यह लेख, शरीर और संपत्ति से संबंधित निजी प्रतिरक्षा के अधिकार के बारे में चर्चा करता है। यह कार्य क्षेत्र, सीमाओं और लोगों द्वारा इसका दुरुपयोग कैसे किया जाता है, इस पर भी चर्चा करता है। इस लेख में विभिन्न ऐतिहासिक निर्णय विधि भी दिए गए हैं। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
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सारांश (ऐब्स्ट्रैक्ट)
निजी प्रतिरक्षा (प्राइवेट डिफेंस) भारत के प्रत्येक नागरिक को किसी भी बाहरी ताकत (एक्सटर्नल फोर्स), जिसके परिणामस्वरूप उन्हें कोई नुकसान या चोट पहुंची हो, तो वह इस उपलब्ध अधिकार (राइट) का इस्तेमाल करके खुद को बचा सकता है। साधारण आदमी की भाषा में, इसका मतलब यह है कि अपने आप की या किसी अन्य व्यक्ति या संपत्ति की रक्षा के लिए, और किसी अन्य अपराध को रोकने के लिए, कोई भी गैरकानूनी (अनलॉफुल) कदम उठाना या गैरकानूनी कार्यों का उपयोग करना। भारतीय दंड संहिता, 1860 (इंडियन पेनल कोड, 1860) की धारा 96 से 106 में, भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए उपलब्ध, निजी प्रतिरक्षा के अधिकारों से संबंधित प्रावधान दिए हुए हैं। हर स्वतंत्र देश के प्रत्येक नागरिक को निजी प्रतिरक्षा का अधिकार प्रदान किया जाना चाहिए ताकि जब राज्य सहायता उपलब्ध न हो या संभव न हो, तब वह किसी भी समय आने वाले खतरे से अपनी रक्षा स्वयं कर सकें। इस अधिकार को, नागरिकों की और उनकी संपत्ति की रक्षा के लिए राज्य को दिए हुए कर्तव्य (ड्यूटी) के साथ पढ़ा जाना चाहिए। भारत में इस अधिकार को, प्रत्येक नागरिक को, आत्मरक्षा (सेल्फ प्रोटेक्शन) के अधिकार के रूप में प्रदान किया गया था, लेकिन अक्सर कई लोगों द्वारा इसे अपराध करने का बहाना मानकर इसका दुरुपयोग किया जाता है। इसलिए निजी प्रतिरक्षा का यह अधिकार कुछ प्रतिबंधों (रिस्ट्रिक्शंस) और सीमाओं (लिमिटेशंस) के अधीन है। हालांकि, भारत के नागरिकों को निजी प्रतिरक्षा का अधिकार उनकी आत्मरक्षा के लिए एक हथियार के रूप दिया गया था, लेकिन इसका उपयोग अक्सर कई लोग बुरे उद्देश्यों या गैरकानूनी उद्देश्यों के लिए करते हैं। अब यह न्यायालय का कर्तव्य और उत्तरदायित्व (रिस्पॉन्सिबिलिटी) है कि वह इस बात की जांच करे कि इस अधिकार का प्रयोग नेकनियति (गुड फेथ) द्वारा किया गया या नहीं। इस अधिकार के प्रयोग की सीमा वास्तविक (एक्चुअल) खतरे पर नहीं बल्कि खतरे के लिए पर्याप्त भय (एप्प्रिहेंशन) पर निर्भर करती है। एक अभियुक्त (अक्यूज़्ड) द्वारा कुछ परिस्थितियों में अधिकार विस्तृत (एक्सटेंडेड) किया जा सकता है लेकिन केवल एक निश्चित सीमा तक ही, जिसके होने के कारण भी निजी प्रतिरक्षा का अधिकार अमान्य नहीं कहलाएगा।
मुख्य शब्द (कीवर्ड): सीमा, नेक नियति, आसन्न (एमिनेंट), अमान्य सीमाएं, पर्याप्त भय , गैरकानूनी।
सार संग्रह ( सिनॉप्सिस)
परिचय ( इंट्रोडक्शन)
साधारण आदमी की भाषा में निजी प्रतिरक्षा का मतलब यह है कि, अपने आप की या किसी अन्य व्यक्ति या संपत्ति की रक्षा के लिए, या किसी अन्य अपराध को रोकने के लिए, कोई भी गैरकानूनी साधन का प्रयोग करना। भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 96 से 106 में भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए उपलब्ध निजी प्रतिरक्षा के अधिकारों से संबंधित प्रावधान दिए गए हैं। इस अधिकार का प्रयोग केवल उस स्थिति में किया जा सकता है जब किसी आने वाले खतरे का भय हो और राज्य द्वारा सहायता या सहारा उपलब्ध न हो। यह अधिकार मूल रूप से समय के साथ भारत के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों द्वारा विकसित (डेवलप) हुआ है। निजी प्रतिरक्षा के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांतों में से एक यह है कि, क्या इस अधिकार का इस्तेमाल “तर्क संगति (रीज़नेबलनेस)” के साथ किया गया था। इस अधिकार की विभिन्न सीमाएँ और अपवाद (एक्सेप्शन) भी हैं और इस लेख में इसका उल्लेख किया गया है। इस अधिकार के दुरुपयोग की स्थिति में कुछ उपचार (रेमेडी) भी उपलब्ध है, ‘यूबी जूस इबी रेमेडियम’ के अनुसार‘ जिसका अर्थ है जहां अधिकार है वहां उपचार है।
मुद्दों का अभिनिर्धारण (आईडेंटिफिकेशन ऑफ इश्यूज़)
- निजी प्रतिरक्षा का अधिकार केवल तभी उपलब्ध होता है जब व्यक्ति के लिए सार्वजनिक प्राधिकरणों (अथॉरिटी) का सहारा उपलब्ध न हो।
- अधिकार के प्रयोग की सीमा वास्तविक खतरे की सीमा पर नहीं बल्कि खतरे की आशंका की तर्कसंगति पर निर्भर करती है।
- निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का दुरुपयोग।
- निजी बचाव के मामलों में साक्ष्य का भार (बर्डन आफ प्रूफ)।
- इस्तेमाल की गई प्रतिरक्षा की तर्कसंगतता।
खोज का उद्देश्य और कार्य क्षेत्र (ऑब्जेक्टिव एंड स्कोप ऑफ रिसर्च)
- भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 96 से 106 के तहत उपलब्ध निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का अध्ययन करना।
