यह लेख Avni Singhania ने लिखा है। इस लेख में लेखक, मूर्ति विसर्जन के कारण, पर्यावरण पर हो रहे बुरे प्रभाव के बारे में बात करती हैं। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
“गणपति बप्पा, मोरया”। ये शब्द हर मुंबईकार के दिल में खुशी लाते हैं। मुंबई को कई चीजों से जोड़ा जा सकता है, लेकिन मैं इसे गणपति महोत्सव से जोड़ती हूं। यह खुशी और एकजुटता (टुगेदरनेस) का त्योहार है जो अगस्त/सितंबर महीने के मध्य में मनाया जाता है। मैं बचपन में पंडालों में जाती थी। हर साल पंडाल बड़ा और भव्य होता जाता था। विसर्जन के दिन यह नजारा और भव्य हो जाता है। जिस दिन गणपति लाए जाते हैं, पूरा शहर जश्न मनाता है लेकिन जब उन्हे ले जाया जाता है, तो पूरा शहर शोक मनाता है। इसलिए नहीं कि त्योहार खत्म हो गया है, बल्कि अगले दिन आने वाले किनारे पर टूटे टुकड़ों की वजह से। हम जिस भगवान की पूजा करते हैं, उसे इस तरह बिखरते देखना वाकई दिल दहला देने वाला है। साथ ही इससे पर्यावरण को होने वाले नुकसान के बारे में सभी जानते हैं।
विसर्जन के बाद क्या होता है?
भगवद गीता (अध्याय 9 श्लोक 26) में कहा गया है: “पत्रम पुष्पम फलं तोयं, यो मे भक्ति प्रयाचचति तदहं भक्त युपहृतं अस्नामि प्रयातत्मनाः” जिसका शाब्दिक अर्थ है, जो मुझे (भगवान को) भक्ति के साथ कुछ भी अर्पित (ऑफर) करता है; एक पत्ता, एक फूल, एक फल या पानी, मैं इसे शुद्ध हृदय की पवित्र भेंट के रूप में स्वीकार करता हूं।
मैंने भगवद गीता का यह श्लोक यह समझाने के लिए लिखा, कि हम उस दिन जो करते हैं वह, वह नहीं है जो भगवान चाहते थे। भगवद गीता हमें पर्यावरण के अनुकूल (एनवायरनमेंट फ्रेंडली) त्योहार मनाने के लिए कहती है। हालाँकि, हमने इसे पंडालों की प्रतियोगिता में बदल दिया है, जिसका उद्देश्य एक को दूसरे से अधिक भव्य बनाना है। परंपरागत रूप से, भगवान की मूर्तियों को मिट्टी से बनाया जाता था और हल्दी जैसे प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता था और नारियल, दही, दूध और पानी जैसी प्राकृतिक चीजों से पूजा की जाती थी। हालाँकि, आज वे प्लास्टर ऑफ पेरिस (“पीओपी”), मिट्टी, कपड़े, लोहे की छड़ (रॉड), बांस से बनते हैं और उन्हे विभिन्न पेंट जैसे वार्निश, वॉटरकलर, आदि से सजाए गए हैं। इससे जलाशयों (वॉटर बॉडीज) में प्रदूषण का स्तर (लेवल) बढ़ गया है। ऐसे कई अध्ययन (स्टडीज) हैं जो जलाशयों पर मूर्ति विसर्जन के प्रभाव को दर्शाते हैं, इस लेख में इन में से कुछ पर चर्चा की जाएगी।
आंकड़े (डेटा)
