नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट, 1881 की धारा 138 की प्रकृति

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Negotiable Instrument Act
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यह लेख Swati Mishra द्वारा लिखा गया है, जो लॉसिखो से एडवांस्ड कॉन्ट्रैक्ट ड्राफ्टिंग, नेगोशिएशन और डिस्प्यूट रेजोल्यूशन में डिप्लोमा कर रही हैं। इस लेख में नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 138 की प्रकृति के बारे में चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Archana Chaudhary द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट पहली बार 1866 में तैयार किया गया था और 1881 में यह लागू हुआ था। यह मूल रूप से एक कॉलोनियल कानून है, जो अभी भी व्यापक रूप से अभी तक प्रैक्टिस में है। एक सदी के बाद, चैप्टर XVII, धारा 138 से 142 को बैंकिंग, पब्लिक फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन और नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट लॉ (अमेंडमेंट) एक्ट, 1988, (1988 कर एक्ट 66) की धारा 4 के तहत एक्ट में शामिल किया गया था। एक्ट की धारा 138 चेक के अनादर (डिसऑनर ऑफ चेक) के लिए दंड से संबंधित है। चेक एक स्पेसिफाइड बैंकर पर ड्रॉन एक नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट है और मांग पर अन्यथा देय (पेबल) होने के लिए व्यक्त नहीं किया जाता है। एनआई एक्ट की धारा 6 यह स्पष्ट करती है कि चेक की इस परिभाषा में काटे गए चेक (ट्रंकेटेड चेक) की इलेक्ट्रॉनिक छवि और इलेक्ट्रॉनिक रूप में चेक शामिल है। चेक के अनादर के संबंध में, आरोपी के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही हाल ही में एक वृद्धि (एडिशन) है; इससे पहले, ड्रॉई के पास केवल सिविल और वैकल्पिक विवाद समाधान (अल्टरनेट डिस्प्यूट रेजोल्यूशन) उपलब्ध थे। ड्रॉई के पास अभी भी दोनों उपाय (रेमेडीज) उपलब्ध हैं। सिविल उपचार नुकसान की वसूली (रिकवरी ऑफ डेमेजेस) के लिए एक सिविल मुकदमा दायर करना है और एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत उपलब्ध आपराधिक उपाय, सिविल मुकदमा करने से नहीं रोकता है। यह इस लेख के उद्देश्य को भी शामिल करता है।

नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 138

नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 13 नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट को “एक वचन पत्र (प्रोमिसरी नोट), विनिमय के बिल (बिल ऑफ एक्सचेंज) या चेक या तो आदेश या बेअरर को देय” के रूप में परिभाषित करती है। एक नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक प्रकार का दस्तावेज है जो अपने बेअरर को डिमांड पर या किसी भी भविष्य की तारीख में देय राशि की गारंटी देता है। एनआई एक्ट की धारा 138 एक दंडात्मक प्रावधान (प्रोविजन) है जो चेक के अनादर की सजा से संबंधित है। चेक का अनादर करना अपने आप में कोई अपराध नहीं है बल्कि अपराध बनने के लिए इसमें निम्न सामग्री (इंग्रेडिएंट) होनी चाहिए:

  1. एक ड्रॉअर होना चाहिए जो चेक को ड्रॉ करता हो।
  2. ड्रॉन चेक किसी दायित्व के निर्वहन (डिस्चार्ज ऑफ लायबिलिटी) में होना चाहिए।
  3. ड्रॉई बैंक को चेक की प्रस्तुति (प्रेजेंटेशन)।
  4. अपर्याप्त धनराशि (इंसफिशियंट फंड्स) के कारण बैंक द्वारा भुगतान न किए गए चेक को वापस कर दिया गया।
  5. चेक उस तारीख से 6 महीने के अंदर प्रस्तुत किया जाना चाहिए जिस पर इसे ड्राॅन किया गया या इसकी वैधता की अवधि के अंदर, जो भी पहले हो।
  6. बैंक से वापसी का ज्ञापन (मेमो) प्राप्त होने के 30 दिनों के अंदर उक्त (सेड) धनराशि के भुगतान की मांग के लिए एक नोटिस दिया जाना चाहिए।
  7. ड्रॉअर उक्त नोटिस की प्राप्ति के 15 दिनों के अंदर उक्त धनराशि का भुगतान करने में विफल होना चाहिए।

