अनुबंध के उल्लंघन से सम्बंधित मामले

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1693
Indian Contract Act

यह लेख एमिटी लॉ स्कूल, कोलकाता की छात्रा Shristi Roongta द्वारा लिखा गया है। यह लेख अनुबंध के उल्लंघन के मामलों के साथ-साथ अनुबंध के उल्लंघन के अर्थ, इसके प्रकार और इसके लिए भुगतान किए जाने वाले मुआवजे पर चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Vanshika Gupta द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय 

एक अनुबंध, दो पक्षों द्वारा पारस्परिक (मुचुअल) रूप से किया गया एक समझौता है। अनुबंध एक महत्वपूर्ण कानूनी दस्तावेज है, खासकर व्यापार और व्यवसाय के मामलों में, क्योंकि व्यापार और व्यवसाय मुख्य रूप से अनुबंध पर निर्भर करते है। यदि कोई भी पक्ष अनुबंध के दायित्वों को पूरा करने में विफल रहता है, तो यह अनुबंध का उल्लंघन है। इस लेख में मुख्य ध्यान अनुबंध के उल्लंघन के मामलों पर होगा।

अनुबंध का उल्लंघन क्या है

एक अनुबंध का उल्लंघन तब कहा जाता है जब एक पक्ष अनुबंध के अनुसार अपना भाग पूरा करने में विफल रहता है या पूरा करने से इनकार करता है। मूल रूप से, जब अनुबंध के पक्षों में से एक उस काम को करने में विफल रहता है जिसके लिए अनुबंध किया गया था, तो ऐसी विफलता को अनुबंध का उल्लंघन कहा जा सकता है। इस प्रकार के मामलों में, अनुबंध का उल्लंघन करने वाले पक्ष या तो उस पक्ष को मुआवजे का भुगतान करते हैं जिसे नुकसान हुआ है या नुकसान उठाने वाले पक्ष की आवश्यकताओं के अनुसार उल्लंघन किए गए दायित्व को पूरा करते हैं, क्योंकि अनुबंध पर हस्ताक्षर करते समय ऐसे दायित्वों को पूर्व-सूचीबद्ध किया जाता है। भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (“अधिनियम”) की धारा 73 अनुबंध के उल्लंघन के कारण होने वाले नुकसान और क्षति के लिए मुआवजे से संबंधित है।

आइए इसे एक सरल उदाहरण से समझते हैं।

उदाहरण- ‘A’ और ‘B’ ने पेन की बिक्री के लिए एक अनुबंध किया। अनुबंध में तय किया गया था कि ‘A’ 31 मार्च, 2021 को ‘B’ को 10,000 रुपये की राशि में 1000 पेन वितरित (डिलीवर) करेगा। अब, इस मामले में, यदि ;A’ 31 मार्च को उन्हें बेचने में विफल रहता है, तो यह अनुबंध का उल्लंघन होगा। दूसरी ओर, यदि ‘B’, अपना ऑर्डर प्राप्त करने के बाद, 10,000 रुपये की राशि का भुगतान करने में विफल रहता है, तो भी अनुबंध का उल्लंघन होगा।

ऐसे मामलों में, पक्ष की आवश्यकताओं के अनुसार या जैसा अदालत उचित समझे, अदालतों द्वारा उपयुक्त उपाय प्रदान किया जाता है।

हर्जाना क्या हैं?

हर्जाना शब्द का तात्पर्य दोषी पक्ष द्वारा किए गए नुकसान, चोट या क्षति के लिए, पीड़ित पक्ष को दिए जाने वाले मौद्रिक मुआवजे से है। हर्जाने की मात्रा अनुबंध के उल्लंघन के कारण पीड़ित पक्ष को हुई हर्जाना की मात्रा से निर्धारित होती है। क्यूंकि पीड़ित पक्ष को नुकसान या असुविधा होती है, इसलिए यदि नुकसान का मामला अदालत में पहुंचता है तो अदालत चाहती है कि पीड़ित पक्ष अपनी गलती स्वीकार करे और हर्जाने के रूप में प्रभावित पक्ष को पर्याप्त मुआवजा दे।

हर्जाने के पीछे के सिद्धांत को फुलर और प्रुड द्वारा समझाया गया है क्योंकि हर्जाना “अपेक्षा हित“, “निर्भरता हित” या “बहाली हित” की सुरक्षा की मांग कर सकता है। अपेक्षा हित, जिसे प्रदर्शन हित के रूप में भी जाना जाता है, पीड़ित पक्ष को ऐसी स्थिति में रखने को संदर्भित करता है जहां वह वादा पूरा होने पर होता। 

निर्भरता हित, जिसे यथास्थिति हित के रूप में भी जाना जाता है, पीड़ित पक्ष की स्थिति को बहाल करने की कोशिश करता है जहां वह वादा किए जाने से पहले था और जिसके दौरान वादा करने वाले ने वादाकर्ता पर भरोसा करके अपनी स्थिति बदल दी। भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 73 और धारा 74 संविदात्मक हर्जाने के प्रावधानों के बारे में है। धारा 73 “सामान्य या अपरिनिर्धारित हर्जाने” (अनलिक्विडेटेड डैमेजिस) से संबंधित है, जबकि धारा 74 “परिनिर्धारित हर्जाने” (लिक्विडेटेड डैमेजिस) से संबंधित है। क्यूंकि संविदात्मक उल्लंघन प्रकृति में सिविल है, इसलिए हर्जाने के पीछे का उद्देश्य पीड़ित पक्ष को नुकसान के लिए मुआवजा देना है न कि पीड़ित पक्ष को दंडित करना।

अनुबंध के उल्लंघन से संबंधित कानूनी प्रावधान

1872 का भारतीय अनुबंध अधिनियम, अनुबंध के उल्लंघन के प्रावधानों से संबंधित है। ऐसे कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं हैं जो स्पष्ट रूप से उल्लंघन का उल्लेख करते हों। हालाँकि निम्नलिखित धाराएं अनुबंध के उल्लंघन के बारे में बताती हैं।

