मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेगनेंसी अमेंडमेंट बिल, 2020 

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Medical termination of pregnancy amendment bill 2020
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यह लेख Akanksha ने लिखा है। इस लेख में वह मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेगनेंसी अमेंडमेंट बिल, 2020 और इस बिल के आने से पहले की स्थिति और मजूद कानूनों पर चर्चा करती है। इस लेख  मामलो पर भी चर्चा करती है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है। 

परिचय (इंट्रोडक्शन)

भारत आध्यात्मिकता (स्पिरिचुएलिटी) की भूमि होने के नाते, बच्चे को भगवान के उपहार के रूप में मानता है, अबॉर्शन के विचार को हीनियस अपराध या बल्कि एक वर्जित (टैबू) कार्य के रूप में देखता है, लेकिन आधुनिकीकरण (मोडर्नाइज़ेशन) और उत्तर-औपनिवेशिक (पोस्ट-कोलोनियल) वैचारिक (आईडिओलॉजिकल) संघर्ष (कनफ्लिक्ट) की लहर ने एक मार्ग प्रशस्त (पेव) किया, जिसमें लोगों ने संस्कृति और वर्तमान आवश्यकता के बीच सामना करने के लिए, गर्भावस्था (प्रेग्नेंसी) का  मेडिकल टर्मिनेशन उन में से एक है, जिसने सुरक्षित और तत्काल (अर्जेंट) अबॉर्शन के अभाव में देश भर में मरने वाली उन सभी महिलाओं को राहत का संकेत दिया है। दरअसल, यह सांस्कृतिक बोझ को हटाकर, महिलाओं के लिए एक उम्मीद की किरण साबित हुई। फिर जाति, मज़हब, लिंग पूर्वाग्रह (बायस) के बावजूद सभी लोगों को सभी क्षेत्रों में समानता और स्वतंत्रता प्रदान करने वाले मौलिक अधिकारो (फंडामेंटल राइट्स) पर बात आती है, जो सभी लोगो के जीवन और व्यक्तिगत (परसनल) स्वतंत्रता को पूरी गरिमा (डिग्निटी) के साथ सम्मान और स्वीकार करने का वादा करते है। लेकिन एक प्रश्न इस आदर्श (आइडियल) भारतीय स्वतंत्रता के इर्द-गिर्द घूमता है और विशेष रूप से एक महिला से जुड़े कुछ अधिकारों के बारे में पूछता है, एक महिला का उसके गर्भ (वॉम) और उसके शरीर पर एक स्वायत्त (ऑटोनोमस) अधिकार क्या है और अस्पष्ट प्रतिबंधों (अनस्पेसिफाइड रेस्ट्रिक्शन्स) के बिना अबॉर्शन के अधिकार के बारे में भी पूछता है। यह लेख गर्भावस्था के साथ-साथ अबॉर्शन के अधिकारों के लिए काफी हद तक समर्पित (डेडिकेटिड) है, जो भारतीय महिलाओं को प्रदान किया गया है और जो अधिकार उन्हें दिए जाने चाहिए, साथ ही एम.टी.पी.अमेंडमेंट बिल, 2020 द्वारा प्रदान की गयी राहत के बारे में भी बताता है।

आज भारत में सभी लिंगों के लिए उपलब्ध अधिकारों और कर्तव्यों (ड्यूटीज) है लेकिन स्थिति कभी भी एक जैसी नहीं रही है, अबॉर्शन और गर्भावस्था कानूनों के क्षेत्र में भी यही हाल रहा है। आज भारत, उन 14 अन्य देशों में से एक है जहां अबॉर्शन, अनुरोध (रिक़ुएस्ट) पर अबॉर्शन के बजाय सामाजिक-आर्थिक (इकनोमिक) परिस्थितियो में यह व्यापक (ब्रॉड) पैमाने पर किया जा रहा है। लेकिन 1971 से पहले की स्थिति में, जब भारत विदेशी संघर्षों से घिरा हुआ था, देश भर में महिलाएं केवल अबॉर्शन के अधिकार के लिए लड़ रही थीं, क्योंकि उस समय बच्चे को अबो्र्ट करना एक अपराध था, जो आई.पी.सी.,1860 की धारा 312 के तहत दंडनीय था, जो जानबूझ कर अबॉर्शन करने के पेरेलल था। एक समय था जब मेटरनल मोर्टेलिटी रेट सबसे अधिक हुआ करता था। असुरक्षित (अनसेफ) अबॉर्शन और प्रतिबंधात्मक (रेस्ट्रिक्टिव) अबॉर्शन कानून केवल अवैध और असुरक्षित ऑपरेशन चाहने वाली महिलाओं तक ही सीमित था। इस स्थिति को देखते हुए, 1964 में तत्कालीन मिनिस्ट्री ऑफ़ हेल्थ एंड फेमिली वेलफेयर ने शांतिलाल शाह की अध्यक्षता (हेड) में शाह कमिटी का गठन किया और उक्त कमिटी द्वारा पेश की गई सिफारिश (रेकमेंडेशन्स) ने सख्त और उचित अबॉर्शन कानून की तत्काल आवश्यकता को दर्शाया, और मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेगनेंसी एक्ट, 1971 (एमटीपी), इस रिपोर्ट के परिणामस्वरुप लागू किया गया था, जिसमे अबॉर्शन के मुद्दों और संघर्षों को नियंत्रित करने के बारे में बताया हुआ था, यह एक्ट जम्मू और कश्मीर को छोड़कर सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों पर लागू किया गया था। एक्ट में सूचीबद्ध (एनलिस्टेड) प्रावधानों (प्रोविजन्स) ने, अबॉर्शन के बाद होने वाले आवश्यक नतीजों में लोगों को ढील दी।