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड) (“सी.पी.सी.बी.”) ने झीलों पर गणेश प्रतिमाओं के विसर्जन के प्रभाव पर एक अध्ययन किया है और उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि इस कारण, पानी की गुणवत्ता (क्वालिटी) कम हो गई है, एसिड की मात्रा बढ़ गई है, टी.डी.एस. (कुल घुलित ठोस पदार्थ (टोटल डिसोल्वेड सॉलिड)) में 100% की वृद्धि हुई है और ऑक्सीजन का स्तर कम हो गया है। पानी की संरचना में भी, लोहे और तांबे जैसी भारी धातुओं (मेटल) की 10 गुना वृद्धि हुई थी।
2014 में, मुंबई की झीलों पर एक और अध्ययन किया गया था। अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला गया कि पानी के भौतिक-रासायनिक (फिजिकोकेमिकल) गुणों में महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं। विसर्जन से पहले पानी का पी.एच. 6.7-6.8 था, लेकिन विसर्जन के बाद यह 7.5 हो गया है। झीलों का तापमान भी बढ़ गया है। इससे पानी में ऑक्सीजन का स्तर प्रभावित हुआ। पूर्व विसर्जन के दौरान, घुलित (डिस्सोल्व्ड) ऑक्सीजन बहुत कम (0.4-0.5 मिलीग्राम/लीटर) देखी गई है। यह विसर्जन के बाद (1.4-2.5 मिलीग्राम/लीटर) के दौरान तुलनात्मक रूप से अधिक देखा गया, जो जीवों और वन्य जीवों के लिए उपयुक्त नहीं है।
एक अन्य अध्ययन ने पूरे भारत में जलाशयों के बारे में एक विश्लेषण किया, जिसमे विसर्जन से पहले और विसर्जन के बाद की अवधि के लिए जलाशयों पर प्रभाव पर चर्चा की गई। देश भर के सभी जलाशयों के लिए, अध्ययन ने निष्कर्ष निकाला कि इसने जल संरचना पर बहुत बुरा प्रभाव डाला।
2018 में हुगली नदी पर, समुद्री विज्ञान विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ मरीन साइंस) के एक अन्य अध्ययन ने यह भी निष्कर्ष निकाला कि मूर्ति विसर्जन का जलाशयों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। इसकी पी.एच. वैल्यू बदल गई है, यह विसर्जन से पहले क्षारीय (एल्कलाइन) थी और नदी में डूबे सिंथेटिक सामग्री के कारण यह विसर्जन के बाद अम्लीय (एसिडिक) हो गई है। पत्तियों और फूलों के विशाल बायोमास, अप्रयुक्त सामग्री (अनयूज़्ड मैटेरियल) और विभिन्न अकार्बनिक पदार्थों (इनोर्गेनिक सब्सटेंस) के कारण भी इसके मैलापन में अचानक वृद्धि देखी गई है। पानी में पैदा होने वाले सूक्ष्म पौधो (फाइप्लैंकटन) पर भी काफी बुरा प्रभाव देखा गया। इसने इन पौधों की गुणात्मक (क्विलिटेटिव) और मात्रात्मक (क्वांटिटेटिव) दोनों विशेषताओं को प्रभावित किया है।
यह स्पष्ट है कि मूर्ति विसर्जन से जलाशयों में बहुत अधिक प्रदूषण होता है, तो इसके बारे में कुछ क्यों नहीं किया जा रहा है?