  • अधिनियम की धारा 37 में कहा गया है कि अनुबंध के पक्षकारों का यह दायित्व है कि वे जिस अनुबंध में शामिल हुए हैं, उसके अनुसार वे अपने दायित्व का पालन करें या करने की पेशकश करें। केवल ऐसे मामलों में जहां अधिनियम के तहत प्रदर्शन को छोड़ दिया गया है या माफ कर दिया गया है, वे अनुबंध को पूरा करने के लिए बाध्य नहीं हैं। आगे कहा गया है कि अनुबंध के पक्षकारों द्वारा किए गए वादे उनके प्रतिनिधियों को उनकी मृत्यु की स्थिति में बांध देते हैं।
  • अधिनियम की धारा 39 किसी पक्ष द्वारा अपने दायित्व/वादे को पूरी तरह से पूरा करने से इनकार करने के प्रभाव का वर्णन करती है। धारा में कहा गया है कि जब अनुबंध का एक पक्ष अनुबंध के अपने हिस्से को पूरी तरह से निष्पादित करने से इनकार करता है, तो दूसरा पक्ष अनुबंध को समाप्त कर सकता है, जब तक कि इनकार करने वाला पक्ष अनुबंध को जारी रखने के लिए अपनी सहमति व्यक्त नहीं करता है।
  • अधिनियम की धारा 73 से धारा 75 अनुबंध के उल्लंघन के परिणामों से संबंधित है। 
  • धारा 73 अनुबंध के उल्लंघन के कारण होने वाली हानि या नुकसान के लिए मुआवजे का वर्णन करती है। इस धारा के अनुसार, ऐसे मामले में जहां किसी पक्ष (“उल्लंघन करने वाले पक्ष”) द्वारा अनुबंध तोड़ा या भंग किया जाता है, जिस पक्ष को उल्लंघन के कारण नुकसान या क्षति हुई है, वह उल्लंघन करने वाले पक्ष से हानि या नुकसान के लिए मुआवजा प्राप्त करने का हकदार है। 

मुआवज़ा दो परिस्थितियों में दिया जाएगा:

  1. जहां ऐसे उल्लंघन से हानि या नुकसान स्वाभाविक रूप से चीजों के सामान्य क्रम में उत्पन्न होता है; या
  2. वह हानि या नुकसान, जो पक्षों को अनुबंध में प्रवेश करते समय पता था कि अनुबंध के उल्लंघन से ऐसी हानि या नुकसान होने की संभावना है।

धारा 73 में अनुबंध द्वारा बनाए गए दायित्वों के समान दायित्वों का निर्वहन करने में विफलता के लिए मुआवजे का भी उल्लेख किया गया है। यह कहा गया है कि ऐसे मामलों में जहां अनुबंध द्वारा बनाए गए दायित्वों से मिलते-जुलते दायित्व का निर्वहन (डिस्चार्जड) नहीं किया गया है, जो व्यक्ति इसके कारण पीड़ित हुआ है, वह उस पक्ष से हर्जाना प्राप्त करने का हकदार होगा, जिसने ऐसा अनुबंध तोड़ा है।

जहां अनुबंध के उल्लंघन के कारण पक्ष को कोई दूरस्थ (रिमोट) या अप्रत्यक्ष हानि या नुकसान हुई हो, वहां मुआवजा नहीं दिया जाएगा।

  • अधिनियम की धारा 74 अनुबंध के उल्लंघन के लिए मुआवजे का वर्णन करती है जहां जुर्माना निर्धारित है। इस धारा के अनुसार, जब किसी अनुबंध का उल्लंघन किया जाता है, तो जो पक्ष इस तरह के उल्लंघन की शिकायत करता है, वह अनुबंध में उल्लिखित राशि या किसी अन्य शर्त को दंड के रूप में प्राप्त करने का हकदार है। ऐसा तब भी हो सकता है जब वास्तविक नुकसान या हानि साबित न हुई हो। इसलिए, इस धारा के तहत, जो पक्ष उल्लंघन की शिकायत करता है, वह उल्लंघन करने वाले पक्ष से, जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, किसी भी रूप में कुछ मुआवजा प्राप्त करने का हकदार है। 

हालाँकि, यदि कोई व्यक्ति कानून के प्रावधानों के तहत या सरकार के आदेशों के तहत जमानत-बंधपत्र (बेल-बांड) या ऐसे ही किसी अन्य दस्तावेज़ में प्रवेश करता है और सार्वजनिक कर्तव्य या किसी ऐसी चीज़ के प्रदर्शन के लिए बंधपत्र देता है जो जनता के हित में है, तो इन मामलों में व्यक्ति अनुबंध के उल्लंघन के लिए उत्तरदायी होगा और उन्हें बांड में उल्लिखित राशि का भुगतान करना होगा। 

  • अधिनियम की धारा 75 में कहा गया है कि जिस पक्ष ने अनुबंध को उचित रूप से रद्द किया है वह मुआवजे का हकदार है। इस धारा के अनुसार, जिस व्यक्ति ने अनुबंध रद्द कर दिया है, वह अनुबंध का पालन न करने के कारण हुई नुकसान या हानि के लिए उल्लंघन करने वाले पक्ष से मुआवजा प्राप्त करने का सही हकदार है।

अनुबंध के उल्लंघन के प्रकार

अनुबंध के उल्लंघन के मुख्य रूप से चार प्रकार हैं:

भौतिक उल्लंघन

जब अनुबंध के किसी पक्ष को अनुबंध में निर्धारित लाभ से कम लाभ या भिन्न परिणाम मिलता है, तो यह एक भौतिक उल्लंघन है। मूलतः अनुबंध का वास्तविक उल्लंघन तब होता है जब अनुबंध में उल्लिखित दायित्व पूरा नहीं किया जाता है। यह अनुबंध का गंभीर उल्लंघन है।

नेशनल पावर पीएलसी बनाम यूनाइटेड गैस कंपनी लिमिटेड (1998) के मामले में, न्यायाधीश द्वारा “भौतिक उल्लंघन” शब्द का विश्लेषण किया गया था, और उन्होंने इसे “किसी भी दोषी पक्ष की जिम्मेदारियों के गंभीर उल्लंघन” के रूप में संदर्भित किया था। न्यायाधीश ने आगे कहा कि यदि अनुबंध के भौतिक उल्लंघन का उपाय सात दिनों के भीतर शुरू नहीं किया गया, तो अनुबंध समाप्त कर दिया जाएगा।