  1. एम.टी.पी. एक्ट ने अपने नियामक (रेगुलेटरी) चेसिस को अलग कर दिया, फीटस की जेस्टेशन अवधि को भी विभाजित (कम्पार्टमेंटलाइज़) कर दिया। उपरोक्त एक्ट की धारा 3 में 12 हफ्ते तक के अबॉर्शन के साथ निपटता है, जहां एक रजिस्टर्ड चिकित्सक की राय आवश्यक है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि गर्भावस्था महिला के लिए जोखिम पैदा तो नहीं करेगा या उसके शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर चोट तो नहीं पहुंचाएगा, मां या बच्चे में कुछ अनिश्चित (अन्डीसाइर्ड) असामान्यताएं (अब्नोर्मलिटीज़) तो नहीं होंगी, और दूसरी तरफ जेस्टेशन अवधि के 12 से 20 सप्ताह के मामले में, दोनों में से किसी एक स्थिति की पुष्टि करने वाले दो चिकित्सकों की राय आवश्यक होती है, और 20 सप्ताह के बाद, टर्मिनेशन तभी किया जा सकता है, जहां  महिलाओं की जान बचना आवश्यक हो।
  2. वास्तव में, यह एक्ट महिलाओं की संप्रभुता (सॉवरेनिटी) के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक एक्ट साबित हुआ, और इसके बजाय इस एक्ट का सार लगाना और निष्कर्ष निकालना है। तथ्य (फैक्ट) यह है कि गर्भावस्था के सभी चरणों में अबॉर्शन प्रक्रिया में, टर्मिनेशन की मांग करने वाली महिलाओं के बजाय स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं (हेल्थ सर्विस प्रोवाइडर्स) को इस मामले में आखिरी निर्णय लेने का अधिकार होता है, हालांकि यह उन महिलाओं को प्रदान किए गए अधिकारों के विरुद्ध है और फ्रांस, दक्षिण अफ्रीका जैसे अन्य 67 देशों में अबॉर्शन कानूनों के तहत महिलाएं अपने संरक्षकों (गारडिअन्स) से बिना अनुमति लिए, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं से अनुरोध (रिक्वेस्ट) करके अपना अबॉर्शन करवा सकती हैं। 
  3. इसके अलावा, इस एक्ट का अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) विवाहित महिलाओं को नियंत्रित करता है, जैसे कि एक स्पिनस्टर के पास गर्भ नहीं है, जो इस एक्ट को रूढ़िवादी (ऑर्थोडॉक्स) और वर्तमान भारत के लिए अनुपयुक्त (अनफिट) बना देता है।
  4. इस एक्ट के साथ तीसरा मुद्दा यह है कि इसमें उन मामलों से संबंधित प्रावधान नहीं हैं, जहां 20 सप्ताह के बाद जेस्टेशन में हुई दिक्कतों का पता चलता है, क्योंकि 20 सप्ताह के बाद अबॉर्शन केवल महिलाओं के जीवन को बचाने के लिए किया जा सकता है, और किसी अन्य परिस्थिति में नहीं।

मामले (केसेस)