न्यायपालिका की भूमिका (रोल ऑफ़ ज्यूडिशियरी)
2003 में, जनहित मंच और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र और अन्य के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका (पी.आई.एल.) दायर की गई थी। इस मामले पर 2008 में अदालत ने फैसला सुनाया था। कई राहतें लाने के लिए याचिका दायर की गई थी, ताकि महाराष्ट्र राज्य में जल प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सके। इन राहतो में से एक मूर्ति विसर्जन की प्रथा पर प्रतिबंध (बैन) लगाना भी था। याचिकाकर्ता (पिटीशनर) ने तर्क दिया कि, अकेले सिर्फ मुंबई में ही, 1,50,000 मूर्तियों को विसर्जित किया जाता है और मूर्तियों को अन्य अवयवों (इंग्रेडिएंट्स) के साथ मिश्रित (मिक्सड) पी.ओ.पी. से बनाया जाता है, जो समुद्री जीवन के लिए जहरीला और खतरनाक हो सकता है। न्यायालय ने याचिकाकर्ता की दलीलों पर सहमति जताई और केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह प्रदूषण को रोकने के लिए मूर्तियों के विसर्जन के लिए दिशा-निर्देश (गाइडलाइंस) तैयार करे। न्यायालय ने आगे निर्देश दिया कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार को इन दिशानिर्देशों पर विचार करना चाहिए और तेजी से कार्य करना चाहिए।
इस मामले के निर्देशों के अनुसार, सी.पी.सी.बी. ने, मूर्ति विसर्जन और अन्य पूजा सामग्री दोनों के लिए दिशा-निर्देश जारी किए। उन्होंने झीलों, नदियों और समुद्र में विसर्जन के संबंध में स्थानीय निकायों (बॉडीज)/प्राधिकारियों (अथॉरिटीज) को मूर्ति विसर्जन के लिए दिशा-निर्देश दिए। मूर्ति विसर्जन के लिए सामान्य दिशा-निर्देश यह थे कि मूर्तियों को समर्थित (बैक्ड) मिट्टी या पी.ओ.पी. के बजाय पारंपरिक मिट्टी से बनाया जाना चाहिए। मूर्तियों को केवल पानी में घुलनशील (सॉल्युबल) और गैर-विषैले प्राकृतिक रंगों (नॉन टॉक्सिक नेचरल डाई) से रंगा जाना चाहिए और किसी भी अन्य जहरीले रसायन (केमिकल) को सख्ती से प्रतिबंधित (प्रोहोबिट) किया जाना चाहिए। मूर्तियों के विसर्जन से पहले पूजा सामग्री को भी हटा देना चाहिए। स्थानीय अधिकारियों को पर्याप्त स्थानों की पहचान करनी चाहिए और विसर्जन के लिए कृत्रिम (आर्टिफिशियल) झीलें बनानी चाहिए। इन जलाशयों के तल (बॉटम) पर सिंथेटिक लाइनर लगाए जाने चाहिए। जलाशय के तट पर बचे हुए पदार्थ को, विसर्जन के 48 घंटे के अंदर एकत्र और निपटाया जाना चाहिए।
2009 में, सी.पी.सी.बी. अधिक दिशानिर्देश लेकर आया और सी.पी.सी.बी. के अध्यक्ष (चैयरमैन) ने मूर्ति विसर्जन के घाटों का आकलन (एसेस) करने और शिल्पकारों से बात करने के लिए कोलकाता का दौरा किया। पश्चिम बंगाल राज्य प्रदूषण बोर्ड (डबल्यू.बी.एस.पी.सी.बी.) के साथ, उन्होंने जागरूकता शिविर (अवेयरनेस कैंपेन) लगाए ताकि शिल्पकार बायोडिग्रेडेबल सामग्री का उपयोग कर सकें। एस.पी.सी.बी. और पी.सी.सी. को विसर्जन से पहले और विसर्जन के बाद तीन चरणों में जलाशय का जल गुणवत्ता मूल्यांकन करने के लिए कहा गया था। लोगों को छोटे आकार की मूर्तियों को चुनने के लिए भी प्रोत्साहित किया गया।
जटिल विश्लेषण (क्रिटिकल एनालिसिस)
मेरे अनुसार, दिशानिर्देश अच्छी तरह से तैयार किए गए हैं, जो की प्रदूषण को काफी कम कर सकते हैं। हालांकि आज भी मूर्ति विसर्जन के तरीके में कोई खास बदलाव नहीं आया है। यह सवाल ऐसे ही बना रहता है, क्यों? इसका कारण यह है कि आज तक राज्य सरकार द्वारा दिशा-निर्देशों को लागू करने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की गई है। इस मामले में हाल ही का आदेश, 2018 का है। बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा कि 10 साल (22 जुलाई 2008 – 29 जून 2018) के बाद भी राज्य सरकार द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की गई है, और इसका पालन न करने के लिए सख्त दंड के बजाय कोर्ट ने याचिकाकर्ता यानी राज्य के मुख्य सचिव (चीफ सेक्रेटरी) को सुनवाई का मौका दिया, जिनकी दो साल बाद भी सुनवाई नहीं हुई.