यहां यह ध्यान देने योग्य है कि यदि ड्रॉअर 15 दिनों के अंदर कर्ज (डेट) का भुगतान करता है, तो कोई अपराध नहीं होगा। अपराध एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत तब किया जाता है, जब वह 15 दिनों के अंदर कर्ज का भुगतान करने में विफल रहता है और ऐसा व्यक्ति कारावास से, जिसकी अवधि 2 वर्ष तक की हो सकती है, या जुर्माने से, जो चेक की राशि के दुगुने तक बढ़ाया जा सकता है, या दोनों से दंडनीय होगा।

एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत प्रावधान को समझने के लिए समय सीमा को समझना बहुत जरूरी है, जिसे नीचे दी गई टेबल से अच्छी तरह समझा जा सकता है:

एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध के लिए समय सीमा

              जरूरी चीज़ें             सीमा की अवधि                   जजमेंट
बैंक में चेक की प्रस्तुति चेक ड्रॉन या चेक की वैधता की तिथि से 3 महीने के अंदर, जो भी पहले हो अंश चुघ बनाम प्रदीप गुप्ता, 2020 
नोटिस देकर बकाया राशि के भुगतान की मांग बैंक से मेमो प्राप्त होने के 30 दिन बोदल लाल बनाम कृष्णा कुमा, 2019
ड्रॉअर द्वारा कर्ज का भुगतान  नोटिस प्राप्त होने के 15 दिनों के अंदर के भास्करन बनाम शंकरन
शिकायत दर्ज करना नोटिस की अवधि समाप्त होने के 15वें दिन यानी 15वें दिन को छोड़कर, अगले दिन के 30 दिनों के अंदर साकेत इंडिया लिमिटेड बनाम इंडियन सिक्योरिटीज लिमिटेड

चेक के अनादर से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण पॉइंट्स

  • समयपूर्व शिकायत की स्थिति (स्टेटस ऑफ प्रीमेच्योर कंप्लेंट)

योगेंद्र प्रताप सिंह बनाम सावित्री पांडे‘ में, माननीय सुप्रीम कोर्ट ने माना कि 15 दिनों की अवधि बीत जाने तक कोई भी कार्रवाई का कारण (कॉज ऑफ एक्शन) उत्पन्न नहीं हुआ है, इसलिए कोर्ट को 15 दिनों की समाप्ति से पहले की गई शिकायत पर कॉग्नीजेंस लेने से रोक दिया जाता है।

  • चेक्स की क्रमिक (सक्सेसिव) प्रस्तुति 

एमएसआर लेदर्स बनाम एस. पलानीअप्पन‘ में, यह देखा गया था कि पेई चेक को उसकी ड्रॉन तारीख से 3 महीने की समाप्ति से पहले या उसके या इसकी वैधता के अंदर, जो भी पहले हो, उसकी नकदीकरण (एनकैशमेंट) के लिए कई बार इसे प्रस्तुत कर सकता है।

  • शिकायत कौन दर्ज कर सकता है? 

एक्ट की धारा 142 में यह आदेश दिया गया है कि पेई या होल्डर द्वारा चेक के दौरान शिकायत दर्ज की जानी चाहिए। जहां एक पेई एक प्राकृतिक व्यक्ति है, वह एक शिकायत दर्ज कर सकता है और जब पेई एक फर्म या कंपनी या एक कानूनी व्यक्ति है, तो इसका प्रतिनिधित्व (रेप्रेज़ेंटशन), एक प्राकृतिक व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिए। [शंकर फाइनेंस एंड इन्वेस्टमेंट बनाम स्टेट ऑफ आंध्र प्रदेश और अन्य]

  • शिकायतकर्ता की मौत

चांद देवी डागा और मंजू के. हुमातानी और अन्य‘ में, यह माना गया कि शिकायतकर्ता के कानूनी उत्तराधिकारी (लीगल हेयर्स), सीआरपीसी की धारा 302 के तहत आवेदन (एप्लीकेशन) कर सकते हैं।

  • धन की कमी

लक्ष्मी डाईकेम बनाम स्टेट ऑफ गुजरात और अन्य‘ में, यह माना गया था कि धन की कमी में “खाता बंद”, “भुगतान रोक दिया गया”, “ड्रॉअर को संदर्भित (रेफर)” शामिल है।

  • समय वर्जित कर्ज (टाइम बार्ड डेट)

समय वर्जित कर्ज, कानूनी रूप से लागू करने योग्य नहीं है। [रामकृष्णन बनाम पार्थसारथी]

अर्ध-आपराधिक (क्वॉसी-क्रिमिनल) क्या है?