  1. वर्ष 2008 में हरेश और निकिता मेहता ने हृदय दोष (डिफेक्ट) से पीड़ित अपने अजन्मे बच्चे को अबॉर्शन करने के लिए एक याचिका (पिटीशन) दायर की, जो गर्भावस्था के 22वें सप्ताह में उन्हें पता चला था, लेकिन उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ा और अंततः 35वें सप्ताह में मिसकैरेज का सामना करना पड़ा। तब से ऐसे कई मामले सामने आए हैं लेकिन कुछ ही मामले ऐसे हैं जहां भारत के सुप्रीम कोर्ट ने अबॉर्शन का अनुरोध करने वाली याचिका को मंजूरी दी।
  2. समर घोष बनाम जया घोष, सुप्रीम कोर्ट ने जांच की, कि क्या एक महिला का अपने पति की जानकारी या सहमति के बिना गर्भावस्था को टर्मिनेट करने का निर्णय मानसिक क्रूरता होगा। कोर्ट ने इस मामले में फैसला सुनाया कि “अगर पत्नी बिना चिकित्सीय कारण के या अपने पति की सहमति या जानकारी के बिना, नसबंदी (वैसेक्टोमी) या अबॉर्शन करवाती है, तो ऐसा कृत्य मानसिक क्रूरता का कारण बन सकता है।
  3. डॉ मंगला डोगरा और अन्य बनाम अनिल कुमार मल्होत्रा, ​​​​इस मुद्दे से निपटने के लिए कि क्या पति को अबॉर्शन के लिए सहमति प्रदान करने का अधिकार है, पंजाब और हरियाणा के हाई कोर्ट ने कहा कि “एम.टी.पी. एक्ट में केवल एक ही व्यक्ति की सहमति की आवश्यकता है वो है महिला, जो गर्भावस्था की मेडिकल टर्मिनेशन से गुजरती है। एक पति अपनी पत्नी को गर्भावस्था जारी रखने के लिए मजबूर नहीं कर सकता।”
  4. फरवरी 2017 में, 37 वर्षीय एक महिला ने अपनी गर्भावस्था के 27वें सप्ताह में डाउन सिंड्रोम से पीड़ित अपने फीटस को अबो्र्ट करने  की अनुमति के लिए सुप्रीम कोर्ट की शरण ली। कोर्ट द्वारा नियुक्त मेडिकल बोर्ड द्वारा अबॉर्शन के खिलाफ सलाह देने के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति से इनकार कर दिया, और गर्भावस्था को जारी रखने की अनुमति दी गई तो बच्चे को “जीवित पैदा” किया जा सकता है, और यह स्वीकार करते हुए कहा की एक माँ के लिए एक मानसिक रूप से मंद बच्चे को पालन अत्यधिक दुखद” है, क्योंकि फ़ीटस को अर्नोल्ड-चियारी विकृति नामक एक दुर्लभ बीमारी के साथ पाया गया है, जहां मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी जुड़ जाती है।

इन सभी मामलों में, एम.टी.पी. एक्ट में अमेंडमेंट करने और इस देश में महिलाओं के हित के लिए गर्भावस्था को टर्मिनेट करने की कानूनी सीमा को बढ़ाने की कोशिश की गयी है।

मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी अमेंडमेंट बिल, 2020

उपरोक्त कुछ मामलों और फैसलों के परिणामस्वरूप, हितों (इंटरेस्ट) में नुकसान और टकराव हुआ और कानूनों ने सहयोग से काम किया और हाल ही में सरकार को मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी अमेंडमेंट बिल, 2020  के साथ आने के लिए मजबूर किया। यह बिल 2 मार्च, 2020 को मिनिस्ट्री ऑफ़ हेल्थ एंड फेमिली वेलफेयर द्वारा पेश किया गया था, डॉ हर्षवर्धन महिलाओं के अधिकार की दिशा में एक प्रशंसित (अक्क्लेम्ड) कदम उठाया है क्योंकि पिछले 49 वर्षों में यह दूसरी बार हुआ है जब हमारे निर्वाचित (इलेक्टेड) प्रतिनिधियों (रिप्रेज़ेंटेटिव्ज़) के पास अबॉर्शन जैसे मामलों के सम्बन्ध में कुछ कानून बनाये है। यह बिल पुराने, अनुपयुक्त और अविकसित एक्ट को अमेंड करता है, जिसमें बिल कुछ प्रावधानों में अमेंडमेंट करता है और कहता है कि एक रजिस्टर्ड चिकित्सक की राय से 20 सप्ताह के भीतर गर्भावस्था को समाप्त किया जा सकता है और केवल 20 से 24 सप्ताह के बीच गर्भावस्था के टर्मिनेशन के लिए दो रजिस्टर्ड चिकित्सकों की स्वीकृति की आवश्यकता होगी। 24 सप्ताह तक के गर्भावस्था की टर्मिनेशन केवल महिलाओं की कुछ-कुछ श्रेणियों पर ही लागू होगा, या फिर जैसा कि केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित किया जाएगा।

मूल एक्ट में कहा गया है कि यदि किसी विवाहित महिला या उसके पति द्वारा बच्चों की संख्या को सीमित करने के लिए उपयोग की जाने वाली गर्भनिरोधक (कंट्रासेप्टिव) में विफलता हो जाती है और इसके परिणामस्वरूप कोई गर्भावस्था होती है, तो ऐसी अवांछित (अनवांटेड) गर्भावस्था, गर्भवती महिला के मानसिक स्वास्थ्य के लिए गंभीर चोट का कारण बन सकती है। यह बिल में ‘विवाहित महिला या उसके पति’ को ‘महिला या उसके साथी’ से बदलने के लिए इस प्रावधान में अमेंडमेंट किया गया है, जिससे देखा जा सकता है की इसमें अधिक उदार (लिबरल) कदम उठाये गए है।