मामूली उल्लंघन

अनुबंध का मामूली उल्लंघन या आंशिक उल्लंघन तब होता है जब पक्ष अनुबंध में निर्धारित दायित्वों को प्राप्त करता है। हालाँकि, उल्लंघन करने वाली पक्ष ने अनुबंध के कुछ हिस्सों को पूरा नहीं किया या पूरा करने में विफल रहा। अनुबंध के मामूली उल्लंघन को ‘सारहीन उल्लंघन’ रूप में भी जाना जाता है। यह आम तौर पर तब होता है जब अनुबंध का एक बड़ा हिस्सा पूरा हो जाता है और उल्लंघन करने वाले पक्ष द्वारा केवल एक छोटा हिस्सा पूरा नहीं किया जाता है।

राइस (टी/ए द गार्डन गार्जियन) बनाम ग्रेट यारमाउथ बरो काउंसिल (2003) के  मामले में, यूके कोर्ट ऑफ अपील ने माना कि यदि किसी अनुबंध में कोई खंड है जिसमें कहा गया है कि अनुबंध को अपने किसी भी दायित्व का उल्लंघन नहीं करना चाहिए या अन्यथा अनुबंध के तहत अनुबंध समाप्त कर दिया जाएगा, तो खंड को बिल्कुल नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि इस तथ्य के बावजूद कि ऐसा उल्लंघन मामूली है, किसी भी उल्लंघन की अनुमति देना व्यावसायिक समझ के विपरीत होगा।

प्रत्याशित (एंटीसिपेटरी) उल्लंघन

प्रत्याशित उल्लंघन मूल रूप से अनुबंध का प्रत्याशित उल्लंघन है, जिसका अर्थ अपेक्षित उल्लंघन है। इस प्रकार के उल्लंघन में, एक पक्ष यह आशा करता है कि दूसरा पक्ष अपने दायित्व का हिस्सा पूरा नहीं करेगा। ऐसे मामलों में, वास्तविक उल्लंघन अभी तक नहीं हुआ है। प्रत्याशित उल्लंघन के मामलों में, अनुबंध को तोड़ने या उल्लंघन करने का पक्ष का इरादा इंगित किया जाता है। ऐसा उल्लंघन होने पर अनुबंध समाप्त किया जा सकता है। अधिनियम की धारा 39 के तहत, जिस पक्ष को नुकसान हुआ है वह हर्जाने का दावा कर सकता है।

प्रत्याशित उल्लंघन के सबसे महत्वपूर्ण मामलों में से एक होचस्टर बनाम डी ला टूर (1853) है। यह माना गया कि एक पक्ष द्वारा भविष्य के आचरण के अनुबंध का त्याग तुरंत दूसरे पक्ष के अनुबंध को पूरा करने के दायित्व को समाप्त कर देता है। इस प्रकार, भविष्य के दायित्व को पूरा करने के कर्तव्य को त्यागकर अनुबंध का उल्लंघन तुरंत पक्ष को पीड़ित पक्ष द्वारा हर्जाने के लिए कार्रवाई के मुकदमे के लिए उत्तरदायी बनाता है।”

वास्तविक उल्लंघन

अनुबंध का वास्तविक उल्लंघन वह उल्लंघन है जो वास्तव में हुआ है। इस मामले में, उल्लंघन करने वाले पक्ष ने या तो दायित्वों को अधूरा छोड़ दिया है, उन्हें पूरा करने से इनकार कर दिया है, या उन्हें समय पर पूरा नहीं किया है। जिस पक्ष को नुकसान हुआ है वह हर्जाने का दावा करने का पात्र होगा।

बिशम्बर नाथ अग्रवाल बनाम किशन चंद (1989) के मामले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा यह माना गया था कि जब किसी अनुबंध में विशिष्ट दिशानिर्देश होते हैं, तो तदनुसार कार्रवाई की जानी चाहिए और दायित्वों को तदनुसार पूरा किया जाना चाहिए। पक्ष अपनी इच्छा के मुताबिक ऐसा नहीं कर सकता।

अनुबंध के उल्लंघन के लिए मुआवजा

यहां मुआवजे का मतलब अनुबंध के उल्लंघन के मामले में उपलब्ध उपचार से है। जैसा कि लैटिन कहावत “यूबी जस इबी रेमेडियम” में कहा गया है, “जहां गलत कार्य किया गया है, वहां उसका उपचार भी है।” इसलिए, जब किसी अनुबंध का उल्लंघन किया जाता है, तो इसे गलत माना जाता है, और निम्नलिखित उपचार हैं:

  • हर्जाना : हर्जाना का मतलब मौद्रिक रूप में मुआवजा है। हर्जाना उस पक्ष को दिया जाता है जिसे उल्लंघन करने वाले पक्ष से नुकसान हुआ हो। इसके प्रावधान भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 73 और धारा 74 में दिए गए हैं।
  • निषेधाज्ञा (इन्जंक्शन): जब किसी को कुछ करने से प्रतिबंधित किया जाता है। अनुबंध के उल्लंघन के मामलों में, अनुबंध का उल्लंघन करने वाला पक्ष अदालत के आदेश के रूप में नुकसान उठाने वाले पक्ष को रोकता है।
  • विशिष्ट प्रदर्शन (स्पेसिफिक परफॉरमेंस): विशिष्ट प्रदर्शन में, अदालतें एक विशिष्ट कार्य का निर्देश देती हैं जिसे नुकसान की भरपाई के लिए करने की आवश्यकता होती है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब मौद्रिक शर्तों में भुगतान किया गया मुआवजा पर्याप्त नहीं होता है और विवाद का समाधान नहीं होता है। यह उपचार विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 के तहत प्रदान किया गया है।
  • क्वांटम मेरिट: क्वांटम मेरिट के मामलों में, जिस पक्ष को नुकसान हो रहा है उसने अनुबंध का एक हिस्सा पूरा कर लिया है और वह किए गए कार्य का मूल्य वसूल करना चाहता है।