सुरेशभाई केशवभाई वाघवनकर और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ गुजरात और अन्य
2012 में, गुजरात उच्च न्यायालय (सुरेशभाई केशवभाई वाघवनकर और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ गुजरात और अन्य) में एक और मामला दायर किया गया था। यह मामला मूर्ति निर्माताओं और कारीगरों के एक समूह द्वारा दायर किया गया था, उन्होंने तर्क दिया कि सी.पी.सी.बी. और वन और पर्यावरण विभाग (फॉरेस्ट एंड एनवायरनमेंट डिपार्टमेंट), गांधीनगर के प्रधान सचिव (प्रिंसिपल सेक्रेटरी) द्वारा दिए गए दिशानिर्देश, असंवैधानिक थे क्योंकि यह आर्टिकल 304 के खिलाफ है, यानी ऐसे उदाहरण जहां व्यापार को प्रतिबंधित किया जा सकता है।
उनका तर्क था कि पी.ओ.पी. का इस्तेमाल वे सालों से देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाने में करते आ रहे हैं। इसके अलावा महाराष्ट्र राज्य जैसे अन्य राज्यों ने अभी भी इस पर प्रतिबंध नहीं लगाया है। उन्होंने एस.ई.आर.आई. द्वारा एक वैज्ञानिक अध्ययन भी प्रस्तुत किया जिसमें कहा गया कि पी.ओ.पी. जहरीला नहीं है और यह जलाशयों पर कोई गंभीर प्रभाव नहीं डालती है। आवेदकों (एप्लीकेंट्स) ने कहा कि मिट्टी की मूर्तियाँ बनाना अव्यावहारिक (इंप्रक्टिकल) है, क्योंकि यह भारी होती है, इसके लिए अधिक शारीरिक श्रम की आवश्यकता होती है और इनको परिवहन (ट्रांसपोर्ट) करने में कठिनाई होती है।
उनका काम केवल बनाना और बेचना है और यह सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है कि विसर्जन ठीक से हो। न्यायालय ने पहले इसे अवैध करार दिया और प्रतिबंध हटा दिया। पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम (एनवायरनमेंट (प्रोटेक्शन) एक्ट), 1986 की धारा 5 के तहत राज्य सरकार को ऐसे कानून बनाने की कोई शक्ति नहीं दी गई है। दूसरा, न्यायालय ने चर्चा की कि “एहतियाती सिद्धांत (पॉल्यूटर्स पे प्रिंसिपल)” को लागू करने के लिए प्रतिवादी (रिस्पॉन्डेंट) (सी.पी.सी.बी.) का तर्क मान्य नहीं होगा, क्योंकि वैज्ञानिक अनिश्चितता (अनसर्टेनिट) के कारण पी.ओ.पी. को पर्यावरण प्रदूषक नहीं पाया गया था।
हालांकि, न्यायालय ने सहमति व्यक्त की कि पी.ओ.पी. का उपयोग हानिकारक है और एस.पी.सी.बी. और जी.पी.सी.बी. को जल प्रदूषण को रोकने के लिए कुछ निर्देशों के साथ आने का निर्देश दिया। इसने जी.बी.सी.बी. और अन्य बोर्ड्स को एक वैज्ञानिक अध्ययन करने और 3 महीने में दिशानिर्देश देने का भी निर्देश दिया।
आलोचना (क्रिटिसिजम्स)
मेरे अनुसार, इस फैसले की बहुत अधिक आलोचना की जा सकती है, खासकर जिस तरह से एहतियाती सिद्धांत को लागू किया गया था। न्यायालय ने कहा, “अगर यह पता लगाने के लिए वैज्ञानिक अध्ययन और ठोस सामग्री होती, कि पी.ओ.पी. स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है या जल प्रदूषण का कारण बनती है और यदि विचाराधीन अधिसूचना (नोटिफिकेशन) जल अधिनियम के तहत थी, तो इस तरह के प्रतिबंध के कानूनी प्रभाव को अलग तरह से देखा जा सकता था।”