- इस अधिकार की विभिन्न आवश्यकताओं, सीमाओं और अपवादों की जांच करना और भारतीय तथा अन्य कानूनी प्रणालियों (सिस्टम) में इसकी प्रासंगिकता (एप्लीकेबिलिटी) को देखना।
- निजी प्रतिरक्षा के न्यायिक दृष्टिकोण (पर्सपेक्टिव) का अध्ययन करना और उसका विश्लेषण (एनालिसिस) करना।
खोज कार्य प्रणाली (रिसर्च मेथाडोलॉजी)
यहां पर अपनाई गई खोज कार्यप्रणाली पूर्ण रूप से सैद्धांतिक (डॉक्ट्रिनल) है और इसमें आनुभविक (एंपायरिकल) दृष्टिकोण शामिल नहीं है। यह शोध आधिकारिक सूत्रों (अथॉरिटेटिव टेक्स्ट) पर आधारित है। इस शोध व्याख्यान (डिसर्टेशन) को पूरा करने के स्रोत (सोर्स) प्राथमिक (प्राइमरी) और माध्यमिक (सेकेंडरी) दोनों होंगे। प्राथमिक, इस हद तक कि पुस्तकों को संदर्भित किया गया था। निर्णयों और विधानों (लेजिस्लेटर) से तथ्य एकत्र किए गए है। माध्यमिक संसाधनों (रिसोर्सेज) जैसे वर्ल्ड वाइड वेब और उसमें प्रकाशित (पब्लिश) लेखों का भी उपयोग किया गया है।
अघ्याय विभाजन (चैप्टराइजेशन)
- परिचय
- प्रकृति
- कार्य क्षेत्र
- कुप्रयोग करना
- भारतीय कानूनी प्रणाली और अन्य कानूनी प्रणालियों में निजी प्रतिरक्षा की अवधारणा (कांसेप्ट)
- न्यायिक दृष्टिकोण और प्रमुख मामले
- निष्कर्ष ( कंक्लुज़न)
आई.पी.सी. के तहत निजी प्रतिरक्षा का अधिकार (द राइट ऑफ प्राइवेट डिफेंस अंडर आई.पी.सी.)
परिचय (इंट्रोडक्शन)
निजी प्रतिरक्षा भारत के प्रत्येक नागरिक को किसी भी बाहरी ताकत, जिसके परिणामस्वरूप कोई नुकसान या चोट लग सकती हो, से अपनी रक्षा करने का अधिकार देता है। साधारण आदमी की भाषा में यह मूल रूप से आत्मरक्षा का अधिकार है। इसका उल्लेख भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 96 से 106 में किया गया है। ‘कोई भी ऐसा कार्य जो की निजी प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग में किया गया हो, वह अपराध नहीं है’- इसका अर्थ यह है कि, यदि कोई भी व्यक्ति किसी बाहरी बल या नुकसान से अपनी रक्षा करने के दौरान उस व्यक्ति को क्षति या चोट पहुंचाता है, तो वह कार्य भारतीय दंड संहिता,1860 के अनुसार कोई अपराध नहीं है।
निजी प्रतिरक्षा का अधिकार आधुनिक (मॉडर्न) भारत में विकसित हुआ है, लेकिन शुरुआती दौर में, 150 साल पहले, इस अधिकार को तेजस्वी (इबुलिएनट) मैकाले ने अपने संहिता (कोड) के प्रलेख (ड्राफ्ट) में “मूल निवासियों या स्थानीय लोगों के बीच मजबूत (मैनली) भावनाओं (स्पिरिट)” को सशक्त (एम्पावर) बनाने के महत्वाकांक्षी (एस्पायरिंग) कार्य के साथ प्रस्तावित (प्रपोज़्ड) किया था। एक आदर्श भारतीय, किसी भी जोखिम या खतरे के समय में दृढ़ (परसेवर) रहता है और अपने शरीर या संपत्ति, या किसी अन्य की रक्षा करने के लिए नाखूष (रिलक्टन्ट) नहीं होता। वह कुछ नुकसान और चोटों से बचने के लिए सतर्क (कॉशियस) शक्ति का इस्तेमाल करता है, यहां तक कि वह नुकसान या चोटों से बचने के लिए किसी की मृत्यु तक की सीमा तक पहुंच सकता है।
सबसे साधारण भाषा में इसका अर्थ यह है की, स्वयं या किसी अन्य व्यक्ति की रक्षा या संपत्ति की रक्षा के लिए या किसी अन्य अपराध को रोकने के लिए, आम तौर पर गैरकानूनी कार्यों का उपयोग करना। इसे केवल आत्मरक्षा के उद्देश्य से किया गया कार्य कहा जा सकता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51(a)(i) के अनुसार सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना और हिंसा से दूर रहना राज्य का मौलिक (फंडामेंटल) कर्तव्य है। इसका तात्पर्य यह है कि अपने नागरिकों और उनकी संपत्ति को किसी भी नुकसान से बचाना राज्य का मौलिक कर्तव्य है, और यदि उस समय राज्य की सहायता उपलब्ध नहीं होती और खतरा मंडरा रहा होता है और उस समय उस खतरे को टाला भी नहीं जा सकता, तो उस व्यक्ति के पास यह अधिकार है कि वह किसी भी नुकसान या चोट से खुद को बचाने के लिए अपने बल का इस्तेमाल कर सकता है। निजी प्रतिरक्षा शब्द को दंड संहिता में कहीं भी ठीक तरह से परिभाषित नहीं किया गया है, पर यह आम तौर पर विभिन्न न्यायालयों के निर्णयों द्वारा, वर्षों से विकसित और इसका विस्तार (डेवलप) हुआ है। प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार प्रदान करने के पीछे एक मुख्य उद्देश्य (मोटीव) यह है कि, उनके अंदर से अपने आप को बचाने के लिए, कोई अवैध (अनलॉफुल) कदम उठाने की झिझक (हेज़िटेशन) दूर हो सके और उन्हें अभियोजन (प्रॉसीक्यूशन) का भय भी ना रहे कि बाद में उन पर कार्यवाही हो सकती है।
प्रकृति (नेचर)