अनुबंध के उल्लंघन के उपाय

अनुबंध के उल्लंघन के परिणाम अनंत हो सकते हैं, और प्रतिवादी को अनुबंध के उल्लंघन से उत्पन्न होने वाले सभी अंतहीन परिणामों के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। इसलिए, देनदारियों को सीमित करने के लिए कुछ सीमाएं तय करने की आवश्यकता है ताकि ऐसी सीमा से परे कोई देनदारी उत्पन्न न हो। इस संदर्भ में, हर्जाने की दूरदर्शिता और हर्जाने की माप का प्रश्न निर्धारित करना महत्वपूर्ण हो जाता है।

नुकसान की भरपाई मुआवज़े से की जाती है, सज़ा से नहीं। हर्जाना देने का उद्देश्य पीड़ित पक्ष को उस स्थिति में बहाल करना है जिसमें वह अनुबंध के पालन के समय होता।

धारा 73 अनुबंध के उल्लंघन के कारण होने वाले नुकसान के मुआवजे से संबंधित कानून बताती है जो पक्षों द्वारा पूर्व-निर्धारित (परि-फिक्स्ड) नहीं है। 

यह धारा हैडली बनाम बैक्सेंडेल मामले में निर्धारित नियम पर आधारित है। इस मामले में, वादी एक मिल व्यवसाय करता था। क्रैंकशाफ्ट टूटने के कारण मिल बंद हो गई थी। प्रतिवादी वे वाहक थे जो हिस्से को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने में लगे हुए थे। प्रतिवादियों ने शाफ्ट की वितरित में देरी की, और वादी को समय पर शाफ्ट नहीं मिला। 

अदालत का मानना ​​था कि जब दो पक्ष एक अनुबंध में प्रवेश करते हैं और उनमें से एक अनुबंध तोड़ता है, तो दूसरे पक्ष को जो नुकसान हुआ है, वह सामान्य परिस्थितियों में उत्पन्न होना चाहिए। अदालत ने आगे कहा कि जहां विशेष हर्जाने की आवश्यकता हो, वहां दूसरे पक्ष को विशेष क्षति दिखायी जानी चाहिए। 

यह निर्णय हर्जाने की गणना के लिए निम्नलिखित नियमों पर आधारित है:

  1. सामान्य हर्जाना: ये हर्जाने स्वाभाविक रूप से उल्लंघन से ही उत्पन्न होती है। प्रतिवादी सभी परिणामों के लिए उत्तरदायी है, जिसके बारे में पक्षों को आम तौर पर जानकारी होती है।
  2. विशेष हर्जाना: ये हर्जाने विशेष या असामान्य परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होते हैं। वे उल्लंघन के स्वाभाविक परिणाम नहीं हैं। 

सामान्य हर्जाने के दावे में, वादी को यह साबित करना होता है कि उसे कुछ हानि हुई है, लेकिन यदि उसे विशेष हर्जाने का दावा करना है, तो उसे यह साबित करना होगा कि उसे विशेष क्षति हुई है।

मद्रास रेलवे कंपनी बनाम गोविंद राव में, वादी ने रेलवे कंपनी को एक सिलाई मशीन का कपड़ा दिया। उन्हें ऐसे स्थान पर भेजा जाना था जहां वादी को विशेष लाभ के साथ अपना व्यवसाय चलाने की उम्मीद हो। हालाँकि, कंपनी की गलती के कारण सामान आने में देरी हो गई और त्योहार खत्म होने पर वे अपने गंतव्य तक पहुँचे। वादी ने लाभ की हानि का दावा किया। 

अदालत ने माना कि मुनाफ़े के नुकसान की हर्जानेपूर्ति इतनी दूरस्थ है कि इसकी भरपाई नहीं की जा सकती। इसका कारण यह है कि कंपनी को विशेष उद्देश्य की जानकारी नहीं थी। 

हानि को कम करने का कर्तव्य

धारा 73 की व्याख्या बताती है कि अनुबंध के उल्लंघन से उत्पन्न होने वाले नुकसान या हर्जाने का अनुमान लगाने में, असुविधा को दूर करने के लिए मौजूद साधनों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। 

दूसरे शब्दों में, उल्लंघन की स्थिति में, पीड़ित पक्ष को नुकसान की सीमा को कम करने के लिए सभी उपाय अपनाने चाहिए। 

पहले से तय नुकसान

यदि अनुबंध के समय अनुबंध के पक्षकार ऐसे उल्लंघन की स्थिति में देय मुआवजे के लिए सहमत होते हैं, तो यह या तो परिनिर्धारित (लिक्विडेटेड) हर्जाने या जुर्माना है। 

पूछा जाने वाला प्रश्न यह है कि यदि हर्जाने की राशि तय है, तो क्या यह समग्र रूप से वसूल की जा सकती है या किस हद तक?

अंग्रेजी कानून

यदि पूर्व-निर्धारित राशि संभावित हर्जाने का वास्तविक पूर्व-अनुमान है, तो इसे परिनिर्धारित हर्जाने के रूप में जाना जाता है। यदि राशि अत्यधिक अनुपातहीन (डिस्प्रोपोरशनेट) है, तो इसे जुर्माना कहा जाता है। 

डनलप न्यूमेटिक टायर कंपनी बनाम न्यू गैराज एंड मोटर कंपनी लिमिटेड में, अदालत ने निर्धारित किया कि यह पता लगाना अदालत का कर्तव्य है कि निर्धारित भुगतान जुर्माना है या परिनिर्धारित हर्जाना; पक्ष की अभिव्यक्ति निर्णायक (कंक्लूसिव) नहीं है। यदि नामित राशि परिनिर्धारित हर्जाने की प्रकृति में है, तो पूरी राशि वसूली योग्य है, लेकिन यदि यह दंड की प्रकृति में है, तो अदालत सामान्य सिद्धांतों पर गणना करके उचित मुआवजा देगी। 

