसलिए, यह प्राथमिकी का एक विकल्प है जो सभी गैर संज्ञेय अपराधों के लिए दर्ज किया जाता है।

संदर्भ

 

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