स्वयं सहायता को पहला सिद्धांत माना जाता है, जिसका अर्थ यह है कि, स्वयं की सहायता करना व्यक्ति का पहला कर्तव्य है। स्वतंत्र देश के प्रत्येक नागरिकों को निजी प्रतिरक्षा का अधिकार प्रदान किया जाना चाहिए ताकि उस समय में आने वाले किसी भी खतरे से वह अपनी रक्षा स्वयं कर सके, जब राज्य सहायता उपलब्ध या संभव न हो। इस अधिकार के तहत नागरिकों की रक्षा के साथ-साथ, उनकी संपत्ति की रक्षा का कर्तव्य भी राज्य का ही होता है। लेकिन कोई भी राज्य, चाहे वह कितना भी समृद्ध (रिच) हो या उसके संसाधन कितने भी बड़े क्यों न हों, किसी भी बाहरी नुकसान या चोट से नागरिकों को बचाने के लिए प्रत्येक के लिए एक पुलिसकर्मी तैनात नहीं कर सकता। इसलिए अपने मौलिक कर्तव्य को पूरा करने के लिए उसने नागरिकों को यह शक्ति प्रदान की है कि यदि उनकी आत्मा रक्षा पर कोई खतरा आए, तो उन्हें राज्य द्वारा कानून अपने हाथ में लेने के लिए अधिकृत (ऑथराइज्ड) किया गया है, पर इस अधिकार का प्रयोग करते समय एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि, इस अधिकार का प्रयोग तभी किया जा सकता है जब पुलिस को बुलाने का समय न हो या राज्य अधिकारियों (अथॉरिटी) द्वारा दिए गए समय में कोई सहायता प्रदान न की गई हो अर्थात राज्य से सहायता प्राप्त नहीं हो पाई हो। आत्मरक्षा के दौरान किसी भी व्यक्ति द्वारा किया गया कोई भी गैरकानूनी कार्य अपराध नहीं माना जाता और इसलिए, वह बदले में निजी प्रतिरक्षा के किसी भी अधिकार को जन्म नहीं देता। यह अधिकार व्यक्ति की वास्तविक आपराधिकता पर निर्भर नहीं करता। यह पूरी तरह से प्रयास किए गए कार्य के गलत या स्पष्ट (अपेरेंटली) रूप से गलत चरित्र पर निर्भर करता है, यदि आशंका वास्तविक और उचित है, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह कार्य गलती से हुआ था।
निजी प्रतिरक्षा का कार्यक्षेत्र ( स्कोप ऑफ प्राइवेट डिफेंस)
आई.पी.सी, 1860 की धारा 97 में यह कहा गया है कि प्रत्येक नागरिक को निजी प्रतिरक्षा का अधिकार, अपने शरीर या किसी अन्य व्यक्ति के शरीर की रक्षा या मानव शरीर को प्रभावित (इफेक्ट) करने वाला कोई भी अपराध; संपत्ति को प्रभावित करने वाला अपराध, चाहे वह अचल (इमूवेबल) या चल ( मूवेबल) संपत्ति हो, खुद की या किसी अन्य व्यक्ति की, किसी भी कार्य के खिलाफ, जैसे कि चोरी, लूट (रॉबरी), रिष्टि (मिश्चीफ), आपराधिक अतिचार (ट्रेसपास) की परिभाषा के तहत आने वाला अपराध या चोरी, लूट, रिष्टि, आपराधिक अतिचार करने का प्रयास करने के खिलाफ यदि कोई भी व्यक्ति गैर कानूनी कदम उठाता है तो उसे यह अधिकार उपलब्ध है, पर यह अधिकार कुछ प्रतिबंधों (धारा 99 में उल्लिखित) के अधीन) होता है।
इसका तात्पर्य यह है कि स्वयं की सहायता करना, पहला सिद्धांत है अर्थात यह व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह पहले स्वयं की मदद करे और फिर उसके लिए एक सामाजिक कर्तव्य उत्पन्न होता है कि वह समाज के दूसरे सदस्यों की भी मदद करें और यह सामाजिक कर्तव्य, अपनी और दूसरों की संपत्ति की रक्षा के लिए मानवीय सहानुभूति (ह्यूमन सिंपैथी) से उत्पन्न होता है।
आई.पी.सी. की धारा 98 के अनुसार जब कोई कार्य जो अन्यथा एक अपराध होता, वह अपराध नहीं है, क्योंकि वह किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया है जो, युवा, या उस व्यक्ति में समझ की परिपक्वता (मैच्योरिटी) की कमी है, दिमाग की अस्वस्थता (अनसाउंडनेस ऑफ माइंड ) या उस कार्य को करने वाले व्यक्ति ने नशा किया है, या उस व्यक्ति की ओर से किसी ग़लतफ़हमी के कारण यह अपराध हुआ हो, तो प्रत्येक व्यक्ति, उस कार्य के विरुद्ध प्रतिरक्षा का वही अधिकार रखते हैं जो उनके पास होता यदि वह कार्य, वह अपराध होने की दशा रखता।
दंड संहिता की धारा 106 के अनुसार, यदि किसी हमले में उचित रूप से मृत्यु की आशंका होती है, और कोई व्यक्ति प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करते हुए, यदि ऐसी स्थिति में आ जाता है, कि वह किसी निर्दोष व्यक्ति को जोखिम या नुकसान के बिना उस अधिकार का प्रभावी ढंग से प्रयोग नहीं कर सकता हो तब उस व्यक्ति का प्रतिरक्षा का अधिकार जोखिम उठाने तक का होता है।
निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का क्षेत्र (एक्स्टेंट) और इस अधिकार के प्रयोग का सार (समरी) प्रस्तुत किया गया है: –
- किसी ऐसे कार्य के विरुद्ध प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है जो इस संहिता के अधीन अपने आप में एक अपराध नहीं है। यह अपवादों के मामले को शामिल नहीं करता है।
- इस अपराध की शुरुआत, किसी व्यक्ति के शरीर के खिलाफ, कोई अपराध करने के प्रयास या धमकी के खतरे से, उत्पन्न हुई उचित आशंका से होती है। अधिकार का उपयोग केवल आसन्न (इमिनेंट), वर्तमान और वास्तविक खतरे के विरुद्ध किया जाता है।
- यह अधिकार रक्षात्मक (डिफेंसिव) है और दंडात्मक (प्यूनिटिव) या प्रतिशोधात्मक (रिट्रीब्यूटिव) नहीं है। किसी भी मामले में, अधिकार का विस्तार रक्षा के प्रयोजन (पर्पस) के लिए आवश्यक पर्पस से अधिक नुकसान पहुंचाने तक नहीं होना चाहिए, हालांकि वास्तविक रक्षक के लिए उचित छूट (अलाउअन्स) भी दी गई है।
- इस अधिकार की सीमा, वास्तविक हमलावर (असेलन्ट) की हत्या तक भी पहुंच सकती है, और ऐसा तब हो सकता है जब किसी परिस्थिति में, धारा 100 के खंड (क्लोज) 6 में वर्णित भयानक (अट्रोशस) अपराधों का उचित और आसन्न खतरा हो।