भारतीय कानून

परिनिर्धारित हर्जाने और दंड से संबंधित भारतीय कानून अधिनियम की धारा 74 के तहत दिया गया है। धारा 74 के आवश्यक तत्व निम्नलिखित हैं:

  1. अनुबंध का उल्लंघन होना चाहिए।
  2. अनुबंध में राशि का उल्लेख अवश्य किया जाना चाहिए। यह या तो जुर्माना या परिनिर्धारित हर्जाना हो सकता है।
  3. वास्तविक हानि का प्रमाण आवश्यक नहीं है।
  4. उल्लंघन की शिकायत करने वाला पक्ष दूसरे पक्ष से उचित मुआवजा प्राप्त करने का हकदार है।
  5. मुआवज़ा निर्दिष्ट राशि या जुर्माने से अधिक नहीं होना चाहिए।

भारतीय कानून ने यह निर्धारित करने की आवश्यकता को समाप्त कर दिया है कि नामित राशि जुर्माना है या परिनिर्धारित हर्जाना। भारत में यह अंतर समाप्त कर दिया गया है। 

अनुबंध के उल्लंघन पर निर्णय

मेसर्स मुरलीधर चिरंजीलाल बनाम मेसर्स हरिश्चंद्र द्वारकादास एवं अन्य (1961)

यह मामला, अनुबंध के उल्लंघन से संबंधित भारत के सबसे पुराने मामलों में से एक है। यह मामला उच्च न्यायालय, मध्य भारत, इंदौर के निर्णय और हुक्मनामा (डिक्री) आदेश से विशेष अनुमति द्वारा अपील के रूप में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लाया गया था।

अपीलकर्ता- मेसर्स मुरलीधर चिरंजीलाल

प्रतिवादी- मैसर्स हरिश्चंद्र द्वारकादास

मामले के तथ्य

  • अपीलकर्ता और प्रतिवादी ने 1 रुपये प्रति गज की दर पर कैनवास की बिक्री के लिए एक अनुबंध किया था। 
  • कैनवास की वितरित कानपुर से कलकत्ता तक रेलवे रसीद द्वारा की जानी थी, और श्रम शुल्क सहित इसका शुल्क प्रतिवादी द्वारा वहन किया जाना था।
  • रेलवे रसीद 5 अगस्त, 1947 को देने पर सहमति हुई थी। हालाँकि, अपीलकर्ता रसीद देने में विफल रहा। 
  • 8 अगस्त, 1947 को अपीलकर्ता ने प्रतिवादी को सूचित किया कि क्यूंकि कानपुर से कलकत्ता तक की बुकिंग बंद थी, इसलिए अनुबंध का पालन नहीं किया जा सका, और अपीलकर्ता के लिए उक्त अनुबंध का पालन करना असंभव हो गया था। 
  • इसके बाद अपीलकर्ता ने अनुबंध समाप्त कर दिया और प्रतिवादी से ली गई अग्रिम राशि वापस कर दी।
  • हालाँकि, प्रतिवादी ने अपीलकर्ता द्वारा अनुबंध के निष्पादन की असंभवता को स्वीकार नहीं किया। प्रतिवादी ने अपीलकर्ता को सूचित किया कि उन्होंने अनुबंध का उल्लंघन किया है और वे हर्जाना देने के लिए उत्तरदायी हैं।
  • इस मामले में निचली अदालत ने माना कि अनुबंध को पूरा करना असंभव हो गया था, और जहां अपीलकर्ता अनुबंध को पूरा करने में विफल रहा था, वहां प्रतिवादी को जिम्मेदार ठहराया गया था। निचली अदालत ने यह भी माना किक्यूंकि प्रतिवादी उस दर को साबित नहीं कर सका जो अनुबंध के उल्लंघन की तारीख पर प्रचलित थी, जैसा कि प्रतिवादी ने दावा किया था। इसलिए, प्रतिवादी हर्जाना पाने का हकदार नहीं था।
  • प्रतिवादी ने उच्च न्यायालय में अपील की और न्यायालय ने माना कि अनुबंध का पालन करना असंभव नहीं हो गया है। 
  • उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि प्रतिवादी 5 अगस्त 1947 यानी अनुबंध के उल्लंघन की तारीख पर कलकत्ता में प्रचलित दर के अनुसार हर्जाने का हकदार था। 
  • इसके बाद, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विशेष अनुमति के लिए एक आवेदन मंजूर कर लिया गया।

शामिल मुद्दा

माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अनुबंध के उल्लंघन से संबंधित मुद्दा यह था कि क्या प्रतिवादी उस दर पर हर्जानेपूर्ति के हकदार थे जिस दर पर उन्होंने दावा किया था।

न्यायालय का निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यह अनुबंध का उल्लंघन था क्योंकि अनुबंध को 5 अगस्त, 1947 को रेलवे रसीद की वितरित द्वारा निष्पादित किया जाना आवश्यक था। हालाँकि, उक्त तिथि पर वितरित नहीं की गई थी। न्यायालय ने आगे इस प्रश्न पर भी विचार किया कि क्या प्रतिवादी हर्जाने का हकदार है या नहीं। न्यायालय ने पाया कि मामला पुनर्विक्रय के लिए सामान की खरीद से जुड़ा था, और अपीलकर्ता और प्रतिवादी को इस बात की जानकारी नहीं थी कि अनुबंध का उल्लंघन होगा। इसलिए, प्रतिवादी को इस तरह के उल्लंघन से स्वाभाविक रूप से होने वाली क्षति की मात्रा की गणना करने के लिए कानपुर में प्रचलित दर को साबित करना होगा। हालाँकि, प्रतिवादी दर साबित करने में विफल रहे, इसलिए, वे हर्जाने के हकदार नहीं थे। 

सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द कर दिया और निचली अदालत के आदेश को बहाल कर दिया।

करसनदास एच. ठाकर बनाम द सरन इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड (1965)

इस मामले  में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने राय दी कि जब अनुबंध के उल्लंघन के कारण कोई दूरस्थ और अप्रत्यक्ष हानि या क्षति होती है, तो ऐसे परिदृश्य में अधिनियम की धारा 73 के तहत मुआवजा प्रदान नहीं किया जाएगा।