यह बिल एक मेडिकल बोर्ड के गठन की बात करता है, जिसमें निम्नलिखित सदस्य शामिल होंगे: 

  1. एक स्त्री रोग विशेषज्ञ (गाइनेकोलॉजिस्ट), 
  2. एक बाल रोग विशेषज्ञ (पीडियाट्रीशियन), 
  3. एक रेडियोलॉजिस्ट या सोनोलॉजिस्ट, और 
  4. सदस्यों की कोई अन्य संख्या, जैसा कि  राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित (नोटिफाईड) किया जा सकता है जो अबॉर्शन के गंभीर और विशेष परिदृश्य (सिनेरिओ) में सिफारिश और अनुमोदन (अप्रूवल) प्रदान करेगी।

दूसरी ओर, यह बिल गोपनीयता (प्राइवेसी) के क्षेत्र को भी छूता है, जिसमें कहा गया है कि किसी भी रजिस्टर्ड चिकित्सक के संबंधित महिला की पहचान प्रकट करने की अनुमति नहीं दी जाएगी, जब तक कि कानून द्वारा निर्दिष्ट (स्पेसिफाई) नहीं किया जाता है।

निष्कर्ष (कन्क्लूज़न)

यह सच है कि यह 2020 के एम.टी.पी. बिल काफी और अधिक उदार है, जब इसके एप्लिकेशन की बात आती है, फिर भी मनमाना (अर्बिट्रेरी) वर्गीकरण (क्लासिफिकेशन) महिलाओं के अधिकार के प्रति पिछड़ी मानसिकता को दर्शाता है, सभी क्लॉज़ेस और प्रावधानों के बाद ऐसा लगता है कि यह बिल सही दिशा में काम कर रहा है। लेकिन इस बिल की धारा 2(B) को करीब से देखने पर पता चलता है कि विस्तार केवल महिलाओं के कमजोर समूह पर लागू होता है जिसमें बलात्कार पीड़ित, अनाचार (इन्सेस्ट) की शिकार, नाबालिग और विकलांग महिलाएं शामिल हैं, यह बिल भारत की अबॉर्शन नीति में निहित दोषों में, पूरी तरह सुधार नहीं लता। इसके अलावा, यह बिल अबॉर्शन को शारीरिक स्वायत्तता के अधिकार के विस्तार के रूप में नहीं बल्कि एक आपराधिक दायित्व के विस्तार के रूप में मान्यता देता है, जहां एक महिला को इंडियन पीनल कोड के तहत उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। वर्तमान भारत को दान और प्रतिबंध के पैकेज की आवश्यकता नहीं है बल्कि भारत को वास्तविक स्पष्ट अधिकार की आवश्यकता है। एक परिस्थिति और जिस तरह से वह जीना चाहती है उसे चुनने का अधिकार, न केवल जन्म देने में बल्कि अबॉर्शन में समान रूप से चुनने का अधिकार जैसा कि भारत के माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुचित्रा श्रीवास्तव और अन्य बनाम चंडीगढ़ एडमिनिस्ट्रेशन के मामले में  में कहा गया था। अदालत ने कहा कि ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि आर्टिकल 21 के तहत प्रजनन (रिप्रोडक्टिव) का विकप्ल चुनने का महिलाओं का अधिकार भी व्यक्तिगत (पर्सनल) स्वतंत्रता का एक आयाम (डाइमेंशन) है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि प्रजनन अधिकारों का प्रयोग प्रजनन के साथ-साथ प्रजनन से दूर रहने के लिए भी किया जा सकता है।’ भारत को, अनुरोध पर अबॉर्शन प्रदान करने वाले कानून की आवश्यकता है जब तक कि महिलाओं का स्वास्थ्य दांव पर न हो। मार्गरेट सेंगर द्वारा इसका सही उल्लेख किया गया है कि “कोई भी महिला खुद को तब तक स्वतंत्र नहीं कह सकती जब तक कि वह सचेत (कॉन्शियसली) रूप से यह नहीं चुन लेती कि वह मां बनेगी या नहीं”।  इस मूल अधिकार को मना करना समाज के एक वर्ग के लिए फायदेमंद होने का दावा करने वाले प्रयासों और पहलों (इनिशिएटिव) को दबा देता है, क्योंकि जरूरत में टूटे और डगमगाते हुए अधिकार पर अधिकार अच्छा नही है

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