बल्कि यह एहतियाती सिद्धांत का गलत प्रयोग है। एहतियाती सिद्धांत का उद्देश्य, पारंपरिक धारणा (प्रिजम्शन) का विरोध करना था कि गतिविधियों को तब तक आगे बढ़ना चाहिए, जब तक कि वे हानिकारक साबित न हों। यह सिद्धांत मानता है कि कार्रवाई में देरी से एक बड़ा खतरा हो सकता है। कई सम्मेलनों (कॉन्फ्रेंस) में, यह स्पष्ट किया गया है कि जब कोई गतिविधि मानव स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकती है, तो एहतियाती सिद्धांत लागू किया जाना चाहिए और वैज्ञानिक निश्चितता की कमी होने पर भी उपाय किए जाने चाहिए।
सी.पी.सी.बी. और अन्य बोर्ड्स द्वारा निर्धारित विभिन्न दिशा-निर्देशों को प्रदूषण को रोकने के लिए बरती जाने वाली सावधानियों के रूप में माना जा सकता है। इस प्रकार, उन्हें वैज्ञानिक निश्चितता के बावजूद लागू किया जाना चाहिए। कई बार विज्ञान सही नहीं होता और वैज्ञानिक अनिश्चितता हो सकती है। सबूत की अनुपस्थिति का मतलब नुकसान की अनुपस्थिति नहीं है। इसके अलावा, न्यायालय ने माना कि यह बेहद हानिकारक था लेकिन फिर भी इस सिद्धांत को लागू नहीं किया गया था। यहां तक कि न्यायाधीश द्वारा बताए गए मामले में भी कहा गया कि यह हानिकारक है और इस पर शीघ्र कार्रवाई की जानी चाहिए। यह एक ऐतिहासिक फैसला हो सकता है, लेकिन क्योंकि न्यायालय ने वैज्ञानिक निश्चितता को बहुत अधिक महत्व दिया है, इसलिए राज्य सरकार द्वारा सी.पी.सी.बी. दिशानिर्देशों को सख्ती से लागू नहीं किया गया है। मेरा यह भी मानना है कि जब दिशानिर्देश, एहतियाती सिद्धांत को लागू नहीं करते हैं, तो उनका पालन नहीं किया जाता है, क्योंकि इसके लिए कोई दंड नहीं है, जिसे हमारे न्यायालय द्वारा लगाया जाना चाहिए।
राजेश मधुकर पंडित और अन्य बनाम नासिक म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन
अंत में, राजेश मधुकर पंडित और अन्य बनाम नासिक म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन ने एहतियाती सिद्धांत पर स्थिति स्पष्ट की और इसे देश के कानून के रूप में घोषित किया। इस मामले में मुख्य रूप से मूर्ति विसर्जन पर चर्चा नहीं की गई थी। न्यायालय ने कहा कि एहतियाती सिद्धांत आर्टिकल 21 के तहत पर्यावरण कानून का एक हिस्सा है, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा की गारंटी देता है। यह आर्टिकल 47, 48A और 51A(g) के तहत भी अनिवार्य है, जो पर्यावरण की सुरक्षा और सुधार को अनिवार्य करता है।
संविधान के अलावा, अन्य कानून भी हैं जो पर्यावरण संरक्षण (प्रोटेक्शन) पर चर्चा करते हैं। एहतियाती सिद्धांत के तहत, न्यायालय ने नासिक म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन को गणपति और अन्य मूर्तियों के विसर्जन के लिए नदी के पास कृत्रिम/ अस्थायी (टेंपरेरी) तालाब बनाने का निर्देश दिया।