अपीलकर्ता – करसनदास एच. ठाकर

प्रतिवादी – सारण इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड

मामले के तथ्य

  • अपीलकर्ता ने प्रतिवादी पर अनुबंध के उल्लंघन और 20,700 रुपये के नुकसान की वसूली के लिए मुकदमा दायर किया था।
  • जुलाई 1952 में, उन्होंने और प्रतिवादी ने 200 टन लोहे के चूरे  की आपूर्ति के लिए एक अनुबंध में प्रवेश किया।
  • प्रतिवादी अनुबंध का पालन करने में विफल रहा और स्क्रैप लोहा वितरित नहीं किया, और प्रतिवादी ने 30 जनवरी, 1953 को एक पत्र में अनुबंध को पूरा करने में असमर्थता व्यक्त की।
  • इस बीच, अपीलकर्ता ने 200 टन स्क्रैप आयरन की आपूर्ति के लिए कलकत्ता में एक अन्य कंपनी के साथ अनुबंध किया था।
  • प्रतिवादी द्वारा अनुबंध के उल्लंघन के कारण, अपीलकर्ता लोहे के चूरे की आपूर्ति के लिए उसके और कंपनी के बीच किए गए अनुबंध को पूरा नहीं कर सका।
  • इस वजह से कंपनी को जरूरी स्क्रैप आयरन खुले बाजार से खरीदना पड़ा।
  • कंपनी ने अपीलकर्ता से स्क्रैप आयरन की अंतर राशि प्राप्त कर ली थी। अंतर राशि वह राशि है जो कंपनी ने स्क्रैप आयरन की खरीद के लिए भुगतान की थी और वह राशि जो उन्होंने पहले अपीलकर्ता को भुगतान की थी।
  • दूसरी ओर, उत्तरदाताओं ने कहा कि उनके और अपीलकर्ता के बीच कोई अनुबंध नहीं था और अपीलकर्ता को कोई नुकसान नहीं हुआ।
  • उन्होंने यह भी कहा कि स्क्रैप आयरन की नियंत्रित कीमत जुलाई 1952 और जनवरी 1953 में समान थी, वे दिन जब उन्होंने अनुबंध में प्रवेश किया था और वे दिन जब प्रतिवादी ने बंद करने की वांछनीयता की सूचना दी थी।
  • प्रतिवादी ने यह भी तर्क दिया कि वे उस राशि का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी नहीं थे जो अपीलकर्ता ने कलकत्ता में कंपनी को भुगतान किया था क्योंकि अपीलकर्ता ने प्रतिवादी को कंपनी के लिए या निर्यात के उद्देश्य से स्क्रैप आयरन खरीदने के अपने इरादे के बारे में सूचित नहीं किया था।
  • निचली अदालत वादी के पक्ष में था, निचली अदालत ने यह माना कि अपीलकर्ता हर्जाने का हकदार था क्योंकि प्रतिवादी ने अनुबंध का उल्लंघन किया था। 
  • हालाँकि, उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को पलट दिया।

शामिल मुद्दा

इस मामले में मुख्य मुद्दा यह उठा कि क्या अनुबंध का उल्लंघन हुआ है या नहीं।

न्यायालय का निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि प्रतिवादियों को यह नहीं पता था कि अपीलकर्ता निर्यात के लिए स्क्रैप लोहा खरीद रहा था, जैसा कि उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला था। इसलिए, जैसा कि अधिनियम की धारा 73 के तहत प्रदान किया गया है, अपीलकर्ता प्रतिवादी द्वारा अनुबंध के उल्लंघन के लिए मुआवजा प्राप्त करने का हकदार था, नुकसान या क्षति की स्थिति में, मुआवजा नहीं दिया जाएगा।

वर्तमान मामले में, प्रतिवादी द्वारा अनुबंध के उल्लंघन से अपीलकर्ता को हुई हानि शून्य होगी, और इसलिए, अनुबंध के उल्लंघन के कारण अपीलकर्ता को कोई हानि नहीं हुई। 

फ़तेह चंद बनाम बालकिशन दास (1963)

यह अनुबंध के उल्लंघन का एक और मामला  है, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने माना है। निम्नलिखित विवरण हैं:

याचिकाकर्ता-फतेहचंद

प्रतिवादी- बालकिशन दास

मामले के तथ्य

  • याचिकाकर्ता ने 21 मार्च 1949 को प्रतिवादी के साथ एक अनुबंध किया, जिसमें भूमि के एक टुकड़े और उस पर निर्मित भवन में पट्टे (लीजहोल्ड) के अधिकार प्रतिवादी को बेचे गए। 
  • अनुबंध के तहत, याचिकाकर्ता को 25,000 रुपये की राशि मिली, और उसने प्रतिवादी को इमारत और भूमि का कब्जा दिया। हालांकि, अनुबंध में उल्लिखित समय अवधि की समाप्ति के बाद बिक्री पूरी हो गई थी, और इस कारण से, दोनों पक्षों ने एक-दूसरे को दोषी ठहराया।
  • याचिकाकर्ता ने एक अधीनस्थ न्यायाधीश की अदालत में मुकदमा शुरू किया और उसे प्राप्त 25,000 रुपये की राशि को जब्त करने का दावा किया। उन्होंने भवन और भूमि की वितरित की तारीख से भवन के उपयोग और कब्जे के लिए मुआवजे के साथ-साथ भवन और भूमि का कब्जा रखने के लिए एक फरमान के लिए भी प्रार्थना की।
  • दूसरी ओर, प्रतिवादी ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता ने अनुबंध का उल्लंघन किया है, इसलिए, वह उसे प्राप्त 25,000 रुपये की राशि को जब्त नहीं कर सकता है और याचिकाकर्ता किसी भी मुआवजे का दावा नहीं कर सकता है। 
  • ट्रायल जज द्वारा यह माना गया था कि याचिकाकर्ता प्रतिवादी को संपत्ति के कब्जे में रखने में विफल रहा था, और इसलिए उसे 25,000 रुपये की राशि जमा करनी होगी। 
  • हालांकि, दिल्ली में पंजाब उच्च न्यायालय (सर्किट बेंच) ने ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित डिक्री को संशोधित किया और कहा कि याचिकाकर्ता बिक्री समझौते के तहत प्रतिवादी द्वारा भुगतान किए गए 25,000 रुपये को बनाए रखने का हकदार था और यह भी निर्देश दिया कि प्रतिवादी याचिकाकर्ता को संपत्ति का उपयोग करने के लिए मुआवजे का भुगतान करे। 
  • दिल्ली में पंजाब उच्च न्यायालय (सर्किट बेंच) द्वारा पारित आदेश के खिलाफ सर्वोच्च कोर्ट के समक्ष अपील दायर की गई थी।
  • पंजाब उच्च न्यायालय (सर्किट बेंच) द्वारा पारित आदेश के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की गई थी।