सिविल मुकदमे में, न्यायाधीश केवल हर्जाने (डैमेज) के भुगतान का आदेश देते है। यह सराहना की जानी चाहिए कि भारतीय नागरिक कानून दंडात्मक (प्यूनिटिव) हर्जाने को मान्यता (रिकॉग्नाइज) नहीं देता है। सिविल मुकदमों में प्रतिवादी (डिफेंडेंट) के पास दो विकल्प होते हैं या तो हर्जाना दे या यदि उसके पास पैसे की कमी है, तो लेनदारों (क्रेडिटर्स) को भुगतान करने के लिए कोर्ट द्वारा उसकी संपत्ति को कुर्क (अटैच) और नीलाम (ऑक्शन्ड) किया जा सकता है। यदि कुर्क की गई संपत्ति कर्ज का भुगतान करने के लिए पर्याप्त नहीं है, तब भी प्रतिवादी को कोड ऑफ सिविल प्रोसिजर के तहत देनदार (डेब्टर) की जेल में भेजा जा सकता है। ‘जॉली जॉर्ज वर्गीज बनाम बैंक ऑफ कोचीन‘ में, सुप्रीम कोर्ट ने देनदार की जेल के प्रावधान को रद्द करने से इनकार कर दिया।

जब एक सिविल मुकदमे या इक्विटी कार्यवाही में आपराधिक कार्यवाही (क्रिमिनल प्रोसीडिंग) के कुछ, लेकिन सभी तत्व (एलिमेंट) नहीं होते हैं तो उसे अर्ध-आपराधिक कहा जाता है। इस तरह के मुकदमे में, कोर्ट एक आरोपी को उसके कार्यों या चूक (ऑमिशन) के लिए दंडित कर सकता है जैसे कि यह एक आपराधिक मामला था। अर्ध-आपराधिक कार्यवाही में कानून या अध्यादेशों (ऑर्डिनेंस) के उल्लंघन से संबंधित कार्यवाही, पारिवारिक कोर्ट की कार्यवाही, मोटर वाहन कार्रवाई, नियामक (रेगुलेटरी) अपराध, मनोरोग संबंधी मामले (साइकेट्रिक मैटर्स) और इक्विटी कार्यवाही में कोर्ट कार्यवाही की अवमानना, रिट आदि शामिल है। अर्ध-आपराधिक कार्यवाही में, देनदार की जेल के बजाय नियमित (रेगुलर) आपराधिक जेल का प्रावधान है। 

एनआई एक्ट की धारा 138 की अर्ध-आपराधिक प्रकृति

हाल ही में पी मोहनराज बनाम शाह ब्रदर्स में, जस्टिस आरएफ नरीमन, नवीन सिन्हा और केएम जोसेफ की एक बेंच ने इस सवाल पर फैसला करते हुए, कि क्या कॉरपोरेट देनदारों के खिलाफ आईबीसी की धारा 14 के तहत एनआई एक्ट की धारा 138 की कार्यवाही को स्थागित (बार) किया जा सकता है, टिप्पणी की कि एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत कार्यवाही को “क्रिमिनल वुल्फ क्लॉथिंग” में “सिविल शीप” कहा जा सकता है। एडिशनल सॉलिसिटर जनरल श्री लेखी, ने तर्क दिया कि धारा 138 के तहत कार्यवाही को ‘अर्ध-आपराधिक कार्यवाही’ के रूप में वर्णित न करके केवल ‘आपराधिक कार्यवाही’ के रूप में वर्णित (डिस्क्राइब) किया जा सकता है। कोर्ट ने इस तर्क को खारिज कर दिया और इसे ‘गलत नाम (मिसनोमर)’ कहा। बेंच ने नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत कार्यवाही की वास्तविक प्रकृति का पता लगाने की मांग की। एनआई एक्ट की धारा 138 की प्रकृति का पता लगाते हुए कोर्ट द्वारा निम्नलिखित ऑब्जर्वेशंस की गई थी:

  1. प्रावधान में दंडात्मक दंड और जुर्माना दोनों शामिल हैं जो शिकायतकर्ता को डिसहॉनर्ड चेक की राशि, उसके ब्याज (इंटरेस्ट) और कार्यवाही की लागत की क्षतिपूर्ति (कंपेंसेट) के लिए चेक की राशि से दोगुना है। कोर्ट ने कहा कि बाउंस चेक का भुगतान सुनिश्चित करने के लिए यह एक मिश्रित (हाइब्रिड) प्रावधान है, यदि यह नागरिक कानून में अन्यथा लागू करने योग्य है।
  2. प्रावधान का उद्देश्य ड्रॉअर को नोटिस देने का वैधानिक (स्टेट्यूटरी) प्रावधान प्रदान करके, शिकायतकर्ता को चेक की राशि का भुगतान करने की अनुमति देना है।
  3. एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत आपराधिक मनःस्थिति (मेंस रीआ) का अभाव है।
  4. एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत कार्यवाही आईबीसी की धारा 14 के दायरे (एंबिट) में आती है।

एनआई एक्ट की धारा 138 की अर्ध-आपराधिक प्रकृति को दो तरह से बेहतर समझा जा सकता है। एक, 2 साल तक के कारावास की दंडात्मक सजा का समावेश (इंक्लूजन) और जुर्माना जो चेक की राशि से दोगुना हो सकता है और दूसरा ऐसे मामलों से निपटने के लिए कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिजर को अपनाना।

1. नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत अपराधों के लिए सजा

नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराए गए व्यक्ति को कारावास से दंडित किया जाएगा, जिसे 2 साल तक बढ़ाया जा सकता है और जुर्माने से, जिसे चेक की राशि के दुगुने तक बढ़ाया जा सकता है, या दोनों से दंडित किया जा सकता है। देनदारियों (लायबिलिटी) के आसान निपटान के लिए चेक की क्रेडिबिलिटी बढ़ाने के उद्देश्य से धारा 138 से 142 तक के प्रावधान पेश किए गए थे। हालांकि, एक्ट मुख्य रूप से एक नागरिक कानून है, लेकिन किसी भी लेनदेन (ट्रांजेक्शन) के सुचारू कामकाज को सुनिश्चित (इंश्योर) करने के लिए दंडात्मक दंड जोड़ा गया था।

यहां ध्यान देने योग्य यह है कि सीआरपीसी की धारा 29 मजिस्ट्रेट को सजा सुनाने की शक्ति से संबंधित है। इसलिए, उदाहरण के लिए, फर्स्ट क्लास ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट 10000/- से अधिक का जुर्माना नहीं लगा सकते। 2002 के अमेंडमेंट एक्ट संख्या 55 द्वारा इस कठिनाई को दूर किया गया, जिससे एनआई एक्ट की धारा 143(1) इंसर्ट की गई और बाद में मजिस्ट्रेट्स को उनकी सीमा से अधिक जुर्माना लगाने का अधिकार दिया, जो चेक की राशि से दोगुना था।

2. कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिजर का पालन करता है

  • अपराध की कंपाउंडिंग 

एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध एनआई एक्ट की धारा 147 के तहत कंपाउंडेबल हैं। दामोदर एस. प्रभु बनाम सैयद बाबालाल एच के मामले में, कोर्ट ने एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत अपराधों के कंपाउंडिंग के संबंध में कुछ दिशानिर्देश (गाइडलाइन) निर्धारित किए। यह हैं:

  1. समन से आरोपी को यह स्पष्ट होना चाहिए कि वह मामले की पहली या दूसरी सुनवाई में कंपाउंडिंग अपराध के लिए आवेदन (एप्लीकेशन) कर सकता है।
  2. यदि कंपाउंडिंग के लिए आवेदन बाद के चरण (सब्सिक्वेंट स्टेज) में किया जाता है, तो इस शर्त पर अनुमति दी जा सकती है कि आरोपी को कानूनी सेवा प्राधिकरण (लीगल सर्विसेस अथॉरिटी), या ऐसे प्राधिकरण, जैसा कि कोर्ट उचित समझे के पास जमा की जाने वाली कंपाउंडिंग की शर्त के रूप में चेक राशि का 10% भुगतान करना होगा।
  3. यदि ऐसा आवेदन सेशन या हाई कोर्ट से पहले रिविजन या अपील में किया जाता है, तो इस शर्त पर अनुमति दी जा सकती है कि आरोपी को चेक की राशि का 15% खर्च के रूप में देना होगा। 
  4. यदि आवेदन सुप्रीम कोर्ट के समझ किया जाता है, तो यह आंकड़ा चेक राशि के 20% तक बढ़ जाएगा। 

“क्या होगा यदि शिकायतकर्ता एनआई एक्ट की धारा 147 के तहत अपराध की कंपाउंडिंग या सीआरपीसी की धारा 257 के तहत शिकायत वापस लेने से इनकार करता है?” इसका उत्तर सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘एम/एस मीटर्स एंड इंस्ट्रूमेंट्स प्राइवेट लिमिटेड और अन्य बनाम कंचन मेहता’  [2017 की आपराधिक अपील संख्या 1731] में दिए गए निर्णय में पाया जा सकता है। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्धारित किया कि, कोर्ट संतुष्ट होने पर कि शिकायतकर्ता को विधिवत मुआवजा (ड्यूली कंपेंसेशन) दिया गया है और यह न्याय के हित (इंटरेस्ट ऑफ जस्टिस) में है, वह अपने विवेक (डिस्क्रीशन) से कार्यवाही को बंद कर सकता है और सहमति के अभाव में आरोपी को मुक्त (डिस्चार्ज) कर सकता है।

  • एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत अपराधों का संक्षेप में विचारण

एनआई एक्ट की धारा 143 में कहा गया है कि एनआई एक्ट के अध्याय XVII के तहत अपराधों जिसमें उन्हें लगता है कि वह 1 वर्ष से अधिक की सजा और 5000 रुपये से अधिक नही पास करने जा रहे है तो उसपर संक्षेप में विचार (ट्राइड सम्मरिली) किया जाएगा। जेवी बहुरानी बनाम स्टेट ऑफ गुजरात में, सुप्रीम कोर्ट ने देखा कि यदि मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि मामले की प्रकृति के लिए 1 वर्ष से अधिक की सजा की आवश्यकता है या किसी अन्य कारण से, तो मुकदमे को दिन-प्रतिदिन के आधार पर चलाया जाना चाहिए क्योंकि इसे संक्षेप में विचार करना अवांछनीय (अनडिजायरेबल) है।  

  • क्रिमिनल प्रोसिजर कोड, 1973 की धारा 319 की एप्लीकेबिलिटी

सीआरपीसी, 1973 की धारा 319 में प्रावधान है कि ट्रायल में सबूतों से यह प्रतीत होता है कि जिस व्यक्ति पर आरोप नहीं लगाया जा रहा है, उसने अपराध किया है, ऐसे व्यक्ति के खिलाफ कोर्ट आगे बढ़ सकता है। एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध के लिए सीआरपीसी की धारा 319 की एप्लीकेबिलिटी के लिए कोई एक्सेप्शन नहीं है। एन. हरिहर कृष्णन बनाम जे. थॉमस में, सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्धारित किया कि धारा 138 के तहत अपराध व्यक्ति-विशिष्ट (स्पेसिफिक) है इसलिए जिस व्यक्ति पर अब तक आरोप नहीं लगाया गया है, उसके खिलाफ उसी तरह से कॉग्नीजेंस लिया जाना चाहिए जिस तरह से पहले आरोपी के खिलाफ कॉग्नीजेंस लिया गया था। नए जोड़े गए आरोपी के लिए धारा 138 एनआई एक्ट के प्रोविजो में निर्धारित शर्तों को पूरा करने का भार शिकायतकर्ता पर होगा। एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध करने वाली अनिवार्यताओं (एसेंशियल) को प्रॉसिक्यूशन शुरू करने के लिए दरकिनार (बाईपास) नहीं किया जा सकता है।

  • जुर्माना के रूप में वसूली योग्य मुआवजा (कंपेंसेशन टू बी रिकवरेबल ऐस फाइन)