इस फैसले के बाद भी, जुलाई ,2019 में बॉम्बे हाई कोर्ट (वर्ली कोलीवाड़ा नखवा बनाम ग्रेटर मुंबई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन) के सामने एक मामला आया था, जहां तटीय रेखा के निर्माण के कारण बॉम्बे के तट के पास जलीय जीवन खतरे में था। इस मामले में दिए गए वैज्ञानिक प्रमाणों में कहा गया था कि कोई नुकसान नहीं होने वाला था। हालाँकि, जैसा कि न्यायाधीश स्वयं एक पर्यावरणविद् (एनवायरनमेंटलिस्ट) थे, उन्होंने वैज्ञानिक अध्ययन को गलत साबित करने के लिए, इसे अपने ऊपर ले लिया और आदेश पर निषेधाज्ञा (इनजंक्शन) दी। इस प्रकार, मुझे लगता है कि वैज्ञानिक अनिश्चितता और एहतियाती सिद्धांत पर एक स्पष्ट स्थिति स्थापित करने के लिए कानून बनाने का समय आ गया है।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
हालंकि, कोविड-19 ने बहुत कहर बरपाया है और कई लोगों के जीवन को बर्बाद कर दिया है, जल प्रदूषण पर इसके प्रभाव को एक उम्मीद की किरण कहा जा सकता है। इस साल गणपति विसर्जन के लिए बी.एम.सी. ने मुंबई के हर वार्ड में 170 कृत्रिम तालाब बनाए और वायरस के चलते विसर्जन के लिए विशेष व्यवस्था यानी मोबाइल इमर्शन स्पॉट ऑन व्हील्स की व्यवस्था की.
इसके अलावा, मूर्तियों की लंबाई के लिए केवल 4 फीट की अनुमति दी गई थी। सभी मूर्तियां, पानी में घुलनशील मिट्टी से बनी थीं और उन्हें अरब सागर के बजाय, नकली तालाबों में विसर्जित किया गया था। 50% से अधिक इन निकली तालाबों में विसर्जित किए गए थे। विसर्जन के बाद, समुद्र तटों की सफाई करने वाले एक एन.जी.ओ. कार्यकर्ता ने कहा कि यह किसी भी अन्य वर्ष की तुलना में 60% साफ था। बहुत से लोगों ने देखा कि पर्यावरण कितना स्वच्छ था और मेरा मानना है कि यह उन्हें और अधिक जिम्मेदारी से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है।
इस प्रकार, मेरे अनुसार प्रत्येक वार्ड में चल (मोबिल) विसर्जन स्थलों और कृत्रिम तालाबों को विसर्जन के लिए ‘नया सामान्य (न्यू नॉर्मल)’ बनाया जाना चाहिए। इसके अलावा, भविष्य में, न्यायपालिका को मूर्ति विसर्जन के लिए अनिवार्य दिशा-निर्देशों के साथ आना चाहिए, जैसा कि उन्होंने कार्यस्थल की सुरक्षा के लिए विशाखा दिशानिर्देशों के साथ किया था। वर्तमान में, जल अधिनियम, 1974 मुख्य रूप से जलाशयों को प्रदूषित करने वाले उद्योगों को दंडित करता है। व्यक्तियों को दंडित करने के लिए अधिनियम में संशोधन (अमेंडमेंट) किया जाना चाहिए और साथ ही व्यक्तियों को अधिक जागरूक बनाया जाना चाहिए और उन्हें पर्यावरण के अनुकूल तरीके से त्योहारों को मनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
संदर्भ (रिफरेंसेस)
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