- जो व्यक्ति इस अधिकार का प्रयोग कर रहा है, उसके पास उस खतरे या गंभीर शारीरिक नुकसान की आशंका से बचने या भागने का कोई भी सुरक्षित या उचित तरीका नहीं था, और बस वह हमलावर को मार कर ही बच सकता था।
- यह अधिकार, असल में, एक रक्षात्मक अधिकार है, पर यह अधिकार तब नहीं माना जाएगा जब अधिकार के प्रयोगकर्ता (यूज़र) के पास सार्वजनिक प्राधिकरणों से सहायता लेने का समय है लेकिन वह व्यक्ति बिना उनकी सहायता लिए ही अपने अधिकार का इस्तेमाल कर देता है।
कुप्रयोग (मिसयूज़)
यह अधिकार, भारत के प्रत्येक नागरिक को आत्मरक्षा के अधिकार के रूप में प्रदान किया गया था, लेकिन कई लोगों द्वारा इसे, किसी भी अपराध को करने का बहाना मानकर, इसका दुरुपयोग किया जाता है। यह रक्षा के लिए दिया गया अधिकार है न कि प्रतिशोध (वेन्जन्स) के लिए और इसका इस्तेमाल बदला लेने के लिए में नहीं किया जा सकता। निजी प्रतिरक्षा का यह अधिकार, किसी भी कानूनी कार्य के खिलाफ उपलब्ध नहीं है, यानी कि, जब कोई व्यक्ति वैध कार्य करता है और वह कार्य कोई अपराध नहीं होता, तो उस परिस्थिति में निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का उपयोग नहीं किया जा सकता है। कभी-कभी कुछ लोग दूसरों को आक्रामकता (एग्रेसिव) में कार्य करने के लिए उकसाते (प्रोवोक) हैं और इस अधिकार को उन लोगों को नुकसान पहुंचाने और यहां तक कि की हत्या की कार्यवाही से बचने के लिए इस्तेमाल करते हैं। लेकिन इसका उपयोग उस स्थिति में नहीं किया जा सकता है जहां केवल आरोपी द्वारा ही आक्रामकता दिखाई गई थी। इसे कई लोगों द्वारा, मारने के अनुज्ञापत्र (लाइसेंस) के रूप में माना जाता है क्योंकि आई.पी.सी इस स्थिति पर स्पष्ट नहीं है। लेकिन न्यायालय ने यह कहा है कि निजी प्रतिरक्षा केवल उन लोगों के लिए उपलब्ध है जो नेकनियति में कार्य करते हैं और अपने गैरकानूनी कार्य या आक्रामकता के कार्य को सही ठहराने के लिए इस अधिकार का दुरुपयोग नहीं करते। न्यायालय द्वारा यह भी कहा गया था की “निजी प्रतिरक्षा के अधिकार के लिए, दंड संहिता ने निश्चित रूप से कोई प्रक्रिया तैयार नहीं की है, जहां यह माना जा सके की एक हमले को हत्या के बहाने के रूप में उकसाया जा सकता है”।
अन्य कानूनी प्रणालियों में निजी प्रतिरक्षा का अधिकार (द राइट ऑफ प्राइवेट डिफेंस इन अदर लीगल सिस्टम)
अमेरिकी विधि (अमेरिकन लॉ)
अमेरिका की कानूनी प्रणाली में निजी प्रतिरक्षा का अधिकार भारतीय कानूनी प्रणाली के समान ही है।
अमेरिकी कानूनी प्रणाली में इस अधिकार की अत्यंत महत्वता की दो स्थिति है:
- तर्कसंगतता का सिद्धांत यानी कि इस अधिकार का प्रयोग तब किया जा सकता है जब किसी अपराध के होने के प्रयास या धमकी से किसी व्यक्ति के दिमाग में खतरे की उचित आशंका उत्पन्न हुई हो। इस अधिकार का उपयोग केवल आसन्न, वर्तमान और वास्तविक खतरे के विरुद्ध किया जाता है।
- बल को हानि के अनुपात (प्रोपोर्शनेट) में होना चाहिए यानी की केवल उतनी ही मात्रा में बल का प्रयोग किया जाना चाहिए जो संभावित चोट या हानि से बचने के लिए आवश्यक हो।
अंग्रेजी कानून (इंग्लिश लॉ)
अंग्रेजी कानूनी प्रणाली में आपराधिक कानून अधिनियम, 1967 (क्रिमिनल लॉ एक्ट, 1967) के तहत निजी प्रतिरक्षा का अधिकार दिया गया है। इस अधिनियम की धारा 3(1) में कहा गया है कि, कोई व्यक्ति ऐसे बल का उपयोग कर सकता है, जो अपराध की रोकथाम (प्रीवेंशन), या अपराधियों या संदिग्ध अपराधियों या अवैध रूप से बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी करने में सहायता करता है।
धारा 3(2) – उपरोक्त उपधारा (1), सामान्य कानून के नियमों का स्थान लेगी जब उपधारा में उल्लिखित (मेंशंड) उद्देश्य के लिए प्रयुक्त बल, उस उद्देश्य के लिए उचित हो।
अंग्रेजी कानूनी प्रणाली में यह अधिकार प्रतिवादी (डिफेंडेंट) को पूरी तरह से मुक्त करने में मदद करता है क्योंकि उसके द्वारा इस्तेमाल किया गया बल अवैध नहीं था, लेकिन उन्हें बरी किया जाना चाहिए या नहीं यह न्यायालय के फैसले पर निर्भर करता है। अदालत उसके द्वारा इस्तेमाल किए गए बचाव की तर्कसंगतता का विश्लेषण करती है। न्यायालय इन सब तत्वों का विश्लेषण करती है:
- ‘प्रतिरक्षा की तर्कसंगतता’ अर्थात अधिकार उसी समय शुरू हो जाता है, जब किसी अपराध को करने के प्रयास या धमकी से शरीर के लिए खतरे की उचित आशंका उत्पन्न होती है। अधिकार का उपयोग केवल आसन्न, वर्तमान और वास्तविक खतरे के विरुद्ध किया जाता है।
- आरोपियों को लगी चोटें
- उसकी सुरक्षा के लिए खतरे का आस पास होना
न्यायपीठ (जूरी) के अनुसार एक व्यक्ति को नेक नियति के साथ कार्य करना चाहिए और अपने अवैध कार्य को सही ठहराने के बहाने के रूप में इस अधिकार का दुरुपयोग नहीं करनी चाहिए। भारतीय कानूनी प्रणाली की तरह, अंग्रेजी कानूनी प्रणाली में निजी प्रतिरक्षा का अधिकार वर्षों से न्यायिक निर्णयों के साथ विकसित हुआ है।