शामिल मुद्दे

अनुबंध के उल्लंघन के संबंध में मुख्य रूप से दो मुद्दे शामिल थे:

  1. किस पक्ष ने अनुबंध का उल्लंघन किया?
  2. क्या परिनिर्धारित हर्जाने के खंड की व्याख्या दंड खंड के रूप में की जा सकती है

न्यायालय का निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय के पक्ष में था, जिसने पाया कि प्रतिवादी ने अनुबंध का उल्लंघन किया था और अधिनियम की धारा 74 का उल्लेख किया था। न्यायालय ने अधिनियम की धारा 74 की व्याख्या की, जिसमें कहा गया है कि “अनुबंध में दंड के रूप में कोई अन्य शर्त शामिल है”। न्यायालय ने देखा कि धारा का यह खंड प्रत्येक अनुबंध पर लागू होता है जिसमें जुर्माना होता है और भविष्य में धन या संपत्ति की वितरित के लिए अनुबंध के उल्लंघन पर भुगतान के मामलों में या पहले से ही वितरित की गई अन्य संपत्ति के लिए धन के अधिकार की जब्ती के मामलों में भी लागू होता है। न्यायालय ने आगे कहा कि इस धारा के तहत, अदालतों पर जुर्माना खंड लागू नहीं करने बल्कि केवल उचित मुआवजा देने का प्रावधान है। 

मौला बक्स बनाम भारत संघ (1969)

इस मामले  में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने वादी को अनुबंध के उल्लंघन का दोषी पाया। आइए मामले को विस्तार से समझते हैं:

अपीलकर्ता/वादी- मौला बक्स

प्रतिवादी- भारत संघ

मामले के तथ्य

  • अपीलकर्ता और प्रतिवादी ने कुछ वस्तुओं की आपूर्ति (सप्लाई) के लिए एक अनुबंध किया। अनुबंध के उचित निष्पादन (ड्यू परफॉरमेंस) के लिए अपीलकर्ता द्वारा सुरक्षा के रूप में एक राशि जमा की गई थी।
  • अनुबंध में यह निर्धारित किया गया था कि यदि अपीलकर्ता अनुबंध का पालन करने में विफल रहता है, तो प्रतिवादी द्वारा अनुबंध रद्द कर दिया जाएगा और सुरक्षा जमा राशि जब्त कर ली जाएगी।
  • इसके बाद, अपीलकर्ता अनुबंध के अपने हिस्से को पूरा करने में विफल रहा, यानी, प्रतिवादी को माल की आपूर्ति नहीं करके। प्रतिवादी ने अनुबंध रद्द कर दिया और जमा राशि भी जब्त कर ली। 
  • इसके बाद अपीलकर्ता ने ब्याज सहित जमा राशि की वसूली के लिए मुकदमा दायर किया।
  • व्यवहार न्यायाधीश, लखनऊ की अदालत ने प्रतिवादी को अनुबंध रद्द करने को उचित ठहराते हुए एक हुक्मनामा पारित किया। हालाँकि, न्यायालय द्वारा यह भी माना गया कि प्रतिवादी सुरक्षा के रूप में जमा की गई राशि को जब्त नहीं कर सकता क्योंकि अपीलकर्ता द्वारा अनुबंध को पूरा न करने के कारण उन्हें कोई नुकसान नहीं हुआ। 
  • हालाँकि, लखनऊ उच्च न्यायालय ने निचली अदालत द्वारा पारित हुक्मनामे को संशोधित किया। संशोधित हुक्मनामे में प्रतिवादी को जमा राशि का एक बड़ा हिस्सा हर्जाने के रूप में दिया गया। न्यायालय ने यह भी कहा कि जमा की गई राशि को जब्त करना अनुचित नहीं है क्योंकि यह राशि अनुबंध के उचित पालन के लिए जमा की गई थी और राशि सुरक्षा के रूप में जमा की गई थी। 
  • लखनऊ उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि अधिनियम की धारा 74 उस परिदृश्य में लागू नहीं होती है और जमा की गई राशि को “बयाना राशि” माना जा सकता है। बयाना राशि का मूल रूप से मतलब किसी अनुबंध की पुष्टि के लिए भुगतान की गई राशि से है। 

न्यायालय का निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि लखनऊ उच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता के दावे को अस्वीकार करके गलती की। सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के हुक्मनामे को रद्द कर दिया और हुक्मनामे में कुछ प्रतिस्थापन किए। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि भारत संघ, यानी प्रतिवादी, को अपीलकर्ता को मुकदमे की तारीख से भुगतान होने तक हित के साथ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्दिष्ट राशि का भुगतान करना होगा। यह भी माना गया कि अपीलकर्ता अनुबंध के उल्लंघन का दोषी था और अपीलकर्ता की विफलता के कारण प्रतिवादी को असुविधा हुई।

इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि उचित आदेश देने के लिए, अनुबंध के दोनों पक्षों को अपनी लागत स्वयं वहन करनी होगी।

मेसर्स कंस्ट्रक्शन एंड डिज़ाइन सर्विसेज बनाम दिल्ली विकास प्राधिकरण (2015)  

यह मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक अपील मामला है। मामले का विवरण निम्नलिखित है:

अपीलकर्ता – मेसर्स कंस्ट्रक्शन एंड डिज़ाइन सर्विसेज

प्रतिवादी – दिल्ली विकास प्राधिकरण

मामले के तथ्य

  • प्रतिवादी को दिल्ली में सीजीएचएस क्षेत्र में नाली व्यवस्था पंपिंग स्टेशन के निर्माण के लिए अपीलकर्ता द्वारा एक अनुबंध दिया गया था। 
  • अनुबंध के अनुसार, ठेकेदार, यानी, अपीलकर्ता, अनुबंध में प्रदान की गई समय अवधि का पालन करेगा, और यदि अपीलकर्ता निर्धारित शर्तों का पालन नहीं करता है, तो वे मुआवजे का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होंगे, जो “बराबर राशि” होगी। एक प्रतिशत या इतनी कम राशि तक कि दिल्ली विकास प्राधिकरण (अथॉरिटी) के अधीक्षण अभियंता प्रतिदिन पूरे कार्य की अनुमानित लागत तय कर सकते हैं, जिससे कार्य की उचित गुणवत्ता अधूरी रह जाए।”
  • कार्य की धीमी गति के कारण अपीलार्थी समयावधि में कार्य पूर्ण नहीं कर सका और अनुबंध समाप्त कर दिया गया। 
  • जैसा कि अनुबंध में उल्लेख किया गया है, अब अधीक्षण अभियंता (इंजीनियर) ने अपीलकर्ता को दंड के आदेश द्वारा परियोजना के निष्पादन में देरी के कारण हर्जाने के लिए कहा। इसके बाद, उन्होंने अपीलकर्ता को राशि जमा करने के लिए बुलाया। 
  • हालाँकि, अपीलकर्ता उक्त आदेश का जवाब देने में विफल रहा, जिसके कारण प्रतिवादी ने ब्याज सहित राशि की वसूली के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष मुकदमा दायर किया।
  • एकल न्यायाधीश ने मुकदमे को खारिज कर दिया और माना कि अपीलकर्ता ने अनुबंध के निष्पादन के लिए निर्धारित समयावधि को सार के रूप में नहीं माना है और इसलिए अनुबंध में उल्लिखित मुआवजे का भुगतान दंड की प्रकृति के रूप में अपीलकर्ता द्वारा किया जाना चाहिए।
  • अपील पर खंडपीठ (डिवीज़न बेंच) ने कहा कि निर्माण में देरी मुआवजे का आधार है।

न्यायालय का निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अपीलकर्ता अनुबंध में तय समय अवधि के भीतर काम पूरा करने में विफल रहा। काम में इस देरी के कारण, प्रतिवादी उचित मुआवजा प्राप्त करने का हकदार है। अदालत ने आगे कहा, “नुकसान की सटीक राशि का सबूत संभव नहीं हो सकता है, लेकिन उल्लंघन करने वाले पक्ष द्वारा किसी भी सबूत के अभाव में कि उल्लंघन की शिकायत करने वाले पक्ष को कोई नुकसान नहीं हुआ था, अदालत को अनुमान लगाने के काम पर आगे बढ़ना होगा कि दी गई परिस्थितियों में मुआवजे की मात्रा कितनी होगी। क्यूंकि प्रतिवादी यह दिखाने के लिए सबूत भी दे सकता था कि किए गए काम के लिए भुगतान की गई अधिक राशि की सीमा या कोई अन्य विशिष्ट सामग्री पेश की गई थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया, इसलिए हमारा विचार है कि उचित मुआवजे के रूप में दावा की गई राशि का आधा देना उचित होगा”।

इसलिए, अपील को आंशिक रूप से अनुमति दी गई थी, दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा पारित हुक्मनामे को संशोधित किया गया था, और प्रतिवादी ब्याज के साथ दावा की गई राशि का आधा हिस्सा प्राप्त करने का हकदार था। 

निष्कर्ष 

अनुबंध के उल्लंघन से हानि या नुकसान होती है। अनुबंध के दोनों पक्षों को नुकसान होता है। एक पक्ष को दूसरे पक्ष द्वारा दायित्व पूरा न करने के कारण मौद्रिक या अन्य प्रकार का नुकसान होता है, और दूसरा पक्ष (उल्लंघन करने वाला पक्ष) मुआवजे का भुगतान करके ज्यादातर मौद्रिक रूप में नुकसान उठाता है। उपरोक्त मामलों में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनुबंध के उल्लंघन के लिए भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 के प्रावधानों की त्रुटिहीन व्याख्या की। यह निष्कर्ष निकाला गया है कि जहां भी अनुबंध का उल्लंघन होता है, नुकसान या क्षति झेलने वाले पक्ष को अदालतों से उचित मुआवजा मिलेगा। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू) 

परिनिर्धारित हर्जाने और जुर्माने के बीच क्या अंतर है?

परिनिर्धारित हर्जाने अनुबंध के किसी भी पक्ष को हुए नुकसान का एक पूर्व निर्धारित अनुमान है, जबकि जुर्माना एक ऐसा जुर्माना है जो दोनों पक्षों में से किसी एक पक्ष को हुए नुकसान के अनुपात से अधिक है। परिनिर्धारित हर्जाने वह मुआवजा है जो हुए नुकसान के बराबर होता है, जबकि जुर्माना अनुबंध के उल्लंघन के परिणामस्वरूप होने वाले नुकसान से अधिक होता है।

बयाना राशि क्या है?

प्रिवी काउंसिल ने कुँवर चिरंजीत सिंह बनाम हर स्वरूप मामले में कहा, “जब लेन-देन आगे बढ़ता है तो बयाना राशि खरीद मूल्य का हिस्सा होती है: जब लेन-देन विफल हो जाता है, तो विक्रेता (वेंडी) की गलती या विफलता के कारण इसे जब्त कर लिया जाता है।”  इसलिए, बयाना राशि एक जमा राशि है जो अनुबंध पूरा होने के बाद कीमत के आंशिक भुगतान के रूप में क्रेता द्वारा की जाती है। यह विक्रेता से सामान खरीदने के क्रेता के इरादे को दर्शाता है। 

संदर्भ

 

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