सीआरपीसी की धारा 431 में प्रावधान है कि जुर्माने के अलावा कोई भी पैसा, जिसकी वसूली का तरीका स्पष्ट रूप से प्रदान नहीं किया गया है, कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिजर के तहत कोर्ट द्वारा आदेशित (आर्डर), जुर्माने के रूप में वसूली योग्य होगा। साथ ही, इंडियन पीनल कोड की धारा 64 में कहा गया है, कि कोर्ट भुगतान न करने पर सजा देने के लिए सक्षम (कंपटेंट) है [कुमारन बनाम स्टेट ऑफ केरल  2017, आर. मोहन बनाम ए.के. विजया कुमार, 2012]। कोर्ट द्वारा एन.आई. एक्ट की धारा 138, के तहत मुआवजा जुर्माने के रूप में वसूली योग्य है।

जब कोर्ट द्वारा मुआवजे का आदेश पास किया जाता है, तो मुआवजे की वसूली अपनाई (पर्स्यू) की जानी चाहिए। विजयन बनाम सदानंदन के मामले में, कोर्ट ने माना कि सीआरपीसी की धारा 357 (3) और 431 के प्रावधान आईपीसी की धारा 64 के साथ पढ़े जाते हैं, कोर्ट को उसके भुगतान का आदेश देते समय मुआवजे का भुगतान न करने के मामले में एक डिफ़ॉल्ट सजा शामिल करने का अधिकार देता है।

हाल ही में कुमारन बनाम स्टेट ऑफ केरल, 2017 [7 एससीसी 471] में, कोर्ट ने माना कि भले ही दोषी को अभी तक डिफ़ॉल्ट सजा का सामना करना पड़ा है, मुआवजे की वसूली उसी तरीके से की जाएगी जैसे कि मुआवजा धारा 421(1) के तहत दिए गए तरीके से वसूली योग्य होगा। हालाँकि, यह किसी विशेष कारण को दर्ज करने की आवश्यकता के बिना होगा।

क्या दोषसिद्धि से ड्रॉअर के नागरिक दायित्व (सिविल लायबिलिटी) समाप्त हो जाते हैं?

यदि किसी व्यक्ति का कोई कार्य उसे नागरिक और आपराधिक दोनों तरह के दायित्व के लिए एक्सपोज करता है, तो वह किसी से बच नहीं सकता है, उसे दोनों ही भुगतने होंगे। इसलिए, एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत आपराधिक कार्यवाही में दोषसिद्धि से किसी व्यक्ति के नागरिक दायित्व समाप्त नहीं होगी।

गोल्डन मेन्थॉल एक्सपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड बनाम शेबा व्हील्स (पी) लिमिटेड, में गुवाहाटी हाई कोर्ट ने माना कि एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत आपराधिक कार्यवाही चेक के अनादर पर धन की वसूली के लिए सिविल मुकदमा के विकल्प के रूप में नहीं लिया जा सकता है। साथ ही धारा 138 एनआई एक्ट के तहत दोषसिद्धि कभी भी चेक के ड्रॉअर को नागरिक दायित्व से मुक्त नहीं करेगा।

विभिन्न देशों में चेक के अनादर के लिए कानूनी दायित्व

चेक बाउंस के मामलों में विभिन्न देशों द्वारा अपनाए गए विभिन्न तरीकों का विश्लेषण (एनालाइज) करना महत्वपूर्ण है। पांच देशों में न्यायिक प्रवृत्ति (ट्रेंड) इस प्रकार है:

1. ऑस्ट्रेलिया

ऑस्ट्रेलियन कानूनी प्रणाली (सिस्टम) ने चेक बाउंस के मामलों से निपटने के लिए चेक एक्ट 1986 पेश किया, जिसमें नागरिक उपचार निर्धारित (प्रेस्क्राइब्ड) थे। ड्रॉई के पास हर्जाने की वसूली (रिकवरी ऑफ डैमेज) के लिए सिविल मुकदमा दायर करने का विकल्प होता है।

2. यूनाइटेड किंगडम

यूके में भी बिल ऑफ एक्सचेंज एक्ट, 1882 के तहत एक नागरिक उपचार उपलब्ध है और पेई को सिविल मुकदमा दायर करने का विकल्प देता है।