बेकफोर्ड बनाम द क्वीन में, न्यायपीठ द्वारा यह कहा गया था कि:
एक प्रतिवादी को उचित बल का प्रयोग करना चाहिए अपनी या किसी दूसरे व्यक्ति की सुरक्षा के लिए या अपनी संपत्ति की सुरक्षा के लिए।
लॉर्ड मॉरिस बनाम पामर.वी.आर, के मामले में किसी हमलावर के खिलाफ खुद की प्रतिरक्षा करने वाले व्यक्ति के बारे में निम्नलिखित कहा गया है:
यदि किसी व्यक्ति पर हमला किया गया है और वह प्रतिरक्षा के लिए अपना बचाव करता है, तो यह माना जाएगा कि अपना बचाव करने वाला व्यक्ति अपनी रक्षात्मक कार्य का सटीक (एग्जैक्ट) माप नहीं कर सकता। यदि न्यायपीठ ने सोचा कि अप्रत्याशित (अनएक्सपेक्टेड) व्यथा (ऐंगग्विश) के क्षण में, जिसमें उस व्यक्ति ने अपने बचाव के लिए हमला किया था और अगर उसने केवल वही किया था जो उसे ईमानदारी और सहज रूप से आवश्यक लगा, तो यह सबसे शक्तिशाली सबूत होगा कि केवल तर्कसंगत के साथ ही वह कार्य किया गया था।”
पामर बनाम द क्वीन के मामले में, 1971 में प्रिवी काउंसिल में अपील करने पर उचित बल की अवधारणा को परिभाषित किया गया था:
आत्मरक्षा की रक्षा वह है जिसे किसी भी न्याय पीठद्वारा आसानी से समझा जा सकता है। यह एक सीधी-सादी अवधारणा है। इसमें कोई कठिन (ऐब्स्ट्रूस) कानूनी विचार शामिल नहीं है। इसकी समझ के लिए केवल सामान्य ज्ञान की आवश्यकता है। यह अच्छा कानून और अच्छी समझ दोनों है कि जिस व्यक्ति पर हमला किया जाता है वह अपना बचाव कर सकता है। यह अच्छा कानून और अच्छी समझ दोनों है जो वह कर सकता है, लेकिन वह केवल वही कर सकता है, जो यथोचित रूप से आवश्यक है। लेकिन सब कुछ विशेष तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।कुछ मामलों में यह केवल स्पष्ट रूप से संभव है कि इसमें कुछ सरल और टालने वाली प्रक्रिया करें। कुछ हमले गंभीर और खतरनाक हो सकते है और कुछ नहीं भी होते। यदि किसी व्यक्ति के ऊपर कोई छोटा हमला होता है, और वह प्रतिशोध, स्थिति की आवश्यकताओं के अनुपात कर देता है, तब उस मामले प्रतिरक्षा का कार्य बिल्कुल भी उचित नहीं होगा। यदि कोई हमला इतना गंभीर है कि वह किसी को तत्काल खतरे में डालता है तो तत्काल प्रतिरक्षा का कार्य करना आवश्यक हो सकता है।यदि किसी को किसी व्यक्ति द्वारा हमला करने की या फिर नुकसान पहुंचाने की आशंका होती है, तो वह प्रतिरक्षा के अधिकार को इस्तेमाल करके उस खतरे को हटा सकता है। यदि हमला खत्म हो गया है और किसी प्रकार का खतरा नहीं रहता है तो कोई व्यक्ति अपने बल का प्रयोग बदला या सजा के रूप में या किसी पुराने कार्य का भुगतान करने के माध्यम से ले सकता है और इस मामले में रक्षा की आवश्यकता के साथ अब कोई संबंध नहीं हो सकता।यदि न्यायपीठ ने सोचा कि अप्रत्याशित (अनएक्सपेक्टेड) पीड़ा के क्षण में एक व्यक्ति पर हमला किया गया था, उसने केवल वही किया था उसने ईमानदारी से और सहज रूप से सोचा था तो यह सबसे शक्तिशाली सबूत होगा कि केवल उचित रक्षात्मक कार्य किया गया था। “
न्यायिक दृष्टिकोण और प्रमुख मामले (ज्यूडिशियल पर्सपेक्टिव एंड लैंडमार्क केसेस)
भारतीय दंड संहिता के निर्माताओं ने निजी प्रतिरक्षा की इस अवधारणा को एक ‘अपूर्ण स्थिति (इम्पेर्फेक्ट स्टेट)’ में छोड़ दिया, यानी दंड संहिता के प्रावधानों में निजी प्रतिरक्षा शब्द को ठीक से परिभाषित नहीं किया गया, इसलिए यह आमतौर पर न्यायालयों के निर्णयों के साथ विकसित होता आ रहा है। संहिता के निर्माताओं द्वारा प्रावधानों को इस तरह से तैयार किया गया था ताकि उन प्रावधानों की न्यायपालिका द्वारा व्याख्या और विश्लेषण हो सके और नागरिकों को न्याय प्रदान करने के लिए और निष्पक्षता (फेयरनेस) के सिद्धांत ( प्रिंसिपल) को बनाए रखने के लिए विभिन्न स्थितियों और मामलों के अनुसार इन प्रावधानों को संशोधित भी किया जा सकता है। उन्होंने इसे लचीली (फ्लैक्सिबल) अवस्था में छोड़ दिया था। उन्होंने इंसाफ के रॉल्स सिद्धांत का पालन किया कि, न्यायालय इस सिद्धांत से बाधित है कि उन्हें दोनों पक्षों के दावों के बीच, निष्पक्षता से निर्णय लेना है और यही उनका नैतिक दायित्व है। यह निष्पक्षता, पात्रता (एंटाइटलमेंट) और समानता से जुड़ा होता है और यह भी कि लागत (कॉस्ट), गति (स्पीड) और शीघ्रता (एक्सपेडिएंसी) के कारण न्याय की बलि नहीं दी जा सकती। लेकिन उनकी मंशा केवल आंशिक (पार्शियली) रूप से ही पूरी हुई क्योंकि स्थानीय (लोकल) न्यायपालिका, निजी प्रतिरक्षा के अधिकार की व्याख्या करते हुए उच्च न्यायपालिका की तुलना में थोड़ा सख्त तरीके से कार्य करते है और न्यायिक व्याख्या और इरादे के बीच इस भिन्नता (इनकंसिस्टेंसी) का उल्लेख दंड संहिता की धारा 100 और 102 में किया गया है। न्यायालय ने विभिन्न ऐतिहासिक मामलों में निजी बचाव के अधिकार की व्याख्या और विश्लेषण किया है।
मुंशी राम और अन्य बनाम दिल्ली प्रशासन (मुंशी राम एंड अदर्स वर्सेज दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन)
मुंशी राम और अन्य बनाम दिल्ली प्रशासन, के मामले में हालांकि, धारा 342 सीआर.पी.सी. के तहत अपीलकर्ताओं ने अपने बयान में घटना स्थल पर मौजूद होने या किसी को चोट पहुंचाने से इनकार किया और उनकी ओर से की गई याचिका निजी प्रतिरक्षा के लिए थी। उनका मामला यह था कि, उनका संबंध जमुना (डी. डब्लू 3) से यह था कि वह 30 साल से अधिक समय से किराएदार था। उनकी किरायेदारी कभी समाप्त नहीं हुई थी। उसने विवादस्पद खेत में फसलें उगाई थी। 22 जून, 1962 को कोई वितरण (डिलीवरी) नहीं हुई थी और यदि ऐसी कोई वितरण हुई भी होगी जो कि अभियोजन पक्ष द्वारा दर्शाई गई है, तो वह कानून के अधिकार के बिना थी और उसका ऐसा कोई प्रभाव नहीं था। इसलिए, 1 जुलाई, को भी जमुना के पास संपत्ति का कब्जा रहा। घटना से एक दिन पहले, पी.डब्ल्यू 17 और 19 ने जमुना को उनके साथ आने और शांति से संपत्ति का कब्जा देने के लिए डराने-धमकाने की कोशिश की। लेकिन उन्होंने समझौता करने के सवाल को यह कहकर टाल दिया कि वह बाहर जा रहे हैं और उनके लौटने के बाद समझौते के सवाल पर विचार किया जाएगा। संपत्ति पर जबरन (फोर्सिबली) अपना अधिकार जताने की दृष्टि से शिकायतकर्ता पक्ष 1 जुलाई 1962 को एक ट्रैक्टर लेकर खेत में आया। उस समय पी.डब्लू 19 के पास बन्दूक थी जिसका अनुज्ञापत्र नहीं बना हुआ था। मेन मुद्दा यहां आकर शुरू हुआ जब, अपीलकर्ता (जो जमुना के करीबी रिश्तेदार हैं) मैदान पर गए और शिकायतकर्ता पक्ष को खेत छोड़ने के लिए कहा। जब उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया, तो उन्होंने उन्हें धक्का दिया और उसके बाद उन्हें खेत से बाहर निकालने के लिए न्यूनतम (मिनिमल) बल का प्रयोग किया। उपरोक्त तथ्यों के आधार पर अपीलार्थी (अपीलंट्स) की ओर से यह निवेदन किया गया कि वे किसी भी अपराध के दोषी नहीं हैं।
संपत्ति की प्रतिरक्षा से संबंधित कानून, आई.पी.सी. की धारा 97 में निर्धारित किया गया है, जो कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति को अधिकार है कि वह, पहले- मानव शरीर पर प्रभाव डालने वाले किसी भी अपराध के विरुद्ध, अपने स्वयं के शरीर, और किसी अन्य व्यक्ति के भी शरीर की रक्षा के लिए यह अधिकार का इस्तेमाल कर सकता है;
दूसरा- संपत्ति, चाहे चल या अचल, स्वयं की या किसी अन्य व्यक्ति की, किसी ऐसे कार्य के विरुद्ध जो चोरी, डकैती, रिष्टि या आपराधिक अतिचार की परिभाषा के अंतर्गत आने वाला अपराध है, जो धारा 99 में लिखे हुए प्रतिबंधों के अधीन है। संहिता की धारा 99 में यह कहा गया है कि यदि सार्वजनिक प्राधिकरणों के संरक्षण का सहारा लेने का समय है तो स्वयं ही उस अधिकार का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। यह धारा आगे निर्धारित करती है कि निजी प्रतिरक्षा का अधिकार किसी भी मामले में अधिक नुकसान पहुंचाने के लिए विस्तारित नहीं होता, और यह इस अधिकार के उद्देश्य के विपरीत होता है।
अभियोजन पक्ष की ओर से यह आग्रह किया गया कि अगर यह भी माना जाएगा की जमुना के पास उस खेत का कब्जा था, 22 जून, 1962 को हुई संपत्ति की वितरण को मद्देनजर (व्यू) रखते हुए, तो फिर यह माना जा सकता है कि उसके और उसके रिश्तेदारों के पास सार्वजनिक अधिकारियों की सुरक्षा का सहारा लेने के लिए पर्याप्त समय था और इसलिए अपीलकर्ता, निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का दावा नहीं कर सकते। जमुना और अपीलकर्ताओं का मामला यह था कि वे 22 जून, 1962 को कथित वितरण से अनजान थे। माना जाता है कि वितरण के समय न तो जमुना और न ही कोई अपीलकर्ता मौजूद थे और न ही लिखित प्रमाण पर ऐसा कोई सबूत है जो यह दर्शाता हो कि वे इसके बारे में जानते थे। इसके अलावा, जैसा कि पहले देखा गया था, घटना के एक दिन पहले, पी.डब्लू 17 और 19 की जमुना के साथ बातचीत इस आधार पर आगे बढ़ी कि खेत अभी भी जमुना के कब्जे में था। इन परिस्थितियों में जब शिकायतकर्ता पक्ष ने 1 जुलाई 1962 को खेत पर आक्रमण (इन्वेड) किया, तो जमुना को स्वाभाविक रूप से ही आश्चर्य हुआ होगा। निजी प्रतिरक्षा का अधिकार एक सामाजिक उद्देश्य के रूप में कार्य करता है और उस अधिकार की व्याख्या, उदारतापूर्वक (लिबरल) तरीके से करनी चाहिए। ऐसा अधिकार न केवल बुरे चरित्रों पर प्रभाव को रोकने वाला होगा बल्कि एक स्वतंत्र नागरिक में सही भावना को प्रोत्साहित करेगा। किसी व्यक्ति का संकट की स्थिति में भाग जाने से अधिक अपमानजनक (डिग्रेडिंग) कुछ नहीं है।
यूपी राज्य बनाम राम स्वरूप (स्टेट ऑफ यू.पी. वर्सेज राम स्वरूप )
यूपी राज्य बनाम राम स्वरूप के तथ्य- 7 जून 1970 को सुबह 7 बजे के करीब, गंगा राम, उत्तर प्रदेश की सब्जी मंडी, बदायूं में खरबूजे की टोकरी खरीदने गए। साहिब दत्त मल उर्फ मुनीमजी नाम के एक व्यक्ति ने, जो खरबूजो का विक्रेता था, यह कहकर बेचने से इनकार कर दिया कि यह पहले से ही किसी अन्य ग्राहक के लिए है। इससे गलत शब्दों का आदान-प्रदान हुआ और मुनीमजी ने अपने अधिकार का दावा करते हुए कहा कि वह बाजार के थेकेदार थे और उनके शब्द अंतिम थे। गंगा राम चुनौती नहीं ले सके और क्रोध में आ गए।