3. सिंगापुर

कोई आपराधिक दायित्व नहीं लगाया जाता है, केवल नागरिक दायित्व को ड्रॉअर पर लगाया जाता है।

4. फ्रांस

इसका एक मास्टर डेटाबेस है, जिसे फिचियर सेंट्रल देस चेक (एफसीसी) कहा जाता है, जो एक से अधिक डिसऑनर्ड चेक जारी करने वाले व्यक्तियों के डेटा को स्टोर करता है और बाद में उन्हें अगले 5 साल के लिए चेक जारी करने से प्रतिबंधित कर देता है।

5. यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका

भारत की तरह, यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका में भी सिविल और आपराधिक दोनों तरह के दायित्व लागू करने का प्रावधान है। जुर्माना जारी किए गए चेक की राशि से दोगुना या तीन गुना तक हो सकता है।

डिसऑनर ऑफ चेक का अपराधीकरण

हमने देखा कि दुनिया के अधिकांश देशों ने चेक के अनादर को एक सिविल रोंग माना है। भारत में, एनआई एक्ट की धारा 138 कानूनी व्यवस्था के लिए एक शर्मिंदगी है जहां एक व्यक्ति को कर्ज न चुकाने पर जेल भेजा जाता है। भारत, इंटरनेशनल कन्वेनेंट ऑन सिविल एंड पॉलिटिकल राइट्स की एक पार्टी है जो किसी व्यक्ति को उसके कॉन्ट्रैक्ट्यूअल दायित्वों का निर्वहन (डिस्चार्ज) करने में विफल रहने पर जेल भेजने से फॉरबिड करता है। 8 जून 2020 को वित्त मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ फाइनेंस) ने कई आर्थिक (इकॉनोमिक) अपराधों को अपराध से मुक्त करने का प्रस्ताव रखा, जिनमें से एक एनआई एक्ट की धारा 138 है। इसे एक मुश्किल (टीडियस) कानूनी प्रणाली को सुधारने और व्यवसाय (बिजनेस) करने में आसानी प्रदान करने के प्रयास के रूप में देखा जा सकता है। 

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

एनआई एक्ट की भावना यह है कि यह मुख्य रूप से एक नागरिक कानून है, लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिए कि ड्रॉअर अपने दायित्व का निर्वहन करता है, इसमें आपराधिक कानून का एक रंग जोड़ा गया है, जो इसे अर्ध-आपराधिक कानून बनाता है। चेक की राशि का भुगतान करने के लिए ड्रॉअर की ओर से विफलता उसे एक्ट के तहत प्रदान किए गए दंडात्मक प्रावधान के लिए एक्सपोज कर सकती है। ईमानदार ड्रॉअर की सुरक्षा और उसे अपनी चूक को सुधारने का मौका देने के लिए ‘नोटिस’ से संबंधित एक प्रावधान जोड़ा गया है। इससे पता चलता है कि विधायिका (लेजिस्लेचर) का प्राथमिक उद्देश्य इसे आपराधिक कानून बनाना नहीं था। जब ड्रॉअर ‘नोटिस की प्राप्ति’ के 15 दिनों के अंदर अपने दायित्व का निर्वहन करने में विफल रहता है, तो यह शिकायतकर्ता को शिकायत दर्ज करने के लिए कार्रवाई का कारण देता है।

पी मोहनराज वी. शाह ब्रदर्स में, कोर्ट ने माना कि एनआई एक्ट की धारा 138 के प्रावधान का प्राथमिक उद्देश्य गलत करने वाले को दंडित करना नहीं बल्कि पीड़ित को मुआवजा देना है। माननीय कोर्ट ने सीआईटी बनाम ईश्वरलाल भगवानदास के मामले का उल्लेख करते हुए कहा कि यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक सिविल कार्यवाही, मुकदमा दायर करने के साथ ही शुरू हो और डिक्री के एक्सिक्यूशन में समाप्त हो। यहां समझने योग्य यह है कि एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत अपराधों से निपटने के दौरान अपनाई जाने वाली प्रक्रियाएं कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिजर में वर्णित प्रक्रियाएं (प्रोसिजर) हैं। हालांकि विधायिका ने चेक बाउंस को अपराध से मुक्त करने के प्रयास शुरू कर दिए हैं, फिर भी यह एक अर्ध-आपराधिक अपराध है।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

 

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