“सुप्रीम कोर्ट ने माना कि निजी प्रतिरक्षा का अधिकार, रक्षा का अधिकार है, प्रतिशोध का नहीं। यह उन लोगों के लिए आसन्न संकट का सामना करने के लिए उपलब्ध है जो नेकनियति में कार्य करते हैं और किसी भी मामले में, किसी ऐसे व्यक्ति को अधिकार नहीं दिया जा सकता जो किसी स्थिति को सही ठहराने के लिए,अधिकार को ढाल के रूप में इस्तेमाल करते है ।”
एक घंटे बाद गंगा राम अपने तीन बेटों राम स्वरूप, सोमी और सुभाष के साथ बाजार वापस गए। गंगा राम के पास चाकू, राम स्वरूप के पास बंदूक और दो अन्य के पास लाठियां थीं। वे आक्रामक रूप से मुनीमजी की कार की ओर बढ़े, जो आश्चर्यचकित होकर पड़ोसी कोठी में शरण लेने के लिए दौड़ पड़े। लेकिन इससे पहले कि वह पीछे हट पाता राम स्वरूप ने गोली मारकर उसकी हत्या कर दी।
मुनीमजी की हत्या के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत सभी चार साथियों पर मुकदमा चलाया गया। राम स्वरूप को सत्र न्यायालय ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। हालांकि सोमी और सुभाष को बरी (एक्विटेड) कर दिया गया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने गंगा राम और राम स्वरूप को उनके द्वारा दायर एक अपील में बरी कर दिया और सोमी और सुभाष को बरी करने के खिलाफ राज्य द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया। आरोपी का बचाव यह था कि सुबह 8 बजे जब वे बाजार पहुंचे तो मृतक मुनीमजी और गंगा राम के बीच हाथापाई हो गई और गंगा राम पर मृतक के नौकरों द्वारा लाठियों से हमला किया जा रहा था और जब वह अपने पिता के जीवन को खतरे में देख रहा था तब उसने निजी बचाव के दायीं ओर रखी बंदूक से गोलियां चलाईं।
इस मामले में 2 सबसे महत्वपूर्ण सवालों के जवाब कोर्ट के द्वारा दिए गए:
- निजी प्रतिरक्षा का गठन किन चीजों से होता है?
- क्या यहां दी गई परिस्थितियों में अभियुक्त को निजी बचाव का अधिकार है?
“आई.पी.सी. की धारा 100, शरीर की निजी रक्षा का अधिकार प्रदान करती और मृत्यु के स्वैच्छिक (वॉलंटरी) कारण को भी शामिल करती है यदि अपराध जिसमें अधिकार का प्रयोग किया गया वह, इस तरह की प्रकृति का है, कि उसमें, मौत या गंभीर चोट अन्यथा हमले की उचित रूप से आशंका होती है”।
सुप्रीम कोर्ट के अनुसार आई.पी.सी., मृत्यु के कारण के रूप में निजी प्रतिरक्षा का अधिकार प्रदान नहीं करता, यदि अपराध जो अधिकार का प्रयोग करता है, इस तरह की प्रकृति का है, जहां,मृत्यु या गंभीर चोट अन्यथा हमला, उचित रूप से आशंका का कारण बनता है । यह माना गया कि वर्तमान मामले में परिस्थितियां ऐसी नहीं थीं कि राम स्वरूप को मृतक को गोली मारने के लिए मजबूर किया गया हो। केवल हाथापाई की संभावना मृतक की हत्या को सही नहीं ठहरा सकती। अतः स्वरुप की निजी प्रतिरक्षा के अधिकार की याचिका को खारिज कर दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित सिद्धांत बहुत प्रासंगिक (रेलीवेंस) हैं और निजी प्रतिरक्षा के अधिकार की दलील के लिए यह एक मिसाल बन गया है।
दर्शन सिंह बनाम पंजाब राज्य (दर्शन सिंह वर्सेज स्टेट ऑफ पंजाब)
दर्शन सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकों के लिए निजी प्रतिरक्षा के अधिकार के लिए दिशानिर्देश (गाइडलाइन) निर्धारित किए। सुप्रीम कोर्ट ने यह देखा कि किसी व्यक्ति से कायरतापूर्ण (कवार्डली) तरीके से किसी कार्य को करने की उम्मीद नहीं की जा सकती जब उसे जीवन के लिए आसन्न खतरे का सामना करना पड़ रहा हो और उसे आत्मरक्षा में हमलावर को मारने का पूरा अधिकार हो। न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी और न्यायमूर्ति अशोक कुमार गांगुली की पीठ एक व्यक्ति, जिसने हत्या की थी उसको बरी करते हुए कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 96 से 106 को लागू करते समय विधानमंडल का स्पष्ट रूप से इरादा, नागरिकों में आत्मरक्षा की भावना जगाना और प्रोत्साहित करना था जब वह किसी गंभीर खतरे में हो । ” कानून का पालन करने वाले नागरिक को एक कायर की तरह व्यवहार करने की आवश्यकता नहीं है जब उन्हें एक आसन्न गैरकानूनी आक्रमण का सामना करना पड़ रहा हूं। जैसा कि इस अदालत ने बार-बार कहा है, खतरे का सामना करने के लिए भागने के सिवा मानव आत्मा के लिए और कुछ अपमानजनक नहीं है। इस प्रकार निजी प्रतिरक्षा के अधिकार को एक सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनाया गया है और इसे निर्धारित सीमा के भीतर बढ़ावा दिया जाना चाहिए।”
अदालत ने दस दिशानिर्देश निर्धारित किए, जहां एक नागरिक को आत्मरक्षा का अधिकार उपलब्ध है, लेकिन यह भी चेतावनी दी है कि आत्मरक्षा के भेष में, किसी को दूसरों के जीवन और संपत्तियों को खतरे में डालने या व्यक्तिगत बदला लेने के उद्देश्य से अनुमति नहीं दी जा सकती। शीर्ष अदालत ने यह कहते हुए निष्कर्ष निकाला कि एक व्यक्ति जो आसन्न खतरे में है, उससे हमले को रोकने के लिए आवश्यक बल का उपयोग करने की उम्मीद नहीं की जाती और उसके व्यवहार को “सुनहरे तराजू” पर नहीं तौला जा सकता।
न्यायालय ने निम्नलिखित 10 दिशानिर्देशों के तहत उनकी कानूनी स्थिति की घोषणा की:
- आत्म-संरक्षण एक बुनियादी (बेसिक) मानवीय प्रवृत्ति (इंस्टिंक्ट) है और सभी सभ्य देशों के आपराधिक न्यायशास्त्र (जूरिप्रूडेंस) द्वारा इसे विधिवत मान्यता प्राप्त है। सभी स्वतंत्र, लोकतांत्रिक और सभ्य देश कुछ उचित सीमाओं के भीतर निजी प्रतिरक्षा के अधिकार को मान्यता देते हैं।
- निजी प्रतिरक्षा का अधिकार केवल उसी को उपलब्ध होता है, जिसे अचानक एक आसन्न खतरे को टालने की आवश्यकता का सामना करना पड़ता है, न कि आत्म-निर्माण (सेल्फ-क्रिएशन) का।
- आत्मरक्षा के अधिकार का इस्तेमाल करने के लिए एक मात्र उचित आशंका ही काफी है। दूसरे शब्दों में, यह आवश्यक नहीं है कि निजी प्रतिरक्षा के अधिकार को जन्म देने के लिए अपराध को वास्तविकता में होना चाहिए। यह पर्याप्त है यदि अभियुक्त को यह आशंका हो कि इस तरह के अपराध पर विचार किया गया है और यदि निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग नहीं किया जाता है, तो उसके उसके खिलाफ ऐसा अपराध होने की संभावना है।
- जैसे ही उचित आशंका उत्पन्न होती है, निजी प्रतिरक्षा का अधिकार शुरू हो जाता है और यह इस तरह की आशंका की अवधि के साथ समाप्त हो जाता है।
- यह उम्मीद करना अवास्तविक (अनरियलिस्टिक) है कि हमले के तहत व्यक्ति किसी भी अंकगणितीय (अर्थमैटिक) सटीकता (इग्ज़ैक्टिटूड) के साथ अपने बचाव को कदम दर कदम संशोधित करेगा।
- निजी बचाव में अभियुक्त द्वारा प्रयुक्त बल पूरी तरह से अनुपातहीन (डिसप्रोप्रीएट) या व्यक्ति या संपत्ति की सुरक्षा के लिए आवश्यक से बहुत अधिक नहीं होना चाहिए।
- यह अच्छी तरह से तय है कि यदि अभियुक्त आत्मरक्षा की याचना नहीं करता है, तो वह इस तरह की याचिका पर विचार करने के लिए खुला है यदि वह रिकॉर्ड में दिए गए तथ्य से उत्पन्न होती है।
- अभियुक्त को उचित संदेह से परे निजी बचाव के अधिकार के अस्तित्व को साबित करने की आवश्यकता नहीं है।
- भारतीय दंड संहिता निजी रक्षा का अधिकार तभी प्रदान करती है जब, अभियुक्त द्वारा अपनी प्रतिरक्षा के लिए किया गया गैरकानूनी या गलत कार्य एक अपराध हो।
- एक व्यक्ति जो अपने जीवन या किसी अंग को खोने के आसन्न और उचित खतरे में हो, आत्मरक्षा के अभ्यास में, वह, हमलावर द्वारा हमले का प्रयास करने या सीधे धमकी देने पर उसको कोई नुकसान (यहां तक कि मौत तक) पहुंचा सकता है।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
भारत के नागरिकों को उनकी आत्मरक्षा के लिए एक हथियार के रूप में निजी प्रतिरक्षा का अधिकार दिया गया है, लेकिन इसका उपयोग अक्सर कई लोग बुरे उद्देश्यों या गैरकानूनी उद्देश्यों के लिए करते हैं। अब यह न्यायालय का कर्तव्य और उत्तरदायित्व है कि वह इस बात की जांच करे कि अधिकार का प्रयोग उचित तरीके सेकिया गया या नहीं। कई महत्वपूर्ण तत्व हैं जो न्यायालय अपना निर्णय लेते समय ध्यान में रखते हैं:
- आरोपियों को लगी चोटें
- क्या राज्य सहायता उपलब्ध थी (क्या अभियुक्त के पास सार्वजनिक अधिकारियों से संपर्क करने का समय था)
- उसकी सुरक्षा के लिए खतरे का प्रवेश
साथ ही भारतीय दंड संहिता इस अधिकार को ठीक से परिभाषित नहीं करती है और यह पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न ऐतिहासिक मामलों में न्यायालयों के निर्णयों के साथ विकसित हुई है, उदाहरण के लिए मुंशी राम और अन्य बनाम दिल्ली प्रशासन, यूपी राज्य बनाम राम स्वरूप और कई अन्य मामले। लेकिन यह भी तर्क दिया जाता है कि न्यायालयों द्वारा पहले ही किए जा चुके धाराओं के शब्दों को और अधिक स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह विधायिका की दूरदर्शिता (फोरसाइट) थी कि वह अदालतों को इतना व्यापक विवेक प्रदान करे कि वे अपने दायरे में, बहुत सी ऐसी परिस्थितियाँ को शामिल कर सकें, जो उत्पन्न हो सकती हैं और न्याय के लक्ष्य को पूरा कर सकती हैं।
इस अधिकार के प्रयोग की सीमा वास्तविक खतरे पर नहीं बल्कि खतरे की उचित आशंका पर निर्भर करती है (क्या खतरे की कोई उचित आशंका थी)। निजी प्रतिरक्षा का अधिकार तब उपलब्ध होता है जब किसी को अचानक से तत्काल खतरे को टालने और आने वाले खतरे का सामना करना पड़ता है, यह अधिकार उचित आशंका के पैदा होते ही शुरू हो जाता है और आशंका के साथ जारी रहता है। कुछ परिस्थितियों में एक अभियुक्त द्वारा अधिकार बढ़ाया जा सकता है, लेकिन केवल एक निश्चित सीमा तक, जो निजी बचाव के अधिकार को अमान्य नहीं करेगा अर्थात केवल उतनी मात्रा में बल का उपयोग किया जाना चाहिए जो खतरे को दूर करने या हमले का मुकाबला करने के लिए आवश्यक हो।